भारतीय इतिहास का सूत्रपात बुद्ध के समय से ही होता है।
बुद्ध के जन्म से तीनसौ वर्ष पूर्व अर्थात् ईसापूर्व सप्तम सदी तक देव संस्कृति के अनुयायियों का जीवन यायावर ही रहा पुराणों और महाकाव्यों की कथाऐं बुद्ध के बाद किंवदंतियों पर काव्यात्मक शैली में ही लिखी गयीं ।
लिपियों के जनक पणि लोग थे जो समुद्री व्यापारी और भारतीय बनियों के पूर्वज थे ।
पणियों को ही यूरोपीय भाषाओं में फॉनिशी अथवा प्यूनिक कहा गया है।
फॉनिशियन लिपि से "आरमैइक लिपि विकसित हुई और उसी श्रंखला में आरमैइक से ब्राह्मी और ब्राह्मी लिपि से देवनागरी लिपि विकसित हुई ।
देवनागरी लिपि पूर्ण विकसित वैज्ञानिक लिपि है। जो सभी ध्वनियों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है।
शिलालेखों की परम्परा तो बुद्ध के परवर्ती काल से प्रारम्भ हुई । बुद्ध के तीन सौ वर्ष पूर्व ब्राह्मी लिपि विकसित थी
बुद्ध का समय अर्थात ईसापूर्व पाँच सौ के पूर्व है।पालि प्राचीन उत्तर भारत के लोगों की भाषा थी जो पूर्व में बिहार से पश्चिम में हरियाणा-राजस्थान तक और उत्तर में नेपाल-उत्तरप्रदेश से दक्षिण में मध्यप्रदेश तक बोली जाती थी।
गौतम बुद्ध भी इन्हीं प्रदेशों में विहरण करते हुए लोगों को धम्म समझाते रहे। यह हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में की एक बोली या प्राकृत है।
इसको बौद्ध त्रिपिटक की भाषा के रूप में भी जाना जाता है।
पालि, ब्राह्मी परिवार की लिपियों में लिखी जाती थी। वेद भी ब्राह्मी लिपि में लिखे थे।
परन्तु भोज पत्र ताड़पत्र और ताम्रपत्रों पर परन्तु ब्राह्मी लिपि का विकास का एक नगरीय रूप देवनागरी हुआ
यह देवनागरी लिपि प्राचीन भारत में पहली से चौथी शताब्दी ईस्वी तक विकसित हुई जिसमें वैदिक भाषा के संस्कारित रूप संस्कृत को लिखा गया।
और यह लिपि 7 वीं शताब्दी ईस्वी से आज तक नियमित उपयोग में रही है।
वैसे तो वेद मौखिक श्रुत परम्परा द्वारा समाज में प्रसारित और संरक्षित रहे हैं जो शूक्ष्मकाय ही थे। परन्तु यह कार्य दुर्बोध होने से लेखन कार्य के लिए देवनागरी लिपि इस्वी सदी में बनायी गयी
लिपियाँ पणियों का आविष्कार थीं।
ऋग्वेद में पणियों का वर्णन है।
"असेन्या वः पणयो वचांस्यनिषव्यास्तन्वः सन्तु पापीः । अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात् ॥६॥ऋ०10/108/6
"फोनेशियन" लोगों को ऋग्वेद में पणि या वणिक्" नाम से सम्बोधित किया है।
रोमन लोग पणि लोगों को "प्यूनिक" नाम से जानते थे।
वैदिक काल में "पशुपालन" ही जीवन का आधार था और पणि पशुओं को पालने की अपेक्षा समुद्री "व्यापारी" अधिक थे।
यद्यपि पणियों और वैदिक पुरोहितों की भाषाएँ तो समान थी परन्तु देव सूची
भिन्न थी । देव पुरोहित इन्द्र की उपासना करते थे तो पणि लोग इन्द्र के शत्रु "बल" असुर की
पणि और दे वो पालक पुरोहितों में केवल सांस्कृतिक भेद था नकि भाषाई भेद-
कुछ इतिहास कार लोग राग अलापते हैं कि
फोनेशियन लोगों की भाषा "सेमेटिक"( अफ्रो-एसियाटिक ) परिवार की थी और वैदिक लोगों की भाषा "इंडो-यरोपियन" परिवार की थी परन्तु यह बात भी मिथ्या और कम जानकारी की बजह से ही है।
फ़ोनीशिया मध्य-पूर्व के उर्वर अर्धचंद्र के पश्चिमी भाग में भूमध्य सागर के तट के साथ-साथ स्थित एक प्राचीन सभ्यता थी।
बहुत समय तक ये फॉनिशीयन लोग लेबनान में तथा कार्थेज में उपनिवेश में रहते थे।
समुद्री व्यापार के ज़रिये यह १५०० से ३०० ईसा-पूर्व के काल में भूमध्य सागर के दूर-दराज़ इलाक़ों में फैल कर व्यापार करते रहे हैं।
इन्होने जिस अक्षरमाला का आविष्कार किया उस पर विश्व की सारी प्रमुख अक्षरमालाएँ आधारित हैं।
इनकी लिपियाँ पशु पक्षीयों के आकार पर आधारित थीं धीरे धीरे जिनमें सुधार और स्थायित्व आया।
देवनागरी-सहित भारत की सभी वर्णमालाएँ इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं।
लौकिक संस्कृत का जन्म प्राकृत के बाद का है , अथवा प्राचीन ! यह प्रश्न भी अक्सर होता है।
संस्कृत या वैदिक भाषा वैदिक भाषा प्राचीनतम है परंतु अपनी जटिलता के कारण कभी वो जनमानस की भाषा ना बन सकी अतः कोई भी जनसाधारण के लिए लिखे ग्रंथ या शिलालेख की भाषा वैदिक संस्कृत नही बन सका इस लिए लौकिक संस्कृत के जन्म (जो की वैदिक संस्कृत और लोकभाषायों के मिश्रण) के बाद उपलब्ध ग्रंथो तथा शिलालेख का रूपांतरण लौकिक संस्कृत में किया गया जो लोकग्राह्य भाषा बनी।
प्राचीनतम लिपि ब्राह्मी लिपि थी जो वैदिक भाषा के समय विद्यमान थी लेकिन जिस प्रकार वैदिक भाषा का परिमार्जन लौकिक संस्कृत में हुआ और उसी तर्ज पर ब्राह्मी लिपि का परिमार्जन भी देवनागरी लिपि के रूप में हुआ है।
पर ये ध्यान देने योग्य है की आज जिस रूप में देवनागरी लिपि हमे देखने को मिलती है प्रारंभ में वो बिलकुल भिन्न थी।
आज से 100 साल पहले तक पाए जाने वाले अनेक देवनागरी के अक्षर आज अपना स्वरूप पूर्ण रूप से बदल चुके है जैसे अ, आ, ल, य ए श्र द्य इत्यादि वर्ण विकसित रूप में हैं।।
पहली बात संस्कृत भाषा शास्त्रीय भाषा थी जिसमें शास्त्रीय पद्धति के अनुरूप परम्परागत रूप से धार्मिक ग्रन्थों का लेखन हुआ।
और दूसरी बात यह संस्कृत जन साधारण की भाषा नहीं थी । जबकि बौद्ध और जैन राजाओं ने साधारण लोगों को सूचित करने के लिए ही पाली और अपभ्रंश भाषाओं का बहुतायत से प्रयोग किया ।
संस्कृत वैदिक भाषा का संस्कारित ( परिमार्जित) रूप है । सत्य कहें तो संस्कृत तत्सम और पाली और अपभ्रंश तद्भव भाषाएँ हैं।
संस्कृत भाषा वैदिक भाषा के सबसे निकटतम है ।
वैदिक भाषा का संस्कारित रूप नगरीय और सभ्य जनों का रूप रहा जबकि पाली, अपभ्रंश और प्राकृत ग्रामीण, अशिक्षित तथा कामगार लोगों का संवादीय रूप रहा है।
आदि-सीनाई लिपि > फ़ोनीशियाई वर्णमाला > आरमेइक लिपि > ब्राह्मी लिपि> से देवनागरी लिपि का विकास हुआ है। जो
बाएँ-से-दाएँ लिखी जाती रही है।
पहली बात संस्कृत भाषा शास्त्रीय भाषा थी जिसमें शास्त्रीय पद्धति के अनुरूप परम्परागत रूप से ब्राह्मण शास्त्रों का लेखन हुआ और दूसरी बात यह कि संस्कृत जन साधारण की भाषा नहीं थी।
जबकि बौद्ध और जैन राजाओं ने साधारण लोगों को सूचित करने के लिए ही पाली और अपभ्रंश भाषाओं का प्रयोग किया।
संस्कृत वैदिक भाषा का संस्कारित ( परिमार्जित) रूप है ।
सत्य कहें तो संस्कृत तत्सम और पाली और अपभ्रंश तद्भव भाषाएँ हैं।
वैदिक भाषा का संस्कारित रूप नगरीय और सभ्य जनों का रूप रहा जबकि पाली अपभ्रंश ग्रामीण अशिक्षित तथा कामगार लोगों का संवादीय रूप रहा है।
देव नागरी लिपि का ध्वनियों का एक वैज्ञानिक विश्लेषण-
वर्णों की विवेचनात्मक व्याख्या :-
यादव योगेश कुमार "रोहि"
संस्कृत से सम्बन्धित प्राथमिक ज्ञान...
> संस्कृत वर्णमाला मे ६४ वर्ण होते हैं।
२३ स्वर , ३३ व्यञ्जन और ८ अयोगवाह ४ यम संज्ञक ...... होते है ।
( कुल वर्ण सङ्ख्या = ६३
_________________________________________
स्वर :-
> स्वर को बोलते समय किसी अन्य वर्ण की सहायता नही लेनी पडती है।
स्वर तीन प्रकार के हैं ।
१. हस्व या लघु स्वर - अ, इ, उ, ऋ, ॠ लृ ..... ( ५ )
२. दीर्घ स्वर - आ, ई, ऊ, ॠ , ए, ऐ, ओ, औ ..... ( ८ )
३. प्लुत स्वर – अ३, इ३, उ३, ऋ३, लृ३, ए३, ऐ३, ओ३, औ३ .....
( ९ ) व्यञ्जन :- ( कुल सङ्ख्या = ३३ )
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> " व्यञ्जन " को बोलते समय किसी भी " एक स्वर " की सहायता लेनी पडती है ।
जैसे - ग - ग् + अ , क - क् + अ > व्यञ्जन तीन प्रकार के होते हैं और पाँच प्रकार के वर्ग होते हैं ।
प्रकार : - १. स्पर्श व्यञ्जन ; २. अन्त:स्थ व्यञ्जन ; ३. उष्म व्यञ्जन
वर्ग : - क , च , ट , त , प ये वर्ग हैं
१. स्पर्श व्यञ्जन –
क वर्ग -- क् ख् ग् घ् ङ्
च वर्ग -- च् छ् ज् झ् ञ्
ट वर्ग -- ट् ठ् ड् ढ् ण्
त वर्ग -- त् थ् द् ध् न्
प वर्ग -- प् फ् ब् भ् म्
_________________________________
२. अन्त:स्थ व्यञ्जन –
य् र् ल् व्
३. उष्म व्यञ्जन –
श् ष् स् ह् गरम व्यञ्जन अर्थात् अल्पप्राण वर्ण हैं- कचटतप ,गजडदब ,ङञणनम ।
कठिन व्यंजन अर्थात् महाप्राण वर्ण हैं।
- खछठथफ , घझढधभ , शषसह ।
> " व्यञ्जन " के अंत मे जो भी " स्वर " आता है उसे उस " स्वर का कारांत " कहते है जैसे --
( ०१ ) गति - ग् + अ + त् + इ ( इकारान्त )
( ०२ ) मातृ - म् + आ + त् + ऋ ( ऋकारान्त )
( ०३ ) कमल - क् + अ + म् + अ + ल् + अ
( अकारान्त ) > व्यञ्जन को बोलते समय मुँह के पाँच भागों का प्रयोग होता है ।
१)- कण्ठस्थ २)- तालव्य ३)- मूर्धन्य ४)- दन्तस्थ ५)- ओष्ठस्थ >
____________________________________
अयोगवाह :–( कुल सङ्ख्या = ०८ ) ( ०१ )- अनुस्वार - अं ( ं ) , ( ०२ )- विसर्ग - अ: ( : ) ( ०३ )- अनुनासिक ( ०४ )- जिह्वामूलीय ( ०५ )- उपध्मानीय ( ०६ )- ह्रस्व ( ०७ )- दीर्घ ( ०८ )- ळ > विशेष वर्ण–
संयुक्त व्यञ्जन -( क्ष तृ, त्र, ज्ञ, श्र द्य कृ क्र )
वर्तनी (वर्णविन्यास) ( Spelling)
किसी भी भाषा की वर्तनी का अर्थ उस भाषा में शब्दों को वर्णों के निश्चित अनुक्रम से अभिव्यक्त करने की क्रिया या ढंग को कहते हैं।
भाषा के प्रत्येक शब्द की एक अपनी निश्चित वर्तनी होती है।
किसी भी भाषा को उसकी लिपि के माध्यम से उस भाषा के वर्णों को एक निश्चित क्रम में लिखकर कोई शब्द निरूपित किया जाता है ;तो वही वर्णविन्यास उस शब्द की वर्तनी कहलाता है।
हिन्दी के लिए प्रयुक्त देवनागरी लिपि में कुल 53 वर्ण हैं, जिनमें 11 मूल स्वर वर्ण (जिनमें से 'ऋ' का उच्चारण अब स्वर जैसा नहीं होता), 33 मूल व्यञ्जन, 2 उत्क्षिप्त व्यञ्जन, 2 अयोगवाह और 5 +3 =8 संयुक्ताक्षर व्यञ्जन हैं।
कुल 55 वर्ण = (11 मूल स्वर ) + (33 मूल व्यञ्जन ) + (2 उत्क्षिप्त व्यञ्जन ) + (2 अयोगवाह ) + (4 संयुक्ताक्षर व्यञ्जन )
(11 मूल स्वर )
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
(33 मूल व्यञ्जन )
क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
श ष स ह
(2 उत्क्षिप्त व्यञ्जन )
ड़ ढ़
(2 अयोगवाह )
(अं -अन् )( अ: -अह् )
(इन वर्णों को अब प्रायः वर्णमाला में सम्मिलित नहीं किया जाता)
(5 संयुक्ताक्षर व्यञ्जन )
क्ष त्र ज्ञ श्र द्य ( तृ क्र कृ )
वर्ण (Characters/Letters )
हिन्दी भाषा में प्रयुक्त एकल लिपि -चिह्न वर्ण कहलाता है।
जैसे:- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क, ख आदि।
वर्णमाला (The Devanagari Characters
[ syllabary ]
वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं।
हिन्दी वर्णमाला में मुख्यत: 52 वर्ण हैं।
उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं:-
1. स्वर (Vowels)
2. व्यञ्जन (Consonants)
स्वर (Vowels)
जिन वर्णों का उच्चारण स्वत्रन्त्र रूप से होता हो और जो व्यञ्जनों के उच्चारण में सहायक हों, वे स्वर कहलाते हैं।
ये संख्या में 11 हैं - अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ। (हिन्दी मे 'ऋ' का उच्चारण स्वर जैसा नहीं होता।
इसका प्रयोग केवल संस्कृत तत्सम शब्दों में होता है।)
उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं-
1. ह्रस्व स्वर (Short vowels)
2. दीर्घ स्वर (Long vowels)
3. प्लुत स्वर (Longer vowels)
1. ह्रस्व स्वर (Short vowels)
जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है ।
उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं।
जैसे:- अ, इ, उ , इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
2. दीर्घ स्वर (Long vowels)
जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से अधिक समय लगता है, उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं।
ये हिन्दी में सात (7) हैं:- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
विशेष:- दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए।
यहाँ दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
3. प्लुत स्वर (Longer vowels)
जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है, उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं।
इनमें (३)तीन मात्रा का समय लगता है
जैसे सुनो ऽ ऽ।
मात्राएँ (स्वर चिह्न) (Dependent vowel signs)
व्यञ्जन के बाद स्वरों के बदले हुए स्वरूप (सांकेतिक रूप) को मात्रा कहते हैं।
स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं:-
स्वर
मात्रा ( स्वर चिह्न )
व्यञ्जन + मात्रा = अक्षर
अ वर्ण (स्वर) की मात्रा नहीं होती।
क् = क +अ
आ
( क + ा ) = का
इ
ि
( क + ि ) = कि
ई
ी
( क + ी ) = की
उ
ु
( क + ु ) = कु
ऊ
ू
( क + ू ) = कू
ऋ
ृ
( क + ृ ) = कृ
ए
े
( क + े ) = के
ऐ
ै
( क + ै ) = कै
ओ
ो
( क + ो ) = को
औ
ौ
( क + ौ ) = कौ
लेखन में मात्राएँ सदैव किसी न किसी व्यञ्जन के साथ ही प्रयोग में लाई जाती हैं।
'अ' वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती।
व्यञ्जन वर्णों के अपने मूल स्वरूप में 'अ' स्वर अंतर्निहित होता है।
किसी मात्रा के लगने पर यह अन्तर्निहित 'अ' हट जाता है।
व्यञ्जन (Consonant)
जिन वर्णों के उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है, वे व्यञ्जन कहलाते हैं।
ये मूलतः संख्या में 35 हैं।
इनके निम्नलिखित तीन भेद हैं:-
1. स्पर्श व्यञ्जन (Stop Consonants)
2. उत्क्षिप्त व्यञ्जन (Flap Consonants)
3. अंतःस्थ (अन्तस्थ) व्यञ्जन
(Approximant Consonants)
4. ऊष्म (संघर्षी) व्यञ्जन (Sibilants)
1. स्पर्श व्यञ्जन (Stop Consonants)
'क' से 'म' तक 20 वर्ण स्पर्श तथा 5 व्यञ्जन स्पर्श संघर्षी व्यञ्जन कहलाते हैं।
इनका उच्चारण करते समय जिह्वा का तालु, दाँत आदि से उच्चारण स्थानों से पूरा स्पर्श होता है।
इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यञ्जन हैं।
हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है जैसे:-
क - वर्ग : - (कोमल तालव्य व्यंजन)
Velar consonants (produced at the soft palate)
क ख ग घ ङ
च - वर्ग : - (तालव्य व्यञ्जन)
च-वर्ग के व्यंजन स्पर्श-संघर्षी व्यञ्जन कहलाते हैं।
Palatal consonants (produced at the palate)
च छ ज झ ञ
ट - वर्ग : - (मूर्धन्य व्यञ्जन)
Cerebral consonants
(Tongue curls back to touch the palate)
ट ठ ड ढ ण
त - वर्ग : - (दन्त्य व्यञ्जन)
Dental consonants
(Tongue touches the upper teeth)
त थ द ध न
('न' का उच्चारण हिन्दी में वर्त्स्य होता है)
प - वर्ग : - (ओष्ठ्य व्यञ्जन)
Labial consonants (produced with the lips)
प फ ब भ म
स्पर्श:-वर्ग का उच्चारण स्थान👇
1-अघोष अल्पप्राण
2-अघोष महाप्राण
3-सघोष अल्पप्राण
4-सघोष महाप्राण
5-वर्णविचार
Vowels - स्वराःSanskrit Consonants - व्यञ्जनानि (३३)
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ (१३)
अयोगवाह : अनुस्वार (अं) और विसर्गः( अः)
Dependent - ा, ि, ी, ु, ू, ृ, ॄ, े, ै, ो, ौ
Simple- अ, इ, उ, ऋ, ऌ
Dipthongs:- ए , ऐ , ओ , औ
ह्रस्वाः- अ , इ , उ , ऋ , ऌ ,
दीर्घाः- आ , ई , ऊ , ॠ , ए , ऐ , ओ , औ
स्पर्श खर मृदु अनुनासिकाः
Gutturals:कण्ठय क् ख् ग् घ्
Palatals:तालव्य च् छ् ज् झ्
Cerebrals:मूर्धन्य ट् ठ् ड् ढ् ण्
Dentals:दन्त्य त् थ् द् ध् न्
Labials:ओष्ठय प् फ् ब् भ् म्
श् ष् स य र ल् व
संयुक्त व्यंजन = त्र , क्ष , ज्ञ ,श्र ,द्य
व्याख्या – सम्यक् कृतम् इति संस्कृतम्।
भाषा – संस्कृत और लिपि देवनागरी।
उच्चार स्थानह्रस्व – दीर्घ – प्लुत – (स्वर) विचार
कण्ठः – (अ‚ क्‚ ख्‚ ग्‚ घ्‚ ह्‚ : = विसर्गः )
तालुः – (इ‚ च्‚ छ्‚ ज्‚ झ्‚ य्‚ श् )
मूर्धा – (ऋ‚ ट्‚ ठ्‚ ड्‚ ढ्‚ ण्‚ र्‚ ष्)
दन्तः (लृ‚ त्‚ थ्‚ द्‚ ध्‚ न्‚ ल्‚ स्)
ओष्ठः – (उ‚ प्‚ फ्‚ ब्‚ भ्‚ म्‚ उपध्मानीय प्‚ फ्)
नासिका – (‚ म्‚ ‚ण्‚ न्)
कण्ठतालुः – (ए‚ ऐ )
कण्ठोष्ठम् – (ओ‚ औ)
दन्तोष्ठम् – (व)
जिह्वामूलम् – (जिह्वामूलीय क् ख्)
नासिका – (• = अनुस्वारः)
संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय हैं अर्थात् छन्दबद्ध और गेय हैं।
इस लिए यह जान लेना आवश्यक है कि इन रचनाओं को पढते या बोलते समय किन अक्षरों या वर्णों पर ज्यादा भार देना और किन पर कम देना होता है ।
उच्चारण की इस न्यूनाधिकता को ‘मात्रा’ द्वारा दर्शाया जाता है।
* जिन वर्णों पर कम भार दिया जाता है, वे हृस्व कहलाते हैं, और उनकी मात्रा १ होती है।
अ, इ, उ, लृ, और ऋ ये ह्रस्व स्वर हैं।
* जिन वर्णों पर अधिक जोर दिया जाता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, और उनकी मात्रा २ होती है।
आ, ई, ऊ, ॡ, ॠ ये दीर्घ स्वर हैं।
* प्लुत वर्णों का उच्चारण अतिदीर्घ होता है, और उनकी मात्रा ३ होती है जैसे कि, “नाऽस्ति” इस शब्द में ‘नाऽस्’ की ३ मात्रा होगी।
वैसे हि ‘वाक्पटु’ इस शब्द में ‘वाक्’ की ३ मात्रा होती है।
वेदों में जहाँ 3 संख्या लिखी होती है , उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है।
* संयुक्त वर्णों का उच्चारण उसके पूर्व आये हुए स्वर के साथ करना चाहिए।
पूर्व आया हुआ स्वर यदि ह्रस्व हो, तो आगे संयुक्त वर्ण होने से उसकी २ मात्रा हो जाती है; और पूर्व अगर दीर्घ वर्ण हो, तो उसकी ३ मात्रा हो जाती है और वह प्लुत कहलाता है।
* अनुस्वार और विसर्ग – ये स्वराश्रित होने से, जिन स्वरों से वे जुडते हैं उनकी २ मात्रा होती है।
परन्तु ये अगर दीर्घ स्वरों से जुडे, तो उनकी मात्रा में कोई फर्क नहीं पडता।
राम = रा (२) + म (१) = ३ याने “राम” शब्द की मात्रा ३ हुई।
वनम् = व (१) + न (१) + म् (०) = २
वर्ण विन्यास – १. राम = र् +आ + म् + अ , २. सीता = स् + ई +त् +आ, ३. कृष्ण = क् +ऋ + ष् + ण् +अ
ज्ञ वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि
'ज्ञ' वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि-
संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है।
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शिक्षा व व्याकरण के ग्रन्थों में प्रत्येक वर्ण के उच्चारण स्थान और ध्वनि परिवर्तन के आगमलोपादि नियमों की विस्तार से चर्चा है।
फिर भी "ज्ञ" के उच्चारण पर समाज में बडी भ्रान्ति है।
ज्+ञ्=ज्ञ्
कारणः-'ज्' चवर्ग का तृतीय वर्ण है और 'ञ्' चवर्ग का ही पञ्चम् वर्ण है।
जब भी 'ज्' वर्ण के तुरन्त बाद 'ञ्' वर्ण आता है तो
'अज्झीनं व्यञ्जनं परेण संयोज्यम्' इस महाभाष्यवचन के अनुसार 'ज् +ञ' [ज्ञ] इस रुप में संयुक्त होकर 'ज्य्ञ्' ऐसी ध्वनि उच्चारित होनी चाहिये।।_________________________________________
"ज्ञ"वर्ण का यथार्थ तथा शिक्षा-व्याकरण सम्मत शास्त्रोक्त उच्चारण 'ग्ञ्' ही है।
जिसे हम सभी परम्परावादी लोग सदा से ही "लोक" व्यवहार में करते आ रहे हैं।
कारणः-
तैत्तिरीय प्रातिशाख्य 2/21/12 का नियम क्या कहता है-
स्पर्शादनुत्तमादुत्तमपराद् आनुपूर्व्यान्नासिक्याः।।
इसका अर्थ है- अनुत्तम, स्पर्श वर्ण के तुरन्त बाद यदि उत्तम स्पर्श वर्ण आता है तो दोनों के मध्य में एक नासिक्यवर्ण का आगम होता है।
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यही नासिक्यवर्ण शिक्षा तथा व्याकरण के ग्रंथों में यम के नाम से प्रसिद्ध है।
'तान्यमानेके' (तै॰प्रा॰2/21/13)
इस नासिक्य वर्ण को ही कुछ आचार्य 'यम' कहते हैँ।
प्रसिद्ध शिक्षाग्रन्थ 'नारदीयशिक्षा' में भी यम का उल्लेख है।
अनन्त्यश्च_भवेत्पूर्वो_ह्यन्तश्च_परतो_यदि।
तत्र_मध्ये_यमस्तिष्ठेत्सवर्णः_पूर्ववर्णयोः।।
औदव्रजि के 'ऋक्तंत्रव्याकरण' नामक ग्रंथ में भी 'यम' का स्पष्ट उल्लेख है।
'अनन्त्यासंयोगे_मध्ये_यमः_पूर्वस्य_गुणः' अर्थात् वर्ग के प्रारम्भिक चार वर्णो के बाद यदि वर्ग का पाँचवाँ वर्ण आता है तो दोनो के बीच 'यम' का आगम होता है,
जो उस पहले अन्तिम-वर्ण के समान होता है।💐
प्रातिशाख्य के आधार पर यम को परिभाषित करते हुए सरल शब्दों में यही बात भट्टोजी दीक्षित भी लिखते हैँ-
"वर्गेष्वाद्यानां_चतुर्णां_पंचमे_परे_मध्य_यमो_नाम_पूर्व_सदृशो_वर्णः_प्रातिशाख्ये_प्रसिद्धः"
-सि॰कौ॰12/ (8/2/1सूत्र पर)
भट्टोजी दीक्षित यम का उदाहरण देते हैँ।
पलिक्क्नी 'चख्खनतुः' अग्ग्निः 'घ्घ्नन्ति'।
यहाँ प्रथम उदाहरण मेँ क् वर्ण के बाद न् वर्ण आने पर बीच में क् का सदृश यम कँ(अर्द्ध) का आगम हुआ है। दूसरे उदाहरण मेँ खँकार तथैव गँकार यम, घँकार यम का आगम हुआ है।
अतः स्पष्ट है कि यदि अनुनासिक स्पर्श वर्ण के तुरन्त बाद अनुनासिक स्पर्श वर्ण आता है; तो उनके मध्य में अनुनासिक स्पर्श वर्ण के सदृश यम का आगम होता है।
प्रकृत स्थल में-
ज् + ञ् इस अवस्था में भी उक्त नियम के अनुसार यम का आगम होगा।
किस अनुनासिक वर्ण के साथ कौन से यम का आगम होगा।विस्तारभय से सार रुप दर्शा रहे हैँ।
तालिक देखें-
स्पर्श अनुनासिक वर्ण यम
क् च् ट् त् प् कँ्
ख् छ् ठ् थ् फ् खँ्
ग् ज् ड् द् ब् गँ्
घ् झ् ढ् ध् भ् घँ्
यहाँ यह बात ध्यातव्य है कि यम के आगम में जो 'पूर्वसदृश' पद प्रयुक्त हुआ है , उसका आशय वर्ग के अन्तर्गत संख्या क्रमत्वरुप सादृश्य से है
सवर्णरुप सादृश्य से नहीँ।
ये बात उव्वट और माहिषेय के भाष्यवचनों से भी पूर्णतया स्पष्ट है ।
जिसे भी हम विस्तारभय से छोड रहे हैं।
अस्तु हम पुनः प्रक्रिया पर आते हैं-
ज् ञ् इस अवस्था मेँ तालिका के अनुसार 'ग्'यम का आगम होगा-
ज् ग् ञ् ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर चोःकु: [अष्टाध्यायी सूत्र 8/2/30] सूत्र प्रवृत्त होता है।
'ज्' चवर्ग का वर्ण है और 'ग' झल् प्रत्याहार मेँ सम्मिलित है, अतः इस सूत्र से 'ज्' को कवर्ग का यथासंख्य 'ग्' आदेश हो जायेगा।
तब वर्णोँ की
स्थिति होगी-
ग् ग् ञ् इस प्रकार हम देखते हैँ कि ज् का संयुक्त रुप से 'ज्ञ' उच्चारण की प्रक्रिया में उपर्युक्त विधि से 'ग् ग् ञ्' इस रुप से उच्चारण होता है।
यहाँ जब ज् रुप ही शेष नहीं रहा तो 'ज् ञ्' इस ध्वनिरुप मेँ इसका उच्चारण कैसे हो सकता है?
अतः 'ज्ञ' का सही एवं शिक्षा-व्याकरणशास्त्र सम्मत उच्चारण 'ग्ञ्' ही है।।
सम्प्रसारण की परिभाषा :-
[सं० सम्प्रसारण] :- फैलाना । विस्तार करना ।
२. संस्कृत व्याकरण में य्, व् र्, ल् का इ, उ, ऋ और लृ में परिवर्तन ।
यजते, यजति वचिस्वपियजादीनां किति (61 15)
सम्प्रसारणम् -. यजते, यजति इज्यते, इष्टः,
इष्टिः लिट्यभ्यासस्योभयेषाम् (6117)
वाचयति, वचति, वाच्यते, वच्यते चन्द्रः संदेशे चुरादिमाह अदादौ (257)
वक्ति, उच्यते, स्वपिसाहचर्याद् (6115) आदादिकस्य संप्रसारणम् 287
- वक्ति । वक्तः । वक्षि । वच्मि । अन्तवचनस्यानभिधानमाचक्षते । उवाच । ऊचतुः । ऊचुः । उवक्थ । उवचिथ । वक्ता । अवोचत् । अवोचताम् । अवोचन् । ब्रुवो वचिः (2/4/53)
The alphabet is made up of 26 letters, 5 of which are vowels (a, e, i, o, u) and the rest of which are consonants.
A vowel is a sound that is made by allowing breath to flow out of the mouth, without closing any part of the mouth or throat.
A consonant is a sound that is made by blocking air from flowing out of the mouth with the teeth, tongue, lips or palate ('b' is made by putting your lips together, 'l' is made by touching your palate with your tongue).
The letter 'y' makes a consonant sound when at the beginning of a word ('yacht', 'yellow') but a vowel sound when at the end of a word ('sunny', 'baby').
अंग्रेजी वर्णमाला भी 26 अक्षरों से बनी है, जिनमें से 5 स्वर स्थाई (ए, ई, आई, ओ, यू) हैं और बाकी दो स्वर दौनों भूमिकाओं में हैं ।
स्वर भी और व्यञ्जन भी
एक स्वर एक ध्वनि है जो मुंह या गले के किसी भी हिस्से को बन्द किए बिना श्वाँस को मुंह से बाहर निकलने की अनुमति देता है।
व्यञ्जन एक ध्वनि है जो हवा को मुख से दाँतों, जीभ, होंठ या तालु से बहने से रोककर बनाया जाता है
('बी' आपके होंठों को एक साथ रखकर बनाया गया है, 'एल' आपके तालु को आपकी जीभ से छूकर बनाया गया है। )।
'Y' अक्षर एक शब्द की शुरुआत में 'ध्वनि', 'Yellow यलो' ), हो तो यह व्यञ्जन है और एक स्वर तब होता है जब एक शब्द जैसे ('सनी Sunny', Baby 'बेबी') के अंत में ई स्वर की ध्वनि उत्पन्न करता है।
'W' अक्षर भी -वाई के सदृश्य है ।⬇
शब्दों के निर्माण खंडों को सीखना - ध्वनियों, उनके वर्तनी और शब्द भागों
व्यंजन और स्वर के बीच का अंतर
अंग्रेजी में पाँच स्वर और 21 व्यंजन हैं,
स्वर और व्यंजन ध्वनियाँ हैं, अक्षर नहीं।
आपके उच्चारण और आप उन्हें कितना पतला करते हैं, इसके आधार पर, लगभग 20 स्वर और 24 व्यंजन हैं।
स्वर और व्यंजन के बीच का अंतर
स्वर एक भाषण ध्वनि है जो आपके मुंह के साथ काफी खुली हुई है, एक बोले गए शब्दांश का नाभिक है।
एक व्यंजन एक ध्वनि है जो आपके मुंह के साथ काफी बंद है।
जब हम बात करते हैं, व्यंजन स्वरों की धारा को तोड़ते हैं (शब्दांश और कोड्स के रूप में कार्य करते हैं), ताकि हम ध्वनि न करें जैसे कि हम सिर्फ चार भरने के लिए दंत चिकित्सक के पास गए हैं और संवेदनाहारी अभी तक खराब नहीं हुई है।
स्वरों की तुलना में संगीतकारों को अधिक सटीक अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है, यही कारण है कि बच्चे उन्हें सीखने में कठिन पाते हैं, और अक्सर भाषण चिकित्सा में समाप्त हो जाते हैं ताकि समझ में न आए कि वे लोगों को मारना शुरू कर दें।
गंभीर भाषण ध्वनि कठिनाइयों (जिसे अक्सर डिस्प्रैक्सिया या एप्रेक्सिया कहा जाता है) वाले कुछ ही बच्चों को स्वरों को सही ढंग से उत्पन्न करने में मदद करने के लिए कभी-कभी चिकित्सा की आवश्यकता होती है।
अधिकांश सिलेबल्स में एक स्वर होता है, हालांकि स्वर जैसे व्यंजन कभी-कभी सिलेबल्स हो सकते हैं।
और मामलों को जटिल करने के लिए, कई अंग्रेजी स्वर तकनीकी रूप से दो या तीन स्वर हैं, जिन्हें एक साथ जोड़ा जाता है।
लगभग लोग स्वर और व्यंजन के बीच एक प्रकार के भाषाई धूसर क्षेत्र पर कब्जा कर लेते हैं, वास्तव में "w" और "y" को अर्धवृत्त के रूप में भी जाना जाता है।
व्यंजन ध्वनि "y" और स्वर ध्वनि "ee" के बीच "देखना / समुद्र / मुझे", और व्यंजन ध्वनि "w" और स्वर ध्वनि "ooh" के बीच "चंद्रमा" या नियम / नियम के बीच बहुत कम अंतर है।
इन ध्वनियों को व्यंजन के रूप में वर्गीकृत किया जाता है क्योंकि वे आम तौर पर व्यंजन की तरह व्यवहार करते हैं, अर्थात, वे (न इन) शब्दांशों में शब्दांश नाभिक नहीं होते हैं।
सिलेबिक व्यंजन
कई अंग्रेजी बोलियों में, ध्वनि "एल" अपने आप में "बोतल" और "मध्य" जैसे शब्दों में एक शब्दांश हो सकता है।
यह "बटन" और "हिडन" जैसे शब्दों में ध्वनि "n" का भी सच है।
इन शब्दों में, जीभ ने केवल "t" या "d" कहा है, इसलिए यह पहले से ही स्वर के बिना सीधे "l" या "n" ध्वनि में जाने के लिए सही जगह पर है। हालाँकि, हम अभी भी इस शब्दांश (ले, ऑन, एन) में एक "स्वर वर्ण" लिखते हैं और हम दूसरे शब्दों में एक समान ध्वनि बोलते हैं, जैसे "विशाल" और "डब्बल", "रिबन" और "बेकन"। , "होता है" और "एम्बिगन"।
ध्वनि "एम" भी "लय" और "एल्गोरिथ्म" जैसे शब्दों में एक शब्दांश के रूप में कार्य कर सकता है, क्योंकि ध्वनि "वें" और "एम" एक साथ शारीरिक रूप से बहुत करीब हैं। इस मामले में हम अंतिम शब्दांश में एक "स्वर पत्र" नहीं लिखते हैं, लेकिन हम "स्वरवाद" और "आलोचना" जैसे वर्तनी वाले अधिकांश शब्दों के अंतिम शब्दांश में एक स्वर ध्वनि कहते हैं।
प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार रोहि-
★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-★
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