शुक्रवार, 31 मार्च 2023

राम सीता के वियोग में लेखक के अनुसार कामातुर हो रहा है।


बाल्मिकी रामायण में लेखक ने राम का सीता वियोग का वर्णन इन शब्दों में किया है। राम अपने भाई लक्ष्मण और पेड़ पोधों, जानवरों से इस प्रकार सीता के बारे में पूछता है। राम सीता के वियोग में लेखक के अनुसार कामातुर हो रहा है।

अरण्य काण्ड 
सर्ग 60, राम जब लक्ष्मण के साथ है तो बिल्लव वृक्ष को कहता है की बिल्ल्व फल के जैसे स्तनों वाली सीता को देखा है तो बताओ (श्लोक 13) ककुभ के पेड़ , ककुभ के समान जांघो वाली सीता को अवश्य को अवश्य देखा होगा। ( श्लोक 15) हे ताल वृक्ष, यदि तुमने पके हुए ताल फल के समान स्तन वाली सीता को देखा हो तो मुझे बताओ (श्लोक 18) एक गजेंद्र ( हाथी) तुम्हारे सूंड के आकार की जांघों वाली सीता को अगर देखा हो तो बताओ। ( श्लोक 24) 

सर्ग 63 :-- सीता को मारी गई विचार कर राम लक्ष्मण को कहते है कि लाल चंदन जैसे लाल रंग वाले जानकी के गोल स्तन खून से सन गए होंगे।( श्लोक 8)

किशिकंधा कांड सर्ग 1
राम कामातुर हो कर लक्ष्मण को कहने लगे।( श्लोक 2) यह मधुमास ( बसंत ऋतु ) कामोद्दीपक होने के कारण गर्वीला हो गया है।(श्लोक 10) कामदेव और भी मुझे संतप्त कर रहा है। कूकति हुई कोयल मुझे ललकार रही है। ( श्लोक 23) जलकुक्कट अपने शब्द से मुझ कामातुर को और भी विकल कर देगा।( श्लोक 24) इन पेड़ों को देख कर मेरा काम उत्तेजित होता है। सीता को देखे बिना मेरा जीवन व्यर्थ है ( श्लोक 30/31) सीता नही देख पढ़ती जिससे मेरा कामदेव और भी बडेगा। (श्लोक 34) मोर कामदेव से व्याप्त हो मेरे काम को उत्तेजित कर रहें है। मोर को नाचते देख उसकी मोरनी कामदेव से पीड़ित हो कर अपने मोर के साथ नाच रही है। मोर अपने पंख फैला कर मेरा उपहास करता है। इसकी मोरनी का किसी ने अपहरण नही किया। इस चैत्र मास में सीता के बिना मेरा रहना दु:सह है।( श्लोक 38 से 41)  मोरनियां कामदेव से पीड़ित हो कैसे मोरों के पास जा रही हैं। अगर सीता होती तो वह भी मेरे पास इसी तरह दौड़ी चली आती। (श्लोक 42, 43) ये पक्षियों के समूह मेरे काम की उन्माद अवस्था को बड़ा रहें हैं। ( श्लोक 46) पक्षियों का चहकना मेरी काम वासना को बड़ा रहें हैं।( श्लोक 57) आम के बौरे हुए वृक्ष मुझे कामोन्मत मनुष्य लग रहें हैं। ( श्लोक 60) अगर बसंत मुझे न सताए तो ही मैं अपने काम के वेग को रोक सकता हूं ( 69)  जिस प्रकार मद से मतवाली सुंदरियां अपने पतियों से आलिंगन करती हैं पवन इसी तरह एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर अनेक रसों का स्वाद ले रही है।(84-86) यह कारंडव पक्षी विमल जल में डुबकी लगा अपनी माता के साथ विहार करता हुआ, कामदेव को उत्तेजित कर रहा है।(श्लोक 93/94) तरह-तरह के प्रमुदित पक्षी मेरी कामवासना को उत्तेजित करते हैं। देखो यह हिरण अपनी हिरणियों के साथ विहार कर रहें है। ( श्लोक 100/101) हे लक्ष्मण यदि पतली कमर वाली जानकी मेरे साथ इस पंपा के तट पर पवन सेवन करें तो ही निश्चित में जीवित रह सकता हूं। ( श्लोक 104) सीता मुझे काम पीड़ित देख मनोहर वचन बोला करती थी.( श्लोक 112)
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विप्रकीर्णाजिनकुशं विप्रविद्धबृसीकटम्।
दृष्ट्वा शून्योटजस्थानं
 विललाप पुनः पुनः॥७॥

हृता मृता वा नष्टा वा भक्षिता वा भविष्यति।
निलीनाप्यथवा भीरुरथवा वनमाश्रिता॥ ८॥

गता विचेतुं पुष्पाणि फलान्यपि च वा पुनः।
अथवा पद्मिनीं याता जलार्थं वा नदीं गता॥ ९॥

यत्नान्मृगयमाणस्तु नाससाद वने प्रियाम्।
शोकरक्तेक्षणः श्रीमानुन्मत्त इव लक्ष्यते॥ १०॥

वृक्षाद् वृक्षं प्रधावन् स गिरींश्चापि नदीनदम्।
बभ्राम विलपन् रामः शोकपङ्कार्णवप्लुतः॥११॥

अस्ति कच्चित्त्वया दृष्टा सा कदम्बप्रिया प्रिया।
कदम्ब यदि जानीषे शंस सीतां शुभाननाम्॥ १२॥
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स्निग्धपल्लवसंकाशां पीतकौशेयवासिनीम्।
शंसस्व यदि सा दृष्टा बिल्व बिल्वोपमस्तनी॥ १३॥



ककुभः ककुभोरुं तां व्यक्तं जानाति मैथिलीम्।
लतापल्लवपुष्पाढ्यो भाति ह्येष वनस्पतिः॥ १५॥






यदि ताल त्वया दृष्टा पक्वतालोपमस्तनी।
कथयस्व वरारोहां कारुण्यं यदि ते मयि॥ १८॥








गज सा गजनासोरुर्यदि दृष्टा त्वया भवेत्।
तां मन्ये विदितां तुभ्यमाख्याहि वरवारण॥ २४॥



इत्येवं विलपन् रामः परिधावन् वनाद् वनम्।
क्वचिदुद‍्भ्रमते वेगात् क्वचिद् विभ्रमते बलात्॥ ३६॥




इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये अरण्यकाण्डे षष्ठितमः सर्गः ॥३-६०॥


काममोहाभिभूतस्य विघ्नोऽयं प्रत्युपस्थितः।
स निःश्वसन् मुनिवरः पश्चात्तापेन दुःखितः॥ १२॥



स तां पुष्करिणीं गत्वा पद्मोत्पलझषाकुलाम्।
रामः सौमित्रिसहितो विललापाकुलेन्द्रियः॥ १॥

तत्र दृष्ट्वैव तां हर्षादिन्द्रियाणि चकम्पिरे।
स कामवशमापन्नः सौमित्रिमिदमब्रवीत्॥ २॥
सुखानिलोऽयं सौमित्रे कालः प्रचुरमन्मथः।
गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः॥ १०॥


मां हि शोकसमाक्रान्तं संतापयति मन्मथः।
हृष्टं प्रवदमानश्च समाह्वयति कोकिलः॥ २३॥

एष दात्यूहको हृष्टो रम्ये मां वननिर्झरे।
प्रणदन्मन्मथाविष्टं शोचयिष्यति लक्ष्मण॥ २४॥

नहि तां सूक्ष्मपक्ष्माक्षीं सुकेशीं मृदुभाषिणीम्॥ ३०॥
अपश्यतो मे सौमित्रे जीवितेऽस्ति प्रयोजनम्।

अयं हि रुचिरस्तस्याः कालो रुचिरकाननः॥ ३१॥
कोकिलाकुलसीमान्तो दयिताया ममानघ।

मन्मथायाससम्भूतो वसन्तगुणवर्धितः॥ ३२॥
अयं मां धक्ष्यति क्षिप्रं शोकाग्निर्नचिरादिव।

अपश्यतस्तां वनितां पश्यतो रुचिरान् द्रुमान्॥ ३३॥
ममायमात्मप्रभवो भूयस्त्वमुपयास्यति।

अदृश्यमाना वैदेही शोकं वर्धयतीह मे॥ ३४॥



पश्य लक्ष्मण नृत्यन्तं मयूरमुपनृत्यति॥ ३८॥
शिखिनी मन्मथार्तैषा भर्तारं गिरिसानुनि।

तामेव मनसा रामां मयूरोऽप्यनुधावति॥ ३९॥
वितत्य रुचिरौ पक्षौ रुतैरुपहसन्निव।

मयूरस्य वने नूनं रक्षसा न हृता प्रिया॥ ४०॥
तस्मान्नृत्यति रम्येषु वनेषु सह कान्तया।

मम त्वयं विना वासः पुष्पमासे सुदुःसहः॥ ४१॥
पश्य लक्ष्मण संरागस्तिर्यग्योनिगतेष्वपि।
यदेषा शिखिनी कामाद् भर्तारमभिवर्तते॥ ४२॥

ममाप्येवं विशालाक्षी जानकी जातसम्भ्रमा।
मदनेनाभिवर्तेत यदि नापहृता भवेत्॥ ४३॥

पश्य लक्ष्मण पुष्पाणि निष्फलानि भवन्ति मे।
पुष्पभारसमृद्धानां वनानां शिशिरात्यये॥ ४४॥

रुचिराण्यपि पुष्पाणि पादपानामतिश्रिया।
निष्फलानि महीं यान्ति समं मधुकरोत्करैः॥ ४५॥

नदन्ति कामं शकुना मुदिताः सङ्घशः कलम्।
आह्वयन्त इवान्योन्यं कामोन्मादकरा मम॥ ४६॥

वसन्तो यदि तत्रापि यत्र मे वसति प्रिया।
नूनं परवशा सीता सापि शोचत्यहं यथा॥ ४७॥

नूनं न तु वसन्तस्तं देशं स्पृशति यत्र सा।
कथं ह्यसितपद्माक्षी वर्तयेत् सा मया विना॥ ४८॥

अथवा वर्तते तत्र वसन्तो यत्र मे प्रिया।
किं करिष्यति सुश्रोणी सा तु निर्भर्त्सिता परैः॥ ४९॥

श्यामा पद्मपलाशाक्षी मृदुभाषा च मे प्रिया।
नूनं वसन्तमासाद्य परित्यक्ष्यति जीवितम्॥ ५०॥

दृढं हि हृदये बुद्धिर्मम सम्परिवर्तते।
नालं वर्तयितुं सीता साध्वी मद्विरहं गता॥ ५१॥

मयि भावो हि वैदेह्यास्तत्त्वतो विनिवेशितः।
ममापि भावः सीतायां सर्वथा विनिवेशितः॥ ५२॥

एष पुष्पवहो वायुः सुखस्पर्शो हिमावहः।
तां विचिन्तयतः कान्तां पावकप्रतिमो मम॥ ५३॥

सदा सुखमहं मन्ये यं पुरा सह सीतया।
मारुतः स विना सीतां शोकसंजननो मम॥ ५४॥

तां विनाथ विहङ्गोऽसौ पक्षी प्रणदितस्तदा।
वायसः पादपगतः प्रहृष्टमभिकूजति॥ ५५॥

एष वै तत्र वैदेह्या विहगः प्रतिहारकः।
पक्षी मां तु विशालाक्ष्याः समीपमुपनेष्यति॥ ५६॥

पश्य लक्ष्मण संनादं वने मदविवर्धनम्।
पुष्पिताग्रेषु वृक्षेषु द्विजानामवकूजताम्॥ ५७॥

विक्षिप्तां पवनेनैतामसौ तिलकमञ्जरीम्।
षट्पदः सहसाभ्येति मदोद‍्धूतामिव प्रियाम्॥ ५८॥

कामिनामयमत्यन्तमशोकः शोकवर्धनः।
स्तबकैः पवनोत्क्षिप्तैस्तर्जयन्निव मां स्थितः॥ ५९॥



अमी लक्ष्मण दृश्यन्ते चूताः कुसुमशालिनः।
विभ्रमोत्सिक्तमनसः साङ्गरागा नरा इव॥ ६०॥

सौमित्रे पश्य पम्पायाश्चित्रासु वनराजिषु।
किंनरा नरशार्दूल विचरन्ति यतस्ततः॥ ६१॥

इमानि शुभगन्धीनि पश्य लक्ष्मण सर्वशः।
नलिनानि प्रकाशन्ते जले तरुणसूर्यवत्॥ ६२॥

एषा प्रसन्नसलिला पद्मनीलोत्पलायुता।
हंसकारण्डवाकीर्णा पम्पा सौगन्धिकायुता॥ ६३॥

जले तरुणसूर्याभैः षट्पदाहतकेसरैः।
पङ्कजैः शोभते पम्पा समन्तादभिसंवृता॥ ६४॥

चक्रवाकयुता नित्यं चित्रप्रस्थवनान्तरा।
मातङ्गमृगयूथैश्च शोभते सलिलार्थिभिः॥ ६५॥

पवनाहतवेगाभिरूर्मिभिर्विमलेऽम्भसि।
पङ्कजानि विराजन्ते ताड्यमानानि लक्ष्मण॥ ६६॥

पद्मपत्रविशालाक्षीं सततं प्रियपङ्कजाम्।
अपश्यतो मे वैदेहीं जीवितं नाभिरोचते॥ ६७॥

अहो कामस्य वामत्वं यो गतामपि दुर्लभाम्।
स्मारयिष्यति कल्याणीं कल्याणतरवादिनीम्॥ ६८॥

शक्यो धारयितुं कामो भवेदभ्यागतो मया।
यदि भूयो वसन्तो मां न हन्यात् पुष्पितद्रुमः॥ ६९॥

यानि स्म रमणीयानि तया सह भवन्ति मे।
तान्येवारमणीयानि जायन्ते मे तया विना॥ ७०॥

पद्मकोशपलाशानि द्रष्टुं दृष्टिर्हि मन्यते।
सीताया नेत्रकोशाभ्यां सदृशानीति लक्ष्मण॥ ७१॥

पद्मकेसरसंसृष्टो वृक्षान्तरविनिःसृतः।
निःश्वास इव सीताया वाति वायुर्मनोहरः॥ ७२॥

सौमित्रे पश्य पम्पाया दक्षिणे गिरिसानुषु।
पुष्पितां कर्णिकारस्य यष्टिं परमशोभिताम्॥ ७३॥

अधिकं शैलराजोऽयं धातुभिस्तु विभूषितः।
विचित्रं सृजते रेणुं वायुवेगविघट्टितम्॥ ७४॥

गिरिप्रस्थास्तु सौमित्रे सर्वतः सम्प्रपुष्पितैः।
निष्पत्रैः सर्वतो रम्यैः प्रदीप्ता इव किंशुकैः॥ ७५॥

पम्पातीररुहाश्चेमे संसिक्ता मधुगन्धिनः।
मालतीमल्लिकापद्मकरवीराश्च पुष्पिताः॥ ७६॥

केतक्यः सिन्दुवाराश्च वासन्त्यश्च सुपुष्पिताः।
माधव्यो गन्धपूर्णाश्च कुन्दगुल्माश्च सर्वशः॥ ७७॥

चिरिबिल्वा मधूकाश्च वञ्जुला बकुलास्तथा।
चम्पकास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः॥ ७८॥

पद्मकाश्चैव शोभन्ते नीलाशोकाश्च पुष्पिताः।
लोध्राश्च गिरिपृष्ठेषु सिंहकेसरपिञ्जराः॥ ७९॥

अङ्कोलाश्च कुरण्टाश्च चूर्णकाः पारिभद्रकाः।
चूताः पाटलयश्चापि कोविदाराश्च पुष्पिताः॥ ८०॥

मुचुकुन्दार्जुनाश्चैव दृश्यन्ते गिरिसानुषु।
केतकोद्दालकाश्चैव शिरीषाः शिंशपा धवाः॥ ८१॥



शाल्मल्यः किंशुकाश्चैव रक्ताः कुरबकास्तथा।
तिनिशा नक्तमालाश्च चन्दनाः स्यन्दनास्तथा॥ ८२॥

हिन्तालास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः।
पुष्पितान् पुष्पिताग्राभिर्लताभिः परिवेष्टितान्॥ ८३॥

द्रुमान् पश्येह सौमित्रे पम्पाया रुचिरान् बहून्।
वातविक्षिप्तविटपान् यथासन्नान् द्रुमानिमान्॥ ८४॥

लताः समनुवर्तन्ते मत्ता इव वरस्त्रियः।
पादपात् पादपं गच्छन् शैलाच्छैलं वनाद् वनम्॥ ८५॥

वाति नैकरसास्वादसम्मोदित इवानिलः।
केचित् पर्याप्तकुसुमाः पादपा मधुगन्धिनः॥ ८६॥

केचिन्मुकुलसंवीताः श्यामवर्णा इवाबभुः।
इदं मृष्टमिदं स्वादु प्रफुल्लमिदमित्यपि॥ ८७॥

रागरक्तो मधुकरः कुसुमेष्वेव लीयते।
निलीय पुनरुत्पत्य सहसान्यत्र गच्छति।
मधुलुब्धो मधुकरः पम्पातीरद्रुमेष्वसौ॥ ८८॥

इयं कुसुमसंघातैरुपस्तीर्णा सुखाकृता।
स्वयं निपतितैर्भूमिः शयनप्रस्तरैरिव॥ ८९॥

विविधा विविधैः पुष्पैस्तैरेव नगसानुषु।
विस्तीर्णाः पीतरक्ताभाः सौमित्रे प्रस्तराः कृताः॥ ९०॥

हिमान्ते पश्य सौमित्रे वृक्षाणां पुष्पसम्भवम्।
पुष्पमासे हि तरवः संघर्षादिव पुष्पिताः॥ ९१॥

आह्वयन्त इवान्योन्यं नगाः षट्पदनादिताः।
कुसुमोत्तंसविटपाः शोभन्ते बहु लक्ष्मण॥ ९२॥

एष कारण्डवः पक्षी विगाह्य सलिलं शुभम्।
रमते कान्तया सार्धं काममुद्दीपयन्निव॥ ९३॥

मन्दाकिन्यास्तु यदिदं रूपमेतन्मनोरमम्।
स्थाने जगति विख्याता गुणास्तस्या मनोरमाः॥ ९४॥

यदि दृश्येत सा साध्वी यदि चेह वसेमहि।
स्पृहयेयं न शक्राय नायोध्यायै रघूत्तम॥ ९५॥

न ह्येवं रमणीयेषु शाद्वलेषु तया सह।
रमतो मे भवेच्चिन्ता न स्पृहान्येषु वा भवेत्॥ ९६॥

अमी हि विविधैः पुष्पैस्तरवो विविधच्छदाः।
काननेऽस्मिन् विना कान्तां चिन्तामुत्पादयन्ति मे॥ ९७॥

पश्य शीतजलां चेमां सौमित्रे पुष्करायुताम्।
चक्रवाकानुचरितां कारण्डवनिषेविताम्॥ ९८॥

प्लवैः क्रौञ्चैश्च सम्पूर्णां महामृगनिषेविताम्।
अधिकं शोभते पम्पा विकूजद्भिर्विहंगमैः॥ ९९॥

दीपयन्तीव मे कामं विविधा मुदिता द्विजाः।
श्यामां चन्द्रमुखीं स्मृत्वा प्रियां पद्मनिभेक्षणाम्॥ १००॥

पश्य सानुषु चित्रेषु मृगीभिः सहितान् मृगान्।
मां पुनर्मृगशावाक्ष्या वैदेह्या विरहीकृतम्।
व्यथयन्तीव मे चित्तं संचरन्तस्ततस्ततः॥ १०१॥

अस्मिन् सानुनि रम्ये हि मत्तद्विजगणाकुले।
पश्येयं यदि तां कान्तां ततः स्वस्ति भवेन्मम॥ १०२॥



अस्मिन् सानुनि रम्ये हि मत्तद्विजगणाकुले।
पश्येयं यदि तां कान्तां ततः स्वस्ति भवेन्मम॥ १०२॥

जीवेयं खलु सौमित्रे मया सह सुमध्यमा।
सेवेत यदि वैदेही पम्पायाः पवनं शुभम्॥ १०३॥

पद्मसौगन्धिकवहं शिवं शोकविनाशनम्।
धन्या लक्ष्मण सेवन्ते पम्पाया वनमारुतम्॥ १०४॥

श्यामा पद्मपलाशाक्षी प्रिया विरहिता मया।
कथं धारयति प्राणान् विवशा जनकात्मजा॥ १०५॥

किं नु वक्ष्यामि धर्मज्ञं राजानं सत्यवादिनम्।
जनकं पृष्टसीतं तं कुशलं जनसंसदि॥ १०६॥

या मामनुगता मन्दं पित्रा प्रस्थापितं वनम्।
सीता धर्मं समास्थाय क्व नु सा वर्तते प्रिया॥ १०७॥

तया विहीनः कृपणः कथं लक्ष्मण धारये।
या मामनुगता राज्याद् भ्रष्टं विहतचेतसम्॥ १०८॥

तच्चार्वाञ्चितपद्माक्षं सुगन्धि शुभमव्रणम्।
अपश्यतो मुखं तस्याः सीदतीव मतिर्मम॥ १०९॥

स्मितहास्यान्तरयुतं गुणवन्मधुरं हितम्।
वैदेह्या वाक्यमतुलं कदा श्रोष्यामि लक्ष्मण॥ ११०॥

प्राप्य दुःखं वने श्यामा मां मन्मथविकर्शितम्।
नष्टदुःखेव हृष्टेव साध्वी साध्वभ्यभाषत॥ १११॥

किं नु वक्ष्याम्ययोध्यायां कौसल्यां हि नृपात्मज।
क्व सा स्नुषेति पृच्छन्तीं कथं चापि मनस्विनीम्॥ ११२॥

गच्छ लक्ष्मण पश्य त्वं भरतं भ्रातृवत्सलम्।
नह्यहं जीवितुं शक्तस्तामृते जनकात्मजाम्॥ ११३॥

इति रामं महात्मानं विलपन्तमनाथवत्।
उवाच लक्ष्मणो भ्राता वचनं युक्तमव्ययम्॥ ११४॥

संस्तम्भ राम भद्रं ते मा शुचः पुरुषोत्तम।
नेदृशानां मतिर्मन्दा भवत्यकलुषात्मनाम्॥ ११५॥

स्मृत्वा वियोगजं दुःखं त्यज स्नेहं प्रिये जने।
अतिस्नेहपरिष्वङ्गाद् वर्तिरार्द्रापि दह्यते॥ ११६॥

यदि गच्छति पातालं ततोऽभ्यधिकमेव वा।
सर्वथा रावणस्तात न भविष्यति राघव॥ ११७॥

प्रवृत्तिर्लभ्यतां तावत् तस्य पापस्य रक्षसः।
ततो हास्यति वा सीतां निधनं वा गमिष्यति॥ ११८॥

यदि याति दितेर्गर्भं रावणं सह सीतया।
तत्राप्येनं हनिष्यामि न चेद् दास्यति मैथिलीम्॥ ११९॥

स्वास्थ्यं भद्रं भजस्वार्य त्यज्यतां कृपणा मतिः।
अर्थो हि नष्टकार्यार्थैरयत्नेनाधिगम्यते॥ १२०॥


जीवेयं खलु सौमित्रे मया सह सुमध्यमा।
सेवेत यदि वैदेही पम्पायाः पवनं शुभम्॥ १०३॥

पद्मसौगन्धिकवहं शिवं शोकविनाशनम्।
धन्या लक्ष्मण सेवन्ते पम्पाया वनमारुतम्॥ १०४॥

श्यामा पद्मपलाशाक्षी प्रिया विरहिता मया।
कथं धारयति प्राणान् विवशा जनकात्मजा॥ १०५॥

किं नु वक्ष्यामि धर्मज्ञं राजानं सत्यवादिनम्।
जनकं पृष्टसीतं तं कुशलं जनसंसदि॥ १०६॥

या मामनुगता मन्दं पित्रा प्रस्थापितं वनम्।
सीता धर्मं समास्थाय क्व नु सा वर्तते प्रिया॥ १०७॥

तया विहीनः कृपणः कथं लक्ष्मण धारये।
या मामनुगता राज्याद् भ्रष्टं विहतचेतसम्॥ १०८॥

तच्चार्वाञ्चितपद्माक्षं सुगन्धि शुभमव्रणम्।
अपश्यतो मुखं तस्याः सीदतीव मतिर्मम॥ १०९॥

स्मितहास्यान्तरयुतं गुणवन्मधुरं हितम्।
वैदेह्या वाक्यमतुलं कदा श्रोष्यामि लक्ष्मण॥ ११०॥

प्राप्य दुःखं वने श्यामा मां मन्मथविकर्शितम्।
नष्टदुःखेव हृष्टेव साध्वी साध्वभ्यभाषत॥ १११॥

किं नु वक्ष्याम्ययोध्यायां कौसल्यां हि नृपात्मज।
क्व सा स्नुषेति पृच्छन्तीं कथं चापि मनस्विनीम्॥ ११२॥

गच्छ लक्ष्मण पश्य त्वं भरतं भ्रातृवत्सलम्।
नह्यहं जीवितुं शक्तस्तामृते जनकात्मजाम्॥ ११३॥

इति रामं महात्मानं विलपन्तमनाथवत्।
उवाच लक्ष्मणो भ्राता वचनं युक्तमव्ययम्॥ ११४॥

संस्तम्भ राम भद्रं ते मा शुचः पुरुषोत्तम।
नेदृशानां मतिर्मन्दा भवत्यकलुषात्मनाम्॥ ११५॥

स्मृत्वा वियोगजं दुःखं त्यज स्नेहं प्रिये जने।
अतिस्नेहपरिष्वङ्गाद् वर्तिरार्द्रापि दह्यते॥ ११६॥

यदि गच्छति पातालं ततोऽभ्यधिकमेव वा।
सर्वथा रावणस्तात न भविष्यति राघव॥ ११७॥

प्रवृत्तिर्लभ्यतां तावत् तस्य पापस्य रक्षसः।
ततो हास्यति वा सीतां निधनं वा गमिष्यति॥ ११८॥

यदि याति दितेर्गर्भं रावणं सह सीतया।
तत्राप्येनं हनिष्यामि न चेद् दास्यति मैथिलीम्॥ ११९॥

स्वास्थ्यं भद्रं भजस्वार्य त्यज्यतां कृपणा मतिः।
अर्थो हि नष्टकार्यार्थैरयत्नेनाधिगम्यते॥ १२०॥

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात् परं बलम्।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥ १२१॥

उत्साहवन्तः पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु।
उत्साहमात्रमाश्रित्य प्रतिलप्स्याम जानकीम्॥ १२२॥

त्यजतां कामवृत्तत्वं शोकं संन्यस्य पृष्ठतः।
महात्मानं कृतात्मानमात्मानं नावबुध्यसे॥ १२३॥


एवं सम्बोधितस्तेन शोकोपहतचेतनः।
त्यज्य शोकं च मोहं च रामो धैर्यमुपागमत्॥ १२४॥

सोऽभ्यतिक्रामदव्यग्रस्तामचिन्त्यपराक्रमः।
रामः पम्पां सुरुचिरां रम्यां पारिप्लवद्रुमाम्॥ १२५॥

निरीक्षमाणः सहसा महात्मा
सर्वं वनं निर्झरकन्दरं च।
उद्विग्नचेताः सह लक्ष्मणेन
विचार्य दुःखोपहतः प्रतस्थे॥ १२६॥

तं मत्तमातङ्गविलासगामी
गच्छन्तमव्यग्रमना महात्मा।
स लक्ष्मणो राघवमिष्टचेष्टो
ररक्ष धर्मेण बलेन चैव॥ १२७॥

तावृष्यमूकस्य समीपचारी
चरन् ददर्शाद्भुतदर्शनीयौ।
शाखामृगाणामधिपस्तरस्वी
वितत्रसे नैव विचेष्ट चेष्टाम्॥ १२८॥

स तौ महात्मा गजमन्दगामी
शाखामृगस्तत्र चरंश्चरन्तौ।
दृष्ट्वा विषादं परमं जगाम
चिन्तापरीतो भयभारभग्नः॥ १२९॥

तमाश्रमं पुण्यसुखं शरण्यं
सदैव शाखामृगसेवितान्तम्।
त्रस्ताश्च दृष्ट्वा हरयोऽभिजग्मु-
र्महौजसौ राघवलक्ष्मणौ तौ॥ १३०॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे प्रथमः सर्गः ॥४-१॥


अहो कामस्य वामत्वं यो गतामपि दुर्लभाम्।
स्मारयिष्यति कल्याणीं कल्याणतरवादिनीम्॥ ६८॥

शक्यो धारयितुं कामो भवेदभ्यागतो मया।
यदि भूयो वसन्तो मां न हन्यात् पुष्पितद्रुमः॥ ६९॥

यानि स्म रमणीयानि तया सह भवन्ति मे।
तान्येवारमणीयानि जायन्ते मे तया विना॥ ७०॥

किष्किन्धा काण्ड सर्ग (1)



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