सोमवार, 6 मार्च 2023

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ वेदों में पुरुष और पुरुषों में उत्तम तथा मूर्ति पूजा का विधान -

(शरीर, आत्मा और परमात्मा का वर्णन)

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ (१६)

भावार्थ : हे अर्जुन! संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर), इनमें समस्त जीवों के शरीर तो नाशवान होते हैं और समस्त जीवों की आत्मा को अविनाशी कहा जाता है। (१६)

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ (१७)

भावार्थ : परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष है जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणीयों का भरण-पोषण करता है। (१७)

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ (१८)

भावार्थ : क्योंकि मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिये इसलिए संसार में तथा वेदों में पुरुषोत्तम रूप में विख्यात हूँ। (१८)

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌ ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ (१९)

भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! जो मनुष्य इस प्रकार मुझको संशय-रहित होकर भगवान रूप से जानता है, वह मनुष्य मुझे ही सब कुछ जानकर सभी प्रकार से मेरी ही भक्ति करता है। (१९)

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥ (२०)

भावार्थ : हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह शास्त्रों का अति गोपनीय रहस्य मेरे द्वारा कहा गया है, हे भरतवंशी जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान हो जाता है और उसके सभी प्रयत्न पूर्ण हो जाते हैं। (२०)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तम-योग नाम का पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

अदो यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् । तदार स्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ॥

(ऋग्वेद १०। १५५। ३) अदः (दूरमें), यत् (जो), अपूरुषम् (जो पुरुष द्वारा निर्मित नहीं है), दारु (काष्ठमय पुरुषोत्तमाख्य देव शरीर), सिन्धोः (समुद्र के), पारे (तट पर), प्लवते (जलके ऊपर है), हे दुर्हण (स्तोता), तत् (वह), आरभस्व (अवलम्बन करो), तेन (उसके द्वारा), गच्छ परस्तरम् (उत्कृष्ट स्थान वैकुण्ठ) को प्राप्त हो।

'हे उपासक! दूर देशमें समुद्र के तट पर जल के ऊपर जो दारुब्रह्मा की मूर्ति है, जो किसी मनुष्य से निर्मित नहीं है, उसकी आराधना करके उनकी कृपा से वैकुण्ठ को प्राप्त हो ।'

उड़ीसा प्रांत में भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि की हाथी गुफा में कलिंगराज खारवेल की जो लिपि है, उसमें भी नीम के काष्ठ से निर्मित मूर्ति का उल्लेख मिलता है। खारवेल चन्द्रगुप्त के १५० वर्ष बाद हुए हैं।

सनातन धर्म के समग्र शास्त्र वेदमूलक हैं।

पुरुष सूक्तम

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।         स भूमिँसर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङगुलम्।। 

 जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ।।1।।
 पुरुषऽएवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।2।।
 जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ।।2।।
 एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः।
पादोઽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।3।।
 विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ।।3।।
 त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।
 ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनऽअभि।4।
 चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं ।।4।।
 
ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः।
स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः।5।
 
उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ।।5।|
 
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।6।
 
उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ।6।।
 
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऽऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।7।।
 
(उस विराट यत्र पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ।।7।।
 
तस्मादश्वाऽअजायन्त ये के चोभयादतः।
 गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताऽअजावयः।8।
 
उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए ।।8।।
 
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।
 तेन देवाऽअयजन्त साध्याऽऋषयश्च ये ।।9।।

 मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया ।।9।।

 यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
 मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाऽउच्येते ।।10।।
 
संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानी जन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ।।10।।
 
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रोऽअजायत ।।11।।
 
(विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण हुए । बाहू राजन्य-क्षत्रिय किये गये। और उसके ऊरू वैश्य एवं दोनों पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए ।।11।।
 
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादिग्निरजायत ।।12।।
 
विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा चक्षु से सूर्य और कर्मों से व नाभी से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई।कानों से वायु और प्राण  और मुख से अग्नि उत्पन्न हुई। ।।13।।
 
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
 वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः।।14।।
 
जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ।।14।।
 
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।
 देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽअबध्नन् पुरुषं पशुम् ।।15।।
 
देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ।।15।।
 
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
 ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।।16।।
 
आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ।।16।।
 
 शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!

छान्दोग्योपनिषद- 8.12.3

"एवमेवैष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते स उत्तमपुरुषः स तत्र पर्येति जक्षत्क्रीडन्रममाणः स्त्रीभिर्वा यानैर्वानाज्ञाभिर्वा नोपजनं स्मरनिदं शरीरं स यथा प्रयोग्य आचरण युक्त एवमेवयमस्मिञ्छरीरे प्राणो युक्तः ॥ 8.12.3 ॥

3. इसी प्रकार आनन्दमय आत्मा शरीर से उत्पन्न होकर विश्व आत्मा के प्रकाश को प्राप्त कर अपने स्वरूप में प्रकट होता है। यह परमात्मा है , लौकिक स्व। फिर वह स्वतंत्र रूप से महिलाओं, गाड़ियों, या रिश्तेदारों के साथ खाने, खेलने, या आनंद लेने के लिए विचरण करता है, उसे यह याद नहीं रहता कि वह किस शरीर में पैदा हुआ था। जिस प्रकार घोड़ों या बैलों को गाड़ी में जोता जाता है, उसी प्रकार प्राण [जीवन] शरीर में [ कर्म के कारण ] कसा हुआ रहता है।


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