शनिवार, 25 मार्च 2023

कामसूत्र

परिष्वङ्चुम्बननखदन्तचूषणप्रधानाः क्षतवर्जिताः प्रहणनसाध्या मालव्य 
आभीर्यश्च॥२४॥ 
अनुवाद:-
मालव ओर आभीर आदि देशो की स्त्रियों आलिङ्गन, चुम्बन, नखक्षत, दन्तक्षत ओर शिश्न को चूसना अधिक पसन्द करती हैं। 
वे क्षत (घाव) नहीं चाहती, किन्तु प्रहणन ( हूदा) में रुचि रखती हैँ ॥२४॥ 

सिन्धुषष्टानां च नदीनामन्तरालीया ओपरिष्टकसात्म्याः ॥ २५॥
अनुवाद:- 
पंजाब ओर सिन्धु प्रान्त की स्त्रियों को ओपरिष्टक (मुखमैथुन) अनुकूल पडता 
है ॥२५॥ 

चण्डवेगा मन्दसीत्कृता आपरान्तिका लाट्यश्च॥ २६॥ 
अनुवाद:-
अपरान्तक (सह्याद्रि का निकटवर्ती पश्चिमी सीमाप्रदेश) ओर लाट देश (सूरत, भडौच 
एवं समीपवतीं भूभाग) की स्त्रियां चण्डवेग होती हैं ओर वे समागम में प्रहारो को सहकर मन्द-मन्द सीत्कार करती है ॥२६॥







९५२ वात्स्यायन-कामसूत्न 


एक लक्ष्य बनाकर शेष स्त्रियों को भी अपनी ओर तोड़ लें । एक दूसरे को दूषित कर जब सबके 
ही चरित्र एक से हो जाये, तो कोई किसी का रहस्योद्घाटन नहीं करती ओर सभी अभीष्ट फल 
प्राप्त करती हैँ ॥ २८॥ 
तत्र राजकुलचारिण्य एव लक्षण्यान्‌ पुरुषानन्तःपुरं प्रवेशयन्ति, नातिसुरक्ष- 
त्वादापरान्तिकानाम्‌॥ २९॥ 
रानियों के भोगविलास : अपरान्त देश की प्रवृत्ति-अपरान्त देश में राजकुलो में 
आने वाली स्त्रियाँ ही सुन्दर ओर चण्डवेग पुरुषों को अन्तःपुर में प्रविष्ट करा देती है; क्योकि 
वहां के अन्तःपुर अत्यधिक सुरक्षित नहीं होते ॥ २९॥ 
क्षत्रियसंज्ञकैरन्तःपुररक्षिभिरेवार्थं साधयन्त्याभीरकाणाम्‌॥ ३०॥ 
` आभीर की प्रवृत्ति- आभीर राजा के अन्तःपुर में रानिया वहाँ के क्षत्रिय-रक्षकों को ही 
फेसाकर अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेती है ॥ ३०॥ 
प्रेष्याभिः सह तद्वेषान्नागरकपुत्रान्‌ प्रवेशयन्ति वात्सगुल्मकानाम्‌॥ ३९॥ 
वत्सगुल्म की प्रवृत्ति-- वत्सगुल्म देश के राजकुल में दासियों के साथ दासीवेश में रानी 
तरुण नागरको को प्रवेश करा लेती हैँ ॥ ३१॥ 
स्वैरेव पुत्रैरन्तःपुराणि कामचारैर्जननीवर्जमुपयुज्यन्ते वैदर्भकाणाम्‌॥ ३२॥ 
विदर्भं की प्रवृत्ति- विदर्भ के राजवंश में तो अपने ओरस पुत्रों को छोडकर रानियां 
सभी राजकुमारो से सम्भोग करा लेती है ॥ २२॥ 
तथा प्रवेशिभिरेव ज्ञातिसम्बन्धिभिर्नान्यैरुपयुज्यन्ते स्त्रैराजकानाम्‌॥ ३३॥ 
स्त्रीराज्य की प्रवृत्ति- स्त्रीराज्य की रानियां केवल सजातीय सम्बन्धियों से ही 
सम्भोगकर्म कराती हँ, अन्यो से नहीं ॥ ३३॥ 
ब्राह्मणैर्मित्नैर्भत्येदसिचेटेश्च गौडानाम्‌॥ ३४॥ 
गौड़ देश की प्रवृत्ति- गौड़ देश को रानियां ब्राह्मण, मित्र, भृत्य, दास ओर चेटों से भी 
सम्भोग कर लेती ह ॥ ३४॥ 
परिस्यन्दाः कर्मकराश्चान्तःपुरेष्वनिषिद्धा अन्येऽपि तद्रूपाश्च सैन्धवानाम्‌॥ ३५॥ 
सिन्ध देश की प्रवृत्ति- सिन्ध देश मेँ जिन नौकरों ओर नागरिकों का राजभवन में 
प्रवेश निषिद्ध नहीं है, उन सबके साथ रानियां सम्भोग कर लेती है ॥ ३५॥ 
अर्थेन रक्षिणमुपगृह्य साहसिकाः संहताः प्रविशन्ति हैमवतानाम्‌॥ ३६॥ 
हैमवतो की प्रवृत्ति-हैमवतों मे साहसी एवं तरुण व्यक्ति सुरक्षाकर्मियों को धन से 
अनुकूल बनाकर, एकत्र होकर, राजभवन में प्रवेश कर जाते हँ ॥ ३६॥ 
पुष्यदाननियोगान्नगरन्राह्यणा राजविदितमन्तःपुराणि गच्छन्ति। पटान्तरित- 
श्यैषामालापः। तेन प्रसङ्खेन व्यतिकरो भवति वङ्काङ्कलिङ्ककानाम्‌॥ ३७॥ 
अंग-वंग ओर कलिङ्क- अंग, वंग ओर कलिङ्ग देशों मे नगर के ब्राह्मण पूजा के फूल 
देने राजभवनों मेँ आते है । रानियां उनसे परदे के पीछे से बाते करती हँ ओर इसी प्रसंग में अवैध 
सम्बन्ध भी हो जाते हँ ॥ ३७॥ 


५. पारदारिक अधिकरण ९५३ 


संहत्य नवदशेत्येकैकं युवानं प्रच्छादयन्ति प्राच्यानामिति। एवं परस्त्रियः 
प्रकुर्वीत । इत्यन्तःपुरिकावृत्तम्‌॥ ३८ ॥ 
प्राच्यो की प्रवृत्ति-नौ-दस स्त्रियां मिलकर एक चण्डवेग पुरुष को छिपाकर अन्तःपुर 
मे रख लेती है- यह प्राच्यो कौ प्रवृत्ति हे । (यदि अन्तःपुर कौ स्त्रियों के पास जाना ही पड़े तो 
इस प्रकार जाना चाहिये ।) इस प्रकार अन्तःपुरिकावृत्त पूर्ण हुआ ॥ ३८॥ 
एभ्य एवं च कारणेभ्यः स्वदारान्‌ रक्चेत्‌॥ ३९॥ 
स्त्रीरक्षा का उपाय--इन्दीं कारणों से अपनी स्त्री को रक्षा करे॥ ३९॥ 
कामोपधाशुद्धान्‌ रक्षिणोऽन्तःपुरे स्थापयेदित्याचार्याः ॥ ४०॥ 
जो व्यक्ति कामविषयक परीक्षा में सफल हुए हो, उन्हीं को अन्तःपुर का रक्षक नियुक्त 
करना चाहिये- यह कामशास्त्र के आचार्यो का मत हे ॥ ४०॥ 
ते हि भयेन चार्थन चान्यं प्रयोजयेयुस्तस्मात्‌ कामभयार्थोपधाशुद्धानिति 
गोणिकापुत्रः ॥ ४९॥ 
कामविषयक परीक्षा में उत्तीर्णं व्यक्ति भी भय ओर लोभ से दूसरों को अन्तःपुर में प्रविष्ट 
करा सकते हैँ, इसलिये काम, भय ओर धन-इन तीनों कौ परीक्षा में उत्तीर्ण व्यक्ति को ही 
अन्तःपुर में रक्षक नियुक्त करना चाहिये-यह गोणिकापुत्र का मत हे ॥ ४१॥ 
अद्रोहो धर्मस्तमपि भयाज्जह्यादतो धर्मभयोपधाशुद्धानिति वात्स्यायनः ॥ ४२॥ 
स्वामिद्रोह करना अधर्म है, लेकिन व्यक्छि भय के कारण उसे भी छोड़ सकता है, अतएव 
जो निर्भीक ओर धर्मात्मा हों, उन्हें ही अन्तःपुर में रक्षक नियुक्त करे यह आचार्य वात्स्यायन 
कामत हे॥४२॥ | 
परवाक्याभिधायिनीभिश्च गृूढाकाराभिः प्रमदाभिरात्मदारानुपदध्याच्छोचा- 
शौचपरिज्ञानार्थमिति बाभ्रवीयाः ॥ ४२३ ॥ 
परपुरुष के कहे गये वाक्यों का बहाना करके कहने वाली ओर अपना अभिप्राय छिपा 
लेने वाली स्त्रियो से अपनी स्त्रियों कौ परीक्षा करा ले कि उनमें कितनी सदाचारिणी हँ ओर 
कितनी दुराचारिणी-एेसा आचार्य बाभ्रव्य के अनुयायियों (शिष्यो ) का मत हे ॥ ४३॥ 
दुष्टानां युवतिषु सिद्धत्वान्नाकस्माददुष्टदूषणमाचरेदिति वात्स्यायनः ॥ ४४॥ 
दुष्ट व्यक्ति तो स्त्री को फंसाया ही करते है, इसलिये अकारण सदाचारियों को दूषित न 
किया जाये- यह आचार्य वात्स्यायन का मत हे ॥ ४४॥ 
अतिगोष्टी निरङ्कशत्वं भर्तुः स्वैरता पुरुषैः सहानियन्त्रणता प्रवासेऽवस्थानं 
विदेशे निवासः स्ववृत्त्युपघातः स्वैरिणीसंसर्गः पत्युरीर््यालुता चेति स्त्रीणां 
विनाशकारणानि 1 ४५॥ 
विनाश के कारण- अत्यधिक गप्पे मारना, निरंकुशता, स्वेच्छाचारिता, पुरुषों के साथ 
खुला व्यवहार, पति के विदेशगमन पर एकाक रहना, घर से बाहर विदेश में रहना, जीविका- 
विहीन होना, कुलटा सियो का संसर्गं ओर पति से ईर्ष्या रखना-ये स्रियो के विनाश के .. 
कारण है ॥ ४५ ॥ 


१५४ ` वात्स्यायन-कामसूत्र 


सन्दश्य शास्त्रतो योगान्‌ पारदारिकलक्षितान्‌। 
न याति च्छलनां कश्चित्‌ स्वदारान्‌ प्रति शास्त्रवित्‌॥ ४६॥ 
उपसंहार-परकोया स्त्रियों को दुष्ट व्यक्ति जिस तरह से फंसाया करते हैँ, उन सबको 
इस पारदारिक अधिकरण में पढ़कर, कोई भी मर्मज्ञ व्यक्ति अपनी स्त्री के विषय में धोखा नहीं 
खा सकता ॥ ४६॥ 
पाक्षिकत्वात्‌ प्रयोगाणामपायानां च दर्शनात्‌। 
धर्मार्थयोश्च वैलोम्यान्नाचरेत्‌ पारदारिकम्‌॥ ४७॥ 
शास्त्र मे परकीयागमन जीवन को बचाने के अन्तिम उपाय के रूप में ही अनुमत है, 
परकीया के पीछे लोग मरते भी देखे जाते है, इससे धर्म ओर अर्थ--दोनों का ही विनाश होता 
है, इसलिये परकीयागमन नहीं करना चाहिये ॥ ४७॥ 
तदेतदारगुप्त्यर्थमारब्धं श्रेयसे नृणाम्‌। 
प्रजानां दूषणायैव न विज्ञेयोऽस्य संविधिः ॥ ४८॥ 
पुरुषों के कल्याण ओर स्त्रियों के सतीत्व क रक्षा के लिये यह अधिकरण कहा गया हे । 
अतएव इसमें कहे गये प्रयोगो का उपयोग किसी को दूषित करने के लिये कदापि न किया 
जाये ॥ ४८॥ 
ईश्वरकामित प्रकरण नामक पञ्चम अध्याय सम्पन्न ॥ 


६. 
वेशिक षष अधिकरण 
एव्रथम ध्याय 


सहायगम्यागम्यगमनकारणचिन्ताप्रकरण ~ 
वेश्यानां पुरुषाधिगमे रतिर्वृत्तिश्च सर्गात्‌॥ ९॥ 
वेश्याओं का काम ओर प्रयोजन प्रारम्भ से ही पुरुष कौ प्राति होने पर वेश्याओं को 
रतिसुख ओर जीविका कौ प्राति होती है ॥ १॥ 
रतितः प्रवर्तनं स्वाभाविकं कृत्रिममर्थार्थम्‌॥ २॥ 
स्वाभाविक ओर कृत्रिम प्रवृत्ति- जब वेश्या रतिसुख के लिये प्रवृत्त होती है तो 
उसकी प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है ओर जब धन के लिये प्रवृत्त होती है तो उसकी प्रवृत्ति 
कृत्रिम होती है॥ २॥ 
तदपि स्वाभाविकवद्‌ रूपयेत्‌॥ ३॥ 
कृत्रिम राग को स्वाभाविक दिखाना- वेश्याओं को चाहिये कि जहां कृत्रिम राग भो 


६. वैशिक अधिकरण ९९५५ 


हो, उसे भी स्वाभाविक के समान ही दिखायें, कृत्रिमता न प्रतीत होने दे, यही उसकी कला- 
कुशलता है ॥२३॥ 
कामपरासु हि पुंसां विश्वासयोगात्‌॥ ४॥ 
इसका कारण- पुरुष अनुरक्त स्त्री में ही कामासक्त हआ करते है ॥ ४॥ 
अलुब्धतां च ख्यापयेत्‌ तस्य निदर्शनार्थम्‌॥ ५॥ 

प्रेम के समय निर्लोभता दिखाये- केवल नायक को दिखाने के लिये वेश्या निर्लोभ 

बन जाये ॥ ९॥ 
न चानुपायेनार्थान्‌ साधयेदायतिसंरक्षणार्थम्‌॥ ६॥ 

उपाय से ही धनप्रा्ि- अपना प्रभाव अक्षुण्ण रखने के लिये वेश्या को चाहिये कि 
विना उपाय के धन प्राप्त न करे ॥ ६॥ 

नित्यमलङ्कारयोगिनी राजमार्गावलोकिनी दृश्यमाना न चातिविवृता तिष्टेत्‌। 
पण्यसधर्मत्वात्‌॥ ७॥ 

रहन-सहन- वेश्या को चाहिये कि सदैव सजी-संवरी रहे, सडक की ओर देखती रहे, 
एेसे स्थान पर बैठे कि सबको सरलता में दिखती रहे, लेकिन अत्यधिक खुली होकर न वैदे, 
क्योकि वह बाजार में बिकने वाली वस्तु जेसी ही हे ॥ ७॥ 

यैर्नायकमावर्जयेदन्याभ्यश्चावच्छिन्द्यादात्मनश्चानर्थ प्रतिकुर्यादर्थं च साधयेन्न 
च गम्यैः परिभूयेत तान्‌ सहायान्‌ कुर्यात्‌ ॥ ८ ॥ 

वेश्याओं के सहायक - वेश्याओं को अपना सहायक उन लोगों को बनाना चाहिये जो 
नायक को अपनी ओर आकृष्ट कर सके, दूसरी वेश्या से नायको को विरक्त कर दे, वेश्याओं पर 
आये अनर्थो को दूर कर दे, उसका प्रयोजन सिद्ध कर दें ओर जिन्हें वेश्यानायक दबा न 
सके ॥ ८ ॥ 

ते त्वारक्षकपुरुषा धर्माधिकरणस्था देवज्ञा विक्रान्ताः शूराः समानविद्याः 
कलाग्राहिणः पीठमर्दविटविदूषकमालाकारगान्धिकशौण्डिकरजकनापितभिक्षु- 
कास्ते च ते च कार्ययोगात्‌॥ ९॥ 

वेश्या कौ रक्षा करने वाला शासकोय अधिकारी, वकोल, ज्योतिषी, साहसी, शूरवीर, 
वेश्या के समान ही कलाकुशल, कला सीखने वाला, पीठमर्द, विदूषक, मालाकार, गन्धी, 
मदिरा-विक्रेता, धोबी, नाई, भिखारी ओर एेसे ही अन्य पुरूष, जो उसे सहायता दे सके, उसके 
सहायक बन सकते हे ॥ ९॥ 

केवलार्यास्त्विमी गम्याः- स्वतन्त्रः पूर्वे वयसि वर्तमानो वित्तवानपरोक्ष- 
वृत्तिरधिकरणवानकृच्छराधिगतवित्तः। सङ्कर्षवान्‌ सन्ततायः सुभगमानी श्लाघनकः 
षण्डकश्च पुंशब्दाथी । समानस्पधीं स्वभावतस्त्यागी । राजनि महामात्रे वा सिद्धो 
दैवप्रमाणो वित्तावमानी गुरूणां शासनातिगः सजातानां लक्ष्यभूतः सवित्त एकपुत्रो 
लिङ्गी प्रच्छन्नकामः शरो वेैद्यश्चेति॥ १०॥ 


धन के लिये मिलने योग्य पुरुष- वेश्या इन व्यक्तियों से धन के लिये सम्बन्ध स्थापित 
काम० १२ 


९५६ वात्स्यायन-कामसूत्र 


करती है-जो पारिवारिक बन्धनो से पूर्णतः मुक्त हो, जो तरुण हो, धनवान्‌ हो ओर तत्काल 
खर्च कर सके, जिसके पास अत्यधिक पैतृक सम्पदा हो, जो स्वयं न कमाकर दूसरों कौ कमाई 
खर्च करता हो, जो अन्य वेश्यागामियों से प्रतिद्रन्दिता रखता हो, जो अपने रूप, सौन्दर्य ओर 
सम्पत्ति का अभिमान रखता हो, जो नपुंसक होकर भी अपने को समर्थ पुरुष समञ्जता हो, जो 
दानशील हो, जो राजा या उसके राजपुरुषो पर अपना प्रभाव रखता हो, जो प्रख्यात ज्योतिषी, 
चरित्रहीन, माता पिता का इकलौता बेटा, प्रच्छन्नकाम संन्यासी, शूरवीर ओर वैद्य हो ॥ १०॥ 
प्रीतियशोऽर्थास्तु गुणतोऽधिगम्याः ॥ ९९॥ 

गुण के कारण मिलने योग्य पुरुष-- जो वेश्याएं विशुद्ध प्रीति ओर यश की इच्छा 
रखती है, वे गुणी पुरुषों से संसर्ग करतो हे ॥ १९॥ 

महाकुलीनो विद्वान्‌ सर्वसमयज्ञः कविराख्यानकुशलो वाग्मी प्रगल्भो 
विविधशिल्पज्ञो वृद्धदर्शी स्थूललक्षो महोत्साहो दूढभक्तिरनसूयकस्त्यागी मित्र- 
वत्सलो घटागोष्ठीप्रक्षणकसमाजसमस्याक्रीडनशीलो नीरुजोऽव्यङ्कशरीरः प्राण- 
वानमद्यपो वृषो मैत्नः स्त्रीणां प्रणेता लालयिता च। न चासां वशगः स्वतन्त्रवृत्तिर- 
निष्ठरोऽनीर्ष्यालुरनवशङ्की चेति नायकगुणाः ॥ १२॥ 

नायकोचित गुण- प्रतिष्ठित कुल, प्रख्यात विद्वान्‌, सभी प्रकार के संकेतो का ज्ञाता 
कवि या कथाकार, बोलने में निपुण, चतुर, विविध शिल्पो का ज्ञानी, विनप्र, महाशय 
उत्साहसम्पन्न, दृढ़भक्त, अनिन्दक, त्यागशील, मित्रवत्सल, घरा-गोष्ठौ-नाटक-समाज- 
उत्तसव-समस्याक्रीडा आदि में रुचि रखने वाला, नीरोग एवं स्वस्थ शरीर, शक्तिशाली, 
मदिरापान से दूर, प्रचण्ड कामशक्ति वाला, दयासम्पन्न, स्त्रियों के सदाचार का समर्थक ओर 
रक्षक, स्त्रियों के वशीभूत न होने वाला, स्वतन्त्रवृत्ति वाला, सहदय एवं ईरष्यारहित ओौर निःशंक 
स्वभाव वाला-ये नायक के गुण है ॥ १२॥ 

नायिका पुना रूपयौवनलक्षणमाधुर्ययोगिनी गुणेष्वनुरक्ता न तथार्थेषु प्रीति- 
संयोगशीला स्थिरमतिरेकजातीया विशेषार्थिनी नित्यमकदर्यवृत्तिर्गोष्ठीकलाप्रिया 
चेति नायिकागुणाः ॥ १३॥ 

नायिका के गुण- यह सुन्दरी, लावण्यसम्पन्न, रूप ओर यौवन से युक्त, सौ भाग्यसूचक 

चिहों वाली, माधुर्यसम्पन्न, नायक के गुणों मे अनुरक्त, किन्तु उसके धन में आसक्ति न रखने 

वाली, प्रेमपूर्वक सम्भोग चाहने वाली, स्थिर बुद्धि वाली, माया-मोह मे न पड़ने वाली, नायक 
की विशेषताओं पर रीञ्चने वाली, पवित्रतापूर्वक जीवनयापन करने वाली तथा गोष्ठी एवं कलाओं 
से प्रेम करने वाली हो ॥ १३॥ 

नायक-नायिकयो पुनर्बुद्धिशीलाचार आर्जवं कृतज्ञता दीर्घदूरदर्शित्वं अवि- 
संवादिता देशकालन्नता नागरकता दैन्यातिहास्पैशुन्यपरिवादक्रोधलोभस्तम्भ- 
चापलवर्जनं पूर्वाभिभाषिता कामसूत्रकौशलं तदङ्कविद्यासु चेति साधारण- 
गुणाः ॥ ९४॥ 

दोनों के सामान्य गुण- बुद्धि, शील, आचार, निश्छलता, कृतक्षता, दूरदर्शिता, वाद- 


६. वैशिक अधिकरण ९९५७ 


विवाद से दूर रहना, देश ओर काल को समञ्चना, नागरक के गुमों से युक्त होना एवं दीनता, 
अतिहास-परिहास, चुगुलखोरी, परनिन्दा, क्रोध, लोभ, अभिमान ओर चपलता आदि दोषों से 
रहित होना, विना पटे न बोलना, कामकलानिपुणता ओर उसको अंगभूत गायन, वादन, नृत्य 
आदि विद्याओं में अभिज्ञता-ये नायक ओर नायिका, दोनों के सामान्य गुण हैँ ॥ १४॥ 
गुणविपर्यये दोषाः ॥ ९५॥ 
नायक-नायिका के दोष- उपर्युक्त गुणों के विरुद्ध जो बातें हे, ये दोष मानी 
जाती हे ॥ १५॥ 
क्षयी रोगी कृमिशकृद्वायसास्यः प्रियकलत्रः परुषवाक्कदर्यो निर्घुणो 
गुरुजनपरित्यक्तः स्तेनो दम्भशीलो मूलकर्मणि प्रसक्तो मानापमानयोरनपेक्षी दष्यै- 
रप्यर्थहार्यो विलज्ज इत्यगम्याः ॥ ९६॥ 
अगम्य नायक- जो क्षयरोगी, कोटी, कृमिरोगी हो, जिसके मुख से दुर्गन्ध आती हो, 
जिसे अपनी पत्नी प्रिय हो, जो कटुभाषी हो, दुराचारी हो, निर्दयी हो, माता पिता द्वारा बहिष्कृत 
हो, जो चोर, कपटी, जादू टोने वाला, मानापमान कौ चिन्ता न करने वाला, लोभवश शत्रुओं से 
भी मिल जाने वाला ओर निर्लंज हो-एेसे पुरुष के साथ वेश्या को समागम नहीं करना 
चाहिये ॥ १६॥ 
रागो भयमर्थः सङ्क्षो वैरनिर्यातनं जिज्ञासा पक्षः खेदो धर्मो यशोऽनुकम्पा 
सुहृद्धाक्यं हीः प्रियसादृश्यं धन्यता रागापनयः साजात्यं साहवेश्यं सातत्यमायतिश्च 
गमनकारणानि भवन्तीत्याचार्याः ॥ ९७॥ 
मिलन के कारण- अनुराग, भय, धन, सद्र्ष, वैर निकालना, जानने को इच्छा, 
पक्षपात, खेद (परिश्रम), धर्म, यश, अनुकम्पा, प्रियवाक्य, लज्जा, प्रियतम से समानता, दीनता, 
राग को शान्ति, सजातीयता, साथ रहना ओर प्रभाव-ये वेश्या के गमन के कारण है, एेसा 
कामशास्त्र के आचार्यो का मत है ॥ १७॥ 
अर्थोऽनर्थप्रतीघातः प्रीतिश्चेति वात्स्यायनः ॥ १८॥ 
अर्थं (धन), अनर्थं की हानि (अनिष्ट का निवारण) ओर प्रीति-ये गमन के कारण है- 
एेसा आचार्य वात्स्यायन का मत हे ॥ १८ ॥ 
अर्थस्तु प्रीत्या न बाधितः । अस्य प्राधान्यात्‌॥ १९॥ 
अर्थ तो प्रीति से बाधित नहीं होता, क्योकि वेश्या के लिये अर्थ ही प्रधान होता है ॥ १९॥ 
भयादिषु तु गुरुलाघवं परीश्ष्यमिति सहायगम्यागम्यगमनकारण- 
चिन्ता ॥ २०॥ 
भय आदि जो गमन के कारण बताये गये हँ, उनमें गुरुता ओर लघुता कौ परीक्षा कर ले। 
इस प्रकार सहाय, गम्य, अगम्य ओर गमन के कारणो का विचार पूर्णं हुआ ॥ २०॥ 
उपमन्नितापि गम्येन सहसरा न प्रतिजानीयात्‌। पुरुषाणां सुलभावमानि- 
त्वात्‌॥ २९॥ 
गम्योपावर्तन प्रकरण- यदि समागमयोग्य पुरुष भी समागमहेतु आमन्त्रित करे, तो भी 


९९५९८ वात्स्यायन-कामसूत्न 


वेश्या को सहसा नहीं मिलना चाहिये, क्योकि पुरुषों कौ यह प्रवृत्ति होती है कि वे सुलभ वस्तु 
का अपमान कर, दुर्लभ की आकांक्षा करते हँ ॥ २१॥ 

भावजिन्ञासार्थं परिचारकमुरान्‌ संवाहकगायनवेहासिकान्‌ गम्ये तद्धाक्तन्‌ 
वा प्रणिदध्यात्‌॥ २२॥ 

भावजिज्ञासा--नायक के भावों को जानने के लिये प्रमुख नौकर, संवाहक (हाथ-पैर 
दबाने वाला), गायक ओर विदूषक को या दूसरे जो भी उसके भक्त हों, उन्हें नियुक्त 
करे ॥ २२॥ 

तदभावे पीठमर्दादीन्‌। तेभ्यो नायकस्य शौचाशौचं रागापरागौ सक्तासक्ततां 
दानादाने च विद्यात्‌॥ २३॥ 

इनके अभाव में पीठमर्द* आदि को नियुक्त करें । इनके माध्यम से ही नायक का अपने 
प्रति जो शौच-अशौच, राग-अपराग, सक्तता-असक्तता, दान-अदान का भाव हो, उन सबको 
जान लें ॥ २३॥ 

सम्भावितेन च सह विटपुरोगां प्रीतिं योजयेत्‌ ॥ २४ ॥ 

जिसमें अपनी इच्छा की सभी बातों कौ सम्भावना हो उसके पीछे प्रेमपूर्वक विट 
लगा दं ॥ २४॥ 

लावककुक्कुटमेषयुद्धशुकशारिकाप्रलापनप्रक्षणककलाव्यपदेशेन पीठ- 
मर्द नायकं तस्या उदवसितमानयेत्‌॥ २५॥ 

प्रेमसूत्र जोड़ने के उपाय- पीठमर्द को चाहिये कि लवा, मुर्गा ओर भेड़ा की लड़ाई, 
शुक-सारिका आदि की नाते, नाटक-तमाशा आदि दिखाने, गीत-संगीत आदि का कलाकौशल 
दिखाने के व्याज से नायक को वेश्या के घर ले जाये ॥ २५॥ 

तां वा तस्य ॥ २६॥ 

उस वेश्या को ही उस नायक के घर ले जाये ॥ २६॥ 

आगतस्य प्रीतिकौतुकजननं किञ्चिद्‌ द्रव्यजातं स्वयमिदमसाधारणोपभोग्य- 
मिति प्रीतिदायं दद्यात्‌॥ २७॥ 

आगत का स्वागत- जब नायक वेश्या के घर आ जाये, तो वेश्या उसे प्रेमोपहार स्वरूप 
एेसी बहुमूल्य एवं असाधारण वस्तु स्वयं भेट करे जो प्रीति एवं विस्मय उत्पन्न करने 
वाली हो ॥ २७॥ 

यत्र च रमते तया गोष्ठयैनमुपचारेश्च रञ्जयेत्‌॥ २८ ॥ 

गोष्ठी मे सम्भान- ओर जहां नायक का मन रमता हो, उसी गोष्ठी में उपयुक्त उपचारो से 

वेश्या उसका मनोरंजन करे ॥ २८॥ 
गते च सपरिहासप्रलापां सोपायनां परिचारिकामभीष्णं प्रेषयेत्‌॥ २९॥ ` 

प्रेम की दृढता हेतु उपाय- नायक के घर चले जाने पर वेश्या मुस्कानपूर्वक मधुर वचन 

बोलने वाली परिचारिका द्वारा प्रेमोपहार बार बार भिजवाये ॥ २९॥ | 


१. पीठमर्द, विदूषक ओर विट-ये सब नायक के दूत होते हँ । 


६. वैशिक अधिकरण ९५९ 


सपीठमर्दायाश्च कारणापदेशेन स्वयं गमनमिति गम्योपावर्तनम्‌॥ ३०॥ 
स्वयं दर्शन- किसी बहाने से वेश्या पीठमर्द (सम्भोग कौ आयोजना करने वाला ओर 
परामर्शदाता) को साथ लेकर स्वयं नायक के घर जाये । नायक को अपनी ओर आकर्षित 
करने का प्रकरण पूर्णं हुआ ॥ ३०॥ 
भवन्ति चात्र श्लोकाः- 
ताम्बूलानि स्रजश्चैव संस्कृतं चानुलेपनम्‌। 
आगतस्याहरेत्‌ प्रीत्या कलागोष्ठीश्च योजयेत्‌॥ ३९॥ 
उपसंहार-इस विषय में तीन आनुवंश्य श्लोक उद्धृत करते हँ- 
संस्कृत पान, संस्कृत माला, संस्कृत चन्दन ओर संस्कृत इत्र आये हुए नायक को 
प्रेमपूर्वक दे ओर कलागोष्ठियों का आयोजन करे ॥ ३१॥ 
द्रव्याणि प्रणये दद्यात्‌ कुर्याच्य परिवर्तनम्‌। 
सम्प्रयोगस्य चाकूतं निजेनैव प्रयोजयेत्‌ ॥ ३२॥ 
आदान-प्रदान-- प्रेम बढ़ाने के लिये प्रेमोपहार दे ओर ले। सम्भोग के गुप्त सकेतों को 
वेश्या स्वयं ही प्रकट करे ॥ ३२॥ 
प्रीतिदायैरुपन्यासैरुपचारैश्च केवलेः। 
गम्येन सह संसृष्टा रञ्जयेत्तं ततः परम्‌॥ ३३॥ 
प्रीतिपूर्वक दिये जाने वाले उपहारो से, पीठमर्द आदि कौ बातों से ओर सम्भोगसूचक 
भावों से पहले नायक को अनुरक्त करे, तत्पश्चात्‌ सम्भोग करे ॥ ३३॥ 
सहायगम्यागम्यगमन कारणचिन्ता प्रकरण 
नामक प्रथम अध्याय सम्पन्न ॥ 


द्वितीय अध्याय 


कान्तानुवृत्तप्रकरण 
संयुक्ता नायकेन तद्रञ्जनार्थमेकचारिणीवृत्तमनुतिष्ठेत्‌ ॥ ९॥ 
एकचारिणी व्रत-- नायक के साथ संयुक्त होने पर उसको अनुरक्त करने के लिये 
एकचारिणीवृत्त का अनुकरण करना चाहिये ॥ १॥ 
रञ्जयेन्न तु सज्जेत सक्तवच्य विचेष्टेतेति संक्षेपोक्तिः ॥ २॥ 
कान्तानुवृत्त- वेश्या को चाहिये कि उस नायक को पूर्णतः अनुरक्त कर ले ओर स्वयं 
भी आसक्त के समान चेष्टा करे, किन्तु आसक्त न हो । यह वेश्या के अधीन होने वाला चरित्र 
संक्षेप मे कह दिया गया है ॥ २॥ 
मातरि च क्रूरशीलायामर्थपरायां चायत्ता स्यात्‌॥ ३॥ 


९१६० वात्स्यायन-कामसूत्र 


मां के संरक्षण में कार्य- वेश्या को क्रूर स्वभाव वाली ओर धनलोलुप माँ के अधीन 
ही रहना चाहिये ॥ ३॥ 
तदभावे मातृकायाम्‌॥ ४॥ 
यदिमोंनहो तो बनायी हुई माँ या मौसी के अधीन रहे ॥ ४॥ 
सा तु गम्येन नातिप्रीयेत॥ ५॥ 
सभी माँ हो या मौसी, ये वेश्यां नायको पर अतिस्नेह नहीं दिखातीं ॥ ५॥ 
प्रसह्य च दुहितरमानयेत्‌॥ ६॥ 
नायको के साथ देर तक बैठने पर लड़को को बलपूर्वक ले जाये ॥ ६॥ 
तत्र तु नायिकायाः सन्ततमरतिर्निर्वेदो व्रीडा भयं च॥ ७॥ 
बेटी का शिष्टता-प्रदर्शन- मां द्वारा एेसा व्यवहार करने पर वेश्या अपने नायक के 
समक्ष जाने में अरुचि, लज्जा ओर भय दिखाये ॥७॥ 
न त्वेव शासनातिवृत्तिः ॥ ८ ॥ 
मां का आज्ञापालन- कभी भीेसानहोकिमोंकी आज्ञान माने॥ ८॥ 
व्याधिं चैकमनिमित्तमजुगुप्सितमचश्षर््राह्यमनित्यं च ख्यापयेत्‌ ॥ ९ ॥ 
व्याधि का बहाना- नायक के पास से जाने के लिये वेश्या को चाहिये कि किसी एेसी 
व्याधि का बहाना बनाये जो अकारण, अनिन्दित, आंखों से न दिखने वाली ओर सदैव न रहने 
वाली हो ॥ ९॥ 
सति कारणे तदपदेशं च नायकानभिगमनम्‌॥ ९०॥ 
बहाने का फल- मिलन का कारण उपस्थित होने पर व्याधि का बहाना करना न 
मिलना ही है ॥ १०॥ 
निर्माल्यस्य तु नायिका चेटिकां प्रेष्येत्ताम्बूलस्य च ॥ ९९॥ 
इसकी विधि- स्वागत सत्कार में प्रयुक्त होने वाली वस्तु पान, इलायची आदि नौकरानी 
के हाथों भिजवा दे॥ ११॥ 
व्यवाये तदुपचारेषु विस्मयः ॥ १२॥ 
मिलनविषयक बाते- सम्भोग काल में नायक द्वारा प्रयुक्त उपचारो पर विस्मय प्रदर्शित 
करे ॥ १२॥ 
चतुःषष्टयां शिष्यत्वम्‌॥ ९३ ॥ 
सम्भोग की अङ्गभूत आलिङ्गन आदि चौसठ कामकलाओं में नायक को शिष्यता 
स्वीकारे ॥ १३॥ 
तदुपदिष्टानां च योगानामाभीक्षण्येनानुयोगः ॥ ९४॥ 
नायक जिन जिन योगों को बताये, उस पर केवल उन्हीं योगों का प्रयोग करे ॥ १४॥ 
तत्सात्म्याद्‌ रहसि वृत्तिः ॥ १५॥ 
एकान्त में नायक के अनुकूल ही व्यवहार करे ॥ १५॥ 
मनोरथानामाख्यानम्‌॥ ९६॥ 


६. वैशिक अधिकरण ९६९१ 


मनोरथ कथन- एकान्त मे नायक से अपनी इच्छाएं कह दे ॥ १६॥ 
गुह्यानां वैकृतप्रच्छादनम्‌॥ १७॥ 
दोषों को छिपाना-- यदि गुह्यांगो मे कोई कुरूपता, दोष या विकार हो तो उसे छिपाये 
रखे ॥ १७॥ 
शयने परावृत्तस्यानुपेक्षणम्‌॥ १८ ॥ 
शयन-विधि- यदि नायक करवट बदलकर सोये तो वेश्या को उसको ओर मुख करके 
ही सोना चाहिये ॥ १८ ॥ 
आनुलोम्यं गुह्यस्पर्शने।॥ ९९॥ 
नायक द्वारा कंखि, योनि आदि का स्पर्श करने पर उसे न रोके ॥ १९॥ 
सुप्तस्य चुम्बनमालिङ्कनं च ॥ २०॥ 
सोते हए नायक का चुम्बन ओर आलिङ्गन करे ॥ २०॥ 
प्रक्षणमन्यमनस्कस्य। राजमार्गे च प्रासादस्थायास्तत्र विदिताया व्रीडा 
शाल्यनाशः ॥ २९॥ 
देखने की विधि- सडक पर जाते हुए अन्यमनस्क नायक को निर्निमिष दृष्टि से देखे, 
दूर निकल जाने पर ्रोखे से देखे ओर यदि उसकी दृष्टि पड़ जाये तो शरमा जाये ॥ २९॥ 
तद्वेष्ये द्वेष्यता । तत्प्रिये प्रियता। तद्रम्ये रतिः। तमनु दर्षशोकौ। स्त्रीषु 
जिज्ञासा । कोपश्चादीर्घः ॥ २२॥ 
व्यवहार की विधि-नायक के शत्रु को अपना शत्रु समञ्च, उसके प्रेमी से प्रेम रखे, 
उसके मनोनुकूल स्थान पर समागम करे, उसके हर्ष में हर्षित ओर दुःख मे दुःखी हो, उसकी 
स्त्रियों के विषय में जानने की इच्छा रखे ओर क्रोध अल्पकालिक ही करे ॥ २२॥ 
स्वकृतेष्वपि नखदशनचिहेष्वन्याशङ्धा ॥ २३ ॥ 
अपने द्वारा किये गये नखक्षतों एवं दन्तक्षतों को भी किसी अन्य के होने कौ शङ्का 
करे ॥ २३॥ 
अनुरागस्यावचनम्‌॥ २४॥ 
अनुराग को मुख से कदापि न कहे ॥ २४॥ 
आकारतस्तु दर्शयेत्‌॥ २५॥ 
परन्तु अपनी चेष्टाओं से प्रकट कर दे, मुख से न कहे ॥ २५॥ 
मदस्वप्नव्याधिषु तु निर्वचनम्‌॥ २६॥ 
मदिरापान, सोने ओर उन्माद आदि व्याधि के बहाने अपनी सम्भोगेच्छा स्पष्ट कर 
दे ॥ २६॥ 
श्लाघ्यानां नायक कर्मणां च ॥ २७॥ 
नायक के सत्कर्म को भी इसी अवस्था मे कह दे ॥ २७॥ 
तस्मिन्‌ ल्रुवाणे वाक्यार्थग्रहणम्‌। तदवधार्य ॒प्रशंसाविषये भाषणम्‌। 
तद्वाक्यस्य चोत्तरेण योजनम्‌। भक्तिमां श्चेत्‌ ॥ २८ ॥ 


१६२ वात्स्यायन-कामसूत्र 


बोलने की रीति- नायक के बोलने पर उसको बातों का आशय समञ्च, उसकी बातों 
को समञ्ञकर प्रशंसा भी करे, उससे विषयों पर वार्तालाप करे ओर उसकी बातों का उत्तर तभी 
दे जब यह समञ्च ले कि यह स्नेहसम्पन्न हे ॥ २८॥ 
कथास्वनुवृत्तिरन्यत्र सपल्याः ॥ २९॥ 
केवल सपल्ियों को प्रेमकथाओं को छोडकर, नायक कौ प्रत्येक बात में “हाँ करनी 
चाहिये ॥ २९॥ 
निःश्वासे जृम्भिते स्खलिते पतिते वा तस्य चार्तिमाशंसीत॥ ३०॥ 
सहानुभूति के अवसर- नायक के लम्बी सासे लेने, जंभाई लेने, धन आदि भूल जाने 
या गिरने पर दुःख प्रकट करे ॥ ३०॥ 
्षुतव्याहतविस्मितेषु जीवेत्युदाहरणम्‌॥ ३९ ॥ 
नायक के छींकने, महत्त्वपूर्ण बात कहने ओर आश्चर्य व्यक्त करने पर * जीते रहो ' एेसा 
कहे ॥ ३१॥ 
दौर्मनस्ये व्याधिदौ्हदापदेशः ॥ ३२॥ 
नायक कामन मलिन देखकर उसका कारण पूरे ओर स्वयं भी रोग ओर शत्रु का बहाना 
करे ॥ ३२॥ 
गुणतः परस्याकीर्तनम्‌॥ ३३॥ 
नायक के समक्ष किसी अन्य के गुणों कौ प्रशंसा न करे ॥ २३॥ 
न निन्दा समानदोषस्य ॥ २४॥ 
जिसमे नायक के समान ही दोष हों, उसकी निन्दा कदापि न करे ॥ २४॥ 
दत्तस्य धारणम्‌॥ ३५॥ 
नायक द्वारा दी गयी वस्तु को उसके सामने सदैव धारण करना चाहिये ॥ ३५॥ 
वृथापराधे तद्वयसने वालङ्कारस्याग्रहणभोजनं च ॥ ३६॥ 
मिथ्या आरोप लगाने या नायक पर सङ्कट आने पर उसे भोजन एवं श्रंगार का परित्याग 
कर देना चाहिये ॥ ३६॥ 
तद्युक्ताश्च विलापाः ॥ ३७॥ 
उसके लिये शोकाकुल होकर विलाप करे ॥ ३७॥ 
तेन सह देशमोक्षं रोचयेद्राजनि निष्क्रयं च ॥ ३८ ॥ 
नायक के साथ सहजीवन को प्राथमिकता- नायक के साथ देश छोडकर भाग जाने 
की इच्छा व्यक्त करे अथवा राजकीय व्यवस्था के अनुरूप खरीद डालने कौ बात कहे ॥ ३८॥ 
सामर्थ्यमायुषस्तदवाप्तौ ॥ ३९॥ 
जीवनसार्थक मानना-- वेश्या नायक के मिलन से ही अपना जीवन सार्थक होना 
कहे ॥ ३९॥ 
तस्यार्थाधिगमेऽभिप्रेतसिद्धौ शरीरोपचये वा पूर्वसम्भाषित इष्टदेवतोप- 
हारः ॥ ४०॥ 


६. वैशिक अधिकरण ९६३ 


देवपूजा-- नायक को धन मिलने, मनोवाञ्छित कार्य पूरा होने ओर शारीरिक रोग के 
नष्ट हो जाने पर पहले बोली गयी देवभेट चढाये ॥ ४०॥ 
नित्यमलङ्कारयोगः। परिमितोऽभ्यवहारः ।॥ ४९॥ 
भोजन ओर अलंकार की रीति- सदेव सजी-संवरी रहना चाहिये ओर सन्तुलित 
भोजन करना चाहिये ॥ ४१॥ 
गीते च नामगोत्रयोर््रहणम्‌। ग्लान्यामुरसि ललाटे च करं कुर्वीत । तत्सुखमुप- 
लभ्य निद्रालाभः॥ ४२॥ 
वेश्या जव गाये तो उसमें नायक का नाम ओर कुल रखे । अस्वस्थ होने पर उसका हाथ 
अपने मस्तक ओर वक्ष पर रख ले। उसके हाथ के स्पर्शं के बहाने सो जाये ॥ ४२॥ 
उत्सङ्के चास्योपवेशनं स्वपनं च । गमनं वियोगे ॥ ४३॥ 
नायक को गोद में बैठना ओर सोना चाहिये ओर जब वह जाये तो उसके पीछे पीछे भी 
चले ॥ ४३॥ 
तस्मात्‌ पुत्रार्थिनी स्यात्‌। आयुषो नाधिक्यमिच्छेत्‌॥ ४४ ॥ 
नायक से सन्तान की इच्छा-- उस नायक से पुत्रप्राति कौ कामना करे ओर आयु में 
उससे अधिक न जीना चाहे ॥ ४४ ॥ 
एतस्याविज्ञातमर्थ रहसि न ब्रूयात्‌॥ ४५ ॥ 
आवश्यक बाते- जिस धन का नायक को पता न हो, उस धन को कभी एकान्तमें भी 
नहीं बताना चाहिये ॥ ४५॥ 
व्रतमुपवासं चास्य निर्वर्तयेत्‌ मयि दोष इति। अशक्ये स्वयमपि तद्रूपा 
स्यात्‌॥ ४६॥ 
मुञ्चे दोष लगेगा, यह कहकर नायक को व्रत ओर उपवास करने से रोक दे। यदि वह 
कहने से भी न रुके तो उसके साथ स्वयं भी व्रत ओर उपवास करे ॥ ४६॥ 
विवादे तेनाप्यशक््यमित्यर्थनिर्देशः ॥ ४७॥ 
यदि किसी के साथ विवाद हो जाये तो कह दे कि इसे तो वही निपटा सकता है, दूसरा 
कोई नहीं ॥ ४७॥ 
तदीयमात्मीयं वा स्वयमविशेषेण पश्येत्‌॥ ४८ ॥ 
नायक की सम्पत्ति को अपनी ही समञ्ञे ॥४८॥ 
तेन विना गोष्ठ्यादीनामगमनमिति॥ ४९॥ 
उसके विना गोष्ठी या उत्सव में न जाये ॥ ४९॥ 
निर्माल्यधारणे श्लाघ्या उच्छिष्टभोजने च ॥ ५०॥ 
नायक की उतारी हई वस्तुं धारण करने ओर उसका उच्छिष्ट (जूठन) खाने में गौरव का 
अनुभव करे ॥ ५०॥ 
कुलशीलशिल्पजातिविद्यावर्णवित्तदेशमित्रगुणवयोमाधुर्यपूजा ॥ ५९ ॥ 


९६ वात्स्यायन- कामसूत्र 


नायक के कुल, शोल, शिल्प, जाति, विद्या, वर्ण, धन, देश, मित्र, गुण, अवस्था ओर 
मधुरता की सदैव प्रशंसा करे ॥ ५१॥ 
गीतादिषु चोदनमभिन्ञस्य ॥ ५२॥ 
यदि नायक गाना बजाना जानता हो तो उसे इस कार्यं मे लगाये ॥ ५२॥ 
भयशीतोष्णवर्षाण्यनपेश्षय तदभिगमनम्‌॥ ५३॥ 
प्रतिकूल ऋतु में भी अभिसार-- यदि नायक के साथ समागम का समय निश्चित हो 
गया हे तो भय, शीत, ओर वर्षा को ओर ध्यान नहीं देना चाहिये ॥ ५३॥ 
स एव च मे स्यादित्यौर्ध्वदेहिकेषु वचनम्‌॥ ५४॥ 
जन्मान्तर सम्बन्धो की कामना--' मरने के पश्चात्‌ दूसरे जन्म में मुञ्चे आप ही प्रियतम 
के रूप में प्राप्त हों '-एेसा कहे ॥ ५४॥ 
तदिष्टरसभावशीलानुवर्तनम्‌॥ ५५॥ 
नायक को जो रस, भाव ओर शील प्रिय लगता हो, उसका ही अनुकरण करे ॥ ५५॥ 
मूलकर्माभिशङ्का ॥ ५६॥ 
वशीकरण को शंका-- नायक के ऊपर जादू-टोने की शङ्का करे ॥ ५६॥ 
तदभिगमने च जनन्या सह नित्यं विवादः ॥ ५७॥ 
मां से विवाद-नायक से मिलने के लिये माँ से नित्य विवाद करे ॥ ५७॥ 
बलात्कारेण च यद्यन्यत्र तया नीयेत तदा विषमनशनं शस्त्रं रज्नुमिति 
कामयेत ॥ ५८ ॥ 
मां को भयभीत करना- यदि मों उसे बलपूर्वक किसी अन्य के साथ सम्भोग के लिये 
कहे तो यह कह दे-“ जहर खा लंगी, खाना नहीं खाऊगी, चाकू मारकर आत्महत्या कर लूंगी, 
फसी लगाकर मर जाऊंगी ' ॥ ५८ ॥ 
प्रत्यायनं च प्रणिधिभिर्नायकस्य। स्वयं वात्मनो वृत्तिग्रहणम्‌॥ ५९॥ 
रहस्योदधाटन पर प्रयास- यदि नायक को यह पता लग जाये कि यह अन्यसेभी 
सम्बन्ध रखती है तो अपने आदमियों द्वारा नायक को विश्वास दिलवा दे । यदि अपने आदमियों 
से यह सम्भव न हो पाये तो स्वयं जाकर इस वृत्ति (वेश्यावृत्ति) की निन्दा करे ॥ ५९॥ 
न त्वेवार्थेषु विवादः ॥ ६० ॥ 
धन के विषय में विवाद नर्ही-- धन के विषय में विवाद न करें ॥ ६०॥ 
मात्रा बिना किञ्चिन्न चेष्टेत ॥ ६९॥ 
सभी कार्यो मेँ माता की सहमति- मां से बिना पूरे कोई कार्य न करे अर्थात्‌ सब काम 
माँ से पूछकर ही करे ॥ ६१॥ 
प्रवासे शीघ्रागमनाय शापदानम्‌॥ ६२॥ 
नायक के विदेशगमन पर शपथ-- यदि नायक किसी कार्य से विदेश जा.रहा हो तो 
उसे शीघ्र लौटने की शपथ अवश्य दिलाये ॥ ६२॥ 


६. वैशिक अधिकरण ९६५५ 


प्रोषिते मृजानियमञ्नालङ्कारस्य प्रतिषेधः । मङ्कलं त्वपेक्षयम्‌। एकं शङ्खवलयं 
वा धारयेत्‌॥ ६३॥ 
प्रवासवृत्त-- नायक के बाहर जाने पर एकचारिणी, शरीर का संस्कार न करे अर्थात्‌ तेल 
उबटन साबुन आदि छोड दे, अलंकार भी धारण न करे । मङ्गल की तो सतत अपेक्षा है, इसलिये 
माङ्गलिक चिह (शङ्कवलय) अवश्य करे ॥ ६३॥ 
स्मरणमतीतानाम्‌। गमनमीक्षणिकोपश्रुतीनाम्‌। नक्षत्रचन्दरसूर्यताराभ्यः स्पृह- 
एम्‌॥ ६४॥ 
नायक की मधुर स्मृतियों का वर्णन कहे, शकुन बताने वाली स्त्रियों के यहां जाये, रात को 
शकुन देखे ओर चादनी रात मे चमकते चन्द्रमा ओर नक्षत्रों से ईर्ष्या करे ॥ ६४॥ 
इष्टस्वप्नप्रदरने तत्सङ्कमो ममास्त्विति वचनम्‌॥ ६५॥ 
शुभ स्वप्न देखकर सबसे यह कहे कि अब नायक से समागम होगा ॥ ६५॥ 
उद्धेगोऽनिष्टे शान्तिकर्म च ॥ ६६॥ 
यदि अनिष्टसूचक स्वप्न दिखे तो उद्वेग (घबड़ाहट) दिखाये ओर शान्तिकर्म 
कराये ॥ ६६॥ 
प्रत्यागते कामपूजा ॥ ६७॥ 
नायक के आने के बाद के कृत्य- नायक के सकुशल आ जाने पर कामदेव को पूजा 
करनी चाहिये ॥ ६७॥ 
देवतोपहाराणां करणम्‌ ॥ ६८ ॥ 
प्रवासकाल में जिन जिन देवताओं कौ मनौती मोगी हो, उन उन के मन्दिर में जाकर भेट 
चटाये ॥ ६८ ॥ 
सखीभिः पूर्णपात्रस्याहरणम्‌॥ ६९॥ 
सखियों के साथ पूर्णपात्र का ग्रहण करे ॥ ६९॥ 
वायसपूजा च ॥ ७०॥ 
काकबलि--कौओं को बलि प्रदान करे ॥ ७०॥ 
प्रथमसमागमानन्तरं चैतदेव वायसपूजावर्जम्‌॥ ७९ ॥ 
कौओं कौ पूजा को छोडकर, शेष सभी कार्य प्रथम समागम के बाद ही करे ॥७१॥ 
सक्तस्य चानुमरणं ब्रूयात्‌॥ ७२॥ 
साथ ही मरना- आसक्त नायक के साथ ही मर जाने (सती हो जाने) कौ बात 
कहे ॥ ७२॥ । 
निसृष्टभावः समानवृत्तिः प्रयोजनकारी निराशङ्को निरपेश्षोऽर्थष्विति सक्त- 
लक्षणानि ॥ ७३॥ 
आसक्त की पहचान- आसक्त नायक वही है जो नायिका पर पूर्णं विश्वास रखे, प्रवृत्ति 
ओर निवृत्ति समान बना ले, उसके प्रयोजन को तत्काल पूर्णं कर दे, उस पर किसी भी प्रकार कौ 
शङ्का न करे ओर धन के विषय में चिन्तितिन हो ४०३ ॥ 


९६६ वात्स्यायन-कामसूत्र 


तदेतत्निदर्शनार्थं दत्तकशासनादुक्तम्‌। अनुक्तं च लोकतः शीलयेत्‌ पुरुष- 
प्रकृतितश्च ॥ ७४॥ 
वैशिक शास्त्र के विशेषज्ञ आचार्य दत्तक को देखकर संक्षेप में यह वेश्याचरित कह 
दिया गया। जो बाते यहाँ नहीं कही गयी, उन्हें लोक से ओर पुरुष कौ प्रकृति से जान लेना 
चाहिये ॥ ७४॥ 
भवतश्चात्र श्लोकौ-- 
सूक्ष्मत्वादतिलोभाच्य प्रकृत्याज्ञानतस्तथा । 
कामलक्ष्म तु दुज्निं स्त्रीणां तद्धावितेरपि ॥ ७५॥ 
वेश्यानायकों को शिक्षा-- विदान्‌ व्यक्ति भी वेश्याओं के काम के वास्तविक स्वरूप 
को नहीं समञ्ञ सकते; क्योकि एक तो काम का स्वरूप ही अत्यन्त सूक्ष्म है, दूसरे ये इतनी लोभी 
होती ह कि कृत्रिम चेष्टाओं को भी स्वाभाविक के समान दिखा देती है ओर इनका जो आसक्त 
है, वह तो विवेकशून्य हो ही जाता है ॥ ७५॥ 
कामयन्ते विरज्यन्ते रञ्जयन्ति त्यजन्ति च। 
कर्षयन्त्योऽपि सर्वार्थान्‌ ज्ञायन्ते नैव योषितः ॥ ७६॥ 
वेश्या अपने नायको को चाहती है, उन पर अनुरक्त भी रहती हैँ ओर विरक्त भी, उनको 
अनुरक्त भी बना देती ह ओर त्याग भी देती है । वे नायक के धन को इस प्रकार से खीं चती है 
कि पुरुष को कुछ भी पता नहीं चलता ॥ ७६॥ 


` कान्तानुवृत्त प्रकरण नामक द्वितीय अध्याय सम्पन्न ॥ 
© 


ततीय अध्याय 
अर्थागमोपायप्रकरण 
सक्ताद्वित्तादानं स्वाभाविकमुपायतश्च ॥ ९॥ 
आसक्त नायक से धन दो प्रकार से मिलता है-एक तो स्वाभाविक ढंग से ओर दूसरे 
प्रयत्लपूर्वक ॥ १॥ 
तत्र स्वाभाविकं सङ्कल्पात्‌ समधिकं वा लभमाना नोपायान्‌ प्रयुञ्जीतेत्या- 
चार्याः ॥ २॥ 
वेश्या जितना धन प्राप्त करने कौ इच्छा रखती हो, यदि उतना या उससे अधिक धन उसे 
स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो जाये तो उसे उपायों का प्रयोग नहीं करना चाहिये- यह कामशास्त्र 
के आचार्यो का मत है॥ २॥ 
विदितमप्युपायैः परिष्कृतं द्विगुणं दास्यतीति वात्स्यायनः ॥ २॥ 
यदि फीस निश्चित होने पर भी उपाय किये जायें तो उससे दोगुनी राशि मिल सकती है- 


यह आचार्य वात्स्यायन का मत है ॥ ३॥ 


६. वैशिक अधिकरण ९६७ 


अलङ्कारभक्ष्यभोज्यपेयमाल्यवस्त्रगन्धद्रव्यादीनां व्यवहारिषु कालिकमुद्धा- 
रार्थमर्थप्रतिनयनेन ॥ ४॥ 
धन-प्राति के उपाय--आभूषण, भक्ष्य (लड्ड्‌, जलेबो आदि), भोज्य (अन्न), पेय 
(शर्बत, मदिरा आदि), माला, वस्त्र (सूती, रेशमी, ऊनी कपडे) ओर गन्ध आदि वस्तुं बेचने 
वालों को वायदे पर जो मूल्य चुकाना हे उसके लिये अथवा उसके बदले मे जो वस्तु धरोहर रूप 
मे रखी हो, उसे छड़ाने के लिये रुपया ले ले ॥४॥ 
तत्समक्षं तद्वित्तप्रशंसा ॥ ५॥ 
वैशिक के धन की प्रशंसा-- वैशिक के सामने उसके धन को खुलकर प्रशंसा 
` करे ॥ ५॥ 
व्रतवृक्षारामदेवकुलतडागोद्यानोत्सवप्रीतिदायव्यपदेशः ॥ ६॥ 
व्रत, वृक्ष, उद्यान, देवमन्दिर, कुओं, बावडी, उत्सव ओर प्रेमोपहार का बहाना करे ॥ ६॥ 
तदभिगमननिमित्तो रक्षिभिश्चौरर्वालङ्कारपरिमोषः ॥ ७॥ 
लूट का बहाना-- आप से मिलने के लिये आ रही थी कि रास्ते में रक्षको (पहरेदारों ) 
या चोरो ने आभूषण उतरवा लिये ॥ ७॥ 
दाहात्‌ कुङ्यच्छेदात्‌ प्रमादाद्‌ भवने चार्थनाशः॥ ८ ॥ 
अग्निकाण्ड या विनाश का बहाना-घर में आग लग जाने, सेध लग जाने या 
असावधानी से धन के नष्ट हो जाने का बहाना करे ॥ ८ ॥ 
तथा याचितालङ्काराणां नायकालङ्काराणां च तदभिगमनार्थस्य व्ययस्य 
प्रणिधिभिर्निवेदनम्‌॥ ९॥ 
स्वागत-सत्कार का खर्च- इसी प्रकार मोग हुए या नायकं द्वारा दिये हुए आभूषणों के 
विषय में भी कह दे ओर फिर वेश्या उससे मिलने के समय हुए खर्च के लिये विश्वस्त नौकरों 
से कहलवाये ॥ ९॥ 
तदर्थमृणग्रहणम्‌। जनन्या सह तदुद्धवस्य व्ययस्य विवादः ॥ ९०॥ 
ऋण- नायक के स्वागत-सत्कार हेतु ऋण ले लेना चाहिये ओर फिर अपनी मां के साथ 
उस व्यय पर विवाद करना चाहिये ॥ १०॥ 
सुहत्कार्येष्वनभिगमनमनभिहारहेतोः ॥ १९॥ 
प्रेमोपहार की विवशता-- यदि नायक के किसी मित्र के घर उत्सव हो ओर वह चलने 
के लिये कहे तो यही कह दे कि मेरे पास देने के लिये कुछ करीं है, इसलिये नहीं 
जाऊंगी ॥ ११॥ 
तैश्च पूर्वमाहता गुरवोऽभिहाराः पूर्वमुपनीताः पूर्वं श्राविताः स्युः ॥ ९२॥ 
उनके लाये हुए बडे बड़े प्रेमोपहार आपने पहले ही ले लिये है, यह बात जाने से पूर्व ही 
सुना दे॥ १२॥ 
उचितानां क्रियाणां विच्छित्तिः ॥ ९३॥ 
आवश्यक खर्चा मेँ कटौती- दैनिक जीवन के आवश्यक खर्च मेँ भी कटौती 
कर दे॥ १३॥ 


१६८ वात्स्यायन-कामसूत्र 


नायकार्थं च शिल्पिषु कार्यम्‌॥ ९४॥ 
शिल्पकारों से एेसी वस्तुएं बनवा ले जिसमें नायक को धन खर्च करना पड़ ॥ १४॥ 
वैद्यमहामात्रयोरुपकारक्रिया कार्यहेतोः ॥ १५ ॥ 
वैद्य ओर राजपुरुषो पर उपकार- अपने कार्य के लिये वैद्य ओर राजपुरुषो पर उपकार 
कर दे॥ १५॥ 
मित्राणां चोपकारिणां व्यसनेष्वभ्युपपत्तिः ॥ ९६॥ 
मित्रों कौ सहायता- नायक के मित्रों एवं उपकारियों को सङ्कट में सहायता 
अवश्य करे ॥ १६॥ 
गृहकर्म सख्याः पुत्रस्योत्सञ्जनम्‌ दोहदो व्याधिर्मित्रस्य दुःखापनयन- 
मिति॥ १७॥ 
नायक से धन लेने के लिये घर बनवाने, सखी के पुत्र के उत्सञ्जन (चूडाकर्म, अन्नप्राशन 
आदि), दोहद, मित्र की व्याधि ओर दुःख दूर करने का बहाना करे ॥ १॥ 
अलङ्कारैकदेशविक्रयो नायकस्यार्थे ॥ १८ ॥ 
नायक के किसी कार्य के लिये अपने कुछ आभूषण बेच दे ॥ १८ ॥ 
तया शीलितस्य चालङ्कारस्य भाण्डोपस्करस्य वा वणिजो विक्रयार्थं 
दर्शनम्‌॥ ९९॥ 
प्रियवस्तु की बिक्री का बहाना--अपने प्रिय आभूषणं, जर्तनों ओर घर के सामान को 
नायक के सामने ही व्यापारी को विक्रौ हेतु दिखाये ॥ १९॥ 
प्रतिगणिकानां च सदृशस्य भाण्डस्य व्यतिकरे प्रतिविशिष्टस्य 
ग्रहणम्‌॥ २०॥ 
विशिष्ट बर्तनों की मांग प्रतिवेश्याओं से समान बर्तन होने के कारण उसके बर्तन 
प्रायः बदल जाते है, इस बहाने उत्तम बर्तनों की मांग करे ॥ २०॥ 
पूर्वोपकाराणामविस्मरणमनुकीर्तनं च ॥ २९॥ 
नायक के प्रति कृतज्ञताज्ञापन- नायक द्वारा किये गये पहले उपकारो को न भूले ओर 
उनका प्रेमपूर्वक वर्णन करे ॥ २९॥ 
प्रणिधिभिः प्रतिगणिकानां लाभातिशयं श्रावयेत्‌॥ २२५ 
अपने विश्वस्त नौकर द्वारा दूसरी प्रतिवेश्याओं को होने वाले अधिक लाभ की बात 
नायक को सुनवाये॥ २२॥ 
तासु नायकसमक्षमात्मनोऽभ्यधिकं लाभं भूतमभूतं वा व्रीडिता नाम 
वर्णयेत्‌॥ २३॥ 
यदि अपने यहाँ कोई वेश्या आयी हुई हो तो नायक के सामने उससे लाभ को बदढ़ा- 
चदाकर कहे ओर यदि कोई लाभ न हआ हो तो नायक कौ ओर देखकर ओर लजाकर लाभ 
होना बताये ॥ २३॥ 


६. वैशिक अधिकरण ९६९ 


पूर्वयोगिनां च लाभातिशयेन पुनः सन्धाने यतमानानामाविष्कृतः 
प्रतिषेधः ॥ २४॥ 
त्यागशीलता का दिखाना- पूर्व प्रेमी जो सम्पर्क छोड चुके हों ओर अब अधिक धन 
देकर सम्पर्क बनाना जाहते हों, उन्हें नायक के सामने ही स्पष्ट ना कर देना चाहिये ॥ २४॥ 
तत्स्पर्धिनां त्यागयोगिनां निदर्शनम्‌ ॥ २५॥ 
नायक से स्पर्धा रखने वाले उन त्यागशील व्यक्तियों को उसे दिखाना चाहिये जो वेश्या के 
साथ संसर्गं करना चाहते हैँ ॥ २५॥ 
न पुनरेष्यतीति बालयाचितकमित्यर्थागमोपायाः ॥ २६॥ 
बच्यों के समान हठपूर्वक मांगना-- यदि वेश्या को यह विश्वास हो जाये कि यह अब 
नहीं आयेगा ( क्योकि मुञ्ज से विरक्त हो गया है ) तो बच्चों को तरह लजना त्याग कर हदठपूर्वक 
मगि। ये अर्थागमोपाय हैं ॥ २६॥ (१) 
विरक्तं च नित्यमेव प्रकृतिविक्रियातो विद्यात्‌ मुखवर्णाच्य । २७॥ 
विरक्तप्रतिपत्ति प्रकरण : विरक्त के लक्षण- सब बातों में स्वभाव के बदलने ओर 
मुख के रागरंग से विरक्त हुए पुरुष को पहचान ले ॥ २७॥ 
ऊनमतिरिक्तं वा ददाति ॥ २८ ॥ 
विरक्त पुरुष के कार्य-- जो वेश्या को दिया करता था, उससे कम या अधिक दे ॥ २८॥ 
प्रतिलोमः सम्बध्यते ॥ २९॥ 
प्रतिवेश्याओं (स्पर्धी वेश्याओं ) से सम्बन्ध बनाने लगे ॥ २९॥ 
व्यपदिश्यान्यत्‌ करोति ॥ ३०॥ 
एक काम को कहकर अन्य काम करने लगे ॥ ३०॥ 
उचितमाच्छिनत्ति ॥ ३९॥ 
जो उचित कार्य है, उन्हें भी रोक दे॥ ३१॥ 
प्रतिज्ञातं विस्मरति। अन्यथा वा योजयति ॥ ३२॥ 
देने को कहकर भी न दे अथवा यह कह दे कि भने देने के लिये कब कहा था! ॥ ३२॥ 
स्वपश्चैः संज्ञया भाषते ॥ ३३॥ 
अपने इष्ट-मित्रों से संकेत से बातें करे ॥ ३३॥ 
मिलरकार्यमपदिश्यान्यत्र शेते ॥ ३४॥ 
मित्र के कार्य का बहाना करके अन्यत्र जाकर सोये ॥ ३४॥ 
पूर्वसंसृष्टायाश्च परिजनेन मिथः कथयति ॥ ३५॥ 
पहली वेश्या के नौकरो से इस वेश्या कौ सारी बाते बता दे ॥ ३५॥ 
तस्य सारद्रव्याणि प्रागवबोधादन्यापदेशोन हस्ते कुवीत ॥ ३६॥ 
वेश्या के कार्य- जब तक नायक को इस बात का पता चले कि यह मेरी विरक्ति जान 
गयी है, उससे पूर्व ही वेश्या किसी बहाने से उसका धन अपने हाथ में कर ले ॥ ३६॥ 
तानि चास्या हस्तादुत्तमर्णः प्रसह्य गृह्णीयात्‌ ॥ ३७॥ 


१९७० वात्स्यायन-कामसूत्र 


नायिका का सिखाया हुआ साहूकार नायक के धन को नायिका के हाथ से बलपूर्वक ले 

ले ॥ २७॥ 
विवदमानेन सह धर्मस्थेषु व्यवहरेदिति विरक्तप्रतिपत्तिः ॥ २८ ॥ 

यदि नायक साहूकार के साथ विवाद करने लगे तो उसे न्यायाधिकरण तक ले जाये । इस 

प्रकार विरक्तप्रतिपत्ति प्रकरण पूर्णं हुआ ॥ ३८॥ (२) 
सक्तं तु पूर्वोपकारिणमप्यल्पफलं व्यलीकेनानुपालयेत्‌॥ ३९॥ 

निष्कासनक्रम प्रकरण- थोडा देने वाले पहले उपकारी नायक को अपराध करने पर 

भी निभाये, धक्के देकर न निकाले ॥ ३९॥ 
असारं तु निष्प्रतिपत्तिकमुपायतोऽपवाहयेत्‌। अन्यमवष्टभ्य ॥ ४०॥ 

अकिञ्चन का निष्कासन- निर्धन एवं आसक्त नायक को किसी धनवान्‌ एवं अनुरक्त 
नायक का सहारा लेकर ही निकाले ॥ ४०॥ 

तदनिष्टसेवा। निन्दिताभ्यासः। ओष्ठनिर्भोगः। पादेन भूमेरभिघातः। अवि- 
ज्ञातविषयस्य सङ्कथा। तद्विन्ञातेष्वविस्मयः। समानदोषाणां निन्दा। रहसि 
चावस्थानम्‌॥ ४९॥ 

निष्कासन के प्रकट उपाय- जिन्हें नायक नहीं चाहता, उनकी सेवा करना, निन्दनीय 
कर्मो का बार बार करना, होंठ चबाना, जमीन पर पैर पटकना, जिन बातों को नायक न जाने 
उनको चर्चा करना, जिन विषयों को नायक जानता हो, उन पर विस्मय प्रकट करना ओर उनको 
निन्दा करना, उसके अभिमान पर चोट करना, उससे बड़ों के साथ रहना, उसे अनदेखा करना, 
नायक में जो दोष ह उन ही के समान दोष वालों को निन्दा करना ओर एकान्त में बेठना-ये 
निष्कासन के प्रकट उपाय है ॥ ४१॥ 

रतोपचारेषूद्वेगः। मुखस्यादानम्‌। जघनस्य रक्षणम्‌। नखदशनक्षतेभ्यो 
जुगुप्सा । परिष्वङ्के भुजमय्या सूच्या व्यवधानम्‌। स्तब्धता गात्राणाम्‌। सक्थ्नो- 
व्यत्यासः। निद्रापरत्वं च श्रान्तमुपलभ्य चोदना। अशक्तौ हासः। शक्तावन- 
भिनन्दनम्‌। दिवापि भावमुपलभ्य महाजनाभिगमनम्‌॥ ४२॥ 

सम्भोगकालीन व्यवहार-सम्भोगकाल के उपचारो को स्वीकार न करना, अधरपान 
या चुम्बन न करने देना, जोधों पर हाथ न फेरने देना, नखक्षतो एवं दन्तक्षतों को निन्दा करना, 
आलिङ्गन का प्रयास करने पर भुजाओं को कैची बनाकर व्यवधान उत्पन्न करना, शरीर के अंगों 
को कड़ा कर लेना, यन्त्रयोग करने पर एक जोध को दूसरी पर चढा लेना, नींद का बहाना 
करना, थके हुए नायक को सम्भोग के लिये उकसाना, अशक्त होने पर उसकी हंसी उडाना, 
शक्ति में प्रशंसा न करना, उसके हाव-भावों को देखकर दिन में भी रतिकक्ष से बाहर निकल 
जाना ओर गुरुजनों के समीप बैठ जाना- ये उपाय सम्भोगकाल में प्रयोग किये जाते हे ॥ ४२॥ 

वाक्येषु च्छलग्रहणम्‌। अनर्मणि हासः। नर्मणि चान्यमपदिश्य हसति बदति 
तस्मिन्‌ कटाक्षेण परिजनस्य प्रेक्षणं ताडनं च । आहत्य चास्य कथामन्याः कथाः । 


६. वैशिक अधिकरण १७१ 


तद्वयलीकानां व्यसनानां चापरिहार्याणामनुकीर्तनम्‌। मर्मणां च चेटिकयोप- 
क्षेपणम्‌॥ ४३॥ 

बाते करने को रीति- छल-कपरयपूर्ण बातें, चिना रति के उपहास, रतिकेलि में दूसरे के 
बहाने नायक का उपहास, उससे वाते करते समय कटाक्ष से परिजनों को देखना ओर उन्हें 
ताडित करना, उसको बातों को बीच में काटकर दूसरी बातें करना, उसके एेसे अवगुणों ओर 
दोषों का वर्णन करना जिन्हे बह चाहकर भी न छोड सके, नौकरानी के बहाने उसकी गुप्त बातों 
का उद्वाटन- यह निकालने वाले के साथ बातें करने की रीति है ॥ ४२॥ 

आगते चादर्शनम्‌। अयाच्ययाचनम्‌। अन्ते स्वयं मोक्षश्चेति परिग्रहकस्येति 
दत्तकस्य॥ ४४॥ 

अन्तिम उपाय- उसके आने पर न दिखना, न मांगने योग्य वस्तुएँ मांगना ओर अन्त में 
धक्के देकर निकाल देना-ये अन्तिम उपाय हैं । यह विषय आचार्य दत्तक का कहा 
हुआ है ॥ ४४॥ 

भवतश्चात्र श्लोकौ-- 

परीक्ष्य गम्यः संयोगः संयुक्तस्यानुरञ्जनम्‌। 
रक्तादर्थस्य चादानमन्ते मोक्षश्च वैशिकम्‌॥ ४५॥ 

इस विषय में दो श्लोक प्रा होते है- 

वेश्या नायकं कौ परीक्षा करके ही उनके साथ समागम करे । जिसके साथ समागम हो 
जाये, उसे अनुरक्त करे । अनुरक्त का धन खींचे ओर अन्त में उसे धक्के देकर निकाल दे- संक्षेप 
में वेश्याओं का आचार्य दत्तक प्रोक्त यही चरित्र है ॥ ४५॥ 

एवमेतेन कल्पेन स्थिता वेश्या परिग्रहे । 
नातिसन्धीयते गम्यः करोत्यर्थाश्च पुष्कलान्‌ ॥ ४६॥ 

वेश्याओं के जो कार्य कहे गये है, उनका प्रयोजन क्या है, यह आगे बताते है- यदि 
वेश्या ऊपर कही गयी रीति से नायको से संसर्ग करती है ओर अपने प्रेमियों को धोखा नहीं देती 
तो वह विपुल धन एकत्र कर लेती है । इस तरह निष्कासनक्रम पूणं हआ ॥ ४६॥ (३) 

अर्थागमोपाय नामक तृतीय अध्याय सम्पन्न ॥ 


चतुर्थं अध्याय 
विशीर्णप्रतिसन्धान प्रकरण 


वर्तमानं निष्पीडितार्थमुत्सृजन्ती पूर्वससृष्टेन सह सन्दध्यात्‌ ॥ ९॥ 
विशीर्णप्रतिसन्धान : जिसका सारा धन निचोड्‌ (चूस) लिया हो, एेसे नायक को 
छोड्ती हई वेश्या पूर्वं नायक से सन्धि कर ले॥ १॥ 
काम० १३ 


१७२ वात्स्यायन-कामसूत्र 


स चेदवसितार्थो वित्तवान्‌ सानुरागश्च ततः सन्धेयः ॥ २॥ 
मिलने का कारण- यदि वह धनवान्‌ हो, ओर धन देगा- यह भी निश्चित हो तथा 
अनुराग भी रखता हो तभी मिलना चाहिये, अन्यथा नहीं ॥ २॥ 
अन्यत्र गतस्तर्कयितव्यः। स कार्ययुक्त्या षड्विधः ॥ ३॥ 
यदि वह दूसरी वेश्या के पास गया है, तो मिलाने से पूर्वं विचार कर लेना चाहिये । अपने 
कार्य की योजना के अनुसार वह छह प्रकार का हो सकता है ॥ ३॥ 
इतः स्वयमपसृतस्ततोऽपि स्वयमेवापसृतः॥ ४॥ 
प्रथम : दोनों ओर से स्वयं हटने वाला- जो से स्वयं हटा हो ओर दूसरी वेश्या के पास 
से भी स्वयं ही हटा हो ॥ ४॥ 
इतस्ततश्च निष्कासितापसृतः ॥ ५॥ 
द्वितीय : दोनों ओर से धक्के देकर निकाला गया-- जो यहां से ओर वहां से (दोनों 
स्थानों से ही) धक्के देकर निकाला गया हो ॥ ५॥ 
इतः स्वयमपसृतस्ततो निष्कासितापसृतः ॥ ६ ॥ 
तृतीय : यहां से स्वयं निकला ओर वहां से निकाला गया-- जो यहाँ से तो स्वयं हटा 
हो किन्तु वहाँ से धक्के देकर निकाला गया हो ॥ ६॥ 
इतः स्वयमपसुतस्तत्र स्थितः ॥ ७॥ 
चतुर्थ : यहां से स्वयं हटकर वहां जमा- जो यहां से स्वयं हटकर वहाँ स्थित. हो गया 
हो अर्थात्‌ दूसरी के पास जाकर जम गया हो ॥ ७॥ 
इतो निष्कासितापसुतस्ततः स्वयमपसृतः ॥ ८ ॥ 
पञ्चम : जो यहां से धक्के देकर निकाला गया हो ओर वहां से स्वयं हट गया हो ॥ ८ ॥ 
इतो निष्कासितापसृतस्तत्र स्थितः ॥ ९॥ 
षष्ठ : यहां से निकाला गया ओर वहां जमा- जो यहां से धक्के देकर निकाला गया हो 
ओर वहाँ जाकर जम गया हो ॥ ९॥ 
इतस्ततश्च स्वयमेवापसृत्योपजपति चेदुभयोर्गुणानपेक्षी चलबुदधिर- 
सन्धेयः ॥ १०॥ 
प्रथम : न मिलाने योग्य नायक- जो नायक यहां ओर वहं, दोनों स्थानों से, स्वयं ही 
हटकर, पुनः मिलने को कहे, दोनों नायिकाओं के गुणों की अपेक्षा न करने वाला वह चञ्चल 
बुद्धि वाला पुरूष है, अतएव मिलाने योग्य नहीं हे ॥ १०॥ 
इतस्ततश्च निष्कासितापसृतः स्थिरबुद्धिः। स चेदन्यतो बहु लभमानया 
निष्कासितः स्यात्ससारोऽपि तया रोषितो ममामर्षाद्‌ बहु दास्यतीति संधेयः ॥ ९९॥ 
द्वितीय : अधिक लाभ पर स्वीकार्य- जो यहां ओर वहां दोनों स्थानों पर, नायिका 
द्वारा ही निकाला गया हो, तभी हटा हो, वह स्थिरबुद्धि पुरुष है । यदि दूसरी ने उसे अन्यो कौ 
अपेक्षा अधिक लाभ उठाकर भी निकाला हो, धनवान्‌ होने पर भी वेश्या द्वारा क्रुद्ध कर दिया 
गया हो, “मुज्ञ इस क्रोधवश अधिक देगा" यह निश्चित हो, तभी उसके साथ सन्धि करनी 
चाहिये अर्थात्‌ उसे तभी सम्भोग का अवसर देना चाहिये, अन्यथा नहीं ॥ ११॥ 


६. वैशिक अधिकरण ९७३ 


निःसारतया कदर्यतया वा त्यक्तो न श्रेयान्‌ ॥ १२॥ 

निर्धन या दुष्ट संसर्ग के योग्य नहीं-- यदि नायक निर्धनता या दुष्टता के कारण 
निकाला गया हो तो उसके साथ संसर्ग करना श्रेयस्कर नहीं होता ॥ १२॥ 

इतः स्वयमपसृतस्ततो निष्कासितापसृतो यद्यतिरिक्तमादौ च दद्यात्ततः 

प्रतिग्राह्यः ॥ ९३॥ 
। तृतीय : अधिक धन पर स्वीकार्य- जो नायक यहाँ से स्वयं हटा हो ओर वहाँ से 
नायिका द्वारा निकाला गया हो, एेसा नायक यदि पहले हौ अतिरिक्त धन देता हे, तो उसे स्वीकार 
कर लेना चाहिये अर्थात्‌ उसे अग्रिम अतिरिक्त धन लेकर समागम का अवसर दे देना 
चाहिये ॥ १३॥ 
इतः स्वयमपसृत्य तत्र स्थित उपजपंस्तर्कयितव्यः॥ १४॥ 

चतुर्थं : विचारणीय-- जो यहाँ से स्वयं हटकर वहां जम गया हो, एेसा नायक यदि बात 
चलाये तो उस पर विचार करना चाहिये ॥ १४॥ 

विशोषाथीं चागतस्ततो विशेषमपश्यन्नागन्तुकामो मयि मां जिज्ञासितुकामः स 
आगत्य सानुरागत्वादास्यति। तस्यां वा दोषान्‌ दृष्टा मयि भूयिष्ठान्‌ गुणानधुना 
पश्यति स गुणदशीं भूयिष्ठ दास्यति ॥ १५॥ 

संसर्गयोग्य पक्ष-- यह विशेषता से प्रेम करता है, इसीलिये वहाँ गया था। वहां कुछ भी 
विशेषता न दिखने से अब वापस आना चाहता है ओर यहां आकर मुञ्चे जानना चाहता है । प्रेमी 
होने के कारण यहां आकर कुछ अधिक ही धन देगा अथवा उसमें दोष देखकर इस समय मुञ्में 
गुण देख रहा है । अतएव यह गुणग्राही नायक अधिक धन देगा ॥ १५॥ 

बालो वा नैकत्रृष्टिरतिसन्धानप्रधानो वा हरिद्रारागो वा यत्किञ्चनकारी 
वेत्यवेत्य सन्दध्यान्न वा ॥ ९६॥ 

असंसर्गयोग्य पक्ष-- बालबुद्धि है, स्थिरचित्त वाला नहीं है, विचारशील नहीं है, हल्दी 
की तरह अस्थायी राग (रंग या अनुराग) वाला है अथवा जो मन में आता है, कर बैठता है- 
इन सब बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करके ही नायिका देखे कि यदि वह संसर्ग करने योग्य 
है तो करे, अन्यथा नही ॥ १६॥ 

इतो निष्कासितापसृतस्ततः स्वयमपसृत उपजपेंस्तर्कयितव्यः ॥ ९७॥ 

पंचम : विचारणीय- यहाँ से निकाला गया ओर वहां से स्वयं हटा नायक यदि अपनी 
ओर से बात चलाये, तो उस पर विचार करना चाहिये ॥ १७॥ 

अनुरागादागन्तुकामः स बहु दास्यति। मम गुणैरभावितो योऽन्यस्यां न 
रमते ॥ १८ ॥ | 

संसर्गयोग्य पक्ष- वह मेरे अनुरागवश आना चाहता है, इसलिये अधिक देगा । वह मेरे 
गुणों से प्रभावित है, इसलिये दूसरी नायिका में उसका मन नहीं रम रहा है ॥ १८॥ 

पूर्वमयोगेन वा मया निष्कासितः स मां शीलयित्वा वैरं निर्यातयितुकामो 


९७४ वात्स्यायन-कामसूत्र 


धनमभियोगाद्वा मयास्यापहतं तद्धिश्चास्य प्रतीपमादातुकामो निर्वेष्टकामो वा मां 
वर्तमानाद्‌ भेदयित्वा त्यक्तुकाम इत्यकल्याणबुद्धिरसन्धेयः ॥ ९९॥ 

असंसर्गयोग्य पक्ष- पहले मैने इसे अन्यायपूर्वक निकाला था, इसलिये अब यह मुञ्जसे 
मिलकर अपना वैर निकालना चाहता है अथवा उपायों द्वारा मेने इसका सारा धन खींच लिया है, 
इसलिये अब यह विश्वास दिखाकर उसे निकालना चाहता है; अथवा वर्तमान प्रेमी को मुञ्से 
तोड़कर फिर मुञ्चे छोड देना चाहता है, इस प्रकार यह अकल्याण बुद्धि वाला है, अतः संसर्ग 
नहीं करना चाहिये ॥ १९॥ 

अन्यथाबुद्धिः कालेन लम्भयितव्यः ॥ २०॥ 

यदि वह अनुरागवश मिलना चाहता है तो उसे कुछ समय बाद ही अवसर देना 

चाहिये ॥ २०॥ 
इतो निष्कासितस्तत्र स्थित उपजपन्नेतेन व्याख्यातः ॥ २९॥ 

षष्ठ : नायक का विचार- जो अपने यहाँ से निकाला गया हो ओर वहो जाकर जम 
गया हो, बह यदि अपनी ओर से बात चलाये तो संसर्ग के योग्य होने पर ही उसके संसर्ग करे, 
अन्यथा नही ॥ २१॥ 

तेषूपजपत्स्वन्यत्र स्थितः स्वयमुपजपेत्‌॥ २२॥ 

जो यहां से जाकर वहां जम गया ओर सन्देश भेजने पर भी जमा रहे, उससे स्वयं बातें 

करनी चाहिये ॥ २२॥ 
व्यलीकार्थ निष्कासितो मयासावन्यत्र गतो यत्नादानेतव्यः ॥ २३॥ 

इस के कारण-र्मैने इसे अपराध पर निकाला था ओर मेरे यहां से यह वहां जाकर जम 

गया है, इसलिये इसे प्रयत्नपूर्वक लाना चाहिये ॥ २३॥ 
इतः प्रवृत्तसम्भाषो वा ततो भेदमवाप्स्यति॥ २४॥ 
अथवा यहाँ से बाते चलने पर वहाँ से अलग हो जायेगा ॥ २४॥ 
तदर्थाभिघातं करिष्यति ॥ २५॥ 

मुञ्ञसे अनुरक्त होकर वह दूसरी वेश्या को आर्थिक हानि पहुंचायेगा ॥ २५॥ 

अर्थागमकालो वास्य। स्थानवृद्धिरस्य जाता। लब्धमनेनाधिकरणम्‌। 
दारैर्वियुक्तः। पारतच्याद्‌ व्यावृत्तः । पित्रा भात्रा वा विभक्तः॥ २६॥ 

यह इसकी धनप्राति का समय है । इसके व्यापार या नौकरी में उन्नति हुई है, इसे धन या 
पद आदि का अधिकार मिल गया है, इस समय यह अपनी स्त्रियो से अलग रह रहा है, इसकी 
- परतन्त्रता समाप्त हो गयी है, यह अपने पिता या भाई से अलग हो गया है ॥ २६॥ 

अनेन वा प्रतिबद्धमनेन सन्धिं कृत्वा नायकं धनिनमवाप्स्यामि ॥ २७॥ 

नायक इसका मित्र है, मै इससे मिलकर उस धनवान्‌ नायक को प्राप्त कर लूंगी ॥ २७॥ 

विमानिता वा भार्यया तमेव तस्यां विक्रमयिष्यामि ॥ २८॥ 

इसने मेरा अपमान किया है, अथवा अपनी स्त्री से जाकर मिल गया है । मे युक्तिपूर्वक 

इसकी स्त्री को अलग करके इससे ही लड़ा दूंगी ॥ २८॥ 


६. वैशिक अधिकरण ९७५ 


अस्य वा मित्रं मदद्वेषिणीं सपत्नीं कामयते तदमुना भेदयिष्यामि ॥ २९॥ 
अथवा इसका मित्र मुञ्जसे वैर मानने वाली मेरी सपत्नी (सौत) को चाहता है । मैँ इसके 
द्वारा उससे लड्वा दूगी ॥ २९॥ 
चलचित्ततया वा लाघवमेनमापादयिष्यामीति॥ ३०॥ 
अथवा इसे चञ्चल चित्तवाला सिद्ध करके अन्य वेश्याओं को दृष्ट मे गिरा दूगी ॥ ३०॥ 
तस्य पीठमर्दादयो मातुर्दौःशील्येन नायिकायाः सत्यप्यनुरागे विवशायाः पूर्व 
निष्कासनं वर्णयेयुः ॥ २९॥ 
नायिका के पीठमर्द आदि विश्वस्त सेवक नायक से जाकर कहें कि वह तो आज भी 
आपको अनुरक्त है, किन्तु माता कौ कुटिलता के कारण विवश होकर आपको निकालना 
पड़ा था॥ ३१॥ 
वर्तमानेन चाकामायाः संसर्गं विद्वेषं च ।॥ ३२॥ 
वर्तमान नायक के साथ उसका संसर्ग विना अनुराग के है, दिल से तो वह उससे घृणा ही 
करती है ओर आपकी कामना करती है ॥ २३२॥ 
तस्याश्च साभिज्ञानैः पूर्वानुरागैरेनं प्रत्यापयेयुः ॥ २३॥ 
उस नायिका के पहले प्रेम को पहचानपूर्वक कहकर अपनी बात का विश्वास 
दिलाये ॥ ३३॥ 
अभिज्ञानं च तत्कृतोपकारसम्बद्धं स्यादिति विशीर्णप्रतिसन्धानम्‌॥ ३४॥ 
पूर्वकृत उपकारो से प्रेम की पहचान- उसके प्रेम कौ पहचान तो उसके द्वारा किये 
गये पहले के उपकारो से बंधी होनी चाहिये । इस प्रकार “ विमुक्त नायक का मिलन ' नामक 
प्रकरण पूर्ण हुआ॥ ३४॥ 
अपूर्वपूर्वसंसृष्टयोः पूर्वसंसृष्टः श्रेयान्‌। स हि विदितशीलो दृष्टरागश्च सूपचारो 
भवतीत्याचार्याः ॥ ३५ ॥ 
पूर्वपरिचित की श्रेष्ठता : पहले मिले हुए ओर कभी न मिले हुए पुरुषों म पहले मिला 
हआ श्रेष्ठ है; क्योकि उसका शील-स्वभाव परिचित रहता है, उसका प्रेम देखा हुआ रहता है 
ओर उसका उपचार सुखपूर्वक किया जा सकता है-एेसा कामशास्त्र के आचार्यो का मत 
है ॥ २५॥ 
पूर्वसंसृष्टः सर्वतो निष्पीडितार्थत्वान्नात्यर्थमर्थदो दुःखं च पुनर्विश्चासयितुम्‌। 
अपूर्वस्तु सुखेनानुरज्यत इति वात्स्यायनः ॥ ३६॥ 
यदि पूर्वं नायक का सारा धन लेकर ही उसे छोड़ा है, तो न तो वह अधिक धन ही दे 
सकेगा ओर न उसे विश्वास दिलाना ही सरल है; जबकि नया नायक सरलता से अनुरक्त किया 
जा सकता है- यह आचार्य वात्स्यायन का मत हे ॥ ३६॥ 
तथापि पुरुषप्रकृतितो विशेषः ॥ ३७॥ 
पुरुष का स्वभाव ही प्रमुख- तथापि इसमे पुरुष का स्वभाव ही प्रमुख होता है ॥ ३७॥ 
भवन्ति चात्र श्लोकाः- 
अन्यां भेदयितुं गम्यादन्यतो गम्यमेव वा। 


९७६ वात्स्यायन-कामसूत्र 


स्थितस्य चोपघातार्थ पुनः सन्धानमिष्यते ॥ ३८ ॥ 
प्रतिसन्धान के कारण : वियुक्तगत कारण-इस विषय में आनुवंश्य श्लोक उद्धृत 
करते है- 
गम्य नायक से अन्य वेश्या क। अलग करने के लिये, अन्य वेश्या से मिलने वाले नायक 
को अलग करने के,लिये ओर उसको धन को हानि पहुंचाने के लिये वियुक्त नायक पुनः 
मिलाया जाता है ॥ ३८ ॥ 
बिभेत्यन्यस्य संयोगाद्‌ व्यलीकानि च नेक्षते। 
अतिसक्तः पुमान्‌ यत्र भयाद्‌ बहु ददाति च॥ ३९॥ 
वर्तमानगत कारण- जो अत्यन्त आसक्त नायक, नायिका के साथ अन्य के संसर्ग से 
डरता है ओर उसके अपराधों को भी नहीं देखता, एेसा पुरुष डरते डरते बहुत धन दे 
देता है ॥ ३९॥ 
असक्तमभिनन्देत सक्तं परिभवेत्‌ तथा । 
अन्यदूतानुपाते च यः स्यादतिविशारदः ॥ ४०॥ 
नायक को परामर्श- जो नायक अत्यन्त निपुण हो, उसे चाहिये कि किसी अन्य के दूत 
के आ जाने पर, उसके सामने असमर्थ कौ प्रशंसा ओर समर्थ को निन्दा करे ॥ ४०॥ 
तत्रोपयायिनं पूर्वं नारी कालेन योजयेत्‌। 
भवेच्याच्छिन्नसन्धाना न च सक्तं परित्यजेत्‌ ॥ ४९॥ 
नायिका को परामर्श- वेश्या को चाहिये कि यदि नया समर्थ ओर वियुक्त प्रमो, दोनों 
आ रहे हों तो दोनों को समय समय पर ही मिलाये अर्थात्‌ पहले नये धनवान्‌ को समागम का 
अवसर दे ओर फिर वियुक्त प्रेमी को । न वियुक्त नायक के साथ ही मिलन में हिचकिचाहट करे 
ओर न ही नये धनवान्‌ नायक का ही परित्याग करे ॥ ४१॥ 
सक्तं तु वशिनं नारी सम्भाव्याप्यन्यतो व्रजेत्‌। 
ततश्चार्थमुपादाय सक्तमेवानुरञ्जयेत्‌॥ ४२॥ 
समर्थं ओर अनुरक्त को प्राथमिकता- वेश्या वशीभूत समर्थ पुरुष से कहकर अन्य के 
पास चली जाये ओर वहां से धन लाकर समर्थ पुरुष को विधिवत्‌ प्रसन्न करे ॥ ४२॥ 
आयतिं प्रसमीक्ष्यादौ लाभं प्रीति च पुष्कलाम्‌। 
सौहृदं प्रतिसन्दध्याद्विशीर्ण स्त्री विचक्षणा ॥ ४२॥ 
वियुक्त को मिलाते समय ध्यातव्य बातें-- चतुर वेश्या को चाहिये कि सर्वप्रथम 
प्रभाव, लाभ, अत्यधिक प्रेम ओर सौहार्दं को देख ले, तभी वियुक्त नायक को मिलाये ॥ ४३॥ 


अर्थागमोपाय प्रकरण नामक तृतीय अध्याय सम्पन्न ॥ 


६. वैशिक अधिकरण १९७७ 


प्रम ध्याय 
लाभविशेषप्रकरण 
गम्यवाहुल्ये बहु प्रतिदिनं च लभमाना नैकं प्रतिगृह्णीयात्‌ ॥ ९॥ 

अपरिग्रह का कारण- मिलने वाले पुरुषों को अधिकता होने पर प्रतिदिन बहुत मिले, 
तो एक को ही न स्वीकारे अर्थात्‌ नित्य नये नये पुरुषों को सम्भोग का अवसर प्रदान करे ॥ १॥ 

देशं कालं स्थितिमात्मनो गुणान्‌ सौभाग्यं चान्याभ्यो न्यूनातिरिक्ततां चावेक्ष्य 
रजन्यामर्थ स्थापयेत्‌॥ २॥ 

एक रात कौ फीस (८ शुल्क )- देश, काल, अपनी स्थिति, गुण, सौभाग्य ओर दूसरी 
वेश्याओं से अपने रूप, सौन्दर्य, गुण आदि कौ अधिकता या न्यूनता देखकर ही अपनी एक रात 
का शुल्क नियत करे ॥ २॥ 

गम्ये दूतांश्च प्रयोजयेत्‌। तत्प्रतिबद्धाोंश्च स्वयं प्रहिणुयात्‌ ॥ २॥ 

दूत भेजने को रीति- समागम योग्य पुरुषों का अभिप्राय जानने के लिये अपने दूत लगा 
दे ओर नायक के सम्पर्क वाले व्यक्तियों से स्वयं कहे ॥ ३॥ 

द्विस्तिश्चतुरिति लाभातिशयग्रहार्थमेकस्यापि गच्छेत्‌। परिग्रहं च चरेत्‌॥ ४॥ 

अधिक लाभको रीति-एक से अधिक लाभ पाने कौ इच्छा से दो, तीन चार रात एक 
नियत शुल्क पर ही समागम करे ओर पत्नी कौ तरह उसकी सेवा करता रहे ॥ ४॥ 

गम्ययोगपद्ये तु लाभसाम्ये यद्द्व्यार्थिनी स्यात्तदायिनि विशेषः प्रत्यक्ष 
इत्याचार्याः ॥ ५॥ 

एक साथ आने वालों से अधिक लाभ- मिलने योग्य पुरुषों के एक साथ आने पर 
ओर समान लाभ (फीस) होने पर भी वेश्या जिसका धन ले लेगी, वह दूसरों से अधिक ही 
देगा, यह स्पष्ट है-एेसा कामशास्त्र के पूर्वं आचार्यो का मत है ॥ ५॥ 

अप्रत्यादेयत्वात्‌ सर्वकार्याणां तन्मूललत्वाद्धिरण्यद इति वात्स्यायनः ॥ ६॥ 

क्योकि सिक्षा (धन) अविश्वास की अवस्था में भी नहीं लौटाया जा सकता ओर वही 
सरे कार्य सम्पन्न करने का साधन है, इसलिये सिक्का देने वाला ही गम्य है-एेसा आचार्य 
वात्स्यायन का मत हे ॥ ६॥ 

सुवर्णरजतताग्रकांस्यलोहभाण्डोपस्करास्तरणप्रावरणवासोविशेषगन्धद्रव्य- 
कटुकभाण्डधृततैलधान्यपशुजातीनां पूर्वपूर्वतो विशेषः ॥ ७॥ 

फीस का स्वरूप- सोना, चांदी, तोंबा, कांसा, लोहा, बर्तन, सामान, बिस्तर, लिहाफ, 
अन्य वस्त्र, द्रव्य, काली मिर्च, घडा (कलश), घी, तेल, अन्न, पशु-इन वस्तुओं में उत्तरोत्तर 
कौ अपेक्षा पूर्व पूर्वं उत्तम हे ॥ ७॥ 

यत्तत्र॒ साम्याद्वा द्रव्यसाम्ये मित्रवाक्यादतिपातित्वादायतितो गम्यगुणतः 
प्रीतितश्च विशेषः ॥ ८ ॥ 

समानता में प्राथमिकता- यदि दो समान प्रेमी हों या समान धन देने वाले हों तो मित्र 


१७८ वात्स्यायन-कामसूत्र 


लोग जिसे अभीष्ट समजले अथवा जिस नायक को अधिक गुणी, सुन्दर ओर प्रभावशाली समज, 
उसी को दी हुई वस्तु ग्रहण करे ॥ ८॥ 
रागित्यागिनोस्त्यागिनि विशेषः प्रत्यक्ष इत्याचार्याः ॥ ९॥ 

रागी से त्यागी की श्रेष्ठता- अनुरक्त नायक कौ अपेक्षा दानशील त्यागी से अधिक लाभ 

प्रत्यक्ष ही है-एेसा कामशास्त्र के आचार्यो का मत है ॥ ९॥ 
शक्यो हि रागिणि त्याग आधातुम्‌॥ १०॥ 

उपायो द्वारा रागी कौ त्यागशीलता भी सम्भव- अनुरक्त नायक को उपायों द्वारा 
त्यागशील बनाया जा सकता है ॥ १०॥ 

लुब्धोऽपि हि रक्तस्त्यजति न तु त्यागी निर्बन्धाद्रज्यत इति वात्स्यायनः ॥ १९॥ 

अनुरक्त होने पर तो लोभी पुरुष भी धन दे सकता है, किन्तु त्यागशील को उपायों द्वारा 
अनुरक्त नहीं किया जा सकता- यह आचार्य वात्स्यायन का मत हे ॥ ११॥ 

तत्रापि धनवदधनवतोर्धनवति विशोषः। त्यागप्रयोजनकर्त्रोः प्रयोजनकर्तरि 
विशेषः प्रत्यक्ष इत्याचार्याः ॥ ९२॥ 

निर्धन से धनवान्‌ ओर त्यागशील से कार्यसाधक श्रेष्ठ- इसमें भी निर्धन कौ अपेक्षा 
धनवान्‌ श्रेष्ठ है ओर त्यागशील को अपेक्षा वेश्या का स्वार्थसाधक श्रेष्ठ है-एेसा कामशास्त्र के 
पूर्व आचार्यो का मत है ॥ १२॥ | 

प्रयोजनकर्ता सकृत्कृत्वा कृतिनमात्मानं मन्यते त्यागी पुनरतीतं नापेक्षत इति 
वात्स्यायनः॥ १३॥ 

वेश्या का कार्य सिद्ध करने वाला तो एक बार कार्य सिद्ध करके अपने को कृती मान लेता 
है, किन्तु त्यागशील तो अतीत में दिये गये धन के विषय में सोचता ही नहीं है-एेसा आचार्य 
वात्स्यायन का मत है ॥ १२॥ 

तत्राप्यात्ययिकतो विशेषः ॥ १४॥ 

आवश्यकतानुसार विशिष्ट- आवश्यकतानुसार इन दोनों में भी विशेषता होती 

हे ॥ १४॥ 
कृतज्ञत्यागिनोस्त्यागिनि विशेषः प्रत्यक्ष इत्याचार्याः ॥ ९५॥ 

कृतज्ञ ओर त्यागी- कृतज्ञ ओर त्यागी- दोनों में त्यागी से विशेष लाभ प्राप्त किया जा 
सकता है-एेसा कामशास्त्र के आचार्यो का मत है ॥ १५॥ 

चिरमाराधितोऽपि त्यागी व्यलीकमेकमुपलभ्य प्रतिगणिकया वा 
मिथ्यादूषितः श्रममतीतं नापेक्षते ॥ ९६॥ 

त्यागी की न्यूनता- बहुत समय तक उपायों द्वारा सिद्ध किया गया त्यागी, वेश्या के एक 
ही अपराध को देखकर अथवा प्रतिगणिका (स्पध वेश्या) द्वारा बहकाये जाने पर वेश्या द्वारा 
उठाये गये कष्टो को नहीं देखता ॥ १६॥ 

प्रायेण हि तेजस्विन ऋजवोऽनादृताश्च त्यागिनो भवन्ति॥ ९७॥ 


६. वैशिक अधिकरण १७९ 


त्यागियों का स्वभाव- प्रायः त्यागी तेजस्वी, सरल (निष्कपट) ओर अनादर कोन 
सह पाने वाले होते हे ॥ १७॥ 

कृतज्ञस्तु पूर्वश्रमापेक्षी न सहसरा विरज्यते। परीक्षितशीलत्वाच्च न मिथ्या 
दृष्यत इति वात्स्यायनः ॥ १८॥ 

कृतज्ञ-- कृतज्ञ नायिका के परिश्रम को समङ्ञता है इसलिये अकस्मात्‌ विरक्त नहीं होता। 
क्योकि वह नायिका के शील की परीक्षा किये रहता है इसलिये स्पर्धी वेश्या के बहकावे में नहीं 
आता-एेसा आचार्य वात्स्यायन का मत है ॥ १८॥ 

तत्राप्यायतितो विशेषः ॥ ९९॥ 

रागी, त्यागी, कृतक्ञ- तीनों मे विशेष- रागी, त्यागी ओर कृतक्ञ-इन तीनो में से 

भविष्य के प्रभाव को देखकर ही लाभ उठाना चाहिये ॥ १९॥ 
मित्रवचनार्थागमयोरर्थागमे विशेषः प्रत्यक्ष इत्याचार्याः ॥ २०॥ 

मित्रवाक््य ओर अर्थप्राति में प्राथमिकता-मित्रों के परामर्शं ओर अर्थप्राप्ति-इन 
दोनों में अर्थप्राप्ति मे विशेष लाभ तो प्रत्यक्ष ही है-एेसा कामशास्त्र के पूर्वं आचार्यो का मत 
है ॥ २०॥ 

सोऽपि ह्यर्थागमो भविता। मित्रं तु सकृद्वाक्ये प्रतिहते कलुषितं स्यादिति 
वात्स्यायनः । २९॥ 

मित्रों का परामर्शं न मानने पर धन तो मिलेगा ही, पर अपनी बात न मानने पर वे अप्रसन्न 
हो जायेगे- यह आचार्य वात्स्यायन का मत है ॥ २९॥ 

तत्राप्यतिपाततो विशेषः ॥ २२॥ 

इस अर्थसञ्चय में भी फिर न मिलने वाले को प्राप्त कर लेना चाहिये। उस समय कौं 
अपेक्षा से जो अर्थं फिर हाथ न आये, उसे प्राप्त कर लेना चाहिये, यह विशेष लाभ है ॥ २२॥ 

तत्र कार्यसन्दरशनेन मित्रमनुनीय श्वोभूते वचनमस्त्विति ततोऽतिपातिनमर्थं 
प्रतिगृह्णीयात्‌ ॥ २३॥ 

मित्रों से अनुनय-विनय-- कार्य के बहाने मित्र से अनुनय विनय कर तात्कालिक लाभ 
प्राप्त कर ले ओर उनसे कहे कि कल आपकी बात अवश्य मानूंगी ॥ २३॥ 

अर्थागमानर्थप्रतीघातयोरर्थागमे विशेषः प्रत्यक्ष इत्याचार्याः ॥ २४॥ 

अर्थप्राति ओर अनर्थनिवारण- अर्थं की प्राप्ति ओर अनर्थं के निवारण में अर्थक 
प्राति में ही विशेष लाभ है-एेसा कामशास्त्र के आचार्यो का मत है ॥ २४॥ 

अर्थः परिमितावच्छेदः, अनर्थः पुनः सकृत्प्रसृतो न ज्ञायते क्वावतिष्ठत इति 
वात्स्यायनः ॥ २५॥ 

अर्थ की प्रापि तो नियमित रूप से होती ही रहती है, किन्तु यदि अनर्थ एक बार प्रारम्भ 
हो जाये तो पता नहीं कब तक चलता रहे, इसलिये पहले उस पर ही ध्यान देना चाहिये-एेसा 
आचार्य वात्स्यायन का मत है ॥ २५॥ 


९८० वात्स्यायन-कामसूत्र 


तत्रापि गुरुलाघवकृतो विशेषः ॥ २६॥ 
व्यवस्थाविषयक विचार- यहां भी न्यूनाधिक समञ्लकर ही विशेष को ग्रहण करना 
चाहिये ॥ २६॥ 
एतेनार्थसंशयादनर्थप्रतीकारे विशेषो व्याख्यातः ॥ २७॥ 
सिद्धान्त का स्पष्टीकरण- इस कथन से यह बात भी कह दी गयी है कि अर्थ के संशय 
से अनर्थं के निवारण में ही विशेष लाभ है ॥ २७॥ 
देवकुलतडागारामाणां करणम्‌, स्थलीनामग्निचेत्यानां निबन्धनम्‌, 
गोसहस्राणां पात्रान्तरितं ब्राह्मणेभ्यो दानम्‌, देवतानां पूजोपहारप्रवर्तनम्‌, 
तद्वययसदिष्णोर्वा धनस्य परिग्रहणमित्युत्तमगणिकानां लाभातिशयः ॥ २८ ॥ 
उत्तम गणिकाओं के लाभ--देवमन्दिर बनवाना, कूआ-बावड़ी खुदवाना, बाग 
लगवाना, आवागमन के लिये पुल बनवाना, निवासस्थान के बाहर मिट का घर या मन्दिर 
बनवाकर अग्निहोत्र कराना, किसी को माध्यम बनाकर ब्राह्मणों को एक हजार गाये दान देना, 
देवताओं के भोग एवं प्रसाद का प्रबन्ध करना-इन धार्मिक ओर लोकोपकारी कार्यो के व्यय 
को सहन कर ले, इतना धन उत्तम गणिकाओं का अतिशय लाभ हे ॥ २८॥ 
सावद्धिकोऽलङ्कारयोगो गृहस्योदारस्य करणम्‌। महा्हैर्भाण्डेः परिचारकेश्च 
गृहपरिच्छदस्योज्वलतेति रूपाजीवानां लाभातिशयः॥ २९॥ 
रूपाजीवा के लाभ-- सम्पूर्णं शरीर पर आभूषण धारण करना, निवासस्थान को 
कलात्मक ढंग से सजाकर रखना ओर उसमें बहुमूल्य बर्तनों ओर नौकरों द्वारा गृह के भीतरी 
भाग को साफ-सुथरा ओर सुसज्जित रखना- ये रूपाजीवा के विशेष लाभ है ॥ २९॥ 
नित्यं शुक्लमाच्छादनमपक्षुधमन्नपानं नित्यं सौगन्धिकेन ताम्बूलेन च योगः 
सहिरण्यभागमलङ्करणमिति कुम्भदासीनां लाभातिशयः ॥ ३०॥ 
कुम्भदासी के लाभ-- नित्य साफ सुथरे कपड़े पहनना, भरपेर स्वादिष्ठ भोजन करना, 
सुगन्धित तेल प्रयोग करना, सुवासित पान खाना, चांदी के आभूषणों के साथ एकाध सोने का 
आभूषण भी पहनना-ये कुम्भदासियों के अतिशय लाभ है ॥ ३०॥ 
एतेन प्रदेशेन मध्यमाधमानामपि लाभातिशयान्‌ सर्वासामेव योजयेदित्या- 
चार्याः ॥ ३९॥ 
लाभ पर आचार्यो का मत- जो ऊपर गणिका, रूपाजीवा ओर कुम्भदासी के विशेष 
लाभ बताये गये है, उनको इसी रीति से मध्यम ओौर अधम के साथ भी समङ्ञ लेना चाहिये- 
यह कामशास्त्र के पूर्वाचार्यो का मत है ॥ ३१॥ 
देशकालविभवसामथ्यनुरागलोकप्रवृत्तिवशादनियतलाभादियमवृत्तिरिति 
वात्स्यायनः ॥ ३२॥ 
देश, काल, वैभव, सामर्थ्य, अनुराग ओर लोकप्रवृत्ति (लोकाचार) के कारण लाभ 
निश्चित नहीं रहता, अतएव वेश्या की वृत्ति सदैव अनियत ओर अनियमित रहती है- यह 
आचार्य वात्स्यायन का मत है ॥ ३२॥ 


६. वैशिक अधिकरण १८९१ 


गम्यमन्यतो निवारयितुकामा सक्तमन्यस्यामपहर्तुकामा वा अन्यां वा लाभतो 
वियुयुक्षमाणागम्यसंसर्गादात्मनः स्थानं वृदधिमायतिमभिगम्यतां च मन्यमाना 
अनर्थप्रकारे वा साहाय्यमेनं कारयितुकामा सक्तस्य वान्यस्य व्यलीकार्थिनी 
पूर्वोपकारमकृतमिव पश्यन्ती केवलप्रीत्यर्थिनी वा कल्याणबुद्धेरल्पमपि लाभं 
प्रतिगृह्णीयात्‌ ॥ ३३ ॥ 

अल्प लाभ के स्थान- यदि वेश्या अपने नायक को किसी अन्य वेश्या के पास जाने से 
रोकना चाहे, अन्य नायिका के धनवान्‌ नायक को आकृष्ट करना चाहे, अन्य नायिका को 
आर्थिक हानि पहुंचाना चाहे, नायक के साथ संसर्ग से उचित स्थान, वृद्धि, उज्वल भविष्य ओर 
नायको को इच्छा को वस्तु बनवाना चाहे, अनर्थो के निवारण में उसको सहायता की इच्छा रखे 
अथवा पहले किये गये उपकारो को भूलकर निर्धन नायक को निकलवाना चाहे ओर किसी 
शुभचिन्तकं प्रेमी को अपना बनाना चाहे तो वेश्या अल्प लाभ भी ले सकती है ॥ ३३॥ 

आयत्यर्थिनी तु तमाश्रित्य चानर्थं प्रतिचिकोर्षन्ती नैव प्रतिगृह्णीयात्‌ ॥ २४॥ 

लाभ न लेने के स्थान-- भविष्य में प्रभाव चाहने वाली वेश्या, जिसके बल पर अनर्थो 
को रोकना चाहे, उससे कुछ न ले ॥ ३४॥ 

त्यक्ष्याम्येनमन्यतः प्रतिसन्धास्यामि, गमिष्यति दारर्योक्षयते नाशयिष्यत्य- 
नर्थान्‌, अदङ्कुशभूत उत्तराध्यक्षोऽस्यागमिष्यति स्वामी पिता वा, स्थानभ्रंशो वास्य 
भविष्यति चलचित्तश्चेति मन्यमाना तदात्वे तस्माल्लाभमिच्छेत्‌॥ २५॥ 

तत्काल लाभ के स्थान-इस नायक को छोडकर अन्य से सम्बन्ध बनाऊंगी, यह 
स्वयं चला जायेगा, अपनी सियो से मिल जायेगा, यह अनर्थो को नष्ट कर देगा, इसके ऊपर 
स्वामी या पिता का अंकुश विद्यमान है अथवा इसका पद या अधिकार भ्रष्ट हो जायेगा,यह 
चञ्चल चित्त का व्यक्ति है-- यदि वेश्या एेसा समञ्ञे तो तत्काल जो लाभ मिल सकता हो, प्राप्त 
कर ले ॥ ३५॥ 

प्रतिज्ञातमीश्चरेण प्रतिग्रहं लप्स्यते अधिकरणं स्थानं वा प्राप्स्यति वृत्ति- 
कालोऽस्य वा आसन्नः बाहनमस्यागमिष्यति स्थलपत्रं वा सस्यमस्य पक्ष्यते कृतम- 
स्मिन्न नश्यति नित्यमविसंवादको वेत्यायत्यामिच्छेत्‌। परिग्रहकल्पं वाचरेत्‌ ॥ ३६॥ 

भविष्य में लाभ के स्थान- राज्य या शासन से इसे धन को प्राति निश्चित रूप से होगी, 
इसको महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त होगा या इसे किसी प्राधिकरण का प्रमुख बनाया जायेगा, इसकी 
जीविकाप्राति का समय निकट ही है, इसका वाहन व्यापारिक वस्तुएँ बेचकर शीघ्र ही आने 
वाला है, इसकी भूमि ऊर्वर है, इसकी फसल पक रही है, यह कृतज्ञ है, इसलिये इसके साथ 
संसर्ग हानिकारक नहीं है, यह कभी ञ्ुठ नहीं बोलता, इसलिये कहकर अवश्य देगा- यदि 
एेसी स्थिति हो तो भविष्य में लाभ की इच्छा रखे ओर पत्री के समान उसको सेवा करे ॥ ३६॥ 

भवन्ति चात्र श्रकाः- 

कृच्छराधिगतवित्तंश्च राजवल्लभनिष्ठरान्‌। 
आयत्यां च तदात्वे च दूरादेव विवर्जयेत्‌॥ २७॥ 


९८२ वात्स्यायन-कामसूत्र 


अग्राह्य पुरुष- जिन्हे कठिनता से धन मिला हो, जो राजा को प्रसन्न करने के लिये क्रूर 
कर्म करते हों, उनसे तत्काल या भविष्य में अधिक लाभ को सम्भावना भी हो तब भी उनसे दूर 
ही रहना चाहिये ॥ ३७॥ 
अनर्थो वर्जने येषां गमनेऽभ्युदयस्तथा । 
प्रयत्नेनापि तान्‌ गृह्य सापदेशमुपक्रमेत्‌॥ २८ ॥ 
ग्राह्य पुरुष- जिनको ना करने पर अनर्थ कौ सम्भावना हो ओर मिलने पर अभ्युदय कौ 
प्रापि निश्चित हो, एेसे नायको को प्रयत्नपूर्वक आकृष्ट करके समागम का अवसर देना 
चाहिये ॥ ३८॥ 
प्रसन्ना ये प्रयच्छन्ति स्वल्पेऽप्यगणितं वसु। 
स्थूललश््यान्महोत्साहोस्तान्‌ गच्छेत्‌ स्वैरपि व्ययैः ॥ २९॥ 
अर्थप्रयोजन के पूरक नायक - जो अल्प प्रसन्नता पर भी असीमित धन दे देते है, एेसे 
स्थूल लक्ष्य वाले पुरुषों को अपना धन खर्च करके भी मिलाना चाहिये ॥ ३९॥ 


लाभविशेषप्रकरण नामक पड्म अध्याय पूर्ण हुआ ॥ 


सद ध्याय 


अर्थानर्थानुबन्धसंशयविचारप्रकरण 
अर्थानाचर्यमाणाननर्था अप्यनूद्धवन्त्यनुबन्धाः संशयाश्च ॥ ९॥ 

अर्थोपाजन के लिये प्रयास करती हुई वेश्या के समक्ष अनेक प्रकार के अनर्थ, अनुबन्ध 
ओर संशय उत्पन्न हो जाते है ॥ १॥ 

ते बुद्धिदौर्बल्यादतिरागादत्यभिमानादतिदम्भादत्यार्जवादतिविश्वासादति- 
क्रोधात्‌ प्रमादात्‌ साहसादैवयोगाच्च स्युः ॥ २॥ 

अनर्थत्रिवर्ग की उत्यत्ति के कारण- अनर्थ, उनके अनुबन्ध ओर संशय इन कारणों 
से उत्पन्न होते है- बुद्धि की दुर्बलता से, अधिक प्रेम से, अतिशय अभिमान से, अत्यधिक 
सरलता से, अत्यन्त विश्वास करने से, अतिक्रोध से, प्रमाद (असावधानी ) से, अविवेकपूर्ण कार्य 
करने से ओर दैवयोग से ॥ २॥ 

तेषां फलम्‌- कृतस्य व्ययस्य निष्फलत्वमनायतिरागमिष्यतोऽर्थस्य निवर्तन- 
मापततस्य निष्क्रमणं पारुष्यस्य प्रािर्गम्यता शरीरस्य प्रघातः केशानां छेदनं 
पातनमङ्कवैकल्यापत्तिः॥ ३॥ 

दुष्यरिणाम-इनके ये दुष्परिणाम है--किये गये खर्च का निष्फल हो जाना, प्रभाव ओर 
अनुराग का मिट जाना, हाथ आते धन का न मिलना ओर प्राप्त धन का हाथ से निकल जाना, 


६. वैशिक अधिकरण ९८३ 


स्वभाव में कठोरता आना, अपनी गम्यता ओर शरीर का उपघात (विनाश), बालों का काट 
लिया जाना, बन्धन एवं ताडन तथा अङ्ग-भङ्ग कर देना ॥ ३॥ 
तस्मात्तानादित एव परिजिहीरषदर्थभूविष्टठो्चोपेक्षेत ॥ ४॥ 
उपाय का समुचित समय- अतएव वेश्या को चाहिये कि बुद्धि कौ दुर्बलता आदि 
अनर्थ के कारणों को प्रारम्भ से ह दूर कर दे ओर यदि उनसे अधिक धन भी मिलताहोतोभी 
उनको उपेक्षा कर दे ॥ ४॥ 
अर्थो धर्मः काम इत्यर्थत्रिवर्गः ॥ ५॥ 
अर्थ, धर्म ओर काम-- यह अर्थत्रिवर्ग कहलाता हे ॥ ५॥ 
अनर्थोऽधर्मो द्वेष इत्यनर्थत्रिवर्गः ॥ ६॥ 
अनर्थत्निवर्ग-- अनर्थ, अधर्म ओर देष- यह अनर्थत्रिवर्ग हे ॥ ६॥ 
तेष्वाचर्यमाणेष्वन्यस्यापि निष्यत्तिरनुबन्धः ॥ ७॥ 
अनुबन्ध-स्वरूप-- अर्थं आदि को सिद्ध करते हुए, उसके साथ जो दूसरा स्वतः सिद्ध 
हो जाये, उसे * अनुबन्ध ' कहते हँ ॥ ७॥ 
सन्दिग्धायां तु फलप्राप्तौ स्याद्वा न वेति शुद्धसंशयः ॥ ८ ॥ 
शद्धसंशय-“ यह होगा या नहीं ' ? इस प्रकार फलप्राति में सन्देह होना ' शुद्ध संशय" 
कहलाता हे ॥ ८ ॥ 
इदं वा स्यादिदं वेति सङ्कीर्णः ॥ ९॥ 
संकीर्णसंशय-' यह फल होगा या यह फल ' ?- यह सङ्कीर्णसंशय है ॥ ९ ॥ 
एकस्मिन्‌ क्रियमाणे काये कार्यद्वयस्योत्पत्तिरुभयतोयोगः ॥ ९०॥ 
उभयतोयोग- जब एक कार्य करने पर दूसरे कार्य कौ उत्पत्ति स्वतः हो जाये तो उसे 
"उभयतो योग ' कहते है ॥ १०॥ 
समन्तादुत्यत्तिः समन्ततोयोग इति तानुदाहरिष्यामः॥ १९॥ 
समन्ततोयोग- जब चारों ओर से उत्पत्ति हो तो उसे * समन्ततो योग" कहते है । इसके 
उदाहरण आगे देगे ॥ ११॥ 
विचारितरूपोऽर्थत्रिवर्गः । तद्विपरीत एवानर्थत्रिवर्गः ॥ १२॥ 
दोनों त्रिवर्ग- जिसके स्वरूप पर विचार किया जा चुका है वह अर्थत्रिवर्गं है । इसके 
विपरीत अनर्थत्रिवर्ग है ॥ १२॥ 
यस्योत्तमस्याभिगमने प्रत्यक्चषतोऽर्थलाभो ग्रहणीयत्वमायतिरागमः प्रार्थनीयत्वं 
चान्येषां स्यात्सोऽर्थोऽर्थानुबन्धः ॥ ९३॥ 
अर्थं के साथ अर्थं का अनुबन्थ- जिस उत्तम नायक के साथ समागम करने पर 
नायिका को केवल अर्थलाभ ही न हो, अपितु उस का प्रभाव बद्‌ जाये, वह अन्य नायकं के 
लिये आकांक्षा की वस्तु बन जाये, वे समागम हेतु प्रार्थना कर ओर नायिका को अर्थ कौ प्राति 
हो तो यह अर्थ प्रथम या प्रधान अर्थ के साथ सम्बद्ध होने के कारण अर्थोऽर्थानुबन्धः (अर्थ का 
अर्थं के साथ अनुबन्ध) कहलाता है ॥ १२३॥ 


९८४ वात्स्यायन-कामसूत्र 


लाभमात्रे कस्यचिदन्यस्य गमनं सोऽर्थो निरनुबन्धः ॥ १४॥ 
अनुबन्धरहित अर्थ- केवल अर्थलाभ कौ दृष्टि से किसी से भी समागम कर लेना 
अनुबन्धरहित अर्थ है॥ १४॥ 
अन्यार्थपरिग्रहे सक्तादायतिच्छेदनमर्थस्य निष्क्रमणं लोकविद्धिष्टस्य वा 
नीचस्य गमनमायतिघ्नमर्थोऽन्थानुबन्धः ॥ ९५॥ 
अर्थं के साथ अनर्थं का अनुबन्ध-- नायक के हाथों पराया (चुराया हुआ) अर्थ लेने से 
वेश्या का प्रभाव कम होता हे ओर वह अर्थं भी निकल जाता है अथवा लोकद्रोही या अधम 
पुरुष के साथ समागम करने से प्रभाव कम होता है ओर एेसा अर्थ अनेक अनर्थो को उत्पन्न 
करता है, अतएव इसे अर्थोऽनुथनुबन्धः (अर्थ के साथ अनर्थं का अनुबन्ध ) कहते हें ॥ १५॥ 
स्वेन व्ययेन शूरस्य महामात्रस्य प्रभवतो वा लुब्धस्य गमनं निष्फलमपि 
व्यसनप्रतीकारार्थं महतश्चार्थघ्नस्य निमित्तस्य प्रशमनमायतिजननं वा सोऽनर्थो- 
ऽथनुबन्धः ॥ ९६॥ 
अनर्थ के साथ अर्थं का अनुबन्ध-- अपने व्यय पर किसी शूरवीर, प्रभावशाली पुरूष, 
महामन्त्री या लोभी के साथ समागम निष्फल (तत्काल अर्थहीनः) होने पर भी सङ्कट के निवारण 
के लिये, महान्‌ अर्थनाशक कारणों को शान्त करने के लिये ओर प्रभाव बढ़ाने के लिये तो है । 
इस प्रकार अर्थप्राति रूप एक प्रयोजन के सिद्ध न होने पर भी अनेक प्रयोजन सिद्ध करने वाला 
है--इसे ही “ अनर्थोऽर्थानुबन्धः '- अनर्थ का अर्थ से अनुबन्ध कहा जाता हे ॥ १६॥ 
कदर्यस्य सुभगमानिनः कृतघ्नस्य वातिसन्धानशीलस्य स्वैरपि व्ययैस्तथारा- 
धनमन्ते निष्फलं सोऽनर्थो निरनुबन्धः ॥ १७॥ 
अनुबन्धरहित अनर्थ- अपने को सुन्दर समञ्जने वाले, कृपण, कृतघ्न या अत्यधिक 
चाटुकारिता चाहने वाले पुरुष के साथ जब वेश्या अपने व्यय पर समागम करती है तो उसका 
धन ओर अनुराग, दोनों ही निष्फल हो जाते हँ । किसी के भी साथ सम्बद्ध न होने के कारण 
एेसा अनर्थं अनुबन्धरहित कहलाता हे ॥ १७॥ 
तस्यैव राजवल्लभस्य क्रौर्यप्रभावाधिकस्य तथेवाराधनमन्ते निष्फलं 
निष्कासनं च दोषकरं सोऽनर्थोऽन्थनुबन्धः ॥ ९८ ॥ 
अनर्थं के साथ अनर्थं का अनुबन्ध-- कृपण पुरुषों से केवल अनुबन्धरहित अनर्थं ही 
उत्पन्न हो, एेसा नहीं है; कभी-कभी अनर्थ से सम्बन्धित अनर्थ भी उत्पन्न हो जाते हँ । इसी 
प्रकार किसी क्रूर राजपुरुष या प्रशासनिक अधिकारी के साथ समागम करना निष्फल होता है 
ओर उसे निकाल देना अनेक अनर्थो को उत्पन्न करने वाला बन जाता है । इस प्रकार यह अनर्थं 
अपने साथ अनेक अनर्थो का सम्बन्ध रखने के कारण “अनर्थोऽनर्थानुबन्धः ' (अनर्थ का अनर्थ 
के साथ अनुबन्ध) कहलाता हे ॥ १८॥ 
एवं धर्मकामयोरप्यनुबन्धान्‌ योजयेत्‌॥ ९९॥ 
धर्म ओर काम की अनुबन्ध योजना- इसी प्रकार धर्म ओर काम के अनुबन्धो को भी 
योजना कर लेनी चाहिये ॥ १९॥ 


६. वैशिक अधिकरण ९१८५ 


परस्परेण च युक्त्या सद्धिरिदित्यनुबन्धाः ॥ २०॥ 
इनको परस्पर युक्तिपूर्वक मिलाये । इस प्रकार अनुबन्ध पूर्णं हए ॥ २०॥ 
परितोषितोऽपि दास्यति न वेत्यर्थसंशयः॥ २९॥ 

शुद्धसंशय : अर्थसंशय- सन्तुष्ट होने पर भी देगा या नहीं 2 यह अर्थसंशय है ॥ २१॥ 

निष्पीडितार्थमफलमुत्सृजन्त्या अर्थमलभमानाया धर्मः स्यान्न वेति धर्म- 
संशयः ॥ २२॥ 

धर्मसंशय- जिसका समस्त धन निचोड्‌ लिया हो ओर उससे कुछ धन का मिल पाने 
के कारण उसे छोडने को उद्यत हो, अर्थं न मिल पाने पर उसे छोड्ना वेश्या के लिये धर्म होगा 
या नहीं 2-इस प्रकार का संशय धर्मसंशय हे ॥ २२॥ 

अभिप्रेतमुपलभ्य परिचारकमन्यं वा क्षुद्रं गत्वा कामः स्यान्न वेति काम- 
संशयः ॥ २३॥ 

कामसंशय- अभीष्ट नायक को पाकर भी किसी अन्य आत्मीय सेवक या क्षद्रव्यक्ति के 
निकट जाकर "इसके साथ समागम करने पर काम होगा या नहीं ' ? इस प्रकार का सन्देह करना 
कामसंशय कहलाता है ॥ २३॥ 

प्रभाववान्‌ क्षुद्रोऽनभिगतोऽनर्थं करिष्यति न वेत्यनर्थसंशयः ॥ २४॥ 

अनर्थसंशय प्रभावशाली नीच पुरुष समागम का अवसर न मिलने पर अनर्थ करेगा या 
नहीं 2-- यह अनर्थसंशय है ॥ २४॥ 

अत्यन्तनिष्फलः सक्तः परित्यक्तः पितृलोकं यायात्तत्राधर्मः स्यान्न वेत्यधर्म- 
संशयः ॥ २५॥ 

अधर्मसंशय- समागम के लिये उत्सुक निर्धन नायक को प्रयोजनहीन मानकर छोड़ 
दिया गया हो ओर फिर यह सोचा जाये कि यदि यह मर जाये तो अधर्म होगा या नहीं 2-एेसा 
सन्देह अधर्मसंशय कहलाता है ॥ २५॥ 

रागस्यापि विवक्षायामभिप्रेतमनुपलभ्य विरागः स्यान्न वेति द्वेषसंशयः। इति 
शद्धसंशयाः ॥ २६॥ 

दवेषसंशय- कामव्यथा से पीडित वेश्या अभीष्ट नायक को न पाकर जब कामव्यथा के 
शमन के लिये छटपटाती है, उस समय उसे बिना मिले विराग होगा या नहीं, यह सन्देह 
देषसंशय कहलाता है । इस प्रकार शुद्ध संशयवर्णन पूर्णं हुआ।॥ २६॥ 

अथ सङ्कीर्णः ॥ २७॥ 

सद्धीर्णसंशय-- अब सङ्कीर्णसंशयों को कहते है ॥ २७॥ 

आगन्तोरविदितशीलस्य वल्लभसंश्रयस्य प्रभविष्णोर्वा समुपस्थितस्यारा- 
धनमर्थोऽनर्थ इति संशयः ॥ २८॥ 

अर्थं ओर अनर्थ की संकीर्णता- आश्रित या प्रभावशाली नायक को उपस्थिति में यदि 
अपरिचित पुरुष समागम के लिये आ जाये तो उसका आराधन अर्थकर है या अनर्थकर ?- यह 
सन्देह होना- यह अर्थ ओर अनर्थ का संशय है ॥ २८॥ 


९८६ वात्स्यायन- कामसूत्र 


श्रोत्रियस्य ब्रह्मचारिणो दीक्षितस्य व्रतिनो लिद्धिनो वा मां दृष्टा जातरागस्य 
मुमूर्षोर्मित्रवाक्यादानृशंस्याच्य गमनं धर्मोऽधर्म इति संशयः ॥ २९॥ 
धर्म ओर अधर्मं की संकोर्णता-- अपने को देखकर अनुरक्त हए वेदपाठी ब्राह्यण, 
ब्रह्मचारी, दीक्षित, ब्रती, साधु या मरने कौ इच्छा रखने वाले पुरुष के साथ मित्र के कथन पर 
अथवा अपनी दयालुता के कारण वेश्या का समागम करना धर्म होगा या अधर्म ?- यह 
धर्माधर्मसंशय कहलाता हे ॥ २९॥ 
लोकादेवाकृतप्रत्ययादगुणो गुणवान्‌ वेत्यनवेक्षय गमनं कामो देष इति 
संशयः ॥ ३०॥ 
काम ओर द्वेष कौ सद्धीर्णता- यह गुणवान्‌ है अथवा गुणहीन है ' इस बात का स्वयं 
विचार करके केवल लोकप्रवाद (संसार के कहने पर) से नायक के साथ समागम करने पर 
काम होगा या द्वेष ?-इस प्रकार का सन्देह काम ओर द्वेष की सङ्कीर्णता कहलाता हे ॥ ३०॥ 
सद्धिरेच्य परस्परेणेति सद्धीर्णसंशयाः ॥ ३९॥ 
जो परस्पर मिलने से संशय हो, वे सङ्कीर्णसंशय हैँ । इस प्रकार सद्कीर्णसंशय पूर्णं 
हुए ॥ ३१॥ 
यत्र परस्याभिगमनेऽर्थः सक्ताच्य सङ्घर्षतः स उभयतोऽर्थः ॥ ३२॥ 
उभयतः अर्थयोग- दूसरे नायक से अर्थ लेकर समागम करने से वेश्या पर आसक्त 
नायक भी दूसरे नायक से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये अर्थ देता है, तो दोनों ओर से अर्थ का 
योग होने से यह “उभयतो अर्थयोग' हुआ ॥ ३२॥ 
यत्र स्वेन व्ययेन निष्फलमभिगमनं सक्ताच्चामर्षिताद्वित्तप्रत्यादानं स उभ- 
यतोऽनर्थः॥ ३३॥ 
उभयत : अनर्थयोग- जहां नायिका अपना धन व्यय करके नायक के साथ समागम 
करती हे ओर निष्फल रहता है तथा दूसरी ओर अप्रसन्न अनुरक्त नायक से उसके द्वारा दिये गये 
अर्थ के छिन जाने का भय हो तो इसे “उभयतः अनर्थयोग' कहते हैँ ॥ ३३॥ 
यत्राभिगमनेऽर्थो भविष्यति न वेत्याशद्धा सक्तोऽपि सङ्कर्षादास्यति न वेति स 
उभयतोऽर्थसंशयः ॥ ३४॥ 
उभयतः अर्थसंशय- जिस समागम में “ अर्थ प्राप्त होगा या नहीं ' 2 यह शंका हो ओर 
अनुरक्त नायक भी संघर्ष के कारण देगा या नर्ही- यह संशय हो तो इसे “उभयतः अर्थसंशय' 
कहा जाता है ॥ ३४॥ 
यत्राभिगमने व्ययवति पूर्वो विरुद्धः क्रोधादपकारं करिष्यति न वेति सक्तो 
वामर्षितो दत्तं प्रत्यादास्यति न वेति स उभयतोऽनर्थसंशयः। इत्यौदालकेरुभयतो 
योगाः ॥ २५॥ | 
उभयतो अनर्थसंशय- अपने पास से व्यय करके अपूर्व नायक के साथ समागम करना 
पडे, इससे पूर्व नायक क्रोधवश अपकार कर देगा या नहीं ?- यह संशय हो अथवा अनुरक्त 
नायक भी अप्रसन्न होकर दिये गये धन को वापस न ले ले ?-यह संशय हो । इस प्रकार दोनों 


६. वैशिक अधिकरण ९.८७ 


ओर से अनर्थ का संशय होने पर “उभयतः अनर्थसंशय! होता है । उद्ालक के पुत्र श्वेकेतु 
द्वारा कहे गये उभयतो योग पूर्णं हुए ॥ ३५॥ 
बाभ्रवीयास्तु॥ ३६॥ 
इस विषय में आचार्य बाभ्रव्य के अनुयायी यह बताते हँ ॥ २६॥ 
यत्राभिगमनेऽर्थोनभिगमने च सक्तादर्थः स उभयतोऽर्थः ॥ ३७॥ 
उभयतः अर्थयोग- जिस उभयतो योग में पूर्वं नायक से समागम किये विना ही दूसरे 
(अपूर्व) से अर्थं प्राप्त कर लिया जाये ओर वाद में अनुरक्त नायक को भी प्रसन्न कर अर्थ प्राप्त 
किया जाये तो वह उभयतः अर्थयोग' कहलाता है ॥ ३७॥ 
यत्राभिगमने निष्फलो व्ययोऽनभिगमने च निष्प्रतीकारोऽनर्थः स उभयतोऽ- 
नर्थः॥ ३८ ॥ 
उभयतः अनर्थयोग- जिस समागम में निष्फल व्यय हो ओर समागम न करने पर 
अपरिहार्य संकट आने कौ आशंका हो, वह * उभयतः अनर्थयोग ' कहलाता हे ॥ ३८॥ 
यत्राभिगमने निर्व्ययो दास्यति न वेति संशयोऽनभिगमने सक्तो दास्यति न वेति 
स उभयतोऽर्थसंशयः ॥ ३९॥ 
उभयतो अर्थसंशय- जिस समागम में अपना तो कुछ खर्च न हो, लेकिन देगा या 
नहीं 2 यह सन्देह बना हुआ हो ओर अनुरक्त नायक भी विना समागम के देगा या नहीं 2- यह 
संशय हो तो यह "उभयतः अर्थसंशय' कहलाता हे ॥ ३९॥ 
यत्राभिगमने व्ययवति पूर्वो विरुद्धः प्रभाववान्‌ प्राप्स्यते न वेति 
संशयोऽनभिगमने च क्रोधादनर्थं करिष्यति न वेति स उभयतोऽनर्थसंशयः ॥ ४०॥ 
उभयतः अनर्थसंशय- अपने पास से व्यय करके किये गये जिस समागम मे यह संशय 
हो कि पूर्वं नायक जो प्रभावशाली पुरूष है, अव्र मिलेगा या नहीं ओर न करने पर यह संशय हो 
कि क्रोध से वह अनर्थं करेगा या नहीं, दोनों ओर से अनर्थं का सन्देह होने के कारण यह 
उभयतः अनर्थसंशय कहलाता है ॥ ४० ॥ 
एतेषामेव व्यतिकरेऽन्यतोऽर्थोऽन्यतोऽनर्थः, अन्यतोऽर्थोऽन्यतोऽर्थसंशयः, 
अन्यतोऽर्थोऽन्यतोऽनर्थसंशय इति षटूसङ्कीर्णयोगाः ॥ ४९॥ 
उभयतः संकीर्णं योग- इन्हीं के विषम प्रयोगो से एक-एक के छृह-छह संकोर्ण योग 
बनते है--एक से अर्थं एक से अनर्थ, एक से अर्थं एक से अर्थसंशय ओर एक से अर्थ एक से 
अनर्थ-संशय- ये तीन श्वेतकेतु के मत से ओर तीन ही बाभ्रवीय मत से, दोनों मिलाकर छह 
सङ्कीर्णं योग हुए। इस प्रकार छह सङ्कीर्णं योगो का विवेचन पूर्ण हुआ ॥ ४१॥ 
तेषु सहायैः सह विमृश्य यतोऽर्थभूयिष्ठोऽर्थसंशयो गुरुरनर्थप्रशमो वा ततः 
प्रवतेत ॥ ४२॥ 
विवेचन का प्रयोजन-इन संशयो के उपस्थित होने पर अपने सहायकं के साथ 
विचार कर, जिससे अधिक अर्थवाला संशय हो अथवा जिसमें महान्‌ अनर्थ कौ शान्ति हो, उसी 
के साथ समागम में प्रवृत्त होना चाहिये ॥ ४२॥ 
कामण १४ 


९८८ वात्स्यायन-कामसूत्र 


एवं धर्मकामावप्यनयैव युक्त्योदाहरेत्‌। सद्धिरिच्च परस्परेण व्यतिषञ्ज- 
येच्चेत्युभयतोयोगाः ॥ ४३ ॥ 

अवशिष्टो के शुद्ध, सङ्कीर्ण ओर संश्लष्ट- जिस युक्ति से अर्थ के शुद्ध उभयतो योग 
बताये गये हँ उसी युक्ति से धर्म ओर काम के भी शुद्ध उभयतो योग बना लें, अर्थं के समान ही 
इनके सङ्कीर्ण उभयतो योग भी बना लं, ओर फिर उनके विरोधी भाव हटाकर उन्हें परस्पर 
संरिलष्ट॒भी कर दें ॥ ४३॥ 

सम्भूय च विटाः परिगृहणन्त्येकामसौ गोष्ठीपरिग्रहः ॥ ४४ ॥ 

गोष्ठीपरिग्रह- बहुत से विर (रसलम्पट) मिलकर एक वेश्या के साथ रतिक्रीडा करें 

तो उसे “ गोष्ठीपरिग्रह ' कहते है ॥ ४४॥ 
सा तेषामितस्ततः संसृज्यभाना प्रत्येकं सङ्र्षादर्थ निर्वर्तयेत्‌ ॥ ४५॥ 

समन्ततो योग में वेश्या का कर्तव्य-- गोष्ठपरिग्रह वाली वेश्या को चाहिये कि इधर 
उधर मिलती हई, नायको से स्पर्धा कराकर उनसे धन प्राप्त कर ले ॥ ४५॥ 

सुवसन्तकादिषु च योगे यो मे इमममुं च सम्पादयिष्यति तस्याद्य गमिष्यति मे 
दुहितेति मात्रा वाचयेत्‌॥ ४६॥ 

स्पर्धा का कारण- वेश्या की माँ उसके नायको से यह कहलवा दे कि सुवसन्तक 
आदि उत्सव पर यह उसी के साथ प्रथम समागम करेगी, जो इन इन वस्तुओं को लाकर उसे 
देगा ॥ ४६ ॥ 

तेषां च सङ्खर्षजेऽभिगमने कार्याणि लक्षयेत्‌ ॥ ४७॥ 

उस समय जब नायक वेश्या से मिलने के लिये स्पर्धा करने लगे तो अपने लक्ष्य (लाभ) 
पर ही ध्यान रखे ॥ ४७॥ 

एकतोऽर्थः सर्वतोऽर्थः, एकतोऽनर्थः सर्वतोऽनर्थः, अर्धतोऽर्थः सर्वतोऽर्थः, 
अर्धतोऽनर्थः सर्वतोऽनर्थः- इति समन्ततो योगाः ॥ ४८.॥ 

लाभनिर्देश- एक से अर्थ सबसे अर्थ, एक से अनर्थ सबसे अनर्थ, आधों से अर्थ सबसे 
अर्थ, आधों से अनर्थं सबसे अनर्थ- ये समन्ततो योग हैँ ॥ ४८॥ 

अर्थसंशयमनर्थसंशयं च पूर्ववद्योजयेत्‌। सद्धिरेच्च तथा धर्मकामावपि। 
इत्य्थानर्थानुबन्धसंशयविचाराः ॥ ४९॥ 

पूर्ववत्‌ अर्थसंशय ओर अनर्थसंशय की योजना कर लेनी चाहिये, साथ ही संकीर्ण को भी 
समञ्च लेना चाहिये । इसी प्रकार धर्म ओर काम के समन्ततो योग भी समञ्च लेने चाहिये । इस 
प्रकार अनुबन्थ, अर्थ, अनर्थं ओर संशयो के विचार पूर्ण हए ॥ ४९॥ 

कुम्भदासी परिचारिका कुलटा स्वैरिणी नटी शिल्पकारिका प्रकाशविनष्टा 
रूपाजीवा गणिका चेति वेश्याविशेषाः ॥ ५०॥ 

कुम्भदासी, परिचारिका, कुलटा, स्वैरिणी, नटी, शिल्पकारिका, प्रकाशविनष्टा, रूपाजीवा 
ओर गणिका-ये वेश्या के भेद है ॥ ५०॥ 


७. ओपनिषदिक अधिकरण ९८९ 


सर्वासां चानुरूपेण गम्याः सहायास्तदुपरञ्जनमर्थागमोपाया निष्कासनं पुनः 
सन्धानं लाभविशेषानुबन्धा अर्थानर्थानुबन्धसंशयविचाराश्चेति वैशिकम्‌॥ ५१॥ 

जितने प्रकार की वेश्यां बतायी गयी है, उतने ही प्रकार के उनके मिलने वाले भी होते 
है । वेश्या उनके नायक, उनके सहायक, अनुरक्त करने के उपाय, अर्थप्राति के उपाय, धनहीन 
नायकं को निकालने कौ रीति, वियुक्त को मिलाने कौ रीति; लाभविशेष, अर्थ, अनर्थ, अनुबन्थ 
ओर संशयो का विचार-- यही इस अधिकरण के प्रमुख प्रतिपाद्य (विषय) हैँ ॥ ५१॥ 

भवतश्चात्र श्लोकौ-- 

रत्यर्थाः पुरुषा येन रत्य्थाश्चैव योषितः। 
शास्त्रस्यार्थप्रधानत्वात्तेन योगोऽत्र योषिताम्‌ ॥ ५२॥ 

इस विषय में दो आनुवंश्य श्लोक उद्धूत करते है- 

पुरुष ओर स्त्री, दोनों ही रतिसुख की कामना करते है, दोनों का प्रयोजन रतिसुख ही 
होता हे । क्योकि रतिसुख का केन्द्र स्त्री है, इसलिये स्त्रियों के रति प्रयोजन पर यहां विस्तार से 
विचार किया गया है ॥ ५२॥ 

सन्ति रागपरा नार्यः सन्ति चार्थपरा अपि। 
प्राक्तत्र वर्णितो रागो वेश्यायोगाश्च वैशिके ॥ ५३॥ 

उपसंहार- कुछ स्त्रियां शुद्ध राग की ही कामना करती हँ ओर कुछ रति के साथ धन 
की भी इच्छा करती है । रागिणी स्त्रियों का वर्णन तो पिछले अधिकरणों मे कर दिया गया है ओर 
जो रति (राग) के साथ धन की भी इच्छा करती है, उनका वर्णन इस अधिकरण में किया गया 
है ॥ ५३॥ 

अर्थानर्थानुबन्धसंशयविचारप्रकरण 
नामक षष्ठ अध्याय सम्पन्न ॥ 


७9. 


ओपनिषदिक नामक सप्तम अधिकरण 
प्रथम अध्याय | 
सुभगङ्करणादिप्रकरण 
व्याख्यातं च कामसूत्रम्‌॥ ९॥ 


स्वयं शास्त्रकार महर्षिं वात्स्यायन इस प्रकरण का सम्बन्ध बताते हुए कहते है- कामसूत्र 
की व्याख्या समाप्त हुई ॥ १॥ 


तत्रोक्तेस्तु विधिभिरभिप्रेतमर्थमनधिगच्छन्नौपनिषदिकमाचरेत्‌॥ २॥ 


१९० वात्स्यायन-कामसूत्र 


यदि पूर्वोक्त विधियो (तत्रः ओर आवापर)से अभीष्ट वस्तु की प्राति न हो सके तो इस 

ओपनिषदिक२े अधिकरण में बताये गये उपायों को प्रयोग में लाना चाहिये ॥ २॥ 
रूपं गुणो वयस्त्याग इति सुभगङ्करणम्‌॥ ३॥ 

सुभगङ्करण ८ सौन्दर्यवर्घक ) योग--रूप, गुण, अवस्था ओर उदारता-ये चार बातें 

मनुष्य को सौभाग्यशाली बनाती है ॥ ३॥ 
तगरकुष्ठतालीसपत्रकानुलेपनं सुभगङ्करणम्‌ ॥ ४॥ 

सौन्दर्यवर्धक योग- तगर, कूट ओर तालीशपत्र का लेप करना सौन्दर्य बढाता है ॥ ४॥ 

एतेरेव सुपिष्टर्वर्तिमालिम्प्याक्षतेलेन नरकपाले साधितमञ्जनं च ॥ ५॥ 

सुभगङ्ककरण काजल- उपर्युक्त वस्तुओं को पीसकर ओर रूई को वत्ती मेँ लपेटकर 
बहेडे के तैल मे जलाकर नरकपाल में अंजन बना ले॥ ५॥ 

पुनर्नवासहदेवीसारिवाक्ुरण्टोत्यलपत््रैश्च सिद्धं तेलमभ्यञ्जनम्‌॥ ६ ॥ 

सुभगङ्करण तैल- पुनर्नवा, सहदेवी, अनन्तमूल, कुरण्ट (पियास) ओर उत्पल 

(नीलकमल) -इन सबका तैल बनाकर लगाने से सौभाग्य-सौन्दर्य बढता हे ॥ ६॥ 
तद्युक्ता एव स्रजश्च ॥ ७॥ 

सुभगङ्कर माला- पुनर्नवा आदि वस्तुओं को माला में लगाकर पहने ॥ ७॥ 

पदोत्पलनागकेसराणां शोषितानां चूर्ण मधुघृताभ्यामवलिह्य सुभगो 
भवति॥ ८ ॥ 

सुभगङ्कर चटनी- पद्य (लाल कमल), उत्पल (नील कमल) ओर नागकेसर के चूर्णं 
को शहद ओर घी के साथ मिलाकर चाटने से भी सौन्दर्य (सौभाग्य) बढता है ॥ ८ ॥ 

तान्येव तगरतालीसतमालपत्रयुक्तान्यनुलिप्य ॥ ९॥ 

सुभगद्भूर लेप-इन वस्तुओं में तगर, तालीशपत्र ओर तमालपत्र मिलाकर सुभगङ्कर 
लेप भी तैयार होता है ॥ ९॥ 

मयूरस्याक्चि तरक्षोर्वां सुवर्णेनावलिप्य दक्षिणहस्तेन धारयेदिति सुभग- 
इरणम्‌॥ १०॥ 

सुभगङ्कर य॑त्रधारण- मोर ओर चीते कौ ओंखें सोने के ताबीज में भरकर दाहिने हाथ 
मे बधे ये सुभग बनाने के उपाय है ॥ १०॥ 

तथा बादरमणिं शङ्खमणिं च तथैव तेषु चाथर्वणान्योगान्‌ गमयेत्‌॥ ९९॥ 

इसी प्रकार बादरमणि ओर शङ्खमणि भी है । अथर्ववेद मेँ लिखे एेसे प्रयोगो को समञ्ञ 
लेना चाहिये ॥ ११॥ 

विद्यातन््नाच्च विद्यायोगात्‌ प्राप्तयौवनां परिचारिकां स्वामी संवत्सर- 


१. पूर्वोक्त रत्युत्पादक आलिङ्गन, चुम्बन आदि त्त्र कहलाते हँ । 
२. पूर्वो खरी आदि की प्राप्ति आवाप कही जाती है। 
३. गूढ या गोपनीय सिद्धान्त ओपनिषदिक कहलाते ह । 


७. ओपनिषदिक अधिकरण ९९९१ 


मात्रमन्यतो वारयेत्‌। ततो वारितां बालां वामत्वाल्लालसीभूतेषु गम्येषु योऽस्य 
संघर्षेण बहु दद्यात्तस्मै विसृजेदिति सौभाग्यवर्धनम्‌॥ १२॥ 

विद्यातन्त्र ओर विद्यायोग से यौवनावस्था को प्राप्त परिचारिका को स्वामी एक वर्ष तक 
समागम से रक्षित रखे । इस प्रकार रक्षित परिचारिका को दूसरे पुरुष बाला मानकर समागम ओर 
विवाह को इच्छा प्रकट करेगे । इस प्रकार लालसा कौ स्पर्धा में जो अधिक धनदे, उसी को 
परिचारिका सौप दे, यह परिचारिका के सौभाग्यवर्धन क्री विधि है ॥ १२॥ 

गणिका प्राप्तयौवनां स्वां दुहितरं तस्या विज्ञानशीलरूपानुरूप्येण तान- 
भिनिमन्य सारेण योऽस्या इदमिदं च दद्यात्‌ स पाणिं गृह्णीयादिति सम्भाष्य 
रक्षयेदिति॥ ९३॥ 

वेश्यापुत्री के विवाह की .रधि- गणिका अपनी युवा पुत्री को समान शील, रूप, गुण 
ओर यौवनसम्पन्न युवकों को आमन्त्रित कर उनकी गोष्ठी में यह घोषणा करे कि जो मेरी पुत्री 
को ये ये वस्तुएँ देगा उसी के साथ उसका विवाह कर दिया जायेगा-इस प्रकार अपनी पुत्री का 
विवाह कर उसके चरित्र को रक्षा करें ॥ १३॥ 

सा च मातुरविदिता नाम नागरिकपुत्रैर्धनिभिरत्यर्थं प्रीयेत ॥ ९४॥ 

वेश्यापुत्री का कर्तव्य- ओर उस वेश्यापुत्री को चाहिये कि वह उन धनी नागरिक पुत्रो 
के साथ इस प्रकार प्रेम प्रदर्शित करे मानो माँ को कुछ पता ही नहीं है ॥ १४॥ 

तेषां कलाग्रहणे गन्धर्वशालायां भिक्षुकीभवने तत्र तत्र च सन्दर्शन- 
योगाः ॥ ९५॥ 

रसिको का दर्शन- जब वे युवक कलाञ्ञान के लिये अपने घर आये तो लड़को उनसे 
मिले ओर तत्पश्चात्‌ गन्धर्वशाला, भिक्षुको के घर, सरस्वतीभवन, उद्यान आदि में मिलती 
रहे ॥ १५॥ 

तेषां यथोक्तदायिनां माता पाणिं ग्राहयेत्‌॥ ९६॥ 

पाणिग्रहण- जो युवक कही हुई वस्तु लाकर दे दे, उसके साथ वेश्या अपनी पुत्री का 
पाणिग्रहण करा दे ॥ १६॥ 

तावदर्थमलभमाना तु स्वेनाप्येकदेशोन दुहित्र एतदत्तमनेनेति 
ख्यापयेत्‌ ॥ ९७॥ 

विना धन मिले भी प्रदर्शन- जो जो वस्तुं उससे पहले नियत हुई हो, यदि वे सब न 
भी मिलें तो वेश्या अपनी ओर से दिखाकर यह कह दे कि यह भी इस युवक ने मेर पुत्री को 
दिया है ॥ १७॥ 

ऊढाया वा कन्याभावं विमोचयेत्‌॥ ९८ ॥ 

अथवा कन्या के युवा हो जाने पर उपर्युक्त रीति से युवकों को फंसाकर उसका 
कौमार्यभङ्ग करा दे॥ १८॥ 

प्रच्छन्नं वा तैः संयोज्य स्वयमजानती भूत्वा ततो विदितेष्वेतं धर्मस्थेषु 


निवेदयेत्‌॥ १९॥ 


१९२ वात्स्यायन-कामसूत्र 


धन वसूलने की रीति- अथवा प्रच्छन्न रूप से उन युवकों से मिलाकर उनके प्रेम को 
राजकीय अधिकारियों तक पहुंचा दे ओर फिर उन रसिकं के विरुद्ध न्यायाधिकरण में पहुंच 
जाये ॥ १९॥ 
सख्यैव तु दास्या वा नोचितकन्याभावां सुगृहीतकामसूत्रामाभ्यासिकेषु 
योगेषु प्रतिष्ठितां प्रतिष्ठिते वयसि सौभाग्ये च दुहितरमवसृजन्ति गणिका इति 
प्राच्योपचाराः ॥ २०॥ 
प्राच्य देश को वेश्याओं की रीति- पूर्वं प्रदेशों क वेश्याएं सखी या दासी से लड़की 
का कौमार्यहरण कराकर काम के रहस्यं ओर योगों का अभ्यास कराती हैँ । उन योगों ओर 
कामकलाओं में दक्षता प्राप्त कर लेने पर यौवन के साथ ही उनका भाग्य भी चमक उठता है ओर 
तत्पश्चात्‌ युवती को वेश्याचरित के लिये स्वतन्त्र कर देती हैँ ॥ २०॥ 
पाणिग्रहश्च सवत्सरमध्यभिचार्यस्ततो यथा कामिनी स्यात्‌॥ २९॥ 
एक वर्षं तक प्नीव्रत का निर्वाह- जिस युवक ने वेश्यापुत्री का पाणिग्रहण किया हो 
उसके साथ वह एक वर्ष सदाचारिणी बनकर रहे । तत्पश्चात्‌ जहो वह चाहे या जो उसे चाहे वहां 
स्वच्छन्दतापूर्वक भोग करे ॥ २१॥ 
ऊर्ध्वमपि संवत्सरात्‌ परिणीतेन निमन्यमाणा लाभमप्युत्सृज्य तां रात्रिं तस्या- 
गच्छेदिति वेश्यायाः पाणिग्रहणविधिः सौभाग्यवर्धनं च॥ २२॥ 
निमन्त्रण पर उपस्थिति आवश्यक- एक वर्ष बाद भी जब पति बुलाये तब भी 
वेश्यापुत्री अर्थलाभ को छोडकर उस रात उसके साथ समागम के लिये अवश्य आये । वेश्या के 
विवाह ओर सौभाग्यवर्धन का विषय पूर्ण हआ॥ २२॥ 
एतेन रद्धोपजीविनां कन्या व्याख्याताः ॥ २३॥ 
अभिनेत्री कन्याओं की विवाह की रीति- इससे ही रङ्गमञ्च पर अभिनय करने वाली 
कन्याओं की बात भी कह दी गयी है अर्थात्‌ रङ्गमञ्च पर नृत्य ओर अभिनय करने वाली 
कन्याओं की विवाह को भी यही रीति है ॥ २३॥ 
तस्मै तु तां दद्युर्य एषां तूर्ये विश्िि्टमुपकुर्यात्‌। इति सुभगङ्करणम्‌ ॥ २४॥ 
वैशिष्ट्यकथन- नट, नर्तक आदि अपनी पुत्री का विवाह उसी पुरुष से करे, जो उसके 
नृत्य-गान आदि को उन्नत बनाने में सहायक हो । सुभगङ्करण प्रकरण पूर्ण हुआ ॥ २४॥ 
धत्तूरकमरिचपिष्पलीचू्णैर्मधुमिश्रर्लिप्तलिङ्कस्य सम्प्रयोगो वशीकरणम्‌॥ २५॥ 
वशीकरण प्रकरण : वशीकरण लेप-धतूरा, काली मिर्च ओर छोटी पीपल के चूर्ण 
में शहद मिलाकर शिश्न पर लेप करके जिस स्त्री से समागम किया जाये वह वशीभूत हो जाती 
है ॥ २५॥ 
वातोदशभ्रान्तपत््रं मृतकनिर्माल्यं मयूरास्थिचूर्णाक्चूर्णं वशीकरणम्‌॥ २६॥ 
वशीकरण चूर्ण- हवा से उड़ा हुआ पत्ता, शव पर चदाया गया फूल ओर मोर को हड़ी 
के चूर्णं का अवचूर्णं (सूक्ष्म चूर्ण) उत्तम वशीकरण हे ॥ २६॥ 


७. ओपनिषदिक अधिकरण ९९३ 


स्वयं मृताया मण्डलकारिकायाश्चूर्णं मधुसंयुक्तं सहामलकैः स्नानं वशी- 
करणम्‌॥ २७॥ 

वशीकरण स्नान--स्वयं मरे हुए गिद्ध (मादा) के चूर्णं मेँ शहद मिलाकर ओर ओंवले 
के रस के साथ उवबटन कौ तरह लगाकर स्नान करने से भी स्त्री वशीभूत हो जाती है ॥ २७॥ 

वच्रस्नुहीगण्डकानि खण्डशः कृतानि मनःशिलागन्धपाषाणचूर्णेनाभ्यज्य 
सप्तकृत्वः शोषितानि चूर्णयित्वा मधुना लिपषलिङ्खस्य सम्प्रयोगो वशी- 
करणम्‌॥ २८॥ 

शिश्नलेप-- थूहर को गंठं टुकड़-टुकडे करके उनमें मैनशिल ओर गन्धक को 
लपेटकर सात बार सुखाये, फिर उसका चूर्ण बनाकर शिश्न पर लेप करके जिस स्त्री से समागम 
किया जाये वह वशीभूत हो जाती है ॥ २८॥ 

एतेनैव रात्रौ धूमं कृत्वा तद्धूमतिरस्कृतं सौवर्णं चन्द्रमसं दर्शयति ॥ २९॥ 

उपर्युक्त वस्तुओं के चूर्ण का रात्रि में धुआं करने पर धुएं से ठका चन्द्र सोने का-सा 
दिखायी देता है ॥ २९॥ 

एतेरेव चूण्तिर्वानरपुरीषमिभ्रितैर्या कन्यामवकिरेत्‌ साऽन्यस्मै न दीयते ॥ ३०॥ 

वाञ्छित कन्या से विवाह की रीति-इन्ीं वस्तुओं के चर्ण में बन्दर की विष्ठा 
मिलाकर जिस कन्या पर छिडक दी जाये, वह किसी अन्य को नहीं दी जा सकती अर्थात्‌ वह 
वशीभूत हो जाती है ओर प्रयोक्ता से ही विवाह करती है ॥ ३०॥ 

वचागण्डकानि सहकारतेललिपानि शिंशपावृक्षस्कन्धमुत्कीर्य षण्मासं निद- 
ध्यात्‌ ततः षड्भिर्मासिरपनीतानि देवकान्तमनुलेपनं वशीकरणं चेत्याचक्षते ॥ ३९॥ 

देवकान्त अनुलेप-- वचा कौ गोठ आम के तैल में भिगोकर शीशम के तने मे खोदकर 
रख दे। छह मास पश्चात्‌ निकाले । यह देवकान्त अनुलेप उत्तम वशीकरण है-एेसा कहा 
जाता है ॥ ३१॥ 

तथा खदिरसारजानि शकलानि तनूनि यं वृक्षमुत्कीर्य षण्मासं निदध्यात्‌ 
तत्पुष्पगन्धानि भवन्ति गन्धर्वकान्तमनुलेपनं वशीकरणं चेत्याचक्षते ॥ ३२॥ 

गन्धर्वकान्त अनुलेप- इसी प्रकार खदिरसार (कत्था) के टुकड़ों को पतला करके 
ओर आम के तैल में भिगोकर जिस वृक्ष के तने मे छह मास के लिये रख देगे, वे उसी के समान 
सुगन्ध वाले हो जार्येगे। यह गन्धर्वकान्त अनुलेप उत्तम वशीकरण है-एेसा कहा जाता 
है॥ ३२॥ 

प्रियङ्कवस्तगरमिश्राः सहकारतैलदिग्धा नागवृक्षमुत्की्यं षण्मासं निहिता 
नागकान्तमनुलेपनं वशीकरणमित्याचश्षते ॥ ३३॥ 

नागकान्त अनुलेप- तगर ओर कांगनी को मिलाकर ओर आम के तेल में भिगोकर 
नागकेसर के तने मेँ छह मास के लिये दबा दे। नागकान्त नामक यह अनुलेप उत्तम वशीकरण 
हे-एेसा कहा जाता है ॥ ३३॥ 


९९४ वात्स्यायन-कामसूत्र 


उष्टास्थि भृद्धराजरसेन भावितं दग्धमञ्जनं नलिकायां निहितमुष्टास्थि- 
शलाकयैव स्नोतोऽञ्जनसहितं पुण्यं चक्षुष्यं वशीकरणं चेत्याचक्षते ॥ ३४॥ 
पुण्य अंजन- ऊट को हडयों में भृङ्गराज के रस की भावना देकर अंजन के समान 
पुटपाक विधि से जलाकर काजल बन। ले । इसे ऊंट कौ हड्यों से बनी सुरमादानी में रखे ओर 
ऊंट कौ हड़ी से बनी सलाई से आंखों मे लगावे। यह नेत्रों के लिये हितकारी ओर उत्तम 
वशीकरण है-एेसा कहा जाता है ॥ ३४॥ 
एतेन श्येनभासमयूरास्थिमयान्यञ्जनानि व्याख्यातानि ॥। ३५ ॥ 
इसी प्रकार श्येन, भास, मयूर आदि पक्षियों को हड़यों का अंजन भी उपर्युक्त विधि से 
बनाया जा सकता है ॥ ३५॥ 
उच्यटाकन्द्श्चव्या यष्टीमधुकं च सशर्करेण पयसा पीत्वा वृषीभवति ॥ ३६॥ 
बल-वीर्यवर्धक ८ वृष्य ) प्रकरण : उच्चटा ओर मुलहठी-- उच्चटा (उरंगण) ओर 
मुलहटठी के चूर्ण को शक्कर मिले दृध के साथ पीने से पुरुष के बलवीर्य मे वृद्धि होती है ॥ ३६॥ 
मेषवस्तमुष्कसिद्धस्य पयसः सशर्करस्य पानं वृषत्वयोगः ॥ ३७॥ 
मेढा ओर बकरे का अण्डकोश- मेढा या बकरे के अण्डकोशों को दूध में पकाकर 
ओर शक्कर डालकर पीने से भी बलवीर्य को वृद्धि होती हे ॥ २७॥ 
तथा विदार्या क्षीरिकायाः स्वयंगुप्तायाश्च क्षीरेण पानम्‌॥ ३८ ॥ 
विदारीकन्द, वंशलोचन ओर क्रौच- विदारीकन्द, वंशलोचन ओर क्रौंच के बीजों के 
चूर्णं को दूध के साथ पीने से बलवीर्य की वृद्धि होती है ॥ ३८॥ 
तथा प्रियालबीजानां मोरटाविदार्योश्च क्षीरेणैव ॥ ३९॥ 
चिररौजी, मुहार ओर श्चेत विदारी-इसी प्रकार चिररौजी, मुहार (मुरहरी) ओर धेत 
विदारी-इनका चूर्ण दूध के साथ पीने से बलवीर्य की वृद्धि होती है ॥ ३९॥ 
शृद्खाटककसेरुकामधूलिकानि क्षीरकाकोल्या सह पिष्टानि सशर्करेण पयसा 
धृतेन मन्दाग्निनोत्करिकां पक्त्वा यावदर्थं भक्षित्वानन्ताः स्त्रियो गच्छतीत्याचार्याः 
प्रचक्षते ॥ ४०॥ 
क्षीरकाकोली, सिंघाड़ा, कसेरू ओर महुआ- सिंघाडा, कसेरू ओर महुआ के फूलों 
को क्षीरकाकोली के कन्द के साथ पीसकर शक्करमिश्रित दूध के साथ मिलाकर, घी में मन्द 
मन्द अग्नि पर हलुआ बनाकर नित्य खाने से इतना बलवीर्य बढता है कि पुरुष अनन्त रमणियों 
के साथ रमण कर सकता है-एेसा आचार्य कहते हँ ॥ ४०॥ 
माषकमलिनीं पयसा धौतामुष्णेन घृतेन मृदूकृत्योब्दूतां वृद्धवत्सायाः गोः 
पयःसिद्धं पायसं मधुसर्पिर्भ्यामशित्वाऽनन्ताः स्त्रियो गच्छतीति आचार्याः 
प्रचक्षते ॥ ४९॥ 
उड़द की दाल की खीर-उडद की धुली दाल को रातमें दूधमेंभिगोदे ओर प्रातः 
पीसकर घी मे लाल होने तक भून । फिर बाखरी गाय या बकरी का दूध डालकर खीर बना ले । 
विषम मात्रा मे घी ओर शहद डालकर खाने से पुरुष में अनन्त स्त्रियों के साथ सम्भोग करने कौ 
शक्ति आ जाती है-एेसा आचार्य कहते है ॥ ४१॥ 


७. ओपनिषदिक अधिकरण ९९५ 


विदारी स्वयंगुपा शर्करा मधुसर्पिभ्यां गोधूमचूर्णेन पोलिकां कृत्वा यावदर्थं 
भस्षित्वानन्ताः स्त्रियो गच्छतीत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ४२॥ 

विदारीकन्द ओर क्रौच कौ पूडियां--विदारीकन्द ओर क्रौच के बीजों के चूर्णं में गेहूं 
का आटा, शहद ओर शक्कर मिलाकर घी में पूडियां सेक लें । इन्हें नित्य खाने से पुरुष में इतना 
बलवीर्य बढ़ता है कि वह अनन्त स्त्रियों के साथ सम्भोग कर सकता है-एेसा आचार्यं 
कहते हें ॥ ४२॥ 

चटकाण्डरसभावितेस्तण्डुलेः पायसं सिद्धं मधुसर्पिर्भ्यां प्लावितं 
यावदर्थमिति समानं पूर्वेण ॥ ४३॥ 

गौरिया के अण्डों से भावित खीर-चिडिया के अण्डों के रस की भावना देकर तैयार 
किये गये चावलों को खीर बनाये । उसे विषम मात्रा में घी ओर शहद डालकर खाने से पुरुष में 
अनन्त स्त्रियों के साथ सम्भोग करने की शक्ति आ जाती है ॥ ४३॥ 

चटकाण्डरसभावितानपगतत्वचस्तिलाञ्‌ शृङ्काटककसेरुकस्वयंगुपा- 
फलानि गोधूममाषचूर्ण सशर्करेण पयसा सर्पिषा च पक्वं संयावं यावदर्थं 
प्राशित्वा-इति समानं पूर्वेण ॥ ४४ ॥ 

उक्त रीति से भावित तिलो को खीर- काले तिलो को भिगोकर उनका छिलका अलग 
कर लिया जाये ओर फिर गौरेया के अण्डों के रस को भावना दे । तत्पश्चात्‌ सिंघाड़ा, कसेरू ओर 
क्रौच के बीजों का चूर्ण तैयार करे । गेहूं का आटा ओर उड़द कौ दाल कौ पिद्री मिलाकर तथा 
शक्कर, घी से जल के स्थान पर दूध डालकर लप्सी तैयार कर ले। इसे नित्य खाने से 
रतिमल्लता बढती हे ॥ ४४॥ 

सर्पिणो मधुनः शर्कराया मधुकस्य च दव दवे पले मधुरसायाः कर्षः प्रस्थं पयस 
इति षडङ्कममृतं मेध्यं वृष्यमायुष्यं युक्तरसमित्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ४५॥ 

मुलहटठी आदि का षडङ्क अमृत-- घी, शहद, शक्कर ओर मुलहठी दो-दो पल, एक 
कर्षं मधुरसा ओर एक प्रस्थ दूध- यह छह अंगो वाला अमृतमेध्य है, वाजीकरण हे, आयुरवर्धक 
हैं । इसे युक्तरस कहते हैँ ॥ ४५॥ 

शतावरीश्वदष्टागुडकषाये पिप्पलीमधुकल्के गोक्षीरच्छागधृते पक्वे तस्य 
पुष्यारम्भेणान्वहं प्राशनं मेध्यं वृष्यमायुष्यं युक्तरसमित्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ४६॥ 

शतावरी ओर गोखरू- शतावरी ओर पहाड़ी गोखरू-इन दोनों वस्तुओं के कषाय में 
पीपल ओर शहद का कल्क मिलाकर गाय के घी में भूनकर दूध में पका लें । इसे पुष्य नक्षत्र में 
नित्य चाटना बलबुद्धिवर्धक है, वाजीकारक है, आयुर्वर्धक है । इसे आचार्यं ' युक्तरस' 
कहते हें ॥ ४६॥ 

शतावर्याः श्वदंष्टायाः श्रीपर्णीफलानां च क्षुण्णानां चतुर्गुणितजलेन पाक 
आप्रकृत्यवस्थानात्‌ तस्य पुष्यारम्भेण प्रातः प्राशनं मेध्यं वृष्यमायुष्यं युक्तरस- 
मित्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ४७॥ । 

शतावरी, गोखरू ओर श्रीपर्णी- शतावरी, पहाड़ी गोखरू ओर श्रीपर्णी (कसेरू) के 


९१९६ वात्स्यायन-कामसूत्र 


फूल कूटकर चार गुने जल में अग्नि पर चढ़ा दं । जब पानी जल जाये तो उतार लें । इसे पुष्य 
नक्षत्र से प्रातःकाल चाटना प्रारम्भ कर दे। यह बलबुद्धिवर्धक, वाजीकरण ओर आयुर्वर्धक है । 
इसे आचार्य युक्तरस कहते है ॥ ४७॥ 
श्रदष्टाचूर्णसमन्वितं तत्सममेव यवचूर्णं प्रातरुत्थाय द्विपलकमनुदिनं प्राश्नी- 
यान्मेध्यं वृष्यं युक्तरसमित्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ४८ ॥ 
गोखरू ओर जौ- पहाड़ी गोखरू का चूर्णं ओर जौ का आटा सममात्रा में लेकर प्रातः 
दो पल प्रतिदिन खाये। यह बलबुद्धिवर्धक, वाजीकरण ओर आयुर्वर्धक है । इसे आचार्यो ने 
“-युक्तरस' कहा हे ॥ ४८॥ 
आयुर्वेदाच्य वेदाच्च विद्यातन्त्रेभ्य एव च। 
आपेभ्यश्चावबोद्धव्या योगा ये प्रीतिकारकाः ॥ ४९॥ 
उपसंहार - पूर्वोक्त वाजीकारक योगों के अतिरिक्त अन्य भी रागरतिवर्धक योग है । उन्हें 
आयुर्वेद, वेद, विद्यातन्त्र ओर विज्ञ पुरुषों से जान लेना चाहिये ॥ ४९॥ 
न प्रयुञ्जीत सन्दिग्धान्न शरीरात्ययावहान्‌। 
न॒ जीवघातसम्बद्धान्नाशुचिद्रव्यसंयुतान्‌॥ ५० ॥ 
अग्राह्य योग- जो योग सन्दिग्ध हों, शरीर को हानि पहुंचाने वाले हों, जीवों को 
मारकर बनाये जाने वाले हों ओर जिनमें अपवित्र वस्तुओं का मिश्रण न हो, एेसे योगों का प्रयोग 
नहीं करना चाहिये ॥ ५०॥ 
तपोयुक्तः प्रयुञ्जीत शिष्टरनुगतान्‌ विधीन्‌। 
ब्राह्मणैश्च सुहद्धिश्च मङ्कलैरभिनन्दितान्‌॥ ५९॥ 
ग्राह्य योग- उन शुद्ध ओर पवित्र योगों का ही प्रयोग करना चाहिये जिनको सज्जन 
निन्दा न करें तथा विद्वान्‌ ब्राह्मण ओर मित्र भी प्रशंसा ही करे ॥ ५१॥ 
शुभगद्भरण, वशीकरण एवं वृष्ययोग बोधक प्रथम अध्याय सम्पन्न ॥ 


द्वितीय अध्याय 


नृषटरागप्रत्यानयनप्रव्छरण 
चण्डवेगां रञ्जयितुमशक्नुवन्‌ योगानाचरेत्‌॥ ९॥ 
चण्डवेगा का प्रसादन- चण्डवेगा स्त्री को प्रसन्न ओर अनुरक्त करने में असमर्थ पुरुष 
को योगों का प्रयोग करना चाहिये ॥ १॥ .. 
रतस्योपक्रमे सम्बाधस्य करेणोपदर्मनं तस्या रसप्राप्तिकाले च रतयोजनमिति 
रागप्रत्यानयनम्‌॥ २॥ 
नष्ट राग की पुनः प्राप्ति का उपाय- खी से पूर्वं स्खलित होने वाला पुरुष, खरी के 


७. ओपनिषदिक अधिकरण ९९७ 


मदनमन्दिर में अंगुली डालकर उसे भली भाति रससिक्त कर ले, तत्पश्चात्‌ समागम प्रारम्भ करे। 
इससे वह सत्री को पहले स्खलित करके उसका नष्ट राग पुनः प्राप्त कर सकता है ॥ २॥ 

ओपरिष्टकं मन्दवेगस्य गतवयसो व्यायतस्य रतश्रान्तस्य च रागप्रत्या- 
नयनम्‌॥ ३॥ 

जो पुरुष मन्दवेग हे, जिसका यौवन ढल गया हो, जो बहुत मोटा हो ओर जो समागम में 
थक गया हो, उसे चाहिये कि साम्प्रयोगिक अधिकरण में कही गयी ओपरिष्टक (मुखमैथुन) 
विधि से अपने में उत्तेजना प्राप्त कर ले॥३॥ 

अपद्रव्याणि वा योजयेत्‌ ॥ ४॥ 

अपद्रव्यों का प्रयोग- अथवा अपद्रव्यों का प्रयोग करे अर्थात्‌ कृत्रिम साधनों से काम 

चलाये ॥ ४॥ 
तानि सुवर्णरजतताप्रकालायसगजदन्तगवलद्रव्यमयानि ॥ ५॥ 

अपद्रव्य-- इस प्रकार के कृत्रिम साधन सोना, चाँदी, ताबा, लोहा, हाथीदात ओर सीग 
से बनाये जाते है ॥ ५॥ 

त्रापुषाणि सैसकानि च मृदूनि शीतवीर्याणि कर्मणि च धृष्णूनि भवन्तीति 
बाभ्रवीया योगाः ॥ ६॥ 

क्योकि रगे ओर सीसे से बने कृत्रिम साधन कोमल, शीतल ओर घर्षणशील होते है- 
एेसा आचार्य बाभ्रव्य के शिष्यो का मत हे ॥ ६॥ 

दारूमयानि साम्यतश्चेति वात्स्यायनः ॥ ७॥ 

यदि अनुकूल पड़े तो लकड़ी का कृत्रिम साधन भी प्रयोग किया जा सकता है-यह 

आचार्य वात्स्यायन का मत है ॥ ७॥ 
लिङ्प्रमाणान्तरं विन्दुभिः कर्कशपर्यन्तं बहुलं स्यात्‌॥ ८ ॥ | 

कृत्रिम साधन पुरुष के शिश्न कौ माप का ही होना चाहिये ओर इसके अग्रभाग पर बहुत 

से विन्दु होने चाहिये जिससे स्त्री को खाज मिट सके ॥ ८॥ 
एते एव द्वे सङ्घाटी ॥ ९॥ 
कृत्रिम साधन में कम से कम दो जोड या उतार चढाव अवश्य होने चाहिये ॥ ९॥ 
त्रिप्रभृति यावत्प्रमाणं वा चूडकः ॥ १०॥ 

चूडक- शश से लेकर अश्च तक पुरुष के शिश्न के जो प्रमाण बताये गये ह, उतने 

प्रमाण वाला कृत्रिम साधन चूडक कहलाता हे ॥ १०॥ 
एकामेव लतिकां प्रमाणवशेन वेष्टयेदित्येकचूडकः ॥ ९९॥ 

एकचूडक- जो अपने प्रमाण से एक ही लता को लपेट सके, एेसा कृत्रिम साधन 
एकचूडक कहलाता है ॥ १९॥ 

उभयतोमुखच्छिद्रः स्थूलकर्कशवृषणगुटिकायुक्तः प्रमाणवशयोगी कट्यां 
बद्धः कञ्चुको जालकं वा॥ १२॥ 

कच्लुक या जालक- जिसके दोनों ओर छेद किये गये हों, जो स्थूल ओर कर्कश हो 


९९८ लात्स्यायन-काबसूत्र 


जिसमे अण्डकोश भी लगाये गये हों, जो शिश्न के समान आकार का हो ओर जिसे कमर में 
पहना जा सके-एेसा कृत्रिम साधन कञ्चुक या जालक कहलाता है ॥ १२॥ 
तदभावेऽलाबूनालकं वेणुश्च तेलकषायैः सुभावितः सूत्रेण क्यां बद्धः 
श्लक्ष्णा काष्टमाला वा ग्रथिता बहुभिरामलकास्थिभिः संयुक्तेत्यपविद्ध- 
योगाः ॥ ९३॥ 
यदि इस प्रकार के कृत्रिम साधन सम्भव न हों तो अपने शिश्न के प्रमाण के अनुरूप तूम्बी 
या बोस का साधन (लिङ्ग) बनाकर तेल ओर उबटन से चिकना करके कमर मेँ बँध ले अथवा 
आंवले के समान चिकनी काष्ठ गोलियों कौ माला शिश्न में पहन लेनी चाहिये-ये अपविद्ध 
( त्यक्त ) योग है ॥ १२३॥ 
न त्वविद्धस्य कस्यचिद्धयवहतिरस्तीति ।॥ १४॥ 
क्योकि इन कृत्रिम साधनों का सम्बन्ध समागम से नहीं है । ये तो केवल असमर्थो के योग 
हं ॥ ९४॥ 
दाक्षिणात्यानां लिङ्कस्य कर्णयोरिव व्यधनं बालस्य ॥ १५॥ 
छेदनकर्म- दक्षिण भारत में बच्चों के कण्छिदन के समान शिश्न का छेदन भी 
होता है ॥ १५॥ 
युवा तु शस्त्रेण च्छेदयित्वा यावद्ुधिरस्यागमनं तावदुदके तिष्टेत्‌॥ १६॥ 
छेदनविधि- यदि युवा पुरुष अपना छेदन कराये तो सुपारी कौ चमडी सरकाकर, नसं 
को बचाकर, तीक्ष्ण शस्त्र से कुशलतापूर्वक तिरछा छेदे ओर जब तक रक्त बहता रहे तब तक 
उसे पानी में डुबोये रखे ॥ १६॥ 
वैशद्यार्थं च तस्यां रात्रौ निर्बन्धाद्वयवायः ॥ १७॥ 
ओर उस छिद्र को बड़ा करने के लिये, उसी रात को कई बार स्त्री के साथ समागम 
करे ॥ १७॥ 
ततः कषायैरेकदिनान्तरितं शोधनम्‌॥ ९८ ॥ 
फिर पञ्चकषायों (अमलतास, ब्राह्मी, कनेर, मालती ओर शङ्कपुष्पी) से एक एक दिन के 
अन्तर से धोना चाहिये ॥ १८॥ 
वेतसकुटजशङ्कुभिः क्रमेण वर्धमानस्य वधनैर्बन्धनम्‌॥.९९॥ 
छिद्रवर्धन- बत ओर कुटज के शंकुओं (कीलो) से उस छिद्र को धीरे-धीरे बढाना 
चाहिये ॥ १९॥ 
यष्टीमधुकेन मधुयुक्तेन शोधनम्‌॥ २०॥ 
व्रणशोधन- मुलहठी ओर शहद मिलाकर घाव में लगाना चाहिये ॥ २०॥ 
ततः सीसकपत्रकर्णिकया वर्धयेत्‌॥ २९॥ 
तत्पश्चात्‌ शीशम के पत्तों की कर्णिका से इसे बढाना चाहिये ॥ २१॥ 
म्रक्षयेद्धल्लातकतैलेनेति व्यधनयोगाः ॥ २२॥ 
इसके बाद भिलावे के तेल से इसे भिगोते रहना चाहिये । व्यधनयोग समाप्त हए ॥ २२॥ 


७. ओपनिषदिक अधिकरण ९९९ 


तस्मिन्ननेकाकृतिविकल्पान्यपद्रव्याणि योजयेत्‌ ॥ २३॥ 

तत्पश्चात्‌ उसमे अपद्रव्यों को पहना देना चाहिये ॥ २३॥ 

वृत्तमेकतो वृत्तमुदूखलकं कुसुमकं कण्टकितं कङ्कास्थि - गजकर- 
कमष्टमण्डलकं भ्रमरकं शृद्धाटकमन्यानि वोपायतः कर्मतश्च बहुकर्मसहता चैषां 
मृदुकर्कशता यथासात्म्यमिति नष्टरागप्रत्यानयनं द्विषष्टितमं प्रकरणम्‌॥ २४॥ 

अपद्रव्य का प्रयोग-जिस प्रकार का अपद्रव्य स्त्री के अनुकूल पडे, उसके साथ 
समागम में वैसा ही अपद्रव्य प्रयुक्त करना चाहिये । गोल, एक ओर से गोल, ऊखल (ओखली) 
जैसा गोल, कमल जैसा, करेले जैसा कटिदार, कंक की हड़ी जैसा, हाथीदांत के समान, 
अष्टकोण, चक्करदार, सिंघाडे की आकृति का, कोमल या कठोर, जैसा स्त्री चाहे या जैसा 
उसके अनुकूल पड़े, वैसा ही वनाया जा सकता है । ' नष्टप्रेम के पुनः प्रापि की विधि" नामक 
बासठवां प्रकरण पूर्णं हुआ ॥ २४॥ 

एवं वृक्षजानां जन्तूनां शूकैरुपहितं लिङ्क दशरात्रं तैलेन मृदितं पुनरुपवृंहितं 
पुनः प्रमृदितमिति जातशोफं खटूवायामधोमुखस्तदन्तरे लम्बयेत्‌॥ २५॥ 

शिश्नवर्धक उपाय-इसी प्रकार वृक्ष में उत्पन्न होने वाले रोमदार जन्तुओं 
(कन्दलिका) के रोमों का शिश्न पर लेप करे ओर तेल मले । यह क्रिया दस रात तक निरन्तर 
करने पर जब शिश्न मे सूजन आ जाये तो चारपाई के छेद से उसे नीचे लटका दे ओर फिर ओधे 
मुंह सो जाये ॥ २५॥ 

तत्र शीतेः कषायैः कृतवेदनानिग्रहं सोपक्रमेण निष्यादयेत्‌॥ २६॥ 
तत्पश्चात्‌ शीतल लेप लगाकर इसकी वेदना मिटानी चाहिये ॥ २६॥ 
स यावजीवं शकजो नाम शोफो विटानाम्‌॥ २७॥ 

इस प्रकार रसलम्परों के शिश्न की मोटाई आजीवनं बनी रहती है ॥ २७॥ 

अश्चगन्धाशवबरकन्दजलशूकवृहतीफलमादहिषनवनीतहस्तिकर्णंव्रवल्ली - 
रसैरेकैकेन परिमर्दनं मासिकं वर्धनम्‌॥ २८॥ 

अश्वगन्धा, बडे लोध की जड़, जलशंकु, बड़ी कटेरी के पके फल, भस का मक्खन, 
ढाक के पत्ते ओर वज्रवल्ली (हडजोड़) का रस-इनमें से किसी एक को लगाने से शिश्न एक 
मास तक मोटा बना रहता है ॥ २८॥ 

एतैरेव कषायैः पक्वेन तैलेन परिमर्दनं षाण्मास्यम्‌॥ २९॥ 

अश्वगन्धा आदि के कल्क द्वारा सिद्ध किये गये तेल कौ मालिश करने से शिश्नवृद्धि छह 
मास तक बनी रहती है ॥ २९॥ 

दाडिमत्रापुषबीजानि बालुका बृहतीफलरसश्चेति मूद्टग्निना पक्वेन तेलेन 
परिमर्दनं परिषेको वा॥ ३०॥ 

अनार, बालमखीरा के बीज, एलुवा ओर कटेरी के फलों के रस-इन सबको मन्द मन्द 
अग्नि पर बनाये गये तैल की मालिश करने से या इनकी पोटली बनाकर सकने से छह मास तक 
शिश्नवृद्धि रहती है ॥ ३०॥ 


२०० वात्स्यायन-कामसूत्र 


तोस्तांश्च योगानातेभ्यो लुध्येतेति वर्धनयोगाः ॥ ३९॥ 
अन्य भी वर्धनयोग है । उन्हें आप पुरुषों से जान लें । शिश्नवृद्धियोग पूर्ण हए ॥ ३१॥ 
अथ स्नुहीकण्टकचूर्णैः पुनर्नवावानरपुरीषलाङ्कलिकामूलमिश्रर्यामवकिरेत्‌ 
सा नान्यं कामयेत ॥ ३२॥ 
चित्रयोगप्रकरण : कन्यामोहन- थूह के कटो का चूर्ण, पुनर्नवा, लाल मुख वाले 
बन्दर का विष्ठा ओर इन्द्रायन (कलिहारी) की जड़-इन सबको सममात्रा मे पीसकर बनाया 
गया चूर्णं जिसके सिर पर डाल दिया जाये वह कन्या किसी अन्य को नहीं चाहती ॥ ३२॥ 
तथा सोमलताऽवल्गुजाभृङ्कलोहोपजिद्धिकाचूणैर्व्याधिघातकजम्बूफलरस- ` 
निर्यासेन घनीकृतेन च लिप्तसम्बाधां गच्छतो रागो नश्यति ॥ २२ ॥ 
रागनाशनलेप- इसी प्रकार सोमलता, वाकुची के बीच, भंगरा, लौहभस्म ओर 
उपजिह्विका का चूर्णं तथा अमिलतास ओर जामुन के फल कौ गुठली को पीसकर मदनमन्दिर 
मे लेप करने से जो भी पुरुष उस स्त्री के साथ सम्भोग करता है उसका राग नष्ट हो जाता 
है ॥ २३॥ 
गोपालिकाबहुपादिकाजिहिकाचूर्णैर्माहिषतक्रयुक्तैः स्नातां गच्छतो रागो 
नश्यति ॥ ३४॥ 
गोपालिका, बहुपादिका (पोदीना) ओर जिह्विका (गोजिया) का चूर्ण भेस के मद्र में 
मिलाकर स्नान करने वाली स्त्री के साथ जो भी पुरुष सम्भोग करता है उसका राग नष्ट हो 
जाता है ॥ ३४॥ 
नीपाप्रातकजम्बूकुसुमयुक्तमनुलेपनं दौरभाग्यकरं स्रजश्च ॥ ३५ ॥ 
दौभग्यिकरण- कदम्ब, ओंवड़ा ओर जामुन के फूलों को धिसकर चन्दन लगाना या 
इनकी माला पहनना दौभाग्यवर्धक होता है ॥ ३५॥ 
कोकिलाक्षप्रलेपो हस्तिन्याः संहतमेकरात्रे करोति ॥ ३६॥ 
योनि-संकोचन- तालमखाने को पानी में पीसकर लेप करने से हस्तिनी नायिका को 
योनि भी एक ही रात में सिकुड्‌ जाती है ॥ ३६॥ 
पग्मोत्पलकदम्बसर्जकसुगन्धचूर्णानि मधुना पिष्टानि लेपो मृग्या विशाली- 
करणम्‌॥ २७॥ 
योनि-विस्तार- लाल कमल, नीलकमल, कदम्ब, विजयसार ओर नेत्रवाला-इनके 
चूर्णं को शहद के साथ घोलकर लेप करने से मृगी नायिका को योनि भी गहरी ओर विशाल हो 
जाती हे ॥ ३७॥ 
स्नुहीसोमार्कक्षारैरवल्गुजाफलैर्भावितान्यामलवकानि केशानां श्वेती- 
करणम्‌॥ ३८ ॥ 
बाल सफेद करना- थूहर, पुतली ओर आक के पत्तों को जलाकर राख बना ले ओर 
फिर उसमे बाकुची के बीज ओर ओंवले की भावना देकर बालों में लगाने से काले बाल भी 


सफेद हो जाते ह ॥ ३८॥ 


७. ओपनिषदिक अधिकरण २०१ 


मदयन्तिकाकुटजकाञ्जनिकागिरिकर्णिकाश्लक्षणपर्णीमूलैः स्नानं केशानां 
प्रत्यानयनम्‌॥ ३९॥ 

बाल काले करना- मेंहदी, कुटज, अंजनिका, पहाड़ी चमेली ओर माषपणीं की 
जड्-इन पाचों का चर्ण सिर पर मलकर कुछ समय बाद स्नान करने से सफेद बाल भी काले 
हो जाते है ॥ ३९॥ 

एतैरेव सुपक्वेन तेलेनाभ्यङ्कात्‌ कृष्णीकरणात्‌ क्रमेणास्य 
प्रत्यानयनम्‌ ॥ ४०॥ 

इन पदार्थो से बने तेल से भी सफेद बाल काले हो जाते हैं ॥ ४०॥ 

श्ेताश्चस्य मुष्कस्वेदेः सप्तकृत्वो भावितेनालक्तकेन रक्तोऽधरः श्वेतो 
भवति॥ ४९॥ 

ओष्ठ सफेद करना - पूर्वोक्त वस्तुओं मे सफेद घोरडो के अण्डकोश के पसीने कौ सात 
भावना देने पर जो योग तैयार होता है वह लाल होठों को भी सफेद बना देता है ॥ ४१॥ 

मदयन्तिकादीन्येव प्रत्यानयनम्‌॥ ४२॥ 

होंठ लाल करना-- मेंहदी आदि को पीसकर लगाने से सफेद होंठ पुनः लाल हो 
जाते है ॥ ४२॥ 

बहुपादिकाकुष्ठतगरतालीसदेवदारुवच्नकन्दकैरुपलिप्ं वंशं वादयतो या 
शब्दं श्रृणोति सा वश्या भवति ॥ ४३॥ 

मोहक वंशी- बहुपादिका (पोदीना), कुष्ठ, तगर, तालीशपत्र, देवदारू ओर 
वज्रकन्द--इनका लेप करके वंशी बजाने वाले की ध्वनि जो भी स्त्री सुनेगी वही वशीभूत हो 
जायेगी ॥ ४३॥ 

धत्तूरफलयुक्तोऽभ्यवहार उन्माद्कः ॥ 8४ ॥ 

पागल बनाना-- खाद्य या पेय पदार्थो में धतूरे के बीज मिलाकर खिला पिला देने से 

व्यक्ति पागल हो जाता है ॥ ४४॥ 
गुडो जीर्णितश्च प्रत्यानयनम्‌॥ ४५॥ 

उसको स्वस्थ करना- पुराना गुड खिला देने से धतूरे का विष उतर जाता ह ॥ ४५५॥ 

हरितालमनःशिलाभक्षिणो मयूरस्य पुरीषेण लिप्तहस्तो यद्‌ द्रव्यं स्पृशति तन्न 
दृश्यते ॥ ४६॥ 

अदृश्य करना- हरताल ओर मैनसिल खाने वाले मोर कौ विष्ठा को हाथ में लगाकर 
जिस वस्तु को छ दोगे, वही अदृश्य हो जायेगी ॥ ४६॥ 

अद्कारतृणभस्मना तैलेन विमिश्रमुदकं क्षौरवर्णं भवति ॥ ४७॥ 

पानी को दूध के समान सफेद करना- खस कौ भस्म को तैल में मिलाकर पानी में 
डाल देने से पानी दूध के समान सफेद हो जाता है ॥ ४७॥ 

हरीतकाम्रातकयोः स्रवणप्रियङ्कुकाभिश्च पिष्टाभिर्लिपानि लोहभाण्डानि 
ताप्रीभवन्ति॥ ४८॥ 


२०२ वात्स्यायन-कामसूत्र 


लोहे को तांबे के समान करना-हरड ओर ओंवले को मालकँगनी के साथ पीसकर 
लोहे के नर्तन पर लेप करने से वह तबे के रंग का हो जाता हे ॥ ४८॥ 
श्रवणप्रियङ्कुकातेलेन दुकूलसर्पनिर्मोकेण वत्यां दीपं प्रज्वाल्य पार 
दीर्धीकृतानि काष्ठानि सर्पवद्‌ दृश्यन्ते ॥ ४९॥ 
लकड़्यों का सपं दिखना- सर्प क केचुली ओर कपडे को लपेटकर, बत्ती बनाकर, 
मालकोगुनी के तैल में भिगोकर दीपक की तरह जलाये तो आस पास में पड़ी लकडियाँ उसके 
प्रकाश में सर्पो के समान दीखेंगीं ॥ ४९॥ 
श्ेतायाः श्चेतवत्साया गोः क्षीरस्य पानं यशस्यमायुष्यम्‌॥ ५०॥ 
यश ओर आयुवर्धक दूध-- सफेद बछडे वाली सफेद गाय का दूध पीने से यश ओर 
आयु को वृद्धि होती है ॥ ५०॥ 
ब्राह्मणानां प्रशस्तानामाशिषः ॥ ५९१॥ 
ब्राह्मणों का आशीर्वाद सदैव हितकर प्रशस्त ब्राह्मणों का आशीर्वाद भी यश ओर 
आयु को बढाता ह ॥ ५१॥ 
पूर्वशास््राणि सन्दृश्य प्रयोगाननुसृत्य च। 
कामसूत्रमिदं यत्नात्‌ संक्षेपेण निवेदितम्‌॥ ५२॥ 
उपसंहार--पूर्वाचार्यो के शास्त्रों का सम्यक्‌ अध्ययन कर ओर उनके प्रयोगो का 
अनुसरण कर प्रयत्नपूर्वक संक्षेप में इस कामसूत्र को कहा गया है ॥ ५२॥ 
धर्ममर्थं च कामं च प्रत्ययं लोकमेव च। 
पश्यत्येतस्य तत्त्वज्ञो न च रागात्‌ प्रवर्तते ॥ ५३ ॥ 
शास्त्र का उदेश्य रागोदीपन नही- इस कामशास्त्र के तततव को जानने वाला व्यक्ति 
धर्म, अर्थ, काम, विश्वास ओर लोकाचार को देखकर ही प्रवृत्त होता है, राग या कामुकतावश 
नर्ही ॥ ५३॥ 
अधिकारवशादुक्ता ये चित्रा रागवर्द्धनाः। 
तदनन्तरमत्रैव ते यलाद्विनिवारिताः ॥ ५४॥ 
अशिष्टसम्मत योगों का प्रयोग उचित नर्ही- इस शास्त्र मे प्रकरणवश राग को बढ़ाने 
वाले विचित्र योग कहे गये हैँ, लेकिन विवेचन के पश्चात्‌ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि कौन 
कौन से प्रयोग किये जाये ओर कौन से नहीं ॥ ५४॥ 
न॒ शास्त्रमस्तीत्येतेन प्रयोगो हि समीक्ष्यते। 
शास्त्रार्थान्‌ व्यापिनो विद्यात्‌ प्रयो गस्त्वैकदेशिकान्‌॥ ५५॥ 
ये बातें शास्त्र मे कही गयी है, इसीलिये उन्हे प्रयोग नहीं कर बैठना चाहिये, क्योकि 
शास्त्र का विषय तो सार्वभौम होता है, लेकिन उसके प्रयोग एकदेशीय ही होते है ॥ ५५॥ 
बाभ्रवीयांश्च सूत्रार्थानागमय्य विमृश्य च। 
वात्प्यायनश्चकारेदं कामसूत्रं यथाविधि ॥ ५६॥ 


७. ओपनिषदिक अधिकरण २०३ 


शास््रसम्मत ग्रन्थ--बाभ्रवीय सूत्रों को समञ्जकर ओर कामशास्त्र का गुरुओं से 
अध्ययन कर एवं स्वनुद्धि से चिन्तन मनन करके ही आचार्य वात्स्यायन ने इस ˆ कामसूत्र" को 
शास्त्रीय विधि से लिखा है ॥ ५६॥ 
तदेतद्‌ ब्रह्मचर्येण परेण च समाधिना। 
विहितं लोकयात्रार्थं न रागार्थोऽस्य संविधिः ॥ ५७॥ 
निर्माण की अवस्था ओर प्रयोजन-इस “ कामसूत्र" कौ रचना अमोघ ब्रह्मचर्य ओर 
निर्विकल्प समाधि द्वारा महर्षिं वात्स्यायन ने लोकव्यवहार को सुचारु रूप से चलाने के लिये कौ 
हे, इसका विधान राग के निमित्त नहीं किया गया ॥ ५७॥ 
रक्षन्‌ धर्मार्थकामानां स्थितिं स्वां लोकवर्तिनीम्‌। 
अस्य शास्त्रस्य तत्त्वज्ञो भवत्येव जितेन्द्रियः ॥ ५८ ॥ 
कामतत्त्वज्ञ कामुक नहीं होता-- इस शास्त्र के तत्त्व को समञ्चने वाला पुरुष धर्म, अर्थ 
एवं काम तथा लोक में अपनी स्थिति कौ रक्षा करता हुआ निश्चय ही जितेन्द्रिय हो जाता 
हे ॥ ५८ ॥ 
तदेतत्कुशलो विद्वान्‌ धर्मार्थाववलोकयन्‌। 
नातिरागात्मकः कामी प्रयुञ्जानः प्रसिध्यति ॥ ५९॥ 
सिद्धि के लिये रागात्पमकता का अभाव आवश्यक-जो कामी पुरुष रागात्मक भाव 
से इस शास्त्र का अध्ययन एवं प्रयोग करता है, उसे कदापि सिद्धि नहीं मिलती; किन्तु जो 
विवेकवान्‌ पुरुष धर्म ओर अर्थ को दृष्ट मे रखकर इसका प्रयोग करता है उसे पूर्ण सिद्धि 
मिलती है ॥ ५९॥ 
नष्टरागप्रत्यानयन से चित्रयोग तक 
व्याख्यानात्मक द्वितीय अध्याय पूर्णं ॥ 


॥ वात्स्यायनकृत कामसूत्र पूर्णं ॥ 


काम० १५ _. 


साम्प्रयोगिक आसनो के 
कतिपय चित्र 


[इस ग्रन्थ के द्वितीय साम्प्रयोगिक अधिकरण की षष्ठ, अष्टम एवं नवम अध्यायो 
मे नायक-नायिका द्वारा साम्प्रयोगिकावस्था (सम्भोगावस्था) में प्रयुक्त किये जाने वाले 
सभी आसनं का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है । 


पाठकों को इन का सरलतापूर्वक ज्ञान हो जाय-इस आशा से यहाँ कुछ आसनो 
के चित्र दिये जा रहे ह । 


प्रत्येक चित्र पर आसन का नाम तथा इस ग्रन्थ को पृष्ठ-संख्या दे दी गयी हे। 
तत्सम्बद्ध विस्तृत विवरण उस उस पृष्ठ पर देखना चाहिये ।] 


आसन-चित्र २०५ 


मृगी आसन 
विवरण पृष्ठ ५२ 





इन्द्राणी आसन 
विवरण पृष्ठ ५३ 






वाडवक आसन 
थ पृष्ठ ५३, ५४ 
# 


२०६. वात्स्यायन-कामसूत्र 






उत्फुल्क आसन 
विवरण पृष्ट ५३ 


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० @ ० © ० @©@०° © @° @° @° @°* च्छ 





आसन-चित्र २०७ 






अर्धपीडितक आसन 
विवरण पृष्ठ ५४,५५ 


„० >» | च 
< च = = ` च ऽः 
१ 





२०८ चात्स्यायन-कामसूत्र 










मनो आसन 
४ विवरण पृष्ठ ५५ 


कार्कटकासन 
विवरण पृष्ठ ५५ 


आसन-चित्र २०९ 


उत्पीडितक आसन 










वेणुदारितक आसन 
विवरण पृष्ठ ५५ 


भुग्नक आसन 
विवरण पृष्ठ ५५ 


२९० वात्स्यायन-कामसूत्र 








वेणुदारितक आसन | 
विवरण पृष्ठ ५५ 


पासन 
विवरण पृष्ठ ५५ 


९। (~ 
परावृत्तक आसन ($ ^ 
विवरण पृष्ठ ५५ 


आसन-चित्र २९९ 






परावृत्तक आसन 
विवरण पृष्ठ ५५ 


जलसम्भोगासन 
विवरण पृष्ठ १ 


धेनुक आसन 
. विवरण पृष्ठ ५६ 


२९२ वात्स्यायन-कामसूत्र 





कार्कटक आसन 
विवरण पृष्ठ ५५ 







परावृत्तक आसन 
विवरण पृष्ठ ५५ 4 < 


अवलम्बितक ~ 
विवरण पृष्ठ ५६ 


आसन-चित्र २९३ 


शौन आसन 
(. पृष्ठ ५६ 
म 
















एेणेय आसन 
विवरण पृष्ठ ५६ 


एेणेय आसन 
विवरण पृष्ठ ५६ 


सङ्काटक आसन 
विवरण पृष्ठ ५७ 


सङ्ाटक आसन 
विवरण पृष्ठ ५७ 


२९ वात्स्यायन-कामसूत्न 







व्याघ्रावस्कन्द आसन 
विवरण पृष्ठ ५६ 


~ & गोयूथिक आसन 
> ८ विवरण पृष्ठ ५७ 





पुरुषायित आसन 
विवरण पृष्ठ ०० 





परुषायित आसन 
विवरण पृष्ठ ०० 


आसन-चित्र २९५ 








पुरुषायित आसन 
विवरण पृष्ठ ६३ 


पुरुषायित आसन 


(~~~ 
९ 


२९६ 






वात्स्यायन-कामसूत्न 


मन्थन आसन 
विवरण ह ६५ 


ओपरिष्टकासन (मुखमैथुन) 
विवरण पृष्ठ ६८ 


अपद्रव्य 
विवरण पृष्ठ १९८ 


आसन-चित्र २९७ 


| कच्छपासन 
विवरण पृष्ठ ५६ 


उत्पीडितक आसन 
विवरण पृष्ठ ५५ 





स्थितरत † 
विवरण पृष्ठ ५६ 





२९८ वात्स्यायन-कामसूत्र 












प्रे्खोलित 3 ॥ 
विवरण पृष्ठ ६६ # 


ओपरिष्टकासन 
विवरण पृष्ठ ६८ 


+ आसन 
- विवरण पृष्ठ ६५ 











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हमारे महत्त्वपूर्णं प्रकाशन ॥.. 
कामकुञ्जलता । (^ 60661011 ०1५ 8101216 ५४01165 ~ 
| ॥<8118 58518) सम्पादक--दटुण्ठिराज शाखी - २००=ठन्7 == 
कामसूत्रम्‌ । श्रीवात्स्यायनमुनिप्रणीतं । ' जयमङ्गला ' संस्कृत एवं ' जया" - ध क: 
| हिन्दी व्याख्या सहित । हिन्दी टीकाकार--डो° रामानन्द शर्मा ४००-०० 1. ^ 
पञ्चसायकः । श्रीज्योतिरीश्राचार्य विनिर्मितः" प्रकाश ' हिन्दी टीका सहित तथा {= 
५) दण्डी विरचितः नर्मकेलिकौतुकसम्बादश्च टीकाकार--ड० रामानन्द शर्मा ४०-०० ¦ ` 
रतिमञ्जरी । हिन्दी टीका सहित । श्रीरमाकांत द्विवेदी ७-०० । 
५  , ` रतिरल्नप्रदीपिका। प्रौढदेवराजविरचित ।' कामे श्री ' हिन्दी व्याख्योपेता । | 
| व्याख्याकार वैद्य शङ्करदत्त शारी - ~ - ` २५००1 
^`  रतिरहस्यम्‌। काञ्चीनाथकृत* दीपिका" संस्कृत “प्रकाश * हिन्दी टीका | 
।  सहित।व्याख्याकार-- ० रामानन्द शर्मा ८०-०० , 


„+ ` केलिकुतूहलम्‌। (भाषानुवादसहितम्‌) रचयिता: पण्डित मथुरप्रसाद दीक्षितः शीघ्र ठ 
~ ` . कालीरहस्यम्‌।*शिवदत्ती हिन्दी टीका सहित । (कालीपञ्चाङ्ग-कालीतन्र-कालीउपांसना- 
८. कालीपूजापद्धतिरूपात्मकम्‌) । सम्पादक- पण्डित शिवदत्त मिश्र शाखी ५०-०० ` 


^ ^ . कुलार्णवतन््रम्‌। संपादक हिन्दी व्याख्याकारश्च डो० सुधाकर मालवीय २००-०० ¦. 
। + „^ ^ क्रमदीपिका। केशवभद्रप्रणीत । डो० सुधाकर मालवीयकृत सविमर्शं ' सरला ॐ 
1 हिन्दी व्याख्या सहित। ६२५०8 
छ गन्धर्वतन््रम्‌।श्लोकानुक्रमणिका सहित । सम्पादक-- डो ° रामकुमार राय १००-०० ¦ , 
( “ गौतमीयतन््रम्‌। महर्षि गौतमप्रणीतम्‌। सम्पादक-- भागीरथ ज्ञा ४०-०० । 


^, ज्ञानार्णवतन््रम्‌। ईशरपरोक्त । संपादक : हिन्दीव्याख्याकारश्च डो° सुधाकर मालवीय २००-०० ` 
102 020185४8 (11808 6182110). 118118. 0/4. (1. \/258 ५802 100-00 
1201801४ 1 शाशा) : ^ 21056 210511181151811011 










८. ०४।५.।५. 0५ 200-00 ' 
६ "^: श्रीमाहेश्वरतन््म्‌ (अपौरुषेयम्‌ नारदपाञ्चरात्रन्त्गतम्‌। सरला" हिन्दी व्याख्योपेतम्‌। | 
६ संपादक व्याख्याकार-ड० सुधाकर मालवीय २००-०० ' 
स ५ 6: 0 ~; -फोल : २३२२४५८ 
4. ~ ` ~ * अपरञ्ःपुस्तक-प्रसिस्थानम्‌, भ 
अ (सहयोगी. संस्था ) 
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“ ` च्यौख्वम्न्नां संस्कत सीरीज भाषस 
` केः २७/९९, गोपाल मन्दिर लेनं, गोलघर (मैदागिनं). के पासं इ ध. 
4 पोः, न. १००८; वाराणसी -२२९.००१ (भारत) | ५ क 





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९५२ वात्स्यायन-कामसूत्न 


एक लक्ष्य बनाकर शेष स्त्रियों को भी अपनी ओर तोड़ लें । एक दूसरे को दूषित कर जब सबके 
ही चरित्र एक से हो जाये, तो कोई किसी का रहस्योद्घाटन नहीं करती ओर सभी अभीष्ट फल 
प्राप्त करती हैँ ॥ २८॥ 
तत्र राजकुलचारिण्य एव लक्षण्यान्‌ पुरुषानन्तःपुरं प्रवेशयन्ति, नातिसुरक्ष- 
त्वादापरान्तिकानाम्‌॥ २९॥ 
रानियों के भोगविलास : अपरान्त देश की प्रवृत्ति-अपरान्त देश में राजकुलो में 
आने वाली स्त्रियाँ ही सुन्दर ओर चण्डवेग पुरुषों को अन्तःपुर में प्रविष्ट करा देती है; क्योकि 
वहां के अन्तःपुर अत्यधिक सुरक्षित नहीं होते ॥ २९॥ 
क्षत्रियसंज्ञकैरन्तःपुररक्षिभिरेवार्थं साधयन्त्याभीरकाणाम्‌॥ ३०॥ 
` आभीर की प्रवृत्ति- आभीर राजा के अन्तःपुर में रानिया वहाँ के क्षत्रिय-रक्षकों को ही 
फेसाकर अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेती है ॥ ३०॥ 
प्रेष्याभिः सह तद्वेषान्नागरकपुत्रान्‌ प्रवेशयन्ति वात्सगुल्मकानाम्‌॥ ३९॥ 
वत्सगुल्म की प्रवृत्ति-- वत्सगुल्म देश के राजकुल में दासियों के साथ दासीवेश में रानी 
तरुण नागरको को प्रवेश करा लेती हैँ ॥ ३१॥ 
स्वैरेव पुत्रैरन्तःपुराणि कामचारैर्जननीवर्जमुपयुज्यन्ते वैदर्भकाणाम्‌॥ ३२॥ 
विदर्भं की प्रवृत्ति- विदर्भ के राजवंश में तो अपने ओरस पुत्रों को छोडकर रानियां 
सभी राजकुमारो से सम्भोग करा लेती है ॥ २२॥ 
तथा प्रवेशिभिरेव ज्ञातिसम्बन्धिभिर्नान्यैरुपयुज्यन्ते स्त्रैराजकानाम्‌॥ ३३॥ 
स्त्रीराज्य की प्रवृत्ति- स्त्रीराज्य की रानियां केवल सजातीय सम्बन्धियों से ही 
सम्भोगकर्म कराती हँ, अन्यो से नहीं ॥ ३३॥ 
ब्राह्मणैर्मित्नैर्भत्येदसिचेटेश्च गौडानाम्‌॥ ३४॥ 
गौड़ देश की प्रवृत्ति- गौड़ देश को रानियां ब्राह्मण, मित्र, भृत्य, दास ओर चेटों से भी 
सम्भोग कर लेती ह ॥ ३४॥ 
परिस्यन्दाः कर्मकराश्चान्तःपुरेष्वनिषिद्धा अन्येऽपि तद्रूपाश्च सैन्धवानाम्‌॥ ३५॥ 
सिन्ध देश की प्रवृत्ति- सिन्ध देश मेँ जिन नौकरों ओर नागरिकों का राजभवन में 
प्रवेश निषिद्ध नहीं है, उन सबके साथ रानियां सम्भोग कर लेती है ॥ ३५॥ 
अर्थेन रक्षिणमुपगृह्य साहसिकाः संहताः प्रविशन्ति हैमवतानाम्‌॥ ३६॥ 
हैमवतो की प्रवृत्ति-हैमवतों मे साहसी एवं तरुण व्यक्ति सुरक्षाकर्मियों को धन से 
अनुकूल बनाकर, एकत्र होकर, राजभवन में प्रवेश कर जाते हँ ॥ ३६॥ 
पुष्यदाननियोगान्नगरन्राह्यणा राजविदितमन्तःपुराणि गच्छन्ति। पटान्तरित- 
श्यैषामालापः। तेन प्रसङ्खेन व्यतिकरो भवति वङ्काङ्कलिङ्ककानाम्‌॥ ३७॥ 
अंग-वंग ओर कलिङ्क- अंग, वंग ओर कलिङ्ग देशों मे नगर के ब्राह्मण पूजा के फूल 
देने राजभवनों मेँ आते है । रानियां उनसे परदे के पीछे से बाते करती हँ ओर इसी प्रसंग में अवैध 
सम्बन्ध भी हो जाते हँ ॥ ३७॥ 


५. पारदारिक अधिकरण ९५३ 


संहत्य नवदशेत्येकैकं युवानं प्रच्छादयन्ति प्राच्यानामिति। एवं परस्त्रियः 
प्रकुर्वीत । इत्यन्तःपुरिकावृत्तम्‌॥ ३८ ॥ 
प्राच्यो की प्रवृत्ति-नौ-दस स्त्रियां मिलकर एक चण्डवेग पुरुष को छिपाकर अन्तःपुर 
मे रख लेती है- यह प्राच्यो कौ प्रवृत्ति हे । (यदि अन्तःपुर कौ स्त्रियों के पास जाना ही पड़े तो 
इस प्रकार जाना चाहिये ।) इस प्रकार अन्तःपुरिकावृत्त पूर्ण हुआ ॥ ३८॥ 
एभ्य एवं च कारणेभ्यः स्वदारान्‌ रक्चेत्‌॥ ३९॥ 
स्त्रीरक्षा का उपाय--इन्दीं कारणों से अपनी स्त्री को रक्षा करे॥ ३९॥ 
कामोपधाशुद्धान्‌ रक्षिणोऽन्तःपुरे स्थापयेदित्याचार्याः ॥ ४०॥ 
जो व्यक्ति कामविषयक परीक्षा में सफल हुए हो, उन्हीं को अन्तःपुर का रक्षक नियुक्त 
करना चाहिये- यह कामशास्त्र के आचार्यो का मत हे ॥ ४०॥ 
ते हि भयेन चार्थन चान्यं प्रयोजयेयुस्तस्मात्‌ कामभयार्थोपधाशुद्धानिति 
गोणिकापुत्रः ॥ ४९॥ 
कामविषयक परीक्षा में उत्तीर्णं व्यक्ति भी भय ओर लोभ से दूसरों को अन्तःपुर में प्रविष्ट 
करा सकते हैँ, इसलिये काम, भय ओर धन-इन तीनों कौ परीक्षा में उत्तीर्ण व्यक्ति को ही 
अन्तःपुर में रक्षक नियुक्त करना चाहिये-यह गोणिकापुत्र का मत हे ॥ ४१॥ 
अद्रोहो धर्मस्तमपि भयाज्जह्यादतो धर्मभयोपधाशुद्धानिति वात्स्यायनः ॥ ४२॥ 
स्वामिद्रोह करना अधर्म है, लेकिन व्यक्छि भय के कारण उसे भी छोड़ सकता है, अतएव 
जो निर्भीक ओर धर्मात्मा हों, उन्हें ही अन्तःपुर में रक्षक नियुक्त करे यह आचार्य वात्स्यायन 
कामत हे॥४२॥ | 
परवाक्याभिधायिनीभिश्च गृूढाकाराभिः प्रमदाभिरात्मदारानुपदध्याच्छोचा- 
शौचपरिज्ञानार्थमिति बाभ्रवीयाः ॥ ४२३ ॥ 
परपुरुष के कहे गये वाक्यों का बहाना करके कहने वाली ओर अपना अभिप्राय छिपा 
लेने वाली स्त्रियो से अपनी स्त्रियों कौ परीक्षा करा ले कि उनमें कितनी सदाचारिणी हँ ओर 
कितनी दुराचारिणी-एेसा आचार्य बाभ्रव्य के अनुयायियों (शिष्यो ) का मत हे ॥ ४३॥ 
दुष्टानां युवतिषु सिद्धत्वान्नाकस्माददुष्टदूषणमाचरेदिति वात्स्यायनः ॥ ४४॥ 
दुष्ट व्यक्ति तो स्त्री को फंसाया ही करते है, इसलिये अकारण सदाचारियों को दूषित न 
किया जाये- यह आचार्य वात्स्यायन का मत हे ॥ ४४॥ 
अतिगोष्टी निरङ्कशत्वं भर्तुः स्वैरता पुरुषैः सहानियन्त्रणता प्रवासेऽवस्थानं 
विदेशे निवासः स्ववृत्त्युपघातः स्वैरिणीसंसर्गः पत्युरीर््यालुता चेति स्त्रीणां 
विनाशकारणानि 1 ४५॥ 
विनाश के कारण- अत्यधिक गप्पे मारना, निरंकुशता, स्वेच्छाचारिता, पुरुषों के साथ 
खुला व्यवहार, पति के विदेशगमन पर एकाक रहना, घर से बाहर विदेश में रहना, जीविका- 
विहीन होना, कुलटा सियो का संसर्गं ओर पति से ईर्ष्या रखना-ये स्रियो के विनाश के .. 
कारण है ॥ ४५ ॥ 


१५४ ` वात्स्यायन-कामसूत्र 






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