रविवार, 7 मई 2023

गायत्री गोत्र और अत्रि की अवधारणा नवीन संस्करण -



यह अध्याय-पृष्ठ गायत्री के पाणिग्रहण संस्कार का वर्णन करता है। पद्म पुराण का सृष्टि खण्ड सबसे प्राचीन पौराणिक विवरण है। 
जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परम्पराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थयात्राओं के पवित्र स्थानों अर्थात्‌ (तीर्थों) का विवरण दिया गया है।  पद्म पुराण के सृष्टि-खण्ड का सोलहवाँ अध्याय प्रस्तुत है।, 
 
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ में स्पष्ट वर्णन है कि गायत्री माता के विवाह काल में सप्तर्षि  अत्रि, पुलस्त्य आदि तथा उनकी पत्नियां भी उपस्थित थीं  अत्रि मरीचि के साथ उद्गाता के रूप में सहायक थे ।  जब सावित्री ने सभी देवताओं और देवपत्नीयों को शाप दिया था तब सप्तर्षि गण और उनकी पत्नीयाँ भी सावित्री के शाप का भाजन बनी थी तभी सावित्री द्वारा प्रदत्त शाप का निवारण  आभीर कन्या गायत्री माता ने किया था । और सबको इसके प्रतिकार में  वरदान भी दिया था।

अर्थात् शाप को वरदान में बदल दिया था। इसी दौरान गायत्री ने अत्रि को भी वरदान दिया कि वे यह आभीर जाति के गोत्रप्रवर्तक सिद्ध हों। गायत्री विवाह में उपस्थित सभी सभासद गायत्री के कृपा पात्र हुए थे यह शास्त्रों प्रसिद्ध ही है। 
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अत्रि गोत्र अहीरों का गायत्री माता को वरदान स्वरूप प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि अत्रि से चन्द्रमा और चन्द्रमा से बुध के उत्पन्न होने की परिकल्पना परवर्ती है । जो प्रक्षेप होने से प्रमाणित नहीं है।
यद्यपि अत्रि की उत्पत्ति किन्हीं ग्रन्थों में दोनों कानों से हुई है। ( श्रोत्राभ्यामत्रिं ।5।-श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।)
सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः॥३॥श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायःका द्वितीय- तृतीय श्लोक)
अनुवाद:- ब्रह्मा से अत्रि उत्पन्न हुए और उनके दौनों नेत्रों से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ।
चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों कई सिद्धान्त हैं।
अत्रि की पत्नी कर्दममुनिकन्या अनसूया थी ।
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श्लोक  9.14.3  भागवतपुराण-
"तस्य द‍ृग्भ्योऽभवत् पुत्र: सोमोऽमृतमय: किल ।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पित: पति: ॥३॥
 
शब्दार्थ:-तस्य—उस अत्रि के; दृग्भ्य:—नेत्रों से; अभवत्—उत्पन्न हुआ; पुत्र:—पुत्र; सोम:—चन्द्रमा; अमृत-मय:—अमृत से युक्त ; किल—निस्सन्देह; विप्र—ब्राह्मणों का; ओषधि—दवाओं का; और उडु-गणानाम्—तारों का; ब्रह्मणा—ब्रह्मा द्वारा; कल्पित:—नियुक्त किया गया; पति:—परम निदेशक, संचालक स्वामी( रक्षक) "पा--डति पाति रक्षयति इति पति- । १ भर्त्तरि ३ स्वामिनि ।.

अनुवाद:-अत्रि के नेत्रों से सोम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो अमृतयुक्त था । ब्रह्माजी ने उसे ब्राह्मणों, ओषधियों तथा नक्षत्रों (तारों) का पति  नियुक्त किया।
तात्पर्य:- वेदों के अनुसार सोम या चन्द्रदेव की उत्पत्ति भगवान् के मन से हुई (चन्द्रमा मनसोजात: ), किन्तु यहाँ पर सोम को अत्रि के अश्रुओं से उत्पन्न बतलाया गया है। यह वैदिक सिद्धान्त के विपरीत प्रतीत होता है,
"अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ् जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मसम्भवान् ।
इस श्लोक से पता चलता है कि अत्रि-पत्नी अनसूया के गर्भ से तीन पुत्र उत्पन्न हुए—सोम, दुर्वासा तथा दत्तात्रेय।
 
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वैश्वास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्भ्यां समुद्गताः ।
आक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ॥ १,१२.६२ ॥ 
विष्णुपुराण (प्रथमाञ्श बारहवाँ अध्याय-)
विष्णु पुराण में चन्द्रमा की उत्पत्ति ब्रह्मा के मन से बतायी है।
पद्मपुराण में ही वर्णन है कि चन्द्रमा का  जन्म  समुद्र से हुआ। 

ततः शीतांशुरभवद्देवानां प्रीतिदायकः।
ययाचे शंकरो देवो जटाभूषणकृन्मम।५२।
भविष्यति न संदेहो गृहीतोयं मया शशी।
अनुमेने च तं ब्रह्मा भूषणाय हरस्य तु।५३।

श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखण्डे लक्ष्म्युत्पत्तिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः४।

अक्ष्णोः सूर्योनिलः श्रोत्राच्चंद्रमा मनसस्तव।
प्राणोंतः सुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत।११९।

नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्त्तत।
दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम्।१२०। 
सन्दर्भ:- (पद्मपुराण प्रथमसृष्टिखण्ड अध्याय चतुर्थ) और 
विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १२ -में भी यही श्लोक 119-120 संख्या पर हैं।
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अनुवाद:-
तब देवताओं को प्रसन्न करने वाला चन्द्रमा उत्पन्न होकर ऊपर आ गया। भगवान शंकर ने याचना की: “(यह) चंद्रमा निस्संदेह मेरे जटाओं का आभूषण होगा; मैंने उसे ले लिया है''। ब्रह्मा ने उन का आभूषण होने पर सहमति व्यक्त की । ५२-५३।
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ततः शतसहस्रांशुर्मथ्यमानात्तु सागरात्।
प्रसन्नात्मा समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वलः।।48।
अनुवाद :-फिर तो उस महासागर से अनन्त किरणों बाले सूर्य के समान तेजस्वी, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेत वर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ।48।
श्रीमन्महाबारते आदिपर्वणि
आस्तीकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।।18 ।।
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शशिसूर्यनेत्रं इत्यपि अहं क्रतुः [9।16] 
इत्यादिवत्। तदङ्गजाः सर्वसुरादयोऽपि तस्मात्तदङ्गेत्यृषिभिः स्तुतास्ते इत्यृग्वेदखिलेषु।
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ऋग्वेद 10.90.13

च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षो॒: सूर्यो॑ अजायत । मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत॥

पद पाठ:-चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥

अनुवाद:

“चंद्रमा उनके मन से पैदा हुआ था; सूरज उसकी आँख से पैदा हुआ था; इन्द्र और अग्नि उसके मुख से उत्पन्न हुए, वायु उसकी श्वास से।"

च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षोः॒ सूर्यो॑ अजायत। मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥ अथर्ववेद- 9/6/7

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकान् अकल्पयन। यजु० ३१।१२-१३ ॥

अर्थात् परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से अन्य सूर्य जैसे प्रकाश-युक्त तारागण, दो चरणों से भूमि, श्रोत्र से दिशाएं, और इसी प्रकार सब लोक उत्पन्न हुए । यहां एक बात विशेष है - श्रोत्र को तो बार कहा गया है । पहले मन्त्र में उससे वायु और प्राण की उत्पत्ति कही गयी है; दूसरे मन्त्र में उससे दिशाओं की उत्पत्ति बताई गयी है । यह एक संकेत है, कि यह उपमा केवल परमात्मा का आलंकारिक चित्र खींचने के लिए नहीं है, अपितु उससे कुछ महत्त्वपूर्ण विषय बताया जा रहा है

परन्तु गायत्री माता का गोत्र अत्रि नहीं था ये भी आभीर कन्या थीं ।
सभी अहीरों ने जब विष्णु भगवान से अपनी जाति में अवतरित होने का वरदान माँगा था तब विष्णु तथास्तु कह कर उनके स्वीकृति की पुष्टि की -
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पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।

इस लिए अत्रि ऋषि के विषय में अवान्तर कथाऐं सृजन की गयी ं।

गायत्री के विवाह काल में सप्तर्षि में अत्रि आदि ऋषियों और उनकी पत्नी अनुसूया आदि की उपस्थिति से सम्बन्धित कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत करना अपेक्षित है। 
अत्रि और चन्द्रमा की उत्पत्ति के शास्त्रों में ही भिन्न भिन्न सन्दर्भ और प्रकरण हैं । इस लिए यादवों के प्रमाणभूत पूर्वज पुरुरवा  को माना जाता है। जिनका वर्णन ऋग्वेद में है।

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जब एक बार 
महात्मा (ब्रह्मा) ने भी यज्ञ के संचालन के लिए पुरोहितों को चुना। तो भृगु को ऋग्वेद की ऋचाओं को पढ़ने वाले आधिकारिक पुजारी के रूप में चयनित किया गया था ; पुलस्त्य को सर्वश्रेष्ठ अध्वर्यु  पुरोहित के रूप में चुना गया था। और मरीचि को उद्गाता के रूप में चुना गया था जो सामवेद के ऋचाओं का जाप करने वाला ) और नारद को चुना गया था ब्रह्मा( वेदविहित कर्मों का सम्पादक एक ऋत्विक ।
सनत्कुमार और अन्य सदस्य यज्ञ सभा के सदस्य थे। 
इसलिए दक्ष जैसे प्रजापति और ब्राह्मणों से पहले की जातियाँ (यज्ञ में शामिल हुए); ब्रह्मा के पास पुजारियों के (बैठने की) व्यवस्था की गई थी।
कुबेर ने उन्हें वस्त्र और आभूषणों से विभूषित किया. ब्राह्मणों को कंगन और पट्टिका के साथ-साथ अंगूठियों से सजाया गया था। ब्राह्मण चार, दो और दस (इस प्रकार कुल मिलाकर) सोलह थे। 

उन सभी को ब्रह्मा ने नमस्कार के साथ पूजा की थी। (उन्होंने उनसे कहा): “हे ब्राह्मणों, इस यज्ञ के दौरान तुम्हें मुझ पर अनुग्रह करना चाहिए; यह मेरी पत्नी गायत्री है; तुम मेरी शरण हो। विश्वकर्मन को बुलाकर , ब्राह्मणों ने ब्रह्मा का सिर मुंडवा दिया, जैसा कि एक यज्ञ में (प्रारंभिक रूप में) निर्धारित किया गया था। ब्राह्मणों ने युगल (अर्थात् ब्रह्मा और गायत्री) के लिए चर्म के कपड़े भी (सुरक्षित) किए। ब्राह्मण वहीं रह गए (अर्थात् ब्राह्मणों ने वेदों के उच्चारण से) आकाश को गुञ्जायमान कर दिया; क्षत्रिय इस संसार की रक्षा करने वाले शस्त्रों के साथ वहीं उपस्थित हो गये ; वैश्य _विभिन्न प्रकार के भोजन तैयार किए उपस्थित हो गये।; उत्तम स्वाद से भरपूर भोजन और खाने की वस्तुएँ भी तब बनती थीं; जिसे  पहले अनसुना और अनदेखा माना जाता था उसे सुनकर और देखकर, ब्रह्मा प्रसन्न हुए; भगवान, निर्माता, ने वैश्यों को प्रागवाट नाम दिया। (ब्रह्मा ने इसे नीचे रखा:) 'यहाँ शूद्रों को हमेशा ब्राह्मणों के चरणों की सेवा करनी पड़ती है;।
उन्हें अपने पैर धोने होंगे, उनके द्वारा (अर्थात् ब्राह्मणों) से जो कुछ बचा है उसे खाना होगा और (जमीन आदि) को साफ करना होगा। उन्होंने भी वहाँ (ये बातें) कीं; फिर उनसे फिर कहा, “मैंने आपको ब्राह्मणों, क्षत्रिय भाइयों और आप जैसे (अन्य) भाइयों की सेवा के लिए चौथे स्थान पर रखा है ; आपको तीनों की सेवा करनी है ”। ऐसा कहकर ब्रह्मा ने शंकर को और इन्द्र को द्वार-अधीक्षक के रूप में, भी नियुक्त किया । पानी देने के लिए वरुण, धन बांटने के लिए कुबेर, सुगंध देने के लिए पवन , प्रकाश के लिए सूर्य और विष्णु (मुख्य) अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए ।
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(सोम के दाता चंद्रमा ने बाईं ओर के मार्ग का सहारा लिया।
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उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।
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गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।
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वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।

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अनुवाद:-
112-125। सावित्री, उनकी खूबसूरत पत्नी, जो अच्छी तरह से सम्मानित थीं, को अध्वर्यु ने आमंत्रित किया था : "श्रीमती, जल्दी आओ, सभी आग उगल चुकी हैं (अर्थात् अच्छी तरह से जल चुकी हैं), दीक्षा का समय आ गया है।" परन्तु किसी काम में मग्न वह फुर्ती से नहीं आई, जैसा कि आमतौर पर महिलाओं के साथ होता ही है। “ सावित्री ने कहा:- मैंने यहाँ, द्वार पर कोई साज-सज्जा नहीं की है; मैंने दीवारों पर चित्र भी नहीं बनाए हैं; मैंने प्रांगण में स्वस्तिक  नहीं बनाया है और यहां बर्तनों की सफाई तक नहीं की गई है।
 लक्ष्मी , जो नारायण की पत्नी हैं, वह भी अभी तक नहीं आई हैं। और अग्नि की पत्नी स्वाहा  धूम्रोर्णा, यम की पत्नी; वरुण की पत्नी गौरी; ऋद्धि जोकि कुबेर की पत्नी; गौरी, शंभु की पत्नी, अभी तक कोई नहीं आयी है।  इसी तरह मेधा , श्रद्धा , विभूति , अनसूया , धृति , क्षमा और गंगा तथा सरस्वती नदियाँ भी अभी तक नहीं आई हैं। इन्द्र पत्नी इन्द्राणी( शचि) , और चंद्रमा की पत्नी रोहिणी ,जो  चंद्रमा को प्रिय है। इसी तरह अरुंधती, वशिष्ठ की पत्नी; इसी तरह सात ऋषियों की पत्नियां, और अनसूया, अत्रिकी पत्नी और अन्य स्त्रियाँ, बहुएँ, बेटियाँ, सहेलियाँ, बहनें अभी तक नहीं आई हैं। 
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मैं अकेला ही बहुत दिनों से यहां (उनकी प्रतीक्षा में) पड़ी हूं। मैं अकेली तब तक न जाऊँगी जब तक वे स्त्रियाँ न आ जाएँ।  जाओ और ब्रह्मा से थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कहो।

 मैं सब (उन देवियों) को लेकर शीघ्रता से आऊँगी ; हे उच्च बुद्धि वाले, आप देवताओं से घिरे हुए हैं, महान कृपा प्राप्त करेंगे; तो मैं भी करूंगी; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।" उसे इस तरह बात करते हुए छोड़कर अध्वर्यु वहाँ से  ब्रह्मा के पास पुन: आया।

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यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह।
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।
अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना।
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।
अनुवाद:-जैसे यह देवता, देवों का स्वामी, जो निश्चय ही अजर और अमर है, वैसे ही स्वर्ग भी उसके लिए अक्षय है। महान ने अन्य देवताओं को भी स्वर्ग (में स्थान) प्रदान किया है। वेद और जड़ी-बूटियाँ अग्नि में आहुति देने के लिए आई हैं।

तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्।
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।
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ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्।
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।
अनुवाद:-
वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि पृथ्वी पर जो भी अन्य जानवर हैं (देखे गए हैं) वे सभी इस भगवान द्वारा बलिदान ( यज्ञ) के लिए बनाए गए हैं। 
आपके इन वचनों को सुनकर मुझे इस विषय में एक जिज्ञासा हुई है। किस इच्छा, किस फल और किस विचार से उसने यज्ञ किया, वह सब मुझे बताओ।
कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि।
शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते।१०।
भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा।
पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापतीन्।११।
अनुवाद:-
यहाँ कहा गया है कि सौ रूपों वाली शतरूपा- महिला और  सावित्री उन्हें ब्रह्मा की पत्नी और ऋषियों की माता कहा जाता है।
 सावित्री ने पुलस्त्य और अन्य जैसे सात ऋषियों को जन्म दिया और सृजित प्राणियों के स्वामी जैसे दक्ष को भी जन्म दिया ।
नीचे शिवपुराण का वर्णन है कि

शिवपुराणम्‎  संहिता २ -(रुद्रसंहिता)‎ | खण्डः १- (सृष्टिखण्डः)
                   "ब्रह्मोवाच"
शब्दादीनि च भूतानि पंचीकृत्वाहमात्मना ।।
तेभ्यः स्थूलं नभो वायुं वह्निं चैव जलं महीम् ।१ ।

पर्वतांश्च समुद्रांश्च वृक्षादीनपि नारद।।
कलादियुगपर्येतान्कालानन्यानवासृजम् ।।२।।

सृष्ट्यंतानपरांश्चापि नाहं तुष्टोऽभव न्मुने ।।
ततो ध्यात्वा शिवं साम्बं साधकानसृजं मुने।३।

मरीचिं च स्वनेत्राभ्यां हृदयाद्भृगुमेव च ।।
शिरसोऽगिरसं व्यानात्पुलहं मुनिसत्तमम् ।४।
अनुवाद:-  ब्रहमा ने कहा कि मेैंने मरीचि को अपने दोनों नेत्रों से भृगु को हृदय से अंगिरस को शिर से पुलह को व्यान ( नामक प्राण) से 
उदानाच्च पुलस्त्यं हि वसिष्ठञ्च समानतः ।।
क्रतुं त्वपानाच्छ्रोत्राभ्यामत्रिं दक्षं च प्राणतः।५।
अनुवाद:- उदान( वायु ) से पुलस्त्य और वशिष्ठ को समान वायु से उत्पन्न किया है। और क्रतु को अपान वायु (पाद) से दोनों कानों से अत्रि ऋषि को उत्पन्न किया और प्राणों से दक्षप्रजापति-।
असृजं त्वां तदोत्संगाच्छायायाः कर्दमं मुनिम् ।।
संकल्पादसृजं धर्मं सर्वसाधनसाधनम् ।।६।।
अनुवाद:- उत्संग ( गोद ) की छाया से कर्दममुनि संकल्प से धर्म और सब साधन उत्पन्न किए ।
एवमेतानहं सृष्ट्वा कृतार्थस्साधकोत्तमान् ।।
अभवं मुनिशार्दूल महादेवप्रसादतः ।।७।।
अनुवाद:- इस मैंने उत्तम- साधकों को यह सब रचकर उन्हें कृतार्थ किया। हे मुनि श्रेष्ठ यह सब महादेव की कृपा से हुआ।

ततो मदाज्ञया तात धर्मः संकल्पसंभवः ।।
मानवं रूपमापन्नस्साधकैस्तु प्रवर्तितः ।।८।।
तत्पश्चात मेरी आज्ञा से धर्म संकल्प उत्पन्न हुआ। और मानव रूप को प्राप्त साधक प्रवर्त हो गये 
ततोऽसृजं स्वगात्रेभ्यो विविधेभ्योऽमितान्सुतान् 
सुरासुरादिकांस्तेभ्यो दत्त्वा तां तां तनुं मुने ।९।
तत्पश्चात् अपने शरीर से विभिन्न सन्तानें उत्पन्न की सुर और असुर आदि को विभिन्न शरीर प्रदान किए गये ।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः।१६।
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परन्तु महाभारत के आदिपर्व के 66वें अध्याय में वर्णन है 
ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा विदिताः षण्महर्षयः।
मरीचिरत्र्यह्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।1-66-10
अनुवाद:-कि ब्रह्मा के मन से छ: महर्षि पुत्र रूप में उत्पन्न हुए १-मरीचि २-अत्रि ३-अंगीरस ४-पुलस्त्य ५-पुलह और ६-क्रतु ।
मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः।
प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश।1-66-11
अनुवाद:- मरीचि से कश्यप पुत्र रूप में उत्पन्न हुए और कश्यप से ये सम्पूर्ण प्रजा उनकी तैरह पत्नीयों (दक्ष की पुत्रीयों ) से उत्पन्न हुई ।
महाभारत आदिपर्व 66 वाँ अध्याय-

श्रीमद्भागवतपुराण स्कन्धः 9-अध्यायः 14
चंद्रवंशवर्णनं, बुधस्य जन्म, तस्मान्मनुपुत्र्यामिलायां जातस्य पुरूरवस उपाख्यानं च -
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                श्रीशुक उवाच !
अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः। यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः॥१॥

सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात्।
जातस्यासीत् सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥

तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल। 
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
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सोऽयजद् राजसूयेन विजित्य भुवनत्रयम् ।
पत्‍नीं बृहस्पतेर्दर्पात् तारां नामाहरद् बलात् ॥४॥

यदा स देवगुरुणा याचितोऽभीक्ष्णशो मदात् ।
नात्यजत् तत्कृते जज्ञे सुरदानवविग्रहः॥५॥

शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषाद् अग्रहीत् सासुरोडुपम् ।
हरो गुरुसुतं स्नेहात् सर्वभूतगणावृतः ॥६॥

सर्वदेवगणोपेतो महेन्द्रो गुरुमन्वयात् ।
सुरासुरविनाशोऽभूत् समरस्तारकामयः ॥७॥

निवेदितोऽथाङ्‌गिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत् ।
तारां स्वभर्त्रे प्रायच्छद् अन्तर्वत्‍नीमवैत् पतिः॥८॥

त्यज त्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रात् आहितं परैः।
नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सान्तानिकः सति॥९॥
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 तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम् ।
 स्पृहामाङ्‌गिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च ॥१०॥
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 ममायं न तवेत्युच्चैः तस्मिन् विवदमानयोः ।
 पप्रच्छुः ऋषयो देवा नैवोचे व्रीडिता तु सा ॥११॥
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 कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया ।
 किं न वोचस्यसद्‌वृत्ते आत्मावद्यं वदाशु मे ॥ १२।

ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सान्त्वयन् ।
सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत्॥१३॥

तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप ।
बुद्ध्या गम्भीरया येन पुत्रेणापोडुराण्मुदम् ।।
ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः।
तस्य रूपगुणौदार्य शीलद्रविणविक्रमान् ॥१५॥

 श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान् सुरर्षिणा ।
 तदन्तिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता ॥१६॥
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नवम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्याय: अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद:-

चन्द्र वंश का वर्णन
श्रीशुकदेव जी कहते हैं-
परीक्षित! अब मैं तुम्हें चन्द्रमा के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंश में पुरुरवा आदि बड़े-बड़े पवित्र कीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है।
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सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात्।
जातस्यासीत् "सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
अनुवाद:-
सहस्रों सिर वाले विराट् पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। 
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उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानवों में घोर संग्राम छिड़ गया।

शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।

तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ‘दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे।
डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’। अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाये। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा- ‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमा का।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया।

परीक्षित! ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।

एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरुरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरुरवा के पास चली आयी।
ऋग्वेद में भी पुरुरवा उर्वशी का मिलन और संवाद है ।

ऋग्वेदः सूक्तं १०.९५
 ऋग्वेदः - मण्डल 10- सूक्त 95  एल- पुरुरवा और उर्वशी का मिलन की कथा- -१०

हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु ।
न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन् ॥१॥



किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
पुरूरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि॥२॥

पदार्थ

(एता वाचा) इस मन्त्रणा वाणी से (किं कृणव) क्या करें-क्या करेंगे (तव-अहम्) तेरी मैं हूँ (उषसाम्) प्रभात ज्योतियों की (अग्रिया-इव) पूर्व ज्योति जैसी (प्र अक्रमिषम्) चली जाती हूँ-तेरे शासन में चलती हूँ (पुरूरवः) हे बहुत प्रकार से उपदेश करनेवाले पति (पुनः-अस्तम्-परा इहि) विशिष्ट सदन या शासन को प्राप्त कर (वातः-इव) वायु के समान (दुरापना) अन्य से दुष्प्राप्य (अहम्-अस्मि) मैं प्राप्त हूँ ॥२॥

इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥

पदार्थ

(इषुधेः) इषु कोश से (असना) फेंकने-योग्य-फेंका जानेवाला (इषुः) बाण (श्रिये न) विजयलक्ष्मी गृहशोभा के लिए समर्थ नहीं होता है, तुझ भार्या तुझ प्रजा के सहयोग के बिना, (रंहिः-न) मैं वेगवान् बलवान् भी नहीं बिना तेरे सहयोग के (गोषाः-शतसाः) शत्रुभूमि का भोक्ता या बहुत धन का भोक्ता (अवीरे) तुझ वीर पत्नी से रहित या वीर प्रजा से रहित (उरा क्रतौ) विस्तृत यज्ञकर्म में या संग्रामकर्म में (न विदविद्युतत्) मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता बिना तेरे सहयोग के (धुनयः) शत्रुओं को कंपानेवाले हमारे सैनिक (मायुम्) हमारे आदेश को (न चिन्तयन्त) नहीं मानते हैं बिना तेरे सहयोग के ॥३॥







धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है  ।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।

वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है । 
ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा (१.२.४३) 
ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)

अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व  वैष्णव नाम से है  और  उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
विष्णु का  गोप के रूप में वेदों में वर्णन है।

वही विष्णु अहीरों में जन्म लेता है । और
अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
विदित हो की  "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है।  
परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: 
१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है 
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार 

२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के  रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।

तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

क्योंकि अहीर "वीर"  चरावाहे थे ! 
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के  जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
क्योंकि अबीर का  मूल रूप  "बर / बीर"  है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 

अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।

अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि अफर"  जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को  जिम्बाब्वे नें था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में  यही लोग "अवर"  और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में  अफोर- आदि नामों  से विद्यमान थी ।
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।

जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।

अत: ययाति के पूर्व पुरुषों  की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। 

और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्
नहुष' और  ययाति आदि का नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है  है ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।
वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है । 
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। 
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं 
पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है ।

गोत्र की अवधारणा-
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं,।
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यद्यपि गायत्री वैष्णवी शक्ति  का अवतार हैं ।
दुर्गा भी इन्हीं का रूप है  जब ये नन्द की पुत्री बनती हैं तब इनका नाम.एकानंशा अथवा यदुवंश समुद्भवा भी होता है ।।

पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माता सावित्री है। 

इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं। 

कहा जाता है एक बार पुष्‍कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया। 

लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया।
तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया और सभी शापित देवों तथा देवीयों को वरदान देकर प्रसन्न किया ये ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।
 
स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।

तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
देवी भागवत पुराण मे सहस्रनाम प्रकरण में यदुवंशसमद्भवा गायत्री सा ही नाम है।
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -
                -भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
             *-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।
रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
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गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
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पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
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धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।
अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
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अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
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तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
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भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
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ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५
वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
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बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
 ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।
- भीष्‍म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्‍ठ ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्‍येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्‍म जी ने कहा– 

भरतश्रेष्‍ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।

एकमात्र सनातन भगवान स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के सात महात्‍मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्‍ठ।

ये सभी स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्‍त प्रजापतियों का वर्णन आरम्‍भ करता हूँ।

अत्रिकुल मे उत्‍पन्‍न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्‍पन्‍न हूँ।
पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था  दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।

उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं। 

उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’ मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
कुछ लोग उन्‍हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्‍हें कश्यप के नाम से जानते हैं। 
अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्‍होंने सहस्‍त्र दिव्‍य युगों तक भगवान की उपासना की थी।
 प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्‍तम स्रष्टा) कहे गये हैं। 
धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्‍दु के दस हजार स्त्रियाँ थी। 
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अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥
मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥
धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।
यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥
कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ 
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।
                   ।।विदुर उवाच ।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।
                 ।।मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।

उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। 
इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।
फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। 

छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। 

विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
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उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।

पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। 

ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।

जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। 

जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। 

इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
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 तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
 वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। 

एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ।
इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।
इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
(भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
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उनमें से प्रत्‍येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। इस प्रकार उन महात्‍मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्‍छा नहीं करते थे।
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प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्‍पत्ति शशबिन्‍दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्‍पादक हुआ।
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संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे  १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र । 
६. समूह । जत्था । गरोह । ७. वृद्धि । बढ़ती । ८. संपत्ति । धन । दौलत । ९. पहाड़ । 
१०. बंधु । भाई । 
११. एक प्रकार का जातिविभाग । १२. वंश । कुल । खानदान । 
१३. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है । 
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विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषयों के नामों के अनुसार है ।
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सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा में यम के समय से निषिद्ध माना जाता है।
यम ने ही संसार में धर्म की स्थापना की यम का वर्णन विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में हुआ है 
जैसे कनानी संस्कृति ,नॉर्स संस्कृति ,मिश्र संस्कृति ,तथा फारस की संस्कृति और भारतीय संस्कृति आदि-में यम का वर्णन है ।
 
यम से पूर्व स्त्री और पुरुष जुड़वाँ  बहिन भाई के रूप में जन्म लेते थे ।
 
परन्तु यम ने इस विधान को मनुष्यों के लिए निषिद्ध कर दिया ।

केवल पक्षियों और कुछ अन्य जीवों में ही यह रहा । यही कारण है कि मनु और श्रद्धा भाई बहिन भी थे और पतिपत्नी भी ।

मनुष्यों के युगल स्तन ग्रन्थियाँ इसका प्रमाण हैं । 
ऋग्वेद में यम-यमी संवाद भी यम से पूर्व की दाम्पत्य व्यवस्था का प्रमाण है ।
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एक ही गोत्र के लड़का लड़की का भाई -बहन होने से  विवाह भी निषिद्ध ही है।
यद्यपि  गोत्र शब्द का प्रयोग वंश के अर्थ में  वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

ऋग्वेद में गोत्र शब्द का प्रयोग गायों को रखने के स्थान के एवं मेघ के अर्थ में हुआ है।
गोसमूह के अर्थ में गोत्र-
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त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् ।
ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥
— ऋग्वेद १/५१/३॥
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मेघ के अर्थ में ऋग्वेद में "गोत्र" के प्रयोग का भी उदाहरण :

'यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि ।
यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम् 
— ऋग्वेद ८/५०/१०॥


इसके अर्थ में समय के साथ विस्तार हुआ है।
गौशाला एक बाड़ अथवा परिसीमा में निहित स्थान है।
इस शब्द का क्रमिक विकास गौशाला से उसके साथ रहने वाले परिवार अथवा कुल  के रूप में हुआ।

इसमें विस्तार से गोत्र को विस्तार, वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।

गोत्र का अर्थ पौत्र तथा उनकी सन्तान के अर्थ में भी है । इस आधार पर यह वंश तथा उससे बने कुल-प्रवर की भी द्योतक है।
यह किसी व्यक्ति की पहचान, उसके नाम को भी बताती है तथा गोत्र के आधार पर कुल तथा कुलनाम बने हैं।

इसे समयोपरांत विभिन्न गुरुओं के कुलों (यथा कश्यप, षाण्डिल्य, भरद्वाज आदि) को पहचानने के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा। 

क्योंकि शिक्षणकाल में सभी शिष्य एक ही गुरु के आश्रम एवं गोत्र में ही रहते थे, अतः सगोत्र हुए।
यह इसकी कल्पद्रुम में दी गई व्याख्या से स्पष्ट होता है :

गोत्रम्, क्ली, गवते शब्दयति पूर्ब्बपुरुषान् यत् । इति भरतः ॥ (गु + “गुधृवीपतीति ।” उणादि । ४ । १६६ । इति त्रः ) तत्पर्य्यायः । सन्ततिः २ जननम् ३ कुलम् ४ अभिजनः ५ अन्वयः ६ वंशः ७ अन्ववायः ८ सन्तानः ९ । इत्यमरः । २ । ७ । १ ॥ आख्या । (यथा, कुमारे । ४ । ८ । “स्मरसि स्मरमेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् ॥”) सम्भावनीयबोधः । काननम् । क्षेत्रम् । वर्त्म । इति मेदिनी कोश । २६ ॥

छत्रम् । इति हेमचन्द्रःकोश ॥ संघः । वृद्धिः । इति शब्दचन्द्रिका ॥ वित्तम् । इति विश्वः ॥
यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।

गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश) 

तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
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गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।

तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।

इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।

तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका  एक अर्थ  छतरी( छत्र भी है।
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क्योंकि उस वैदिक समय  में गोत्र नहीं थे ।
गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर  14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में  उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।

यमी अपने सगे भाई यम से  संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। 
परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌
सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌
न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
पदान्वय-
न । वै । ऊं इति । ते । तन्वा । तन्वम् । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहुः । यः । स्वसारम् । निऽगच्छात् ।
अन्येन । मत् । प्रऽमुदः । कल्पयस्व । न । ते । भ्राता । सुऽभगे । वष्टि । एतत् ॥१२।
सायण-भाष्य★-
यमो यमीं प्रत्युक्तवान् । हे यमि “ते तव “तन्वा शरीरेण “तन्वम् आत्मीयं शरीरं “न “वै “सं पपृच्यां नैव संपर्चयामि । नैवाहं त्वां संभोक्तुमिच्छामीत्यर्थः । “यः भ्राता “स्वसारं भगिनीं “निगच्छात् नियमेनोपगच्छति । संभुङ्त्श इत्यर्थः । तं “पापं पापकारिणम् “आहुः । शिष्टा वदन्ति । एतज्ज्ञात्वा हे “सुभगे सुष्ठु भजनीये हे यमि त्वं “मत् मत्तः “अन्येन त्वद्योग्येन पुरुषेण सह “प्रमुदः संभोगलक्षणान् प्रहर्षान् “कल्पयस्व समर्थय । “ते तव “भ्राता यमः “एतत् ईदृशं त्वया सह मैथुनं कर्तुं “न “वष्टि न कामयते । नेच्छति ॥

“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)

इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “ एक पुर्वज अथवा पूर्वपुरुष  के पौत्र परपौत्र आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !! “
मनु स्मृति –5/60
(सपिण्डता) सहोदरता (सप्तमे पुरुषे) सातवीं पुरुष में (पीढ़ी में ) (विनिवर्तते) छूट जाती है।
(जन्म नाम्नोः) जन्म और नाम दोनों के (आवेदने)  जानने  से, (समान-उदक भावः तु) आपस में  (जलदान)का व्यवहार भी छूट जाता है।
इसलिये सूतक में सम्मिलित होना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
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सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) गुण - मानव के ।
गोत्र निर्धारण की व्याख्या करता है ।।

जीवविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता -उत्तराधिकारिता ( जेनेटिक्स हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है।

आनुवंशिकता के अध्ययन में' ग्रेगर जॉन मेंडेल "जैसे यूरोपीय जीववैज्ञानिकों  की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। 

विज्ञान की भाषा में प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। अत: कोशिका जीवन की शुक्ष्म इकाई है।

इन कोशिकाओं में कुछ  गुणसूूूूूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। 

इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ (डी .एन. ए .) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। 

यद्यपि  डी.एन.ए और आर.एन.ए दोनों ही न्यूक्लिक एसिड होते हैं।

इन दोनों की रचना "न्यूक्लिओटाइड्स"   से होती है जिनके निर्माण में कार्बन शुगर, फॉस्फेट और नाइट्रोजन बेस (आधार) की मुख्य भूमिका होती है।
डीएनए जहाँ आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है और कोशिकीय कार्यों के संपादन के लिए कोड प्रदान करता है वहीँ आर.एन.ए की भूमिका उस कोड  (संकेतावली)
को प्रोटीन में परिवर्तित करना होता है। दोेैनों ही तत्व जैनेटिक संरचना में अवयव हैं ।
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आनुवंशिक कोड (Genetic Code) डी.एन.ए और बाद में ट्रांसक्रिप्शन द्वारा बने (M–RNA पर नाइट्रोजन क्षार का विशिष्ट अनुक्रम (Sequence) है,

जिनका अनुवाद प्रोटीन के संश्लेषण के लिए एमीनो अम्ल के रूप में किया जाता है। 

एक एमिनो अम्ल निर्दिष्ट करने वाले तीन नाइट्रोजन क्षारों के समूह को कोडन, कोड या प्रकुट (Codon) कहा जाता है।

और ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए  होते हैं।
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भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः।
तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः।९८।

सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्।
प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः।९९।

ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना।
वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते।१००। 1.16.100।

अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः।
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्।
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।

पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः।
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं।१०३

यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः।
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः।१०४।

ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्।
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः।१०५।

भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे।
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः।१०६।

अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः।
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः।१०७।

द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह।
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं।१०८।

तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः।
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः।१०९।

द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः।
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्।११०।

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्।
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्।१११।

उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः।
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना।
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः।
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया।
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह।
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु।
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया।
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः।
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः।
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।

वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा।
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः।
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता।
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः।
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।
सन्दर्भ:-(पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १६)

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