गुरुवार, 25 मई 2023

वर्ण निरूपण सतयुग में एक ही वर्ण हंस -

गुणकर्मानुसार वर्णविभाग ही भगवान का जाननेका मार्ग है- 

"चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।         तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥१६॥

( श्रीमद्भगवद्गीता- ४/१३)
अनुवाद:-गुण और कर्मों के विभागसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं। मैं सृष्टि आदिका कर्त्ता होने पर भी मुझे अकर्ता और अव्यय ही जानना अर्थात् वर्ण और आश्रम धर्म की रचना  मेरी बहिरङ्गा प्रकृति के द्वारा ही हुई है। मैं अपने आपमें इन सब कार्यों से तटस्थ रहता हूँ॥१६॥
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प्राचीन युगका वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में -
"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥

"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी।       विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥

विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।      वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥

(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)
अनुवाद:-
(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है।  हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों  के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥

पहले सभी ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-

"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥

कलियुगमें वर्ण-धर्मकी अवस्था-
"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राः पापपरायणाः।निजाचारविहीनाश्च भविष्यन्ति कलौ युगे॥२३॥
विप्रा वेदविहीनाश्च प्रतिग्रह-परायणाः।अत्यन्तकामिनः क्रूरा भविष्यन्ति कलौ युगे॥२४॥
वेदनिन्दाकराश्चैव द्यूतचौर्यकरास्तथा।विधवासङ्गलुब्धाश्च भविष्यन्ति कलौ द्विजाः॥२५॥
वृत्त्यर्थ ब्राह्मणाः केचित् महाकपटधर्मिणः।रक्ताम्बरा भविष्यन्ति जटिलाः श्मश्रुधारिणः॥२६॥
कलौ युगे भविष्यन्ति ब्राह्मणाः शूद्रधर्मिणः ॥२७॥(पद्मपुराण क्रियायोगसार में १७ वां अध्याय)

अनुवाद:-
कलियुग में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण अपने-अपने आचार विहीन और पाप-परायण होंगे। ब्राह्मण-वेदविहीन, यजनादि पाँच ब्राह्मणोचित कर्मों का परित्याग कर केवल प्रतिग्रहपरायण, अत्यन्त कामुक और क्रूर प्रकृति विशिष्ट होंगे। 

कलियुगमें द्विजगण वेद निन्दक, द्यूतप्रेमी ज्वारी, चौर्यवृत्तिविशिष्ट एवं विधवा-सङ्गलोलुप होंगे। जीविका निर्वाह के लिए कोई-कोई महाकपट धर्मी ब्राह्मण रक्तवस्त्र परिधान एवं जटिल अर्थात् बड़े-बड़े केश धारण करेंगे। 
कलियुग में ब्राह्मणगण इस प्रकार शूद्रधर्म में निरत रहेंगे॥२३-२७॥

     कलिमहिमा कालिकापुराण अध्याय- (1)

यवनैरवनिः क्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यमाविशन् | बलिना वेदमागाँऽय कलिना कवलीकृतः ॥ १॥

सीदन्ति चाग्भिहो-त्राणि गुरुपूजा प्रणश्यति । कुमार्यश्च प्रसूयन्ते प्रासे कलियुगे सदा ॥ २॥

परान्नेन मुख दग्धं हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात्। परस्त्रीभिर्मनो दग्धं कुतः शापः कलैनै युगे ॥३॥

राक्षसाः कलिमाश्रित्य जायन्ते ब्रह्मयोनिषु। ब्राह्मणानेव बाधन्ते तत्रापि श्रोत्रियान्कृशान्।४।

कुशलाः शब्दवार्तायां वृत्तिहीनाः सुरागिणः ।    कलैौ वेदान्तिनो भान्ति फाल्गुने बालका इव।५।

वागुच्चारोत्सवं मात्रे तत्क्रिया कर्तुम- क्षमाः ।  कलैौ वेदान्तिनो भान्ति फाल्गुने बालका इव।६।

कृते च रेणुका कृत्या त्रेताया जानकी तथा।    द्वापरे द्रौपदी कृत्या कलौ कृत्या गृहे गृहे।७।

कालिकापुराण अध्याय- (1)
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कलियुग के ब्राह्मण-
पूर्व युगोंमें देव-द्विजद्रोही जो असुर थे, वे सभी राक्षसगण कलियुगका आश्रयकर ब्राह्मण कुलमें जन्म ग्रहण करते हैं एवं उस कुल में उत्पन्न होकर जिनके दश प्रकारके संस्कार, विद्याभ्यास आदि क्षीण हो गये हैं, वे सभी वेदज्ञों को बाधा प्रदान करेंगे॥२८॥


शौद्र विचार से वर्ण-निरूपण दोषपूर्ण क्यों है?-

जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते।          सङ्करात् सर्ववर्णानां दुष्परीक्ष्येति मे मतिः।३०।

सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः।वाङ्मैथुनमथो जन्म मरणञ्च समं नृणाम्॥३१॥
(महाभारत-वनपर्व १८०/३१-३२)

(युधिष्ठिर नहुषको कहते हैं,-) हे महामते महासर्प! मनुष्योंमें, समस्त वर्णों में मिश्रणताके कारण व्यक्तियोंकी जाति निरूपणका कार्यकठिन है, यही मेरा मत है। इसलिए सभी वर्गों के मनुष्य सभी वर्गों की स्त्रियोंसे सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ हैं। मनुष्योंकी बोलचाल, मैथुन, जन्म और मरण सभी वर्गों में एक-सा ही है॥३०-३१॥
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सत्यप्रिय-वैदिक ऋषियोंका मत-
"न चैतद्विद्मो ब्राह्मणाः स्मो वयंब्राह्मणा वेति" ॥३२॥
(महाभारत वनपर्व १८०/३२)

'हम नहीं जानते कि हम ब्राह्मण हैं या अब्राह्मण', सत्यप्रिय ऋषियोंके मनमें इस प्रकारका संशय हुआ॥३२॥

वृत्तगत वर्ण निरूपण ही श्रुति-स्मृति-पुराण-इतिहासादि द्वारा समर्थित है-

(१) श्रुति प्रमाण-

ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेदवचनानरूपं स्मतिभिरप्यक्तम। तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम। किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति। तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति। चेतन। अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्येकरूपत्वात् एकस्यापि कर्मवशादनेकदेह-सम्भवात् सर्वशरीराणां जीवस्यैकरूपत्वाच्च। तस्मान्न जीवो ब्राह्मण इति। तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत्तन्न, आचण्डालादिपर्यन्तानां मनष्याणां पाञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वाज्जरामरण-महाभारत का प्रमाण-

शूद्र चैतद्भवेल्लक्षणं द्विजे तच्च न विद्यते।          न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो ब्राह्मणो न च॥३४॥
(महाभारत शल्यपर्व १८९/८)

शूद्र में यदि ब्राह्मण के लक्षण प्रतीत हों एवं ब्राह्मणमें शूद्रके लक्षण उपलब्ध हों तो शूद्र, शूद्र नहीं होता एवं ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं हो सकता॥३४॥

(३) भागवतका प्रमाण-
यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्।यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत्॥३५॥
(श्रीमद्भागवत ७/११/३५)
अनुवाद:-
मनुष्यों में वर्णाभिव्यञ्जक जो समस्त लक्षण बताये गये हैं, वे यदि दूसरे वर्णवालों में भी मिलें तो उसे भी उसी वर्णका समझना चाहिए। (केवल जन्म के द्वारा वर्ण निरूपित नहीं होगा)॥३५॥

(४) वृत्त-ब्राह्मणता के सम्बन्ध में प्राचीन टीकाकारों का मत-

श्रीनीलकण्ठका मत-

"एवञ्च सत्यादिकं यदि शूद्रेऽप्यस्ति तर्हि सोऽपि ब्राह्मण एव स्यात्  शूद्रलक्ष्मकामादिकं न ब्राह्मणेऽस्ति नापि ब्राह्मणलक्ष्मशमादिकं शूद्रेऽस्ति। शूद्रोऽपि शमाद्युपेतो ब्राह्मण एव, ब्राह्मणोऽपि कामाधुपेतः शूद्र एव॥३६॥
(महाभारत-वनपर्व १८०/२३-२६ श्लोक की नील कण्ठ टीका)

इस प्रकारके सत्य आदि लक्षण यदि शूद्र में रहते हैं, तो उनकी भी निश्चय ही ब्राह्मणों में गणना होगी। कामादि शूद्रोंके लक्षण ब्राह्मणोंमें नहीं रह सकते और शमादि ब्राह्मण-लक्षण शूद्रोंमें नहीं रहते। शूद्र कुलमें उत्पन्न व्यक्ति यदि शमादि गुणोंद्वारा भूषित हैं तो वह निश्चय ही 'ब्राह्मण' है। और ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न व्यक्ति यदि कामादि गुणोंसे युक्त हैं तो वह निश्चय ही 'शूद्र' है, इस विषयमें तनिक भी सन्देह नहीं है॥३६॥

(५) वृत्तब्राह्मणताके सम्बन्धमें श्रीधरगोस्वामीपादका अभिमत-

शमादिभिरेव-ब्राह्मणादि-व्यवहारो मुख्यः न जातिमात्रात्। यद् यदि अन्यत्र वर्णान्तरेऽपि दृश्येत, तद्ववर्णान्तरं तेनैव लक्षणनिमित्तेनैव वर्णेन विनिर्दिशेत्, न तु जाति निमित्तेनेत्यर्थः ॥३७॥

(श्रीमद्भागवत ७/११/३५ भावार्थ दीपिका)

शम आदि गुणोंके द्वारा ब्राह्मणादि वर्ण स्थिर करना प्रधान कर्त्तव्य है। साधारणतः जातिके द्वारा जो ब्राह्मणत्व निरूपित होता है, केवल यही नियम नहीं है। इसका प्रतिपादन करनेके लिए 'यस्य यल्लक्षणम्' (भा.७/११/३५) श्लोकको उद्धृत करते हैं। यदि शौक ब्राह्मण (जन्मसे ब्राह्मण) के बिना अशौक्र-ब्राह्मणमें अर्थात् जिसकी ब्राह्मण-संज्ञा नहीं है, ऐसे व्यक्तिमें शमादि गुण दृष्टिगत हों तो उसको जातीय व्यक्ति न मानकर, लक्षण द्वारा उसका वर्ण' निरूपण करना चाहिए। अन्यथा विरुद्ध आचरण होगा॥३७॥

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