दो यदु ,दो ययाति, दो नहुष जिसमें एक सूर्य के और एक सोम वंश के सूर्यवंश के अम्बरीष पुत्र नहुष , ययाति और हर्यश्व पुत्र यदु का अस्तित्व ही कल्पना प्रसूत है ।
यदु जब दो हैं। तो फिर अहीर कौन से यदु के वंशज यादव हैं ? ययाति और देवयानि के पुत्र यदु जो तुर्वशु के भाई हैं।
या इक्ष्वाकु वंशी राजा हर्यश्व और उनका पत्नी मधुमती के गर्भ से उत्पन्न यदु के वंशज अहीर हैं!
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 41-45 पर वर्णन है कि⬇
पुत्र की इच्छा रखने वाले उन्हीं सदाचारी एवं बुद्धिमान हर्यश्व के मधुमती के गर्भ से महायशस्वी यदु का जन्म हुआ।
अर्थात् मधुमती 'ने यदु को जन्म दिया अब यहांँ यदु के हर्यश्व द्वारा गोद लेने की तो बात ही नहीं है। फिर पहले वाले ययाति पुत्र यदु का वंश और वंशज कहाँ गये ? शास्त्रकार इस समस्याओं का समाधान भी नहीं कर पाया।
हरिवशं पुराण के विष्णु पर्व में मधुमती के गर्भ से यदु को उत्पन्न होना ही वर्णित है नकि ययाति पुत्र यदु का गोद लेना।⬇
तत्कालीन देव 'संस्कृति'के अनुयायी इन्द्र उपासक पुरोहितों'ने ऐसा किया कि यदु वंश का इतिहास किस प्रकार नष्ट हो
अब जो यदु भागवत पुराण में दक्षिण दिशा में निर्वासित वहाँ के अधिपति या राज्य करने वाले वर्णित हैं।
वे हर्यश्व की पत्नी मधु असुर की कन्या मधुमती के गर्भ से कैसे उत्पन्न हुए ?
इसे योग- बल का चमत्कार कह कर यथार्थ परक किया गया जो कि एक क्षेपक के अतिरिक्त कुछ नहीं ।
'और यह बात कुछ भी सत्य नहीं है।⬇
तस्यै्व च सुवृत्तस्यं पुत्रकामस्य धीमत:।
मधुमत्यां सुतो जज्ञे यदुर्नाम महायशा:।।44।। ______
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 44- का हिन्दी अनुवाद
जिसमें जज्ञे क्रिया पद लिट्लकार- ( अनद्यतन परोक्ष भूत काल का है) जो जन् धातु का लिट् लकार का अन्य पुरुष एकवचन रूप है जिसका अर्थ उसने जन्म दिया ) •-
पुत्र की इच्छा रखने वाले उन्हीं सदाचारी एवं बुद्धिमान हर्यश्व के मधुमती के गर्भ से महायशस्वी यदु का जन्म हुआ।
अर्थात् मधुमती 'ने यदु को जन्म दिया ।44। सोऽवर्धत महातेजा यदुर्दुन्दुभिनि:स्वन:। राजलक्षणसम्पतन्न: सपत्नैरर्दुरतिक्रम:।।45।।
•-महातेजस्वी यदु का स्वर दुन्दु्भि निनाद के समान गंभीर था। वे राजोचित लक्षणों से सम्पन्न होकर दिनों-दिन बढ़ने लगे। शत्रुओं के लिये वे सवर्था दुर्जय थे।
_________________________________
यदुर्नामाभवत् पुत्रो राजलक्षणपूजित:।
यथास्य पूर्वजो राजा पुरु: स सुमहायशा:।।46।।
•-ठीक उसी तरह जैसे उनके पूर्वज राजा महायशस्वीय पुरु सम्मानित होते थे।
यहाँ पुरु को यदु का पूर्वज ( पूर्वजन्म लेने वाला- बड़ा भाई अथवा पूर्वपुरुष बर्तन किया गया है।
जो पूर्णत: क्षेपक(नकली) ही है।
क्यों कि एक प्राचीन राजा जो नहुष के पुत्र ययाति के सबसे छोटे पुत्र या नाम पुरु था।
विशेष— पुराणों में ययाति चंद्रवंश के मूल पुरुषों में थे। ययाति की दो रानियाँ थीं। एक शुक्राचार्य की कन्या देवयानी, दूसरी शर्मिष्ठा। देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्यु, अनु और पुरु हुए।
इन नामों का उल्लेख ऋग्वेद में है।
पुरु के बडे़ भारी विजयी और पराक्रमी होने की चर्चा भी ऋग्वेद में है। एक स्थान पर लिखा है— 'हे वैश्वानर ! जब तुम पुरु के समीप पुरियों का विध्वंस करके प्रज्वलित हुए तब तुम्हारे भय से असिक्नी (असिक्नीर- सितवर्णाः—सायण; अर्थात् असिक्नी या चेनाब के किनारे के काले अनार्य दस्यु) भोजन छोड़ छोड़कर आए'। एक स्थान पर और भी है—'हे इंद्र ! तुम युद्ध में भूमिलाभ के लिये पुरुकुत्स के पुत्र त्रसदस्यु और पुरु की रक्षा करो।' इसका समर्थन एक और मंत्र इस प्रकार करता है—'हे इंद्र ! तुमने पुरु और दिवोदास राजा के लिये नब्बे पुरों का नाश किया है।' महाभारत और पुराणों में पुरु के संबंध में यह कथा मिलती हैं— शुक्राचार्य के शाप से सब ययाति जराग्रस्त हुए तब उन्होंने सब पुत्रों को बुलाकर अपना बुढ़ापा देना चाहा।
पर पुरु को छोड़ और कोई बुढ़ापा लेकर अपनी जवानी देने पर सम्मत न हुआ।
पुरु से यौवन प्राप्त कर ययाति ने बहुत दिनों तक सुखभोग किया, अंत में अपने पुत्र पुरु को राज्य दे वे वन में चले गए। पुरु के वंश में ही दुष्यंत के पुत्र भरत हुए।
भरत के कई पीढिय़ों पीछे कुरु हुए जिनके नाम से कौरव वंश कहलाया।
____________
स एक एव तस्यासीत् पुत्र: परमशोभन:।
ऊर्जित: पृथिवीभर्ता हर्यश्वस्य महात्मन:।।47।।
•-महामना हर्यश्व के एक ही पुत्र यदु हुए। वे परम सुन्दर, बलवान और पृथ्वी का भरण-पोषण करने में समर्थ है ।
यदुं च तुर्वसं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।।३३। •-अत्रि वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया। _________________
(उल्लेखनीय है कि यायाति नाम के एक राजा इक्ष्वाकुवंश में भी हुए हैं उनके पिता का नाम भी नहुष था।)
राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु तथा पुरु हुए।
नवम स्कन्द भागवत पुराण अध्याय अठारह पृष्ठ संख्या 74
पुराण लिखने वाले पुरोहित या भाट अल्प ज्ञान में अनेक बड़ी गलतियाँ भी कर गये।
यदुं च तुर्वसं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।।33। देवयानी के दो पुत्र हुए– यदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के तीन'पुत्र उत्पन्न हुए–द्रुह्यु,अनु, और पुरु ।।33।
नवम स्कन्द भागवत पुराण अध्याय अठारह पृष्ठ संख्या 74 इसी नवम स्कन्द अध्याय २३ में श्लोक संख्या अठारह पर वर्णन है कि
"दुष्यन्त: स पुनर्भेजे स्वं वंशं राज्य कामुक: । ययातेर्ज्येष्ठ पुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ।।18।
'परन्तु दुष्यन्त राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गये ।परीक्षित ! अब मैं ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ ।18।
_____
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपाप हरं नृणाम् । यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्व पापै: प्रमुच्यते ।19।
______
परीक्षित अब मैं यदु के वंश का वर्णन करता हूँ जो वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों का नाश करने वाला है । मनुष्य इसका श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा ।।।19।
"यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति:। यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता:।।२०। •-इसी वंश मेंं स्वयं भगवान् परमात्मा श्री कृष्ण ने मनुष्य रूप में अवतार लिया था। यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् क्रोष्टा नल और रिपु
•-चत्वार सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज:। महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ।।२१।
चारों में से सहस्रजित् प्रथम सहस्रजित् से शतजित् का जन्म हुआ शतजित् के तीन'पुत्र हुए थे महाहय,वेणुहय और हैहय ।२१।
अहीरों आप किस यदु के वंश से हो हर्यश्व पुत्र यदु के या ययाति पुत्र यदु के वंश से ? व अब यादव वंश को विनष्ट करने वाले पुरोहितों'ने वैदिक पात्र ययाति और यदु के समानान्तरण सूर्य वंश के नाम से भी दूसरे नहुष ययाति और यदु की कल्पना कर डाली अब ब्राह्मण जो लिख दे वही ब्रह्म -वाक्य है ।
अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा का नाम जो अम्बरीष का पुत्र और ययाति का पिता था। महाभारत में इन्हीं नहुष चंद्रवंशी राजाआयुस् का पुत्र माना जाता है। रामायण जिसने लिखी उसने यदु वंश से द्वेष करते हुए कहीं तो अहीरों को राम के द्वारा द्रुमकुल्य देश में समुद्र के कहने पर मरवाने की कुत्सित चेष्टा की तो कहीं। पूरे यदु वंश को ही सूर्य वंश बना दिया कृष्ण को छोड़ कर ऐसा यादवों के इतिहास के साथ सदीयों से होता रहा है।
विशेष—पुराणानुसार यह यह नहुष बडा़ प्रतापी राजा था। जब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा था उस समय इंद्र को ब्रह्महत्या लगी थी।
उसके भय से इंद्र १००० वर्ष तक कमलनाल में छिपकर रहा था।
उस समय इंद्रासन शून्य देख गुरु बृहस्पति ने इसको योग्य जान कुछ दिनों के लिये इंद्र पद दिया था। उस अवसर पर इंद्राणी पर मोहित होकर इसने उसे अपने पास बुलाना चाहा। तब बृहस्पति की सम्मति से इंद्राणी ने कहला दिया कि 'पालकी पर बैठकर सप्तर्षियों के कंधे पर हमारे यहाँ आओ तब हम तुम्हारे साथ चलें'। यह सुन राजा ने तदनुसार ही किया और घबराहट में आकर सप्तर्षियों से कहा—सर्प सर्प (जल्दी चलो), इसपर अगस्त्य मुनि ने शाप दे दिया कि 'जा, सर्प हो जा'। तब वह वहाँ से पतित होकर बहुत दिनों तक सर्प योनि में रहा। महाभारत में लिखा है कि पाँडव लोग जब द्वैतवन में रहते थे ; तब एक बार भीम शिकार खेलने गए थे। उस समय उन्हें एक बहुत बडे़ साँप ने पक़ड लिया। जब उनके लौटने में देर हुई तब युधिष्ठिर उन्हें ढूँढ़ने निकले।
एक स्थान पर उन्होंने देखा कि एक बडा़ साँप भीम को पकडे़ हुए हैं। उनके पूछने पर साँप ने कहा कि मैं महाप्रतापी राजा नहुष हूँ; ब्रह्मर्षि, देवता, राक्षस और पन्नग आदि मुझे कर देते थे। ब्रह्मर्षि लोग मेरी पालकी उठाकर चला करते थे। एक बार अगस्त्य मुनि मेरी पालकी उठाए हुए थे, उस समय मेरा पैर उन्हें लग गया जिससे उन्होंने मुझे शाप दिया कि जाओ, तुम साँप हो जाओ। मेरे बहुत प्रार्थना करने पर उन्होंने कहा कि इस योनि से राजा युधिष्ठिर तुम्हें मुक्त करेंगे।
इसके बाद उसने युधिष्टिर से अनेक प्रश्न भी किए थे जिनका उन्होंने यथेष्ट उत्तर दिया था। इसके उपरांत साँप ने भीम को छोड़ दिया और दिव्य शरीर धारण करके स्वर्ग को प्रस्थान किया। २. एक नाग का नाम। ऋग्वेद में नहुष एक ऋषि का ना जो मनु के पुत्र और ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के द्रष्टा माने जाते हैं। नहुष मनुष्य। आदमी का भी वाचक है । अवश्य ययाति का वर्णन भी भारतीय पुराणों में कल्पना रञ्जित ही है।
राजा नहुष के पुत्र जो सोमवंश के पाँचवें राजा थे और जिनका विवाह शुक्रचार्य की कन्या देवयानी के साथ हुआ था।
विशेष— इनको देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नाम के दो तथा शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्यु, अणु और पुरु नाम के तीन पुत्र हुए थे। इनमें से यदु से यादव वंश और पुरु से पौरव वंश का आरंभ हुआ।
शर्मिष्ठा इन्हों विवाह के दहेज में मिली थी। शुक्रचार्य ने इन्हें यह कह दिया था कि शर्मिष्ठा के साथ संभेग न करना।
पर जब शर्मिष्ठा ने ऋतु-मती होने पर इनसे ऋतुरक्षा की प्रार्थना की, तब इन्होंने उसके साथ संभोग किया और उसे संतान हुई। इसपर शुक्रचार्य ने इन्हों शाप दिया कि तुम्हें शीघ्र बुढापा आ जायगा।
जब इन्होने शुक्राचार्य को संभोग का कारण बतलाया, तब उन्होंने कहा कि यदि कोई तुम्हारा बुढ़ापा ले लेगा, तो तुम फिर ज्यों के त्यों हो जाओगो। इन्होंने एक एक करके अपने चारों पुत्रों से कहा कि तुम हमारा बुढ़ापा लेकर अपना यौवन हमें दे दो पर किसी ने स्वीकार नही किया। अंत में पुरु ने इनका बुढ़ापा आप ले लिया और अपनी जवानी इन्हें दे दी।
पुनः यौवन प्राप्त करके इन्होंने एक सहस्र वर्ष तक विषयसुख भोग। अंत में पुरु को अपना राज्य देकर आप वन में जाकर तपस्या करने लगे और अंत में स्वर्ग चले गए। स्वर्ग पहुँचने पर भी एक बार यह इंद्र के शाप से वहाँ से च्युत हुए थे; क्योंकि इन्होंने इंद्र से कहा था कि जैसी तपस्या मैंने की है, वैसी और किसी ने नहीं की। जब ये स्वर्ग से च्युत हो रहे थे, तब मार्ग में इन्हें अष्टक ऋषियों ने रोककर फिर से स्वर्ग भेजा था। ब्राह्मणों'ने इतिहास के कल्पनाओं के सागर में डुबो दिया इनकी कथाऐं केवल अन्धभक्तों के लिए ही हैं ।
यद्यपि यदु वंश के पूर्वज ऋग्वेद तथा सुमेरियन बैबीलॉनियन और अक्काड के मिथकों में भी कुछ अन्तर से प्राप्त हैं। शुक्राचार्य की पुत्री जो राजा ययाति को ब्याही थी उसका नाम देवयानी था। पुराणों में उसकी कथा भी इस प्रकार है । विशेष—बृहस्पति का पुत्र कच मृतसंजीवनी विद्या सीखने के लिये दैत्यगुरु शुक्राचार्य का शिष्य हुआ । शुक्राचार्य की कन्या देवयानी उसपर अनुरक्त हुई । असुरों को जब यह विदित हुआ कि कच मृतसंजीवनी विद्या लेने के लिये आया है तब उन्होंने उसको मार डाला ।
इसपर देवयानी बहुत विलाप करने लगी । तब शुक्राचार्य ने अपनी मृत- संजीवनी विद्या के बल से उसे जिला दिया । इसी प्रकार कई बार असुरों ने कच का विनाश करना चाहा पर शुक्राचार्य उसे बचाते गए । एक दिन असुरों ने कच को पीसकर शुक्राचार्य के पीने की सुरा में मिला दिया । शुक्राचार्य कच को सुरा के साथ पी गए । जब कच कहीं नहीं मिला तब देवयानी बहुत विलाप करने लगी और शुक्राचार्य भी बहुत धबराए । कच में शुक्राचार्य के पेठ में से ही सब व्यवस्था कह सुनाई ।
शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा कि 'कच तो मेरे पेट में है, आब बिना मेरे मरे उसकी रक्षा नहीं सकती । ' पर देवयानी को इन दोनों में से एक बात भी नहीं मंजूर थी ।
अंत में शुक्राचार्य ने कच से कहा कि य़दि तुम कच रूपी इंद्र नहीं हो तो मृत- संजीवनी विद्या ग्रहण करो और उसके प्रभाव से बाहर निकज आओ । कच ने मृतसंजीवनी विद्या पाई और वह पेट से बाहर निकल आया । तब देवयानी ने उससे प्रेमप्रस्ताव किया और विवाह के लिये वह उससे कहने लगी ।
कच गुरु की कन्या से विवाह करने पर किसी तरह राजी न हुए । इसपर देवयानी ने शाप दिया कि तुम्हारी सीखी हुई विद्या फलवती न होगी । कच ने कहा कि यह विद्या अमोघ है ।
यदि मेरे हाथ से फलवती न होगी तो जिसे मैं सिखाऊँगा उसके हाथ से होगी । पर तुमने मुझे व्य़र्थ शाप दिया । इससे मैं भी शाप देता हूँ कि तुम्हारा विवाह ब्राह्मण से नहीं होगा ।
दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा और देवयानी में परस्पर सखी भाव था ।
एक बार दोनों किनारे पर कपड़े रख जलाशय में जलविहार के लिये घुसीं ।
इंद्र ने वायु का रूप धरकर दोनों के वस्त्र एक स्थान पर कर दिए ।
शर्मिष्ठा ने जल्दी में देखा नहीं और निकलकर देवयानी के कपड़े पहन लिए । इसपर दोनों में झगड़ा हुआ और शर्मिष्ठा में देवयानी को कुएँ में ढ़केल दिया ।
शर्मिष्ठा यह समझकर कि देव- यानी मर गई अपने घर चली आई । इसी बीच नहुष राजा का पुत्र ययति शिकार खेलने आया था । उसने देवयानी को कुएँ से निकाला और उससे दो चार बातें करकें वह अपने नगर की और चला गया । इधर देवयानी ने एक दासी से अपना सब वृत्तांत शुक्राचार्य के पास कहला भेजा । शुक्राचार्य ने आकर अपनी कन्या को घर चलनै के लिये बहुत कहापर उसने एक भी न सुनी ।
वह शुक्राचार्य से कहने लगी कि 'शर्मिष्ठा तुम्हारा तिरस्कार करती थी, अतः मैं अब दैत्यों की राजधानी में कदापि न जाऊँगी' । यह सब सुनकर शुक्राचार्य भी दैत्यों की राजधानी छोड़ अन्यत्र जाने को तैयार हुए । यह खबर राजा वृषपर्वा को लगी और वह आकर शुक्राचार्य से बडी़ विनती करने लगा । शुक्राचार्य ने कहा ' देवयानी को प्रसन्न करो' । वृषपर्वा देवयानी को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगा । देवयानी ने कहा, 'मेरी इच्छा है कि शर्मिष्ठा सहस्त्र और कन्याओं सहित मेरी दासी हो । जाहाँ मेरा पिता मुझे दान करे वहाँ वह मेरी दासी होकर जाय' । बृषपर्वा इसपर सम्मत हुआ और अपनी कन्या शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर शुक्राचार्य के घर भेज दिया ।
एक दिन देवयानी अपनी नई दासियों के सहित कहीं क्रीड़ा कर रही थी कि राजा ययाति वहाँ आ पहुँचे । देवयानी नें ययाति से विवाह करने की इच्छा प्रकट की । राजा ययति नें स्वीकार कर लिया और शुक्राचार्य ने कन्यादान कर दिया ।
कुछ दिन पीछे ययाति से शर्मिष्ठा को एक पुत्र उत्पन्न हुआ ।
जब देवयानी नें पूछा तब शर्मिष्ठा ने कह दिया कि यह लड़का मुझे एक तेजस्वी ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है । इसके उपरांत देवयानी के गर्भ से यदु और तुुर्वसु नाम के दो पुत्र और शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्य, अणु और पुरु ये तीन पुत्र हुए । ययाति से शर्मिष्ठा को तीन पुत्र हुए, यह जानकर देवयानी अत्यंत कुपित हुई और अपने पिता के पास इसका समाचार भेजा । शुक्राचार्य ने क्रोध में आकर ययाति को शाप दिया कि 'तुमने अधर्म किया है इसलिये तुम्हें बहुत शीघ्र बुढ़ा़पा घेरेगा' ।
ययाति में शुक्राचार्य से विनयपूर्वक कहा—'महाराज मैंने कामवश होकर ऐसा नहीं' किया, शर्मिष्ठा ने ऋतृमती होने पर ऋतुरक्षा के लिये प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना को अस्वीकार करना मैंने पाप समझा ।
मेरा कुछ दोष नहीं' । शुक्राचार्य ने कहा' अब तो मेरा कहा हुआ निष्फल नहीं हो सकता । पर यदि कोई तुम्हारा बुढ़ा़पा ले लेगा तो तुम फिर ज्यों के त्यों जवान हो जाओगे ।' ये कथाऐं भारतीय पुरोहितों ने सुमेरियन बैबीलॉनियन मिथकों से ग्रहण की कुछ अन्तर के साथ के अनुसार करौली के यदुवंशी अपने नाम के बाद 'सिंह' विशेषण न लगाकर 'पाल' विशेषण लगाते थे ; क्यों कि ये स्वयं को गोपाल, गोप तथा आभीरया या गौश्चर मानते थे और बंगाल का पाल वंश भी इन्हीं से सम्बद्ध है ।
करौली शब्द स्वयं कुकुरावलि का तद्भव है :- कुकुर अवलि =कुकुरावलि --कुरावली---करौली
परन्तु मुगल काल में तुर्की शब्द करौल-छावनी से सम्बन्धित होकर यह नगर करौली कहलाया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें