"आह्लाद और उदयबल- की वीर गाथाऐं-"
वीर अहीर-आल्हा जिनका नामकरण(आह्लाद) के नाम से हुआ ज्योतिषयों का विचार था कि यह बालक लोक मानस को आह्लाद= आनन्द प्रदान करेगा। और इसी आह्लाद से प्राकृत भाषाओं में आल्हा शब्द विकसित हुआ।
"आल्हा जी की जयंती के उपलक्ष्य में यादवीय इतिहास के सशक्त प्रहरी सभी महानभावों को समर्पित यह तथ्याँजलि-
आल्हा-उदल-मलखान जीवन परिचय. ________
★-पुराण भारतीय संस्कृति और इतिहास के आधार स्तम्भ हैं अत: पुराणों की बातें ही हमारे इतिहास का सम्यक दर्पण हैं।
भविष्य पुराण के प्रति सर्गपर्व के अनुसार आधुनिक विहार के बक्सर जिला के अन्तर्गत कठिन व्रतों का पालन करने वाली एक "व्रतपा" - नामक अहीराणी रहती थी।
उन्होंने अपने कुल देवी दुर्गा जी का नौ दिन व्रत रखकर बलराम-कृष्ण की तरह बलशाली पुत्रो की मन्नत मांगी। "व्रतपा" का विवाह वसुमान नामक व्यक्ति से हुआ ।
व्रतपा और वसुमान से ही देशराज और वत्सराज नामक दो पुत्र पुत्र हुए। एक समय वत्सराज और देशराज जंगल में भैस चरा रहे थे।
उन्होंने आपस मे लड़ रही भैसों के सींग पकड़कर अलग कर दिया। इस घटना को महोबा के चंदेल राजा परमादि(परमाल) ने देखा। वे उनके बलपराक्रम से प्रसन्न हुए और दोनों साहसी और वीर युवकों को अपना सेनापति नियुक्त कर लिया।
कुछ समय बाद देशराज और वत्सराज का विवाह ग्वालियर (गोपालपुर) के अहीर राजा दलिवाहनपाल की पुत्रियों से हुआ।
वहीं गोपालपुर( ग्वालियर) के शासक दलिवाहनपाल अहीर ने स्वयम्बर में एक शर्त लगायी थी कि जो भी इन भैसों को नियन्त्रित करके खूंटे में बांध देगा,उनसे अपने पुत्रियों की शादी करुँगा।
देशराज से देवल/देवकी की शादी हुई और इस दम्पति से (आल्हा) आह्लाद और उदयबल-(उदल) दो पुत्र पैदा हुए। और इसी क्रम में
वत्सराज और ब्राह्मी से बलखान (मलखान) नामक पुत्र पैदा हुआ। बल की अद्भुत खानि होने के कारण ज्योतिषी ने इनका नाम बलखानि-रखा जो कि प्राकृत भाषाओं में मलखान" हो गया।
आल्हा -उदल और मलखान ने कुल 52 युद्ध लड़े। इसी समय सन् (1182) में पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर जब आक्रमण किया।
बैरागढ़ के इस युद्ध मे उदल शहीद हुए।अपने गुरु गोरखनाथ के सुझाव पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवित छोड़कर सन्यास ग्रहण किया।
और आज भी लोक मान्यता है कि आल्हा-उदल अमर है और रोज मैहर-मध्यप्रदेश के शारदा मन्दिर में ब्रह्मबेला में पहला फूल चढ़ाने वे आते है। खैर यह तो लोक मान्यता है। परन्तु आल्हा और ऊदल की वीर गाथाओं को पुराण कारों ने भी वर्णित किया है। जो अधिक प्राचीन पुट लिए हुए है।
। सूत उवाच ।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।। ३ ।।
भविष्याख्ये महाकल्पे प्राप्ते वैवस्वतेन्तरे ।।
अष्टाविंशद्द्वापरान्ते कुरुक्षेत्रे रणोऽभवत् ।। ४ ।।
पांडवैर्निर्जिताः सर्वे कौरवाः युद्धदुर्मदाः ।।
अष्टादशे च दिवसे पांडवानां जयोऽभवत् ।। ५ ।।
दिनान्ते भग वान्कृष्णो ज्ञात्वा कालस्य दुर्गतिम् ।।
शिवं तुष्टाव मनसा योगरूपं सनातनम् ।। ६ ।।
' कृष्ण उवाच '
नमः शांताय रुद्राय भूते शाय कपर्दिने।।
कालकर्त्रे जगद्भर्त्रे पापहर्त्रे नमोनमः ।। ७ ।।
पांडवान्रक्ष भगवन्मद्भक्तान्भूतभीरुकान् ।।
इति श्रुत्वा स्तवं रुद्रो नंदियानोपरिस्थितः ।।
रक्षार्थं शिबिराणां च प्राप्तवाञ्छूलहस्तधृक् ।। ८।
तदा नृपाज्ञया कृष्णः स गतो गजसाह्वयम् ।।
पांडवाः पंच निर्गत्य सरस्वत्या स्तटेऽवसन् ।। ९ ।
निशीथे द्रौणिभोजौ च कृपस्तत्र समाययुः ।।
तुष्टुवुर्मनसा रुद्रं तेभ्यो मार्गं शिवोददात् ।। 3.3.1.१० ।।
अश्वत्थामा तु बलवाञ्छिवदत्तमसिं तदा ।।
गृहीत्वा स जघानाशु धृष्टद्युम्नपुरःसरान् ।। ११ ।।
हत्वा यथेष्टमगमद्द्रौणिस्ताभ्यां समन्वितः।१२ ।।
पार्षतस्यैव सूतश्च हतशेषो भयातुरः ।।
पांडवान्वर्णयामास यथा जातो जनक्षयः ।। १३ ।।
आगस्कृतं शिवं ज्ञात्वा भीमाद्याः क्रोधमूर्च्छिताः ।।
स्वायुधैस्ता डयामास देवदेवं पिनाकिनम् ।१४ ।।
अस्त्रशस्त्राणि तेषां तु शिवदेहे समाविशन् ।।
दृष्ट्वा ते विस्मिताः सर्वे प्रजघ्नुस्तलमुष्टिभिः ।। १५।।
ताञ्छशाप तदा रुद्रो यूयं कृष्णप्रपूजकाः ।।
अतोऽस्माभी रक्षिणीया वधयोग्याश्च वै भुवि ।। १६ ।।
पुनर्जन्म कलौ प्राप्य भोक्ष्यते चापराधकम् ।।
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवः पांडवा दुःखितास्तदा । १७।
हरिं शरणमाजग्मुरपराधनिवृत्तये ।।
तदा कृष्णयुताः सर्वे पांडवाः शस्त्रवर्जिताः ।। १८।
तुष्टुवुर्मनसा रुद्रं तदा प्रादुरभूच्छिवः ।।
वरं वरयत प्राह कृष्णः श्रुत्वाब्रवीदिदम् ।। १९ ।।
शस्त्राण्यस्त्राणि यान्येव त्वदंगे क्षपितानि वै।।
पांडवेभ्यश्च देहि त्वं शापस्यानुग्रहं कुरु ।। 3.3.1.२०।।
इति श्रुत्वा शिवः प्राह कृष्णदेव नमोऽस्तु ते ।।
अपराधो न मे स्वामिन्मोहितोऽहं तवाज्ञया ।। २१।
तद्वशेन मया स्वामिन्दत्तः शापो भयंकरः ।।
नान्यथा वचनं मे स्यादंशावतरणं भवेत् ।। २२ ।।
( भविष्य पुराण में मलखान वर्णन )
वत्सराजस्य पुत्रत्वं गमिष्यति युधिष्ठिरः ।।बलखानिरिति ख्यातः शिरीषाख्यपुराधिपः।२३।
भीमो दुर्वचनाद्दुष्टो म्लेच्छयोनौ भविष्यति ।।
वीरणो नाम विख्यातः स वै वनरसाधिपः ।२४।
अर्जुनांशश्च मद्भक्तो जनिष्यति महामतिः ।।
पुत्रः परिमलस्यैव ब्रह्मानन्द इति स्मृतः।।२५।।
कान्यकुब्जे हि नकुलो भविष्यति महाबलः।।
रत्नभानुसुतो सौ वै लक्ष्मणो नाम विश्रुतः।।२६।।
सहदेवस्तु वलवाञ्जनिष्यति महामतिः।।
भीष्मसिंह सुतो जातो देवसिंह इति स्मृतः ।।२७।।
धृतराष्ट्रांश एवासौ जनिष्यत्यजमेरके ।।
पृथिवीराज इति स द्रोपदी तत्सुता स्मृता ।।२८।।
वेला नाम्ना च विख्याता तारकः कर्ण एव हि ।।
रक्तबीजस्तथा रुद्रो भविष्यति महीतले ।।२९।।
कौरवाश्च भविष्यन्ति मायायुद्धविशारदाः।।
पांडुपक्षाश्च ते सर्वे धर्मिणो बलशालिनः ।।3.3.1.३०।।
।। सूत उवाच ।।
इति श्रुत्वा हरिः प्राह विहस्य परमेश्वरम् ।।
मया शक्त्यवतारेण रक्षणीया हि पांडवाः ।।३१।।
महावती पुरी रम्या मायादेवीविनिर्मिता ।।
देशराजसुतस्तत्र ममांशो हि जनिष्यते ।। ३२ ।।
देवकीजठरे जन्मोदयसिंह इति स्मृतः ।।
आह्लादो मम धामांशो जनिष्यति गुरुर्मम ।।३३ ।।
हत्वाग्निवंशजान्भूपान्स्थापयिष्यामि वै कलिम् ।।
इति श्रुत्वा शिवो देवस्तत्रैवांतरधीयत ।। ३४ ।।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये विक्रमाख्यानकाले प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।
कई बार लोग राजपूत और क्षत्रिय दोनों शब्दों को एक अर्थ में इस्तेमाल कर लेते हैं वो सही नहीं है ।
- राजपूत शब्द संस्कृत के राज पुत्र का ही अपभ्रंश है। मध्यकालीन सामन्तीय खिताब था
- जिन्होंने केंद्रीय राजनीतिक सत्ता में अपने अपने क्षेत्रों में अपने अपने छोटे छोटे राज्य बनाए और अपनी अलग पहचान के लिए संस्थापक के नाम के पीछे अपनी राजाओं के पुत्र या वंशज होने की पहचान जोड़ी ।
- राजा का बड़ा पुत्र राजा बनता था लेकिन उनके पुत्र कई होते थे इसलिए उन्हें राज्य के विभिन्न हिस्से का मुख्य बना दिया जाता था और इस तरह हर जगह उनके वंशज बढ़ते थे और एक परिवार मुख्य परिवार होता था ये एक वृक्ष के जैसी संरचना थी बिल्कुल ।
- राजपूत शब्द के समानान्तर ठाकुर शब्द तुर्की शब्द "तक्वुर" का भारतीय भाषाओं में विकसित रूप था जिसका अर्थ है सामन्त अथवा छोटी रियासत का मालिक जमींदर
आज बड़ी संख्या में राजपूत मौजूद हैं तो लोग कह सकते हैं इतना संख्या कैसे मुमकिन है क्या सभी राजाओं के बेटे हैं ! नहीं ऐसा नहीं है पूर्व मध्यकाल से मध्यकाल तक जो क्षत्रिय वर्ण के अंदर थे उन्होंने इस शब्द को अपना लिया होगा इसलिए क्षत्रिय और राजपूत दोनों शब्द समान नजर आते हैं ।
धीरे धीरे 17–18 वीं सदी तक राजपूत ठाकुर जो बड़ी जमीन के जागीरदार थे वो अंग्रेजो के समय खेती से भी जुड़ गए इसलिए आपको आज राजपूत किसान भी दिख सकते हैं और किसान पशुपालक तो अवश्य होगा बाद के समय में इनका पेशा और जाति का जो सम्बन्ध था वह कमजोर हो गए।
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