अनेन मनुना मन्त्री ग्रहग्रस्तं प्रमार्जयेत् ।।
आक्रन्दन्स्तं विमुच्याथ ग्रहः शीघ्रं पलायते ।। ७५-१०४।
"अनुवाद:- इस मनु(मन्त्र) से मन्त्रवाचक द्वारा ग्रह से पकड़े हुए व्यक्ति का मार्जन करने पर ग्रह रुदन करते हुए व्यक्ति को मुक्त करके ग्रह शीघ्र पलायन कर जाते हैं अथवा भाग जाते हैं।१०४।
मनवोऽमी सदागोप्या न प्रकाश्या यतस्ततः ।।
परीक्षिताय शिष्याय देया वा निजसूनवे । ७५-१०५।
"अनुवाद:-यह मन्त्र अत्यधिक गुप्त है।इसे यहाँ- वहाँ प्रकाशित न करें अच्छी तरह परीक्षित शिष्य अथवा अपने पुत्र को ही इस मन्त्र की दीक्षा ( गुरु- उपदेश) दें।१०५।
हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।
"अनुवाद:- -हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना करके विशेष फल का लाभ करें।।१०४-१०६।।
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नारद पुराण पूर्वाद्ध-75 वाँ अध्याय
श्रीबृहन्नारदीयपुराण पूर्वभाग बृहदुपाख्यान तृतीयपाद दीपविधिनिरूपणं नामक पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः।७५।
नारदपुराणम्- पूर्वार्द्ध अध्यायः ७६
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"नारद उवाच।
कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः ।१।
कार्तवीर्य आदि से लेकर पृथ्वी पर बहुत प्रकार के राजा हुए। वे अपने कर्मों के अनुसार उत्पन्न होते हैं और फिर विलीन होते रहते हैं।76-1।
तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः ।।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम् ।।२।।
"अनुवाद:-तो यह नेक राजा और अन्य राजाओं को लाँघ कर इस दुनिया में पूजा योग्य होकर कैसे आया ? मेरा यह संदेह दूर करो ।76-2।
"सनत्कुमार उवाच।
श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये ।।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।३।
सनत्कुमार ने कहा।
हे नारद सुनिए कि मैं आपके संदेह को दूर करने के लिए आपको वह सब बताऊँगा। जैसे पृथ्वी पर कार्तवीर्य अर्जुन पूजनीय हुआवह सब।76-3।
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले ।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम् ।४।
"अनुवाद:-वह कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। दत्तात्रेय की पूजा करने से उन्हें उत्तम तेज की प्राप्ति हुई।76-4।
तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम्।५।।
"अनुवाद:- "सनत्कुमार ने कहा"
हे नारद पृथ्वी के स्वामी सहस्रबाहु को याद करने से युद्ध में शत्रुओं पर जीत होती है और जिसने जो खोया है उसे वह भी शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। 76-5।
तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ।।
तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम्।६।
"अनुवाद:- इसलिए उनके द्वारा उनके सभी तंत्रों में मन्त्र और उपासना पूजा आदि छुपी हुई है।
मैं तुम्हारे लिए समस्त सिद्धियों के दाता के रूप में वह सब प्रकाशित करूंगा ।76-6।
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वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नीन्दुशांतियुक् ।।
वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।७।
"अनुवाद:- अग्नि और तारों से युक्ता रूद्राणी है तो लक्ष्मी के साथ अग्नि "चन्द्रमा और शांति भी है।
वेध के धारक ब्रह्मा में चंद्रमा की शांति और समृद्धि है और नींद और आशा की आग में एक केन्द्र भी है।76-7।
पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीर्यपदम् ।
रेफोवाद्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।८।
"अनुवाद:- रस्सी (पाश) मायावी अंकुश " और कमल की ढाल कार्तवीर्य का अस्त्र है। रेफ और वाद्यासन कानों में अनन्त अग्नि स्थित हैं।76-8।
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ।९ ।
"अनुवाद:-मेष राशि सबसे लंबी हवा है और मन्त्र में कहा हुआ हृदय में सबसे अन्तिम है। उनतीस वर्णो के हैं। तारों आदि का रंग नाखून जैसा है। 76-9
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दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम्।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत्।१०।
"अनुवाद:-ऋषि दत्तात्रेय ने अनुष्टुभ मंत्र का जाप किया। कार्तवीर्य अर्जुन देवरूप में बीज शक्ति के देवता हैं और ध्रुव हृदय हैं ।76-10।
शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः।
शांतियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम् ।११।
"अनुवाद:-समृद्ध बीजों की शेष जोड़ी के साथ हृदय के नीचे विन्यास करें । चौथा, जो शांतिपूर्ण है, शिर के अंग ,जहाँ से कामना शुरू होती है वहाँ न्यास करें।76-11।
इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।
शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत्।१२।
"अनुवाद:-यह चन्द्रमा से युक्त है और बायें कान से तथा शरीर के अन्य अंगों में बीस से सुसज्जित है। शब्द के साथ ढाल को सिर, अंकुश और कमल पर विन्यास करना चाहिए।76-12।
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।।
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।।१३ ।।
दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जंघयोः ।।
विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।१४ ।।
ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके।१५।
सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम्।१६।
कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।६-१६।
उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।१७ ।।
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दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् ।।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८।
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लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।
सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।१९ ।
षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।।
चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभञ्जनम् ।२०।।
अरिमदविभञ्जनं दैत्यमदविभञ्जनम् ।।
दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।२१।
दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः ।।
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।२२।
आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः।
धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।२३।
एवं संसाधितो मंत्रः प्रयोगार्हः प्रजायते ।।
कार्तवीर्यार्जुनस्याथ पूजायन्त्रमिहोच्यते ।२४।
स्वबीजानंगध्रुववाक्कर्णिकं दिग्दलं लिखेत् ।।
तारादिवर्मांतदलं शेषवर्णदलांतरम् ।२५।
ऊष्मान्त्यस्वरकिंजल्कं शेषार्णैः परिवेष्टितम् ।।
कोणालंकृतभूतार्णभूगृहं यन्त्रमीशितुः।२६ ।
ध्यान :- इनकी कान्ति( आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और 500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।
ध्यान के उपरांत एक लाख और जप के उपरान्त होम तिल चावल तथा पायस( खीर ) से पूजा करके विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में षडंगदेवगण की पूजा करें। इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और र दु:ख का तथा पाप का नाश होता है। पूर्वादिक्( पूर्व दिशा) में आठ कृष्ण वर्ण प्रभा शक्ति की पूजा करें । ये लोक पालिका शक्ति है। क्षेमकरी वश्यकरी" श्रीकरी यशस्करी आयुष्करी प्रज्ञाकरी विद्याकरी तथा धर्मकार्याष्टमी तथा अस्त्रों के साथ लोकपाल गण की पूजा करनी चाहिए-।१९-२३।
इस प्रकारइस प्रकार मन्त्र सिद्ध करके प्रयोग के लिए वह साधक कार्य करे अब कार्तवीर्य भगवान् की पूजा का यन्त्र कहा जाता है।२४।
बीज काम ध्रुव वाक् कर्णिका से युक्त दिक्पत्र अंकित करें । स्वर वर्ण कमल का अन्तिम पत्र होगा शेष वर्ण अन्य पत्र पर होंगें। श" ष" स" ह" औ" केसर हैं। वह बाकी वर्णों से घिरा है। कोण से सज्जित चतुर्दश वर्णात्मक भृगु ह यन्त्र ही कार्तवीर्य है। २५-२६।
शुद्धभूमावष्टगन्धैर्लिखित्वा यन्त्रमादरात् ।।
तत्र कुंभं प्रतिष्ठाप्य तत्रावाह्यार्चयेन्नृपम् ।२७।
स्पृष्ट्वा कुंभं जपेन्मन्त्रं सहस्रं विजितेंद्रियः ।।
अभिषिं चेत्तदम्भोभिः प्रियं सर्वेष्टसिद्धये ।२८ ।
पुत्रान्यशो रोगनाशमायुः स्वजनरंजनम् ।।
वाक्सिद्धिं सुदृशः कुम्भाभिषिक्तो लभते नरः।२९।
शत्रूपद्रव आपन्ने ग्रामे वा पुटभेदने ।।
संस्थापंयेदिदं यन्त्रं शत्रुभीतिनिवृत्तये ।३०।
सर्षपारिष्टलशुनकार्पासैर्मार्यते रिपुः ।।
धत्तूरैः स्तभ्यते निम्बैर्द्वेष्यते वश्यतेंऽबुजैः ।३१।
उच्चाटने विभीतस्य समिद्भिः खदिरस्य च ।।
कटुतैलमहिष्याज्यैर्होमद्रव्यांजनं स्मृतम् ।३२।
यवैर्हुते श्रियः प्राप्तिस्तिलैराज्यैरघक्षयः।
तिलतंडुलसिद्धार्थजालैर्वश्यो नृपो भवेत् ।३३।
अपामार्गार्कदूर्वाणां होमो लक्ष्मीप्रदोऽघनुत् ।।
स्त्रीवश्यकृत्प्रियंगूणां मुराणां भूतशांतिदः।३४।
अश्वत्थोदुंबरप्लक्षवटबिल्वसमुद्भवाः ।।
समिधो लभते हुत्वा पुत्रानायुर्द्धनं सुखम् ।३५।
निर्मोकहेमसिद्धार्थलवणैश्चौरनाशनम् ।।
रोचनागोमयैस्तंभो भूप्राप्तिः शालिभिर्हुतैः ।३६।
होमसंख्या तु सर्वत्र सहस्रादयुतावधि ।।
प्रकल्पनीया मन्त्रज्ञैः कार्य्यगौरवलाघवात् ।३७।
कार्तवीर्य्यस्य मन्त्राणामुच्यते लक्षणं बुधाः ।।
कार्तवीर्यार्जुनं ङेंतं सर्वमंत्रेषु योजयेत् ।३८ ।
स्वबीजाद्यो दशार्णोऽसौ अन्ये नवशिवाक्षराः ।।
आद्यबीजद्वयेनासौ द्वितीयो मन्त्र ईरितः ।३९ ।।
स्वकामाभ्यां तृतीयोऽसौ स्वभ्रूभ्यां तु चतुर्थकः।।
स्वपाशाभ्यां पञ्चमोऽसौ षष्टः स्वेन च मायया।४०।
स्वांकुशाभ्यां सप्तमः स्यात्स्वरमाभ्यामथाष्टमः।।
स्ववाग्भवाभ्यां नवमो वर्मास्त्राभ्यामथांतिमः।४१।
द्वितीयादिनवान्तेषु बीजयोः स्याद्व्यतिक्रमः ।।
मन्त्रे तु दशमे वर्णा नववर्मास्त्रमध्यगाः ।४२।
एतेषु मन्त्रवर्येषु स्वानुकूलं मनुं भजेत् ।।
एषामाद्ये विराट्छदोऽन्येषु त्रिष्टुबुदाहृतम् ।७६-४३।
दश मन्त्रा इमे प्रोक्ता यदा स्युः प्रणवादिकाः ।।
तदादिमः शिवार्णः स्यादन्ये तु द्वादशाक्षराः ।४४।
त्रिष्टुपूछन्दस्तथाद्ये स्यादन्येषु जगती मता ।।
एवं विंशतिमंत्राणां यजनं पूर्ववन्मतम ।४५।
दीर्घाढ्यमूलबीजेन कुर्यादेषां षडंगकम् ।।
तारो हृत्कार्तवीर्यार्जुनाय वर्मास्त्रठद्वयम् ।४६।
चतुर्दशार्णो मंत्रोऽयमस्येज्या पूर्ववन्मता।
भूनेत्रसमनेत्राक्षिवर्णेरस्यांगपंचकम् ।४७।
तारो हृद्भगवान् ङेंतः कार्तवीर्यार्जुनस्तथा ।।
वर्मास्त्राग्निप्रियामंत्रः प्रोक्तो ह्यष्टादशार्णकः ।४८।
त्रिवेदसप्तयुग्माक्षिवर्णैः पंचांगकं मनोः ।
नमो भगवते श्रीति कार्तवीर्यार्जुनाय च ।४९ ।
सर्वदुष्टांतकायेति तपोबलपराक्रमः ।।
परिपालितसप्तांते द्वीपाय सर्वरापदम् ।५० ।
जन्यचूडामणांते ये महाशक्तिमते ततः ।।
सहस्रदहनप्रांते वर्मास्त्रांतो महामनुः ।५१।
त्रिषष्टिवर्णवान्प्रोक्तः स्मरमात्सर्वविघ्नहृत् ।।
राजन्यक्रवर्ती च वीरः शूरस्तृतीयकः।५२ ।
माहिष्मतीपतिः पश्चाञ्चतुर्थः समुदीरितः ।।
रेवाम्बुपरितृप्तश्च काणो हस्तप्रबाधितः।५३।
दशास्येति च षड्भिः स्यात्पदैर्ङेतैः षडंगकम् ।।
सिंच्यमानं युवतिभिः क्रीडंतं नर्मदाजले ।५४।
हस्तैर्जलौधं रुंधंतं ध्यायेन्मत्तं नृपोत्तमम् ।।
एवं ध्यात्वायुतं मंत्रं पजेदन्यत्तु पूर्ववत् ।५५।।
पूर्वं तु प्रजपेल्लक्षं पूजायोगश्च पूर्ववत् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।५६।
तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च संवदेत् ।।
लभ्यते मंत्रवर्योऽयं द्वात्रिंशद्वर्णसंयुतः ।५७।
पादैः सर्वेण पंचांगं ध्यानपूजादि पूर्ववत् ।।
कार्तवीर्याय शब्दान्ते विद्महे पदमुञ्चरेत् ।५८।
महावीर्याय वर्णांते धीमहीति पदं वदेत् ।
तन्नोऽर्जुनः प्रवर्णांते चोदयात्पदमीरयेत् ।५९।
गायत्र्येषार्जुन स्योक्ता प्रयोगादौ जपेत्तु ताम् ।।
अनुष्टुभं मनुं रात्रौ जपतां चौरसंचयाः ।६०।
पलायन्ते गृहाद्दूरं तर्पणाद्ध्रवनादपि ।।
अथो दीपविधिं वक्ष्ये कार्तवीर्यप्रियंकरम् ।६१ ।
वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्तिकाश्विनपौषतः ।।
माघफाल्गुनयोर्मासोर्दीपारंभं समाचरेत् ।६२ ।।
इसे पवित्र भूमि पर अष्टगन्ध से सादर लिखे तथा वहाँ घट स्थानों करके उस पर आवाहन पूजन सम्पन्न करे तत्पश्चात इन्द्रिय संयमित रखें तथा घट का स्पर्श करके एक हजार मन्त्र जाप करके उसी जल से साधक अपना अभिषेक करे यह सर्वकामना फलप्रद प्रयोग है। इस जलाभिषेक( स्नान) द्वारा मानव वाँछित पुत्र -यश आरोग्य लोकप्रियता वाक्- सिद्धि तथा सुन्दर दृष्टि लाभ प्राप्त करता है।।२७-२९।
इस मन्त्र के साथ सरसों नीम लहसुन तथा कपास से जो होम करता है। उसके शत्रु भाग जाते हैं। धतूरे से होम द्वारा शत्रु स्तम्भन नीम से होम द्वारा शत्रु में आपसी द्वेष कमल के होम से वशीकरण बहेड़ा की लकड़ी तथा खैर की लकड़ी को सरसों के तेल तथा महिषी ( भैंस) के घी में सींच करके होम द्वारा उच्चाटन यव ( जौ)होम से लक्ष्मी लाभ घृताक्त तिल द्वारा पाप का नाश होता है।तिल- चावल और श्वेत सरसों से होम करने पर राजा भी वशीभूत हो जाता है ।३०-३३।
अपमार्ग तथा दूर्वा का होम करने से - लक्ष्मी प्राप्ति - पापक्षय प्रियंगु होम से - स्त्रीवशीकरण -
मुरा के होम से - भूत उपद्रवनाश-
पीपल गूलर वट बिल्व समिद् होम से- पुत्र आयु धन सुख लाभ-स्वर्ण सफेद सरसों सर्प- केंचुल से नमक होम - चोरनाश-
गोरोचन गोबर होम से -स्तम्भन ।
तण्डुल होम से - भूलाभ-
जैसा छोटा बड़ा कार्य हो उसके अनुसार मन्त्रज्ञ व्यक्ति 1000- 10000 तक जप करे -।३४-३७।
विद्वान् लोग कार्तवीर्य अर्जुन मन्त्र लक्षण इस प्रकार बतलाते हैं।
प्रथम लक्षण:-उसमें कार्तवीर्य-अर्जुना़य रहे आदि में स्वबीज (कार्तवीर्य बीज) लगाने से १० अक्षर का मन्त्र होगा । परन्तु जिसमें आद्य बीज नहीं होगा वह ९ अक्षर का मन्त्र होगा।यह दो प्रकार का मन्त्र है।यह द्वितीय लक्षण है। स्वकामाभ्याम् तृतीय लक्षणात्मक मन्त्र है।स्वभ्रूभ्याम् स्वपाशाभ्याम् पञ्चम, स्वेन चमायया षष्ठ स्वांकुशाभ्याम् सप्तम, स्वरमाभ्याम् अष्टम । स्ववाग्मवाभ्यां नवम ।वर्मास्त्राभ्याम् दशम मन्त्र है। । द्वितीय मन्त्र से लेकर नवम मन्त्र तक दो बीजों का व्यतिक्रम रहता है। दशम मन्त्र में वर्ण नव वरमास्त्र" हुं फट् "के मध्य हो।३८-४२।
इनमें जो मन्त्र अनुकूल लगे उसे जपे ।इसमें प्रथम मन्त्र का छन्द विराट् है । द्वितीय मन्त्र का छन्द त्रिष्टुप है ये दशो मन्त्र जब ऊंँ अक्षर से युक्त होते हैं तब एकाक्षर होते हैं। अन्य तब द्वादश हो जाते हैं ।उस आद्य मन्त्र का छन्द होगा त्रिष्टुप तथा अन्य मन्त्र का छन्द होगा जगती ।इस प्रकार इन बींस मन्त्रों का यजन पूर्ववत् ही करें ।।४३-४५।।
पहले एक लाख मन्त्र जपोरान्त पूजादि पूर्ववत् करें " कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान् तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते यह ३२ वर्ण का मन्त्र हैं।५६-५७।
इनके सभी पाद में पंचांगन्यास ध्यान पूजन पूर्ववत् करें " कार्तवीर्याय विद्महे "महावीर्याय धीमहि तन्नो अर्जुनाय प्रचोदयात् यह अर्जुन गायत्री है इसके सभी प्रयोग के प्रारम्भ में यह गायत्री जप करें जो रात
में इसका जप करता है। चोर उसके यहाँ से दूर भाग जाते हैं।मन्त्र अनुष्टुप छन्द में हैं।इसमें तर्पण हवन भी करना चाहिए अब भगवान् कार्तवीर्य अर्जुन को प्रिय लगने वाली विधि कहता हूँ।।५८-६१।।
वैशाख श्रावण अगहन कार्तिक आश्विन पौष माघ फाल्गुन मास में दीपारम्भ करें तिथि रिक्ता न हो शनिवार मंगल वार न हो तथा हस्त ,उत्तराषाणा,न अश्वनी रौद्रेय पुष्य वैष्णव वायु द्विदैवत् नक्षत्र तथा रोहिणी नक्षत्र हों। इसमें दीपारम्भ हित प्रद होता है। चरम व्यतीपात धृति वृद्धि प्रीति हर्ष सौभाग्य शोभन तथा आयुष्मान् योग जब हो ।विष्टिरहित करण हो ग्रहण में अद्धोदय योग के पूर्व रात्रि काल में दीपारम्भ शुभ है ।
तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ विना ।।
हस्तोत्तराश्विरौद्रेयपुष्यवैष्णववायुभे ।६३ ।।
द्विदैवते च रोहिण्यां दीपारंभो हितावहः ।।
चरमे च व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ सुकर्मणि ।६४ ।।
प्रीतौ हर्षं च सौभाग्ये शोभनायुष्मतोरपि ।।
करणे विष्टिरहिते ग्रहणेऽर्द्धोदयादिषु ।६५ ।।
योगेषु रात्रौ पूर्वाह्णे दीपारंभः कृतः शुभः ।।
कार्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीव शोभनः ।६६।
यदि तत्र रवेर्वारः श्रवणं भं च दुर्लभम् ।।
अत्यावश्यककार्येषु मासादीनां न शोधनम् ।६७।
आद्ये ह्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी सपीतकैः ।।
प्रातः स्नात्वा शुद्धभूमौ लिप्तायां गोमयोदकैः ।६८।
प्राणानायम्य संकल्प्य न्यासान्पूर्वोदितांश्चरेत् ।।
षट्कोणं रचयेद्भूमौ रक्तचंदनतंडुलैः ।६९ ।
अतःस्मरं समालिख्य षट्कोणेषु समालिखेत् ।
नवार्णैर्वेष्टयेत्तञ्च त्रिकोणं तद्बहिः पुनः ।७० ।
एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद्दीपभाजनम् ।
स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः ।७१।
कांस्यपात्रं मृण्मयं च कनिष्ठं लोहजं मृतौ ।।
शांतये मुद्गचूर्णोत्थं संधौ गोधूमचूर्णजम् ।७२ ।।
आज्ये पलसहस्रे तु पात्रं शतपलं स्मृतम् ।।
आज्येऽयुतपले पात्रं पलपंचशता स्मृतम् ।७३ ।।
पंचसप्ततिसंख्ये तु पात्रं षष्टिपलं स्मृतम् ।।
त्रिसाहस्री घृतपले शर्करापलभाजनम् ।७४ ।।
द्विसाहख्त्र्यां द्विशतमितं च भाजनमिष्यते ।।
शतेऽक्षिचरसंश्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् ।७५ ।।
नित्यदीपे वह्निपलं पात्रमाज्यं पलं स्मृतम् ।।
एवं पात्रं प्रतिष्ठाप्य वर्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत्।७६।
एका तिस्रोऽथवा पंचसप्ताद्या विषमा अपि।
तिथिमानादासहस्रं तंतुसंख्या विनिर्मिता।७७।
गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् ।।
सहस्रपलसंख्यादिदशांशं कार्यगौरवात् ।७८ ।।
सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशांगुलाम् ।।
तदर्द्धां वा तदर्द्धां वा सूक्ष्माग्रां स्थूलमूलिकाम्।७९।
कार्तिक शुक्ल सप्तमी की रात्रि में दीपदान अत्यन्त शुभ है। यदि तब रवि बार और श्रावण नक्षत्र हो तब तो मानों वह अति दुर्लभ योग है। लेकिन जब कार्य अत्यधिक आवश्यक हो तो महीना आदि का विचार न करें।६२-६७।
पहले दिन साधक ब्रह्मचारी उपवासी रहे यह नियम पालन पूर्वक रहते अगले दिन सुबह स्नान के बाद भूमि पर गोबर से लीप करके पवित्र करे तदोपरान्त प्राणायाम तथा संकल्प करके पूर्वोक्त प्रकार से न्यास करे ।तत्पश्चात भूमि पर षट्कोण को लाल चन्दन तथा तण्डुल चूर्ण से बनाऐ-वहाँ कामदेव को बनाकर षट्कोण निर्माण करे अब उस कामदेव आकृति को नानाक्षरों से घेरे बहिर्भाग में त्रिकोण रचना करे अब इस यन्त्र पर दीपक रखे वह दीपक का पात्र स्वर्ण ,चाँदी अथवा ताम्र का हो यदि यह भी सुलभ नहरों तो कांस्य या मिट्टी की दीपक बनाऐं मारण कार्यार्थ लौह का शान्ति कार्यार्थ मूग के आटे का सन्धि कार्य के लिए गेंहूँ के आटे का दीप पात्र निर्माण करें ।६८-७२।।
दीप में यदि घी एक हजार पल रखना हो तब सौ पल के मान से द्रव्य हो दश हजार पल घृतार्थ पाँच सौ पल परिणाम या दृव्य हो ७५ पल घृत हेतु ६०पल दृव्य तीन हजार पल घृत हेतु १७०० सौ पल दृव्य २०० पल घृत हेतु २००पल दृव्य १०० पल घृत हेतु १० पल दृव्य ग्रहण करें । नित्य दीप के लिए दृव्य का पात्र तथा एक पल घृत ही रहे इस प्रकार पात्र की प्रतिष्ठा करके उसमें सूत की बत्ती रखनी चाहिए ।७३-७६।
बत्ती १-३ ५-७ हों ।बत्ती की तन्तु संख्या १५ से १००० तक हो दीपक में गोघृत रखें वस्त्रपूत ( छना हुआ) हो यदि कार्य महान हैं तब पात्र में १००० पल घी छोड़ें।वहाँ एक उत्तम स्वर्ण शलाका १६ अंगुल की बनाकर रखें यह शलाका माप में १६ अथवा८ अथवा ४ अंगुल की तो रहे। अग्रभाग सूक्ष्म तथा मूल भाग स्थूल हो ।।७७-७९।
विमुंचेद्दक्षिणे पात्रमध्ये चाग्रे कृताग्रिकाम् ।।
पात्रदक्षिणदिग्देशे मुक्त्वां गुलचतुष्टयम् ।८० ।।
अधोग्रां दक्षिणाधारां निखनेच्छुरिकां शुभाम् ।।
दीपं प्रज्वालयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्वकम् ।८१।
दीपात्पूर्वत्र दिग्भागे सर्वतोभद्रमण्डले ।।
तण्डुलाष्टदले वापि विधिवत्स्थापयेद्धूटम् ।८२।
तत्रावाह्य नृपाधीशं पूजयेत्पूर्ववत्सुधीः ।।
जलाक्षतान्समादाय दीपं संकल्पयेत्ततः ।८३।
दीपसंकल्पमंत्रोऽयं कथ्यते द्वीषुभूमितः ।।
प्रणवः पाशमाये च शिखा कार्ताक्षराणि च ।८४।
कार्तवीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्र च।
बाहवे इति वर्णांते सहस्रपदमुच्चरेत्।८५।
क्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय च ।।
आत्रेयायानुसूयांते गर्भरत्नाय तत्परम् ।८६ ।
नमो ग्रीवामकर्णेंदुस्थितौ पाश इमं ततः ।।
दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष पदं पुनः ।८७ ।।
दुष्टान्नाशययुग्मं स्यात्तथा पातय घातय ।।
शत्रून् जहिद्वयं माया तारः स्वं बीजमात्मभूः ।८८ ।
वह्नीप्रिया अनेनाथ दीपवर्येण पश्चिमा ।।
भिमुखेनामुकं रक्ष अमुकांते वरप्रद ।८९ ।
मायाकाशद्वयं वामनेत्रचंद्रयुतं शिवा ।।
वेदादिकामचामुंडाः स्वाहा तु पूसबिंदुकौ ।९०।।
प्रणवोऽग्निप्रिया मंत्रो नेत्रबाणाधराक्षरः ।।
दत्तात्रेयो मुनिर्मालामंत्रस्य परिकीर्तितः ।९१।
छन्दोऽमितं कार्तवीर्युर्जुनो देवोऽखिलाप्तिकृत् ।।
चामुण्डया षडंगानि चरेत्षड्दीर्घयुक्तया ।९२।
ध्यात्वा देवं ततो मंत्रं पठित्वांते क्षिपेज्जजलम्।
गोविंदाढ्यो हली सेंदुश्चामुंडाबीजमीरितम् ९३।
ततो नवाक्षरं मंत्रं सहस्रं तत्पुरो जपेत् ।।
तारोऽनंतो बिंदुयुक्तो मायास्वं वामनेत्रयुक् ।९४।
कूर्माग्नी शांतिबिंद्वाढ्यौ वह्नि जायांकुशं ध्रुवम्।
ऋषिः पूर्वोदितोनुष्टुप्छंदोऽन्यत्पूर्ववत्पुनः ।९५।
सहस्रं मंत्रराजं च जपित्वा कवचं पठेत् ।।
एवं दीपप्रदानस्य कर्ताप्नोत्यखिलेऽप्सितम् ।९६ ।
दीपप्रबोधकाले तु वर्जयेदशुभां गिरम् ।।
विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं परिकीर्तितम् ।९७ ।
शूद्राणां प्रध्यमं प्रोक्तं म्लेच्छस्य वधबन्धनम् ।।
आख्वोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य सुखावहम् ।९८।
दीपज्वाला समा सिद्ध्यै वक्रा निशविधायिनी ।।
शब्दा भयदा कर्तुरुज्ज्वला सुखदा मता ।९९ ।
कृष्णा शत्रुभयोत्पत्त्ये वमन्ती पशुनाशिनी ।।
कृते दीपे यदा पात्रं भग्नं दृश्यते दैवतः ।१००।
पक्षादर्वाक्तदा गच्छेद्यजमानो यमालयम् ।
वर्त्यतरं यदा कुर्यात्कार्यं सिद्ध्येद्विलंबतः ।१०१ ।।
नेत्रहीनो भवेत्कर्ता तस्मिन्दीपान्तरे कृते ।।
अशुचिस्पर्शने व्याधिर्दीपनाशे तु चौरभीः। १०२ ।
श्वमार्जाराखुसंस्पर्शे भवेद्भूपतितो भयम् ।।
पात्रारंभे वसुपलैः कृतो दीपोऽखिलेष्टदः ।१०३।
तस्माद्दीपः प्रयत्नेन रक्षणीयोंऽतरायतः ।।
आसमाप्तेः प्रकुर्वीत ब्रह्मचर्यं च भूशयः ।१०४।
__________________
स्त्रीशूद्रपतितादीनां संभाषामपि वर्जयेत् ।।
जपेत्सहस्रं प्रत्येकं मंत्रराजं नवाक्षरम् ।१०५।
स्तोत्रपाठं प्रतिदिनं निशीथिन्यां विशेषतः ।।
एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो मंत्रनायकम् ।१०६।
सहस्रं प्रजपेद्वात्रौ सोऽभीष्टं क्षिप्रमाप्नुयात् ।।
समाप्य शोभनदिने संभोज्य द्विजसत्तमान् ।१०७।
कुंभोदकेन कर्तारमभिषिंचन्मनुं जपेत्।
कर्ता तु दक्षिणां दद्यात्पुष्कलां तोषहेतवे ।१०८।
गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्यसुतो नृपः ।
गुर्वाज्ञया स्वयं कुर्याद्यदि वा कारयेद्गुरुः ।१०९।
दत्त्वा धनादिकं तस्मै दीपदानाय नारद ।।
गुर्वाज्ञामन्तरा कुर्याद्यो दीपं स्वेष्टसिद्धये ।११०।
द्विसाहख्त्र्यां द्विशतमितं च भाजनमिष्यते ।।
शतेऽक्षिचरसंश्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् ।७५ ।।
नित्यदीपे वह्निपलं पात्रमाज्यं पलं स्मृतम् ।।
एवं पात्रं प्रतिष्ठाप्य वर्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत्।७६।
एका तिस्रोऽथवा पंचसप्ताद्या विषमा अपि।
तिथिमानादासहस्रं तंतुसंख्या विनिर्मिता।७७।
गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् ।।
सहस्रपलसंख्यादिदशांशं कार्यगौरवात् ।७८ ।।
सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशांगुलाम् ।।
तदर्द्धां वा तदर्द्धां वा सूक्ष्माग्रां स्थूलमूलिकाम्।७९।
____________
सिद्धिर्न जायते तस्य हानिरेव पदे पदे ।
उत्तमं गोघृतं प्रोक्तं मध्यमं महषीभवम् ।१११ ।
तिलतैलं तु तादृक् स्यात्कनीयोऽजादिजं घृतम्
आस्यरोगे सुगंधेन दद्यात्तैलेन दीपकम् ।११२।
_____________________
सिद्ध्वार्थसंभवेनाथ द्विषतां नाशनाय च ।।
सहस्रेण पलैर्दीपे विहिते च न दृश्यते ।११३।
कार्यसिद्धस्तदा कुर्यात् त्रिवारं दीपजं विधिम्।
तदा सुदुर्लभमपि कार्य्यं सिद्ध्व्येन्न संशयः।११४।
दीपप्रियः कार्तवीर्यो मार्तण्डो नतिवल्लभः।
स्तुतिप्रोयो महाविष्णुर्गणेश स्तपर्णप्रियः।११५।
___________________________________
दुर्गार्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियः शिवः ।।
तस्मात्तेषां प्रतोषाय विदध्यात्तत्तदादरात् ।११६।
____________________
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे कार्तवीर्यमाहात्म्यमन्त्रदीपकथनं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः ।७६।
अनुवाद:-
< नारद पुराण- पहला भाग
___________________
दो कवचधारी शस्त्रों द्वारा छोड़े गए अस्त्र शेष बाणों द्वारा पुन: व्यापक हो गए
हृदय में, उदर में, नाभि में, उदर में, गुदा से। 76-13।
दाएँ पैर पर, बाएँ पैर पर, जाँघों पर, घुटनों पर और जाँघों पर।
दस बीजों को दो ओंकारों के बीच में रखना चाहिए। 76-14।
फिर शेष तारों और अन्य को सिर और माथे पर रखा जाता है।
भौहें, कान, आंखें, नाक, मुंह, गला और गाल। 76-15।
वह समस्त मन्त्रों द्वारा पूजनीय था और उसके सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त था।
सभी इच्छाओं की पूर्ति के लिए लोगों के स्वामी कार्तवीर्य का ध्यान करना चाहिए 76-16।
वह एक हजार उगते सूर्यों के समान तेजस्वी था और सभी राजाओं द्वारा उसकी पूजा की जाती थी
दाहिने हाथ से पचास बाण और बायें हाथ से धनुष 76-17।
_______
उन्होंने सोने की माला पहन रखी थी और लाल वस्त्र ओढ़े हुए थे।
अर्जुन के राजा चक्र के अवतार भगवान विष्णु का ध्यान करना चाहिए। 76-18।
एक लाख मंत्रों का जाप करना चाहिए और उसका दसवां भाग तिलक लगाकर अर्पित करना चाहिए।
उन्होंने विष्णु के आसन पर चावल के साथ पायस अर्पित किया 76-19।
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फिर उसने छह पंखों को छह कोनों में रखा और उनमें सभी दिशाओं में प्रवेश किया
यह चोरों के नशे को तोड़ता है और गांजे के नशे को तोड़ता है। 76-20।
यह शत्रु के अहंकार को तोड़ता है और राक्षसों के अहंकार को तोड़ता है।
यह दुष्टों और कष्टों का नाश करता है और विपत्तियों का नाश करता है। 76-21।
दिशाओं में आठ ऊर्जाओं की पूजा की जाती है और पूर्व और अन्य स्थानों में सफेद चमकते हैं।
वह शांति, वशीकरण, समृद्धि और प्रसिद्धि लाती है। 76-22।
यह फिर से दीर्घायु और ज्ञान और ज्ञान लाता है।
धनकार्य मास की अष्टमी तिथि के बाद शस्त्र धारण करने वाले लोकों के स्वामी होते हैं 76-23।
इस प्रकार संसाधित मंत्र उपयोग के योग्य पैदा होता है।
फिर यहां कार्तवीर्यार्जुन के पूजन यंत्र का वर्णन किया गया है। 76-24।
अपने बीज, अंग, ध्रुव, वाणी और कान का दिशासूचक पत्ता लिखिए।
शेष रंगीन पंखुड़ियों के सिरे तारे और अन्य ढाल हैं। 76-25।
स्वर के गर्म सिरे का रेशम शेष कानों से घिरा रहता है।
कोनों से सुशोभित भूतों के सागर का घर स्वामी का यंत्र है 76-26।
शुद्ध भूमि से आच्छादित आदरयुक्त सुगंधों वाले यंत्र पर लिखें
वहां जलपात्र स्थापित करके राजा को हव्य अर्पित करना चाहिए और वहीं उनकी पूजा करनी चाहिए 76-27।
जिसने इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, उसे जलपात्र का स्पर्श करना चाहिए और एक हजार मंत्रों का जाप करना चाहिए
यदि मैं इसे जल से अभिषेक करूँ तो यह मेरी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए मुझे प्रिय है 76-28।
पुत्रों की कीर्ति का नाश रोग दीर्घायु और स्वजनों के सुख से होता है
सुरूप पुरुष जो कलश से अभिषेक करता है, वाणी की सिद्धि प्राप्त करता है। 76-29।
जब शत्रु द्रव्य संकट में हो या जब किसी गांव में झोली टूट जाए
शत्रु का भय दूर करने के लिए इस यंत्र को लगाना चाहिए। 76-30।
सरसों के दाने लहसुन और रुई से शत्रु का नाश होता है
वह धतूरों से डंक मारता है और नींबू से घृणा करता है और कमलों से वश में होता है। 76-31।
जब उसे ऊपर उठाया गया तो वह आग और खजूर से डर गया
यज्ञ की सामग्री के लिए कडवे तेल और भैंस के तेल को मलहम कहा गया है। 76-32।
जौ अर्पित करने से समृद्धि की प्राप्ति होती है और तिल अर्पित करने से पापों का नाश होता है
एक राजा तिल, चावल और सिद्धों के जाल से वशीभूत हो जाएगा। 76-33।
जल, पथ, सूर्य और दूर्वा का यज्ञ ऐश्वर्य प्रदान करने वाला और पापों का नाश करने वाला होता है।
उसने स्त्रियों को वश में किया और मुरों के भूतों को शांति प्रदान की जो उसे प्रिय थे 76-34।
इन्हें अश्वत्था, उडुम्बरा, प्लक्ष, केला और बिल्व वृक्षों से उगाया जाता है।
यज्ञ में आहुति देने से व्यक्ति अपने पुत्रों के लिए दीर्घायु, धन और सुख प्राप्त करता है। 76-35।
यह मुक्ति, स्वर्ण, सिद्ध, अर्थ और नमक से चोरों का नाश करती है।
भूमि पर चावल चढ़ाने से रोचना और गाय के गोबर का स्तंभ प्राप्त होता है 76-36।
हर जगह बलिदानियों की संख्या एक हजार से लेकर दस हजार तक है।
कार्य की गंभीरता और हल्केपन के कारण मंत्रों के विशेषज्ञों द्वारा इसकी कल्पना की जानी चाहिए 76-37।
विद्वान लोग कार्तवीर्य के मन्त्रों के लक्षणों का वर्णन करते हैं
सभी मंत्रों में कार्तवीर्यार्जुन का जाप करना चाहिए। 76-38।
अपने स्वयं के बीज से शुरू होने वाला दस-भुजा रूप शिव के अन्य नौ अक्षर हैं।
यह दूसरा मंत्र दो मूल बीजों द्वारा पढ़ा जाता है। 76-39।
तीसरा वह है जिसकी अपनी इच्छाएं हैं और चौथा अपनी भौहों वाला है।
पाँचवाँ अपनी रस्सियों से और छठा अपनी माया से। 76-4
सातवाँ अपने स्वयं के स्वर द्वारा और आठवाँ अपने स्वयं के स्वरों द्वारा होता है।
नौवां अपने शब्दों से और आखिरी अपने कवच और हथियारों से 76-41।
दूसरे दिन के अंत में बीजों में अंतर होता है
दशम मन्त्र में वर्ण नौ ढालों और शस्त्रों के मध्य में हैं 76-42।
इन श्रेष्ठ मन्त्रों से अपने अनुकूल मनु की उपासना करनी चाहिए
इनके आरंभ में अन्य में विराच्छद का उल्लेख मिलता है। 76-43।
इन दस मंत्रों का उच्चारण तब किया जाता है जब वे ओंकार का जाप कर रहे होते हैं।
फिर पहला है शिवर्ण और दूसरे बारह अक्षर हैं। 76-44।
त्रिस्तुपु चंदा आदि में भी होता है और अन्य में संसार माना जाता है।
इस प्रकार बीस मंत्रों की आहुति पहले की तरह मानी जाती है। 76-45।
इनमें से छह को लंबी समृद्ध जड़ वाले बीजों से बनाना चाहिए।
तारा ने अर्जुन को दो ढाल और हथियार दिए जो कार्तवीर्य का हृदय था 76-46।
इस चौदह भुजाओं वाले मंत्र की पूजा पहले की तरह करनी है।
इस शरीर के पांचों अंग पृथ्वी की आंखों और आंखों के रंग के समान हैं। 76-47।
तारा भगवान गेंटा और कार्तवीर्य और अर्जुन का हृदय है।
अठारह भुजाओं वाला मंत्र ढाल, शस्त्र और अग्नि को प्रिय बताया गया है। 76-4
मनु का कैलेंडर तीन वेदों की सात जोड़ी आँखों के रंगों से बना है।
देवत्व के सर्वोच्च व्यक्तित्व, श्री, और कार्तवीर्य और अर्जुन को नमस्कार। 76-49।
उन्हें सभी बुराइयों के विनाश के लिए अपनी तपस्या और शक्ति पर गर्व था
सात दिनों के अंत में वह द्वीप के लिए सभी खतरों से सुरक्षित था 76-50।
फिर जिन्हें जन्यचूड़ा मन के अंत में महान शक्ति का माना जाता है।
ढालों से लैस महान मनु सहस्र-जलते हुए क्षेत्र के किनारे पर थे। 76-51।
कहा जाता है कि उनके पास तिरसठ रंग हैं और समारामा से सभी बाधाओं को दूर करते हैं।
तीसरे हैं वीर और पराक्रमी राजन्यक्रवर्ती 76-52।
पंचम में माहिष्मती के चौथे स्वामी का उल्लेख है
रेवा के जल से तृप्त होकर उसके कान उसके हाथों से लग गए 76-53।
छठे अक्षर को दशास्य कहा जाता है और यह छह अक्षरों से बना है।
नर्मदा के जल में खेलती युवतियां उसे सींच रही थीं 76-54।
अपने हाथों से जल को धारण करने वाले मतवाले श्रेष्ठ राजाओं का ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकार ध्यान करते हुए दस हजार मन्त्रों का जप करना चाहिए और अन्य को पहले की तरह जपना चाहिए। 76-55।
पहले लाक्षा जप करें और पहले की तरह पूजा योग करें।
कार्तवीर्यार्जुन नाम का एक राजा था जिसकी एक हजार भुजाएँ थीं 76-56।
उसका स्मरण करके जो कुछ छूट गया और जो खो गया है, उस पर बातचीत करनी चाहिए
यह उत्कृष्ट मंत्र बत्तीस वर्णों से प्राप्त होता है 76-57।
सभी चरणों के साथ कैलेंडर का ध्यान और पूजा पहले की तरह करनी चाहिए।
हम जानते हैं कि ध्वनि के अंत में कार्तवीर्य को अपने कदम आगे बढ़ाने चाहिए। 76-58।
वर्ण के अंत में महावीर के लिए 'धीमहि' मंत्र का जाप करना चाहिए।
इसलिए, विवरण के अंत में, अर्जुन हमें पद्म का जाप करने के लिए प्रोत्साहित करें। 76-59।
अर्जुन ने इस गायत्री का उल्लेख किया है और प्रयोग के प्रारंभ में इसका जप करना चाहिए।
रात में चोरों के ढेर ने अनुष्टुभ मनु का जाप किया 76-6
वे संतुष्टि से और यहाँ तक कि सुनने से भी दूर घर से भाग जाते हैं
आगे मैं उस प्रकाश की विधि का वर्णन करूँगा जो कर्ता के वीर्य को भाता है 76-61।
वैशाख, श्रावण, कार्तिक, आश्विन और पौष मास में।
माघ और फाल्गुन के महीनों में दीपदान की शुरुआत मनानी चाहिए। 76-62।
शनि और कुजा के बिना खाली तिथि पर
हस्तोत्तारश्विरौद्रेयपुष्यवैष्णववयुभ 76-63।
रोहिणी नक्षत्र में दीपक लगाना दोनों देवताओं के लिए शुभ होता है
अंतिम पारगमन में वे अच्छे कर्मों में एक साथ थे 76-64।
आपके जीवन में सौभाग्य और सुंदरता में खुशी और आनंद
करने में, बिना विष्टि के ग्रहण में, अर्ध उदय आदि में। 76-65।
योगों के दौरान रात के समय सुबह के समय दीपक जलाना शुभ होता है
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी की रात्रि को यह बहुत ही शुभ होता है 76-66।
अगर वहां धूप हो तो चमक कम ही सुनाई देती है।
जरूरी कामों के लिए महीनों और अन्य चीजों की सफाई नहीं करना। 76-67।
प्रारम्भ में उसे व्रत का पालन करना चाहिए और नियमित रूप से पीले फलों से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए
प्रात:काल उन्होंने गाय के दूध से लीपी हुई स्वच्छ भूमि पर स्नान किया 76-68।
श्वास को मोड़ने का संकल्प करने के बाद ऊपर बताई गई मुद्राओं को करना चाहिए।
जमीन पर लाल चंदन का लेप लगाकर एक षट्भुज लगाएं 76-69।
इसलिए षट्भुजों में समारा लिखना चाहिए
त्रिभुज को नए रंगों से लपेटें और फिर इसे फिर से बाहर चारों ओर लपेटें। 76-7
इस प्रकार लिखे यंत्र पर दीपक रखने का पात्र रखना चाहिए
इसके अभाव में सोना या चांदी या तांबा 76-71।
मिट्टी से बना कांसे का बर्तन और लोहे से बना एक छोटा बर्तन मर गया
शान्ति के लिए शहद चूर्ण और जोड़ो के लिए गेहूँ का चूर्ण। 76-72।
कहा जाता है कि एक बर्तन में एक हजार पल घी होता है और उसमें सौ पल होते हैं
एक हजार पल घी के बर्तन को पांच सौ पल कहा जाता है। 76-73।
पचहत्तर की संख्या में एक बर्तन साठ गुना कहा जाता है।
तीन हजार कप घी और एक कप शक्कर 76-74।
दो सौ बाईस जहाजों को दो हजार घंटे की अवधि में कहा जाता है।
यही सौ नेत्रों के लिए अन्यत्र करना चाहिए जो शुष्क हैं। 76-75।
दैनिक दीपक में अग्नि के पात्र को तेल का पला कहा जाता है।
इस प्रकार पात्र को रख देना चाहिए और वर्तिका को धागे से ऊपर उठाकर फेंक देना चाहिए 76-7
एक, तीन, पांच, सात या विषम भी।
तंतुओं की संख्या एक हजार खजूर से बनी होती है 76-7
इसके ऊपर साफ कपड़े से साफ किया हुआ गाय का घी डालें।
हजारों पलों की संख्या का दसवां भाग काम की मर्यादा के कारण होता है 76-78।
सोने और अन्य सामग्रियों से बनी सोलह अंगुल की एक सुंदर पट्टी
इसका आधा या आधा महीन सिरे और मोटी जड़ वाला 76-79।
बर्तन की नोक को दाहिनी ओर और बर्तन के बीच में सामने की ओर छोड़ें
बर्तन की दक्षिणी दिशा में चार गुलाब के फूल छोड़ दें 76-80।
दक्षिणी आधार के निचले सिरे से शुभ चाकू खोदें
वहां भगवान गणेश के स्मरण में एक दीपक जलाना चाहिए। 76-81।
दीपक के पूर्व दिशा में चारों ओर शुभ घेरे में
हूट को चावल या आठ पत्तों के बोर्ड पर निर्धारित तरीके से रखा जाना चाहिए। 76-82।
वहाँ विवेकी मनुष्य राजा का आवाहन करके पहले की भाँति उसकी पूजा करे
फिर जल और अखंड अनाज लेकर दीपक की व्यवस्था करनी चाहिए। 76-83।
दीपक के संकल्प के लिए इस मंत्र का जाप दो बाणों की भूमि से किया जाता है।
ओंकार रस्सी है और शिखा कर्ता अक्षर है। 76-84।
और महिष्मती के स्वामी, शक्तिशाली अर्जुन को एक हजार।
अक्षर के अंत में, भावे, सहस्र शब्दों का जाप करना चाहिए। 76-85।
हे हाथ बलिदान में दीक्षित और दत्तात्रेय को प्रिय
वे आत्रेय से ईर्ष्या करते थे और फिर गर्भरत्न से। 76-86।
मैं चंद्रमा की गर्दन और कानों को और फिर इस रस्सी को प्रणाम करता हूं।
यह लो दीया, इसकी रक्षा करो, फिर से अपने कदम की रक्षा करो। 76-87।
यह दुष्ट विध्वंसक की एक जोड़ी होगी इसलिए इसे गिरा दो और इसे मार डालो।
दो शत्रुओं को मार डालो, मायावी तारा, स्वयंभू का बीज। 76-88।
पश्चिम दिशा अग्नि को प्रिय है और दीपों में श्रेष्ठ है।
हे वरदाता विपरीत दिशा से इसकी रक्षा करें 76-89।
बाईं आंख और चंद्रमा से दो मायावी स्थान शुभ हैं।
वेद और अन्य इच्छाएं चामुंडा हैं और स्वाहा पूसा के दो बिंदु हैं। 76-90।
ओंकार मन्त्र अग्नि को प्रिय है और शब्दांश नेत्रों और बाणों का ओठ है।
ऋषि दत्तात्रेय को माला का मंत्र बताया गया है। 76-91।
मंत्र अथाह है और कार्तवीर्यु अर्जुन के देवता हैं जो सभी सिद्धियों को प्राप्त करते हैं।
चामुंडी के साथ छह चरणों को छह लंबे लोगों के साथ करना चाहिए। 76-92।
भगवान का ध्यान करने के बाद मंत्र का जाप करना चाहिए और अंत में जल फेंकना चाहिए
हली और सेंदु गोविंदा से भरपूर होते हैं और चामुंडा के बीजों के साथ मिश्रित होते हैं। 76-93।
फिर उसके सामने नौ अक्षर वाले मंत्र का एक हजार बार जप करना चाहिए।
तारा असीम रूप से बिंदीदार है और उसके पास भ्रामक स्व की बाईं आंख है। 76-94।
कछुआ अग्नि शांति की बूंदों से भरपूर है और अग्नि निश्चित रूप से पत्नी का अंकुश है।
ऋषि पूर्वोक्त अनुष्टुप मंत्र है और अन्य फिर से पहले की तरह हैं। 76-95।
एक हजार मंत्रों का जाप करना चाहिए और इस कवचम का पाठ करना चाहिए।
इस प्रकार दीपदान करने वाला वह सब प्राप्त करता है जो वह चाहता है। 76-96।
जब दीपक जाग्रत हों तो अप्रिय वाणी से बचना चाहिए
ब्राह्मण को वहां देखना शुभ बताया गया है 76-97।
शूद्रों में प्रथम को म्लेच्छ की हत्या का बंधन कहा जाता है
गायों और घोड़ों की दृष्टि अशुभ और सुख देने वाली होती है 76-98।
वह एक दीपक की लौ के समान है और पूर्णता के लिए मुड़ी हुई है और रात बनाती है।
ध्वनि कर्ता के लिए भयावह और उज्ज्वल और सुखद मानी जाती है। 76-99।
वह सांवली है और अपने शत्रुओं से भयभीत होने पर वमन करके पशुओं का नाश करती है
जब किसी बर्तन को दीपक से जलाया जाता है तो उसे देवता द्वारा टूटा हुआ देखा जाता है 76-100।
जब पंख खुल जाएं तो पुजारी को यमलोक जाना चाहिए
जब कोई काम अधिक कुशलता से करता है तो वह बिना देरी के पूरा हो जाएगा 76-101।।
दीया बदलने पर कर्ता अंधा हो जाता है
अशुद्ध स्पर्श से रोग और दीयों के नष्ट होने पर चोरों का भय 76-102।।
कुत्ते या बिल्ली के खुरों को छूने से जमीन से गिरने का डर रहेगा
बर्तन की शुरुआत में वसुपाल से बना दीपक सभी इच्छाओं को पूरा करता है 76-103।।
इसलिए दीये की रक्षा बड़े प्रयत्न से करनी चाहिए
मास के अंत में ब्रह्मचर्य का पालन कर जमीन पर लेट जाना चाहिए 76-104।
स्त्री, शूद्र, पतित स्त्री आदि से भी बातचीत से बचना चाहिए।
मन्त्रराज के नौ अक्षरों का एक-एक हजार बार जप करना चाहिए। 76-105।।
स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन विशेष रूप से रात्रि में करें
वह जो दीपक के सामने एक पैर पर खड़ा हो और मन्त्रों का अधिष्ठाता हो 76-106।
जो प्रात:काल में एक हजार बार जप करता है, उसे शीघ्र ही मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है।
एक शुभ दिन पर अनुष्ठान पूरा करने के बाद उन्होंने कुलीन ब्राह्मणों को भोजन कराया 76-107।
कर्ता को कलश के जल से अभिषेक करने के बाद मंत्र का जाप करना चाहिए।
कर्ता को संतोष के लिए प्रचुर मात्रा में दान देना चाहिए 76-108।
जब आध्यात्मिक गुरु संतुष्ट हो जाते हैं, तो कृतवीर्य का पुत्र राजा, जो वह चाहता है, वह देता है।
शिक्षक को इसे स्वयं करना चाहिए या यदि शिक्षक स्वयं करता है। 76-109।
हे नारद ने उन्हें दीये देने के लिए धन और अन्य चीजें दीं
जो आध्यात्मिक गुरु के आदेश के अनुसार दीपक जलाता है, उसे अपने इच्छित उद्देश्यों की सिद्धि के लिए ऐसा करना चाहिए 76-110।
वह सिद्धि को प्राप्त नहीं करता बल्कि पग-पग पर हारता है
सबसे उत्तम गाय का दूध और बीच का दूध रानी का बताया गया है। 76-111।
तिल का तेल समान होता है और सबसे छोटा बकरी का दूध होता है।
मुख के रोग होने पर सुगन्धित तेल का दीपक अर्पित करना चाहिए 76-112।
हे प्रभु सिद्धि की प्राप्ति के लिए और शत्रुओं के नाश के लिए
यह एक हजार हथेलियों वाले दीपक में स्थापित होने पर भी दिखाई नहीं देता है 76-113।।
कार्य सिद्ध होने पर तीन बार दीपक जलाने का विधान करना चाहिए
तब अत्यंत कठिन कार्य भी निस्संदेह सिद्ध होगा 76-114।
वह दीपकों से प्यार करता है और कर्ता का नायक है और मार्तंड को धनुष का बहुत शौक है।
भगवान विष्णु स्तुति के पात्र हैं और भगवान गणेश को पत्ते प्रिय हैं। 76-115।
निश्चित रूप से भगवान शिव दुर्गा की पूजा के शौकीन हैं और अभिषेक के शौकीन हैं
अत: उन्हें प्रसन्न करने के लिए उन्हें आदर सहित अर्पित करना चाहिए। 76-116।
यह श्रीबृहन्नरद पुराण का छिहत्तरवां अध्याय है, बृहदूपख्यान का पहला भाग, तीसरा पादटिप्पणी, कार्तवीर्य की महिमा में मंत्र-दीपक के वर्णन का हकदार है। 76।।
अनुवाद:- हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ करें।।१०६। सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय
देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने क्रमानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।१-२।
सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं। ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया । हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।३-५।
कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।६-१६।@
ये दीर्घमन्त्रात्मक है। इनका षडंग न्यास मूल बीज से करें ऊँ नम: कार्तवीर्यायार्जुनाय हुम् फट्। यह 14 अक्षरों का मन्त्र है तो भी गिनने में 13 ही होते हैं इसकी उपासना पूर्ववत् करें 9 अक्षर से इसका पंचांग न्यास करें ।
"नमो भगवते श्रीकार्तवीरायार्जुनाय सर्वदुष्टान्तक तपोबलपराक्रम परिपालित सप्तद्वीपाय सर्वराजन्य चूड़ामणि महाशक्तिमते सहस्रदहन हुं फट्। यह 63 अक्षरात्मक मन्त्र है। इसके स्मरण से सभी लौकिक विघ्न नष्ट हो जाते हैं। अब राजन्य" चक्रवर्ती" शूर" माहिष्मतिपति" रेवाम्बुपरितृप्त" काणों हस्तप्राबाधित इन 6 मन्त्रपद द्वारा षडंगन्यासोपरान्त ध्यान करें ध्यान का विषय है :- नर्मदा के जल में स्नान रत कार्तवीर्य पत्नीगणों से जलक्रीड़ा कर रहे हैं तथा उन पर जल उत्षेचन कर रहे हैं। वे अपने सहस्रबाहुओं से नर्मदा का जल प्रवाह रोक रहे हैं। इस ध्यान के उपरान्त इन मन्त्र पदों का दस हजार बार जप करें पहले एक लाख जप करें शेष कार्य पूजादि यथापूर्व होगा ।।46-55।।
उनका मन्त्र तथा पूजन आदि सभी तन्त्रों में गुप्त है। हे नारद मैं इसको आपके लिए प्रकाशित करुँगा। जो सभी सिद्धियों को देने वाला है।इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षर वाला है।
यह मूल में श्लोक ७- से ९ तक वर्णित है । इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना त्रुटि पूर्ण हेगा। इस मन्त्र के ऋषि हैं दत्तात्रेय छन्द है अनुष्टुप देवता है कार्तवीर्य अर्जुन बीज है ध्रुव और शक्ति है हृद-शेषाढ्य बीज द्वय से हृदयन्यास करें शान्ति युक्त चतुर्थ मन्त्राक्षर से शिरोन्यास करें इन्द्रढ्यम से वाम कर्ण न्यास करें ,अंकुश तथा पद्म से शिखा न्यास करें , वाणी से कवच न्यास करें हुं फट् से अस्त्र न्यास करें शेष अक्षरों पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए दोनों प्रणव के बीच के बीजों से जो दम हैं।हृदय उदर नाभि गुह्य दक्षिण चरण, वाम चरण ,उरु, जानु तथा जंघा का न्यास करें । तारक प्रभृति 9 वर्णों का न्यास मस्तक ललाट भ्रू कर्ण नेत्र नासा मुख कण्ठ तथा स्कन्ध में करें तदनंतर सभी अंगों में पूरे मन्त्र का व्यापक न्यास करना चाहिए । इसके पश्चात सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर कारक कार्तवीर्य का चिन्तन करना चाहिये ।६-१६।
दीप जलाते समय अशुभ वार्तालाप वर्जित है। उस समय ब्रह्मज्ञानी का दर्शन होना शुभ माना गया है। शूद्र दर्शन होना उस समय मध्यम है। परन्तु म्लेच्छ दर्शन बध- बन्धन प्रदान करने वाला होता है । मूषक विढाल दीखना दु:खद है। गौ और अश्व आदि दीखना सुखद है। सीधी दीपज्वाला सिद्धि दात्री होती है। टेढ़ी ( वक्र) ज्वाला नाश कारक होती है।शब्द करने वाली दीप ज्वाला भयप्रदा उज्ज्वल वर्णा ज्वाला सुखप्रदा कृष्ण वर्ण ज्वाला शत्रुभयप्रदा धमन्ती(शब्द करती हुई ) ज्वाला पशु नाशिका होती है।दीप प्रज्वलित करते समय पात्र यदि भग्न हो तो एक पक्ष में साधक यम लोक जाएगा यदि दीपक में दो बार बत्ती रखनी पड़े तो तो कार्य देर से होगा दीप बदलने वाला अन्ना हो जाता है।अपवित्रता पूर्वक दीप का स्पर्श करने वाला रोगी होता है।और दीप नाश होने पर चौर भय होगा ।९७-१०२।
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यदि दीप को कुत्ते बिल्ली स्पर्श करें तब राज भय होगा आठ पल के द्रव्य से बना दीपक सर्वकामना समूह को सफल करता है। इस लिए दीपक की रक्षा सभी आने वाले विघ्नों से करें व्रत जबतक सम्पन्न न हो तब तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भूमि शयन करें -तब तक साधक स्त्री शूद्र और पापी लोगों से बात भी न करे।इस नवाक्षर मन्त्र राज का नित्यप्रति १००० जप तथा स्तोत्र पाठ करें । रात में विशेषत: स्तुति पाठ करें रात में साधक दीपक के सामने एक पैर से से खड़ा होकर १००० मन्त्र जपता है। उसका वाँछित यथाशीघ्र प्राप्त हो जाता है।शुभ दिन में जप समाप्त करके श्रेष्ठ विप्रगण को भोजन खिलाऐं
तब घट जल से मन्त्र जाप करते हुए ब्राह्मण यजमान का जल से अभिषेक सम्पन्न करे। यजमान को चाहिए कि वह गुरु को सन्तुष्ट करने के लिए प्रभूत ( बहुत) दक्षिणा प्रदान करें जब गुरु प्रसन्न हो जाते हैं। कार्तवीर्य उस व्यक्ति को इच्छित फल प्रदान करते हैं।दीपदान गुरु से अनुमति ग्रहण करके करना चाहिए यदि गुरु दीप दान करते तब शिष्य उनको इस कार्य हेतु धन प्रदान करें ।हे नारद जो मनुष्य गुरु आज्ञाके विना इच्छा सिद्धि के लिए दीप दान करता है।बह सिद्धि लाभ नहीं करता है।वह पग पग पर हानि उठाता है।इसकार्य के लिए गौघृत उत्तम तथा महिषी का घृत मध्य है।।१०८-१११।
तिल तैल का फल भी महिषी घृतवत् है।
बकरी प्रभृति पशु का घृत अधम है। मुख रोग से मुक्त होने के लिए सुगन्धित तैल का दीपक जलाऐं शत्रु के लिए श्वेत सरसों का तैल विहित है।११२।
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जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए राम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था उसी रावण को मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया-
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ४३.३७।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ४३.३८।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।
तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।। ४३.३९।
एक बार सम्राट सहस्रबाहु अपनी अनेक रानीयों के साथ भ्रमण करते हुए नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए उतरे तो स्नान करते हुए एक पत्नी ने उनसे कहा कि क्या वे नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक सकते हैं ।
तो सहस्र बाहु ने पत्नी को कहने पर अपने हजार बाहूओं को फैलाकर नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक दिया इस से नर्मदा नदी का जल इधर उधर बहने लगा उसी कुछ ही दूरी पर रावण शंकर भगवान् की आराधना कर रहा था
उस जल के प्रवाह से उसकी पूजन सामग्री नैवेद्य आदि बह गयी क्रोधित रावण कारण का पता लगाते हुए सहस्रबाहु के पास पहुँच कर उससे युद्ध करने लगा तभी सहस्रबाहु ने अपने पाँच वाणों से ही परास्त कर रावण को बन्धी बना लिया था और दश वर्ष पर्यन्त अपने कारागार में रखा
तब रावण के पितामह विश्रवा के पिता पुलस्त्य वहाँ आये और रावण को मुक्त करने के लिए सहस्र बाहु से निवेदन किया सहस्रबाहु ने पुलस्त्य के वह निवेदन को स्वीकार करके रावण को मुक्त कर दिया।
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मत्स्यपुराण अध्याय 43
यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन
दत्तमाराधयामास कार्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।
तस्मै दत्तावरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तम। ४३.१५।
कार्तवीर्य ने जब दतात्रेय की आराधना की तो अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय ने उनको चार वरदान दिए-१५।
पूर्वं बाहुसहस्रन्तु स वव्रे राजसत्तमः।
अधर्मं चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम्।४३.१६
पहले उसको कहने पर हजार बाहु दीं और जो संसासार में अधर्म है उसका निवारण करे का वरदान दिया।१६।
युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्।
संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत्। ४३.१७।
युद्ध में पृथ्वी जीतकर धर्म से उसका पालन करो और संग्राम में वर्तमान रहने पर वध तुमसे शक्ति शाली ही कर सकता है।१७।
तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता। ४३.१८ ।
तुम्हारे द्वार सम्पूर्ण पृथ्वी और सात द्वीप पर्वत समुद्र अधीन और क्षत्रिय धर्म से तुम सबको जीत लो।१८।
जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
रथो ध्वजश्च संजज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।४३.१९ ।
दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः। ४३.२०।
सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः। ४३.२१।
सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः। ४३.२२।
तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य स: ४३.२३।
न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च। ४३.२४।
स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।। ४३.२५।
पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।४३.२६।
स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।४३.२७।
योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः। ४३.२८।
एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः।
कर्कोटकसुतं जित्वा पुर्य्यां तत्र न्यवेशयत्। ४३.२९।
एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै।
क्रीड़न्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्रोतो महीपतिः।। ४३.३०।
ललता क्रीड़ता तेन प्रतिस्रग्दाममालिनी।
ऊर्मि भ्रुकुटिसन्त्रा सा चकिताभ्येति नर्म्मदा।। ४३.३१।
एको बाहुसहस्रेण वगाहे स महार्णवः।
करोत्युह्यतवेगान्तु नर्मदां प्रावृडुह्यताम्।। ४३.३२।
तस्य बाहुसहस्रेणा क्षोभ्यमाने महोदधौ।
भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः।। ४३.३३।
चूर्णीकृतमहावीचि लीन मीन महातिमिम्।
मारुता विद्धफेनौघ्ज्ञ मावर्त्ताक्षिप्त दुःसहम्। ४३.३४।
करोत्यालोडयन्नेव दोः सहस्रेण सागरम्।
मन्दारक्षोभचकिता ह्यमृतोत्पादशङ्किताः। ४३.३५।
तदा निश्चलमूर्द्धानो भवन्ति च महोरगाः।
सायाह्ने कदलीखण्डा निर्वात स्तिमिता इव।। ४३.३६।
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ४३.३७।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ४३.३८।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।
तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।४३.३९।
अनुवाद:-
और इस प्रकार धनुष पर प्रत्यञ्ज्या चढ़ाकर केवल पाँ वाणों से लंका मोहित करके बल पूर्वक रावण को जीत कर और बंधी बनाकर महिष्मती में कारागार में डालदिया तब जाकर पुलस्त्य ऋषि ने सहस्रबाहु को प्रसन्न कर के उस रावण को छुड़ाया-। सहस्रबाहु की हजार भुजाओं के द्वारा प्रत्यञ्चा का महान शब्द हुआ।३७-३८-३९।
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मत्स्यपुराण अध्याय 43
यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन
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