"दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री नाद ब्राह्म( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।
न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं
काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।
___________________
गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्ताने उत्पन्न होती हैं।
गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।
(पुरु प्रचुरं रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः । “ ३।९०।२२ ।
_______________
सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा। पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्रयातः पुरूरवाः ।19। महाभारत वन पर्व -/88/19 |
इति महाभारतोक्तवचनात् पुरौ पर्व्वते रौतीति वा । पुरु + रु + “ पुरूरवाः ।“ उणादिकोश ४ । २३१ । इति असिप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।) बुधस्य पुत्त्रः । स तु चन्द्रवंशीयादिराजः।
_______________________________________
समाधान:-
"गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। देवी भागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा राधा गायत्री के ही नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्द पुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री खैर गायत्री शब्द का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही है।
___________________
"ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः।
चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से इन्द्र ने किसी घूमते हुई गोप कन्या को देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
_______
युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
______________
परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
अनुवाद:- यदि तुम तक्र ग्रहण करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा ।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा ! हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।।
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।
अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक स्थान पर रहता है।।
गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
अनुवाद:- वह गाय के पेट से निकाली और ब्राह्मणों के पास लाई गई। उसका हाथ पकड़कर यज्ञा का सम्पादन करो।
रुद्रःप्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा।५१।
अनुवाद:- रूद्र ने कहा, "फिर गाय-यन्त्र से बाहर होने से यह निश्चय ही गायत्री नाम से इस यज्ञ में सदा तुम्हारी पत्नी होगी "
निष्कर्ष:-
"गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति - गायन्तं त्रायते त्रै+क, अथवा गीयतेऽनेन गै--घञ् यण् नि० ह्रस्वः गयः प्राणस्त त्रायते त्रै- क वा)
गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति
"प्रातर्न तु तथा स्नायाद्धोमकाले विगर्हितः ।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥१०॥
अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।
गायन्तं त्रायते यस्माद्गायत्रीत्यभिधीयते।
प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥११॥
अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
१२.गायन्तं त्रायते यस्माद्-गायत्रीति ततः स्मृता।
(बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः४/३५)
,"अत: स्कन्दपुराण, लक्ष्मी-नारायणीसंहिता नान्दी पुराण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति पूर्णत: प्रक्षिप्त व काल्पनिक है। जिसका कोई व्याकरणिक आधार नही है।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
अनुवाद तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो।
ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।
शास्त्रीय तथा वैदिक सिद्धान्तो के विपरीत होने से तथा परस्पर विरोधाभास होने से स्कन्द पुराण के नागर खण्ड से उद्धृत निम्नश्लोक प्रक्षिप्त हैं।
"युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।।४५।।
परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः ।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।।४९।।
गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
लक्ष्मी नारायण संहिता अध्याय 509 ने भी यही बात है।।
गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः॥
यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ५५ ॥
यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ५५ ॥
पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः॥५६॥
अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता ॥
कन्यका "गोपजा" तन्वी चंद्रास्या पद्मलोचना।५७।
सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता ॥
सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने॥५८॥
कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि नः ॥५९॥
॥ कन्योवाच ॥
गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता ॥
यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम् ॥ ६.१८१.६०॥
तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम् ॥
जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले ॥६१॥
अथ तां रुदतीं शक्रः समादाय त्वरान्वितः॥
गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः ॥६२॥
__________________
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३॥
ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे ॥६४॥
कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना ॥
तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता ॥६५॥
गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख ॥६६॥
निष्कर्ष:- गायों और गायत्री को ब्राह्मण बनाने के लिए पुरोहितों ने शास्त्रीय सिद्धान्तो नजर-अंदाज करके स्वयं दलदल में फँस न
जैसा कार्य कर डाला। और कृष्ण के मुखारविन्द कहलबाया की गाय और ब्राह्मण एक ही कुल के हैं। जबकि यह बातें शास्त्रीय सिद्धान्त के पूर्णत विपरीत ही हैं।
"श्रीवासुदेव उवाच"
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम्॥
एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥६७॥
धेनूदराद्विनिष्क्रांता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये ॥६८।।
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः ॥६९॥
" रुद्र उवाच"
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
"ब्रह्मोवाच"
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि॥
संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥७१॥
"ब्राह्मणा ऊचुः"
एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥
_________
इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥१८१॥
_____________
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें