द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ (१६)
भावार्थ : हे अर्जुन! संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर), इनमें समस्त जीवों के शरीर तो नाशवान होते हैं और समस्त जीवों की आत्मा को अविनाशी कहा जाता है। (१६)
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ (१७)
भावार्थ : परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष है जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणीयों का भरण-पोषण करता है। (१७)
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ (१८)
भावार्थ : क्योंकि मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिये इसलिए संसार में तथा वेदों में पुरुषोत्तम रूप में विख्यात हूँ। (१८)
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ (१९)
भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! जो मनुष्य इस प्रकार मुझको संशय-रहित होकर भगवान रूप से जानता है, वह मनुष्य मुझे ही सब कुछ जानकर सभी प्रकार से मेरी ही भक्ति करता है। (१९)
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥ (२०)
भावार्थ : हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह शास्त्रों का अति गोपनीय रहस्य मेरे द्वारा कहा गया है, हे भरतवंशी जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान हो जाता है और उसके सभी प्रयत्न पूर्ण हो जाते हैं। (२०)
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तम-योग नाम का पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
अदो यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् । तदार स्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ॥
(ऋग्वेद १०। १५५। ३) अदः (दूरमें), यत् (जो), अपूरुषम् (जो पुरुष द्वारा निर्मित नहीं है), दारु (काष्ठमय पुरुषोत्तमाख्य देव शरीर), सिन्धोः (समुद्र के), पारे (तट पर), प्लवते (जलके ऊपर है), हे दुर्हण (स्तोता), तत् (वह), आरभस्व (अवलम्बन करो), तेन (उसके द्वारा), गच्छ परस्तरम् (उत्कृष्ट स्थान वैकुण्ठ) को प्राप्त हो।
'हे उपासक! दूर देशमें समुद्र के तट पर जल के ऊपर जो दारुब्रह्मा की मूर्ति है, जो किसी मनुष्य से निर्मित नहीं है, उसकी आराधना करके उनकी कृपा से वैकुण्ठ को प्राप्त हो ।'
उड़ीसा प्रांत में भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि की हाथी गुफा में कलिंगराज खारवेल की जो लिपि है, उसमें भी नीम के काष्ठ से निर्मित मूर्ति का उल्लेख मिलता है। खारवेल चन्द्रगुप्त के १५० वर्ष बाद हुए हैं।
सनातन धर्म के समग्र शास्त्र वेदमूलक हैं।
पुरुष सूक्तम
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिँसर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङगुलम्।।
मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया ।।9।।
छान्दोग्योपनिषद- 8.12.3
"एवमेवैष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते स उत्तमपुरुषः स तत्र पर्येति जक्षत्क्रीडन्रममाणः स्त्रीभिर्वा यानैर्वानाज्ञाभिर्वा नोपजनं स्मरनिदं शरीरं स यथा प्रयोग्य आचरण युक्त एवमेवयमस्मिञ्छरीरे प्राणो युक्तः ॥ 8.12.3 ॥
3. इसी प्रकार आनन्दमय आत्मा शरीर से उत्पन्न होकर विश्व आत्मा के प्रकाश को प्राप्त कर अपने स्वरूप में प्रकट होता है। यह परमात्मा है , लौकिक स्व। फिर वह स्वतंत्र रूप से महिलाओं, गाड़ियों, या रिश्तेदारों के साथ खाने, खेलने, या आनंद लेने के लिए विचरण करता है, उसे यह याद नहीं रहता कि वह किस शरीर में पैदा हुआ था। जिस प्रकार घोड़ों या बैलों को गाड़ी में जोता जाता है, उसी प्रकार प्राण [जीवन] शरीर में [ कर्म के कारण ] कसा हुआ रहता है।
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