रविवार, 12 मार्च 2023

अध्याय द्वितीय ★-


" प्राचीन  शास्त्रों के अनुसार  "ब्राह्मण बकरे के सजातीय है "वैश्य गाय के सजातीय "क्षत्रिय भेड़े (मेढ़ा)के सजीय और शूद्र घोड़े के सजातीय जन बताए गये हैं। _______________________________

एक वैदिक श्रोता ऋषि से  प्रश्न किया " यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ? मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादा उच्येते ? 
(ऋग्वेद▪10/90/11 )जिस पुरुष का विधान किया गया ? उसका कितने प्रकार विकल्पन( रचना) की गयी अर्थात् प्रजापति द्वारा जिस समय पुरुष विभक्त हुए तो उनको कितने भागों में विभक्त किया गया, इनके मुख ,बाहू उरु और चरण क्या कहे गये ? तो ऋषि ने इस प्रकार 👇 उत्तर दिया 
 ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य:कृत: उरू तदस्य यदवैश्य: पद्भ्यां शूद्रोऽजायत|। 
ऋग्वेद -10/90/11-12》 
उत्तर–इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण जाति भुजा से क्षत्रिय जाति,और  वैश्य जाति ऊरु से तथा शूद्र जाति दौनों पैरों से उत्पन्न हुई। 
पुरुष सूक्त में जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण है ।
इस लिए यहाँ कल्पना शब्द से उत्पत्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाऐगा नकि अलंकार की कल्पना का अर्थ । क्योंकि अन्यत्र भी अकल्पयत् क्रियापद रचना करने के अर्थ में है।
"सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" ऋग्वेद- १०/ १९१/३ अर्थात् सूर्य चन्द्र विधाता ने पूर्व रचना में बनाए थे वैसे ही अन्य इस रचना में बनाए हैं । सृष्टि उत्पत्ति के विषय में कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में वर्णन है कि 
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प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत । 
तमग्निर्देवान्लवसृजत गायत्रीछन्दो रथन्तरं साम । 
ब्राह्मणोमनुष्याणाम् अज: पशुनां तस्मात्ते मुख्या मुखतो। ह्यसृज्यन्तोरसो बाहूभ्यां पञ्चदशं निरमिमीत ।। 
तमिन्द्रो देवतान्वसृज्यतत्रष्टुपछन्दो बृहत् साम राजन्यो मनुष्याणाम् अवि: पशुनां तस्मात्ते वीर्यावन्तो वीर्याध्यसृज्यन्त ।। 
मध्यत: सप्तदशं निरमिमीत तं विश्वे देवा देवता अनवसृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपं साम वैश्यो मनुष्याणां गाव: पशुनां तस्मात्त आद्या अन्नधानाध्यसृज्यन्त तस्माद्भूयां सोन्योभूयिष्ठा हि देवता। अन्वसृज्यन्तपत्त एकविंशं निरमिमीत तमनुष्टुप्छन्द: अन्वसृज्यत वैराजे साम शूद्रो मनुष्याणां अश्व: पशुनां तस्मात्तौ भूतसंक्रमिणावश्वश्च शूद्रश्च तसमाच्छूद्रो । यज्ञेनावक्ऌप्तो नहि देवता अन्वसृज्यत तस्मात् पादावुपजीवत: पत्तो ह्यसृज्यताम्।।
 (तैत्तिरीयसंहिता--७/१/४/९/)।👇
तैत्तिरीयसंहिता काण्ड 7 प्रपाठकः 1अनुवाक- 4-5-6

(4) प्रजापतिर् वाव ज्येष्ठः स ह्य् एतेनाग्रे ऽयजत प्रजापतिर् अकामयत प्र जायेयेति स मुखतस् त्रिवृतं निर् अमिमीत तम् अग्निर् देवतान्व् असृज्यत गायत्री छन्दो रथंतरꣳ साम ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम् । तस्मात् ते मुख्याः । मुखतो ह्य् असृज्यन्त । उरसो बाहुभ्याम् पञ्चदशं निर् अमिमीत तम् इन्द्रो देवतान्व् असृज्यत त्रिष्टुप् छन्दो बृहत्
(5) साम राजन्यो मनुष्याणाम् अविः पशूनाम् । तस्मात् ते वीर्यावन्तः । वीर्याद् ध्य् असृज्यन्त मध्यतः सप्तदशं निर् अमिमीत तं विश्वे देवा देवता अन्व् असृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपꣳ साम वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् । तस्मात् त आद्याः । अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त तस्माद् भूयाꣳसो ऽन्येभ्यः । भूयिष्ठा हि देवता अन्व् असृज्यन्त पत्त एकविꣳशं निर् अमिमीत तम् अनुष्टुप् छन्दः
(6)अन्व् असृज्यत वैराजꣳ साम शूद्रो मनुष्याणाम् अश्वः पशूनाम् । तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः । न हि देवता अन्व् असृज्यत तस्मात् पादाव् उप जीवतः पत्तो ह्य् असृज्येताम् प्राणा वै त्रिवृत् । अर्धमासाः पञ्चदशः प्रजापतिः सप्तदशस् त्रय इमे लोकाः । असाव् आदित्य एकविꣳशः । एतस्मिन् वा एते श्रिता एतस्मिन् प्रतिष्ठिताः । य एवं वेदैतस्मिन्न् एव श्रयत एतस्मिन् प्रति तिष्ठति॥____________________________________
अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं । 
( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए । 
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हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ। (भेढ़ क्षत्रियों की सजातीय है। इन्हें भेढ़  पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए।  इसी लिए मेढ्र ( सिंचन करने वाला / गर्भाधान करने वाला ) कहा जाता है मेढ़े को । मेढ्रः, पुल्लिंग (मेहत्यनेनेति । मिह सेचने + “दाम्नी- शसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः करणे ।”३।२।१८२। इति ष्ट्रन् ) =शिश्नः । (यथा, मनौ । ८ । २८२ । “अवमूत्रयतो मेढ्रमवशर्द्धयतो गुदम् ।) स तु गर्भस्थस्य सप्तभिर्मासैर्भवति । इति सुख- बोधः ॥
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मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये। उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य और पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए। 
इनकी संख्या बहुत है । 
कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए। 
उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।
पीछे अनुष्टुप छन्द, वैराज, साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए । यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है । क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ। प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण "अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए। 
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ब्राह्मण बकरे के सजातीय और वैश्य गाय के सजातीय क्षत्रिय भेड़े (मेढ़ा)के तथा शूद्र घोड़े के सजातीय है । अब बताओ सबसे श्रेष्ठ पशु कौन सा है ?
छन्द 4
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प्रजापतिर् वाव ज्येष्ठः
स ह्य् एतेनाग्रे ऽयजत
प्रजापतिर् अकामयत
प्र जायेयेति
स मुखतस् त्रिवृतं निर् अमिमीत
तम् अग्निर् देवतान्व् असृज्यत गायत्री छन्दो रथंतर म्साम ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम् 
तस्मात् ते मुख्याः ।

मुखतो ह्य् असृज्यन्त ।
उरसो बाहुभ्याम् पञ्चदशं निर् अमिमीत
तम् इन्द्रो देवतान्व् असृज्यत त्रिष्टुप् छन्दो बृहत्
कृष्ण यजुर्वेद ७/१/१/ में भी इस वैदिक  उत्पत्ति का वर्णन है। 
छन्द 5-
साम राजन्यो मनुष्याणाम् अविः पशूनाम् ।
तस्मात् ते वीर्यावन्तः ।
वीर्याद् ध्य् असृज्यन्त
मध्यतः सप्तदशं निर् अमिमीत
तं विश्वे देवा देवता अन्व् असृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपम्साम वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् 
तस्मात् त आद्याः ।
अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त
तस्माद् भूयाम्सोम ऽन्येभ्यः ।
भूयिष्ठा हि देवता अन्व् असृज्यन्त
पत्त एकविंश निर् अमिमीत
तम् अनुष्टुप् छन्दः
छन्द-6-
अन्व् असृज्यत वैराजम् साम शूद्रो मनुष्याणाम्
अश्वः पशूनाम् ।
तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च
तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः ।
न हि देवता अन्व् असृज्यत
तस्मात् पादाव् उप जीवतः
पत्तो ह्य् असृज्येताम्
प्राणा वै त्रिवृत् ।
अर्धमासाः पञ्चदशः
प्रजापतिः सप्तदशस्
त्रय इमे लोकाः ।
असाव् आदित्य एकविंशः ।
एतस्मिन् वा एते श्रिता एतस्मिन् प्रतिष्ठिताः ।
य एवं वेदैतस्मिन्न् एव श्रयत एतस्मिन् प्रति तिष्ठति।

तैत्तिरीय संहिता ७.१.१.४ में उल्लेख आता है कि प्रजापति के मुख से अजा ( बकरी)उत्पन्न हुईउर से अवि (भेड़)उदर से गौ तथा पैर  से अश्व । अज गायत्र है । जैमिनीय ब्राह्मण १.६८ में यह उल्लेख थोडे भिन्न रूप में मिलता है । वहां उर से अश्व की उत्पत्ति और पद  से अवि की उत्पत्ति का उल्लेख है जो कि प्रक्षेप ही है। प्रश्न उठता है कि मुख से अजा उत्पन्न होने का क्या निहितार्थ हो सकता है ? जैसा कि गौ शब्द की टिप्पणी में छान्दोग्य उपनिषद २.१०-२.२० के आधार पर कहा गया हैअज अवस्था सूर्य के उदित होने से पहले कीतप की अवस्था हो सकती है । अवि अवस्था सूर्य उदय के समय की अवस्था हैगौ अवस्था मध्याह्न काल की अवस्था है जब पृथिवी सूर्य की ऊर्जा को अधिकतम रूप में ग्रहण करने में सक्षम होती है । अपराह्न काल की अवस्था अश्व की और सूर्यास्त की अवस्था पुरुष की अवस्था होती है । सामों की भक्तियों के संदर्भ में अज को हिंकारअवि को प्रस्तावगौ को उद्गीथअश्व को प्रतिहार और पुरुष को निधन कह सकते हैं( रैवत पृष्ठ्य साम के संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद २.१८ ) ।

शतपथ ब्राह्मण ४.५.५.२ में अजा आदि पशुओं के लिए पात्रों का निर्धारण किया गया है । अजा उपांशु पात्र के अनुदिश उत्पन्न होती हैंअवि अन्तर्याम पात्र केगौ आग्रयणउक्थ्य व आदित्य पात्रों केअश्व आदि एकशफ पशु ऋतु पात्र के और मनुष्य शुक्र पात्र के अनुदिश उत्पन्न होते हैं । अजा के उपांशु पात्र से सम्बन्ध को इस प्रकार उचित ठहराया गया है कि यज्ञ में प्राण उपांशु होते हैं( शतपथ ब्राह्मण ४.१.१.१)बिना शरीर केतिर: प्रकार के होते हैं( ऐतरेय आरण्यक २.३.६) । अतः इन पात्रों को उपांशु या चुपचाप रहकर ग्रहण किया जाता है । इस कथन को अजा के इस गुण के आधार पर समझा जा सकता है कि अजा के तप से शरीर के अविकसित अङ्गों काज्ञानेन्द्रियों का क्रमशः विकास होता है । मुख तक विकास होने पर ही वह व्यक्त हो पाते हैं । कहा गया है कि अजा की प्रवृति ऊपर की ओर मुख करके गमन करने की होती है जबकि अवि की नीचे की ओरभूमि का खनन करते हुए चलने जैसी । अवि के साथ अन्तर्याम पात्र सम्बद्ध करने का न्याय यह है कि उदान अन्तरात्मा है जिसके द्वारा यह प्रजाएं नियन्त्रित होती हैंयमित होती हैं । अतः इस पात्र का नाम अन्तर्याम है ( शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.२) । यह अवि के नीचा मुख करके चलने की व्याख्या भी हो सकती है क्योंकि उदान अधोमुखी होने पर ही प्रजाओं का नियन्त्रण हो पाता है । मनुष्य के शुक्र पात्र के संदर्भ में शुक्र श्वेत ज्योति को कहते हैं । अश्व और गौ के संदर्भ में पात्रों की प्रकृति के निहितार्थ अन्वेषणीय हैं ।

परन्तु ब्राह्मण गाय पाले तों उनके लिए हेय ही है क्यों की गाय ब्रह्मा के उदर से ही उत्पन्न हुई थी 
और बकरी (अजा) ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण के साथ उनके यज्ञों के साधन रूप में उत्पन्न हुई स्वयं अग्नि देव ने अज( बकरे ) को अपना वाहन स्वीकार किया।
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अब ऋग्वेद में मनुष्यों की उत्पत्ति विराट पुरुष के इन अंगों से हुई।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः॥
(ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)

(ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ) अर्थात ब्राह्मण इस विराट पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए। बाहों से क्षत्रिय ,उरू से वैश्य और  दौनों पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ।
यदि दूसरे शब्दों के अनुसार कहे  तो इस ऋचा का अर्थ इस प्रकार समझा जा सकता है। सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्म के मुख से ब्राह्मण हुए, बाहु क्षत्रिय का कारण बने, उसकी जंघाएं वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
वर्ण-व्यवस्था मानने वाले ब्राह्मण लोग वैदिक
विधानों के अनुसार गाय के स्थान पर बकरी ही पालें यही वेदों का विधान है। क्यों गाय वैश्य वर्ण के साथ ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुई।
अत: गाय को  वैश्य से सम्बन्धित कर दिया गया -
जैसा कि पुराणों तथा वेदों का कथन है । पुराण भी वेदों के ही लौकिक व्याख्याता हैं ।
पुराणों में और वेदान्त ग्रन्थों (तैत्तिरीय संहिता, सतपथ ब्राह्मण आदि) में वर्णन है कि -
सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा ने अपने मुख से बकरियाँ उत्पन्न कीं और वक्ष से भेड़ों को तथा उदर से गायों को उत्पन्न किया तथा पैरों से घोड़ा उत्पन्न हुआ था ।
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ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने को कारण ही बकरियाँ पशुओं में मुख्य =(मुख+यत्) मुख से उत्पन्न हैं । मुख्य शब्द मुख से व्युत्पन्न तद्धितान्त पद है जो अब श्रेष्ठ अर्थ का सूचक है।
"मुखे आदौ भवः यत् प्रथमकल्पे अमरःकोश -श्रेष्ठे च ।
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श्रीविष्णुधर्मोत्तर पुराण प्रथमखण्ड ग्रहर्क्षादिसंभवाध्यायो नाम107वाँ अध्याय ।। देखें नीचे ये दो श्लोक-
मुखतोऽजाःसृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत्।
गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पुनरन्याँश्च निर्ममे।३०।
उस जगत्सृष्टा ब्रह्मा ने मुख से अजा (बकरी) और  वक्ष से अवि( भेड़)  उत्पन्न की और गायें को उस ब्रह्मा ने उदर से पैदा किया और पुन: भी ये इसी प्रकार उत्पन्न हुए।३०।
पादतोऽश्वांस्तुरङ्गांश्च रासभान्गवयान्मृगान् ।
उष्ट्रांश्चैव वराहांश्च श्वानानन्यांश्च जातयः।३१।
पैरों से अश्व और तुरंग ,रासभ ,गवय ,मृग, ऊँट वराह ( सूकर) ,कुत्ता ,और अन्य  अन्य जो जाति के जीव है वे उत्पन्न किए।३१।
अष्टास्वेतासु सृष्टासु देवयोनिषु स प्रभुः ।
छन्दतश्चैवछन्दासि वयांसि वयसासृजत्।४२।
पक्षिणस्तु स सृष्ट्वा वै ततःपशुगणान्सृजन् ।
मुखतोऽजाऽसृजन्सोऽथ वक्षसश्चाप्यवीःसृजन् ४३।
गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्यां च विनिर्ममे ।
पादतोऽश्वान्समातङ्गान् रासभान्गवयान्मृगान्।४४
अनुवाद:- 42. इन आठ दिव्य प्राणियों को बनाने के बाद, उस सृष्टा ने इच्छा करते हुए *छन्दों का सृजन किया । उन्होंने अपनी वयस् (बल - यौवन ) के माध्यम से पक्षियों का निर्माण किया।
विशेष:- छन्द:-छदि+अच्-संवरणे धातोरनेकार्थत्वात् इह इच्छायाम् अच्  अभिलाषे,
43. पक्षियों को बनाने के बाद उसने पशुओं के समूह बनाए। उसने अपने मुँह से बकरियाँ और अपनी छाती से भेड़ें पैदा कीं।
44-45 ब्रह्मा ने अपने उदर(पेट)से गायों और पैरों से घोड़ों, गदहों, गवयों (नील गाय की एक प्रजाति), हिरण, ऊँट, सूअर और कुत्तों के साथ-साथ हाथियों को भी पैरों से पैदा किया। ब्रह्मा द्वारा जानवरों की अन्य प्रजातियाँ भी बनाई गईं।
श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते पूर्वभागे द्वितीयेऽनुषङ्गपादे मानससृष्टिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः
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और उस विराट ने दोनों पैरों से घोड़े और तुरंगो, गदहों और नील गाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार सूकर(वराह),कुत्ता जैसी अन्य जानवरों की जातियाँ उत्पन्न की ।
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"बकरी ब्राह्मणों की सजातीय इसीलिए है कि ब्राह्मण भी ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुए और बकरा -बकरी भी मुख से उत्पन्न हुए हैं।अग्नि, इन्द्र ,ब्राह्मण और अजा ये सभी पहले उत्पन्न हुए और विराट पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए इसी लिए इन्हें  लोक में मुख्य कहा गया।
 "अग्रजायते ब्रह्मण:मुखात् इति अजा।
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(ऋग्वेद मण्डल दश सूक्त नवति और ऋचा एक से द्वादश) (१०/९०/ १ से १२ )पर्यन्त ऋग्वेद में सृष्टि रचना का वर्णन है कि
"सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥
तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥५॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोअस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मःशरद्धवि:॥६॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥७॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥८॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दान्सिजज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥९॥
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तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजा अवयः।१०।
तस्मात्) उस विराट पुरुष ब्रह्मा से (अश्वाः-अजायन्त) अश्व (घोड़े) उत्पन्न हुए (ये के च उभयादतः) और जो कोई ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँतवाले हैं, वे भी उत्पन्न हुए (तस्मात्-गावः-ह जज्ञिरे) उस परमात्मा से गाय  उत्पन्न हुईं  (तस्मात्-अजा-अवयः-जाताः) और  उसी विराटपुरुष से बकरियाँ और भेड़ें उत्पन्न हुईं।१०।
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यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते।११।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यःपद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१२
विष्णु धर्मोत्तरपुराण में निम्न श्लोक विचारणीय हैं। 
मुखतोऽजाः सृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत् गावश्चैवोदराद्ब्रह्मापुनरन्याँश्च निर्ममे।1.107.३०।
पादतोऽश्वांस्तुरङ्गांश्च रासभान्गवयान्मृगान् ।उष्ट्रांश्चैव वराहांश्च श्वानानन्यांश्च जातयः 1.107.३१।

ब्रह्मा ने मुख से बकरियाँ उत्पन्न कीं ।
वक्ष से भेड़ों को और उदर से गायों को उत्पन्न किया ।३०।
और दोनों पैरों से घोड़ो और तुरंगो , गदहों और नील-गाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार ब्रह्मा द्वारा सूकर (वराह) कुत्ता जैसी अन्य जातियाँ उत्पन्न की गयीं ।३१। यह तथ्य विष्णुधर्मोत्तर पुराण खण्ड प्रथम अध्याय (१०७) में भी है। और अन्य बहुतायत पुराणों में भी वेदों के इन्हीं सन्दर्भों का ही हवाला दिया गया है।
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"अवयो वक्षसश्चक्रे मुखत: अजाःस सृष्टवान्।
सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वभ्यां च प्रजापतिः।४८।
पद्भ्यां चाश्वान्समातङ्गान्रासभान्गवयान्मृगान्।
उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कूनन्याश्च जातयः।४९।
 (विष्णुपुराण प्रथमाञ्श पञ्चमोऽध्याय (५) 
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विष्णु पुराण पञ्चमाञ्श पञ्चम् अध्याय में भी वर्णन है कि अवि (भेढ़) ब्रह्मा नें वक्ष से। और विराट-पुरुष( ब्रह्मा)  के मुख से अजा बकरी) उत्पन्न हुई हैं । उदर से गौ और अगल-बगल से प्रजापति उत्पन्न हुए ।
तुलना करें- वायुपुराण
मुखतोऽजान् ससर्ज्जाथ वक्षसश्चवयोऽसृजत्।
गाश्चैवाथोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।३९।
 वायुपुराण पूर्वार्ध नवम अध्याय श्लोक ३९ वाँ।
रजस्तमोभ्यामाविष्टांस्ततोऽन्यानसृजत् प्रभुः।।
वयांसि वयसः सृष्ट्वा अवीन्वै वक्षसोऽसृजत् ।७.५४
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कूर्मपुराण-
मुखतोऽजान् ससर्जान्यान् उदराद्‌गाश्चनिर्ममे ।
पद्भ्यांचाश्वान् समातङ्गान् रासभान् गवयान् मृगान्।७.५५।
इति श्रीकूर्मपुराणे षट्‌साहस्त्र्यां संहितायां पूर्वविभागे सप्तमोऽध्यायः।७।
कूर्मपुराणपूर्वभाग सप्तम अध्याय -
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ततःस्वदेहतोऽन्यानि वयांसि पशवोऽसृजत्।
मुखतोऽजाः ससर्जाथ वक्षसश्चावयोऽसृजत्।४८/२५।
गावश्चैवोदराद् ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे।
पद्भ्याञ्चाश्वान् स मातङ्गान् रासभान् शशकान् मृगान्।४८/२६।
मार्कण्डेयपुराण अध्याय- ४८-०५० - 
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अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्
सृष्टवान् उदराद् गा: च महिषांश्चप्रजापतिः।१०५।
पद्भ्यां चाश्वान्स मातंगान्रासभान्गवयान्मृगान्
उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यंकूनन्याश्च जातयः ।१०६।
पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय(३)का १०५ वाँ श्लोक
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अब शिवपुराण में भी देखें-
वयांसि पक्षतः सृष्टाः पक्षिणो वक्षसोऽसृजत् ॥
मुखतोजांस्तथा पार्श्वादुरगांश्च विनिर्ममे ॥५६।
पद्भ्यां चाश्वान्समातंगान् शरभान् गवयान्मृगान्॥
उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कुनन्याश्च जातयः।५७।
औषध्यः फलमूलानि रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे ॥
गायत्रीं च ऋचं चैव त्रिवृत्साम रथन्तरम् ॥५८।
अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात्॥
यजूंषि त्रैष्टुभं छंदःस्तोमं पञ्चदशं तथा।५९।
बृहत्साम तथोक्थं च दक्षिणादसृजन्मुखात्॥
सामानि जगतीछंदः स्तोमं सप्तदशं तथा ॥६०।
वैरूप्यमतिरात्रं च पश्चिमादसृजन्मुखात्।
एकविंशमथर्वाणमाप्तोर्यामाणमेव च।६१।
अनुष्टुभं स वैराजमुत्तरादसृजन्मुखात्।
उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे।६२।
यक्षाः पिशाचा गंधर्वास्तथैवाप्सरसां गणाः।
नरकिन्नररक्षांसि वयःपशुमृगोरगाः।६३।
अव्ययं चैव यदिदं स्थाणुस्थावरजंगमम् ।
तेषां वै यानि कर्माणि प्राक्सृष्टानि प्रपेदिरे।६४।
तान्येव ते प्रपद्यंते सृज्यमानाः पुनः पुन:।
हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते।६५।
तद्भाविताः प्रपद्यंते तस्मात्तत्तस्य रोचते॥
महाभूतेषु नानात्वमिंद्रियार्थेषु मुक्तिषु।६६।
विनियोगं च भूतानां धातैव व्यदधत्स्वयम्।
नाम रूपं च भूतानां प्राकृतानां प्रपञ्चनम्।६७।
वेदशब्देभ्य एवादौ निर्ममे ऽसौ पितामहः।
आर्षाणि चैव नामानि याश्च वेदेषु वृत्तयः।६८।
शर्वर्यंते प्रसूतानां तान्येवैभ्यो ददावजः।
यथर्तावृतुलिंगानि नानारूपाणि पर्यये।६९।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु।
इत्येष करणोद्भूतो लोकसर्गस्स्वयंभुवः।७०।
वक्त्रात्तस्य ब्रह्मणास्संप्रसूतास्तद्वक्षसःक्षत्रियाः 
पूर्वभागात् ॥
वैश्या उरुभ्यां तस्य पद्भ्यां च शूद्राः सर्वे वर्णा गात्रतः संप्रसूताः॥७७॥
अनुवाद-
56.उसके वक्ष( छाती) के दौनों पक्षों(ओरों) से पक्षी, मुख से बकरियाँ और हर तरफ से सर्प उत्पन्न हो गए थे।
57. उनके पैरों से घोड़े, हाथी,शरभ, जंगली बैल, हिरण, ऊँट, खच्चर, हरिण और अन्य जानवर पैदा हुए।
58-62 उनकी रोमों से औषधियाँ, फल और जड़ें पैदा हुए। अपने पूर्वी मुख से उन्होंने गायत्री ,ऋक्, त्रिवृत्साम,रथान्तर,अग्निष्टोम और अन्य यज्ञों की रचना की ।  तथा अपने दक्षिण मुख से उन्होंने यजुस त्रैष्टुभ और पन्द्रह छन्दस्तोम, ,बृहत्साम और. भिन्न भिन्न देवताओं के वैदिक स्तोत्रों की रचना की। अपने पश्चिमी मुख से वे साम जगतीछन्दः और सत्रह स्तोम  वैरूप्य और अतिरात्र मंत्रों रचना की । अपने उत्तरी मुख से उन्होंने इक्कीस अथर्वों को, अनुष्टुभ और, वैराज छन्दों की  रचना की उसके अलग-अलग अंगों से और शरीर  के हिस्से  ऊपर-नीचे के पशु और उत्पन्न हुए।
63. यक्ष, पिशाच , गन्धर्व,अप्सराएँ, मनुष्य,किन्नर राक्षस, पक्षी, हिरण तथा  पशु, सर्प अन्य आदि  उत्पन्न हो गये ।
64. नश्वर और अविनाशी जंगम और स्थिर जीव अपनी गतिविधियों को प्राप्त करते हैं।
65. बार-बार बनाए गए प्राणी अपने पिछले स्वभाव, हिंसक या अहिंसक, मृदु या क्रूर धर्माधर्म सत्य असत्य को भी  बनाए रखते हैं।
66-70- वे अपने पूर्व  लक्षणों के प्रभाव से जन्म लेते हैं। और उसी के अनुसार उन्हें अच्छा सभी प्राणियो में तत्व, विषय वस्तु आदि की विविधता और इन्द्रियों में विषय (प्रवृति )और विषयों में मुक्ति ( निवृत्ति) आदि की विविधता होती है। वे स्वयं उन्हें वैदिक ग्रंथों के माध्यम से  नाम और रूप में प्रदान करते हैं। उन्हे ऋषियों के नाम स्वभाव" गुण" रूप आदि के अनुसार वेदों  से प्राप्त होते हैं। लोगों को प्रदान किए गए कार्य जो रात के अंत में पैदा होते है उसी प्रकार होतो हैं  जब कोई नयी ऋतु आती है तो उसकी प्रकृति भी  स्वयं प्रकट होती है। इसी प्रकार जब नया युगआता है तो उसका संदर्भ भी उसके साथ प्रकट होता है। इस प्रकार सृष्टि स्वयं को ब्रह्मा के माध्यम से  प्रकट करती हैं।
77. ब्राह्मण  ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं: उसकी छाती से क्षत्रिय , उसकी जांघों से वैश्य ; उनके चरणों के शूद्र सभी जातियाँ उन्हीं से उत्पन्न हुई हैं।
इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे सृष्टिवर्णनं नाम द्वादशो ऽध्यायः।
शिवपुराण (वायवीयसंहिता)पूर्व भागःअध्यायः( १२)
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गायन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वाप्सरसश्च ये।
स्वर्गं द्यौर्वक्षसश्चक्रे मुखतोऽजाः स सृष्टवान्।4.30।
★-सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः।
पद्भ्यांचैवांत्यमातङ्गान्महिषोष्ट्राविकांस्तथा।4.31।
ओषध्यः फलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे।
गौरजःपुरुषो मेध्यो ह्यश्वाश्वतरगर्दभाः।4.32 ।
एतान् ग्राम्यान्पशून्प्राहुरारण्यांश्च निबोध मे।
श्वापदं द्विखुरं हस्तिवानराःपक्षिपञ्चमाः।4.33।
औदकाःपशवःषष्ठाःसप्तमाश्च सरीसृपाः।
पूर्वादिभ्यो मुखेभ्यस्तु ऋग्वेदाद्याःप्रजज्ञिरे। 4.34।
आस्याद्वै ब्राह्मणा जाता बाहुभ्यां क्षत्त्रियाः स्मृताः। ऊरुभ्यां तु विशः सृष्टाः शूद्रः पद्भ्यां जायत । 4.35।
श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे सृष्टिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः।4।
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★-सृष्टवानुदराद्‌गाश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः
( साम्य विष्णु पुराण प्रथमाँश पञ्चम् अध्याय)
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बकरी को शास्त्रों में सर्वाधिक श्रेष्ठ पशु माना गया है ब्राह्मण भी प्रारम्भिक काल में बकरी ही पालते थे।  बकरी ही उनके यजन का साधन थीं ।
क्यों कि सृष्टि रचना में बकरी ब्रह्मा के मुख से निकली है जो ब्राह्मणों की सजातीय है। 
परन्तु वैश्य वर्ण की गाय को ब्राह्मण द्वारा पाला जाना वेदशास्त्रों के विधान की तौहीन है। वैसे भी यादवों (गोपों)को गोपालन के कारण ही वैश्य वर्ण में करने के विधान बनाए गये ।
गाय वैश्य वर्णा पशु है इसी लिए आज तक शंकराचार्य गण अहीरों को मात्र गोपालन करने के कारण वैश्य ही मानते हैं ।
परन्तु अपने ऊपर ये ब्राह्मण  कोई विधान लागू ही नहीं होने देते यही इनकी शास्त्रीय तानाशाही है। जैसा ब्राह्मण अनुवादक ने वराह पुराण में वर्णित सूकर महात्म्य के एक प्रसंगकथा में "अभीराणां जनेश्वर" इस पद का अर्थ "वेैश्यों का नेता" या राजा कर दिया है। 
गतः स पद्मपत्राक्ष आभीराणां जनेश्वरः।
गावो विंशसहस्राणि प्रेषयत्यग्रतो द्रुतम् ।५६।
अर्थ:- अभीरों (वैश्यों) का  राजा पद्मपत्राक्ष" चला गया और वह जल्दी में बीस हजार गायें आगे भेज देता है। 56।
श्रीवराहपुराणे खञ्जरीटोपाख्यानं नामाष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।१३८।
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पद्म पुराण में गाय को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न कराना और ब्राह्मण की सजातीय बनाकर ब्राह्मण को धर्म और वर्ण संकट में डालना ही है। क्यों कि गाय पालने मात्र से अहीर वैश्य हो गये और अधिक तर पुराणों शास्त्रों में गो विराट पुरुष के उदर से उत्पन्न होने से वैश्यवर्णा पशु है।
अत: पद्म पुराण सृष्टि खण्ड का 48 वाँ अध्याय नवीनतर है क्यों इस अध्याप में ब्राह्मण को कृषि करवाने का भी शास्त्र विरोधी विधान पारित करते जाना गया है।
कदाचित इसी विधान की आढ़ में स्कन्द पुराण में  गाय के मुख से गायत्री  की कथा कल्पित की गयी ।

यद्यपि ब्रह्मवैवर्त पुराण में गायों और भैंसों की आदि जननी (माता) सुरभि है जो कृष्ण के रोपकूपों से गोप और गोपिकाओं के साथ उत्पन्न होना दर्शाया  गया है।

महाभारत के अनुशासन पर्व में भी गायों की माता सुरभि को प्रजापति के मुख से बताकर गाय को ब्राह्मण वर्ण की तो बना दिया परन्तु दक्ष प्रजापति की उत्पत्ति ब्रह्मा के दाहिने पैर के अंगूठे से हुई और इस कारण वे शूद्र वर्णीय प्रजापति हुए।  यह विचार करना कथा बनाने वालेनभूल ही गये। 

प्रजापति की उत्पत्ति ब्रह्मा के दाहिने पैर के अंगूठे से हुई इसके लिए निम्न अध्याय देखें-

भागवत पुराण / तृतीय स्कन्ध /बारहवाँ अध्याय।

                 सृष्टिका विस्तार

अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः।२१।
मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः।२२।
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयो: ऋषिः।
अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत्।२४।
धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५।
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः।२६।
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत्।२७।
अनुवाद:-
इसके पश्चात् जब भगवान्‌ की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्माजी ने सृष्टि के लिये सङ्कल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए।
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उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई ।२१।उनके नाम मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे ।२२। इनमें नारद जी प्रजापति ब्रह्माजी की गोद से, (दक्ष अँगूठे से,उत्पन्न हुए) वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अङ्गिरा मुख से, अत्रि नेत्रोंसे  और मरीचि मन से उत्पन्न हुए ।२३-२४।

फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिसकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करनेवाला मृत्यु उत्पन्न हुआ ।२५। 

इसी प्रकार ब्रह्माजीके हृदयसे काम, भौंहों से क्रोध, नीचे के होठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिङ्ग से समुद्र, गुदा से पापका निवासस्थान (राक्षसोंका अधिपति) निर्ऋति।२६।

छाया से देवहूति के पति भगवान्‌ कर्दम जी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्-कर्ता ब्रह्माजी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ।२७।

"उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः"भागवतपुराण-3/12/23

यही दक्ष की उत्पत्ति विष्णु पुराण में है।

                  श्रीमैत्रेय उवाच
अङ्गुष्ठाद्दक्षिणाद्दक्षः पूर्वं जातो मया श्रुतः।
कथं प्राचेतसो भूयः समुत्पन्नो महामुने।
 १,१५.८०। (विष्णुपुराण-1/15/80)

यही हरिवंश पुराण में भी है।

अङ्गुष्ठाद् ब्रह्मणो जातो दक्षःप्रोक्तस्त्वयानघ।
वामाङ्गुष्ठात् तथा चैव तस्य पत्नी व्यजायत।५२।
 (हरिवंशपर्व  द्वितीय अध्याय)

अंगूठा पैर का ही अंग है और इस आधार पर दक्ष शूद्र वर्ण के हुए । और दक्ष के मुख से सुरभि की उत्पत्ति बतलाने से भी  गाय को ब्राह्मण कुल का होने की बात सिद्ध नहीं होती क्यों कृष्ण के रोमकूपों से गोपों के साथ सुरभि की उत्पत्ति भी ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्गसंहिता में प्रमाण हैं ।  अत: प्रमाणों के आधार पर गाय आभीर कुल का ही पशु है। और इसी लिए  गोपालक होने से गोपों को वैश्य वर्ण में परिगणित किया गये। परन्तु ये भी सिद्धान्त विहीन ही बात है।

वास्तव में गाय को ब्राह्मण कुल की बताने के लिए  महाभारत के श्लोक को  ही अन्य ग्रन्थों में उद्धृत किया गया है।  जो गाय को ब्राह्मण कुल की होने की भ्रान्ति बनाता रहा।

अब सुरभि गाय ब्रह्मा के मुख से  प्रत्यक्ष तो उत्पन्न नहीं हुई। फिर गाय और ब्राह्मण का कुल एक कैसे हुआ।

              वैशम्पायन उवाच। 
ततो युधिष्ठिरे राजा भूयः शान्तनवं नृपम्।
गोदानविस्तरं धीमान्पप्रच्छ विनयान्वितः।112-1।

गोप्रदानगुणान्सम्यक् पुनर्मे ब्रूहि भारत।
न हि तृप्याम्यहं वीरशृण्वानोऽमृतमीदृशम्।112-2
इत्युक्तो धर्मराजेन तदा शान्तनवो नृपः।
सम्यगाह गुणांस्तस्मै गोप्रदानस्य केवलान्।112-3

                  भीष्म उवाच।
वत्सलां गुणसम्प्रन्ना तरुणीं वस्त्रसंयुताम्।
दत्त्वेदृशीं गां विप्राय सर्वपापैः प्रमुच्यते।112-4

असुर्या नाम ते लोका गां दत्त्वा तान्न गच्छति।112-5

पीतोदकां जग्धतृणां नष्टक्षीरां निरिन्द्रियाम्।
जरारोगोपसम्पन्नां जीर्णां वापीमिवाजलाम्।
दत्त्वा तमः प्रविशति द्विजं क्लेशेन योजयेत्।
13-112-6

रुष्टा दुष्टा व्याधिता दुर्बला वा
नो दातव्या याश्च मूल्यैरदत्तैः।
क्लेशैर्विप्रं योऽफलैः संयुनक्ति
तस्याऽवीर्याश्चाफलाश्चैव लोकाः।112-7,

बलान्विताः शीलवीर्योपपन्नाः
सर्वे प्रशंसन्ति सुगन्धवत्यः।
यथा हि गङ्गा सरितां वरिष्ठा
तथाऽर्जुनीनां कपिला वरिष्ठा।112-8

        युधिष्ठिर उवाच।
कस्मात्समाने बहुलाप्रदाने
सद्भिः प्रशस्तं कपिलाप्रदानम्।
विशेषमिच्छामि महाप्रभावं
श्रोतुं समर्थोस्मि भवान्प्रवक्तुम्।112-9।
               भीष्म उवाच।
वृद्धानां ब्रुवतां श्रुत्वा कपिलानामथोद्भवम्।
वक्ष्यामि तदशेषेणरोहिण्योनिर्मिता यथा।112-10

प्रजाः सृजेति चादिष्टः पूर्वं दक्षः स्वयंभुवा।
नासृजद्वृत्तिमेवाग्रे प्रजानां हितकाम्यया।।112-11

यथा ह्यमृतमाश्रित्य वर्तयन्ति दिवौकसः।
तथा वृत्तिं समाश्रित्य वर्तयन्ति प्रजा विभो।112-12
अचरेभ्यश्च भूतेभ्यश्चराः श्रेष्ठास्ततो नराः।
ब्राह्मणाश्चततःश्रेष्ठास्तषु यज्ञाःप्रतिष्ठिताः।112-13
यज्ञैराप्यायते सोमः स च गोषु प्रतिष्ठितः।
ताभ्योदेवाःप्रमोदन्ते प्रजानां वृत्तिरासु च।112-14
ततः प्रजासु सृष्टासु दक्षाद्यैःक्षुधिताःप्रजाः।
प्रजापतिमुपाधावन्विनिश्चित्य चतुर्मखम्।112-15

प्रजातान्येव भूतानि प्राक्रोशन्वृत्तिकाङ्क्षया।
वृत्तिदंचान्वपद्यन्त तृषिताःपितृमातृवत्।।112-16
इतीदं मनसा गत्वा प्रजासर्गार्थमात्मनः।
प्रजापतिर्बलाधानममृतं प्रापिबत्तदा।
शंसतस्तस्यतृप्तिं तुगन्धात्सुरभिरुत्थिता।112-17

मुखजा साऽसृजद्धातुः सुरभिर्लोकमातरम्।
दर्शनीयरसं वृत्तिं सुरभिं मुखजां सुताम्।।112-18
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गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-18 तक

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 77 में कपिला गौओं की उत्पत्ति का वर्णन हुआ है। -  जिसके प्रसंग में  युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर  वैशम्पायन देते हुए कहते हैं- जनमेजय ! तदन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः शान्तनुनन्दन भीष्म से गोदान की विस्तृत विधि तथा तत्सम्बन्धी धर्मों के विषय में विनय पर्वूक जिज्ञासा की।

युधिष्ठिर बाले- भारत। आप गोदान के उत्तम गुणों का भलीभाँति पुनः मुझ से वर्णन कीजिये। वीर ऐसा अमृतमय उपदेश सुनकर मैं तृप्त नहीं हो रहा हूँ। वैशम्पायन  कहते हैं- राजन्। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म केवल गोदान-सम्बन्धी गुणों का भलिभाँति (विधिवत) वर्णन करने लगे। भीष्म द्वारा गोदान-सम्बन्धी गुणों का भीष्म  ने कहा- पुत्र। वात्सल्य भाव से युक्त, गुणवती और जवान गाय को वस्त्र उढ़ाकर उसका दान करें। ब्राह्मण को ऐसी गाय का दान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। असुर्य नाम के जो अन्धकारमय लोक (नरक) हैं उनमें गोदान करने वाले पुरुष को नहीं जाना पड़ता, जिसका घास खाना और पानी पीना प्रायः समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया है, जिसकी इन्द्रियाँ का न दे सकती हों, जो बुढ़ापा और रोग से आक्रान्त होने के कारण शरीर से जीर्ण-षीर्ण हो बिना पानी की बावड़ी समान व्यर्थ हो गयी हो, ऐसी गौ का दान करके मनुष्य ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है और स्वयं भी घोर नरक में पड़ता है। जो क्रोध करने वाली दुष्टा, रोगिनी और दुबली-पतली हो तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौ का दान करना कदापि उचित नहीं है। जो इस तरह की गाय देकर ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है उसे निर्बल और निष्फल लोक ही प्राप्त होते हैं। हुष्ट-पुष्ट, सुलक्षणा, जवान तथा उत्तम गन्ध वाली गाय की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही गौओं में कपिला गौ उत्तम मानी गयी है।
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कपिला गौओं की उत्पत्ति का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। किसी भी रंग की गाय का दान किया जाये, गोदान तो एक-सा ही होगा ? फिर सत्पुरुषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है ? मैं कपिला के महान प्रभाव को विशेष रूप से सुनना चाहता हूँ। मैं सुनने में समर्थ हूँ और आप कहने में। भीष्म  ने कहा- बेटा। मैंने बड़े-बूढ़ों के मुंह से रोहिणी (कपिला) की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृतान्त सुना है, वह सब तुम्हे बता रहा हूँ। सृष्टि के प्रारंभ में स्वयम्भू *ब्रह्मा जी ने प्रजापति दक्ष को यह आज्ञा दी ‘तुम प्रजा की सृष्टि करो किंतु प्रजापति दक्ष ने प्रजा के हित की इच्छा से सर्वप्रथम उनकी आजीविका का ही निर्माण किया।*
प्रभु। जैसे देवता अमृत का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा आजीविका के सहारे जीवन धारण करती है। *स्थावर प्राणियों से जंगम प्राणी सदा श्रेष्ठ हैं।* *उनमें भी मनुष्य और मनुष्यों में भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है; क्यांकि उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित है। यज्ञ से सोम की प्राप्ति होती है और वह यज्ञ गौओं में प्रतिष्ठित है,* जिससे देवता आनन्दित होते हैं अतः पहले पहले आजीविका है फिर प्रजा। समस्त प्राणी उत्पन्न होते ही जीविका के लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने मां-बाप के पास जाते हैं, *उसी प्रकार समस्त जीव जीविका दाता दक्ष के पास गये। प्रजाजनों की इस स्थिति पर मन-ही-मन विचार करके भगवान प्रजापति ने प्रजावर्ग की आजीविका के लिये उस समय अमृत का पान किया। अमृत पीकर जब वे पुर्ण तृप्त हो गये, तब उनके मुख से सुरभि (मनोहर) गंध निकलने लगी। सुरभि गंध के निकलने के साथ ही ‘सुरभि’ नामक गौ प्रकट हो गयी जिसे प्रजापति ने अपने मुख से प्रकट हुई* *पुत्री के रूप में देखा। उस सुरभि ने बहुत-सी ‘सौरभेयी’ नाम वाली गौओं को उत्पन्न किया, जो सम्पूर्ण जगत के लिये माता समान थी। उन सब का रंग सुवर्ण के समान उद्दीप्त हो रहा था।* वे कपिला गौऐं प्रजाजनों के लिये आजीविका रूप दूध देने वाली थी।

(गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
(महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 77 श्लोक1-18 )

गो पालक गोपों को शूद्र और वैश्य बना दिया है ।


कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४ ।
बलीवर्दाः सुरभ्यश्च वत्सा नानाविधाः शुभाः।।
अतीव ललिताः श्यामा बह्व्यो वै कामधेनवः।४५।
उस परम् ब्रह्म विष्णु के रोम रूपों से गोप और गाय भैंस की आदि जननी  सुरभि भी उत्पन्न हुई। यह सन्दर्भ -ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्म खण्ड पञ्चम अध्याय में देखें

यथा विप्रस्तथा गौश्च द्वयोः पूजाफलं समम्।
विचारे ब्राह्मणो मुख्यो नृणां गावःपशौ तथा।१२२।

                    नारद उवाच-।
विप्रो ब्रह्ममुखे जातःकथितो मे त्वयानघ।
कथं गोभिःसमो नाथ विस्मयो मेविधे ध्रुवम्।१२३।

                    ब्रह्मोवाच-।
शृणु चात्र यथातथ्यं ब्राह्मणानां गवां यथा।
एकपिण्डक्रियैक्यं तु पुरुषैर्निर्मितं पुरा।१२४।

पुरा ब्रह्ममुखोद्भूतं कूटं तेजोमयं महत्।
चतुर्भागप्रजातं तद्वेदोग्निर्गौर्द्विजस्तथा।।१२५।

प्राक्तेजः संभवो वेदो वह्निरेव तथैव च।
परतो गौस्तथा विप्रो जातश्चैव पृथक्पृथक्।१२६।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गोमाहात्म्यं नामाष्टचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः४८।

"अनुवाद:-

                   नारद ने कहा :

123. हे निर्दोष, तुमने मुझे बताया था कि ब्रह्मा के मुख से  ब्राह्मण का जन्म हुआ है ।  हे भगवान, हे निर्माता, फिर वह गाय  के बराबर कैसे है ? मुझे सन्देह है।

ब्रह्मा ने कहा :

124-125।  हे नारद! ब्राह्मणों और गायों के बारे में सत्य सुनो। पूर्व में पुरुषों ने उन्हें अंतिम संस्कार के लिए चावल की गेंद भेंट करके (दोनों के बीच) एकता लाई। पूर्व में ब्रह्मा के मुख से एक महान तेजोमय  पुंज उत्पन्न हुआ। यह पुँज चार भागों में विभाजित हो गया: वेद, अग्नि , गाय‌ और ब्राह्मण।

126. तेज से वेद पहले उठे, और अग्नि भी। तब ब्राह्मण और बैल अलग-अलग उत्पन्न हुए।

128. अग्नि, और ब्राह्मण को भी देवताओं के लिए हव्य का आनंद लेना चाहिए। जान लें कि घी गाय का उत्पाद है। इसलिए वे (एक ही स्रोत से) उत्पन्न हुए हैं।

परन्तु स्वयं इसी पद्म पुराण में गाय के ब्रह्मा के उदर से उत्पन्न होने का कथन  होने से यह तथ्य सत्य के विपरीत ही है।अत: उपर्युक्त श्लोक क्षेपक है।

                  
राजा नहुष का एक गौ के मोल पर च्‍यवन मुनि को खरीदना, मुनि के द्वारा गौओं का महात्‍म्‍य कथन तथा मत्‍स्‍यों और मल्‍लाहों की सद्गति 
भीष्‍म जी कहते हैं- भरतनन्‍दन! च्‍यवन मुनि को ऐसी अवस्‍था में अपने नगर के निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियों को साथ ले शीघ्र वहाँ आ पहुँचे। उन्‍होंने पवित्रभाव से हाथ जोड़कर मन को एकाग्र रखते हुए न्‍यायोचित रीति से महात्‍मा च्‍यवन को अपना परिचय दिया। प्रजानाथ! राजा के पुरोहित ने देवताओं के समान तेजस्‍वी सत्‍यव्रती महात्‍मा च्‍यवन मुनि का विधिपूर्वक पूजन किया। तत्‍पश्‍चात राजा नहुष बोले- द्विजश्रेष्‍ठ! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? भगवन! आपकी आज्ञा से कितना ही कठिन कार्य क्‍यों न हो, मैं सब पूरा करूँगा। च्‍यवन ने कहा- राजन! मछलियों से जीविका चलाने वाले इन मल्‍लाहों ने बड़े परिश्रम से मुझे अपने जाल में फँसाकर निकाला है, अत: आप इन्‍हें इन मछलियों के साथ-साथ मेरा भी मूल्‍य चुका दीजिये। तब नहुष ने अपने पुरोहित से कहा- पुरोहित जी! भृगुनन्‍दन च्यवन जी जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्‍यपाद महर्षि के मूल्‍य के रूप में मल्‍लाहों को एक हज़ार अशर्फियाँ दे दीजिये। च्‍यवन ने कहा- नरेश्‍वर! मैं एक हज़ार मुद्राओं पर बेचने योग्‍य नहीं हूँ। क्‍या आप मेरा इतना ही मूल्‍य समझते हैं, मेरे योग्‍य मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य कितना होना चाहिये, वह अपनी ही बुद्धि से विचार करके निश्चित कीजिये। नहुष बोले- व्रिपवर! इन निषादों को एक लाख मुद्रा दीजिये। यों पुरोहित को आज्ञा देकर वे मुनि से बोले- भगवन! क्‍या यह आपका उचित मूल्‍य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चा‍हते हैं? च्‍यवन ने कहा- नृपश्रेष्‍ठ! मुझे एक लाख रुपये के मूल्‍य में ही सीमित मत कीजिये। उचित मूल्‍य चुकाइये। इस विषय में अपने मन्त्रियों के साथ विचार कीजिये। नहुष ने कहा- पुरोहित जी! आप इन विषादों को एक करोड़ मुद्रा के रूप में दीजिये और यदि यह भी ठीक मूल्‍य न हो तो और अधिक दीजिये। च्‍यवन ने कहा- महातेजस्‍वी नरेश! मैं एक करोड़ या उससे भी अधक मुद्राओं में बेचने योग्‍य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्‍य दीजिये और इस विषय में ब्राह्मणों के साथ विचार कीजिये। नहुष बोले- ब्रह्मन! यदि ऐसी बात है तो इन मल्‍लाहों को मेरा आधा या सारा राज्‍य दे दिया जाये। इसे ही मैं आपके लिए उचित मूल्‍य मानता हूँ। आप इसके अतिरिक्‍त और क्‍या चाहते हैं। च्‍यवन ने कहा- पृथ्‍वीनाथ! आपका आधा या सारा राज्‍य भी मेरा उचित मूल्‍य नहीं है। आप उचित मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य आपके ध्‍यान में न आता हो तो ऋषियों के साथ विचार कीजिये। भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! म‍हर्षि का यह वचन सुनकर राजा दु:ख से कातर हो उठे और मंत्री तथा पुरोहित के साथ इस विषय में विचार करने लगे। इतने ही में फल-मूल का भोजन करने वाले एक वनवासी मुनि, जिनका जन्‍म गाय के पेट से हुआ था, राजा नहुष के समीप आये और वे द्विजश्रेष्‍ठ उन्‍हें सम्‍बोधित करके कहने लगे- 'राजन! ये मुनि कैसे संतुष्‍ट होंगे, इस बात को मैं जानता हूँ। मैं इन्‍हें शीघ्र संतुष्‍ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहास में भी झूठ नहीं कहा है, फिर ऐसे समय मे असत्‍य कैसे बोल सकता हूँ? मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको नि:शंक होकर करना चाहिये।' नहुष ने कहा- भगवन! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्‍यवन का मूल्‍य, जो इनके योग्‍य हो बता दीजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुल का तथा समस्‍त राज्‍य का संकट से उद्धार कीजिये। वे भगवान च्‍यवन मुनि यदि कुपित हो जायें तो तीनों लोकों को जलाकर भस्‍म कर सकते हैं, फिर मुझ जैसे तपोबल शून्‍य केवल बाहुबल का भरोसा रखने वाले नरेश को नष्‍ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है? महर्षे! मैं अपने मन्‍त्री और पुरोहित के साथ संकट के अगाध महासागर में डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्‍य मूल्‍य का निर्णय कर दीजिये।
भीष्‍म जी कहते हैं-राजन! नहुष की बात सुनकर गाय के पेट से उत्‍पन्‍न हुए वे प्रतापी महर्षि राजा तथा उनके समस्‍त मन्त्रियों को आनन्दित करते हुए बोले- ‘महाराज! ब्राह्मणों और गौओं का एक कुल है, पर ये दो रूपों में विभक्‍त हो गये हैं। एक जगह मन्‍त्र स्थित होते हैं और दूसरी जगह हविष्‍य। ब्राह्मण सब प्राणियों में उत्तम है। उनका और गौओं का कोई मूल्‍य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमत में एक गौ प्रदान कीजिये।'
नरेश्‍वर! महर्षि का यह वचन सुनकर मन्‍त्री और पुरोहित सहित राजा नहुष को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। राजन! वे कठोर व्रत का पालन करने वाले भृगुपुत्र महर्षि च्यवन के पास जाकर उन्‍हें अपनी वाणी द्वारा तृप्‍त करते हुए-से बोले। नहुष ने कहा- धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ ब्रह्मर्षे! भृगुनन्‍दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया, अत: उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्‍य मानता हूँ।
च्‍यवन ने कहा- निष्‍पाप राजेन्‍द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्‍य देकर मुझे खरीदा है। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले नरेश! मैं इस संसार में गौओं के सामन दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ। वीर भूपाल! गौओं के नाम और गुणों का कीर्तन तथा श्रवण करना, गौओें का दान देना और उनका दर्शन करना- इनकी शास्‍त्रों में बड़ी प्रशंसा की गयी है। ये सब कार्य सम्‍पूर्ण पापों को दूर करके परम कल्‍याण की प्राप्ति कराने वाले हैं। गौएँ सदा लक्ष्‍मी जी की जड़ हैं। उनमें पाप का लेशमात्र भी नहीं है। गौएँ ही मनुष्‍यों को सर्वदा अन्‍न और देवताओं को हविष्‍य देने वाली हैं। स्‍वाहा और वषट्कार सदा गौओं में ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञ का संचालन करने वाली तथा उसका मुख हैं। वे विकार रहित दिव्‍य अमृत धारण करती और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत की आधारभूत हैं। सारा संसार उनके सामने नतमस्‍तक होता है। इस पृथ्‍वी पर गौएँ अपनी काया और कान्ति से अग्नि के समान हैं। वे महान तेज की राशि और समस्‍त प्राणियों को सुख देने वाली हैं। गौओं का समुदाय जहाँं बैठकर निर्भयतापूर्वक साँस लेता है, उस स्‍थान की शोभा बढ़ा देता है और वहाँ के सारे पापों को खींच लेता है। गौएँ स्‍वर्ग की सीढ़ी हैं। गौएँ स्‍वर्ग में भी पूजी जाती हैं। गौएँ समस्‍त कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवियाँ हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है।
भरतश्रेष्‍ठ! यह मैंने गौओं का माहात्‍म्‍य बताया है। इसमें उनके गुणों का दिग्‍दर्शन मात्र कराया गया है। गौओं के सम्‍पूर्ण गुणों का वर्णन तो कोई कर नहीं सकता। इसके बाद निषादों ने कहा- मुने! सज्‍जनों के साथ सात पग चलने मात्र से मित्रता हो जाती है। हमने तो आपका दर्शन किया और हमारे साथ आपकी इतनी देर तक बातचीत भी हुई; अत: प्रभो! आप हम लोगों पर कृपा कीजिये। धर्मात्‍मन! जैसे अग्निदेव सम्‍पूर्ण हविष्‍यों को आत्‍मसात कर लेते हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे दोष-दुगुर्णों को दग्‍ध करने वाले प्र‍तापी अग्निरूप हैं।
विद्वन! हम आपके चरणों में मस्‍तक झुकाकर आपको प्रसन्‍न करना चाहते हैं। आप हम लोगों पर अनुग्रह करने के लिये हमारी दी हुई यह गौ स्‍वीकार कीजिये। अत्‍यन्‍त आपत्ति में डूबे हुए जीवों का उद्धार करने वाले पुरुषों को जो उत्तम गति प्राप्‍त होती है, वह आपको विदित है। हम लोग नरक में डूबे हुए हैं। आज आप ही हमें शरण देने वाले हैं।
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 बम्बई संस्करण - और गीताप्रेसगोरखपुर संस्करण " दोनों में अध्याय भेद ही है।
नहुषस्य वचःश्रुत्वा गविजातः प्रतापवान्।
उवाच हर्षयन्सर्वानमात्यान्पार्थिवं च तम्।86-22।
ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।86-23।
(गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 51 श्लोक (1-20)
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नहुष का एक गौ के मूल्य पर च्यवन मुनि को खरीदना
महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय (51) में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
नहुष की च्यवन ऋषि से भेट
भीष्‍म  कहते हैं- भरतनन्‍दन ! च्‍यवन मुनि को ऐसी अवस्‍था में अपने नगर के निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियों को साथ ले शीघ्र वहाँ आ पहुँचे। उन्‍होंने पवित्रभाव से हाथ जोड़कर मन को एकाग्र रखते हुए न्‍यायोचित रीति से महात्‍मा च्‍यवन को अपना परिचय दिया। प्रजानाथ! राजा के पुरोहित ने देवताओं के समान तेजस्‍वी सत्‍यव्रती महात्‍मा च्‍यवनमुनि का विधिपूर्वक पूजन किया। तत्‍पश्‍चात राजा नहुष बोले- द्विजश्रेष्‍ठ! बताइये, मैं आपको कौन-सा प्रिय कार्य करुँ? भगवन! आपकी आज्ञा से कितना ही कठिन कार्य क्‍यों न हो, मैं सब पूरा करुँगा। च्‍यवन ने कहा- राजन! मछलियों से जीविका चलाने वाले इन मल्‍लाहों ने बड़े परिश्रम से मुझे अपने जाल में फँसाकर निकाला है, अत: आप इन्‍हें इन मछलियों के साथ-साथ मेरा भी मूल्‍य चुका दीजिये। तब नहुष ने अपने पुरोहित से कहा- पुरोहित  भृगुनन्‍दन च्यवन जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्‍यपाद महर्षि के मूल्‍य के रुप में मल्‍लाहों को एक हजार अशफियॉ दे दीजिये।

च्‍यवन द्वारा नहुष से मल्‍लाहों को मुल्य देने का अनुरोध
च्‍यवन ने कहा- नरेश्‍वर! मैं एक हजार मुद्राओं पर बेचने योग्‍य नहीं हूँ। क्‍या आप मेरा इतना ही मूल्‍य समझते है, मेरे योग्‍य मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य कितना होना चाहिये- वह अपनी ही बुद्धि से विचार करके निश्चित कीजिये। नहुष बोले- व्रिपवर! इन निषादों को एक लाख मुद्रा दीजिये। (यों पुरोहितको आज्ञा देकर वे मुनि से बोले-) भगवन्! क्‍या यह आपका उचित मूल्‍य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चा‍हते हैं? च्‍यवन ने कहा- नृपश्रेष्‍ठ! मुझे एक लाख रुपये के मूल्‍य में ही सिमित मत कीजिये। उचित मूल्‍य चुकाइये। इस विषय में अपने मन्त्रियों के साथ विचार कीजिये। नहुष ने कहा- पुरोहित आप इन विषादों को एक करोड़ मुद्रा के रुप में दीजिये और यदि यह भी यह भी ठीक मूल्‍य न हो तो और अधिक दीजिये। च्‍यवन ने कहा- महातेजस्‍वी नरेश! मैं एक करोड़ या उससे भी अधक मुद्राओं में बेचने योग्‍य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्‍य दीजिये और इस विषय में ब्राह्मणों के साथ विचार कीजिये।

नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना
नहुष बोले- ब्रहान! यदि ऐसी बात है तो इन मल्‍लाहों को मेरा आधा या सारा राज्‍य दे दिया जाय! इस ही मैं आपके लिए उचित मूल्‍य मानता हूँ। आप इसके अतिरिक्‍त और क्‍या चाहते हैं। च्‍यवन ने कहा- पृथ्‍वीनाथ! आपका आधा या सारा राज्‍य भी मेरा उचित मूल्‍य नही है। आप उचित मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य आपके ध्‍यान में न आता हो तो ऋषियों के साथ विचार कीजिये।
भीष्‍म  कहते हैं- युधिष्ठिर! म‍हर्षि का यह वचन सुनकर राजा दु:ख से कातर हो उठे और मंत्री तथा पुरोहित के साथ इस विषय में विचार करने लगे। इतने ही में फल-मूल का भोजन करने वाले एक वनवासी मुनि, जिनका जन्‍म गाय के पेट से हुआ था, राजा नहुष के समीप आये और वे द्विज श्रेष्‍ठ उन्‍हें सम्‍बोधित करके कहने लगे- ‘राजन! ये मुनि कैसे संतुष्‍ट होंगे- इस बात को मैं जानता हूँ। मैं इन्‍हें शीघ्र संतुष्‍ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहास में भी झूठ नहीं कहा हैं, फिर ऐसे समय मे असत्‍य कैसे बोल सकता हूँ? मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको नि:शंक होकर करना चाहिये।’
नहुष ने कहा- भगवन! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्‍यवन का मूल्‍य, जो इनके योग्‍य हो बता दिजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुल का तथा समस्‍त राज्‍य का संकट से उद्धार कीजिये। वे भगवान च्‍यवन मुनि यदि कुपित हो जायँ तो तीनों लोकों को जलाकर भस्‍म कर सकते हैं, फिर मुझ- जैसे तपोबल शून्‍य केवल बाहुबल का भरोसा रखने वाले नरेश को नष्‍ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है?। महर्षे! मैं अपने मन्‍त्री और पुरोहित के साथ संकट के अगाध महासागर मे डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्‍य मूल्‍य का निर्णय कर दीजिये।
भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! नहुष की बात सुनकर
राजा तथा उनके समस्‍त मन्त्रियों को आनन्दित करते हुए -गाय के पेट से उत्पन्न हुए ऋषि बोले:–  
 महाराज! ब्राह्मणों और गौओं का एक कुल है, पर ये दो रुपों में विभक्‍त हो गये हैं। एक जगह मन्‍त्र स्थित होते हैं। और दूसरी जगह हविष्‍य ! ब्राह्मण सब प्राणियों में उत्तम है। उनका और गौओं का कोई मूल्‍य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमत में एक गौ प्रदान कीजिये।’
‘नरेश्‍वर! महर्षि का यह वचन सुनकर मन्‍त्री और पुरोहित सहित राजा नहुष को बडी प्रसन्‍नता हुई। राजन! वे कठोर व्रत का पालन करने वाले भृगुपुत्र महर्षि च्‍यवन के पास जाकर उन्‍हें अपनी वाणी द्वारा तृप्‍त करते हुए-से बोले। नहुष ने कहा- धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ ब्रहार्षे! भृगुनन्‍दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया, अत: उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्‍य मानता हूँ। च्‍यवन ने कहा- निष्‍पाप राजेन्‍द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्‍य देकर मुझे खरीदा हैं। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले नरेश! मैं इस संसार में गौओं के सामन दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ।
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अन्यत्र भी महाभारत के इसी श्लोक को उद्धृत किया गया है। जिसके आधार पर गाय को ब्राहणी वर्ण का बनाने का निरर्थक प्रयास किया गया है। क्योंकि बहुतायत प्राचीन वेदसम्मत ग्रन्थों में गाय विराटपुरुष के उदर अथवा उरु से ही उत्पन्न हुई है।

अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्।सृष्टवानुदराद्गाश्च महिषांश्च प्रजापतिः।१०५।पद्भ्यां चाश्वान्स मातंगान्रासभान्गवयान्मृगान्।उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यंकूनन्याश्च जातयः।१०६।ओषध्यःफलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे।त्रेतायुगमुखे ब्रह्मा कल्पस्यादौ नृपोत्तम।१०७।सृष्ट्वा पश्वोषधीस्सम्यक्युयोज स तदाध्वरे।  गामजं महिषम्मेषमश्वाश्वतरगर्दभान्।१०८।

एतान्ग्राम्यपशूनाहुरारण्यांश्च निबोध मे।
श्वापदो द्विखुरो हस्ती वानरः पञ्चमः खगः।१०९।

उष्ट्रकाः पशवष्षष्ठास्सप्तमास्तु सरीसृपाः।
गायत्रं च ऋचश्चैव त्रिवृत्सोमं रथन्तरम् ।११०।
अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात्।
यजूंषि त्रैष्टुभं छन्दःस्तोमं पञ्चदशं तथा ।१११।
बृहत्साम तथोक्थं च दक्षिणादसृजन्मुखात्।
सामानि जगतीच्छन्दःस्तोमं सप्तदशं तथा।११२।
वैरूपमतिरात्रं च पश्चिमादसृजन्मुखात्।
एकविंशमथर्वाणमप्तोर्यामाणमेव च।११३।
आनुष्टुभं सवैराजमुत्तरादसृजन्मुखात्।
उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे।११४।
सुरासुरपितॄन्सृष्ट्वा मनुष्यांश्च प्रजापतिः।
ततः पुनः ससर्जासौ स कल्पादौ पितामहः।११५।
यक्षान्पिशाचान्गंधर्वांस्तथैवाप्सरसां गणान्।
सिद्धकिन्नररक्षांसि सिंहान्पक्षिमृगोरगान्११६।
अव्ययं च व्ययं चैव यदिदं स्थाणुजंगमम्।
तत्ससर्ज तदा ब्रह्मा भगवानादिकृद्विभुः।११७।
तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे।
तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः।११८।

अनुवाद

105-114- उसने अपनी वक्ष (छाती) से भेड़ें, और अपने मुंह से बकरी उत्पन्न की। उसने अपने उदर (पेट) से गायों और भैंसों को बनाया; और अपने पैरों से (उसने ) हाथियों, गधों, गवय , हिरण, ऊंट, खच्चर, मृग और अन्य प्रजातियों के साथ घोड़े; आदि  अन्य अन्य जातियाँ को  बनाया। और उसके रोमों (बालों)से फल और जड़ वाली जड़ी-बूटियाँ (औषधियाँ) और फल मूल उत्पन्न हुए । कल्प की शुरुआत में ,और त्रेता युग के  मुख में  ब्रह्मा ने जानवरों और जड़ी-बूटियों को विधिवत बनाया, स्वयं को यज्ञ में लगा दिया। गाय, बकरा  भैंस, भेड़, घोड़े, खच्चर और गधे- इन्हें पालतू जानवर कहा जाता है। हे नारद ! मुझसे जंगली जानवरों को सुनो :श्वापद:- शुन इवापदस्मात्  हिंसपशौ )हिंसक जानवर, दो खुर वाले जानवर, हाथी, बंदर, पक्षी, पाँचवीं (प्रजाति), ऊंट जैसे जानवर छठे के रूप में, और साँप सातवें के रूप में। अपने पहले मुख से (अर्थात् पूर्व की ओर मुख करके) उन्होंने यज्ञों की गायत्रों  , ऋचा ,  त्रिवृत्सोम और रथान्तर रथन्तर( रथङ्कर] के तीन अर्थ हैं -एक कल्प का नाम। एक प्रकार का साम। एक प्रकार की अग्नि। परन्तु यहाँ प्रसंग के  अनुसार साम अर्थ ग्राह्य है और अग्निष्टोम की रचना की। दक्षिण की ओर मुँह करके उन्होंने यजुस-सूत्र, त्रिष्टुभ छन्द , और पंचदशा (पन्द्रह) स्तोम  , और बृहत्साम की रचना की। और उत्तर -पश्चिम की ओर मुंह करके उन्होंने साम , जगती छंद, सप्तदश स्तोम ,  वैरूप और अतिरात्र की रचना की । उत्तर दिशा की ओर मुख करके उन्होंने एकविंश अथर्व , आप्तोर्याम , अनुष्टुभ और वैराज की रचना की । उसके शरीर के अंगों से ऊँचे-नीचे  भूत उत्पन्न हुए।

115-116 देवताओं, राक्षसों, पितरों और मनुष्यों को बनाने के बाद, सृष्टिकर्ता ने फिर से कल्प के प्रारम्भ में आत्माओं, भूतों, गन्धवों और आकाशीय अप्सराओं, सिद्धों , किन्नरों , राक्षसों, शेरों, पक्षियों, जानवरों और सरीसृपों के समूहों का निर्माण किया।

117. तब ब्रह्मा, सर्वोच्च शासक, प्राथमिक कारण, ने जो कुछ भी अपरिवर्तनीय और परिवर्तनशील, जंगम और अचल है, उसे बनाया।

118. वे प्राणी बार-बार उत्पन्न होकर उन कर्मों में प्रवेश करते हैं जो उन्होंने (इस) सृष्टि से पहले (अर्थात् पिछली सृष्टि में) किए थे उस प्रारब्ध के  प्रभाव से।

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लक्ष्मीनारायण-संहिता-खण्डः(१) (कृतयुगसन्तानः)-अध्यायः (५०९) में भी कुछ वैदिक सिदान्तों के विपरीत क्षेपक (नकली तथ्य) संलग्न कर दिए गये हैं जो स्कन्द पुराण नागर खण्ड के समान ही जिन्हें निम्न श्लोकों प्रस्तुत करते हैं ।        
            -श्रीनारायण उवाच-
शृणु लक्ष्म्यैकदा सत्ये ब्रह्माणं प्रति नारदः।
दर्शनार्थं ययौ भ्रान्त्वा लोकत्रयं ननाम तम् ।१।
ब्रह्मा पप्रच्छ च कुतः पुत्र आगम्यते, वद ।
नारदःप्राह मर्त्यानां मण्डलानि विलोक्य च ।२।
तव पूजाविधानाय विज्ञापयितुं हृद्गतम्।
समागतोऽस्मि च पितःश्रुत्वा कुरु यथोचितम्।३।
अनुवाद:-सुनो लक्ष्मी ! एकबार  सत्युग में तीनों लोकों में घूमकर  ब्रह्मा के दर्शन के लिए  नारद  उनके पास गये और उनको नमस्कार किया।१।
और ब्रह्मा ने पूछा पुत्र कहाँ से आपका आगमन हुआ है। कहो ! तब नारद ने कहा मनुष्य मण्डल में देखकर तुम्हारे पूजा विधान के लिए विज्ञापन करने को लिए हृदय में गये हुए समागत हूँ। पिता यह सुनकर जो भी उचित हो करो!
दैत्यानां हि बलं लोके सर्वत्राऽस्ति प्रवर्तितम् ।
यज्ञाश्च सत्यधर्माश्च सत्कर्माणि च सर्वथा।४।
सह्य तैर्विनाश्यन्ते देवा भक्ताश्च दुःखिनः।
तस्माद् यथेष्टं भगवन् कल्याणं कर्तुमर्हसि।५।
अनुवाद:-
दैत्यों का बल संसार में सब जगह  विद्यमान है।यज्ञ सत्यधर्म और सतकर्म सब प्रकार से दबाकर उनके द्वारा विनाश किया जाता है। देव और भगतगण दु:खी हैं  इसलिए यथेष्ट कल्याण करने में भगवन आप सर्वसमर्थ हो ।
इत्येवं विनिवेद्यैव नत्वा सम्पूज्य संययौ ।
ब्रह्मा वै चिन्तयामास यज्ञार्थं शुभभूतलम् ।६।
अनुवाद:-
इस प्रकार नारद ब्रह्मा से निवेदन" नमस्कार और पूजा करके गये तब ब्रह्मा ने निश्चय ही भूतल पर यज्ञ के लिए चिन्तन किया।
निर्विघ्नं तत्स्थलं क्वास्तीत्याज्ञातुं पद्मपुष्पकम् ।
करस्थं स समुवाच पत स्थले तु पावने ।७।
अनुवाद:-
विघ्न रहित उस स्थल पर क्या आज्ञा है? पद्म
पुष्प हाथ में लेकर वह ब्रह्मा उससे बोले पावन स्थल पर गिरो।
ततश्चिक्षेप पुष्पं तद् भ्रान्त्वा लोकान् समन्ततः
निर्लततश्चिक्षेप पुष्पं तद् भ्रान्त्वा लोकान् समन्ततः।हाटकेश्वरजे क्षेत्रे सम्पपात सुपावने ।८।
अनुवाद:-
जहाँ कोई वृक्ष लता आदि  नहीं उस पुष्प को सभी  लोकों में घुमाकर चारो ओर हाटकेश्वर पावन रज- क्षेत्र में डाला-
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एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः पश्चात् तस्य पितामहः।
क्षेत्रं दृष्ट्वा प्रसन्नोऽभूद् यज्ञार्थं प्रपितामहः।९।
अनुवाद:-
इसी अन्तर को प्राप्त बाद में उस  क्षेत्र को यज्ञ के लिए देखकर पितामह ब्रह्मा प्रसन्न हुए।
आदिदेश ततो वायुं समानय पुरन्दरम्।
आदित्यैर्वसुभिःसार्धं रुद्रैश्चैव मरुद्गणैः।
 1.509.१०।
अनुवाद:-
और वायु को आदेश दिया हे वायु ! तुम इन्द्र के साथ आदित्य ,वसु और रूद्र के साथ मरुद गणों को भी लाओ।
गन्धर्वैर्लोकपालैश्च सिद्धैर्विद्याधरैस्तथा ।
ये च मे स्युः सहायास्तैः समस्ते यज्ञकर्मणि।११।
अनुवाद:-
गन्धर्व, लोकपाल, सिद्ध, विद्याधर, तथा ये सब यज्ञ कर्म में हमारे सहायक हों ।
वायुश्चेन्द्रं देवगणैर्युतं समानिनाय च ।
ब्रह्मा प्राह महेन्द्रं च वैशाख्यामग्निष्टोमकम्।१२।
अनुवाद:-और वायु  इन्द्र आदि देवगणो के साथ लौट आये ब्रह्मा बोले इन्द्र वैशाख में अग्नष्टोम करो।
यज्ञं कर्तुं समीहेऽत्र सम्भारानाहरस्व वै।
ब्राह्मणाँश्च तदर्हान् वै योग्योपस्कारकाँस्तथा।१३।
अनुवाद:-
यज्ञ करने के लिए यहाँ आओ सभी सजावट की  सामग्रीयों को जुटाओ। और उन योग्य ब्राह्मणों को भी यहाँ बुलाओ। 
इन्द्रस्तानानयामास संभाराँश्च द्विजोत्तमान् ।
आरेभे च ततो यज्ञं विधिवत् प्रपितामहः ।१४।
अनुवाद:-
तब इन्द्र ने  उत्तम ब्राह्मणो को बुलाया और सभ यज्ञ सामग्री जुटाकर ब्रह्मा ने विधिवत् यज्ञ प्रारम्भ कर दिया
शम्भुर्देवगणैः सार्ध तत्र यज्ञे समागतः ।
देवान् ब्रह्मा समुवाच स्वस्वस्थानेषु तिष्ठत।१५।
अनुवाद:-
वहाँ शम्भु भी देवगणों के साथ लेकर यज्ञ में पधारे सभी देवों को ब्रह्मा जी ने सम्बोधित करते हुए कहा सभी देवगण अपने अपने स्थान पर खड़े हो जाऐं ।
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विश्वकर्मन् कुरु यज्ञमण्डपं यज्ञवेदिकाः।
पत्नीशालाःसदश्चापि कुण्डान्यावश्यकानि च।
।६६।
अनुवाद:-
हे विश्व कर्मा ! यज्ञ मण्डप, यज्ञवेदी, पत्नीशाला और आसनों  तथा आवश्यक कुण्डों का भी  निर्माण करो !
यज्ञपात्राणि च गृहान् चमसाँश्च चषालकान् ।
यूपान् शयनगर्तांश्च स्थण्डिलानि प्रकारय ।१७।
"अनुवाद और यज्ञपात्र,  यज्ञगृह, चमस(सोमपान करने का चम्मच के आकार का एक यज्ञपात्र जो पलाश आदि की लकड़ी का बनता था )  चषाल-यज्ञ के यूप में लगी हुई पशु बाँधने की गराड़ी । यूप- ( यज्ञ में वह खंभा जिसमें बलि का पशु बाँधा जाता है। शयनगर्त स्थण्डिल-यज्ञ के लिये साफ की हुई भूमि आदि प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करो।
हिरण्मयं सुपुरुषं कारय त्वं सुरूपिणाम् ।
बृहस्पते त्वमानीहि यज्ञार्हानृत्विजोऽखिलान् । १८।
हिरण्यमय पुरुष अच्छे स्वरूपों का बनाओ तुम  बृहस्पति तुम  यज्ञ योग्य सम्पूर्ण ऋत्विजो को  आओ !
यावत् षोडशसंख्याकान् शुश्रूषां कुरु देवराड् ।
कुबेर च त्वया देया दक्षिणा कालसंभवा ।१९।
अनुवाद:- हे देवराज इन्द्र ! तुम सोलह संख्या वाली शुश्रुषा करो  कुबेर ! तुम्हारे द्वारा कालसम्भव दक्षिणा देने योग्य है।
 सत्वया विधे विधौ कार्यं कृत्याऽकृत्यपरीक्षणम् ।
लोकपालाः प्ररक्षन्तु त्वैन्द्र्यादिका दिशस्तथा ।।1.509.२०।
अनुवाद:- शीघ्रता के द्वारा विधि-विधान से कार्य करो ! क्या करने योग्य है और क्या न करने योग्य है। इसका भलीभाँति परीक्षण करो। लोकपाल दिशाओं की रक्षा करें ।
भूतप्रेतपिशाचानां प्रवेशो दैत्यरक्षसाम् ।
मा भूदित्यथ यज्ञेन दीयतां दानमुत्तमम् ।२१।
अनुवाद:- भूतप्रेत, पिशाचों, दैत्यों और राक्षसों का इस यज्ञ में प्रवेश निषिद्ध हो और इस यज्ञ के द्वारा उत्तम दान दिया जाए।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।
भवन्तु परिवेष्टारो भोक्तुकामजनस्य तु ।२२।
अनुवाद:-  इस यज्ञ में  जैसी -जैसी जिसकी भोजन करने की इच्छा है उन सबके लिए  आदित्य, वसु रूद्र, विश्वदेवा, और मरुद्गण ये सभी भोजन परोसने वाले नियुक्त हों ।
यज्ञार्हा ब्राह्मणा वृत्तास्तिष्ठन्तु यज्ञमण्डपे ।
मैत्रावरुणश्च्यवनोऽथर्वाको गालवस्तथा।२३।
अनुवाद:- मैत्रावरुण च्यवन अथर्वा  और गालव ये यज्ञ में समर्थ ब्राह्मण धन लेकर यज्ञमण्डप में खड़े हो। २३।
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मरीचिर्मार्कवश्चैते सर्वकर्मविशारदाः।
प्रस्थानकर्ता चाध्वर्युः पुलस्त्यस्तत्र तिष्ठतु ।२४।
 अनुवाद:-  मरीचि और आर्कव ये सभी यजनकर्मों के विशेषज्ञ हैं। प्रस्थानकर्ता और अध्वर्यु पुलस्त्य वहां खड़े हों ।२४।
रैभ्यो मुनिस्तथोन्नेता तिष्ठतु यज्ञमण्डपे ।
ब्रह्मा भवतु नारदो गर्गोऽस्तु सत्रवीक्षकः ।२५।
 अनुवाद:-  रेभ्य मुनि तथा और भी नेता यज्ञमण्डप में खड़े हों और  नारद ब्रह्मा बने गर्ग सत्रनिरीक्षक बनें।२५।
होतारोऽग्नीध्रभरद्वाजपराशरास्त्रयः ।
बृहस्पतिस्तथाऽऽचार्य उद्गाता गोभिलो मुनिः।२६।
 अनुवाद:-  होता- भरद्वाज अग्नीध्र और पराशर बनें बृहस्पति आचार्य बने और गोभिल उद्गाता बने।
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शाण्डिल्यः प्रतिहर्ता च सुब्रह्मण्यस्तथाऽङ्गिराः।
अस्य यज्ञस्य सिद्ध्यर्थं सन्त्वृत्विजस्तु षोडश।२७।
अनुवाद:- शाण्डिल्य प्रतिहर्ता सुब्रह्मण्य तथा अङ्गिरा आदि  इस यज्ञ की सफलता के लिए सौलह ऋत्विज बनें ।२७।
ब्रह्मा तान् पूजयामास दीक्षितस्तैस्तु विश्वसृट् ।
यजमानोऽभवद् यज्ञकार्यं ततः प्रवर्तितम् ।२८।
अनुवाद:- ब्रह्मा विश्वसृष्टा ने उनको पूजन किया और वे दीक्षितों  यजमान होकर उस यज्ञ कार्य में जुट गये।२८।
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ब्रह्मा च नारदं प्राह सावित्रीं क्षिप्रमानय ।
वाद्यमानेषु वाद्येषु सिद्धकिन्नरगुह्यकैः ।२९।
अनुवाद:- और तत्पश्चात् ब्रह्मा जी ने नारद से कहा ! सावित्री को शीघ्र लाओ।
गन्धर्वैर्वाद्यसंयुक्तैरुच्चारणपरैर्द्विजैः ।
अरणिं समुपादाय पुलस्त्यो वाक्यमब्रवीत् ।।1.509.३०।
अनुवाद:- गन्धर्व वाद्ययन्त्रों से युक्त हो गये और ब्राह्मण लोग मन्त्रों का  जोर से उच्चारण करने लगे  अरणि हाथ में लेकर पुलस्त्य ने कहा ! 
पत्नीपत्नीतिविप्रेन्द्राः प्रोच्चैस्तत्र व्यवस्थितः ।
ब्रह्मा पुनर्नारदं संज्ञया करस्य वै द्रुतम् ।३१।
अनुवाद:- पत्नी पत्नी इस प्रकार उनके द्वार जोर कहा गया  तब ब्रह्मा ने दुबारा नारद से हाथ लगाकर शीघ्र जानकारी के लिए कहा  ।
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गृहं सम्प्रेषयामास पत्नी चानीयतामिति ।
सोऽपि गत्वाऽऽह सावित्रीं पित्रा सम्प्रेषितोऽस्म्यहम् ।३२।
अनुवाद:- घर को नारद भेजे और पत्नी को लाने के लिए कहा वह भी जाकर कहों कि मैं पिता जी ने मुझको माते ! आपको बुलाने के लिए भेजा है।
आगच्छ मण्डपं देवि यज्ञकार्यं प्रवर्तते ।
परमेकाकिनी कीदृग्रूपा सदसि दृश्यसे ।३३।
अनुवाद:- आप मण्डप को चलो देवि यज्ञ कार्य प्रारम्भ हो गया है। यहाँ अकेली किस रूप रहोगीं तुम सभा में दिखाई दो। 
आनीयन्तां ततो देव्यस्ताभिर्वृत्ता प्रयास्यसि
इत्युक्त्वा प्रययौ यज्ञे नारदोऽजमुवाच ह ।३४।
अनुवाद:- उन्हें आने दो। तब तुम उनके साथ हम पहँचेगे हे देवी। यह कहकर नारद यज्ञ में चले गए और  नारद ने ब्रह्मा से कहा।
देवीभिः सह सावित्री समायास्यति सुक्षणम् ।
पुनस्तं प्रेषयामास ब्रह्माऽथ नारदो ययौ ।३५।
अनुवाद:- सावित्री जल्द ही देवीयों के साथ पहुंचेंगी तब ब्रह्मा ने नारद को फिर भेज दिया और नारद चले गए।
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मातः शीघ्रं समायाहि देवीभिः परिवारिता ।
सावित्र्यपि तदा प्राह यामि केशान्प्रसाध्य वै ।३६।
अनुवाद:- माँ, जल्दी आओ, देवियों के साथ।
सावित्री ने भी तब कहा कि मैं अपने केशों को संवारकर जाऊँगी।

नारदोऽजं प्राह केशान् प्रसाध्याऽऽयाति वै ततः ।
सोमपानमुहूर्तस्याऽवशेषे सत्वरं तदा ।३७।
अनुवाद:- नारद ने तब ब्रह्मा से कहा ! केशों को संवार कर वे निश्चित ही आती हैं  अभी सोमपान कि समय शेष है शीघ्र ।37।
पुलस्त्यश्च ययौ तत्र सावित्री त्वेकलाऽस्ति हि ।
किं देवि सालसा भासि गच्छ शीघ्रं क्रतोःस्थलम्।३८।
अनुवाद:- पुलस्त्य भी उस स्थान पर गए जहाँ सावित्री अकेली थीं। हे देवी आप आलसी प्रतीत होती हो जल्दी से यज्ञस्थल में चलो ! 
सावित्र्युवाच तं ब्रूहि मुहूर्तं परिपाल्यताम् 
यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथाऽपराः ।३९।
अनुवाद:- सावित्री ने कहा: उन्हें (ब्रह्मा को) एक मुहूर्त (१२ क्षण का समय) प्रतीक्षा करने को कहो। जब तक इंद्राणी, गौरी ,लक्ष्मी, और अन्य देवियों भी पास आती हैं  ।
विशेष:-अमरकोश के अनुसार तीस कला या मुहूर्त के बारहवें भाग का एक क्षण होता है। और इस प्रकार १२ क्षण का समय एक मुहूर्त हुआ।देवकन्याः समाजेऽत्र ताभिरेष्यामि संहिता ।
सोऽपि गत्वा द्रुतं प्राह सोमभाराऽर्दितं विधिम् ।1.509.४०।
अनुवाद:- मैं इस समाज में देवकन्याओ को साथ लाऊँगी। उसने भी जल्दी-जल्दी जाकर सोम  के बोझ से पीड़ित हो  ब्रह्मा से कहा !
एवं ज्ञात्वा सुरश्रेष्ठ कुरु यत्ते सुरोचते ।
अतिक्रामति कालश्च यज्ञपानक्षणात्मकः ।४२।
अनुवाद:- इस प्रकार जानकर  देवों श्रेष्ठ ब्रह्मन् ! जो तुमको अच्छा लगता वह करो । यज्ञ में सोमपान का समय और क्षण बीता जाता है।
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सा मां प्राह च देवीभिः सहिताऽऽयामि वै मखे ।
अहं यास्यामि सहिता न त्वेकला कथंचन।४१।
अनुवाद:- उसने मुझे बताया कि मैं देवीयों के साथ यज्ञ में आती हूँ। मैं उनके ही साथ ही आऊँगी अकेली बिल्कुल नहीं।
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श्रुत्वा ब्रह्मा महेन्द्रं च प्राह सा शिथिलात्मिका 
नाऽऽयात्येवाऽन्यया पत्न्या यज्ञःकार्यो भवत्विति।४३।
अनुवाद:- यह सुनकर ब्रह्मा इन्द्र से कहा ! वह आलसी है वह यहाँ नहीं आएगी इसलिए अन्य पत्नी के द्वारा यज्ञ कार्य होगा ।
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ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः ।
चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से  इन्द्र ने किसी  घूमते हुई  गोप कन्या को  देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली  हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
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युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
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परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
अनुवाद:- यदि तुम तक्र ग्रहण करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा लिया।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः ।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर ।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा !  हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।
अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। 
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गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे  दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक  स्थान पर रहता है।।


गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् ।
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
अनुवाद:- वह गाय के पेट से निकाली और ब्राह्मणों के पास लाई गई। उसका हाथ पकड़कर यज्ञा का सम्पादन करो ।
रुद्रःप्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा।५१।
अनुवाद:- रूद्र ने कहा, "फिर  गाय-यन्त्र से बाहर होने से यह निश्चय ही गायत्री नाम से इस यज्ञ में सदा तुम्हारी पत्नी होगी "

वस्तुत: या उपर्युक्त कथन की  गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है पूर्व वर्णित शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत ही है। अत: यह प्रक्षिप्त अथवा क्षेपक  है।
क्योंकि गायत्री नाम तो उस आभीर कन्या का उसका पारिवारिक ही नाम था। जब उसे इन्द्र ने ग्रहण किया था।

सावित्री व्याकुला देव प्रसक्ता गृहकर्माणि।
सख्योनाभ्यागता यावत्तावन्नागमनं मम।१२६।
एवमुक्तोस्मि वै देव कालश्चाप्यतिवर्त्तते।
यत्तेद्य रुचितं तावत्तत्कुरुष्व पितामह।१२७।
एवमुक्तस्तदा ब्रह्मा किंचित्कोपसमन्वितः।
पत्नीं चान्यां मदर्थे वै शीघ्रं शक्र इहानय।१२८।
यथा प्रवर्तते यज्ञः कालहीनो न जायते।
तथा शीघ्रंविधित्स्व त्वं नारीं कांचिदुपानय।१२९।
यावद्यज्ञसमाप्तिर्मे वर्णे त्वां मा कृथा मनः।
भूयोपि तां प्रमोक्ष्यामि समाप्तौ तु क्रतोरिह।१३०।
एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं।
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।
आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना।
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।
न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना।
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम्।१३३।
संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा।
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित्।१३४।।
गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्।
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।१५६।
दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परंतप।
अर्थी येनासि तद्ब्रूहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्।१५७।
एवमुक्तस्तदा शक्रो गृहीत्वा तां करे दृढम्।
अनयत्तां विशालाक्षीं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः।१५८।
त्वत्तोपि दृश्यते येन रूपेणायं स्मराधिकः।
ममानेन मनोरत्न सर्वस्वं च हृतं दृढम्।१७९।
शोभा या दृश्यते वक्त्रे सा कुतः शशलक्ष्मणि।
नोपमा सकलं कस्य निष्कलंकेन शस्यते।१८०।
समानभावतां याति पंकजं नास्य नेत्रयोः।
कोपमा जलशंखेन प्राप्ता श्रवणशंङ्खयोः।१८१।
विद्रुमोप्यधरस्यास्य लभते नोपमां ध्रुवम्।
आत्मस्थममृतं ह्येष संस्रवंश्चेष्टते ध्रुवम्।१८२।
यदि किंचिच्छुभं कर्म जन्मांतरशतैः कृतम्।
तत्प्रसादात्पुनर्भर्ता भवत्वेष ममेप्सितः।१८३।
एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका।
तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।
देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभो।
एवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्१८५।
तदेनामुद्वहस्वाद्य मया दत्तां जगत्प्रभो।
गान्धर्वेण विवाहेन विकल्पं मा कृथाश्चिरम्।१८६।।
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उपर्युक्त श्लोक पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय 16 से संकलित हैं। जिनमें वर्णन है कि जब एक बार ब्रह्मा यज्ञ का आयोजन पुष्कर क्षेत्र में कर रहे थे।
तब उन्होनें कुछ ऋषियों को अपनी पत्नी सावित्री को बुलाने के लिए उनके पास भेजा परन्तु वह किसी गृह कार्य में संलग्न होने के कारण यज्ञ स्थल में न आ सकी तब ब्रह्मा ने क्रुद्ध होकर इन्द्र को यज्ञ के लिए अन्य दूसरी पत्नी लाने के लिए भेजा - तब भूलोक लोक पर इन्द्र को सर्वसुन्दर गुणवती सिर पर दधि की मटकी रखे एक आभीर कन्या दिखाई दी जिसका नाम गायत्री था। गायत्री नाम उस कन्या का उसके परिवार द्वारा प्रदत्त (दिया गया)था । क्यों कि वह कन्या वैदिक ऋचाओं का नित्य गान(गाय) करते हुए अपने ज्ञान का त्रायण- रक्षण करती रहती थी  आभीर जन उस काल में धर्मवत्सल और सदाचारी होते थे।  गायती शब्द की निम्न व्युत्पत्ति सार्थक है।

गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत  त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति 

अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने  स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।
अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने  वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
अनुवाद तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो ।
ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।
गायत्री ने भी उस अरणि को खुशी-खुशी अपने सिर पर धारण कर लिया।
वाद्यमानेषु वाद्येषु सम्प्राप्ता यज्ञमण्डपम् ।
विधिश्चक्रे स्वकेशानां क्षौरकर्म ततः परम् ।।५४।।
अनुवाद:-बजाए जाते हुए वाद्ययन्त्रों में , यज्ञ मंडप में गायत्री पहुँची और ब्रह्मा ने अपने केशों का क्षौरकर्म कराया।
विश्वकर्मा तु गायत्रीनखच्छेदं चकार ह ।
औदुम्बरं ततो दण्डं पौलस्त्यो ब्रह्मणे ददौ ।।५५।।
अनुवाद:-विश्वकर्मा ने गायत्री के नाखूनों को काट दिया। तब पौलस्त्य ने औदुम्बर की छड़ी ब्रह्मा को दे दी।
एणशृंगान्वितं चर्म समन्त्रं प्रददौ तथा ।
पत्नीं शालां गृहीत्वा च गायत्रीं मौनधारिणीम् ।।
५६।।
अनुवाद:-उसने उसे एण हिरन के सींग जो चमड़े से मड़े हुए और अभिमन्त्रित थे गायत्री को  दिए ।और पत्नी शाला में जाकर गायत्री ने मौन धारण कर लिया।
मेखलां निदधे त्वन्यां कट्यां मौञ्जीमयीं शुभाम् ।
ततो ब्रह्मा च ऋत्विग्भिः सह चक्रे क्रतुक्रियाम् ।५७।।
अनुवाद:-उसने अपनी कमर के चारों ओर एक और मेखला( करधनी) धारण की, जो शुभ मूँज से बनी हुई थी। तब ऋतुजों  के साथ ब्रह्मा ने यज्ञ अनुष्ठान किया।
_________________
कर्मणि जायमाने च तत्राऽऽश्चर्यमभून्महत् ।
जाल्मरूपधरः कश्चिद् दिग्वासा विकृताननः।। ५८।।
अनुवाद:-यज्ञकार्य होतो हुए वहाँ महान आश्चर्य हुआ कार्रवाई हो रही थी तो बड़ा आश्चर्य हुआ।
विकृत मुख वाला कोई जालिम नग्न (दिशात्मक वस्त्र पहने हुए ) बिगड़े हुए मुख वाला ।58।
कपालपाणिरायातो भोजनं दीयतामिति ।
निषिध्यमानोऽपि विप्रैः प्रविष्टो यज्ञमण्डपम् ।।
५९।।
अनुवाद:-वह हाथ में खोपड़ी लेकर आया और उसे खाना देने को कहा। ब्राह्मणों द्वारा मना किए जाने पर भी वह यज्ञ मंडप में प्रवेश कर गया।
सदस्यास्तु तिरश्चक्रुः कस्त्वं पापः समागतः ।
कपाली नग्नरूपश्चाऽपवित्रखर्परान्वितः ।।1.509.६ ०।।
अनुवाद:-सदस्यों ने मुड़कर कहा, "तुम कौन हो, पापी जो यहाँ आए हो ?" कपाली और अपवित्र खप्पर के  साथ इस नग्न रूप में ।
यज्ञभूमिरशुद्धा स्याद् गच्छ शीघ्रमितो बहिः ।
जाल्मःप्राहकथं चास्मि ह्यशुद्धो भिक्षुकोव्रती।६१।
अनुवाद:-यज्ञ स्थल अशुद्ध हो जाय, शीघ्र यहां से बाहर चले जाओ। जालिम  बोला ! कि मैं व्रत रखने वाला  भिक्षुक  अशुद्ध  कैसे हूँ ? 

विशेष:- उपर्युक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं क्योंकि जब शिव गायत्री कि नाम करण करते है वह भी व्याकरण सम्मत न होकर नियम विरुद्ध होता है । और वही शिव कपाली भी हैं फिर वे दूसरे रूप में कैसे आ गये ?
_________
ब्रह्मयज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः ।
गोपालकन्या नित्यं या शूद्री त्वशुद्धजातिका।६२।
अनुवाद:-इस ब्रह्मयज्ञ का पता चलने पर वह स्नान करके वापस आ गया। गोप की कन्या होती है हमेशा शूद्री होती है। वह एक अशुद्ध जाति की होती है।

स्थापिताऽत्र नु सा शुद्धा विप्रोऽहं पावनो न किम् ।
तावत् तत्र समायातो ब्राह्मणो वृद्धरूपवान् ।।६३।।
______________ 
अनुवाद:-उसे यहाँ यज्ञ स्थल में बैठाया  वह शुद्धा है  और मैं एक  ब्राह्मण होकर भी अशुद्ध कैसे  हूँ ? इतने में एक वृद्ध रूपवान् ब्राह्मण वहाँ आ पहुँचा।

श्रीकृष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म नैषाऽस्ति शूद्राणी ब्राह्मणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।
अनुवाद:-तब भगवान कृष्ण ने उन्हें इस प्रकार संबोधित किया: मेरी प्रिय पत्नी, कृपया मेरा उत्तर सुनें। जाल्म ये ऐसी नहीं है बल्कि जाति से ब्राह्मणी ही  है।
शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्यतद्विदः ।
पुरा सृष्टे समारम्भे श्रीकृष्णेन परात्मना ।।६५।।
अनुवाद:-सुनो, मुझे पता है कि क्या हुआ, लेकिन कोई और नहीं जानता कि क्या हुआ।
अतीत में भगवान कृष्ण द्वारा सर्वोच्च आत्मा द्वारा सृष्टि की शुरुआत में।
स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता ।
अथ द्वितीया कन्या च पतिव्रताऽभिधा कृता ।।६६।।
अनुवाद:-सावित्री, ने स्वयं को अपने रूप में प्रकट किया है। और दूसरी को पतिव्रता नाम से है।।
कुमारश्च कृतः पत्नीव्रताख्यो ब्राह्मणस्ततः ।
ब्रह्मा वैराजदेहाच्च कृतस्तस्मै समर्पिता ।।६७।।
अनुवाद:-तब दूसरी पुत्री का नाम पतिव्रता रखा गया।
फिर उन्हें एक युवक और पत्नीव्रत नाम का एक ब्राह्मण बनाया गया।
ब्रह्मा को वैराजा के शरीर से बनाया गया था और उन्हें अर्पित किया गया था।
सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ यज्ञप्रवाहार्थं ब्रह्मा यज्ञं करिष्यति ।।६८।।
अनुवाद:-सावित्री गोलोक में भगवान श्री हरि की उपस्थिति में है। तब ब्रह्मा यज्ञ के प्रवाह के लिए यज्ञ करेंगे।
पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता भविष्यति ।।६९।।
अनुवाद:-पृथ्वी पर एक नश्वर के रूप में, एक मानव शरीर वाली यज्ञ के कार्य के लिए उसकी पत्नी की आवश्यकता होगी।
हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह ।।1.509.७०।।
अनुवाद:-इस कारण से, भगवान कृष्ण ने तब गायत्री को ऐसा करने की आज्ञा दी।
आपको दूसरे रूप में जाना चाहिए।
हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह ।।
1.509.७०।।
अनुवाद:-जिसके  कारण कृष्ण थे तब उनके द्वारा उस सावित्री को आज्ञा दी गयी कि अपने दूसरे रूप के द्वारा तुम्हें पृथ्वी पर जाना चाहिए।
प्रागेव भूतले कन्यारूपेण ब्रह्मणः कृते।
सावित्री श्रीकृष्णमाह कौ तत्र पितरौ मम।७१।
अनुवाद:-पहले से ही ब्रह्मा के लिए कन्या के रूप में पृथ्वी पर। सावित्री ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि वहां मेरे माता पिता कौन हैं ?
श्रीकृष्णस्तांतदा सन्दर्शयामास शुभौ तु तौ ।
इमौ पत्नीव्रतो विप्रो विप्राणी च पतिव्रता ।७२।
अनुवाद:-तब भगवान कृष्ण ने उसे दो शुभ ( नर नारियों) को दिखाया।
ये दोनों ब्राह्मण हैं जो अपनी पत्नी के प्रति विश्वसनीय हैं वह और वह महिला है जो अपने पति के प्रति विश्वसनीय है।
मदंशौ मत्स्वरूपौ चाऽयोनिजौ दिव्यविग्रहौ ।
पृथ्व्यां कुंकुमवाप्यां वै क्षेत्रेऽश्वपट्टसारसे ।७३ ।
अनुवाद:-वे दोनों मेरे अंश और मेरे रूप हैं  वे दौनों गर्भ से  उत्पन्न नहीं  हुए हैं। इनके दिव्य शरीर हैं। धरती केसर से भर गई थी अश्वपट्टसारस में  खेतों में ।
सृष्ट्यारम्भे विप्ररूपौ वर्तिष्येतेऽतिपावनौ ।
वैश्वदेवादियज्ञादिहव्याद्यर्थं गवान्वितौ ।७४। 
अनुवाद:-सृष्टि के आरंभ में ये दोनों( पति पत्नी) अति पवित्र ब्राह्मणों के रूप में रहेंगे। उनके साथ वैश्वदेव आदि यज्ञादि हव्य के लिए गायें होंगी।
सौराष्ट्रे च यदा ब्रह्मा यज्ञार्थं संगमिष्यति ।
तत्पूर्वं तौ गोभिलश्च गोभिला चेति संज्ञिता।
७२।
अनुवाद:-और जब भगवान ब्रह्मा  यज्ञ करने के उद्देश्य से सौराष्ट्र में जाएंगे। इससे पहले ही वे दोनों गोभिल और गोभिला नाम से जाने जाएंगे ।
गवा प्रपालकौ भूत्वाऽऽनर्तदेशे गमिष्यतः ।
यत्राऽऽभीरा निवसन्ति तत्समौ वेषकर्मभिः ।।७६।।
अनुवाद:-वे गोपाल होकर और आनर्त देश (गुजरात) जाएंगे। जहाँ अभीर लोग रहते हैं वहाँ उन दोनों के पहनावे और कार्य अहीरों के समान होंगे ।
दैत्यकृतार्दनं तेन प्रच्छन्नयोर्न वै भवेत् ।
इतिःहेतोर्यज्ञपूर्वं दैत्यक्लेशभिया तु तौ ।।७७।।
अनुवाद:- दैत्यों के उत्पीडन से वे दोनों छुपे हुए रहते हैं इस कारण उन दोनों को यज्ञ के पूर्व दैत्यो की क्लेश का भय रहता है।
__________
श्रीहरेराज्ञयाऽऽनर्ते जातावाभीररूपिणौ ।
गवां वै पालकौ विप्रौ पितरौ च त्वया हि तौ ।७८।
अनुवाद:-भगवान श्री हरि की आज्ञा से,उन दोनों ने अहीरों  के रूप में जन्म लिया। वे गायों को पालने वाले ब्राह्मण -ब्राह्मणी तुम्हारे माता-पिता हैं।
कर्तव्यौ गोपवेषौ वै वस्तुतो ब्राह्मणावुभौ ।
मदंशौ तत्र सावित्रि ! त्वया द्वितीयरूपतः।७९।
अनुवाद:-वास्तव में, उन दोनों को गोपवेष में कर्म करने चाहिए  वास्तव में वे दौनों ब्राह्मण ही हैं। मेरे अंशों से  वहाँ सावित्री आप दूसरे रूप में होगीं।
अयोनिजतया पुत्र्या भाव्यं वै दिव्ययोषिता ।
दधिदुग्धादिविक्रेत्र्या गन्तव्यं तत्स्थले तदा ।।1.509.८०।।
अनुवाद:-एक दिव्य नारी  मानवीय जन्म से रहित  दही -दूध विक्रेता की पुत्री के रूप में  तुम्हे उस स्थल पर चला जाना चाहिए।
यदा यज्ञो भवेत् तत्र तदा स्मृत्वा सुयोगतः ।
मानुष्या तु त्वया नूत्नवध्वा क्रतुं करिष्यति।८१ ।
अनुवाद:-जब वहां यज्ञ हो तो उसका भली भांति स्मरण करके । एक मानुषी रूप में  नयी वधु  के रूप में तुम  यज्ञ करोगीं।
_____________________________
सहभावं गतो ब्रह्मा गायत्री त्वं भविष्यसि ।
ब्राह्मणयोः सुता गूढा गोपमध्यनिवासिनोः ।।८२।।

अनुवाद:-ब्रह्मा का साहचर्य प्राप्त तुम गायत्री नाम से होगी ब्राह्मण( माता-पिता) की पुत्री छुपे हई तुम गोपों के बीच में रहने वाली होंगी।
"विशेष:- उपर्युक्त 82 वाँ श्लोक भी प्रक्षिप्त है। क्यों की गायत्री अहीरों की ही कन्या थी । यदि यह ब्राह्मण कन्या होती तो गोमुख में प्रवेशकराकर मूत्र द्वार से निकालने के विधान की कथा नहीं बनती जो स्वयं ही सिद्धान्त हीन और मूर्खता-पूर्ण थी।। इस कथन को कृष्ण के मुख से कहलवाना उसे सत्य बनाने का प्रयास ही है। वैसे भी गाय वर्ण-व्यवस्था में वैश्य स्थानीय है। जबकि अजा( बकरी ) ब्राह्मण स्थानीय है।  दोपों को संसार में सबसे पवित्र बताने वाले शास्त्र हैं तो गोप अशुद्ध किस बना दिए! 
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
    गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
   जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः॥२२॥
अनुवाद:-अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।
इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं। इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
ब्रह्माणी च ततो भूत्वा सत्यलोकं गमिष्यसि ।
ब्राह्मणास्त्वां जपिष्यन्ति मर्त्यलोकगतास्ततः।८३।
अनुवाद:-तब तुम ब्राह्मणी होकर  सत्यलोक को गमन करोगीं। और सब ब्राह्मण लोग पृथ्वी लोक में स्थित आपका नाम जपेंगे।
इत्येवं जायमानैषा गायत्री ब्राह्मणी सुता ।
वर्तते गोपवेषीया नाऽशुद्धा जातितो हि सा ।।८४।।
"विशेष:-इस प्रकार एक ब्राह्मणी की पुत्री गायत्री का जन्म हुआ। जो एक चरवाहे (अहीर)के वेष में व्यवहार करती है और इस लिए वह (गोपकन्या न होने के कारण) जन्म से अशुद्ध नहीं होती है। 
गोपों को अशुद्ध मानना लेखक की पूर्वदाराग्रह से उतपन्न भ्रान्ति ही है।
उपर्युक्त श्लोक भी प्रक्षिप्त ही है। लक्ष्मीनारायण संहिता के लेखक कोई श्वेतायन व्यास हैं परन्तु सम्भव है कि ये श्लोक प्रकाशन काल में  बाद संलग्न कर दिए हों क्योंकि पुराण शास्त्रों में गायत्री के ब्राह्मण कुल में जन्म लेने की कहीं पर चर्चा नहीं है केवल इसे अहीरों के कुल को पवित्र करने वाली और यदुवंशसमुद्भवा ही बताया है ।  और यदि गायत्री ब्राह्मण कुल में जन्मी कन्या थी तो गाय के मुख में डालकर गुदा( मलद्वार) से बाहर निकाला भी मूर्खता ही है। और गाय भी तो वैश्यवर्णा पशु है। जैसा की वेदों तथा पुराणों में वर्णन है ।
एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा ।
तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा ।।८५।।
अनुवाद: तब भगवान कृष्ण ने जाल्मा को इस प्रकार उत्तर दिया। तबतक इस बीच गोभिला और गोभिल  खुशी-खुशी वहां आ पहुंचे।
अस्मत्पुत्र्या महद्भाग्यं ब्रह्मणा या विवाहिता ।
आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते ।।८६।।
अनुवाद:-हमारी पुत्री बहुत भाग्यशाली है कि उसका विवाह भगवान ब्रह्मा से हुआ है।
यह हम दोनों का महा सौभाग्य है कि दैत्य के द्वारा हुए कष्टों को हमारी पुत्री द्वारा रोका गया है।
यज्ञद्वारेण देवानां ब्राह्मणानां सतां तथा ।
इत्युक्त्वा तौ गोपवेषौ त्यक्त्वा ब्राह्मणरूपिणौ।८७।
अनुवाद:-यज्ञ द्वारा देवताओं, ब्राह्मणों और पुण्यात्माओं की रक्षा होती है। ऐसा कहकर वे दोनों (पति- पत्नी) ग्वालों का वेश छोड़कर ब्राह्मण का रूप धारण कर गए।
पितामहौ हि विप्राणां परिचितौ महात्मनाम् ।
सर्वेषां पूर्वजौ तत्र जातौ दिव्यौ च भूसुरौ।८८।
अनुवाद:-महात्मा ब्राह्मणों के  दौनों दादा -दादी  अच्छी तरह से सब ब्राह्मणों के परिचित उन दोनों के दिव्य रूप  हो गये ।
उन सभी के पूर्वज वहाँ दिव्य और सांसारिक
दोनों तरह से पैदा हुए थे।
ब्रह्माद्याश्च तदा नेमुश्चक्रुः सत्कारमादरात् ।
यज्ञे च स्थापयामासुः सर्वं हृष्टाःसुरादयः ।८९।
अनुवाद:-तब ब्रह्मा और अन्य लोगों ने उन दौनों को नतमस्तक होकर उनका आदरपूर्वक आतिथ्य सत्कार किया।और देवताओं तथा अन्य लोगों ने प्रसन्न होकर सब कुछ यज्ञ में अर्पित कर दिया।
ब्रह्माणं मालया कुंकुमाक्षतैः कुसुमादिभिः ।
वर्धयित्वा सुतां तत्र ददतुर्यज्ञमण्डपे ।। 1.509.९०।।
अनुवाद:-ब्राह्मण को केसर, अखंड अनाज और फूलों की माला से वर्द्धापन( बधाई) देकर  
उन्होंने अपनी बेटी को वहीं यज्ञ मंडप में ब्रह्मा को दे दिया। 1.509.90।
वृद्धो वै ब्राह्मणस्तत्र कृष्णरूपं दधार ह ।
सर्वैश्च वन्दितः साधु साध्वित्याहुः सुरादयः।९१।
अनुवाद:-वृद्ध ब्राह्मण ने वहाँ भगवान कृष्ण का रूप धारण किया। वे सभी के द्वारा पूजे गये और देवताओं तथा अन्य लोगों ने कहा, साधु-साधु का उद्घोष किया।
जाल्मः कृष्णं हरिं दृष्ट्वा गायत्रीपितरौ तथा ।
दृष्ट्वा ननाम भावेन प्राह भिक्षां प्रदेहि मे।९२।
अनुवाद:-जाल्म ने भगवान कृष्ण, हरि और गायत्री के माता-पिता दोनों  को देखकर  स्नेह से प्रणाम किया और कहा कि मुझे भिक्षा दो !
बुभुक्षितोऽस्मि विप्रेन्द्रा गर्हयन्तु न मां द्विजाः ।
दीनान्धैः कृपणैः सर्वैस्तर्पितैरिष्टिरुच्यते ।।९३।।
अनुवाद:-हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, मैं बहुत भूखा हूँ, कृपया मुझे धिक्कारें नहीं हे द्विजो !
दरिद्र, अन्धे और दीन-हीन सभी तृप्त हो जाते हैं और वे तुम्हे अधिक रुचते (अच्छे लगते ) हैं।93।
अन्यथा स्याद्विनाशाय क्रतुर्युष्मत्कृतोऽप्ययम् ।
अन्नहीनो दहेद् राष्ट्रं मन्त्रहीनस्तु ऋत्विजः ।।९४।।
अनुवाद:-अन्यथा आपके द्वारा किया गया यह यज्ञ भी विनाश के लिए ही होगा।
अन्न के बिना राष्ट्र जलेगा और मन्त्रों के बिना ऋत्विज (पुरोहित)।
याज्ञिकं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।
श्रीकृष्णश्च तदा प्राह जाल्मे ददतु भोजनम्।९५।
अनुवाद:-याज्ञिक( यजमान) की यज्ञ बिना दान-दक्षिणा के नहीं मानी जाती और ये सब शत्रु के समान बन जाते हैं।विरीत फल देने वाले -तब भगवान कृष्ण ने कहा, "जल्मा को भोजन दो।
विप्राः प्राहुः खप्परं ते त्वशुद्धं विद्यते ततः ।
बहिर्निःसर दास्यामो भिक्षां पार्श्वमहानसे ।।९६।।
एतस्यामन्नशालायां भुञ्जन्ति यत्र तापसाः।
दीनान्धाः कृपणाश्चैव तथा क्षुत्क्षामका द्विजाः।९७।
अशुद्धं ते कपालं वै यज्ञभूमेर्बहिर्नय ।
गृहाणाऽन्यच्छुद्धपात्रं दूरं प्रक्षिप्य खप्परम् ।।९८।।
एवमुक्तश्च जाल्मः स रोषाच्चिक्षेप खप्परम् ।
यज्ञमण्डपमध्ये च स्वयं त्वदृश्यतां गतः ।।९९।।
सर्वेप्याश्चर्यमापन्ना विप्रा दण्डेन खप्परम् ।
चिक्षिपुस्तद्बहिस्तावद् द्वितीयं समपद्यत ।। 1.509.१००।।
तस्मिन्नपि परिक्षिप्ते तृतीयं समपद्यत ।
एवं शतसहस्राणि समपद्यन्त वै तदा ।। १०१ ।।
परिश्रान्ता ब्राह्मणाश्च यज्ञवाटः सखप्परः ।
समन्ततस्तदा जातो हाहाकरो हि सर्वतः।१०२।।
ब्रह्मा वै प्रार्थयामास सन्नत्वा तां दिशं मुहुः ।
किमिदं युज्यते देव यज्ञेऽस्मिन् कर्मणः क्षतिः। १०३।
तस्मात् संहर सर्वाणि कपालानि महेश्वर ।
यज्ञकर्मविलोपोऽयं मा भूत् त्वयि समागते।१०४।
ततः शब्दोऽभवद् व्योम्नः पात्रं मे मेध्यमस्ति वै ।
भुक्तिपात्रं मम त्वेते कथं निन्दन्ति भूसुराः।१०५।।
तथा न मां समुद्दिश्य जुहुवुर्जातवेदसि ।
यथाऽन्या देवतास्तद्वन्मन्त्रपूतं हविर्विधे।१ ०६।
अतोऽत्र मां समुद्दिश्य विशेषाज्जातवेदसि ।
होतव्यं हविरेवात्र समाप्तिं यास्यति क्रतुः । १०७।।
ब्रह्मा प्राह तदा प्रत्युत्तरं व्योम्नि च तं प्रति ।
तव रूपाणि वै योगिन्नसंख्यानि भवन्ति हि।१०८।
कपालं मण्डपे यावद् वर्तते तावदेव च ।
नात्र चमसकर्म स्यात् खप्परं पात्रमेव न ।१ ०९।
यज्ञपात्रं न तत्प्रोक्तं यतोऽशुद्धं सदा हि तत् ।
यद्रूपं यादृशं पात्रं यादृशं कर्मणः स्थलम् ।। 1.509.११०।।
तादृशं तत्र योक्तव्यं नैतत्पात्रस्य योजनम् ।
मृन्मयेषु कपालेषु हविःपाच्यं क्रतौ मतम् ।१११ ।
तस्मात् कपालं दूरं वै नीयतां यत् क्रतुर्भवेत् ।
त्वया रूपं कपालिन् वै यादृशं चात्र दर्शितम् ।१ १२।
तस्य रूपस्य यज्ञेऽस्मिन् पुरोडाशेऽधिकारिता ।
भवत्वेव च भिक्षां संगृहाण तृप्तिमाप्नुहि।११ ३।
अद्यप्रभृति यज्ञेषु पुरोडाशात्मकं द्विजैः ।
तवोद्देशेन देवेश होतव्यं शतरुद्रिकम् ।११४।
विशेषात् सर्वयज्ञेषु जप्यं चैव विशेषतः ।
अत्र यज्ञं समारभ्य यस्त्वा प्राक्पूजयिष्यति।११५।
अविघ्नेन क्रतुस्तस्य समाप्तिं प्रव्रजिष्यति ।
एवमुक्ते तदाश्चर्यं जातं शृणु तु पद्मजे ।११६।
यान्यासँश्च कपालानि तानि सर्वाणि तत्क्षणम् ।
रुद्राण्यश्चान्नपूर्णा वै देव्यो जाताः सहस्रशः।११७।
सर्वास्ताः पार्वतीरूपा अन्नपूर्णात्मिकाः स्त्रियः ।
भिक्षादात्र्यो विना याभिर्भिक्षा नैवोपपद्यते।११८।
तावच्छ्रीशंकरश्चापि प्रहृष्टः पञ्चमस्तकः ।
यज्ञमण्डपमासाद्य संस्थितो वेदिसन्निधौ ।११ ९।
ब्राह्मणा मुनयो देवा नमश्चक्रुर्हरं तथा ।
रुद्राणीःपूजयामासुरारेभिरे क्रतुक्रियाम्।1.509.१ २०।
सहस्रशः क्रतौ देव्यो निषेदुः शिवयोषितः ।
शिवेन सहिताश्चान्याः कोटिशो देवयोषितः।१२१।
एवं शंभुः क्रतौ भागं स्थापयामास सर्वदा ।
पठनाच्छ्रवणाच्चास्य यज्ञस्य फलमाप्नुयात् । १२२।
इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने नाम्ना नवाऽधिकपञ्चशततमोऽध्यायः ।।५०९।।
(लक्ष्मी नारायण संहिता-)

"विशेष:- अग्निष्टोम-एक यज्ञ जो ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का रूपान्तर है । विशेष—इसका काल वसंत है । इसके करने का अधिकार अग्निहोत्री ब्राह्मण को है और द्रव्य इसका सोम है  देवता इसके इन्द्र और वायु आदि हैं और इसमें ऋत्विजों की संख्या १६ है । यह यज्ञ पाँच दिन में समाप्त होता है ।

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ब्रह्मा( यज्ञ का एक ऋत्विज।  ) नारद हों और गर्ग यज्ञ के दृष्टा हों ।25।

 "विशेष:- ऋत्विज  यज्ञ करनेवाला वह जिसका यज्ञ में वरण किया जाय । विशेषत:—ऋत्विजों की संख्या(16) होती है जिसमें चार मुख्य हैं—(क)  होतृ-होता:- (ऋग्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ख) अध्वर्यु:- (यजुर्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ग) उद्गाता:- (सामवेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (घ) ब्रह्मा:- (चार वेदों का जाननेवाला और पूरे  यजन-कर्म का निरीक्षण करनेवाला । इनके अतिरिक्त बारह और ऋत्विजों के नाम ये हैं— मैत्रावरुण, प्रतिप्रस्थाता, ब्राह्मणच्छंसी, प्रस्तोता, अच्छावाक्, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रतिहर्त्ता, ग्रवस्तुत्, उन्नेता, पोता और सुब्रह्मण्य ।

होता- भरद्वाज अग्नीध्र और पराशर बनें बृहस्पति आचार्य बने और गोभिल उद्गाता बने ।२६।

मैत्रावरुण च्यवन अथर्वा और गालव ये यज्ञ में समर्थ ब्राह्मण धन लेकर यज्ञमण्डप में खड़े हो। २३।
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अब देखें नीचे स्कन्दपुराण कि वर्णन-
श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहेगायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः॥१८१॥ 
निम्न श्लोकों को देखें-            
                      ॥ ब्रह्मोवाच ॥
शक्र नायाति सावित्री सापि स्त्री शिथिलात्मिका ॥
अनया भार्यया यज्ञो मया कार्योऽयमेव तु ॥५४ ॥
गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः।
यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ५५ ॥
पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः ॥
शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः।५६॥
अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता॥
कन्यका गोपजा तन्वी चंद्रास्या पद्मलोचना।५७॥
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सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता ॥
सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने॥५८॥
कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि न:।५९॥
                     ॥कन्योवाच॥
गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता ॥
यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम् ॥ ६.१८१.६०॥
तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम् ॥
जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले ॥ ६१ ॥
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अथ तां रुदतीं शक्रः समादाय त्वरान्वितः॥
गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः ॥ ६२ ॥
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
ज्येष्ठकुण्डस्यविप्रेन्द्राःपरिधाय्यसुवाससी।६३।
ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे ॥ ६४ ॥
कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना ॥
तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता ॥ ६५॥
                 "श्रीवासुदेव उवाच॥ 
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ६९ ॥
                     "रुद्र उवाच॥
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
                   ॥ब्रह्मोवाच॥
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि ॥
संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥७१॥
                    ॥ब्राह्मणा ऊचुः॥ 
एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
___________________
अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम्।।७२॥
                      ॥सूत उवाच॥
ततः पाणिग्रहं चक्रे तस्या देवः पितामहः॥
कृत्वा सोमं ततो मूर्ध्नि गृह्योक्तविधिना द्विजाः।७३।
संतिष्ठति च तत्रस्था महादेवी सुपावनी ॥
अद्यापि लोके विख्याता धनसौभाग्यदायिनी।७४।
यस्तस्यां कुरुते मर्त्यः कन्यादानं समाहितः ॥
समस्तं फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ।७९।
कन्या हस्तग्रहं तत्र याऽऽप्नोति पतिना सह ॥
सा स्यात्पुत्रवती साध्वी सुखसौभाग्यसंयुता।७६।
पिंडदानं नरस्तस्यां यः करोति द्विजोत्तमाः॥
पितरस्तस्य संतुष्टास्तर्पिताः पितृतीर्थवत् ॥७७॥
__________________________________
इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥ १८१ ॥

इसी कथा को विस्तार से हम यहाँ  नीचे प्रस्तुत करते हैं यह कथा पूर्णतया प्रक्षिप्त व शास्त्रीय- सिद्धान्त विहीन है

                  ॥सूत उवाच॥
एतस्मिन्नन्तरे सर्वेर्नागरैर्ब्राह्मणोत्तमैः॥
प्रेषितो मध्यगस्तत्र गर्तातीर्थसमुद्भवः॥१॥
अनुवाद:- इस बीच, सभी उत्कृष्ट नागर ब्राह्मणों द्वारा गर्तातीर्थ  एक मध्यस्थ को भेजा गया ।१। 
रेरे मध्यग गत्वा त्वं ब्रूहि तं कुपितामहम्॥
विप्रवृत्ति प्रहन्तारं नीतिमार्गविवर्जितम्॥२॥
अनुवाद:- "हे मध्यम जाओ और बताओ कि कुपितामह (दुष्ट पितामह ) जिसने हम ब्राह्मणों की जीविका के साधनों को नष्ट कर दिया है। और जिन्होंने न्याय और निष्पक्षता के मार्ग को त्याग दिया है।२।
एतत्क्षेत्रं प्रदत्तं नःपूर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥
महेश्वरेण तुष्टेन पूरिते सर्पजे बिले॥३॥
अनुवाद:-यह क्षेत्र  महेश्वर द्वारा हमारे पूर्वजों ब्राह्मणों को दिया गया था -नागों से उत्पन्न विल में।३।
तस्य दत्तस्य चाद्यैव पितामहशतं गतम्॥
पंचोत्तरमसन्दिग्धं यावत्त्वं कुपितामह ॥४॥
अनुवाद:-तुम्हारे साथ समाप्त, हे दुष्ट पितामह, एक सौ पांच अलग -अलग पितामह उस महेश्वर द्वारा दिए गये क्षेत्र के  समय से चले गए हैं। इसमें तो कोई शक ही नहीं है।४।
न केनापि कृतोऽस्माकं तिरस्कारो यथाऽधुना॥
त्वां मुक्त्वा पापकर्माणं न्यायमार्गविवर्जितम्॥५॥
अनुवाद:-किसी के भी द्वारा आजतक हमारा तिरस्कार नहीं किया गया तुम्हें छोड़कर तुम पापकर्म करते हुए न्याय मार्ग से हटे हुए हो।५।
 
नागरैर्ब्राह्मणैर्बाह्यं योऽत्र यज्ञं समाचरेत्॥
श्राद्धं वा स हि वध्यःस्यात्सर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥६॥
अनुवाद:-वह जो नागर (गुजरात में रहने वाले ब्राह्मणों की एक जाति।) के वंश से बाहर है और यहाँ श्राद्ध या यज्ञ करता है, उसे अन्य सभी ब्राह्मणों द्वारा मार दिया जाना चाहिए।६।
न तस्य जायते श्रेयस्तत्समुत्थं कथञ्चन।
एतत्प्रोक्तं तदा तेन यदा स्थानं ददौ हि नः।७।
अनुवाद:-जब  शिव ने  हमें यह पवित्र स्थान प्रदान किया तो उनके द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि उन्हें (बाहरी व्यक्ति) को इस क्षेत्र से बिल्कुल भी लाभ नहीं मिलेगा।७।
तस्माद्यत्कुरुषे यज्ञं ब्राह्मणैर्नागरैः कुरु ॥
नान्यथा लप्स्यसे कर्तुं जीवद्भिर्नागरैर्द्विजैः॥८॥
अनुवाद:-इसलिए, आप जो भी यज्ञ करते हैं, वही नागर ब्राह्मणों से करवाएं ; अन्यथा, जब तक नागर ब्राह्मण जीवित हैं, आपको इसे करने का अवसर नहीं मिलेगा।८।
एवमुक्तस्ततो गत्वा मध्यगो यत्र पद्मजः॥
यज्ञमण्डपदूरस्थो ब्राह्मणैः परिवारितः॥९॥
अनुवाद:-इस प्रकार कहने पर, मध्यग यज्ञ मंडप से कुछ दूर, ब्राह्मणों से घिरे उस स्थान पर गए, जहाँ ब्रह्मा जी थे।९।
यत्प्रोक्तं नागरैः सर्वैः सविशेषं तदा हि सः॥
तच्छ्रुत्वा पद्मजः प्राह सांत्वपूर्वमिदं वचः॥
अनुवाद:-उन सब नागरों ने जो कहा, वह विशेष बल देकर उसे कह सुनाया। यह सुनकर ब्रह्मा ने मैत्रीपूर्ण स्वर में ये शब्द कहे:।१०।
(स्कन्द पुराण अध्याय-।१८१.१०॥

मानुषं भावमापन्न ऋत्विग्भिः परिवारितः॥
त्वया सत्यमिदं प्रोक्तं सर्वं मध्यगसत्तम॥११॥
अनुवाद:-ब्रह्मा ने मानव रूप धारण किया था और ऋत्विकों से घिरे हुए थे।(उन्होंने कहा:) "हे उत्कृष्ट मध्यग ,आपके द्वारा कही गई सभी बातें सत्य हैं।११।
किं करोमि वृताः सर्वे मया ते यज्ञकर्मणि॥
ऋत्विजोऽध्वर्यु पूर्वा ये प्रमादेन न काम्यया॥१२॥
अनुवाद:-मैं क्या करूँगा ? इन सभी को मेरे द्वारा पहले से ही यज्ञ संस्कारों के प्रदर्शन के लिए चुना गया है - ये सभी ऋत्विक, अध्वर्यु और अन्य। उन्हें जानबूझकर नहीं गलती से चुने गये है।१२।
तस्मादानय तान्सर्वानत्र स्थाने द्विजोत्तमान्॥
अनुज्ञातस्तु तैर्येन गच्छामि मखमण्डपे॥१३॥
अनुवाद:-इसलिए उन सभी उत्कृष्ट ब्राह्मणों को यहाँ इस पवित्र स्थान पर ले आओ, ताकि उनकी अनुमति से मैं यज्ञ-मण्डप में जा सकूँ ।१३।
                  "मध्यग उवाच॥
त्वं देवत्वं परित्यज्य मानुषं भावमाश्रितः॥
तत्कथं ते द्विजश्रेष्ठाःसमागच्छंति तेंऽतिकम्॥ १४॥
                   मध्यग ने कहा-
अनुवाद:-तूमने अपनी दिव्यता को त्यागकर मनुष्य भाव (भेष और रूप) अपना लिया है। अतएव वे श्रेष्ठ ब्राह्मण तुम्हारे निकट कैसे आ सकते हैं ?१४।
श्रेष्ठा गावः पशूनां च यथा पद्मसमुद्भव॥
विप्राणामिह सर्वेषां तथा श्रेष्ठा हि नागराः॥१५॥
अनुवाद:-हे ब्रह्मा ! जैसे  गाय सभी जानवरों में सबसे उत्कृष्ट हैं, वैसे ही ब्राह्मणों में नागर भी सबसे उत्कृष्ट हैं।१५।

तत्माच्चेद्वांछसि प्राप्तिं त्वमेतां यज्ञसंभवाम्॥
तद्भक्त्यानागरान्सर्वान्प्रसादय पितामह॥१६॥
अनुवाद:-इसलिए, यदि आप इस यज्ञ से उत्पन्न होने वाले लाभ की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, तो हे पितामह, सभी नागरों को उनकी भक्ति के साथ प्रसन्न करें।१६।
                    "सूत उवाच॥
★-तच्छ्रुत्वा पद्मजो भीत ऋत्विग्भिः परिवारितः ॥
जगाम तत्र यत्रस्था नागराः कुपिता द्विजाः॥१७॥
                      सूत ने कहा :
अनुवाद:-यह सुनकर कमल में उत्पन्न ब्रह्मा डर गए। ऋत्विकों से घिरे हुए वे उस स्थान पर गए जहाँ क्रुद्ध नागर ब्राह्मण उपस्थित थे।१७।
प्रणिपत्य ततः सर्वान्विनयेन समन्वितः॥
प्रोवाच वचनं श्रुत्वा कृताञ्जलिपुटःस्थित:॥१८॥
अनुवाद:-ब्रह्मा ने बड़ी दीनता से उन सभों को दण्डवत किया। अनुनय-विनय पूर्वक हाथ जोड़कर खड़े होकर उन्होंने नागर ब्राह्मणों से ये शब्द कहे:।१८।                                    

जानाम्यहं द्विजश्रेष्ठाः क्षेत्रेऽस्मिन्हाटकेश्वरे॥
युष्मद्बाह्यं वृथा श्राद्धं यज्ञकर्म तथैव च॥१९॥
अनुवाद:-हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, मुझे पता है कि हाटकेश्वर के इस पवित्र स्थान में आप सभी को छोड़कर अन्य व्यक्ति द्वारा किए गए श्राद्ध और यज्ञ अनुष्ठान व्यर्थ हैं।१९।
कलिभीत्या मयाऽऽनीतं स्थानेऽस्मिन्पुष्करं निजम्॥
तीर्थं च युष्मदीयं च निक्षेपोऽयंसमर्पितः॥२०॥
अनुवाद:-कलि के भय से मेरे तीर्थ पुष्कर को मेरे द्वारा इस पवित्र स्थान पर लाया गया है। यह आप सभी को यह यह पुष्कर और तुम्हारा हाटकेशवर मेरे द्वारा समर्पित किया गया है।२०।
ऋत्विजोऽमी समानीता गुरुणा यज्ञसिद्धये ॥
अजानता द्विजश्रेष्ठा आधिक्यं नागरात्मकम्॥ २१॥
अनुवाद:-ये ऋत्विक बृहस्पति के साथ यज्ञ की सिद्धि के लिए लाये गये नागरों की श्रेष्ठता को जाने बिना ।२१।
तस्माच्च क्षम्यतां मह्यं यतश्च वरणं कृतम् ॥
एतेषामेव विप्राणामग्निष्टोमकृते मया ॥२२॥
अनुवाद:-इसलिए, अग्निष्टोम के प्रदर्शन के लिए, मेरे द्वारा इन ब्राह्मणों को चुने जाने के लिए मुझे क्षमा करो !।२२।
एतच्च मामकं तीर्थं युष्माकं पापनाशनम्॥
भविष्यति न सन्देहःकलिकालेऽपि संस्थिते॥२३॥
अनुवाद:-मेरा यह तीर्थ निस्संदेह कलियुग के आगमन के दौरान भी आपके पापों का नाश करने वाला होगा।२३।
                  "ब्राह्मणा ऊचुः॥
यदि त्वं नागरैर्बाह्यं यज्ञं चात्र करिष्यसि॥
तदन्येऽपि सुराः सर्वे तव मार्गानुयायिनः॥
भविष्यन्ति तथा भूपास्तत्कार्यो न मखस्त्वया॥
२४॥
                   ब्राह्मणों ने कहा !
अनुवाद:-यदि आप नागरों को छोड़कर यहां यज्ञ करते हैं, तो अन्य सुरों के भी आपके मार्ग का अनुसरण करने की संभावना है। वैसे ही पृथ्वी के राजा भी। इसलिए आपको यज्ञ नहीं करना चाहिए।२४।
यद्येवमपि देवेश यज्ञकर्म करिष्यसि॥
अवमन्य द्विजान्सर्वाक्षिप्रं गच्छास्मदंतिकात्॥२५।            
अनुवाद:-इसके बावजूद, हे देवों के देव , यदि आप हम सभी ब्राह्मणों की अवहेलना करते हुए यज्ञ अनुष्ठान करने पर तुले हुए हैं, तो हमारे क्षेत्र से दूर चले जाइए।२५।
                    ॥ब्रह्मोवाच॥
अद्यप्रभृति य: कश्चिद्यज्ञमत्र करिष्यति॥
श्राद्धं वा नागरैर्बाह्यं वृथा तत्संभविष्यति॥२६॥
                      ब्रह्मा ने कहा :
अनुवाद:-अब से यदि कोई नागरों को छोड़कर यहां यज्ञ या श्राद्ध करता है, तो वह व्यर्थ हो जाएगा।२६।

नागरोऽपि च योऽन्यत्र कश्चिद्यज्ञं करिष्यति॥
एतत्क्षेत्रं परित्यज्य वृथा तत्संभविष्यति॥२७॥
अनुवाद:-और नागर भी दूसरी जगह कोई यज्ञ करेगा इस क्षेत्र को छोड़कर तो वह सब व्यरथ ही हो जाएगा।२७।
मर्यादेयं कृता विप्रा नागराणां मयाऽधुना॥
कृत्वा प्रसादमस्माकं यज्ञार्थं दातुमर्हथ॥
अनुज्ञां विधिवद्विप्रा येन यज्ञं करोम्यहम् ॥२८॥
अनुवाद:-हे ब्राह्मणों, यह सीमांकन की रेखा( मर्यादा) नगरों के लिए बनाई गई है। इसलिए, हे ब्राह्मणों, हमें उचित अनुमति देने की कृपा करें, ताकि मैं विधिवत् यज्ञ कर सकूँ।२८।
                  ॥सूत उवाच ॥
ततस्तैर्ब्राह्मणैस्तुष्टैरनुज्ञातः पितामहः॥
चकार विधिवद्यज्ञं ये वृता ब्राह्मणाश्च तैः॥२९॥
                     सूत ने कहा 
अनुवाद:-तत्पश्चात, प्रसन्न हुए उन ब्राह्मणों द्वारा पितामह को अनुमति दी गई  तब  ब्रह्मा ने पहले से ही चुने गए ब्राह्मणों के माध्यम से विधिवत यज्ञ किया ।२९।
विश्वकर्मा समागत्य ततो मस्तकमण्डनम्॥
चकार ब्राह्मणश्रेष्ठा नागराणां मते स्थितः॥ ६.१८१.३०॥
अनुवाद:-हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! और  विश्वकर्मा ने वहाँ आकर(ब्रह्मा के सिर को अलंकृत किया जो नागरों के निर्णय के साथ खड़ा था ।३०।

ब्रह्मापि परमं तोषं गत्वा नारदमब्रवीत्॥
सावित्रीमानय क्षिप्रं येन गच्छामि मण्डपे ॥३१॥
अनुवाद:-ब्रह्मा अत्यंत प्रसन्न होकर  नारद से बोले : "सावित्री को जल्दी लाओ ताकि मैं यज्ञ के मंडप में जा सकूं।"३१।

वाद्यमानेषु वाद्येषु सिद्धकिन्नरगुह्यकैः॥
गन्धर्वैर्गीतसंसक्तैर्वेदोच्चारपरैर्द्विजैः॥
अरणिं समुपादाय पुलस्त्यो वाक्यमब्रवीत्।३२॥
अनुवाद:-जैसे ही सिद्ध, किन्नर और गुह्यकों द्वारा वाद्य यंत्र बजाए जाते थे , जब गंधर्व अपने गीतों में लीन थे और ब्राह्मण वेदों के जाप में लगे हुए थे , तब पुलस्त्य ने अरणि को उठाकर और जोर से ये शब्द बोले:।३२।
काष्ठ( लकड़ी) का बना हुआ एक यन्त्र जो यज्ञों में अग्नि उत्पन्न करने के काम आता है-अग्निमन्थ।
विशेष—इसके दो भाग होते हैं— अधरारणि और उत्तरारणि । यह शमीगर्भ अश्वत्थ से बनाया जाता है । अधराराणि नीचे होती है और इसमें एक छेद होता है । इस छेद पर उत्तरारणि खड़ी करके रस्सों से मथानी के समान मथी जाती है । छेद के नीचे कुश या कपास रख देते हैं जिसमें आग लग जाती है । इसके मथने के समय वैदिक मन्त्र पढ़ते हैं और ऋत्विक् लोग ही इसके मथने आदि का काम करते हैं । यज्ञ में प्रायः अरणि से निकली हुई आग ही काम में लाई जाती हैं ।
पत्नी३(प्लुतस्वर )पत्नीति विप्रेन्द्राः प्रोच्चैस्तत्र व्यवस्थिताः॥३३॥                    
“पत्नी ? पत्नी ? पत्नी ” (यजमान की पत्नी कहाँ है ?) और प्रमुख ब्राह्मण अपने-अपने स्थान पर विराजमान थे।३३।

एतस्मिन्नंतरे ब्रह्मा नारदं मुनिसत्तमम्॥
संज्ञया प्रेषयामास पत्नी चानीयतामिति ॥३४॥
अनुवाद-इस बीच, ब्रह्मा ने इशारे से उत्कृष्ट ऋषि नारद को सुझाव दिया कि उनकी पत्नी को वहाँ लाया जाए।३४।
सोऽपि मंदं समागत्य सावित्रीं प्राह लीलया॥
युद्धप्रियोंऽतरं वांछन्सावित्र्या सह वेधसः॥३५॥
नारद (स्वभाव से) कलह प्रिय थे। वह सावित्री और भगवान ब्रह्मा के बीच संबंधों में एक अंतर पैदा करना चाहते हुए । तो वह धीरे-धीरे (इत्मीनान से) सावित्री के पास आकर सावित्री से बोले।३५।
अहं संप्रेषितः पित्रा तव पार्श्वे सुरेश्वरि ॥
आगच्छ प्रस्थितःस्नातःसांप्रतं यज्ञमण्डपे॥३६॥
“हे देवों की स्वामिनी मुझे पिता ने आपके पास  भेजा है कि आप माता चलो; पिता ने  स्नान कर लिया  है और यज्ञ के मंडप में जा रहा हूँ ऐसा कह कर  चले गयें हैं।३६।
परमेकाकिनी तत्र गच्छमाना सुरेश्वरि॥
कीदृग्रूपा सदसि वै दृश्यसे त्वमनाथवत्॥३७॥
लेकिन, हे देवों की स्वामिनी, यदि आप वहां अकेले जाती हैं, तो आप वहां कैसे सभा में दिखोगीं ?  निश्चय ही आप एक अनाथ के समान महिला की तरह दिखाई देंगी।३७।
तस्मादानीयतां सर्वा याः काश्चिद्देवयोषितः॥
याभिः परिवृता देवि यास्यसि त्वं महामखे॥३८॥
इसलिए सभी देवियों को बुलाया जाए। हे देवी, आप उन देवियों से घिरी हुई महा यज्ञ में जाओगीं।३८।
एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठो नारदो मुनिसत्तमः ॥
अब्रवीत्पितरं गत्वा तातांबाऽऽकारिता मया॥ ३९॥
यह कहकर श्रेष्ठ मुनि नारद अपने पिता के पास गए और बोले: “पिताजी, माता को मैंने बुलाया गया है।३९।

परं तस्याः स्थिरो भावः किंचित्संलक्षितो मया ॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा ततो मन्युसमन्वितः॥६.१८१.४०॥
लेकिन मैंने उसकी मानसिक प्रवृत्ति को थोड़ा ध्यान से देखा है कि वह स्थिर सी रहती है। नारद के वह वचन सुनकर पिता क्रोधित हो गये।४०।

पुलस्त्यं प्रेषयामास सावित्र्या सन्निधौ ततः॥
गच्छ वत्स त्वमानीहि स्थानं सा शिथिलात्मिका॥
सोमभारपरिश्रांतं पश्य मामूर्ध्वसंस्थितम्॥४१॥
उन्होंने पुलस्त्य को सावित्री के पास भेजा: "प्रिय पुत्र, जाओ  वह स्वभाव से  शिथिल(धीमी)  है। उसे इस स्थान पर ले आओ। देखो, मैं अपने ऊपर रखे हुए सोम के भार को सहते-सहते कितना थक गया हूँ।४१। 
एष कालात्ययो भावि यज्ञकर्मणि सांप्रतम्॥
यज्ञपानमुहूर्तोऽयं सावशेषो व्यवस्थितः॥४२॥
अब यज्ञ अनुष्ठान करने में बहुत अधिक विलंब होगा। यज्ञपान (यज्ञ की प्रक्रिया) के लिए मुहूर्त (शुभघड़ी) के लिए अब बहुत कम समय बचा है।४२। 


तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पुलस्त्यः सत्वरं ययौ॥
सावित्री तिष्ठते यत्र गीतनृत्यसमाकुला॥४३॥
उनके शब्दों को सुनकर पुलस्त्य उस स्थान पर पहुँचे जहाँ  सावित्री समाकुला हो गीत और नृत्य में तल्लीन थी।४३।
समाकुला=जिसकी अक्ल ठिकाने न हो। 
ततः प्रोवाच किं देवि त्वं तिष्ठसि निराकुला॥
यज्ञयानोचितः कालःसोऽयं शेषस्तु तिष्ठति॥४४॥
उन्होंने तब कहा: "हे देवी, तुम इस प्रकार स्थिर क्यों खड़ी हो? यज्ञयान की प्रक्रिया के लिए उचित मुहूर्त में बहुत कम समय बचा है।४४।


तस्मादागच्छ गच्छामस्तातः कृच्छ्रेण तिष्ठति॥
सोमभारार्द्दितश्चोर्ध्वं सर्वैर्देवैः समावृतः॥४५॥
इसलिए आओ (जल्दी करो)।हम जाएंगे। सिर पर रखे सोम के भार से पिता अत्यधिक व्याकुल और पीड़ित हैं। वह सभी देवों से घिरा हुए हैं।४५।
                  ॥सावित्र्युवाच॥
सर्वदेववृतस्तात तव तातो व्यवस्थितः॥
एकाकिनी कथं तत्र गच्छाम्यहमनाथवत्॥४६॥
                   सावित्री ने कहा !
 ​​प्रिय पुत्र, तुम्हारे पिता सभी देवताओं से घिरे होने के कारण अच्छी तरह से बसे हुए हैं। मैं एक अनाथ  की तरह अकेले वहां कैसे जाऊँगी ? ।४६।
तद्ब्रूहि पितरं गत्वा मुहूर्तं परिपाल्यताम्॥४७॥
जाकर पिता जी से कहना कि थोड़ी देर धैर्य रखें।४७।
यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथा पराः॥
देवकन्याःसमाजेऽत्र ताभिरेष्याम्यहऽद्रुतम्॥ ४८॥
(वह प्रतीक्षा करने में प्रसन्न हो सकते हैं) जब तक कि इन्द्राणी, गौरी , लक्ष्मी और अन्य देव-पत्नियाँ आती हैं।देव कन्या हमारी सभा में एकत्रित  हो जाएं। तब  मैं उनके साथ शीघ्र आऊँगी।४८।

सर्वासां प्रेषितो वायुनिमन्त्रेण कृते मया॥
आगमिष्यन्ति ताःशीघ्रमेवं वाच्यःपिता त्वया।४९।
तुम्हारे पिता को सूचित किया जाए कि वायु को मेरे द्वारा उन सभी को आमंत्रित करने के लिए भेजा गया है। वे इसी समय आएंगीं।४९।
                   "सूत उवाच॥
सोऽपि गत्वा द्रुतं प्राह सोमभारार्दितं विधिम्॥
नैषाभ्येति जगन्नाथ प्रसक्ता गृहकर्मणि॥६.१८१.५०॥
सा मां प्राह च देवानां पत्नीभिः सहिता मखे॥
अहं यास्यामि तासां च नैकाद्यापि प्रदृश्यते॥५१॥
वह मुझसे कहती है, 'मैं देवों की पत्नियों के साथ यज्ञ में जाऊँगी। लेकिन अभी तक इनमें से कोई भी नजर नहीं आया है.।५१।
एवं ज्ञात्वा सुरश्रेष्ठ कुरु यत्ते सुरोचते॥
अतिक्रामति कालोऽयं यज्ञयानसमुद्रवः॥
तिष्ठते च गृहव्यग्रा सापि स्त्री शिथिलात्मिका॥
५२।
इस प्रकार जानकर, हे सुरों में सबसे उत्कृष्ट, और वही करो जो तुम्हें अच्छा लगे । यज्ञ- अनुष्ठान की प्रक्रिया के लिए बहुत देर हो रही है। वह स्त्री  आलसी है  अपने घरेलू कामों में लगी है।५२।
                
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य पुलस्त्यस्य पितामहः॥
समीपस्थं तदा शक्रं प्रोवाच वचनं द्विजाः॥५३॥                    
पुलस्त्य के वचन को सुनकर, पितामह ने पास में खड़े हुए  इन्द्र और ब्राह्मणो से कहा।५३।
                   ॥ब्रह्मोवाच॥
शक्र नायाति सावित्री सापि स्त्री शिथिलात्मिका॥
अनया भार्यया यज्ञो मया कार्योऽयमेव तु॥५४॥
                   ब्रह्मा ने कहा !
हे इन्द्र ! सावित्री नहीं आती है। वह  एक आलसी स्त्री है। लेकिन, क्या मुझे ऐसी पत्नी के साथ यह यज्ञ करना चाहिए ?।५४।

गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः॥
यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥५५॥
                  
हे शक्र( इन्द्र) जाओ और जल्दी से किसी दूसरी कन्या को ले आओ ताकि यज्ञ के लिए शुभ मुहूर्त निकल न जाए।५५।

पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः।
 ५६।
हे ब्राह्मणों, पितामह के वचनों को सुनकर, इन्द्र - उनके लिए कन्या की  खोज में गये । जल्द ही वह उससे मिले, क्योंकि वह पास में घूम रही थी ।५६।

अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता॥
कन्यका गोपजा तन्वी चन्द्रास्या पद्मलोचना।५७।
सिर पर मट्ठे का घड़ा रखे इन्द्र द्वारा एक कन्या देखी गयी  जो  एक दुबली-पतली अहीर की कन्या, कमलनयन और चंद्रमुखी थी। ५७।
सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता॥
सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने ॥५८॥
वह यौवन की दहलीज पर थी। वह सभी शुभ गुणों पूर्ण  थी। उनसे इन्द्र!  ने पूछा: "हे कमल-नेत्री, तुम कौन हो ?।५८। 
कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि नः॥५९॥
क्या आप कुंवारी हैं या  विवाहित हो ? बताओ हमको तुम किसकी पुत्री हो ?”।५९।
                   "कन्योवाच ॥
गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता॥
यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम्॥ ६.१८१.६०॥
                   कन्या ने कहा :
मैं एक अहीर की बेटी हूँ। आपका कल्याण हो। मैं यहां छाछ बेचने आयी हूं। यदि आप इसे चाहते हैं, तो मुझे इसकी लागत का मूल्य भुगतान करें। देरी ना करें।६०।  
तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम्॥
जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले॥६१॥
यह सुनकर, स्वर्ग के देव इन्द्र भी  उसे  गोप कन्या मानकर मट्ठा की मटकी वहीं छोड़कर भूतल पर पकड़कर तेजी से  ।६१। 
अथ तां रुदतीं शक्रःसमादाय त्वरान्वितः॥
गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः॥६२॥
रोती हुई उस कन्या को इन्द्र ने लाकर शीघ्र ही  एक गाय के मुंह में प्रवेश करा कर उसे गुदा से बाहर खींच लिया।६२।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३॥
इस प्रकार यज्ञ के योग्य करके और बड़े कुण्ड के शुभ जलों से से स्नान कराकर सुन्दर वस्त्र पहनाकर।६३।
ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे॥६४॥
तब उसने प्रसन्नतापूर्वक चतुर्भुज से कहा जो उसके पास जाकर और उसे सभी देवों की सभा के सामने खड़ा कर दिया:।६४।
कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना॥
तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता॥६५॥
हे सुरों में श्रेष्ठ, यह कन्या अब मेरे द्वारा आपके लिए लाई गई है। वह सुन्दर अंगों  वाली है और सभी शुभ लक्षणों से चिह्नित है।६५।
गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख॥६६॥
 हे चतुर्भुज ब्रह्मा ! गोप कन्या जानकर और इसको गाय के मुख से प्रवेश कराके तथा पवित्र करने के लिए गाय के गुदा द्वार  से निकाला गया है ।६६।

हे चतुर्भुज, यह जानकर कि वह एक अहीर की बेटी है, उसे पवित्र करने के उद्देश्य से एक गाय के मुंह में प्रवेश करा दिया किया गया और फिर गुदा( मलद्वार) से बाहर निकाला गया।

             ॥श्रीवासुदेव उवाच॥
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ॥
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥ ६७ ॥
             श्री वासुदेव ने कहा !
 गाय और ब्राह्मण एक ही कुल  के हैं। यह दो भागों में विभक्त है, जैसे एक में मन्त्रों का वास है, जबकि दूसरे में हवि का वास है।६७।
धेनूदराद्विनिष्क्रान्ता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये॥६८
गाय के पेट से निकलकर यह कन्या ब्राह्मणों की कन्या बनी है। मख ( यज्ञ)की पूर्ति के लिए, हे भगवान आप इसका हाथ पकड़ लो।६८।
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥६९॥
 इससे यज्ञ के प्रदर्शन के लिए शुभ मुहूर्त से पहले ही पाणि ग्रहण करो ।६९।
★                 ॥रुद्र -उवाच॥ 
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता ॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति ॥ ६.१८१.७०॥
                   रुद्र ने कहा :
 वह गाय के मुख में प्रविष्ट होकर गुदाद्वार से बाहर निकाली गई। इसलिए इनका नाम गायत्री रखा गया है । वह तुम्हारी पत्नी बनेगी।७०।
                    ॥ब्रह्मोवाच॥
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि ॥
संभूय ब्राह्मणी श्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम॥७१॥
                     ब्रह्मा ने कहा :
सभी ब्राह्मण सामूहिक रूप से कहें कि यद्यपि वह एक अहीर की बेटी है, अब वह एक उत्कृष्ट ब्राह्मण लड़की बन गई है ताकि वह मेरी पत्नी बन सके।७१।
★              ॥ ब्राह्मणा ऊचुः॥
एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥
                                    
                 ब्राह्मणों ने कहा :
वह एक उत्कृष्ट ब्राह्मण स्त्री होगी जो एक  अहीराणी के जन्म से मुक्त होगी। हमारे कहने पर, हे चतुर्मुखी, उससे शीघ्र विवाह करो।७२।
                  ॥सूत उवाच॥
ततः पाणिग्रहं चक्रे तस्या देवः पितामहः॥
कृत्वा सोमन्ततो मूर्ध्निगृह्योक्तविधिना द्विजाः।७३।
                 सूत जी  बोले :
तब भगवान पितामह ने उनसे विवाह किया। फिर, हे ब्राह्मणों, उन्होंने सोम को सिर के ऊपर धारण किया, जिस तरह गृह्य सूत्र में इसका आदेश दिया गया है ।७३।
सन्तिष्ठति च तत्रस्था महादेवी सुपावनी॥
अद्यापि लोके विख्याता धनसौभाग्यदायिनी।७४।
पवित्र महान देवी आज भी वहां विराजमान हैं। वह धन और दाम्पत्य सुख की दाता के रूप में प्रसिद्ध है।७४।
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यस्तस्यां कुरुते मर्त्यः कन्यादानं समाहितः॥
समस्तं फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः॥७५॥
 जो मनुष्य बड़ी एकाग्रता से वहाँ कन्या का दान करता है, वह राजसूय और अश्व-यज्ञ का पूरा लाभ प्राप्त करता है ।७५।
कन्या हस्तग्रहं तत्र याऽऽप्नोति पतिना सह॥
सा स्यात्पुत्रवती साध्वी सुखसौभाग्यसंयुता॥७६॥
वहां विवाह करने वाली कन्या को पुत्र, सुख और वैवाहिक सौभाग्य की प्राप्ति होती है।७६।
पिण्डदानं नरस्तस्यां यः करोति द्विजोत्तमाः॥
पितरस्तस्य संतुष्टास्तर्पिताः पितृतीर्थवत् ॥७७॥
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, यदि कोई व्यक्ति वहाँ  (पिण्डदान) करता है तो पितृ उससे प्रसन्न होते हैं जैसे कि पितृतीर्थ में तर्पण किया गया हो ।७७।
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इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्ययवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः॥१८१
____________________________________

यह स्कंद पुराण के नागर-खंड के तीर्थ-महात्म्य का एक सौ इकयासी अध्याय है।
अध्याय 181 -















            

                      
                
                        
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः 
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैःशुभैः।४७।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।४८।
यह श्लोक जो गोप कन्या को गोमुख मे प्रवेश कराकर गुह्य मार्ग से निकालने पर शुद्धि करण बताने वाले हैं  तो ये  वस्तुत: वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध ही है क्योंकि गाय विराट पुरुष के ऊरु  अथवा उदर से उत्पन्न होने को कारण वैश्य वर्णा है ऊरु घुटनों से उपर को भाग को  कहते हैं जैसा कि ऊरु शब्द कि व्युत्पत्ति की गयी है ।
 (ऊर्णूयते आच्छाद्यते ऊर्णु--कर्मणि कु नुलोपश्च।जानूपरिभागे तस्य वस्त्रादिभिराच्छादनीयत्वात् तथात्वम् ( घुटनों का ऊपरी और नाभि के नीचे का भाग- अर्थात्  उदर इसके अन्तर्गत ही है)
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अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्
सृष्टवानुदराद्गाश्च महिषांश्च प्रजापतिः।१०५।
भेड़ विराट पुरुष के वक्ष से  और अजा( बकरी) की उत्पत्ति मुख से तथा  विराट पुरुष के उदर से गाय और भैंस की सृष्टि हुई ।
(पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अध्याय-३)
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सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा।
सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चितम्।१७।पक्षीयों कि माता विनिता
सर्पों कि माता कद्रु- और सुरभि- गाय और भैंस दोनों कि माता है।
  (ब्रह्मवैवर्त-पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय-9)
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गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।४९।
अर्थ:-ब्राह्मण और गाय एक ही कुल के दो भाग हैं। एक में सभी मन्त्र विद्यमान हैं तो  दूसरे में हवि( घृत) स्थित है। 
परन्तु-चतुराई करते हुए ब्राह्मण भूल कर दी और  कि वसुदेव के पुत्र वासुदेव के मुखार-बिन्दु से यह कहलवाने में वे भूल ही गये कि वसुदेव द्वापर युग में हुए और उनका पुत्र होने से कृष्ण का ही नाम वासुदेव है। ( वसुदेवस्यापत्यमिति । (वसुदेव + अण्)=वासुदेव- ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च । ४ ।  १ ।११४ । इति अण्। और गायत्री सतयुग में ।
ब्राह्मण और गाय एक ही कुल के दो भाग हैं ; यह बात वैदिक सिद्धान्त के विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही है। यह कन्या गाय के उदर से निकलने या जनमने के कारण यह इसका दूसरा जन्म होने से यह द्विजा है।
हे देव यज्ञ मुहूर्त बीतने से पहले ही आप इससे पाणि- ग्रहण करलें-।६७-६९।
और सबसे बड़ी गलती इन लोगों से गायत्री शब्द कि व्युत्पत्ति करते समय हुई जिसको (गा+यन्त्र) से कर दिया  यन्त्र का अर्थ यौनि तो होता नहीं  हैं। जबकि गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति  -गायत्रं स्तोत्रमस्त्यास्ति इनि।१। रूप से हुई  अर्थात् जिसके स्तोत्र हैं वह गायत्री है। उद्गाता= सामगायक -
गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः। ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥१।
 (ऋग्वेद - १/१०/१) 
 पदों का अर्थ :-
हे (शतक्रतो)  इन्द्र!  (ब्रह्माणः) जैसे वेदों के मन्त्रों से   (वंशम्)  वंश को (उद्येमिरे)  उद्यमवान् करते हैं, वैसे ही (गायत्रिणः) जो गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य  पुरुष (त्वा) आपकी (गायन्ति) सामवेदादि के गानों से प्रशंसा करते हैं, तथा (अर्किणः) अर्क  अर्थात् जो कि वेद के मन्त्र (ऋचा) पढ़ने वाले।  (त्वा) आपको (अर्चन्ति) नित्य पूजन करते हैं॥१॥
अन्यत्र भी  गायत्री शब्द 
गायन्तं त्रायते इति। अर्थात गाते हुए को जो त्राण करती है वह देवी गायत्री हैं।(  गायत्  + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः) 
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परन्तु मूर्खों ने पता नहीं किस प्रकार गोमुख में प्रवेश कराके अपान.देश ( गुह्यदेश-)  से निकाल कर गायत्री शब्द कि व्युत्पत्ति कर डाली। जैसे नीचे उद्धृत वह श्लोकाँश है 

प्रविष्टा गोमुखे यस्माद् अपानेन विनिर्गता। गायत्री नाम ते पत्नी तस्माद् एषा भविष्यति-।।

परन्तु इन्द्र को अपना परिचय देते समय भी गोप कन्या ने अपना नाम गायत्री  ही बताया था।
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गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्।
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
 अनुवाद:-गाय के उदर से निकली ये कन्या अब ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो गयी । इसलिए हे ब्रह्मा इसका पाणिग्रहणकरो  और यज्ञ का समाचरण करो !
रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।

ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।
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ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।२३।
यह श्लोक अनेक पुराणों में बनाकर जोड़ा गया जैसे नान्दी उपपुराण-  महाभारत -अनुशासनपर्व, स्कन्दपुराणनागर -खण्ड ,लक्ष्मी नारायण संहिता आदि परन्तु पद्मपुराण में यह गाय और ब्राह्मण एक कुल हैं  ऐसा नहीं कहा गया है।

कालान्तरण में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों नें  वैश्यवर्णीय गाय को ब्राह्मण कुल की बताने के लिए वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध विना विचारे ही उपर्युक्त श्लोक को तो रच दिया परन्तु वर्णव्यवस्था के उद्घोषक  यह भूल गये कि वेदों में गो विराट पुरुष के उदर अथवा ऊरु से उत्पन्न होने के कारण वैश्य की सजातीय  वैश्य वर्णा है। 
मैं इस स्थल पर ऋग्वेद की उस ऋचा का उल्लेख कर रहा हूं जिसमें चारों वर्णों की बात की गई है:
'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यःकृतः ।     ऊरूतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यांशूद्रोऽजायतः।१२।
(ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)
अन्वय-(ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ।
यदि शब्दों के अनुसार देखें तो इस ऋचा का अर्थ यों समझा जा सकता है:
सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्मा का मुख से ब्राह्मण हुआ।, बाहु से क्षत्रिय  बने, उसकी जंघाओ से वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
क्या उक्त ऋचा की व्याख्या इतने सरल एवं नितांत शाब्दिक तरीके से किया जाना चाहिए 
मनुस्मृति में भी कहा है ।
लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः।      ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥(मनुस्मृति, अध्याय 1, श्लोक 31)
(लोकानां तु विवृद्धि-अर्थम् मुख-बाहू-ऊरू-पादतः ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्-अवर्तयत् ।)
शाब्दिक अर्थ: समाज की वृद्धि के उद्येश्य से उसने (ब्रह्म ने) मुख, बाहुओं, जंघाओं एवं पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का निर्माण किया ।
(महाभारत अनुशासन पर्व (86) वाँ अध्याय)
ब्रह्मा के मुख से बकरी और ब्राह्मण उत्पन्न होने से दौनों सजातीय ही हैं। परन्तु नीचे विष्णु धर्मोत्तर इसके विपरीत ही कहता है।
"मुखतोऽजाः सृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत् गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पुनरन्याँश्च निर्ममे।1.107.३०
(विष्णु धर्मोत्तरपुराण खण्ड प्रथम अध्याय (१०७)

ब्रह्मा ने मुख से बकरियाँ उत्पन्न कीं और वक्ष से भेड़ों को और उदर से गायों को उत्पन्न किया ।
और दोनों पैरों से घोड़ो और तुरंगो' गदहों और नीलगाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार सूकर(वराह)कुत्ता जैसी अन्य जातियाँ उत्पन्न कीं ।

"बकरी ब्राह्मणों की सजातीय अथवा उनके ही कुल की है। न कि गाय "
इसीलिए है कि ब्राह्मण भी ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुए हैं नकि उदर अथवा ऊरु से ऊरु से तो वैश्य वर्ण के लोग उत्पन्न हुए हैं।
वेद-सम्मत शास्त्रों की तो यही वैधानिक मान्यता है।
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(ऋग्वेद मण्डल- दश सूक्त- नवति ऋचा -एकतो द्वादश पर्यन्त यही वर्णन है )
१०/९०/ १ से १२ तक ऋग्वेद
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥
तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मःशरद्धविः॥६॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥७॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥८॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥९॥
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तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः।१०॥
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यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते।११।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१२॥
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तस्मा॒दश्वा॑ अजायन्त॒ ये के चो॑भ॒याद॑तः ।
गावो॑ ह जज्ञिरे॒ तस्मा॒त्तस्मा॑ज्जा॒ता अ॑जा॒वयः॑,।१०।
“तस्मात् =पूर्वोक्ताद्यज्ञात् “अश्वा “अजायन्त= उत्पन्नाः। तथा “ये ="के “च अश्वव्यतिरिक्ता गर्दभा अश्वतराश्च उभयादतः ऊर्ध्वाधोभागयोरुभयोः दन्तयुक्ताः सन्ति तेऽप्यजायन्त। तथा “तस्मात् यज्ञात् "गावः च “जज्ञिरे । किंच “तस्मात् यज्ञात् "अजावयः च "जाताः।१०।

“सर्वहुतः । सर्वात्मकः पुरुषः यस्मिन् यज्ञे हूयते सोऽयं सर्वहुत् । तादृशात् “तस्मात् पूर्वोक्तात् मानसात् "यज्ञात् “पृषदाज्यं दधिमिश्रमाज्यं “संभृतं संपादितम् । दधि चाज्यं चेत्येवमादिभोग्यजातं सर्वं संपादितमित्यर्थः । तथा “वायव्यान् वायुदेवताकाँल्लोकप्रसिद्धान् “आरण्यान् “पशून “चक्रे उत्पादितवान् । आरण्या हरिणादयः । तथा “ये “च “ग्राम्याः गवाश्वादयः तानपि चक्रे। पशूनामन्तरिक्षद्वारा वायुदेवत्यत्वं यजुर्ब्राह्मणे समाम्नायते-- वायवः स्थेत्याह वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षाः । अन्तरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वायव एवैनान्परिददाति ' ( तै. ब्राह्मण ३. २. १. ३) इति ।

तस्मा॑द्य॒ज्ञात्स॑र्व॒हुत॒ ऋच॒: सामा॑नि जज्ञिरे ।
छन्दां॑सि जज्ञिरे॒ तस्मा॒द्यजु॒स्तस्मा॑दजायत ॥९।
"सर्वहुतः “तस्मात् पूर्वोक्तात् यज्ञात् “ऋचः “सामानि च जज्ञिरे उत्पन्नाः। “तस्मात् यज्ञात् “छन्दांसि गायत्र्यादीनि “जज्ञिरे। “तस्मात् यज्ञात् "यजुः अपि अजायत ॥
तस्मा॒दश्वा॑ अजायन्त॒ ये के चो॑भ॒याद॑तः ।
गावो॑ ह जज्ञिरे॒ तस्मा॒त्तस्मा॑ज्जा॒ता अ॑जा॒वयः॑ ॥
तस्मात् । अश्वाः । अजायन्त । ये । के। च । उभयादतः ।
गाव: । ह । जज्ञिरे । तस्मात् । तस्मात् । जाताः । अजावयः ॥ १० ॥
“तस्मात् पूर्वोक्ताद्यज्ञात् “अश्वा “अजायन्त उत्पन्नाः। तथा “ये "के “च अश्वव्यतिरिक्ता गर्दभा अश्वतराश्च उभयादतः ऊर्ध्वाधोभागयोरुभयोः दन्तयुक्ताः सन्ति तेऽप्यजायन्त। तथा “तस्मात् यज्ञात् "गावः च “जज्ञिरे । किंच “तस्मात् यज्ञात् "अजावयः च "जाताः ॥ ॥ १८ ॥
_____________
यत्पुरु॑षं॒ व्यद॑धुः कति॒धा व्य॑कल्पयन् ।
मुखं॒ किम॑स्य॒ कौ बा॒हू का ऊ॒रू पादा॑ उच्येते॥११।
प्रश्नोत्तररूपेण ब्राह्मणादिसृष्टिं वक्तुं ब्रह्मवादिनां प्रश्ना उच्यन्ते । प्रजापतेः प्राणरूपा देवाः “यत् यदा “पुरुषं विराड्रूपं “व्यदधुः संकल्पेनोत्पादितवन्तः तदानीं “कतिधा कतिभिः प्रकारैः “व्यकल्पयन् विविधं कल्पितवन्तः । “अस्य पुरुषस्य “मुखं “किम् आसीत्। “कौ “बाहू अभूताम् “का “ऊरू। कौ च “पादावुच्येते । प्रथमं सामान्यरूपः प्रश्नः पश्चात् मुखं किमित्यादिना विशेष विषयाः प्रश्नाः॥
___________
ब्रा॒ह्म॒णो॑ऽस्य॒ मुख॑मासीद्बा॒हू रा॑ज॒न्यः॑ कृ॒तः ।
ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ प॒द्भ्यां शू॒द्रो अ॑जायत ॥१२।
इदानीं पूर्वोक्तानां प्रश्नानामुत्तराणि दर्शयति । “अस्य प्रजापतेः “ब्राह्मणः=ब्राह्मणत्वजातिविशिष्टः पुरुषः “मुखमासीत=मुखादुत्पन्न इत्यर्थः । योऽयं “राजन्यः =क्षत्रियत्वजातिमान् पुरुषः सः "बाहू “कृतः =बाहुत्वेन निष्पादितः । बाहुभ्यामुत्पादित इत्यर्थः । तत् तदानीम् अस्य प्रजापतेः “यत् यौ “ऊरू तद्रूपः= "वैश्यः संपन्नः । ऊरुभ्यामुत्पन्न इत्यर्थः । तथास्य “पद्भ्यां पादाभ्यां "शूद्रः शूद्रत्वजातिमान् पुरुषः "अजायत । इयं च मुखादिभ्यो ब्राह्मणादीनामुत्पत्तिर्यजुःसंहितायां सप्तमकाण्डे ‘स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत' (तै. सं. ७. १. १. ४ ) इत्यादौ विस्पष्टमाम्नाता। अतः प्रश्नोत्तरे उभे अपि तत्परतयैव योजनीये

च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षो॒: सूर्यो॑ अजायत ।
मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥१३।
यथा दध्याज्यादिद्रव्याणि गवादयः पशव ऋगादिवेदा ब्राह्मणादयो मनुष्याश्च तस्मादुत्पन्ना एवं चन्द्रादयो देवा अपि तस्मादेवोत्पन्ना इत्याह । प्रजापतेः “मनसः सकाशाद् “चन्द्रमाः “जातः । “चक्षोः च चक्षुषः “सूर्यः अपि “अजायत । अस्य “मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च देवावुत्पन्नौ । अस्य “प्राणाद्वायुरजायत ॥
__________________________
मुखतोऽजाः सृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत् गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा  पुनरन्याँश्च निर्ममे ।1.107.३० । 
पादतोऽश्वांस्तुरङ्गांश्च रासभान्गवयान्मृगान् ।उष्ट्रांश्चैव वराहांश्च श्वानानन्यांश्च जातयः 1.107.३१।
व्याकरणिक पद विवेचना अर्थ समन्विता।
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पदों के व्याकरण-सम्मत अर्थ-
१-मुखत: - मुख से अपादान कारक पञ्चमीविभक्ति एकवचन। 
२-अजा:- बहुत सी बकरीं अजा का बहुवचन कर्म कारक द्वितीय विभक्ति रूप ।
३-सृज्+शतृप्रत्यय-सृजन्
(उत्पन्न करता हुआ ।
४-वक्षसः -वक्ष से ( बखा- छाती से) 
पञ्चमीविभक्ति एक वचन अपादानकारक नपुंसक लिंग रूप।
पेट और गले के बीच में पड़नेवाला भाग जिसमें स्त्रियों के स्तन और पुरुषों के स्तन के से चिह्न होते हैं  अर्थात छाती।
५-च -और ।
६-अवय:-बहुत सी भेड़े़। अवि का बहुवचन रूप कर्ताकारक । 
७-असृजत्- उसने उत्पन्न किया। सृज् धातु का लङ्लकार प्रथम पुरुष एकवचन का रूप।
८-गावः-गो पद का  प्रथमा विभक्ति बहुवचन  =बहुत सी गायें।
 ९-चैव( च+एव) और ही ।
१०-उदरात्- उदर से - उदर पद का पञ्चमी विभक्ति अपादान कारक एकवचन।
११-ब्रह्मा- ब्रह्मा जी ने।
१२-पुनः ( पुनर्)- दुवारा।
१३-च अन्यान्( चान्याँ)
१४-निर्ममे (निर्+ मा-निर्माणेधातु का आत्मनेपदीय -लङ्लकार रूप -अन्यपुरुष एकवचन= निर्माण किया।।
१५-पादतो ( पादाभ्याम्- दोनों पैरों से।            १६-अश्वान्- घोड़ों को और 
१७ तुरङ्गान् - तुरङ्गाें को और 
१८-रासभान्- गदहों को और 
१९-गवयान्- गवयों( नीलगायों) को तथा 
२०-उष्ट्रान्- ऊँटों को । और इसी प्रकार 
२१-वराहान् -वराहों और ।
२२-शवान्-अन्यान्- कुत्ता जैसी अन्य ।
२३-जातय:- जातियों को  उत्पन्न किया ।
__________________
ब्रह्मा ने मुख से बकरियाँ उत्पन्न हुई । वक्ष से भेड़ों को और उदर से गायों को उत्पन्न किया ।३०।
और दोनों पैरों से घोड़ो तथा तुरंगो 'गदहों और नील गाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार सूकर(वराह) कुत्ता जैसी अन्य जातियाँ उत्पन्न हुईं ।३१।
सन्दर्भ-(विष्णु धर्मोत्तर पुराण खण्ड प्रथम अध्याय (१०७)
_______________    
अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजाः स सृष्टवान् ।
सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वभ्यां च प्रजापतिः ।४८।
पद्भ्यां चाश्वान्समातङ्गान्रासभान्गवयान्मृगान्।
उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कूनन्याश्च जातयः। ४९।
(विष्णु पुराण प्रथमाँश पञ्चमो८ध्याय (५)
ततः स्वदेहतोऽन्यानि वयांसि पशवोऽसृजत् ।
__________________
मुखतोऽजाः ससर्जाथ वक्षसश्चावयोऽसृजत्॥४८.२५॥
गावश्चैवोदराद् ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।
पद्भ्याञ्चाश्वान् स मातङ्गान् रासबान् शशकान् मृगान्॥४८.२६॥
____________________
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सृष्टिप्रकारणनामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
____________
ऊनपञ्चाशोऽध्यायः-( ४९)
मार्कण्डेय पुराण में भी देखें कि ब्रह्मा के मुख से बकरी और ब्राह्मण उत्पन्न होते हैं।
अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजाः स सृष्टवान् ।
सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वभ्यां च प्रजापतिः।४८।
पद्भ्यां चाश्वान्समातङ्गान्रासभान्गवयान्मृगान्।
उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कूनन्याश्च जातयः। ४९।
विष्णु पुराण प्रथमाँश पञ्चमोध्याय (५)

में भी बकरी और ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुए। हैं ।
"ततःस्वदेहतोऽन्यानि वयांसि पशवोऽसृजत् ।
__________________
मुखतोऽजाः ससर्जाथ वक्षसश्चावयोऽसृजत्॥४८.२५॥
गावश्चैवोदराद् ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।
पद्भ्याञ्चाश्वान् स मातङ्गान् रासबान् शशकान् मृगान्॥४८.२६॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सृष्टिप्रकारणनामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
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सदाशिवो भवो विष्णुर्ब्रह्मा सर्वात्मको यतः।।
एकदण्डे तथा लोका इमे कर्ता पितामहः।।३.३८ 
प्राकृतः कथितस्त्वेष पुरुषाधिष्ठितो मया।।
सर्गश्चाबुद्धिपूर्वस्तु द्विजाः प्राथमिकः शुभः।। ३.३९ ।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे प्राकृतप्राथमिकसर्गकथनं नामतृतीयोऽध्यायः।३।
अव्यक्तादिविशेषांतं विश्वं तस्याःसमुच्छ्रितम्।
विश्वधात्री त्वजाख्या च शैवी सा प्रकृतिः स्मृता।३.१२।
तामजां लोहितां शुक्लां कृष्णामेका बहुप्रजाम्।।
जनित्रीमनुशेते स्म जुषमाणः स्वरूपिणीम्।। ३.१३ ।।
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तामेवाजामजोऽन्यस्तु भुक्तभोगां जहाति च।।
अजा जनित्री जगतां साजेन समधिष्ठिता।३.१४ 
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पक्षिणस्तु स सृष्ट्वा वै ततः पशुगणान्सृजन् ।
मुखतोजाः सृजन्सोऽथ वक्षसश्चाप्यवीः सृजन्॥ १,८.४३॥
गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पाश्वीभ्यां च विनिर्ममे ।
पादतोऽश्वान्समातङ्गान् रासभान् गवयान्मृगान् ॥ १,८.४४॥
इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते पूर्वभागे द्वितीयेऽनुषङ्गपादे मानससृष्टिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः
_________
गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पाश्वीभ्यां च विनिर्ममे ।
पादतोऽश्वान्समातङ्गान् रासभान् गवयान्मृगान् ॥ १,८.४४ ॥
ब्रह्माण्डपुराण पूर्वभाग अष्टम अध्याय का ४४ वाँ श्लोक-
शिवपुराणम्/संहिता ७ (वायवीयसंहिता)/पूर्व भागः/अध्यायः १२
इसे भी देखें
मुखतोऽजान् ससर्जान्यान् उदराद्‌गाश्चनिर्ममे।
पद्भ्यांचाश्वान् समातङ्गान् रासभान् गवयान् मृगान्।७.५५।
(कूर्मपुराण पूर्व भाग सप्तम अध्याय )

अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्
सृष्टवान्  उदराद् गा: च महिषांश्च प्रजापतिः ।१०५।
पद्भ्यां चाश्वान्स मातंगान्रासभान्गवयान्मृगान्
उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यंकूनन्याश्च जातयः ।१०६।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय (३) का १०५ वाँ श्लोक
शिवपुराण संहिता ७ (वायवीयसंहिता)पूर्व भागः अध्यायः(१२) में भी है।

इसे भी  देखें विष्णुधर्मोत्तर पुराण अध्याय-107 में भी और  नीचे गरुडपुराण चतर्थ अध्याय  में देखें समान श्लोक
वयांसि पक्षतः सृष्टाः पक्षिणो वक्षसो ऽसृजत्॥ 
मुखतोजांस्तथा पार्श्वादुरगांश्च विनिर्ममे। 56।।
गायन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वाप्सरसश्च ये।
स्वर्गं द्यौर्वक्षसश्चक्रे सुखतोऽजाः स सृष्टवान्।4.30।
सृष्टवानुदराद्राश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः।
पद्भ्यां चैवांत्यमातङ्गान्महिषोष्ट्राविकांस्तथा ।4.31।
ओषध्यः फलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे।
गौरजः पुरुषो मेध्यो ह्यश्वाश्वतरगर्दभाः।4.32 ।
एतान् ग्राम्यान्पशून्प्राहुरारण्यांश्च निबोध मे ।।
श्वापदं द्विखुरं हस्तिवानराः पक्षिपञ्चमाः ।4.33।
औदकाः पशवः षष्ठाः सप्तमाश्च सरीसृपाः।
पूर्वादिभ्यो मुखेभ्यस्तु ऋग्वेदाद्याः प्रजज्ञिरे। 4.34।
आस्याद्वै ब्राह्मणा जाता बाहुभ्यां क्षत्त्रियाः स्मृताः।
ऊरुभ्यां तु विशः सृष्टाः शूद्रः पद्भ्यां जायत । 4.35।
इति श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे सृष्टिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः।4।
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 श्रीविष्णुधर्मोत्तर द्वितीयखण्ड मार्कण्डेय पुराण में -वज्रनाभ संवाद राम के प्रति पुष्करोपाख्यान में अश्वप्रशंसा नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः।४५।
राम के समय भी गोप-लोग गाय और भैंस दौनों पशुओं साथ साथ ही पालते थे। निम्न श्लोक इसका साक्ष्य हैं।
नौस्थैरेव परैः शीघ्रं तुरगा नृपबाहुभिः ।    महिषीणां च सङ्घानि गवां च यदुनन्दन । 1.206.३०।
जग्मुर्गोपालकैः सार्धं परं पारं च बाहुभिः।उष्ट्रगर्दभसंघानि तार्यमाणानि बाहुभिः।३१।
अनुवाद :-
घोड़ों को शत्रुओं द्वारा शीघ्रता से राजा की भुजाओं से नाव में सवार कर ले जाया गया
हे यादव वज्रनाभ! भैंसों और गायों के झुंड भी थे 1.206.30।
 (विष्णु धर्मोत्तर पुराण अध्याय 206.)
वे ग्वालों के साथ शस्त्र लेकर उस पार चले गए।
ऊँटों और गधों के झुण्ड हाथों से उठाये जा रहे थे ।31।


(अध्याय ११० विष्णु धर्मोंत्तर पुराण)
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मुखतोऽजान् ससर्ज्जाथ वक्षसश्चवयोऽसृजत्।
गाश्चैवाथोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।।३९।
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पद्भ्याञ्चाश्चान् समातङ्गान् शरभान् गवयान् मृगान्।
उष्ट्रानश्चतरांश्चैव ताश्वान्याश्चैव जातयः।४०।

ओषध्यः फलमूलानि रोमतस्तस्य जज्ञिरे।
एवं पश्वोषधीः सृष्ट्वा न्ययुञ्जत्सोऽध्वरे प्रभुः ।।४१।।
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तस्मादादौ तु कल्पस्य त्रेतायुगमुखे तदा।
गौरजः पुरुषो मेषो ह्यश्वोऽश्वतरगर्द्दभौ
एतान् ग्राम्यान् पशूनाहुरारण्यांश्च निबोधत ।४२।
श्वापदा द्विखुरो हस्ती वानरः पक्षिपञ्चमाः।
उन्दकाः पशवः सृष्टाः सप्तमास्तु सरीसृपाः ।४३।
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गायत्रं वरुणञ्चैव त्रिवृत्सौम्यं रथन्तरम्।
अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात् ।४४।
छन्दांसि त्रैष्टुभङ्कर्म स्तोमं पञ्चदशन्तथा।
बृहत्साममथोक्थञ्च दक्षिणात्सोऽसृजन्मुखात्।४५।
सामानि जगती च्छन्दस्तोमं पञ्चदशन्तथा।
वैरूप्यमतिरात्रञ्च पश्चिमादसृजन्मुखात् ।४६।।
एकविंशमथर्वाणमाप्तोर्यामाणमेव च।
अनुष्टुभं सवैराजमुत्तरादसृजन्मुखात् ।४७।।
विद्युतोऽशनिमेघांश्च रोहितेन्द्रधनूंषि च।
वयांसि च ससर्ज्जादौ कल्पस्य भगवान् प्रभुः।४८।
विश्वरूपमथार्यायाः पृथग्देहविभावनात्।
श्रृणु संक्षेपतस्तस्या यथावदनुपूर्वशः।८०।
____________________________
प्रकृतिर्नियता रौद्री दुर्गा भद्रा प्रमाथिनी।
कालरात्रिर्महामाया रेवती भुतनायिका।८१।
___________________
द्वापरान्तविकारेषु देव्या नामानि मे श्रृणु।
गौतमी कौशिकी आर्या चण्डी कात्यायनी सती।८२।
___________________
कुमारी यादवी देवी वरदा कृष्णपिङ्गला।
बर्हिर्ध्वजा शूलधरा परमब्रह्मचारिणी।८३।
माहेन्द्री चेन्द्रभगिनी वृषकन्यैकवाससी।
अपराजिता बहुभुजा प्रगल्भा सिंहवाहिनी ।।८४।
एकानसा दैत्यहनी माया महिषमर्द्दिनी।
अमोघा विन्ध्यनिलया विक्रान्ता गणनायिका ।८५।
देवीनामविकाराणि इत्येतानि यथाक्रमम्।
भद्रकाल्यास्तवोक्तानि देव्या नामानि तत्त्वतः।८६।

इति श्रीमहापुरणे वायुप्रोक्ते देवादिसृष्टिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ।।९।।
___________________

तुलना करें-
वायुपुराण-
मुखतोऽजान् ससर्ज्जाथ वक्षसश्चवयोऽसृजत्।
गाश्चैवाथोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्याञ्च विनिर्ममे ।३९।
वायुपुराण पूर्वार्ध नवम अध्याय श्लोक ३९ वाँ।
________

वायुपुराण-
रजस्तमोभ्यामाविष्टांस्ततोऽन्यानसृजत् प्रभुः।।
वयांसि वयसः सृष्ट्वा अवीन्वै वक्षसोऽसृजत् ।७.५४
________

कूर्मपुराण-
मुखतोऽजान् ससर्जान्यान् उदराद्‌गाश्चनिर्ममे ।
पद्भ्यांचाश्वान् समातङ्गान् रासभान् गवयान् मृगान् ।७.५५
______________
इति श्रीकूर्मपुराणे षट्‌साहस्त्र्यां संहितायां पूर्वविभागे सप्तमोऽध्यायः।।७।।
कूर्मपुराणपूर्वभाग सप्तम अध्याय -
____________________________  
 
लक्ष्मीनारायण-संहिता-खण्डः(१)        (कृतयुगसन्तानः)-अध्यायः (५०९)

                -श्रीनारायण उवाच-
शृणु लक्ष्म्यैकदा सत्ये ब्रह्माणं प्रति नारदः।
दर्शनार्थं ययौ भ्रान्त्वा लोकत्रयं ननाम तम् ।१।
ब्रह्मा पप्रच्छ च कुतः पुत्र आगम्यते, वद ।
नारदःप्राह मर्त्यानां मण्डलानि विलोक्य च ।२।
तव पूजाविधानाय विज्ञापयितुं हृद्गतम् ।
समागतोऽस्मि च पितः श्रुत्वा कुरु यथोचितम् ।३।
दैत्यानां हि बलं लोके सर्वत्राऽस्ति प्रवर्तितम् ।
यज्ञाश्च सत्यधर्माश्च सत्कर्माणि च सर्वथा ।४।
प्रसह्य तैर्विनाश्यन्ते देवा भक्ताश्च दुःखिनः।
तस्माद् यथेष्टं भगवन् कल्याणं कर्तुमर्हसि।५।
इत्येवं विनिवेद्यैव नत्वा सम्पूज्य संययौ ।
ब्रह्मा वै चिन्तयामास यज्ञार्थं शुभभूतलम् ।६।
निर्विघ्नं तत्स्थलं क्वास्तीत्याज्ञातुं पद्मपुष्पकम् ।
करस्थं स समुवाच पत स्थले तु पावने ।७।
ततश्चिक्षेप पुष्पं तद् भ्रान्त्वा लोकान् समन्ततः।
हाटकेश्वरजे क्षेत्रे सम्पपात सुपावने ।८।
___________________________________
एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः पश्चात् तस्य पितामहः।
क्षेत्रं दृष्ट्वा प्रसन्नोऽभूद् यज्ञार्थं प्रपितामहः।९।
आदिदेश ततो वायुं समानय पुरन्दरम् ।
आदित्यैर्वसुभिः सार्धं रुद्रैश्चैव मरुद्गणैः। 1.509.१०।
गन्धर्वैर्लोकपालैश्च सिद्धैर्विद्याधरैस्तथा ।
ये च मे स्युः सहायास्तैः समस्ते यज्ञकर्मणि।११।
वायुश्चेन्द्रं देवगणैर्युतं समानिनाय च ।
ब्रह्मा प्राह महेन्द्रं च वैशाख्यामग्निष्टोमकम्।१२।
यज्ञं कर्तुं समीहेऽत्र सम्भारानाहरस्व वै ।
ब्राह्मणाँश्च तदर्हान् वै योग्योपस्कारकाँस्तथा।१३।
इन्द्रस्तानानयामास संभाराँश्च द्विजोत्तमान् ।
आरेभे च ततो यज्ञं विधिवत् प्रपितामहः।१४।
शंभुर्देवगणैः सार्ध तत्र यज्ञे समागतः ।
देवान् ब्रह्मा समुवाच स्वस्वस्थानेषु तिष्ठत।१५।
______________
विश्वकर्मन् कुरु यज्ञमण्डपं यज्ञवेदिकाः ।
पत्नीशालाःसदश्चापि कुण्डान्यावश्यकानि च। ६६।
यज्ञपात्राणि च गृहान् चमसाँश्च चषालकान् ।
यूपान् शयनगर्तांश्च स्थण्डिलानि प्रकारय ।१७।
हिरण्मयं सुपुरुषं कारय त्वं सुरूपिणाम् ।
बृहस्पते त्वमानीहि यज्ञार्हानृत्विजोऽखिलान्। १८।
यावत् षोडशसंख्याकान् शुश्रूषां कुरु देवराड् ।
कुबेर च त्वया देया दक्षिणा कालसंभवा ।१९।
त्वया विधे विधौ कार्यं कृत्याऽकृत्यपरीक्षणम् ।
लोकपालाः प्ररक्षन्तु त्वैन्द्र्यादिका दिशस्तथा ।1.509.२०।
भूतप्रेतपिशाचानां प्रवेशो दैत्यरक्षसाम् ।
मा भूदित्यथ यज्ञेन दीयतां दानमुत्तमम् ।२१।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।
भवन्तु परिवेष्टारो भोक्तुकामजनस्य तु ।२२।
यज्ञार्हा ब्राह्मणा वृत्तास्तिष्ठन्तु यज्ञमण्डपे ।
मैत्रावरुणश्च्यवनोऽथर्वाको गालवस्तथा।२३।
______
मरीचिर्मार्कवश्चैते सर्वकर्मविशारदाः ।
प्रस्थानकर्ता चाध्वर्युः पुलस्त्यस्तत्र तिष्ठतु ।२४।
रैभ्यो मुनिस्तथोन्नेता तिष्ठतु यज्ञमण्डपे ।
ब्रह्मा भवतु नारदो गर्गोऽस्तु सत्रवीक्षकः ।२५।
होतारोऽग्नीध्रभरद्वाजपराशरास्त्रयः ।
बृहस्पतिस्तथाऽऽचार्य उद्गाता गोभिलो मुनिः।२६।
________________________________
शाण्डिल्यः प्रतिहर्ता च सुब्रह्मण्यस्तथाऽङ्गिराः।
अस्य यज्ञस्य सिद्ध्यर्थं सन्त्वृत्विजस्तु षोडश।२७।
ब्रह्मा तान् पूजयामास दीक्षितस्तैस्तु विश्वसृट्।
यजमानोऽभवद् यज्ञकार्यं ततः प्रवर्तितम् ।२८।
_________________________________
ब्रह्मा च नारदं प्राह सावित्रीं क्षिप्रमानय ।
वाद्यमानेषु वाद्येषु सिद्धकिन्नरगुह्यकैः ।२९।
गन्धर्वैर्वाद्यसंयुक्तैरुच्चारणपरैर्द्विजैः ।
अरणिं समुपादाय पुलस्त्यो वाक्यमब्रवीत्।1.509.३०।
पत्नीपत्नीतिविप्रेन्द्राः प्रोच्चैस्तत्र व्यवस्थितः ।
ब्रह्मा पुनर्नारदं संज्ञया करस्य वै द्रुतम् ।३१।
____________________________
गृहं सम्प्रेषयामास पत्नी चानीयतामिति ।
सोऽपि गत्वाऽऽह सावित्रीं पित्रा सम्प्रेषितोऽस्म्यहम् ।३२।
आगच्छ मण्डपं देवि यज्ञकार्यं प्रवर्तते ।
परमेकाकिनी कीदृग्रूपा सदसि दृश्यसे ।३३।
आनीयन्तां ततो देव्यस्ताभिर्वृत्ता प्रयास्यसि 
इत्युक्त्वा प्रययौ यज्ञे नारदोऽजमुवाच ह ।३४।
देवीभिः सह सावित्री समायास्यति सुक्षणम् ।
पुनस्तं प्रेषयामास ब्रह्माऽथ नारदो ययौ ।३५।
मातः शीघ्रं समायाहि देवीभिः परिवारिता ।
सावित्र्यपि तदा प्राह यामि केशान् प्रसाध्य वै ।३६।
नारदोऽजं प्राह केशान् प्रसाध्याऽऽयाति वै ततः ।
सोमपानमुहूर्तस्याऽवशेषे सत्वरं तदा ।।३७।
पुलस्त्यश्च ययौ तत्र सावित्री त्वेकलाऽस्ति हि ।
किं देवि सालसा भासि गच्छ शीघ्रं क्रतोः स्थलम् ।३८।
सावित्र्युवाच तं ब्रूहि मुहूर्तं परिपाल्यताम् 
यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथाऽपराः ।३९।
देवकन्याः समाजेऽत्र ताभिरेष्यामि संहिता ।
सोऽपि गत्वा द्रुतं प्राह सोमभाराऽर्दितं विधिम् ।1.509.४०।
सा मां प्राह च देवीभिः सहिताऽऽयामि वै मखे ।
अहं यास्यामि सहिता न त्वेकला कथंचन ।४१।
एवं ज्ञात्वा सुरश्रेष्ठ कुरु यत्ते सुरोचते ।
अतिक्रामति कालश्च यज्ञपानक्षणात्मकः ।४२।
श्रुत्वा ब्रह्मा महेन्द्रं च प्राह सा शिथिलात्मिका 
नाऽऽयात्येवाऽन्यया पत्न्या यज्ञः कार्यो भवत्विति ।४३।
_________________________________
ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः ।
चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
____________________________________

श्रीस्कान्दमहापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥ १८१ ॥ निम्न श्लोकों को देखें-              
                     'ब्रह्मोवाच॥
शक्र नायाति सावित्री सापि स्त्री शिथिलात्मिका ॥
अनया भार्यया यज्ञो मया कार्योऽयमेव तु ॥५४॥
गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः।
यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः।५५॥
पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः ।५६॥
अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता ॥
कन्यका गोपजा तन्वी चंद्रास्या पद्मलोचना।५७॥
सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता ॥
सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने ॥ ५८ ॥
कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि न:।५९ ॥
                     "कन्योवाच॥
गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता ॥
यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम् ॥ ६.१८१.६० ॥
तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम् ॥
जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले ॥६१।
अथ तां रुदतीं शक्रः समादाय त्वरान्वितः ॥
गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः ॥६२॥
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३।
ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे ॥६४॥
कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना ॥
तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता ॥६५॥
गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख ॥६६॥
____________________________________
                  "श्रीवासुदेव उवाच ॥ 
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम्॥
एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥६७॥
धेनूदराद्विनिष्क्रांता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये॥ ६८।
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः ॥ ६९ ॥
                      "रुद्र उवाच ॥
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
                     "ब्रह्मोवाच॥
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि ॥
संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥ ७१ ॥

                     "ब्राह्मणा ऊचुः॥ 
एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता ॥
अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम्। ७२॥
                    "सूत उवाच ॥
ततः पाणिग्रहं चक्रे तस्या देवः पितामहः ॥
कृत्वा सोमं ततो मूर्ध्नि गृह्योक्तविधिना द्विजाः ।७३।
संतिष्ठति च तत्रस्था महादेवी सुपावनी ॥
अद्यापि लोके विख्याता धनसौभाग्यदायिनी ।७४।
यस्तस्यां कुरुते मर्त्यः कन्यादानं समाहितः ॥
समस्तं फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ॥ ७९।
कन्या हस्तग्रहं तत्र याऽऽप्नोति पतिना सह॥
सा स्यात्पुत्रवती साध्वी सुखसौभाग्यसंयुता।७६।
पिण्डदानं नरस्तस्यां यः करोति द्विजोत्तमाः ॥
पितरस्तस्य संतुष्टास्तर्पिताः पितृतीर्थवत् ॥७७॥
__________________________________
इति श्रीस्कान्दमहापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः॥१८१॥
____________________________________

गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः 
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः।४७।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।४८।

यह उपर्युक्त श्लोक वस्तुत: वैदिक सिद्धान्त के विरुद्ध ही है क्योंकि गाय विराट पुरुष के ऊरु से  उत्पन्न है जो उदर-भाग ही है । ऊरु-(ऊर्णूयते आच्छाद्यते ऊर्णु--कर्मणि कु नुलोपश्च । जानूपरिभागे तस्य वस्त्रादिभिराच्छादनीयत्वात् तथात्वम् ( घुटनों का ऊपरी भाग- जिसे वस्त्रों से आच्छादित करना होता है।)
_____
अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोजांश्च सृष्टवान्।
सृष्टवानुदराद्गाश्च महिषांश्च प्रजापतिः।१०५।
(पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अध्याय-३)

सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा।
सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चितम्।१७।
 (ब्रह्मवैवर्त-पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय -9)
_______________
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।४९।
____________________________________
गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्।
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।1.509.५०।
रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।५१ ।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु।५२।
ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।५३।
वाद्यमानेषु वाद्येषु सम्प्राप्ता यज्ञमण्डपम् ।
विधिश्चक्रे स्वकेशानां क्षौरकर्म ततः परम् ।५४।
विश्वकर्मा तु गायत्रीनखच्छेदं चकार ह ।
औदुम्बरं ततो दण्डं पौलस्त्यो ब्रह्मणे ददौ ।५५।
एणशृंगान्वितं चर्म समन्त्रं प्रददौ तथा ।
पत्नीं शालां गृहीत्वा च गायत्रीं मौनधारिणीम्।५६।
मेखलां निदधे त्वन्यां कट्यां मौञ्जीमयीं शुभाम् ।
ततो ब्रह्मा च ऋत्विग्भिः सह चक्रे क्रतुक्रियाम्।५७।
कर्मणि जायमाने च तत्राऽऽश्चर्यमभून्महत् ।
जाल्मरूपधरःकश्चिद् दिग्वासा विकृताननः।५८।
कपालपाणिरायातो भोजनं दीयतामिति ।
निषिध्यमानोऽपि विप्रैः प्रविष्टो यज्ञमण्डपम्।५९।
सदस्यास्तु तिरश्चक्रुः कस्त्वं पापः समागतः ।
कपाली नग्नरूपश्चाऽपवित्रखर्परान्वितः।६०।
यज्ञभूमिरशुद्धा स्याद् गच्छ शीघ्रमितो बहिः ।
जाल्मः प्राह कथं चास्मि ह्यशुद्धो भिक्षुको व्रती ।६१ ।
_______________________________
ब्रह्मयज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः ।
गोपालकन्या नित्यं या शूद्री त्वशुद्धजातिका।६२।
स्थापिताऽत्र नु सा शुद्धा विप्रोऽहं पावनो न किम् ।
तावत् तत्र समायातो ब्राह्मणो वृद्धरूपवान् ।६३।
श्रीकृष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म नैषाऽस्ति शूद्राणी ब्राह्मणी जातितोऽस्ति वै ।६४।।
शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्यतद्विदः ।
पुरा सृष्टे समारम्भे श्रीकृष्णेन परात्मना ।६५।।
स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता ।
अथ द्वितीया कन्या च पतिव्रताऽभिधा कृता।६६।
कुमारश्च कृतः पत्नीव्रताख्यो ब्राह्मणस्ततः ।
ब्रह्मा वैराजदेहाच्च कृतस्तस्मै समर्पिता ।६७।
__________
सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ यज्ञप्रवाहार्थं ब्रह्मा यज्ञं करिष्यति।६८।
पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता भविष्यति ।६९।
हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह ।1.509.७०।
प्रागेव भूतले कन्यारूपेण ब्रह्मणः कृते ।
सावित्री श्रीकृष्णमाह कौ तत्र पितरौ मम ।।७ १।
श्रीकृष्णस्तां तदा सन्दर्शयामास शुभौ तु तौ ।
इमौ पत्नीव्रतो विप्रो विप्राणी च पतिव्रता।७२।
मदंशौ मत्स्वरूपौ चाऽयोनिजौ दिव्यविग्रहौ ।
पृथ्व्यां कुंकुमवाप्यां वै क्षेत्रेऽश्वपट्टसारसे ।७३ ।
सृष्ट्यारंभे विप्ररूपौ वर्तिष्येतेऽतिपावनौ ।
वैश्वदेवादियज्ञादिहव्याद्यर्थं गवान्वितौ ।७४।
_____________________
सौराष्ट्रे च यदा ब्रह्मा यज्ञार्थं संगमिष्यति ।
तत्पूर्वं तौ गोभिलश्च गोभिला चेति संज्ञिता।७२।
गवा प्रपालकौ भूत्वाऽऽनर्तदेशे गमिष्यतः ।
यत्राऽऽभीरा निवसन्ति तत्समौ वेषकर्मभिः।७६
दैत्यकृतार्दनं तेन प्रच्छन्नयोर्न वै भवेत् ।
इतिःहेतोर्यज्ञपूर्वं दैत्यक्लेशभिया तु तौ ।७७।
श्रीहरेराज्ञयाऽऽनर्ते जातावाभीररूपिणौ ।
गवां वै पालकौ विप्रौ पितरौ च त्वया हि तौ।७८।
कर्तव्यौ गोपवेषौ वै वस्तुतो ब्राह्मणावुभौ ।
मदंशौ तत्र सावित्रि ! त्वया द्वितीयरूपतः ।७९।
अयोनिजतया पुत्र्या भाव्यं वै दिव्ययोषिता ।
दधिदुग्धादिविक्रेत्र्या गन्तव्यं तत्स्थले तदा ।1.509.८०।
यदा यज्ञो भवेत् तत्र तदा स्मृत्वा सुयोगतः ।
मानुष्या तु त्वया नूत्नवध्वा क्रतुं करिष्यति।८१।
सहभावं गतो ब्रह्मा गायत्री त्वं भविष्यसि ।
ब्राह्मणयोः सुता गूढा गोपमध्यनिवासिनोः।८२।
ब्रह्माणी च ततो भूत्वा सत्यलोकं गमिष्यसि ।
ब्राह्मणास्त्वां जपिष्यन्ति मर्त्यलोकगतास्ततः।८३।
इत्येवं जायमानैषा गायत्री ब्राह्मणी सुता ।
वर्तते गोपवेषीया नाऽशुद्धा जातितो हि सा।८४।
एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा।
तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा।८५।
अस्मत्पुत्र्या महद्भाग्यं ब्रह्मणा या विवाहिता ।
आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते।८६।
यज्ञद्वारेण देवानां ब्राह्मणानां सतां तथा ।
इत्युक्त्वा तौ गोपवेषौ त्यक्त्वा ब्राह्मणरूपिणौ।८७। 
पितामहौ हि विप्राणां परिचितौ महात्मनाम् ।
सर्वेषां पूर्वजौ तत्र जातौ दिव्यौ च भूसुरौ।८८।
ब्रह्माद्याश्च तदा नेमुश्चक्रुः सत्कारमादरात् ।
यज्ञे च स्थापयामासुः सर्वं हृष्टाः सुरादयः ।८९।
ब्रह्माणं मालया कुंकुमाक्षतैः कुसुमादिभिः।
वर्धयित्वा सुतां तत्र ददतुर्यज्ञमण्डपे। 1.509.९०।
वृद्धो वै ब्राह्मणस्तत्र कृष्णरूपं दधार ह ।
सर्वैश्च वन्दितः साधु साध्वित्याहुः सुरादयः।९१।
जाल्मः कृष्णं हरिं दृष्ट्वा गायत्रीपितरौ तथा ।
दृष्ट्वा ननाम भावेन प्राह भिक्षां प्रदेहि मे।९२।
_______
बुभुक्षितोऽस्मि विप्रेन्द्रा गर्हयन्तु न मां द्विजाः ।
दीनान्धैः कृपणैः सर्वैस्तर्पितैरिष्टिरुच्यते ।९३।
अन्यथा स्याद्विनाशाय क्रतुर्युष्मत्कृतोऽप्ययम्।
अन्नहीनो दहेद् राष्ट्रं मन्त्रहीनस्तु ऋत्विजः।९४।
याज्ञिकं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।
श्रीकृष्णश्च तदा प्राह जाल्मे ददतु भोजनम् ।९५।
विप्राः प्राहुः खप्परं ते त्वशुद्धं विद्यते ततः ।
बहिर्निःसर दास्यामो भिक्षां पार्श्वमहानसे ।९६।।़
एतस्यामन्नशालायां भुञ्जन्ति यत्र तापसाः।
दीनान्धाः कृपणाश्चैव तथा क्षुत्क्षामका द्विजाः ।९७।
अशुद्धं ते कपालं वै यज्ञभूमेर्बहिर्नय ।
गृहाणाऽन्यच्छुद्धपात्रं दूरं प्रक्षिप्य खप्परम्।९८।
एवमुक्तश्च जाल्मः स रोषाच्चिक्षेप खप्परम् ।
यज्ञमण्डपमध्ये च स्वयं त्वदृश्यतां गतः ।९९।
सर्वेप्याश्चर्यमापन्ना विप्रा दण्डेन खप्परम् ।
चिक्षिपुस्तद्बहिस्तावद् द्वितीयं समपद्यत । 1.509.१००।
तस्मिन्नपि परिक्षिप्ते तृतीयं समपद्यत ।
एवं शतसहस्राणि समपद्यन्त वै तदा ।१०१।
परिश्रान्ता ब्राह्मणाश्च यज्ञवाटः सखप्परः।
समन्ततस्तदा जातो हाहाकरो हि सर्वतः।१०२।
ब्रह्मा वै प्रार्थयामास सन्नत्वा तां दिशं मुहुः।
किमिदं युज्यते देव यज्ञेऽस्मिन् कर्मणः क्षतिः। १०३।
तस्मात् संहर सर्वाणि कपालानि महेश्वर ।
यज्ञकर्मविलोपोऽयं मा भूत् त्वयि समागते।१०४।
ततः शब्दोऽभवद् व्योम्नः पात्रं मे मेध्यमस्ति वै ।
भुक्तिपात्रं मम त्वेते कथं निन्दन्ति भूसुराः।१०५।
तथा न मां समुद्दिश्य जुहुवुर्जातवेदसि ।
यथाऽन्या देवतास्तद्वन्मन्त्रपूतं हविर्विधे।१ ०६।
अतोऽत्र मां समुद्दिश्य विशेषाज्जातवेदसि ।
होतव्यं हविरेवात्र समाप्तिं यास्यति क्रतुः ।। १०७।।
ब्रह्मा प्राह तदा प्रत्युत्तरं व्योम्नि च तं प्रति ।
तव रूपाणि वै योगिन्नसंख्यानि भवन्ति हि।१०८
कपालं मण्डपे यावद् वर्तते तावदेव च ।
नात्र चमसकर्म स्यात् खप्परं पात्रमेव न ।१०९।
यज्ञपात्रं न तत्प्रोक्तं यतोऽशुद्धं सदा हि तत् ।
यद्रूपं यादृशं पात्रं यादृशं कर्मणः स्थलम् ।। 1.509.११ ०।।
तादृशं तत्र योक्तव्यं नैतत्पात्रस्य योजनम् ।
मृन्मयेषु कपालेषु हविः पाच्यं क्रतौ मतम् ।१११।
तस्मात् कपालं दूरं वै नीयतां यत् क्रतुर्भवेत् ।
त्वया रूपं कपालिन् वै यादृशं चात्र दर्शितम्।११२।
तस्य रूपस्य यज्ञेऽस्मिन् पुरोडाशेऽधिकारिता ।
भवत्वेव च भिक्षां संगृहाण तृप्तिमाप्नुहि ।११३।
अद्यप्रभृति यज्ञेषु पुरोडाशात्मकं द्विजैः ।
तवोद्देशेन देवेश होतव्यं शतरुद्रिकम् ।११४।
विशेषात् सर्वयज्ञेषु जप्यं चैव विशेषतः।
अत्र यज्ञं समारभ्य यस्त्वा प्राक् पूजयिष्यति।११५।
अविघ्नेन क्रतुस्तस्य समाप्तिं प्रव्रजिष्यति ।
एवमुक्ते तदाश्चर्यं जातं शृणु तु पद्मजे।११६।
यान्यासँश्च कपालानि तानि सर्वाणि तत्क्षणम् ।
रुद्राण्यश्चान्नपूर्णा वै देव्यो जाताः सहस्रशः।११७।
सर्वास्ताःपार्वतीरूपा अन्नपूर्णात्मिकाःस्त्रियः।
भिक्षादात्र्यो विना याभिर्भिक्षा नैवोपपद्यते।११८।
तावच्छ्रीशंकरश्चापि प्रहृष्टः पञ्चमस्तकः ।
यज्ञमण्डपमासाद्य संस्थितो वेदिसन्निधौ ।११९।
ब्राह्मणा मुनयो देवा नमश्चक्रुर्हरं तथा ।
रुद्राणीःपूजयामासुरारेभिरे क्रतुक्रियाम्।१२०।
सहस्रशः क्रतौ देव्यो निषेदुः शिवयोषितः ।
शिवेन सहिताश्चान्याः कोटिशो देवयोषितः।१२१।
एवं शंभुः क्रतौ भागं स्थापयामास सर्वदा ।
पठनाच्छ्रवणाच्चास्य यज्ञस्य फलमाप्नुयात् । १२२।
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इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने नामको नवाऽधिकपञ्चशततमोऽध्यायः।५०९।     
ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।२३।
यह श्लोक अनेक पुराणों तथा ग्रन्थो में बनाकर जोड़ा गया जैसे नान्दी-उपपुराण-  महाभारत -अनुशासनपर्व, स्कन्दपुराणनागर-खण्ड ,लक्ष्मी नारायणीसंहिता ़तथा पाराशर स्मृति और भविष्यपुराण में "ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।५। श्लोक बनाकर संलग्न कर दिया।

इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे गोसहस्रप्रदानविधिव्रतवर्णनं नामैकोनषष्ट्युत्तरशततमोऽध्यायः।१५९।
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कालान्तरण में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों नें  वैश्यवर्णीया गाय को ब्राह्मण कुल की बताने के लिए वैदिक सिद्धान्त के विरुद्ध विना विचारे ही उपर्युक्त श्लोकों को तो रच दिया परन्तु वर्णव्यवस्था के उद्घोषक वेद में वर्णित विधान भूल ही गये  ।
मैं इस स्थल पर ऋग्वेद की उस ऋचा का उल्लेख कर रहा हूं जिसमें चारों वर्णों की उत्पत्ति की  बात की गई है:
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः।        ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।।ऋ०10/90/12
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