गंगानाथ झा द्वारा संस्कृत पाठ, यूनिकोड लिप्यंतरण और अंग्रेजी अनुवाद:

क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणान् प्रति सर्वशः ।
ब्रह्मणैव संनयन्तृ स्यात् क्षत्रं हि ब्रह्मसम्भवम् ॥320॥

अधिक वृद्ध क्षत्रिय का भी सभी ब्राह्मणों ( छोटे बड़े) के प्रति समर्पण भाव हो क्यों कि ब्राह्मण ही सब को नियन्त्रित करने वाला होता है। और  क्षत्रिय भी ब्रह्मा  से उत्पन्न है।


यह श्लोक महाभारत 12.78.28 में मिलता है।

शुक्राचार्य ने कहा- देवयानी! तू स्‍तुति करने वाले, भीख मांगने वाले या दान लेने वाले की बेटी नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मण की पुत्री है, जो किसी की स्‍तुति नहीं करता और जिसकी सब लोग स्‍तुति करते हैं। इस बात को वृषपर्वा, देवराज इन्‍द्र तथा ययाति जानते हैं। निर्द्वन्‍द्व अचिन्‍त्‍य ब्रह्म ही मेरा ऐश्‍वर्य युक्त बल है। ब्रह्मा जी ने संतुष्ट होकर मुझे वरदान दिया है; उसके अनुसार इस भूतल पर, देवलोक में अथवा सब प्राणियों में जो कुछ भी है, उन सबका मैं सदा-सर्वदा स्‍वामी हूँ। मैं ही प्रजाओें के हित के लिये पानी बरसाता हूँ और मैं ही सम्‍पूर्ण औषधियों का पोषण करता हूं, यह तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवयानी इस प्रकार विषाद में डूबकर क्रोध और ग्‍लानि से अत्‍यन्‍त कष्ट पा रही थी, उस समय पिता ने सुन्‍दर मधुर वचनों द्वारा उसे समझाया।

यह श्लोक वीरमित्रोदय (राजन्ति, पृ. 152) में उद्धृत है । 


(श्लोक 9.313-322)

श्लोक 9.313 के लिए तुलनात्मक नोट्स देखें ।

ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन्क्षत्रधर्मेण वर्ततः।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम्।।(१२/२२/६ महाभारत शान्ति पर्व)



राजन्! ब्राह्मण भी यदि क्षत्रिय धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हो तो लोक में उसका जीवन उत्तम ही माना गया है; क्योंकि क्षत्रिय की उत्पत्ति ब्राह्मण से ही हुई है।