बुधवार, 31 मई 2023

पुरुरवा और उर्वशी- और कुरुवंशी अहीर

गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग- तथा शक्ति" भक्ति "सौन्दर्य और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म का वर्णन-

स्वयं भगवान विष्णु आभीर जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - राधा" दुर्गा "गायत्री" और उर्वशी आदि को भी इन अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं। 

और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह  दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में  वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है।
यह उसी परम्परा का अवशेष हैं। 

गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए
स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।  इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी 
के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं । उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से सम्बन्धित रहीं हैं ।
मानवीय रूप में यह महाशक्ति अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की  कन्या के रूप में जन्म लेकर  कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से  सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद प्राप्त करती हैं। और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी बनती हैं ।  विष्णु अथवा नारायण के उरु (जंघा) अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण  भी इन्हें उर्वशी कहा गया है । प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं। इसी से उर्वरिका(उर्वरा)अथवा उर्वरी शब्द विकसित होते हैं। उर्वशी की व्युत्पत्ति करते हुए पुराणकार ने वर्णन किया-

"नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी । ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
अर्थात नारायण के उरु को भेद कर उर्वशी उत्पन्न होती हैं और यह ऐल ( पुरुरवा) की पत्‍नी बनती हैं।
उर्वरा एक अन्य अप्सरा का नाम है। तो उर्वशी एक अन्य दूसरी अप्सरा का नाम है।

"उर्वशी मेनका रंभा चन्द्रलेखा तिलोत्तमा ।
वपुष्मती कान्तिमती लीलावत्युपलावती ।९१।
अलम्बुषा गुणवती स्थूलकेशी कलावती ।
कलानिधिर्गुणनिधिः कर्पूरतिलक- उर्वरा ।९२।
सन्दर्भ:-
"श्रीस्कांदमहापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्धे अप्सरः सूर्यलोकवर्णनंनामनवमोऽध्यायः।९।

तथा 

वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।        उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।
  • अनुवाद :- नन्दजी  को कृष्ण अपने वैष्णव विभूतियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि  छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, मेरी विभूति हैं इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनां नन्दादि-
  • णोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३

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    सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है   इसी कारण स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को  अप्सराओं की स्वामिनी  नियुक्त किया।

    "अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
    इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।

    "ततो गान्धर्वलोकश्च यत्र गन्धर्वचारणाः ।
    ततो वैद्याधरो लोको विद्याध्रा यत्र सन्ति हि ।८३।

    ततो धर्मपुरी रम्या धार्मिकाः स्वर्गवासिनः।
    ततः स्वर्गं महत्पुण्यभाजां स्थानं सदासुखम् ।८४।
    ततश्चाऽप्सरसां लोकःस्वर्गे चोर्ध्वे व्यवस्थितः ।
    अप्सरसो महासत्यो यज्ञभाजां प्रियंकराः ।८५।
    वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।
    युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः ।८६।
    दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।
    दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।
    कामकेलिकलाभिज्ञा द्यूतविद्याविशारदाः ।
    रसज्ञा भाववेदिन्यश्चतुराश्चोचितोक्तिषु ।८८।
    नानाऽऽदेशविशेषज्ञा नानाभाषासुकोविदा ।
    संकेतोदन्तनिपूणाः स्वतन्त्रा देवतोषिकाः ।८९।
    लीलानर्मसु साभिज्ञाः सुप्रलापेषु पण्डिताः ।
    क्षीरोदस्य सुताः सर्वा नारायणेन निर्मिताः ।1.456.९०।
    "स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्यायः 9
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    इन देवीयो को पुराकाल में वैष्णवी शक्ति के नाम से जाना जाता था। विभिन्न ग्रंथों में इन देवीयों के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म आभीर जाति में हुआ है। 
    विचारणीय बिन्दु  हैं कि भारतीय संस्कृति में ये चार परम शक्तियाँ अपने नाम के अनुरूप कर्म करने वाली" विधाता की सार्थक परियोजना का अवयव सिद्ध हुईं ।
    राधा:-राध्नोति साधयति पराणि कार्य्याणीति ।
    जो दूसरे के अर्थात भक्त के कार्यों को सफल करती है। नाम को सार्थक करती हैं।
    राधा:-  राध + अच् ।  टाप् = राधा ) राध् धातु = संसिद्धौ/वृद्धौ 
    राध्= भक्ति करना और प्रेम करना।

    गायत्री:- गाय= ज्ञान + त्री= त्राण (रक्षा) करने वाली अर्थात जो ज्ञान से ही संसार का त्राण( रक्षा) गायन्तंत्रायतेइति। गायत्  + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः।)

    विशेष:-
    "दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
    न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
    अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री  नाद ब्राह्म( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।
    न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
    न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
    अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं 
    काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।
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    गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
    गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
    अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्तानें उत्पन्न होती हैं।
    गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
    प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई। 
    (पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति।  “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।
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    सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा।
    पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्रयातः पुरूरवाः ।19।
    महाभारत वन पर्व -/88/19
     इति महाभारतोक्तवचनात् पुरौ पर्व्वते रौतीति वा ।  पुरु + रु + “ पुरूरवाः ।“ उणादिकोश ४ ।  २३१ । इति असिप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।)  बुधस्य पुत्त्रः । स तु चन्द्रवंशीयादिराजः।
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    समाधान:- "गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि  गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा "दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। देवीभागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा" राधा "गायत्री के ही   नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्दपुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से उपर्युक्त व्युत्पत्ति  क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री खैर गायत्री शब्द  का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही है। परन्तु बाल्यावस्था गायत्री गायों की पालना करने वाली हुईं।  

    अहीर जाति के आदि पुरुष के रूप में यद्यपि पुरूरवा और उर्वशी या भी वर्णन है।
    क्योंकि अत्रि' चन्द्रमा और बुध आकाशीय पिण्ड हैं भागवत पुराण में बुध के जन्म के विषय में बताया गया है।
    परीक्षित! ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।

    कुरुवंश के अन्तर्गत 
    कोसलिया और अन्य कुरुवंशी अहीर नस्लों का इतिहास भी संज्ञान में आता है।
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    पाठकों को आश्चर्य होगा कि कुरुवंश के गोत्र अहीरों  में कैसे समाहित हुए ?  क्योंकि अभीर तो सिर्फ महाराज यदु के वंशजों की जाति है।
    अतः सभी यदुवंशी "अहीर" तो हैं लेकिन हर अहीर " यदुवंश से सम्बन्धित हो यह भी सम्भव" नहीं है। 
    लोग ये भी कहेंगे कि अहीरों ने अर्जुन को पञ्चनदप्रदेश(पंजाब) में अहीरों नें परास्त कर लूटा था।
    वे अहीर नारायणी सेना के वृष्णि अन्धक तथा दाशार्ह कुल के थे गोप नाम भी अहीरों का था
    महाभारत अथवा अन्य पुराणों में जोड़ तोड़ का क्रम निरन्तर प्रकाशन काल में हुआ । अन्यथा जिन नंद और यशोदा की महिमा का वर्णन करने वाले पुराणों में उनके पिता पर्जन्य और माता वरीयसी या नाम तक नहीं होना षडयंत्र का हिस्सा है।

    महाभारत के विक्षिप्त (नकली )मूसल पर्व के अष्टम् अध्याय का वही श्लोक  यह है और जिसका प्रस्तुतिकरण ही गलत है ।
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    ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
    आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।

    अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने आपस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया।
    महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
    निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है ।
    और इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का  वर्णन किया गया है ।
    इसे भी देखें---
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    "सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन 
    सख्या  प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।
    अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
    गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि ।२०।
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    हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
    कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
    परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
    और मैं अर्जुन कृष्ण की  गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
    (श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय
    एक श्लोक संख्या २०)
    पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-

    महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है।
    कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
    भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण।।

    अर्थ- तुलसी दास जी कहते हैं ।
    कि समय बड़ा बलवान होता है।
    वो समय ही है जो व्यक्ति को छोटा या बड़ा बनाता है। जैसे एक बार जब महान धनुर्धर अर्जुन का समय खराब हुआ तो वह भीलों के हमले से गोपियों की रक्षा नहीं कर पाए।
    पता नहीं तुलसी ने भीलों वाला अनुवाद कहाँ से किया ?

    यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण रूढ़ हो गया  है ;  क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलता है। परन्तु कुरुक्षेत्र में गुरु काम कृषि और गोपालन का प्रसंग लक्ष्मी नारायणी संहिता में प्राप्त होता है। अत: उनका गोप होना भी सिद्ध ही है।

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    भारत के आधुनिक अहीरों में कुछ गोत्र जैसे "कोसलिया, "बाबरिया, "हरबला, "पठानिया," सुल्तानिया, आदि सेैकड़ों गोत्र अपनी उत्पत्ति कौरवों/पाण्डवों से बतलाते हैं ये लगभग 15℅ प्रतिशत के रूप में हैं।

    और 10% के लगभग अहीरों में ययाति के अन्य दौनों पुत्रो ,द्रहु और अनु के वंश के गोत्र हैं।
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    वैसे कुरुवंशी , यदुवंशी आदि इनके महान पिता एक ही हैं जिन्हें सम्राट ययाति कहा जाता है जो इस धरती के सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे। इसीलिए यदुवंशियों और कुरुवंशियों को अलग कहना सही नहीं क्यूंकि इनकी रगों में बहता हुआ खून एक ही पिता का है।
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    सभी कुरुवंशी अहीर गोत्रों पर थोड़ा प्रकाश डालें। तो 
    अहीरवाल में जो आबाद है पांडु-पुत्र अर्जुन और रानी सुभद्रा के वंशज वीर कोसलिया अहीरों का प्रसिद्ध गाँव और तहसील, कोसली है इसी से शब्द विकसित है।
    कोसलिया अहीर मूलतः अर्जुन और सुभद्रा के पुत्र वीर अभिमन्यु के वंशज माने जाते हैं।

    इसीलए इन्हें यादव वंशी न कहकर पांडव-वंशी या कौरववंशी अहीर कहा जाता है।
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    पाण्डव वीरों की माता कुंती स्वयं यादव वंश से थीं तथा द्वारिकाधीश की बुआ थीं।
    इन्हीं महान यदुवंशी माता कुंती के कोख से चार महावीर देव पुत्रों ने जन्म लिया था जिन्हें हम ज्येष्ठ कौंतेय महारथी कर्ण, धर्मराज युधिष्ठिर, गाण्डीवधारी अर्जुन और गदाधारी भीमसेन के नाम से जानते है।

    कर्ण का जन्म समय से पूर्व होने के कारण उन्हें त्याग दिया गया और माता कुंती ने अपने पति पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के पुत्रों नकुल और सहदेव को भी अपने पुत्रों संग ही पाला पोसा था।

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    इसके अलावा पांडव वीर अर्जुन की रानी सुभद्रा जिनसे वीर अभिमन्यु हुआ वो भी यादववंश से थीं तथा सुभद्रा बव़लभद्र  की बहिन थीं। 

    इतना ही नहीं यदुवंशियों तथा पांडव वंशजों की कुलदेवी एक ही हैं जिन्हें योगमाया कहा जाता है जिन्होंने वसुदेव जी के चचेरे भाई नंदराय जी की पुत्री के रूप में जन्म लिया तथा चंद्रवंश की अराध्य कुलदेवी कहलाईं।
    मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:।
    तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या  साधारणां स्वयम्।।७।।
    "अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं‌। उन सबको  मैं (गायत्री ) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।

    किसी के द्वारा दिए गये शाप को समाप्त कर समान्य करना और समान्य को फिर वरदान में बदल देना अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा ही सम्भव हो सका । 

    अन्यथा कोई देवता  किसी अन्य  के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।

    अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥
    सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।

    "अनुवाद:-यह ब्रह्मा ( विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु  विप्रादि वर्णों के  मन्त्र का  पुर:सर( अगुआ)  ब्रह्मा ही हैं।

    अनुवाद:-सावित्री ने कहा कि किसी वर्ण का मनुष्य मन्त्र विधि से ब्रह्मा का पूजन कभी न करे।८।

    ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु समये धरणीतले ॥
    न ब्रह्मणा विना किंचित्कृत्यं सिद्धिमुपैष्यति ॥९॥
    "अनुवाद:-फिर भी मैं गायत्री कहती हूँ। सम्पूर्ण पृथ्वी पर ब्रह्मा के बिना ब्राह्मण आदि वर्णों का कोई कार्य सिद्ध नहीं होगा।

    कृष्णार्चने च यत्पुण्यं यत्पुण्यं लिंग पूजने॥
    तत्फलं कोटिगुणितं सदा वै ब्रह्मदर्शनात्॥
    भविष्यति न सन्देहो विशेषात्सर्वपर्वसु।१०।

    "अनुवाद:-कृष्ण ( विष्णु) अर्चना और लिंगार्चना से जो पुण्य मिलता है। ब्रह्मा के दर्शन मात्र से उसका करोड़ों गुना फल मिलेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है। विशेष कर पर्वों पर तो दर्शन जनित अत्यधिक फल लाभ होगा।१०।

    त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥
    तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति ॥११॥
    "अनुवाद:-हे विष्णु आपको जो उस सावित्री के द्वारा यह शाप दिया कि मृत्युलोक में जन्म लेकर अन्य के दास होंगे ।११।

    तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि ॥
    यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः ॥
    "अनुवाद:- तो इस सम्बन्ध में आपको सावित्री द्वारा जो यह शाप दिया है उसका मैं निवारण करती हूँ। 

    कि आपके दो रूप होंगे ! मुझ गायत्री को  सावित्री ने गोप कुल में उत्पन्न कहा है इस सन्दर्भ में मेरा यह कथन है। कि हे विष्णु आप भी  गोप कुल को पवित्र करने के लिए मेरे ही गोपकुल में जन्म लेंगे।८-१२।
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    एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥
    तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥
    "अनुवाद:- तब पृथ्वी पर जन्म लेने वाले आपके एक शरीर का नाम कृष्ण तथा दूसरे शरीर का नाम अर्जुन होगा। अपने उस दूसरे अर्जुन शरीर के लिए तुम सारथि बनोगे।

    विशेष :- अहीर अथवा गोप जाति प्राचीनतम है  मत्स्य पुराण में उर्वशी अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित पद्मसेन आभीर की पुत्री है । जिसने कल्याणनी नामक कठोर व्रत का सम्पादन किया और जो अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बन गयी यही कल्याणनि व्रत का फल था।

    उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की 18 ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- है। अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
    पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे ।
     इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के  गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

    अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है। परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्ण आभीर तथा गोष( घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है। इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए ।

    अहीर अथवा गोप ही आज के किसान हैं।
    जिसमें कुछ कबीला जाटों में समाहित हुए कुछ गुर्जरों में भी समाहित हुए है।
    राजपूत भी एक जातीयों का संघ है। जिसका विकास बहुत बाद में भारत में ६०६ ई से ६४७ ईस्वी के समय से हुआ।   और चरम विकास १६ वीं सदी तक हुआ ।
    सम्भवत: इनमें भी अहीरों जाटों और गुर्जरो से निकल कर कुछ शाखाएं आज समाहित हो गयीं है।

    जैसे  अहीरों से निकले राजपूत जादौन, चुडासमा , और जड़ैजा भाटी आदि -  परन्तु ये राजपूत अब स्वयं को अहीरों से अलग मानने का राग आलाप रहे हैं। 

    अहीर अथवा गोप शब्द कई उतार-चढ़ावों के बाद आज तक समाज में यदुवंश को समाहित किए हुए है। यदुवंश के मूल प्रवर्तक यदु एक गोप अथवा पशपालक  होकर भी  लोकतान्त्रिक राजा थे।
    यद्यपि यदु के अन्य भाई जैसे तुर्वसु और पुरु को भी शास्त्र पशु पालक के रूप में वर्णित करते हैं।
    भारतीय पौराणिक कथा-कोश लक्षीनारायण संहिता में कुरुक्षेत्र का वर्णन करते हुए पुरु के वंशज कुरु को पशु पालक कहा है ।
    गायत्री द्वारा विष्णु को गोप रूप में दो शरीर ( कृष्ण और अर्जुन ) के रूप में उत्पन्न होने को कहना भी अर्जुन का गोपालक रूप है।

    कौसललिया अहीर स्वयं को पाण्डु का वंशज मानते हैं। परन्तु शास्त्र तथा समाज में आभीर शब्द केवल यदुवंश के गोपों के ही लिए रूढ़ हो गया। 

    अर्जुन को पञ्चनद प्रदेश ( पंजाब) में परास्त करने वाले नारायणी सेना से सम्बन्धित वृष्णि कुल के आभीर थे । जिन्हें नारायणी सेना के गोप कहा गया है।
    यादवों के लिए ही आभीर शब्द रूढ़ हो गया दरअसल आभीर एक जाति है जिसमें यदु वंश पुरु वंश और तुर्वशु वंश भी समाहित थे।


    इस स्थान पर हम यह सिद्ध करेंगे कि जाट "गूजर और अहीरों का रक्त सम्बन्ध अधिक सन्निकट है ।
    यद्यपि गूजर और जाटों के कुछ कबीले सपना सम्बन्ध सूर्यवंश से भी जोड़ रहे हैं।
    फिर भी इनमें स्वयं को यदुवंश से जोड़ने वाले कबीलों का जैनेटिक मिलान अहीरों से है।

    तीनों ही जातियों में गोत्र भी बहुत से समान हैं। सबसे बड़ी बात इनका ( डी॰ एन॰ ए॰)-जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तन्तुनुमा अणु हैं जिनको( डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल) या डी॰ एन॰ ए॰ कहते हैं।
     इसमें अनुवांशिक कूट( कोड) निबद्ध रहता है। इसी लिए गूजर जाट और अहीरों की प्रवृत्ति समान होती है । 

    परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए की अहीर जाति सबसे प्राचीनतम है। जब गुर्जर और जाट जैसे शब्द भी नहीं थे तब आभीर थे ।

     इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं। 

    कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
    तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।

    "यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।    
    अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।

    यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
    जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।

    कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
    सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।

     "अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने  के पांच कारण होते हैं  १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।

    श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
    तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।

    "अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया  वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।

    भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
    इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।

    "अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर  चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

    देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम ।
    कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७।

    "अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा  मैं हरि का  सदैव भजन करूँगा।७७।

    _________________
    कः पिता कोऽत्र वै माता सर्वे स्वार्थपरा भुवि।
    न कांक्षे तव राज्यं वै न दास्ये यौवनं मम ।७८।

    "अनुवाद:-कौन पिता है कौन माता है यहाँ सब स्वार्थ में रत हैं इस संसार में न मैं  अब तुम्हारे राज्य की इच्छा करता हूँ और ना ही अपने यौवन की ही इच्छा करता हूँ यह बात पुरु ने अपने पिता ययाति से कही ।७८।

    इत्युक्त्वा पितरं नत्वा हिमालयवनं ययौ।
    तत्र तेपे तपश्चापि वैष्णवो धर्मभक्तिमान् ।७९।

    "अनुवाद:- इस प्रकार कहकर पिता को नमन कर पुरु हिमालय के वन को चला गया और वहाँ तप किया और वैष्णव धर्म का अनुयायी बन भक्ति को प्राप्त किया।७९।

    कृषिं चकार धर्मात्मा सप्तक्रोशमितक्षितेः ।
    हलेन कर्षयामास महिषेण वृषेण च ।८०।

    "अनुवाद:-उस धर्मात्मा ने पृथ्वी को सात कोश नाप कर वहाँ हल के द्वारा कृषि कार्य भैंसा और बैल के द्वारा भी  किया।८०। 

    आतिथ्यं सर्वदा चक्रे नूत्नधान्यादिभिः सदा ।
    विष्णुर्विप्रस्वरूपेण ययौ कुरोः कृषिं प्रति ।८१।

    "अनुवाद:-:- नवीन धन धान्य से वह सब प्रकार से अतिथियों का सत्कार करता तभी एक बार विष्णु भगवान विप्र के रूप धारण कर कुरु के पास गये और उन्हें कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया। ८१।

    आतिथ्यं च गृहीत्वैव मोक्षपदं ददौ ततः ।      कुरुक्षेत्रं च तन्नाम्ना कृतं नारायणेन ह ।।८२।।

    "अनुवाद:-तब भगवान् विष्णु ने  कुरु का आतिथ्य सत्कार ग्रहण कर उसे मोक्ष पद प्रदान किया उस क्षेत्र का नाम नारायण के द्वारा कुरुक्षेत्र कर दिया गया।८२।

    कुरुक्षेत्र के समीपवर्ती लोग सदीयों से कृषि और पशुपालन कार्य करते चले आ रहे हैं। आज कल ये लोग जाट " गूजर और अहीरों के रूप में वर्तमान में भी इस कृषि और पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।८२। 

    ""सन्दर्भ:-
    श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने ययातेः स्वर्गतः पृथिव्यामधिकभक्त्यादिलाभ इति तस्य पृथिव्यास्त्यागार्थमिन्द्रकृतबिन्दुमत्याः प्रदानं पुत्रतो यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७३ ।।

    जाट इतिहास के महान अध्येता
    राम स्वरूपजून (झज्जर , हरियाणा के प्रतिष्ठित जाट इतिहासकार थे । वह जाटों के इतिहास नामक पुस्तक के लेखक हैं ।

    उनका जन्म हरियाणा के झज्जर जिले के नूना मजरा गांव में हुआ था ।

    राम सरूप जून लिखते हैं कि .... उन्होंने 1900 ईस्वी में अपना पाठ शुरू किया जब वह उस क्षेत्र में पढ़ने वाले पहले स्कूलों में एक दशक में थे।

    राम स्वरूप जून जाटों का रक्त सम्बन्ध अहीरों से निश्चित करते हैं।
     वे लिखते हैं कि  आज के अहीर ययाति  की यदु शाखा के हैं । वे यदु के दूसरे पुत्र सत्जित के वंशज हैं जबकि सभी गोत्र,  अहीरों के जाटों में भी पाए जाते हैं । दूसरे शब्दों में जाट और अहीर बहुत निकट संबंधी हैं।
     उनके गोत्रों को मिलाकर, जाट गोत्रों की कुल संख्या बढ़कर 700 हो जाती है। उत्तर पश्चिमी अहीरों में केवल 97 गोत्र हैं जिनमें 20 प्रतिशत जाट गोत्र भी शामिल हैं ।

    अलवरूनी ने तहकीके हिन्द में वसुदेव को पशुपालक जाट कहकर वर्णित किया है।

    वर्तमान में जाट और गुर्जर संघ हैं जिनमें अनेक देशी विदेशी जातियों का समावेश है। जो स्वयं को सूर्य वंशी या चन्द्र वंशी लिखते कुछ स्वयं को अग्नि वंशी भी लिखते हैं।

     परन्तु अहीर आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान हैं अहीरों के विषय में गोप रूप में यह वर्णन समीचीन ही है।

    स्कन्दपुराण- (नागरखण्डः) के अध्यायः 193 में वर्णन है कि 

    "यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः॥
    तत्र त्वं पावनार्थाय चिरं वृद्धिमवाप्स्यसि ॥१२॥

    एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥
    तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥

    "तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम्॥
    सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥
    "अनुवाद:-उनके द्वारा किए गये कार्यों में तुम्हारे रक्त सम्बन्धी सजातीय ये गोप प्रशंसा को प्राप्त करेंगे।१४।

    यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वं शप्रभवानराः ॥
    तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥
     
    विशेषत :- सावित्री के शाप का निवारण करते हुए आभीर कन्या गायत्री ने कहा था।
    सभी लोकों और देवों में भी 
    जहाँ जहाँ मेरे वंश जाति के अहीर  लोग निवास करेंगे वहीं वहीं लक्ष्मी निवास करेगी चाहें वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१३-१४-१५।
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    इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः।१थे।


    महाभारत के विराट पर्व में युधिष्ठिर ने योगमाया आभीर कन्या की स्तुति नन्द की पुत्र के रूप में की है।
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    दिल्ली जिसे पौराणिक काल में इंद्रप्रस्थ भी कहा जाता था इसी इंद्रप्रस्थ के राजसिंहासन पर महाभारत के युद्ध के पश्चात आसीन हुए अभिमन्यु के पुत्र राजा परिक्षित।



    इन्हीं की पीढी में आगे चल तंवरपाल नाम के प्रतापी महाराजा का जन्म हुआ जिससे यह वंश तंवर या तोमर वंश भी कहलाया।




    आधुनिक दिल्ली का नामकरण इसी पीढ़ी में जन्मे राजा ढिल्लु सिंह के नाम पर हुआ  ढिल्लों आज जाटों का गोत्र है।-
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    "देशोऽस्ति हरियानाख्यो पॄथिव्यां स्वर्गसन्निभः।
    ढिल्लिकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता ||
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    प्रोफेसर बीएस ढिल्लों  लिखते हैं .... दिल्ली : भारत की राजधानी के रूप में, यह सैकड़ों साल पहले देश की तीसरी सबसे बड़ी स्थापना भी है, प्रोफेसर कानूनगो ने लिखा, "यह संभावना नहीं है कि यह प्रसिद्ध शहर व्युत्पन्न है इसका नाम ढिल्लों जाटों से लिया गया है, जो अभी भी दिल्ली जिले में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं"। दहिया  कानूनगो के दावे का समर्थन करते हुए कहते हैं, "इसका (दिल्ली का) पुराना नाम ढिल्लिका था , जैसा कि 1169 ईस्वी में सोमेश्वर चौहान के शिलालेख में दर्ज है, बाद में प्रत्यय "का" को हटा दिया गया और शहर का नाम ढिल्ली रखा गया। एक प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार, रोमिला थापर ,ढिल्लिका "। हालाँकि, उसने लिखा है, "ढिल्लिका (दिल्ली) शहर की स्थापना 736 ईस्वी में तोमरों द्वारा की गई थी , तोमरों को चौहानों द्वारा उखाड़ फेंका गया था "। यह इंगित करने के लिए कि तोमर और चौहान भी जाटों के कबीले के नाम हैं। , दहिया ने टिप्पणी की, "उदाहरण के लिए, हम दहिया का कुल नाम लेते हैं।

     हरियाणा , उत्तर प्रदेश और राजस्थान के भीलवाड़ा क्षेत्र (हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान भारतीय प्रांतों के नाम हैं) में दहिया खुद को जाट कहते हैं । हालांकि, जोधपुर में दहियाक्षेत्र (राजस्थान) अपने आप को राजपूत कहते हैं (ऐतिहासिक अभिलेखों से पता चलता है कि कुछ राजपूत भी जाट पृष्ठभूमि के हैं), और दहिया भी गूजरों का गोत्र नाम है (ये लोग भी जाटों से संबंधित हैं)। यही बात तोमर , पवार , धनीखड़ , भट्टी , जोहिया और इसी तरह के अन्य कबीले नामों के बारे में भी सच है।

    फ़रिश्ता  के अनुसार , सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत के एक फ़ारसी लेखक; "देहलू (पंजाबी में ढिल्लों को" ढिल्लों "या" ढिलो "के रूप में उच्चारित किया जाता है) युवा राजा के चाचा, रईसों द्वारा सहायता प्राप्त करने के बाद, उन्हें अपदस्थ कर दिया, मुसनूद पर चढ़ गए। यह राजकुमार, उनके लिए प्रसिद्ध है

    इसी पीढ़ी में आगे चल दिल्ली तंवर राजवंश के 16 वें सम्राट हुए अनंगपाल तोमर थे जिन्हें गूजर और जाट समान रूप से अपना पूर्वज मानते हैं।

    कोसलिया अहीरों का व सिलसिला शुरू होता है दिल्ली के इन्हीं आखरी हिंदू सम्राट अनंगपाल सिंह तोमर से।
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    अनंगपाल सिंह तोमर के चार पुत्र हुए।
    प्राप्त हुए दस्तावेज़ जो कसोली मठ कमेटी ने उपलब्ध करवाए, इसमें पहले पुत्र का नाम सही से नही दिख रहा। बस ये पता लगा कि वो जोधपुर चले गए थे।
    (2) दूसरे पुत्र तौनपाल। ये ग्वालियर चले गए थे।
    (3) सुलेन सिंह ये पाटन चले गए और इनके वंशज तंवर राजपूत कहलाए ।
    (4) उष्ण सिंह (तेजपाल)। महाराज कौशल देव के पिता जिन्होंने तिजारा बसाया था।
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    दिल्ली पती अनंगपाल के पश्चात उनके महाप्रतापी पुत्र तथा दिल्ली के 17वे शासक हुए महाराजा तेजपाल सिंह अहीर उर्फ उषण सिंह जिन्होंने आधुनिक तिजारा नगरी बसाई तथा इनके गौरवशाली अतीत का ज़िक्र
    "मिरात-उल-मसौद में मिलता है कि गाज़ी सलार के हमले के बाद अहीर महाराजा तेजपाल सिंह और तमाम अहीर ठिकानों के जंगी सरदारों ने अगले ही दिन की रात में गाज़ी सलार और उसकी सेना पर कहर बनकर टूट पड़े थे।
    इस समर में भारी रक्त पात हुआ और अंततः गज़नी के भांजे गाज़ी सलार को बुरी तरह परास्त किया था अहीर शूरमाओं ने।
    इस युद्ध में सलार के तीन रिश्तेदार अहीर रणवीरों की तलवार की भेंट चढ़ गए थे तथा नीच, कायर गाज़ी सलार डरकर अहीरवाल से भाग उत्तरप्रदेश जा पहूँचा था हलांकि वहाँ रायबरेली के राजा सुहेलदेव से भी उसका युद्ध हुआ।
    आपको जानकर बड़ी हैरानी होगी कि इस दरिंदे लुटेरे गाज़ी सलार के नाम पर बहराइच जिले में मेला लगता है और कुछ अपने ही हिंदु धर्म के मूर्ख लोग जो इतिहास से अंजान है, इस लुटेरे की कब्र पर मत्था टेक आते हैं।
    यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है।
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    दिल्ली के 17 वें नरेश महाराजा तेजपाल सिंह ने आगरा में एक भव्य दुर्ग का निर्माण कराया तथा एक भव्य शिवालय का निर्माण । हालांकि बाद में मुगल शासक शाहजहाँ ने इस मंदिर को तोड़ यहाँ ताजमहल का निर्माण करवाया।
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    महाराजा तेजपाल के पुत्र हुए राजा कौशलदेव सिंह जिन्हें (महिपाल) सिंह और जूनपाल भी कहा जाता था।
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    - दिल्ली के 18 वें राजा कौशलदेव सिंह उर्फ़ जूनपाल उर्फ़ महिपाल सिंह ने अनंगपाल द्वितीय द्वारा बसाई राजधानी का विस्तार किया और उसी के पास महीपालपुरा नगर बसाया।

    कुतुब मीनार के पूर्व-उत्तरपूर्व दिशा में महीपालपुरा नामक ग्राम बसा हुआ था और पौन मील लम्बा तथा चौथाई मील चौडा बांध भी था ।
    वहां उन्होंने एक शिव मंदिर भी बनवाया था।
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    इसके बाद राजा कौशलदेव सिंह ने पाटन (राजस्थान) और जोधपुर तक अपने राज्य का विस्तार किया।
    इनकी पीढ़ी के एक राजा अजमाल सिंह कालांतर में जैसलमेर के पोखरण में आबाद हुए तथा जिनके प्रतापी पुत्र हुए रामदेव जी जिन्हें आज रुणिचा धाम में पीरबाबा के नाम से पूजा जाता है।
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    कौशलदेव सिंह के वंशजों ने बाद में हरियाणा में 52 गांव की जागीर स्थापित करी। यमुना पार इनके 84 गाँव थे।
    राजा कौशलदेव सिंह दिल्ली के आखरी शासक थे।
    बाद में दिल्ली चौहान वंश के राजाओं के अधीन हो गया।
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    कौशल देव जी ने कौशलगढ कोसली की स्थापना 1189 ई. के आसपास में की थी।
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    1191 में तराई के प्रथम युद्ध में राजा कौशलदेव सिंह ने अहीरवाल के सभी अहीर ठिकानों के बहादुरान के साथ मिलकर पृथ्वीराज चौहान को सैन्य सहायता दी।
    हालांकि 1192 तराई के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की तरफ़ से लड़ते हुए कौसलदेव सिंह के भाई राजा केसरी सिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
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    महाराजा कौशलदेव सिंह उर्फ़ जूनपाल सिंह अहीर के बाद की वंशावली-
    (1) राजा महादेव सिंह।
    (2) राजा राजदेव सिंह।
    (3) राजा बिहारी देव ।
    (4) राजा चाचंम देव सिंह।
    (5) राव विंग देव सिंह।
    (6) राव धोल देव जी।
    (7) राव बावल देव सिंह।
    (8) राव शाहदेव सिंह।,
    राव शाह देव जी के दो पुत्र हुए।
    (1) राव संहस मल जी।
    (2) राव रतन सिंह जी।
    राव रतन सिंह कोसलिया ने दो शादी की - पहली रानी चंद्रवंशज यदुवंशी क्षत्राणी तथा दूसरी सूर्वंशी क्षत्राणी से।
    ज्येष्ठ रानी से एक पुत्र हुआ दकढा सिंह इनके पुत्र उध जी।
    उध जी को दो पुत्र हुए।
    (1) कुशल सिंह।
    (2) कान्हड सिंह।
    कान्हड सिंह के पुत्र हुए आशा सिंह जी।आशा सिंह जी के दो पुत्र हुए।
    (1) पंचायन जी।
    (2) रोला सिंह।
    पंचायन जी ने कोसली को दुबारा 1424 में आबाद किया।

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    आपसी मतभेद के चलते राजा कौशल देव सिंह के छोटे भ्राता राजा हरपाल देव सिंह ने दिल्ली के डाबर क्षेत्र को आबाद किया जिनके वंशज आज डबर-राणा गोत्र के अहीर कहलाते हैं।
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    महाराजा अनंगपाल सिंह के बेटे अपने अपने राज्य से संतुष्ट नहीं थे इसलिए एक दूसरे से भी लड़ते रहे।
    अनंगपाल के पौत्रों में सबसे बड़े कौशल सिंह थे। जिसके वंशज कोसलिया कहलाते हैं और अन्य तीन बेटों के वंशज तंवर कहलाते हैं।

    तंवरो के वंश में आगे चलकर खुडाना गांव के एक तंवर के दो बेटों में छोटा बेटा के वंशज जट-राणा (जाट) कहलाए।

    अब तक भी तंवरो में कोई बड़ा काज होता है तो बड़ी पगड़ी कोसलिया अहीरों की बंधती है फिर तंवरो की और फिर नंबर आता है जटराणा का पगड़ी बांधने का।
    तीज त्यौहार पर तोमर, कोसलिया अहीरों को विशेष चिठ्ठी के माध्यम से संदेश पहूंचाया करते थे।
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    पांडव वंशी कोसलिया गोत्र के इतिहास की दुर्लभ जानकारी हमें पृथ्वीराज रासौ, सुधानंद योगी द्वारा लिखित यादव इतिहास, राजबली पाण्डेय का प्रचीन इतिहास, शोध संस्थान जबलपुर, अंग्रेज इतिहासकार डबल्यू ई ०हरबर्ट ०चा‌र्ल्स फान्स्वे, हरियाणा गजेटियर, राजस्थान के चारणों, जागाओं, भाटों व बेदियों द्वारा हस्तलिखित रजिस्टर तथा कोसलिया मठ कमेटी से हासिल हुई।

    इसके साथ ही हम कौशलगढ़ कोसली की टीम तथा आदरणीय पवन राय साहब को सहायता के लिए आभार प्रकट करते हैं।
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    कौरवंशी अहीरों में कोसलिया सबसे बड़ा गोत्र है इसके अतिरिक्त बाबरिया , पठानिया, हरबला, सुल्तानिया आदि गोत्रीय अहीर भी पांडव वंशी हैं।
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    कोसलिया के बाद सबसे बड़ा कुरुवंशी अहीर गोत्र बाबरिया है जिनका निकास दिल्ली से ही हुआ और ये वीर अभिमन्यु के पौत्र महाराजा जन्मेजय के वंश के जीवित नस्ल है।

    बाबरिया अहीरों का भी निकास इंद्रप्रस्थ से हुआ और ये कालांतर में मोटी संख्या में गोप राष्ट्र सौराष्ट्र में जाकर बस गए ।
    ये खाप पश्चिमी यूपी और गुजरात दोनों राज्यो में आबाद है।

    ढिल्लिका भारत की राजधानी दिल्ली का मध्य युगीन नाम है। 1327 ई. के एक अभिलेख में ढिल्लिका को 'हरियाना' प्रदेश के अंतर्गत बताया गया है-

    'देशोस्ति हरियाणाख्या: पृथिव्यां स्वर्गसन्निभ:, ढिल्लिकाख्या पुरी यत्र तोमरैरस्ति निर्मिता।'

    अर्थात् "पृथिवी पर हरियाणा नामक स्वर्ग के समान देश है, यहाँ तोमर क्षत्रियों द्वारा निर्मित ढिल्लिका नाम की सुंदर नगरी है।"

    • सम्भवत: हरियाणा, दक्षिणी पंजाबरोहतकहिसार आदि का इलाका है, जो शायद 'अहीराना' का बिगड़ा रूप है।
    • जाटों, गूजरों और कुछ राजपूत संघ में समाहित अहीरों  की भी कुछ  शाखाएँ हैं।
    • बाद के समय में ढिल्लिका नाम का संबंध एक कपोल कल्पित कथा से जोड़ दिया गया, जिसके अनुसार राजा अनंगपाल के शासन काल में लोहे की लाट के ढीली रह जाने के कारण ही इस नगरी को 'ढिल्लिका' या 'ढिल्ली' कहा गया।
    • वास्तव में दिल्ली नाम की यह लोहे की लाट वाली व्युत्पत्ति सर्वथा संदेहास्पद है, किंतु जैसा कि उपर्युक्त अभिलेख से प्रमाणित होता है,।
    •  ढिल्लिका नाम वास्तव में प्राचीन, कम से कम मध्य युगीन तो है ही। दिल्ली वास्तविक या मौलिक नाम का अनुसंधान करने में यह तथ्य बहुत सहायक सिद्ध होगा।
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    प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार रोहि
    8077160219

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