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गोपों की किशोरीयाँ जब प्राचीन काल में गायों का दूध दुहती थीं; तब उन्हें दुहिता
कहा गया- गायत्री वेदों के अधिष्ठात्री पद पर आसीना महादेवी अहीरों की ही कन्या थीं जो दधि और गोरस की मटकी लिए पद्मपुराणकार ने वर्णित कीं हैं ।
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता ॥१४॥
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये॥१५॥
अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये ॥१६॥
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले ॥१७॥
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय( 17)
उपर्युक्त श्लोक संख्या १४ में श्लोक के उत्तरार्द्ध में गायत्री के लिए दुहिता शब्द श्लेषमयी अर्थ को सूचित करता है। दूध दुहने वाली पुत्री!
"दोग्धि गा इति दुहिता(ऋ) पूर्वकालेैव न अपितु अधुनातनेव कन्यासु एव गोदोहनभारस्थितेस्तथात्वम् दुहिता कथ्यते। (दुह +“नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृपातृभ्रातृजामातृमातृपितृदुहितृ ”उणादि प्रत्यय सूत्र इति तृच् ।२।९६ ।
अर्थ:- गायों का दूध दुहने वाली दुहिता कहलाती है। पूर्वकाल में ही नही अपितु आधुनिक युग में भी ग्रामीण क्षेत्रों में प्राय: कन्याऐं ही गाय-भैंसों
दूध दुहती हैं।
दुहिता–‹ द्विहिता« "दो कुलों की हित- कारिणी "
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महर्षि दयानन्द ने निरुक्त को आधार मान कर दुहिता शब्द की व्युत्पत्ति अपने पूर्वग्राह से की " "दूरे हिता इति दुहिता " अर्थात् दूर देश में ही जिसका हित सम्भव है 'वह दुहिता है ।
यह व्युत्पत्ति जो पूर्ण रूप से तत्कालीन परिस्थितियों को प्रतिबिम्बित करती है।
शब्द व्युत्पत्ति में स्वामी जी का पूर्वदुराग्रह स्पष्ट परिलक्षित होता है।
दुहितृ शब्द के प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप दुहिता है।
परन्तु (द्वि+ हित + तृच् + टाप् प्रत्यय) से निष्पन्न दुहिता शब्द लड़की के लिए संस्कृत में प्राचीन काल से प्रचलन में है।
यादव योगेश कुमार रोहि" की व्युत्पत्ति के अनुसार -दुहिता शब्द दोग्धा- शब्द का स्त्रीलिंग रूप ही दुहिता है।
इस रूप में उसकी व्युत्पत्ति सांस्कृतिक है :- "गायों के दूध का दुहने वाली"
भारत में सर्वप्रथम और प्राचीन गोपालक जाति के रूप में आभीरों (आहीरों ) का शास्त्रों में प्रचुर उल्लेख है।
दुह--तृच् । दोहनकर्त्तरि - गोपाल।
दुग्ध और दुहितृ का सम्बन्ध बहुत प्राचीन है। आभीर समाज में आज तक गाँवों में गाय हैं के दूध को दुहने का कार्य अहीर कन्याऐं करती हैं।
संस्कृत में √दुह् धातु( क्रिया का मूल रूप) दूध दुहने के अर्थ में है।
इसी धातु से बने शब्द हैं दुग्ध और दुहितृ अर्थात् पुत्री।
यह दुहितृ मूलतः आदि भारत यूरोपीय- क्रिया-( द्धेघ) *dʰewgʰ के रूप में विद्यमान है। जो संस्कृत भाषा में दुह्-दूध दुहना । के रूप में उपस्थित है।
यूरोप भारत और एशिया की अनेक भाषाओं में यह शब्द आज भी इसी अर्थ में उपस्थित है।
इस जैसे अनेक शब्दों की व्यापक रोचक उपस्थिति सिद्ध करती है कि भाषाएँ परस्पर कितनी मिली हुई हैं।
अंग्रेजी में डॉटर- daughter,
पर्शियन (फारसी) में दुख़्तर دختر , से तो हम परिचित हैं।
इनके अतिरिक्त अनेक मध्य एशियाई भाषाओं पश्तो, अवेस्ता, लिथुआनियन, ग्रीक, रूसी आदि में थोड़े से भिन्न उच्चारण के साथ किंतु इसी अर्थ में यह शब्द मिल जाएगा।
संस्कृत में अन्य कुछ शब्द भी दुह्/ दुहितृ से बने हैं। जैसे: दौहित्र ( पुत्री का पुत्र धैवता ),
दौहित्री ( धैवती),
हिंदी में दुहना क्रिया इसी दुह् से व्युत्पन्न है। कुछ अन्य शब्द हैं - दोहन, दुग्ध > दूध, दोग्धा (दुहने वाला गोप )।
पंजाबी और हिंदी में ग्रामीण शब्द "धी" शब्द भी दुहितृ से बना बेटी के अर्थ में है। जैसे किसी की "धी- बेटी "
दोग्धा के प्रसंग में याद आया कि गीता की महिमा में कहा गया है:
"सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।
अनुवाद-
“समस्त उपनिषद गायों के समान हैं, उन्हें दुहने वाला गोपाल श्रीकृष्ण हैं।
उस दुग्ध का प्रथम आस्वादन करने वाला बछड़ा अर्जुन है और बछड़े से बचे गीतामृत का पान करने वाले शुद्ध बुद्धि वाले जन हैं।”
वेदों में विष्णु को गोप कहा गया है। विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है - 'तद् विष्णो : परमं पदं पश्यन्ति सूरयः।
दिवीव चक्षुराततम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।
सायणभाष्य-
"सूरयः =विद्वांस ऋत्विगादयः “विष्णोः संबन्धि “परमम् उत्कृष्टं “तत् शास्त्रप्रसिद्धं “पदं स्वर्गस्थानं शास्त्रदृष्ट्या सर्वदा “पश्यन्ति । तत्र दृष्टान्तः । “दिवीव = आकाशे यथा “आततं =सर्वतः प्रसृतं “चक्षुः निरोधाभावेन विशदं पश्यति तद्वत् ॥
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तद्विप्रा॑सो विप॒न्यवो॑ जागृ॒वांस॒: समि॑न्धते ।
विष्णो॒र्यत्प॑र॒मं प॒दम् ॥२१।।
पूर्वोक्तं “विष्णोः “यत् “परमं “पदम् अस्ति “तत् पदं “विप्रासः= मेधाविनः “समिन्धते= सम्यक् दीपयन्ति। कीदृशाः। “विपन्यवः= विशेषेण स्तोतारः "जागृवांसः =शब्दार्थयोः प्रमादराहित्येन जागरूकाः।। विप्रासः ‘आज्जसेरसुक्'। विपन्यवः= स्तुत्यर्थस्य पनेः बाहुलक औणादिको युप्रत्ययः । तत्र प्रत्ययस्वरः । जागृवांसः=' जागृ निद्राक्षये '। लिटः क्वसुः । क्रादिनियमाप्राप्तस्य इटः ‘वस्वेकाजाद्धसाम् ' ( पा. सू. ७. २. ६७ ) इति नियमात् निवृत्तिः ॥ ७ ॥
ऋग्वेद में ही विष्णु के विषय मैं कहा है।
विष्णु अजय गोप हैं, गोपाल हैं, रक्षक हैं और उनके गोलोक धाम में गायें हैं - 'विष्णुर्गोपा' अदाभ्यः (ऋग्वेद १/२२/१८) 'यत्र गावो भूरिश्रृंगा आयासः (ऋग्वेद १/१५) ।
विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती लौकिक कथाओं में लोकप्रिय हुए।
ऋग्वेद में विष्णु को गोप, एक गायों का चरवाहा कहा गया है। जिनका स्थान 'कई सींग वाली तेजी से चलने वाली गायों' के पास है। यह एक प्रकार से बाद के पुराणों द्वारा वर्णित कृष्ण का गोलोक है।
ऋग्वेद दशम मंडल के 62 वें सूक्त की 10 वीं ऋचा में यदु का गोप के रूप में गायों से घिरा हुआ उल्लेख किया गया है।
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दुहिता शब्द द्वितीय प्राकृतिक व्युत्पत्ति भी शाश्वत और भारतीय परम्पराओं के अनुरूप है।
"द्वे हिते यया सा पितृग्रहेव पतिग्रहेव च इति दुहिता कथ्यते "
अर्थात् जिसके द्वारा पति तथा पिता दौनौं के गृहों (कुलों ) का हित सम्पादित होता है।:- वह दुहिता है ---
यह व्युत्पत्ति निरुक्त में देवर शब्द की व्युत्पत्ति के साम्य सादृश्य पर सैद्धान्तिक है।
वास्तव में पुत्री इसी लिए दुहिता संज्ञा से अभिहित की गयी है।
सामाजिक तथा सांस्कृतिक विश्लेषणों से भी यह बात पूर्ण रूपेण सार्थक व प्रमाणित भी है ।
अत: प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं - दुहिता का सबसे अधिक हित भाव पिता के ही प्रति होता है तथा उसके बाद पति के हितभाव की सम्पादिका है .
विदित ही है कि व्युत्पत्ति शास्त्र के विश्लेषक मनीषीयों में महर्षि यास्क ने इसकी तीन व्युत्पत्ति दर्शायी हैं-
(1) 'दूरे हिता भवति' अर्थात् जिसका दूर में ही हित होता है ।
(2) 'दुहिता दुर्हिता' अर्थात् सुन्दर एवं सुयोग्य वर खोजकर जिसका हितसाधन करना अत्यन्त दुर्लभ हो
(3) 'दोग्धेर्वादुहिता' अर्थात् दोहन करने से -दुहिता अर्थात् कन्या सदैव पिता से कुछ न कुछ दोहन करती है, इसलिए दुहनेवाली होने से वह दुहिता कही जाती है।
(4) गावो दोग्धेर्वा अर्थात् --जो गायें को दुहती है।
परन्तु यह व्युत्पत्ति आनुमानिक तथा काल्पनिक है , दुहिता शब्द की वास्तविक व सार्थक व्युत्पत्ति हमने भारोपीय भाषा के तीन हज़ार शब्दों की व्युत्पत्ति श्रृंखला के सन्दर्भ में की है ।
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जो दुहिता के जीवन की वास्तविकता को अभिव्यञ्जित करती है !
"निरूक्त में लिखा है कि कन्या का 'दुहिता' नाम इस कारण से है कि इसका विवाह दूर देश (स्थान) में होने से हितकारी होता है, निकट करने में नहीं |"
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने
( सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास ) में केवल रूढ़िवादी परम्पराओं के अनुरूप स्वीकृत दी है ।
वैसे भी आर्य - समाजीयों में वेदों में इतिहास को स्वीकार नहीं किया जाता है।
परन्तु इतिहास का सशक्त श्रोत केवल वेद ही हैं ।
हिन्दी भाषाओं की स्थानीय बोलीयों में कहीं धी तो कहीं धिय आदि रूपों में है ।
समस्त भारत - यूरोपीय भाषाओं में यह शब्द विद्यमान है ।
फारसी में (दुख़्तर) के रूप में अंग्रेजी में डॉटर (Doughter) तो ग्रीक में दुग्दर आदि . दुहितृ शब्द के भारोपीय भाषा में प्राप्त रूपों का आँशिक विवरण निम्न है ।
वैकल्पिक रूपों का निरूपण ----
(dafter) दाफ्तर (अप्रचलित)
डूटर (अप्रचलित)
व्युत्पत्ति --
मध्य इंग्लिश में डॉट्टर(doughter) शब्द से, पुरानी अंग्रेज़ी डोह्टर(dōhtor) का रूप, प्रोटो-जर्मनिक डुहटिर(duhtēr) (गॉथिक (dauhtar) (दौहतर), स्कॉट्स(dochter) डूटर, वेस्टफ्रिशिया (dochter) डचटर,
डच(dochter )डचटर,
जर्मन (Tochter)टूचटर,
स्वीडिश (dotter)डॉट्टर) से साम्य प्रोटो-इंडो-यूरोपीय (dhugh₂tḗr ) डूघट्टर से
( प्राचीन यूनानी θυγάτηρ (thugátēr), गोलियों (प्राचीन -फ्रॉञ्च )में duxtīr, tocharian a cakar, tocharian b tkaser, लिथुआनियाई duktė, अर्मेनियाई դուստր (धूल), फारसी دختر (doχtar) दुख़्तर
संस्कृत दुहितृ (duhitṛ)) की तुलना करें ।
समानता पूर्ण रूपेण है ।
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Alternative forms वैकल्पिक अवस्थाऐं
dafter (obsolete)
douȝter (obsolete)
Etymology-- व्युत्पत्ति -
From Middle English (doughter), from Old English (dōhtor,) from Proto-Germanic (duhtēr☘ ) ।
compare Gothic: - (dauhtar), Scots :-dochter,।
West Frisian :-dochter,
Dutch dochter, German Tochter,
Swedish dotter), from Proto-Indo-European dhughtḗr (compare ..
Ancient Greek (θυγάτηρ) (thugátēr),
Gaulish (duxtīr,) Tocharian
A (ckācar,) Tocharian
B (tkācer,
(Lithuanian duktė̃,
Armenian (դուստր)(dustr),
Persian دختر (doχtar),
Sanskrit दुहितृ (duhitṛ)
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महर्षि दयानन्द ने निरुक्त को आधार मान कर यह व्युत्पत्ति दुहिता शब्द की " दूरे हिता इति दुहिता अर्थात् दूर देश में ही जिसका हित सम्भव है!
परन्तु यह व्युत्पत्ति आनुमानिक तथा काल्पनिक है। निश्चित रूप इस प्रकार आनुमानिक व्युत्पत्ति करने के मूल मे तत्कालिक समाज की पुत्रीयों के प्रति भावना ध्वनित होती है ।
महर्षि दयानन्द वस्तुत दुहिता शब्द की यह व्युत्पत्ति स्वयं नहीं की, अपितु यास्क की व्युत्पत्ति उद्धृत की है।
महर्षि दयानन्द के आर्य- समाज के रूप में सुधारात्मक प्रयासों को क्रियान्वित किया और इस कारण ही आज भारतीय संस्कृति जीवन्त है !
परन्तु वेदों के भाष्य करनें में इन्होंने शब्दों की व्युत्पत्ति की धातु योगज शैली अपनाकर केवल कींचड़ को साफ करने का ही उपक्रम किया ।
और अर्थ का अनर्थ है । परन्तु कींचड़ का अस्तित्व बना रहा ।
वास्तव में पुत्री इसी लिए दुहिता संज्ञा से अभिहित की गयी है।
यह सामाजिक तथा सांस्कृतिक विश्लेषणों से भीे यह बात पूर्ण रूपेण सार्थक व प्रमाणित भी है।
दुहिता का सबसे अधिक हित भाव पिता के ही प्रति होता है तथा उसके बाद पति के हितभाव के
प्रति - समर्पित है दुहिता शब्द की रूढ़िवादी व्युत्पत्ति कोश ग्रन्थों में इस प्रकार है ।
यो दोग्धि विवाहादिकाले धनादिकमाकृष्य गृह्णातीति । यद्बा दोग्धि गा इति ।
आर्षकाले कन्यासु एव गोदोहनभारस्थितेस्तथात्वम् ।
दुह + तृच् :- दुहितृ duhitṛ । तृच् उणादि प्रत्ययः “नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृपातृभ्रातृजामातृमातृपितृदुहितृ ”
दुह् + तृच् उणादि । २।९६। इति तृच् ।
निपातनात् गुणाभावः) कन्या । इत्यमरःकोश
वस्तुत - दुहिता शब्द की व्युत्पत्ति मूल रूप से यास्क की न होकर भिन्न काल खण्ड की भौतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक दशा को पुत्रीयों के प्रति-ध्वनित करती हैं। यास्क इसके संकलन-कर्ता हो सकते हैं।
तीसरी व्युत्पत्ति गोपालक जन-जातियों की उस युग की स्मृतियों को प्रतिबिम्बित करती है जब समाज पूर्ण रूप से पितृसत्ता के अधीन न हुआ था। मातृ सत्ता पर आधारित था। जब घर की पूर्ण जिम्मेदारी गोप पुत्रीयाँ तथा उनकी पत्नी माता आदि निर्वहन करती थीं।
जैसा कि सैमेटिक संस्कृतियों की असीरियन शाखा में है ।
सम्पत्ति का हस्तान्तरण पिता से पुत्र को न होकर माता से पुत्री को होता रहा होगा।
पशु ही पहले पशुपालक जन-जातियों की सम्पत्ति के एकमात्र रूप थे।
पशु और गौ शब्द परस्पर पर्याय वाची रूप थे ।
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तब ये आर्य गोप अथवा गौश्चर के रूप थे ।
और आभीर, जाट गुज्जर आदि जन-जाति जातियाँ सजातिय रूप में विश्व के प्रारम्भिक चरावाहे रहे ।
और कालान्तरण में यही कृषक हुए ।
ये चरावाहे आरी या आरे से युद्ध तथा कृषि क्रियाऐं करनें में बड़े कुशल थे । कालान्तरण में आर्य शब्द यौद्धा अथवा वीर का वाचक हुआ।
गोपिकाओं की भूमिका वस्तुत -दुहिता की भूमिका रही है ।
निश्चित रूप से तब दूध दुहने का काम लड़कियाँ ही सम्पन्न करती रही होंगी।
अकारण नहीं है कि वैदिक संस्कृत में दुहितृ शब्द का अर्थ दुहनेवाली है।
गो शब्द भी भारोपीय वर्ग की भाषाओं में है ।
यह संस्कृत गौ: द्वारा प्रदान किए गए अपने अस्तित्व का अवधारणा मूलक स्रोत अथवा साक्ष्य हैं।
ग्रीक बॉस,-bous
लैटिन बोस,-bos,
पुराना आयरिश बो,-bo
लातवियाई गुओव्स,-guovs
अर्मेनियाई गौस,-gaus
पुरानी अंग्रेज़ी कु-cu
जर्मन कुह-,Kuh
पुराने नॉर्स कीर,-kyr
स्लोवाक होवाडो- hovado
जैसे लिथुआनियाई कार्वो, ओल्ड चर्च स्लावोनिक क्राव का सम्बन्ध भी गो शब्द से है ।
It is the hypothetical source of evidence for its existence is provided by
Sanskrit- gaus,
Greek- bous,
Latin -bos,
Old Irish- bo,
Latvian -guovs,
Armenian -gaus,
Old English -cu,
German- Kuh,
Old Norse -kyr,
Slovak -hovado
Sumerian -Gu
"Other "cow" words sometimes are from roots meaning "horn, horned,"
such as Lithuanian karvė, Old Church Slavonic krava.
और आगे इसी अध्याय में श्लोक संख्या १५६ व १५८ पर गायत्री को गोप कन्या कहा है। जो नित्य ही गायों का दूध दुहती है। और विक्रय करने हेतु नगर में जाती है।
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गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम्।।१५६।।
अनुवाद:-गोप कन्या ने कहा वीर मैं यहाँ गोरस बेचने के लिए उपस्थित हूँ; यह नवनीत मक्खन है यह शुद्ध दुग्ध मण्ड से रहित है।१५६।।
निम्न श्लोक में वर्णन है कि विशाल नेत्र वाली गौर वर्ण महान तेज वाली गोप कन्या गायत्री दुग्ध दोहन के कार्य में भी दक्षा है ।
दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परन्तप।
अर्थी येनासि तद्ब्रूहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्।।१५७।।__________________________________
श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गायत्रीसंग्रहोनाम षोडशोऽध्यायः१६।
यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द । अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं ।
जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है ।
क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति (कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।
उपर्युक्त श्लोक आभीर कन्याओं की दिनचर्या पर भी प्रकाशन करता है। जो गायों का दूध दुहने वाली और गायों की नित्य सेवा करने वाली भी होती थीं।
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