गुरुवार, 16 मार्च 2023

भागवत धर्म और ब्राह्मण धर्म एक तुलनात्मक दृष्टिकोण यादवों के पूर्वज यदु के अनेक संस्करण-अध्याय दशम्-


अध्याय दशम -

 यदुवंश-सांस्कृतिक पारिभाषिक व्युत्पत्ति कोश-

आजतक कुछ शास्त्रों से अनभिज्ञ पुरोहित समाज के लोग एक राग अली पते रहते हैं कि ब्राह्मण मनु की सन्तान नहीं हैं मनु क्षत्रिय हैं ।और ये क्षत्रियों के पूर्वज है। परन्तु एक काशी के पण्डित जी 

मानव तथा ब्राह्मण शब्दों में अर्थभेद कर रहे हैं। नाम है।
प्रोफेसर- हरिनारायणतिवारी विद्यावाचस्पति, अध्यक्ष काशीविद्वत्परिषद् ।
सायद प्रोफेसर साहब शास्त्त्रों के निम्न श्लोकों से परिचित नहीं हैं।

धर्मात्मा स मनुर्धीमान्यत्र वंशः प्रतिष्ठितः।
मनोर्वंशो मानवानां ततोऽयं प्रथितोऽभवत्।।१३।।
अनुवाद:-
बुद्धिमान मनु बड़े धर्मात्‍मा थे, जिन पर  वंश  की प्रतिष्ठा हुई। मानवों से सम्‍बन्‍ध रखने वाला यह मनुवंश उन्‍हीं से विख्‍यात हुआ। 

ब्रह्मक्षत्रादयस्तस्मान्मनोर्जातास्तु मानवाः।
ततोऽभवन्महाराज ब्रह्म क्षत्रेण सङ्गतम्।।१४।।
अनुवाद:-उन्‍हीं मनु से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सब मानव उत्‍पन्न हुए हैं। महाराज ! तभी से ब्राह्मण कुल क्षत्रिय से सम्‍बद्ध हुआ।१४
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महाभारते आदिपर्णि सम्भव पर्ववणि
पञ्चसप्ततितमो८ध्याय ।।७५।।
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कभी ब्राह्मण से क्षत्रिय उत्पन्न हो जाते हैं तो कभी क्षत्रिय से ब्राह्मण भी उत्पन्न हो जाते हैं।
अर्थात ये दोैनों एक दूसरे को उत्पन्न करके एक दूसरे के वाप ( पिता) भी बन जाते हैं । 

क्षत्रियेभ्यश्च ये जाता ब्राह्मणास्ते च ते श्रुताः।
विश्वामित्रप्रभृतयः प्राप्ता ब्रह्मत्वमव्ययम्।।14।
महाभारत आदिपर्व अध्याय 147
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इसी लिए यह कहावत भी प्रसिद्ध हुई कि
"क्षत्रियों से बहुत से जो ब्राह्मण उत्पन्न हुए ऐसा भी सुना गया है । 
"क्षत्रियेभ्यश्च ये जाता ब्राह्मणास्ते च ते श्रुता: ।
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मनुस्मृति अध्याय नवम्-श्लोक तीन सौ बीस-
श्लोक 9.320
क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणान् प्रति सर्वशः ।
ब्रह्मणैव संनयन्तृ स्यात् क्षत्रं हि ब्रह्मसम्भवम् ॥320॥
अनुवाद:-अधिक वृद्ध क्षत्रिय का भी सभी ब्राह्मणों ( छोटे बड़े) के प्रति समर्पण भाव हो क्यों कि ब्राह्मण ही सब को नियन्त्रित करने वाला होता है। और  क्षत्रिय भी ब्राह्मण से उत्पन्न है।
अन्यत्र भी महाभारत में वर्णन है।
ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन्क्षत्रधर्मेण वर्ततः।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम्।।(१२/२२/६ महाभारत शान्ति पर्व)

अनुवाद:-राजन्! ब्राह्मण भी यदि क्षत्रिय धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हो तो लोक में उसका जीवन उत्तम ही माना गया है; क्योंकि क्षत्रिय की उत्पत्ति ब्राह्मण से ही हुई है।
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एक और  श्लोक  इसी भाव से सम्बन्धित महाभारत शान्तिपर्व- 78.28 में मिलता है।
शुक्राचार्य ने कहा- देवयानी! तू स्‍तुति करने वाले, भीख मांगने वाले या दान लेने वाले की बेटी नहीं है। 
तू उस पवित्र ब्राह्मण की पुत्री है, जो किसी की स्‍तुति नहीं करता और जिसकी सब लोग स्‍तुति करते हैं। इस बात को वृषपर्वा, देवराज, इन्‍द्र तथा ययाति जानते हैं। निर्द्वन्‍द्व अचिन्‍त्‍य ब्रह्म ही मेरा ऐश्‍वर्य युक्त बल है। 

ब्रह्मा जी ने संतुष्ट होकर मुझे वरदान दिया है; उसके अनुसार इस भूतल पर, देवलोक में अथवा सब प्राणियों में जो कुछ भी है, उन सबका मैं सदा-सर्वदा स्‍वामी हूँ।

 मैं ही प्रजाओें के हित के लिये पानी बरसाता हूँ और मैं ही सम्‍पूर्ण औषधियों का पोषण करता हूं, यह तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवयानी इस प्रकार विषाद में डूबकर क्रोध और ग्‍लानि से अत्‍यन्‍त कष्ट पा रही थी, उस समय पिता ने सुन्‍दर मधुर वचनों द्वारा उसे समझाया।

यह श्लोक वीरमित्रोदय (राजन्ति, पृ. 152) में उद्धृत है । 
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स्कन्दपुराण खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)-प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम् -अध्यायः ०२२

क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणानां प्रभावतः।
ब्राह्मं हि परमं पूज्यं क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम् ॥ ९२ ॥

भागवत पुराण  प्रथम स्कन्ध अध्याय 18- में देखें ति किस प्रकार बाद में ब्राह्मणों ने स्वयं अपनी प्रतिष्ठा को धूमिल भी कर लिया ।

श्लोक  1.18.32 
तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन् बालकोऽर्भकै:।
राज्ञाघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत् ॥३२॥
शब्दार्थ:-
तस्य—उसका (मुनि का) षष्ठी विभक्ति एकवचन; पुत्र:—पुत्र; अति—अत्यधिक; तेजस्वी—शक्तिमान; विहरन्—खेलते हुए; बालक:—बालक
 अर्भकै:—जो अभी बचकाना(मूर्ख )थे उनके साथ; राज्ञा—राजा द्वारा; अघम्—पाप/विपत्ति; प्रापितम्—दिया गया; तातम्—पिता को; श्रुत्वा—सुनकर; तत्र—वहीं पर; इदम्—यह; अब्रवीत्—बोला ।.
 
अनुवाद:-उस मुनि का एक पुत्र था, जो ब्राह्मण-पुत्र होने के कारण अत्यन्त शक्तिमान था। जब वह अनुभवहीन बालकों के साथ खेल रहा था, तभी उसने अपने पिता की विपत्ति सुनी, जो राजा द्वारा लाई गई थी। वह बालक वहीं पर इस प्रकार बोला।
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भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 18-
श्लोक  1.18.33  
अहो अधर्म: पालानां पीव्‍नां बलिभुजामिव ।
स्वामिन्यघं यद् दासानां द्वारपानां शुनामिव ॥३३॥
 
शब्दार्थ
अहो—जरा देखो तो; अधर्म:—अधर्म; पालानाम्—शासकों का; पीव्नाम्—पाले गये का; बलि-भुजाम्—कौवों की तरह; इव—सदृश; स्वामिनि—स्वामी को; अघम्—पाप; यत्—जो है; दासानाम्—नौकरों का; द्वार-पानाम्—दरवाजे की रखवाली करनेवाले; शुनाम्—कुत्ते के; इव—सदृश ।.
 
अनुवाद:-[ब्राह्मण बालक श्रृंगी ने कहा: अरे! शासकों के पापों को तो देखो, जो अधिशासी-दास सिद्धान्तों के विरुद्ध, कौवों तथा द्वार के रखवाले कुत्तों की तरह अपने स्वामियों पर जुल्म ढाते हैं।
 
आगे का श्लोक भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय18 का
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श्लोक  1.18.34  
ब्राह्मणै: क्षत्रबन्धुर्हि गृहपालो निरूपित: ।
स कथं तद्गृहे द्वा:स्थ: सभाण्डं भोक्तुमर्हति ॥३४।
 
शब्दार्थ
ब्राह्मणै:—ब्राह्मणों द्वारा; क्षत्र-बन्धु:—क्षत्रियों के पुत्र; हि—निश्चय ही; गृह-पाल:—रक्षक कुत्ते; निरूपित:—नामधारी; स:—वह; कथम्—किस बल पर; तत्-गृहे—अपने (स्वामी) के घर में; द्वा:-स्थ:—द्वार पर बैठा; स-भाण्डम्—उसी भांडे में; भोक्तुम्—खाने के लिए; अर्हति—योग्य है ।.
 
अनुवाद:-राजाओं की सन्तानें निश्चित रूप से द्वाररक्षक कुत्ते नियुक्त हुई हैं और उन्हें द्वार पर ही रहना चाहिए। तो किस आधार पर ये कुत्ते घर में घुसकर अपने स्वामी की ही थाली में खाने का दावा करते हैं?
 
विशेष-
अनुभव-हीन ब्राह्मण बालक अच्छी तरह जानता था कि राजा ने उसके पिता से पानी माँगा था और उसके पिता ने कुछ जवाब नहीं दिया। उसने एक असभ्य बालक के लिए उपयुक्त अशिष्ट ढंग से अपने पिता की असत्कारशीलता की सफाई देने का प्रयत्न किया।

उसे राजा का ठीक से सत्कार न किये जाने का तनिक भी दुख न था। इसके विपरीत, वह गलत काम को कलियुग के ब्राह्मणों की भाँति, लाक्षणिक ढंग से, वैध ठहरा रहा था। 

उसने राजा की तुलना दरवाजे के कुत्ते से की, अतएव राजा के लिए ब्राह्मण के घर में घुसकर उसी पात्र से जल माँगना अनुचित था।

कुत्ते को स्वामी ही पालता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता कि वह स्वामी की ही थाली में खायेगा और पियेगा। 

यह झूठी प्रतिष्ठा की मानसिकता ही पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के पतन का कारण है और हम यह देख सकते हैं कि इसका सूत्रपात एक अनुभव-शून्य ब्राह्मण बालक ने किया था।

 जिस प्रकार कुत्तों को कमरे तथा चूल्हे-चौके में नहीं घुसने दिया जाता, भले स्वामी ने ही कुत्ता पाल रखा हो, उसी प्रकार शृंगी के अनुसार राजा को कोई अधिकार नहीं था कि वह शमीक ऋषि के घर में घुसता।

 बालक के मत से राजा ही गलती पर था, उसका अपना पिता नहीं और इस तरह उसने अपने शान्त रहने वाले पिता को न्यायपूर्ण ठहराया।
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श्लोक  1.18.35  
कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम् ।
तद्भ‍िन्नसेतूनद्याहं शास्मि पश्यत मे बलम् ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
कृष्णे—भगवान् कृष्ण के; गते—इस संसार से प्रयाण करके जाने पर; भगवति—भगवान्; शास्तरि—परम शासक; उत्पथ- गामिनाम्—उत्पातियों को; तत् भिन्न—विलग होने से; सेतून्—रक्षक; अद्य—आज; अहम्—मैं; शास्मि—दण्ड दूँगा; पश्यत—जरा देखना; मे—मेरा; बलम्—पराक्रम ।.
 
अनुवाद:-सबों के परम शासक भगवान् श्रीकृष्ण के प्रस्थान के पश्चात्, हमारे रक्षक तो चले गये, लेकिन ये उपद्रवी फल-फूल रहे हैं। अतएव इस मामले को मैं अपने हाथ में लेकर उन्हें दण्ड दूँगा। अब मेरे पराक्रम को देखो।

 विशेष:-
वह अनुभवहीन ब्राह्मण, अल्प ब्रह्म-तेज से गर्वित होकर, कलियुग   से प्रभावित हो उठा।

महाराज परीक्षित ने कलियुग को चार स्थानों में रहने की छूट दे दी थी, जैसाकि पहले कहा जा चुका है, किन्तु राजा के अत्यन्त दक्ष शासन में कलि को इन नियत स्थानों में कहीं भी रहने को स्थान न मिल पाया।

 अतएव कलियुग अपनी सत्ता जताने की ताक में था और भगवान् की कृपा से उसे इस गर्वित अनुभवहीन ब्राह्मण बालक रूप में छिद्र मिल ही गया। 

यह छोटा सा ब्राह्मण विनाश के लिए अपना तेज दिखाना चाह रहा था और उसने महाराज परीक्षित जैसे महान् राजा को दण्ड देने की घृष्टता की। 

वह भगवान् कृष्ण के प्रयाण के बाद उनका स्थान ग्रहण करना चाह रहा था। ये उन उपद्रवियों के कुछ महत्त्वपूर्ण लक्षण हैं, जो कलि के प्रभाव से श्रीकृष्ण का स्थान लेना चाहते हैं। थोड़ी सी शक्ति से सम्पन्न होकर, एक उपद्रवी भगवान् का अवतार बनना चाहता है।

इस संसार से भगवान् कृष्ण के प्रयाण के बाद, कई मिथ्या अवतार हुए हैं और वे भोली-भाली जनता की आध्यात्मिक आज्ञाकारिता का स्वीकार करके अपनी झूठी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए जनता को गुमराह कर रहे हैं। 

दूसरे शब्दों में, कलि को इस ब्राह्मण पुत्र शृंगी के माध्यम से अपना शासन जताने का अवसर प्राप्त हो सका।
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वैसे भी कलियुग में प्राय: ब्राह्मण पूर्वकाल के राक्षस ही होते हैं।

द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः। पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥४२॥
अनुवाद:-
(पहले जो राक्षस थे वही कलियुग में ब्राह्मण होते हैं।)
" पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥४३॥

उस सत्ययुगमें सभी वर्णोंके लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे। उसके बाद | त्रेतायुगमें धर्मकी स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुगमेंजो धर्मकी स्थिति थी, वह द्वापरमें विशेषरूपसे कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुगमें ब्राह्मण माने जाते हैं । ॥ 

वे प्रायः पाखण्डी, लोगों को ठगनेवाले, झूठ बोलनेवाले तथा वेद और धर्मसे दूर रहनेवाले होते हैं। उनमें से कुछ तो दम्भी, लोकव्यवहारमें चालाक, अभिमानी, वेदप्रतिपादित मार्गसे हटकर चलनेवाले, शूद्रोंकी सेवा करनेवाले, विभिन्न धर्मों का प्रवर्तन करनेवाले, वेदनिन्दक, क्रूर, धर्मभ्रष्ट और व्यर्थ वाद-विवाद में लगे रहनेवाले होते हैं।

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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे युगधर्मव्यवस्थावर्णनं नामकादशोऽध्यायः।११॥
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यह शास्त्रीय  विश्लेषण यादव योगेश कुमार रोहि के शोधों पर आधारित है। ---

कृष्ण के मौलिक आध्यात्मिक सिद्धान्त सदैव पुरोहित वाद और वैदिक यज्ञ मूलक कर्म--काण्डों के विरुद्ध हैं ।

भागवत धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद् गीता थी । --जो उपनिषद् रूप है । परन्तु पाँचवी शताब्दी के बाद से अनेक ब्राह्मण वादी रूपों को समायोजित कर चुका है --जो वस्तुत भागवत धर्म के पूर्ण रूपेण विरुद्ध व असंगत हैं । --जो अब अधिकांशत: प्रक्षिप्त रूप में महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित है। यद्यपि इसे महाभारत के शान्ति पर्व में समायोजित किया जाना चाहिए था। क्यों कि वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇 

अधेष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: श्रीमद्भगवद् गीता 18/70 अर्थात्‌ --जो हम दौनों के इस धर्म-संवाद को पढ़ेगा यहाँं यदि कृष्ण अर्जुुन को उपदेश देते ; तो इस प्रकार श्लोकाँश होता -- श्रोष्यति च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: जो हमारे इस संवाद को सुनेगा ! यदि आप मानते हो कि गीता उपदेशात्मक है तो इसमें सुनने की बात होती परन्तु इसमें तो पढने की बात है सीधी सी बात है ये ब्राह्मण वाद की क्षत्र-छाया में बाद में लिखी गयी है दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है । जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है । क्यों कि बुद्ध ने ब्राह्मण वाद पर आघात किया तो ब्राह्मणों ने भी बुद्ध के सिद्धान्तों का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया योगाचार और माध्यमिक इन बौद्ध बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी सन् के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया । 

और -ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई । अत: मूल श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ आध्यात्मिक श्लोकों के रूप ही कृष्ण के सिद्धान्तों का सीर हैं । बाद बाकी तो अलग से समायोजित है । यद्यपि कालान्तरण में वर्ण- व्यवस्था वादी ब्राह्मणों ने इसमें वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का समायोजन भी कर दिया है ; जो कि स्पष्ट रूप से चिन्हित हैं ।👇 

यज्ञ भी भागवत धर्म का अंग नहीं हैं क्यों यज्ञ केवल ब्राका कर्म--काण्डों मूलक पैतृिक परम्परा गत धर्म के नाम पर व्यवसाय मात्र है । क्यों कि ईश्वर कर्म काण्ड या यज्ञ से प्रेरित नहीं होता 'वह केवल भाव शुद्धि से प्राप्ति होता है । 

श्रीमद्भगवत् गीता केवल आध्यात्मिक साधना-पद्धति मूलक ग्रन्थ है कर्म काण्ड आध्यात्मिक साधना-पद्धति के अंग नहीं हैं श्रीमद्भगवत् गीता कर्म का ही प्रादुर्भाव इस प्रकार से निरूपिय करता है 👇

अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल है । क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है । स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।

और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है । जैसे- संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गया निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता और हठ अज्ञानता पूर्वक लिया गया मानसिक दृढ़ता है । परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।

और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो जाती है । और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की कर्म इस जीवन और संसार का सृष्टा है। महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है । जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा संसार का सार है संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती स्थितियाँ अनुभव हुईं मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च" ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है । उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। 

मुझे लगा कि अब हम सत्य के समीप आचुके हैं मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है । और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है। क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।

 और स्त्रीयों में कठोरता का अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानते हैं । और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ; वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही ख़ूबसूरत है। वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना का जन्म हुआ है । और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है । श्रीमद्भगवत् गीता ही स्वर्ग और नरक से ऊपर है इसमें स्वर्ग प्राप्ति मूलक वैदिक कर्म--काण्डों का जोर दार खण्डन बुद्ध के सिद्धान्तों के समकक्ष है । 

समत्वम् योग उच्यते के रूप में बुद्ध के मध्य-मार्ग का निरूपण है । वैदिक ऋचाओं में ब्राह्मणों की देवों से की गयीं स्तुतियाँ भौतिक इच्छाओं की आपूर्ति के लिए हैं । जिसमें पुरोहित स्तुति करते समय अपने लिए अतीव सम्पदा सुन्दर स्त्रीयों और भोगी की कामना करता है साथ ही अपने प्रतिद्वन्द्वीयों या पड़ोसीयों के अनिष्ट की कामना देवों से करता है । फिर भी वेदौं को ईश्वरीय कहना मूर्खता पूर्ण मनोवृत्ति ही है । श्रीमद्भगवद् गीता वैदिक सम्मोहकों की विखण्डिका आप यदि विद्वान हो तो  यह बताओ ! वैदिक ऋषि केवल स्वर्ग और सुन्दर स्त्रीयों के साथ सहवास की कामनाऐं करते हैं । देखें निम्न ऋचा में👇 

वैदिक ऋचाओं में  जबकि श्रीमद्भगवद् गीता प्राय: इसके विपरीत काम और कामनाओं को जन्म-मरण का कारण मानकर त्याज्य कहती है ।👇 अत: स्पष्ट सी बात है कि कृष्ण के सिद्धान्त ब्राह्मण वाद के विरुद्ध हैं ___________________________________

तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या वपन्ति । यान उरू उशती विश्रयाति यस्यामुशन्त: प्रहरेम शेप : ।। अथर्ववेद 14/2/28 

 -हे पूषण जिस में मनुष्य अपने वीर्य का वपन करते हैं अथवा --जो हमारी कामनाऐं करती हुई जंघाओं को कोमलता पूर्वक आश्रय देती हैं । और -जिन स्त्रीयों में हम कामोत्तेजित हो कर अपने लिंग का प्रहार करते हैं । उस स्त्री को हमारे ओर प्रेरित करो । पूषण :- सूर्य पुराणानुसार बारह अदित्यों में से एक एक वैदिक देवता जिनकी भावना भिन्न भिन्न रूपों मे पाई जाती है। कहीं वे सूर्य के रूप में (लोकलोचन), कहीं पशुओं के पोषक के रूप में, कहीं धनरक्षक के रूप में ओर कहीं सोम के रूप में पाए जाते यूनानी : पोसेइदोन ही पूषण है  ) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो समन्दर, घोड़ों और भूकम्प के देवता थे। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे नेप्चून। यह लेख एक आधार है। पोसाइडन समुद्री यात्रियों का रक्षक है। पोसाइडन ने ट्रोजन युद्ध के समय ग्रीक का साथ दिया था। बात वर्ण व्यवस्था की हे तो यह वर्ण व्यवस्था का अनुमोदन श्रीमद्भगवत् गीता में पंचम सदी में समायोजित किया जाता है । अत: श्रीमद्भगवत् गीता में जहाँ जहाँ वर्ण व्यवस्था और कर्म-- काण्डों का प्राधान्य प्रतिपादित हुआ है । वहाँ वहाँ 'वह प्रक्षिप्त रूप है ।

पुरुवंश में उत्पन्न चेदिराज वसु जिने उपरिचर वसु के नाम से  भी जाना जाता था।
वे प्रति वर्ष इन्‍द्रोत्‍सव मनाया करते थे। उनके अनन्‍त बलशाली और  महापराक्रमी पांच पुत्र थे।
सम्राट वसु ने विभिन्न राज्‍यों पर अपने इन पाँच  पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया। उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश आधुनिक- विहार )का विख्‍यात राजा हुआ। 
दूसरे पुत्र का नाम प्रत्‍यग्रह था, तीसरा कुशाम्‍ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं। चौथा मावेल्ल था।
पांचवा राजकुमार यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था। 
यह यदु ययाति पुत्र से भिन्न कुरुंशी राजा था।
महाभारत के एक प्रसंग नें कहा गया है। कि  सुनीथ( दमघोष) और जरासन्ध परस्पर बान्धव और एक ही वंश के थे।
जरासन्ध पुरुवंशी उपरिचर के पुत्र बृहद्रथ का पुत्र था  जिसने मगध का शासन सम्हाला 

१-बृहद्रथ जिसे मगध का राजा नियुक्त किया और दूसरे पुत्र कि नाम प्रत्यग्रह तीसरा कुशाम्ब जिसे (मणिवाहन) भी कहा गया , चतुर्थ पुत्र मावेल्स और पञ्चम पुत्र का नाम यदु था । जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था। 

देखें निम्नलिखित श्लोक -

"संपूजितो मघवता वसुश्चेदीश्वरो नृप:। पालयामास धर्मेणचेदिस्थ: पृथिवीमिमाम्।।२८।।"

अर्थ •-इन्द्र के द्वारा सम्मानित चेदिराज उपरिचरवसु ने चेदिदेश में रहकर इस पृथ्वी का धर्म पूर्वक पालन किया।२८।       _________ 

इन्द्रपीत्या चेदिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः।पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौज:।२९।

अर्थ •-इन्द्र की प्रसन्नता के लिए उपरिचर वसु इन्द्र महोत्सव मनाया करते थे उनके अनन्त बलशाली पाँच पुत्र हुए।२९।

"नानाराज्येषु च सुतान्स सम्राडभ्यषेचयत्।महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथः।३०।।

अर्थ •-सम्राट उपरिचर वसु ने विभिन्न राज्यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का राजा हुआ।३०।

"प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम्। मावेल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः।।३१।

अर्थ •-द्वितीय पुत्र (प्रत्यग्रह) तृतीय (कुशाम्ब) जिसे (मणिवाहन) भी कहते थे चतुर्थ पुत्र (मावेल्ल) और पञ्चम पुत्र का नाम (यदु) था ।३१।

"महाभारत आदिपर्व अँशावतरण नामक उपपर्व का तिरेसठवाँ अध्याय के श्लोक २९-३०-३१ -

यदु के विषय में परस्पर विरोधाभास है।

प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम्।

मत्सिल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः।।

उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का विख्‍यात राजा हुआ। दूसरे पुत्र का नाम प्रत्‍यग्रह था, तीसरा कुशाम्‍ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं।

 चौथा मावेल्ल था। पांचवा राजकुमार यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था। 

राजा जनमेजय! महातेजस्‍वी राजर्षि वसु के इन पुत्रों ने अपने-अपने नाम से देश और नगर बसाये। पांचो वसु पुत्र भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे और उन्‍होंने पृथक- पृथक अपनी सनातन वंश परम्‍परा चलायी।

हरिवंश पुराण को विष्णु पर्व में वर्णित हर्यश्व पुत्र यदु को भी पुरुवंशी बताना एक प्रक्षेप ही है ।

यह बात  बिना किसी शास्त्रीय सिद्धान्त के  ही लिखमारी है। क्यों कि पुरु तो ययाति पुत्र यदु के पूर्वज नहीं थे अपितु अनुज ही थे। और हर्यश्व सूर्यवंशी इक्ष्वाकु के पुत्र थे। जिसमें कोई पुरु नाम के राजा नहीं हुए।

 


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