बुधवार, 24 मई 2023

आल्हा ऊदल अहीर की वीर गाथाऐं इतिहास के सन्दर्भ से-


वीर अहीर-आल्हा जिनका नामकरण(आह्लाद) के नाम से हुआ ज्योतिषयों का विचार था कि यह बालक लोक मानस को आह्लाद= आनन्द प्रदान करेगा। और इसी आह्लाद से प्राकृत भाषाओं में आल्हा शब्द विकसित हुआ।

"आल्हा जी की जयंती के उपलक्ष्य में यादवीय इतिहास के सशक्त प्रहरी सभी महानभावों को समर्पित यह तथ्याँजलि-

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आल्हा-उदल-मलखान जीवन परिचय.                                 ________

★-पुराण भारतीय संस्कृति और इतिहास के आधार स्तम्भ हैं अत: पुराणों की बातें ही हमारे इतिहास का सम्यक दर्पण हैं।

भविष्य पुराण के प्रति सर्गपर्व के अनुसार आधुनिक विहार के बक्सर जिला के अन्तर्गत कठिन व्रतों का पालन करने वाली एक "व्रतपा" - नामक अहीराणी रहती थी।

उन्होंने अपने कुल देवी दुर्गा जी का नौ दिन व्रत रखकर बलराम-कृष्ण की तरह बलशाली पुत्रो की मन्नत मांगी। "व्रतपा" का विवाह वसुमान नामक व्यक्ति से हुआ ।                    

व्रतपा और वसुमान से ही देशराज और वत्सराज नामक दो पुत्र पुत्र हुए।  एक समय वत्सराज और देशराज जंगल में भैस चरा रहे थे।

उन्होंने आपस मे लड़ रही भैसों के सींग पकड़कर अलग कर दिया। इस घटना को महोबा के चंदेल राजा परमादि(परमाल) ने देखा। वे उनके बलपराक्रम से प्रसन्न हुए और दोनों साहसी और वीर युवकों को अपना सेनापति नियुक्त कर लिया।

कुछ समय बाद देशराज और वत्सराज का विवाह ग्वालियर (गोपालपुर) के अहीर राजा दलिवाहनपाल की पुत्रियों से हुआ।

विदित हो की गोपालपुर गोपों (अहीरों का नगर था। जहाँ सभी  राजा पाल उपाधि लगाते थे जिनकी निकासी मथुरा के अहीरों से हुई।

वहीं गोपालपुर( ग्वालियर) के शासक दलिवाहनपाल अहीर ने स्वयम्बर में एक शर्त लगायी थी कि जो भी इन भैसों को नियन्त्रित करके खूंटे में बांध देगा,उनसे अपने पुत्रियों की शादी करुँगा।  

विदित हो दलिवाहनपाल पशुपालक और परम गोभक्त थे ग्वालियर का नाम भी गोपालो ( अहीरों) की बहुलता से सिद्ध हुआ।
देशराज और-वत्सराज ने दलिवाहनपाल की इस शर्त को पूरा किया। 

देशराज से देवल/देवकी की शादी हुई और इस दम्पति से (आल्हा) आह्लाद और उदयबल-(उदल) दो पुत्र पैदा हुए। और इसी क्रम में 

वत्सराज और ब्राह्मी से बलखान (मलखान) नामक पुत्र पैदा हुआ। बल की अद्भुत खानि होने के कारण ज्योतिषी ने इनका नाम बलखानि-रखा जो कि प्राकृत भाषाओं में मलखान" हो गया।

आल्हा -उदल और मलखान ने कुल 52 युद्ध लड़े। इसी समय सन् (1182) में पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर जब आक्रमण किया।

बैरागढ़ के इस युद्ध मे उदल शहीद हुए।अपने गुरु गोरखनाथ के सुझाव पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवित  छोड़कर सन्यास ग्रहण किया।

और आज भी लोक मान्यता है कि आल्हा-उदल अमर है और रोज मैहर-मध्यप्रदेश के शारदा मन्दिर में ब्रह्मबेला में पहला फूल चढ़ाने वे आते है। खैर यह तो लोक मान्यता है। परन्तु आल्हा और ऊदल की वीर गाथाओं को पुराण कारों ने भी वर्णित किया है। जो अधिक प्राचीन पुट लिए हुए है।

नीचे भविष्य पुराण से हम इनकी जीवनी के कुछ अँश उद्धृत करते हैं।

                   । सूत उवाच ।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।। ३ ।।

भविष्याख्ये महाकल्पे प्राप्ते वैवस्वतेन्तरे ।।
अष्टाविंशद्द्वापरान्ते कुरुक्षेत्रे रणोऽभवत् ।। ४ ।।

पांडवैर्निर्जिताः सर्वे कौरवाः युद्धदुर्मदाः ।।
अष्टादशे च दिवसे पांडवानां जयोऽभवत् ।। ५ ।।

दिनान्ते भग वान्कृष्णो ज्ञात्वा कालस्य दुर्गतिम् ।।
शिवं तुष्टाव मनसा योगरूपं सनातनम् ।। ६ ।।

                   ' कृष्ण उवाच ' 
नमः शांताय रुद्राय भूते शाय कपर्दिने।।
कालकर्त्रे जगद्भर्त्रे पापहर्त्रे नमोनमः ।। ७ ।।

पांडवान्रक्ष भगवन्मद्भक्तान्भूतभीरुकान् ।।
इति श्रुत्वा स्तवं रुद्रो नंदियानोपरिस्थितः ।।
रक्षार्थं शिबिराणां च प्राप्तवाञ्छूलहस्तधृक् ।। ८।

तदा नृपाज्ञया कृष्णः स गतो गजसाह्वयम् ।।
पांडवाः पंच निर्गत्य सरस्वत्या स्तटेऽवसन् ।। ९ ।

निशीथे द्रौणिभोजौ च कृपस्तत्र समाययुः ।।
तुष्टुवुर्मनसा रुद्रं तेभ्यो मार्गं शिवोददात् ।। 3.3.1.१० ।।

अश्वत्थामा तु बलवाञ्छिवदत्तमसिं तदा ।।
गृहीत्वा स जघानाशु धृष्टद्युम्नपुरःसरान् ।। ११ ।।

हत्वा यथेष्टमगमद्द्रौणिस्ताभ्यां समन्वितः।१२ ।।

पार्षतस्यैव सूतश्च हतशेषो भयातुरः ।।
पांडवान्वर्णयामास यथा जातो जनक्षयः ।। १३ ।।

आगस्कृतं शिवं ज्ञात्वा भीमाद्याः क्रोधमूर्च्छिताः ।।
स्वायुधैस्ता डयामास देवदेवं पिनाकिनम् ।१४ ।।

अस्त्रशस्त्राणि तेषां तु शिवदेहे समाविशन् ।।
दृष्ट्वा ते विस्मिताः सर्वे प्रजघ्नुस्तलमुष्टिभिः ।। १५।।

ताञ्छशाप तदा रुद्रो यूयं कृष्णप्रपूजकाः ।।
अतोऽस्माभी रक्षिणीया वधयोग्याश्च वै भुवि ।। १६ ।।

पुनर्जन्म कलौ प्राप्य भोक्ष्यते चापराधकम् ।।
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवः पांडवा दुःखितास्तदा । १७।

हरिं शरणमाजग्मुरपराधनिवृत्तये ।।
तदा कृष्णयुताः सर्वे पांडवाः शस्त्रवर्जिताः ।। १८।

तुष्टुवुर्मनसा रुद्रं तदा प्रादुरभूच्छिवः ।।
वरं वरयत प्राह कृष्णः श्रुत्वाब्रवीदिदम् ।। १९ ।।

शस्त्राण्यस्त्राणि यान्येव त्वदंगे क्षपितानि वै।।
पांडवेभ्यश्च देहि त्वं शापस्यानुग्रहं कुरु ।। 3.3.1.२०।।

इति श्रुत्वा शिवः प्राह कृष्णदेव नमोऽस्तु ते ।।
अपराधो न मे स्वामिन्मोहितोऽहं तवाज्ञया ।। २१।

तद्वशेन मया स्वामिन्दत्तः शापो भयंकरः ।।
नान्यथा वचनं मे स्यादंशावतरणं भवेत् ।। २२ ।।

       ( भविष्य पुराण में मलखान वर्णन )
वत्सराजस्य पुत्रत्वं गमिष्यति युधिष्ठिरः ।।बलखानिरिति ख्यातः शिरीषाख्यपुराधिपः।२३।

भीमो दुर्वचनाद्दुष्टो म्लेच्छयोनौ भविष्यति ।।
वीरणो नाम विख्यातः स वै वनरसाधिपः ।२४।

अर्जुनांशश्च मद्भक्तो जनिष्यति महामतिः ।।
पुत्रः परिमलस्यैव ब्रह्मानन्द इति स्मृतः।।२५।।

कान्यकुब्जे हि नकुलो भविष्यति महाबलः।।
रत्नभानुसुतो सौ वै लक्ष्मणो नाम विश्रुतः।।२६।।

सहदेवस्तु वलवाञ्जनिष्यति महामतिः।।
भीष्मसिंह सुतो जातो देवसिंह इति स्मृतः ।।२७।।

धृतराष्ट्रांश एवासौ जनिष्यत्यजमेरके ।।
पृथिवीराज इति स द्रोपदी तत्सुता स्मृता ।।२८।।

वेला नाम्ना च विख्याता तारकः कर्ण एव हि ।।
रक्तबीजस्तथा रुद्रो भविष्यति महीतले ।।२९।।

कौरवाश्च भविष्यन्ति मायायुद्धविशारदाः।।
पांडुपक्षाश्च ते सर्वे धर्मिणो बलशालिनः ।।3.3.1.३०।।

                 ।। सूत उवाच ।।
इति श्रुत्वा हरिः प्राह विहस्य परमेश्वरम् ।।
मया शक्त्यवतारेण रक्षणीया हि पांडवाः ।।३१।।

महावती पुरी रम्या मायादेवीविनिर्मिता ।।
देशराजसुतस्तत्र ममांशो हि जनिष्यते ।। ३२ ।।

देवकीजठरे जन्मोदयसिंह इति स्मृतः ।।
आह्लादो मम धामांशो जनिष्यति गुरुर्मम ।।३३ ।।

हत्वाग्निवंशजान्भूपान्स्थापयिष्यामि वै कलिम् ।।
इति श्रुत्वा शिवो देवस्तत्रैवांतरधीयत ।। ३४ ।।

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये विक्रमाख्यानकाले प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।

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आल्हा १०और ३१ मात्रओं के क्रम पर  एक मात्रिक छंद का नाम जिसे वीर छंद भी कहते हैं। 
इसमें १६ मात्राओं पर विराम होता है ।
 जैसे, यह छन्द वीर योद्धा आह्लाद के नाम पर चरितार्थ हुआ  — 👇

"सुमिरि भवानी जगदंबा कौ 
श्री सारद के चरन मनाय । 
आदि सरस्वति तुमका ध्यावें 
माता कंठ बिराजौ आय ।
यह महोबे के एक वीर अहीर यौद्धा के नाम पर निर्मित है जो पृथ्वीराज के समय बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में थे ।
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महोबा (बुन्देलखण्ड) मध्य प्रदेश  के चन्द्रवंशी राजा परमाल (परमार्दिदेव) सन् 1165-1202, के दरबारी कवि एवं जगनेर के राजा 'जगनिक' (जागन) द्वारा 'परमालरासो' की रचना की गई। 

जिसके एक खण्ड में 'आल्हा-ऊदल' की बेजोड़ वीरता का छन्दोबद्ध वर्णन है।
'आल्हा' के नाम पर खण्ड का नाम 'आल्हखण्ड' और छन्द का नाम 'आल्हा' रखा गया है। 

'आल्हा' की लोकगायकी, अधिकांश उत्तरी व मध्यभारत में जनमानस के बीच वीरता के भाव भरती रही है। 

'आल्हखण्ड' में आल्हा-ऊदल द्वारा विजित 52 लड़ाइयों की गाथा है।
जिसका संकलन, 1865 में फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर, सर चार्ल्स 'इलियट' ने अनेक भाटों की सहायता से कराया था। 
कन्नौज रियासत एक समय फर्रुखाबाद के अन्तर्गत ही थी। इसके अतिरिक्त
सर जार्ज 'ग्रियर्सन' ने बिहार में इण्डियन एण्टीक्वेरी तथा 'विसेंट स्मिथ' ने बुन्देलखण्ड लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया में भी आल्हाखण्ड के कुछ भागों का संग्रह किया था।

वाटरफील्डकृत अनुवाद "दि नाइन लेख चेन"= (नौलखा हार) अथवा "दि मेरी फ्यूड" के नाम से कलकत्ता-रिव्यू में सन १८७५-७६ ई० में इसका  प्रकाशन हुआ था।

इलियट के अनुरोध पर डब्ल्यू० वाटरफील्ड ने उनके द्वारा संग्रहीत "आल्हखण्ड का अंग्रेजी अनुवाद भी किया था। जिसका सम्पादन 'ग्रियर्सन' ने १९२३ ई० में किया।
यूरोपीय महायुद्ध में सैनिकों को रणोन्मत्त करने के लिए ब्रिटिश गवर्नमेंट को इस 'आल्हाखण्ड' का सहारा लेना पड़ा था।
यह वीर रस का रसायण है ।
जस्सराज तथा बच्छराज बनाफर गोत्रीय यदुवंशी/अहीर क्षत्रिय थे। वनों में फिर फिर कर ये लोग गायें तथा भैंसे चराते थे 👇

"वन में फिरें वनाफर यौद्धा ।
लिए हाथ में धनुष तीर ।

दोऊ भइया गइयन चरबय्या 
आल्हा-ऊदल वीर अहीर ।।

कुछ इतिहासकार इनका निकासा बक्सर(बिहार) का मानते हैं।

इनके लिए दलपति अहीर की पुत्रियां 'दिवला' तथा 'सुरजा' व्याही थीं, जिन्हें दलपति ग्वालियर( गोपालपुर ) का राजा बताया गया है।
 
दुर्धर्ष योद्धा दस्सराज-बच्छराज परमाल के यहाँ सामन्त/सेनापति थे। 
जिन्हें माढ़ोंगढ़ के राजा जम्बे के पुत्र कडिंगाराय ने सोते समय धोखे से गिरफ्तार करके कोल्हू में जिंदा पेर कर खोपड़ी पेड़ पर टँगवा दी थी।

जिसका बदला पुत्रों, आल्हा-ऊदल और मलखे-सुलखे ने कडिंगाराय और उसके बाप को मारकर लिया और इस कहावत को चरितार्थ कर दिखाया कि अहीर 12 वर्ष तक भी अपना बदला नहीं भूलता। 

स्वाभिमानी वीर आल्हा-ऊदल ताउम्र परमाल तथा कन्नौज के राजा जयचन्द के विश्वसनीय सेनापति बने रहे। 
जबकि मलखान ने सिरसा में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था। 
कन्नौज नरेश जयचन्द, सम्राट पृथ्वीराज के मौसेरे भाई थे जिनकी पुत्री संयोगिता को पृथ्वीराज द्वारा भगाना, दोनों के बीच वैमनष्यता का कारण बना था। 

जिसका कुफल सारे देश को भोगना पड़ा। 
संयोगिता अपहरण के समय ही 'एटा' जनपद में रुस्तमगढ़ के पास पृथ्वीराज के दस्ते से दुस्साहसपूर्वक टकराते हुए जखेश्वर यादव (जखैया) शहीद हुआ थे। 
जिसकी जात ककराला और पैंडत (फिरोजाबाद) में आज भी होती है। 
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'बनाफर' वंश को ओछा (तुच्छ) समझकर राजा इन्हें अपनी कन्याएँ ब्याहने में हिचकते थे।

किन्तु इन्होंने तलवार के बल पर अधिकांश राजाओं को अपना "करद" टैक्स देने वाला बनाकर उनकी लड़कियां व्याही थीं। जिसकी गवाही आल्हखण्ड की यह निम्न पंक्तियां स्वयं देती हैं...
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"जा गढ़िया पर चढ़े बनाफर,
ता पर दूब जमी है नाय।
दृष्टि शनीचर है ऊदल की,
देखत किला क्षार है जाय।।

स्वयं पृथ्वीराज चौहान को आल्हा-ऊदल की तलवार के आगे विवश होकर, न चाहते हुए भी, अपनी पुत्री बेला, चन्द्रवंशी 'परमाल' के पुत्र ब्रह्मा को व्याहनी पड़ी थी। 

परमाल की पुत्री 'चन्द्रावलि' बाँदोंगढ़ (बदायूं) के राजकुमार इंद्रजीत यादव को व्याही थी।

उरई का चुगलखोर राजा 'माहिल' परिहार स्वयं अपने बहिनोई राजा 'परमाल' से डाह मानते हुए उनके विरुद्ध 'पृथ्वीराज चौहान' को भड़काता रहता था। 

क्योंकि महोबा उसी के बाप 'वासुदेव' का था जिसे परमाल ने ले लिया था।
सन 1182 में हुए दिल्ली-महोबा युद्ध में कन्नौज सहित यह तीनों ही राज्य वीर विहीन हो गए थे। 
इसी कमजोरी के कारण भारत पर विदेशी हमले प्रारम्भ हो गए थे...

एक जनश्रुति के अनुसार जब युद्ध के मैदान में एकवार वीर अहीर आल्हा थे तब उनकी पत्नी "सुनवा अपने पुत्र इन्दल" से पूछती है कि कहां है तुम्हारे पिता आल्हा ?

पुराने भारतीय रिवाजों में पत्नी के  द्वारा  पति का नाम लेना वर्जित था।

जबकि सुनवा ने इस परम्परागत  लोकाचार का लोप किया इस कारण आल्हा ने अपने धर्म का पालन करते हुए सुनवा का त्याग कर दिया 
अब कुछ राजपूत संघ के 'लोग' इन्हें राजपूत मानते हैं ।
'परन्तु ये मूलतः अहीर थे जो यौद्धिक क्रियाओं के कारण कुछ इतिहास कारों ने राजपूत रूप में इनका वर्णन किया  'परन्तु अधिक प्रमाण इनके अहीरों के रूप में ही हैं 

राजपूत' शब्द वास्तव में 'राजपुत्र' शब्द का अपभ्रंश है ।
'परन्तु राजपुत्र राजा की वैध सन्तान 'न होकर दासी से उत्पन्न सन्तान था ऐसा परवर्ती इतिहासकारों का मत था  
इसी लिए राजपुत्र को राजकुमार
के समतुल्य नहीं माना गया।
और इस देश में (मुसलमानों) मुगलों के आने के पश्चात राजपूत शब्द प्रचलित हुआ है। 

प्राचीन काल में राजकुमार अथवा राजवंश के लोग 'राजपुत्र' कहलाते थे,
इसीलिये सैनिक वर्ग के सब लोंगों को मुसलमान लोग राजपूत कहने लगे थे।

अब यही राजपूत शब्द राजपूताने में रहनेवाले क्षत्रियों की एक जाति का ही सूचक हो गया है। 
पहले कुछ पाश्चात्य विद्वान् कहा करते थे कि 'राजपूत' लोग शक आदि विदेशी जातियों की संतान हैं और वे क्षत्रिय तथा आर्य नहीं हैं।
'परन्तु यह बात भी पाश्चात्य विद्वानों की आँशिक रूप से ही सत्य है।
क्योंकि राजपूत एक संघ हैं जिसमें अनेक विदेशी ,आदिवासी , बंजारे "चारण और भाट जातियों की समावेश होते हुए भी  कुछ शाखा शाखाऐं गुर्जरों जाटों और अहीरों से निकल कर भी सम्मलित हो गयी हैं ।

यह ठीक है कि कुछ जंगली जातियों कोल" किरात" के समान हूण , कुषाण, शक ,आदि कुछ विदेशी जातियाँ भी राजपूतों में मिल गई हैं। परन्तु अब सभी राजपूतों को विदेशी या वर्णसंकर नहीं माना जा सकता है ।
राजपूत भारतीय इतिहास में वीरता और स्वाभिमान का पर्याय रहा है।
रही शकों की बात, सो वे भी आर्य ही थे, यद्यपि भारत के बाहर बसते थे। 
भारतीय पुराणों में राजा नरिष्यन्त के वंशज शक बताऐं हैं।
उनका मेल ईरानी आर्यों के साथ आधिक था। 
"चौहान, सोलंकी, प्रतिहार, परमार, सिसोदिया आदि राजपूतों के प्रसिद्ध कुल हैं।
जो गुर्जरों और जाटों से निकले हैं। 
इसी लिए चौहान सोलंकी प्रतिहार परमार आदि टाइटल गूजर जाट और राजपूतों में लोग भी लगाते हैं।
"ये चौहान सोलंकी प्रतिहार आदि  लोग प्राचीन काल से बहुत ही वीर, योद्धा, देशभक्त तथा स्वामिभक्त होते आए हैं। इसलिए ये टाइटल कुछ अन्य जातियों ने भी लगा लिए हैं। जिनकी पहचान करना सरल है। उनकी परिपाटी और निकासी आदि पूछने पर न बताने पर वे नकली सिद्ध होते हैं।
'परन्तु ज्यादा तर राजपूत संघ में कालांतर वर्ण संकर (Hybrid) जातियों का भी समावेश हो जाने से अब राजपूत भी मिश्रण अथवा संघ बन गया जो वर्णसंकरता से समन्वित है। परन्तु सभी राजपूत इस प्रकार के नहीं हैं।
शालीनता गम्भीरता और राष्ट्रीय प्रेम से समन्वित होना असली राजपूतों की प्रवृत्ति है।
परन्तु फर्जी डींगे मारना दूसरी जातियों को हीन समझकर पीठ पीछे गाली देना ये असली राजपूतों की प्रवृत्ति नहीं है।

कई बार लोग राजपूत और क्षत्रिय दोनों शब्दों को एक अर्थ में इस्तेमाल कर लेते हैं वो सही नहीं है ।

  • राजपूत शब्द संस्कृत के राज पुत्र का ही अपभ्रंश है।  मध्यकालीन सामन्तीय खिताब था 
  • जिन्होंने केंद्रीय राजनीतिक सत्ता में अपने अपने क्षेत्रों में अपने अपने छोटे छोटे राज्य बनाए और अपनी अलग पहचान के लिए संस्थापक के नाम के पीछे अपनी राजाओं के पुत्र या वंशज होने की पहचान जोड़ी ।
  •  राजा का बड़ा पुत्र राजा बनता था लेकिन उनके पुत्र कई होते थे इसलिए उन्हें राज्य के विभिन्न हिस्से का मुख्य बना दिया जाता था और इस तरह हर जगह उनके वंशज बढ़ते थे और एक परिवार मुख्य परिवार होता था ये एक वृक्ष के जैसी संरचना थी बिल्कुल ।
  • राजपूत शब्द के समानान्तर ठाकुर शब्द तुर्की शब्द "तक्वुर" का भारतीय भाषाओं में विकसित रूप था जिसका अर्थ है सामन्त अथवा छोटी रियासत का मालिक जमींदर 

आज बड़ी संख्या में राजपूत मौजूद हैं तो लोग कह सकते हैं इतना संख्या कैसे मुमकिन है क्या सभी राजाओं के बेटे हैं ! नहीं ऐसा नहीं है पूर्व मध्यकाल से मध्यकाल तक जो क्षत्रिय वर्ण के अंदर थे उन्होंने इस शब्द को अपना लिया होगा इसलिए क्षत्रिय और राजपूत दोनों शब्द समान नजर आते हैं ।

धीरे धीरे 17–18 वीं सदी तक राजपूत ठाकुर जो बड़ी जमीन के जागीरदार थे वो अंग्रेजो के समय खेती से भी जुड़ गए इसलिए आपको आज राजपूत किसान भी दिख सकते हैं  और किसान पशुपालक तो अवश्य होगा  बाद के समय में  इनका पेशा और जाति का जो  सम्बन्ध था वह  कमजोर हो गए।

राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भारतीय पुराणों पुराण कारों ने लिखा है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇
< ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
←  ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १० श्लोक संख्या १११
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10/१११
अर्थानुवाद:-
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है ! ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति है ।
क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।
और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड मे अध्याय २६ में 
वर्णित है ।
शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।१।
तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद :।२।
अर्थानुवाद:-
कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है 
जो क्रूरकर्मा शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।

ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर राजपूतों की उत्पत्ति का एेसा वर्णन किया है ।
स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति( पराशरःस्मृति )
वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
पर चारणों का वृषलत्व कम है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।
चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं;  कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
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सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता  नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, "मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता" ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है कि जब राजा, 
अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे।👇
सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...
[7] "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009

[8] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.
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विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं हैं  क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से एक सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं हाँ इतना हो सकता कि कालांतर में राजपूत संघ में अनेक जातियों का समावेश हो गया हो'

कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गयी 
जिसमें कुछ चारण" भाट तथा विदेशी जातियों का समावेश हो गया।

और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
जैसे
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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'परन्तु बहुतायत से चारण और भाट या भाटी बंजारों का समूह ही राजपूतों में विभाजित है ।
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उपसमूह का नाम जनसंख्या।
नाइक 471,000
चौहान 35,000
माथुरा 32,000
सनार (anar )23,000
लबाना (abana) 19,000
मुकेरी (ukeri )16,000
हंजरा (anjra) 14,000
पंवार 14,000
बहुरूपिया ahrupi 9100
भूटिया खोला 5,900
राठौड़--
जादौं -
जादौं मथुरा पुरी के दसवें अहीर शासक ब्रह्मपाल से निकली शाखा के लोग हैं  जो कुछ चारण बंजारों में समाहित हो गयी।
तथा कुछ राजपूतों में समाहित हो गये।
ग्वालियर गजेटयर 
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अल्हा_उदलजी_के_नाना_ग्वालियर_के_यदुवंशी_(गोपालक)_राजा_थे

महायोद्धा_आल्हा_और_ऊदल_यादव_वीर
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वीरभूमि_बुंदेलखंड जिसने एक से बढ़ कर एक शूरमा दिए जिनकी कीर्ति वीररस के गीतों में आज भी जीवित है।

आल्हा_ऊदल दो वीर #यदुवंशी महाप्रतापी योद्धा भाई जिनके बारे में कहावत है कि इनसे तलवारें हार गई।

इनके पिता दसराज दो भाई थे एवं उस समय उत्तर भारत के  शासक चंदेल वंश के राजा बच्छराज और दसराज  को अपने पुत्र की तरह मानते थे और ये दोनों चंदेल राजवंश की सेना के प्रधान सेनापति थे।

मध्यप्रदेश में यदुवंशीयों की दो शाखा बहुत प्रसिद्ध है "हवेलिया यादव" और "वनाफर यादव" अर्थात वनों में रहने के कारण वनाफ़र कहलाए।

दसराज जी का विवाह उस समय ग्वालियर के हैहय शाखा के यदुवंशी गोप राजा दलपत जी की राजपुत्री देवल से हुआ था।

अल्हा- उदल के नाना ग्वालियर के गोपालक( यदुवंशी) राजा थे, ग्वालियर को गोपांचल, गोमांतक कहा जाता था. गोप राजाओं ने यहाँ गोपांचल किला बनाया. (Archiological survey of India) के खुदाई मे यहाँ कृष्ण जी से संबंधित बहुत से ऐतेहासिक श्रोत मिला है. जिसमे कृष्ण जी के दादा सुरसेन जी के गोपराष्ट की राजधानी यही था बाद मे उग्रसेन जी के समय मे राजधानी मथुरा हो गई थी.
आल्हा ऊदल अहीर जाति के ही सिद्ध होते हैं 
उनका राजपूत होना औपाधिक रूप है नकि राजपूत जाति से सम्बन्धित होना-

ग्वालियर के यदुवंशी गोपालक राजा दलपत  की राजकुमारी देवल के शौर्य की चर्चा पूरे मध्यभारत में थी।
मान्यता के अनुसार एक बार राजकुमारी देवल ने एक सिंह को अपने शमशीर के एक ही वार से ध्वस्त कर दिया था एवं इस घटना को देख दसराज बहुत प्रभावित हुए ।
गोप राजा दसराज राजकुमारी देवल से विवाह प्रस्ताव लेकर राजा दलपत  के पास पहूंचे।
दलपत सिंह ने विवाह के प्रस्ताव को स्विकार कर लिया।
वनाफ़र यादव और हैहय यादव में आपस में शादी ब्याह की परंपरा पुरानी थी एवं दसराज  की माता भी हैहय शाखा की यादव थीं।

दसराज  और राजकुमारी देवल को माँ शारदा की कृपा से आल्हा ऊदल के रूप में दो महावीर पुत्रों की प्राप्ति हुई।
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देवल और दसराज सिंह के इन पुत्रों का शौर्य दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान से भी बढ़कर था।

पृथ्वीराज चौहान और आल्हा ऊदल के बीच 52 बार युद्ध हुआ और हर बार पृथ्वीराज की सेना को भारी क्षति हुई। बुंदेली इतिहास में आल्हा ऊदल का नाम बड़े ही आदर भाव से लिया जाता है। बुंदेली कवियों ने आल्हा का गीत भी बनाया है। जो सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गांव गली में गाया जाता है।

माहोबा में स्थित माँ शारदा शक्ति पीठ पृथ्वीराज और आल्हा के युद्ध की साक्षी है।

पृथ्वीराज ने बुन्देलखंड को जीतने के उद्देश्य से ग्यारहवी सदी के बुन्देलखंड के तत्कालीन चन्देल राजा परमर्दिदेव (राजा परमाल) पर चढाई की थी एवं राजा परमाल को परास्त करने के लिए उनकी राजकुमारी बेला के अपहरण की नीति बनाई।

कीरत सागर के मैदान में महोबा व दिल्ली की सेना के बीच युद्ध हुआ। इसमें पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई और इसी रण में आल्हा ऊदल ने पृथ्वीराज के प्राण जीवनदान में दिए।

मां शारदा के परम उपासक आल्हा को वरदान था कि उन्हें युद्ध में कोई नहीं हरा पायेगा। 
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बैरागढ़ का युद्ध-
आल्हा -ऊदल और पृथवीराज के बीच आखिरी बार युद्ध बैरागढ़ में हुआ था।

बुंदेलखंड को जीतने के लिए पृथ्वीराज ने आखिरी बार चढ़ाई करी ।

वीर योद्धा आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान से युद्ध के लिए बैरागढ़ में ही डेरा डाल रखा था। यहीं वह पूजा अर्चना करने आए तो मां शारदा ने साक्षात दर्शन देकर उन्हें युद्ध के लिए शक्ति दी। काफी खून खराबे के बाद पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा। वीर ऊदल इस रण में वीरगति को प्राप्त हुआ।

युद्ध से खिन्न होकर आल्हा ने मंदिर पर सांग चढ़ाकर उसकी नोक टेढ़ी कर वैराग्य धारण कर लिया। मान्यता है कि मां ने आल्हा को अमर होने का वरदान दिया था। लोगों की माने तो आज भी कपाट बंद होने के बावजूद कोई मूर्ति की पूजा कर जाता है। 
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अगर आल्हा उदल सिकंदर के समय होते तो सिकंदर को भी मूंह की खानी पड़ती।

क्या बाबर, क्या चंगेज़ खान, क्या गज़नी क्या गौरी सब के सब आल्हा ऊदल की मार से चटनी बन जाते।
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"बड़े लड़ैया महोबे वाले खनक-खनक बाजी तलवार
बड़े लड़इया आल्हा-ऊदल जिनसे हार गई तलवार... ॥

नीचे" archaeological survey of india के screenshots" है जिसमें अलैहा और उदल को अहीर सरदार बट्टाया है 
और कंमेंट मे ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ़ बंगाल का भी स्क्रीनशॉट दिया है जसिमें बनाफर कि उत्पति बंफर ग्वालो से बताये गयी है जो जंगल में गाये चराते थे
Refrences
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सभी ऐतिहासिक प्रूफ अल्हा- उदल को 'यादव' कुल के सरदार बताती है...

अल्हा- उदल अहीर सरदार
Archeological survey of India. 
https://books.google.co.in/books?id=WCArAAAAYAAJ&pg=PA73&dq=alha+udal+ahir&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwiY1uK4usTpAhWMzjgGHXg_D7cQ6AEIFzAC#v=onepage&q=alha%20udal%20ahir&f=false
अल्हा- उदल दो शक्तिशाली बहादुर 'यादव' पहलवान थे. जिसमे अल्हा को बलराम तथा उदल को कृष्ण का अवतार माना गया.
https://books.google.co.in/books?id=8OIUAQAAIAAJ&q=Alha+Udal+Yadav&dq=Alha+Udal+Yadav&hl=hi&sa=X&ved=2ahUKEwiNrLqFquLwAhV6zTgGHRv8BF0Q6AEwA3oECAMQAw
अल्हा- उदल जिनकी वीरता की कहानी काव्यों और लोकगीतो मे सुनी जाति है वो यादव जाति के थे.
Source- Power and Influence in India: Bosses, Lords and Captains
https://books.google.co.in/books?id=Vq6YvOM__nsC&pg=PA55&dq=Alha+Udal+Yadav&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwiLy4fFp-LwAhVkwTgGHbLqAoE4ChDoATABegQICRAD#v=onepage&q=Alha%20Udal%20Yadav&f=false
अल्हा- उदल, दसराज के बेटे थे जो राजपूतों से लड़ते थे, वे बनाफार कुल के थे जिसकी उत्पति यादव/ अहीर जाति से है
Source- A Citygraphy of panchpuri Haridwar. 

https://books.google.co.in/books?id=_DwTEAAAQBAJ&pg=PA60&dq=Alha-+Udal+Ahir&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwiNuePZwuPvAhUs6XMBHWEHDBI4ChDoATADegQICBAD#v=snippet&q=Alha%20Udal%20Ahir%2F%20Yadav&f=false

असली अल्हा खंड मे अल्हा- उदल को अहीर ( ग्वाल) कहा गया है.

https://books.google.co.in/books?id=jAcaAQAAMAAJ&dq=asali+bara+alha+khanda&focus=searchwithinvolume&q=%E0%A4%85%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%B0+

अल्हा- उदल, के नाना ग्वालियर के गोपालक(गोप) राजा थे. जिनको दो बेटी थी जिसकी शादी अहीर दासराज और बच्छराज के साथ किया था.

Source- Cambridge University press. 
 
https://books.google.co.in/books?redir_esc=y&id=MMFdosx0PokC&q=Gopalaka#v=snippet&q=Gopalaka&f=false

महान अंग्रेज इतिहासकार कांनिंघम ने भी अल्हा- उदल को अहीर सरदार लिखा है.
https://books.google.co.in/books?id=2attNcbcq8kC&dq=alha%20ahir&pg=PA73#v=onepage&q=alha%20ahir&f=false

रान्घारो(राजपूतों) के पास कुछ भी नही है शिवाय बकलोली के.....

अब विकिपीडिया पर आल्हाद( आलाह) को किस प्रकार से राजपूत बनाने की बात कि गयी है प्रस्तुत है यह लेख-

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