मंगलवार, 21 मार्च 2023

यह स्कंद पुराण के नागर-खंड के तीर्थ-महात्म्य का एक सौ इकयासी अध्याय है।अध्याय 181 - गायत्री तीर्थ की महिमामाता-पिता: खंड 1 - गर्तातीर्थ-महात्म्य




इसी कथा को विस्तार से हम यहाँ  नीचे प्रस्तुत करते हैं यह कथा पूर्णतया प्रक्षिप्त व शास्त्रीय- सिद्धान्त विहीन है

                  ॥सूत उवाच॥
एतस्मिन्नन्तरे सर्वेर्नागरैर्ब्राह्मणोत्तमैः॥
प्रेषितो मध्यगस्तत्र गर्तातीर्थसमुद्भवः॥१॥
अनुवाद:- इस बीच, सभी उत्कृष्ट नागर ब्राह्मणों द्वारा गर्तातीर्थ  एक मध्यस्थ को भेजा गया ।१। 
रेरे मध्यग गत्वा त्वं ब्रूहि तं कुपितामहम्॥
विप्रवृत्ति प्रहन्तारं नीतिमार्गविवर्जितम्॥२॥
अनुवाद:- "हे मध्यम जाओ और बताओ कि कुपितामह (दुष्ट पितामह ) जिसने हम ब्राह्मणों की जीविका के साधनों को नष्ट कर दिया है। और जिन्होंने न्याय और निष्पक्षता के मार्ग को त्याग दिया है।२।
एतत्क्षेत्रं प्रदत्तं नःपूर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥
महेश्वरेण तुष्टेन पूरिते सर्पजे बिले॥३॥
अनुवाद:-यह क्षेत्र  महेश्वर द्वारा हमारे पूर्वजों ब्राह्मणों को दिया गया था -नागों से उत्पन्न विल में।३।
तस्य दत्तस्य चाद्यैव पितामहशतं गतम्॥
पंचोत्तरमसन्दिग्धं यावत्त्वं कुपितामह ॥४॥
अनुवाद:-तुम्हारे साथ समाप्त, हे दुष्ट पितामह, एक सौ पांच अलग -अलग पितामह उस महेश्वर द्वारा दिए गये क्षेत्र के  समय से चले गए हैं। इसमें तो कोई शक ही नहीं है।४।
न केनापि कृतोऽस्माकं तिरस्कारो यथाऽधुना॥
त्वां मुक्त्वा पापकर्माणं न्यायमार्गविवर्जितम्॥५॥
अनुवाद:-किसी के भी द्वारा आजतक हमारा तिरस्कार नहीं किया गया तुम्हें छोड़कर तुम पापकर्म करते हुए न्याय मार्ग से हटे हुए हो।५। 
नागरैर्ब्राह्मणैर्बाह्यं योऽत्र यज्ञं समाचरेत्॥
श्राद्धं वा स हि वध्यःस्यात्सर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥६॥
अनुवाद:-वह जो नागर (गुजरात में रहने वाले ब्राह्मणों की एक जाति।) के वंश से बाहर है और यहाँ श्राद्ध या यज्ञ करता है, उसे अन्य सभी ब्राह्मणों द्वारा मार दिया जाना चाहिए।६।
न तस्य जायते श्रेयस्तत्समुत्थं कथञ्चन।
एतत्प्रोक्तं तदा तेन यदा स्थानं ददौ हि नः।७।
अनुवाद:-जब  शिव ने  हमें यह पवित्र स्थान प्रदान किया तो उनके द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि उन्हें (बाहरी व्यक्ति) को इस क्षेत्र से बिल्कुल भी लाभ नहीं मिलेगा।७।
तस्माद्यत्कुरुषे यज्ञं ब्राह्मणैर्नागरैः कुरु ॥
नान्यथा लप्स्यसे कर्तुं जीवद्भिर्नागरैर्द्विजैः॥८॥
अनुवाद:-इसलिए, आप जो भी यज्ञ करते हैं, वही नागर ब्राह्मणों से करवाएं ; अन्यथा, जब तक नागर ब्राह्मण जीवित हैं, आपको इसे करने का अवसर नहीं मिलेगा।८।।
एवमुक्तस्ततो गत्वा मध्यगो यत्र पद्मजः॥
यज्ञमण्डपदूरस्थो ब्राह्मणैः परिवारितः॥९॥
अनुवाद:-इस प्रकार कहने पर, मध्यग यज्ञ मंडप से कुछ दूर, ब्राह्मणों से घिरे उस स्थान पर गए, जहाँ ब्रह्मा जी थे।९।
यत्प्रोक्तं नागरैः सर्वैः सविशेषं तदा हि सः॥
तच्छ्रुत्वा पद्मजः प्राह सांत्वपूर्वमिदं वचः॥
अनुवाद:-उन सब नागरों ने जो कहा, वह विशेष बल देकर उसे कह सुनाया। यह सुनकर ब्रह्मा ने मैत्रीपूर्ण स्वर में ये शब्द कहे:।१०।
(स्कन्द पुराण अध्याय-।१८१.१०॥
 
मानुषं भावमापन्न ऋत्विग्भिः परिवारितः॥
त्वया सत्यमिदं प्रोक्तं सर्वं मध्यगसत्तम॥११॥
अनुवाद:-ब्रह्मा ने मानव रूप धारण किया था और ऋत्विकों से घिरे हुए थे।(उन्होंने कहा:) "हे उत्कृष्ट मध्यग ,आपके द्वारा कही गई सभी बातें सत्य हैं।११।
किं करोमि वृताः सर्वे मया ते यज्ञकर्मणि॥
ऋत्विजोऽध्वर्यु पूर्वा ये प्रमादेन न काम्यया॥१२॥
अनुवाद:-मैं क्या करूँगा ? इन सभी को मेरे द्वारा पहले से ही यज्ञ संस्कारों के प्रदर्शन के लिए चुना गया है - ये सभी ऋत्विक, अध्वर्यु और अन्य। उन्हें जानबूझकर नहीं गलती से चुने गये है।१२।
तस्मादानय तान्सर्वानत्र स्थाने द्विजोत्तमान्॥
अनुज्ञातस्तु तैर्येन गच्छामि मखमण्डपे॥१३॥
अनुवाद:-इसलिए उन सभी उत्कृष्ट ब्राह्मणों को यहाँ इस पवित्र स्थान पर ले आओ, ताकि उनकी अनुमति से मैं यज्ञ-मण्डप में जा सकूँ ।१३।
                  "मध्यग उवाच॥
त्वं देवत्वं परित्यज्य मानुषं भावमाश्रितः॥
तत्कथं ते द्विजश्रेष्ठाःसमागच्छंति तेंऽतिकम्॥ १४॥
                   मध्यग ने कहा-
अनुवाद:-तूमने अपनी दिव्यता को त्यागकर मनुष्य भाव (भेष और रूप) अपना लिया है। अतएव वे श्रेष्ठ ब्राह्मण तुम्हारे निकट कैसे आ सकते हैं ?।१४।
श्रेष्ठा गावः पशूनां च यथा पद्मसमुद्भव॥
विप्राणामिह सर्वेषां तथा श्रेष्ठा हि नागराः॥१५॥
अनुवाद:-हे ब्रह्मा ! जैसे  गाय सभी जानवरों में सबसे उत्कृष्ट हैं, वैसे ही ब्राह्मणों में नागर भी सबसे उत्कृष्ट हैं।१५।

तत्माच्चेद्वांछसि प्राप्तिं त्वमेतां यज्ञसंभवाम्॥
तद्भक्त्यानागरान्सर्वान्प्रसादय पितामह॥१६॥
अनुवाद:-इसलिए, यदि आप इस यज्ञ से उत्पन्न होने वाले लाभ की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, तो हे पितामह, सभी नागरों को उनकी भक्ति के साथ प्रसन्न करें।१६।
                    "सूत उवाच॥
★-तच्छ्रुत्वा पद्मजो भीत ऋत्विग्भिः परिवारितः ॥
जगाम तत्र यत्रस्था नागराः कुपिता द्विजाः॥१७॥
                      सूत ने कहा :
अनुवाद:-यह सुनकर कमल में उत्पन्न ब्रह्मा डर गए। ऋत्विकों से घिरे हुए वे उस स्थान पर गए जहाँ क्रुद्ध नागर ब्राह्मण उपस्थित थे।१७।

प्रणिपत्य ततः सर्वान्विनयेन समन्वितः॥
प्रोवाच वचनं श्रुत्वा कृताञ्जलिपुटःस्थित:॥१८॥
अनुवाद:-ब्रह्मा ने बड़ी दीनता से उन सभों को दण्डवत किया। अनुनय-विनय पूर्वक हाथ जोड़कर खड़े होकर उन्होंने नागर ब्राह्मणों से ये शब्द कहे:।१८।                                    

जानाम्यहं द्विजश्रेष्ठाः क्षेत्रेऽस्मिन्हाटकेश्वरे॥
युष्मद्बाह्यं वृथा श्राद्धं यज्ञकर्म तथैव च॥१९॥
अनुवाद:-हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, मुझे पता है कि हाटकेश्वर के इस पवित्र स्थान में आप सभी को छोड़कर अन्य व्यक्ति द्वारा किए गए श्राद्ध और यज्ञ अनुष्ठान व्यर्थ हैं।१९।

कलिभीत्या मयाऽऽनीतं स्थानेऽस्मिन्पुष्करं निजम्॥
तीर्थं च युष्मदीयं च निक्षेपोऽयंसमर्पितः॥२०॥
अनुवाद:-कलि के भय से मेरे तीर्थ पुष्कर को मेरे द्वारा इस पवित्र स्थान पर लाया गया है। यह आप सभी को यह यह पुष्कर और तुम्हारा हाटकेशवर मेरे द्वारा समर्पित किया गया है।२०।
ऋत्विजोऽमी समानीता गुरुणा यज्ञसिद्धये ॥
अजानता द्विजश्रेष्ठा आधिक्यं नागरात्मकम्॥ २१॥
अनुवाद:-ये ऋत्विक बृहस्पति के साथ यज्ञ की सिद्धि के लिए लाये गये नागरों की श्रेष्ठता को जाने बिना ।२१।
तस्माच्च क्षम्यतां मह्यं यतश्च वरणं कृतम् ॥
एतेषामेव विप्राणामग्निष्टोमकृते मया ॥२२॥
अनुवाद:-इसलिए, अग्निष्टोम के प्रदर्शन के लिए, मेरे द्वारा इन ब्राह्मणों को चुने जाने के लिए मुझे क्षमा करो !।२२।
एतच्च मामकं तीर्थं युष्माकं पापनाशनम्॥
भविष्यति न सन्देहःकलिकालेऽपि संस्थिते॥२३॥
अनुवाद:-मेरा यह तीर्थ निस्संदेह कलियुग के आगमन के दौरान भी आपके पापों का नाश करने वाला होगा।२३।
                  "ब्राह्मणा ऊचुः"
यदि त्वं नागरैर्बाह्यं यज्ञं चात्र करिष्यसि॥
तदन्येऽपि सुराः सर्वे तव मार्गानुयायिनः॥
भविष्यन्ति तथा भूपास्तत्कार्यो न मखस्त्वया॥
२४॥
                   ब्राह्मणों ने कहा !
अनुवाद:-यदि आप नागरों को छोड़कर यहां यज्ञ करते हैं, तो अन्य सुरों के भी आपके मार्ग का अनुसरण करने की संभावना है। वैसे ही पृथ्वी के राजा भी। इसलिए आपको यज्ञ नहीं करना चाहिए।२४।
यद्येवमपि देवेश यज्ञकर्म करिष्यसि॥
अवमन्य द्विजान्सर्वाक्षिप्रं गच्छास्मदंतिकात्॥२५।            
अनुवाद:-इसके बावजूद, हे देवों के देव , यदि आप हम सभी ब्राह्मणों की अवहेलना करते हुए यज्ञ अनुष्ठान करने पर तुले हुए हैं, तो हमारे क्षेत्र से दूर चले जाइए।२५।
                    ॥ब्रह्मोवाच॥
अद्यप्रभृति य: कश्चिद्यज्ञमत्र करिष्यति॥
श्राद्धं वा नागरैर्बाह्यं वृथा तत्संभविष्यति॥२६॥
                      ब्रह्मा ने कहा :
अनुवाद:-अब से यदि कोई नागरों को छोड़कर यहां यज्ञ या श्राद्ध करता है, तो वह व्यर्थ हो जाएगा।२६।

नागरोऽपि च योऽन्यत्र कश्चिद्यज्ञं करिष्यति॥
एतत्क्षेत्रं परित्यज्य वृथा तत्संभविष्यति॥२७॥
अनुवाद:-और नागर भी दूसरी जगह कोई यज्ञ करेगा इस क्षेत्र को छोड़कर तो वह सब व्यरथ ही हो जाएगा।।२७।।
मर्यादेयं कृता विप्रा नागराणां मयाऽधुना॥
कृत्वा प्रसादमस्माकं यज्ञार्थं दातुमर्हथ॥
अनुज्ञां विधिवद्विप्रा येन यज्ञं करोम्यहम् ॥२८॥
अनुवाद:-हे ब्राह्मणों, यह सीमांकन की रेखा( मर्यादा) नगरों के लिए बनाई गई है। इसलिए, हे ब्राह्मणों, हमें उचित अनुमति देने की कृपा करें, ताकि मैं विधिवत् यज्ञ कर सकूँ।२८।
                  ॥सूत उवाच ॥
ततस्तैर्ब्राह्मणैस्तुष्टैरनुज्ञातः पितामहः॥
चकार विधिवद्यज्ञं ये वृता ब्राह्मणाश्च तैः॥२९॥
                     सूत ने कहा 
अनुवाद:-तत्पश्चात, प्रसन्न हुए उन ब्राह्मणों द्वारा पितामह को अनुमति दी गई  तब  ब्रह्मा ने पहले से ही चुने गए ब्राह्मणों के माध्यम से विधिवत यज्ञ किया ।२९।
विश्वकर्मा समागत्य ततो मस्तकमण्डनम्॥
चकार ब्राह्मणश्रेष्ठा नागराणां मते स्थितः॥ ६.१८१.३०॥
अनुवाद:-हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! और  विश्वकर्मा ने वहाँ आकर(ब्रह्मा के सिर को अलंकृत किया जो नागरों के निर्णय के साथ खड़ा था ।३०।

ब्रह्मापि परमं तोषं गत्वा नारदमब्रवीत्॥
सावित्रीमानय क्षिप्रं येन गच्छामि मण्डपे ॥३१॥
अनुवाद:-ब्रह्मा अत्यंत प्रसन्न होकर  नारद से बोले : "सावित्री को जल्दी लाओ ताकि मैं यज्ञ के मंडप में जा सकूं।"३१।

वाद्यमानेषु वाद्येषु सिद्धकिन्नरगुह्यकैः॥
गन्धर्वैर्गीतसंसक्तैर्वेदोच्चारपरैर्द्विजैः॥
अरणिं समुपादाय पुलस्त्यो वाक्यमब्रवीत्।३२॥
अनुवाद:-जैसे ही सिद्ध, किन्नर और गुह्यकों द्वारा वाद्य यंत्र बजाए जाते थे , जब गंधर्व अपने गीतों में लीन थे और ब्राह्मण वेदों के जाप में लगे हुए थे , तब पुलस्त्य ने अरणि को उठाकर और जोर से ये शब्द बोले:।३२।

काष्ठ( लकड़ी) का बना हुआ एक यन्त्र जो यज्ञों में अग्नि उत्पन्न करने के काम आता है-अग्निमन्थ।

विशेष—इसके दो भाग होते हैं— अधरारणि और उत्तरारणि । यह शमीगर्भ अश्वत्थ से बनाया जाता है । अधराराणि नीचे होती है और इसमें एक छेद होता है । इस छेद पर उत्तरारणि खड़ी करके रस्सों से मथानी के समान मथी जाती है ।
छेद के नीचे कुश या कपास रख देते हैं जिसमें आग लग जाती है । इसके मथने के समय वैदिक मन्त्र पढ़ते हैं और ऋत्विक् लोग ही इसके मथने आदि का काम करते हैं । यज्ञ में प्रायः अरणि से निकली हुई आग ही काम में लाई जाती हैं।

पत्नी३(प्लुतस्वर )पत्नीति विप्रेन्द्राः प्रोच्चैस्तत्र व्यवस्थिताः॥३३॥                    
“पत्नी ? पत्नी ? पत्नी ” (यजमान की पत्नी कहाँ है ?) और प्रमुख ब्राह्मण अपने-अपने स्थान पर विराजमान थे।३३।

एतस्मिन्नंतरे ब्रह्मा नारदं मुनिसत्तमम्॥
संज्ञया प्रेषयामास पत्नी चानीयतामिति ॥३४॥
अनुवाद-इस बीच, ब्रह्मा ने इशारे से उत्कृष्ट ऋषि नारद को सुझाव दिया कि उनकी पत्नी को वहाँ लाया जाए।३४।
सोऽपि मंदं समागत्य सावित्रीं प्राह लीलया॥
युद्धप्रियोंऽतरं वांछन्सावित्र्या सह वेधसः॥३५॥
नारद (स्वभाव से) कलह प्रिय थे। वह सावित्री और भगवान ब्रह्मा के बीच संबंधों में एक अंतर पैदा करना चाहते हुए । तो वह धीरे-धीरे (इत्मीनान से) सावित्री के पास आकर सावित्री से बोले।३५।
अहं संप्रेषितः पित्रा तव पार्श्वे सुरेश्वरि ॥
आगच्छ प्रस्थितःस्नातःसांप्रतं यज्ञमण्डपे॥३६॥
“हे देवों की स्वामिनी मुझे पिता ने आपके पास  भेजा है कि आप माता चलो; पिता ने  स्नान कर लिया  है और यज्ञ के मंडप में जा रहा हूँ ऐसा कह कर  चले गयें हैं।३६।
परमेकाकिनी तत्र गच्छमाना सुरेश्वरि॥
कीदृग्रूपा सदसि वै दृश्यसे त्वमनाथवत्॥३७॥
लेकिन, हे देवों की स्वामिनी, यदि आप वहां अकेले जाती हैं, तो आप वहां कैसे सभा में दिखोगीं ?  निश्चय ही आप एक अनाथ के समान महिला की तरह दिखाई देंगी।३७।
तस्मादानीयतां सर्वा याः काश्चिद्देवयोषितः॥
याभिः परिवृता देवि यास्यसि त्वं महामखे॥३८॥
इसलिए सभी देवियों को बुलाया जाए। हे देवी, आप उन देवियों से घिरी हुई महा यज्ञ में जाओगीं।३८।
एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठो नारदो मुनिसत्तमः ॥
अब्रवीत्पितरं गत्वा तातांबाऽऽकारिता मया॥ ३९॥
यह कहकर श्रेष्ठ मुनि नारद अपने पिता के पास गए और बोले: “पिताजी, माता को मैंने बुलाया गया है।३९।

परं तस्याः स्थिरो भावः किंचित्संलक्षितो मया ॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा ततो मन्युसमन्वितः॥६.१८१.४०॥
लेकिन मैंने उसकी मानसिक प्रवृत्ति को थोड़ा ध्यान से देखा है कि वह स्थिर सी रहती है। नारद के वह वचन सुनकर पिता क्रोधित हो गये।४०।

पुलस्त्यं प्रेषयामास सावित्र्या सन्निधौ ततः॥
गच्छ वत्स त्वमानीहि स्थानं सा शिथिलात्मिका॥
सोमभारपरिश्रांतं पश्य मामूर्ध्वसंस्थितम्॥४१॥
उन्होंने पुलस्त्य को सावित्री के पास भेजा: "प्रिय पुत्र, जाओ  वह स्वभाव से  शिथिल(धीमी)  है। उसे इस स्थान पर ले आओ। देखो, मैं अपने ऊपर रखे हुए सोम के भार को सहते-सहते कितना थक गया हूँ।४१। 

एष कालात्ययो भावि यज्ञकर्मणि सांप्रतम्॥
यज्ञपानमुहूर्तोऽयं सावशेषो व्यवस्थितः॥४२॥
अब यज्ञ अनुष्ठान करने में बहुत अधिक विलंब होगा। यज्ञपान (यज्ञ की प्रक्रिया) के लिए मुहूर्त (शुभघड़ी) के लिए अब बहुत कम समय बचा है।४२। 

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पुलस्त्यः सत्वरं ययौ॥
सावित्री तिष्ठते यत्र गीतनृत्यसमाकुला॥४३॥
उनके शब्दों को सुनकर पुलस्त्य उस स्थान पर पहुँचे जहाँ  सावित्री समाकुला हो गीत और नृत्य में तल्लीन थी।४३।

समाकुला=जिसकी अक्ल ठिकाने न हो। 
ततः प्रोवाच किं देवि त्वं तिष्ठसि निराकुला॥
यज्ञयानोचितः कालःसोऽयं शेषस्तु तिष्ठति॥४४॥
उन्होंने तब कहा: "हे देवी, तुम इस प्रकार स्थिर क्यों खड़ी हो? यज्ञयान की प्रक्रिया के लिए उचित मुहूर्त में बहुत कम समय बचा है।४४।

तस्मादागच्छ गच्छामस्तातः कृच्छ्रेण तिष्ठति॥
सोमभारार्द्दितश्चोर्ध्वं सर्वैर्देवैः समावृतः॥४५॥
इसलिए आओ (जल्दी करो)।हम जाएंगे। सिर पर रखे सोम के भार से पिता अत्यधिक व्याकुल और पीड़ित हैं। वह सभी देवों से घिरा हुए हैं।४५।

                  ॥सावित्र्युवाच॥
सर्वदेववृतस्तात तव तातो व्यवस्थितः॥
एकाकिनी कथं तत्र गच्छाम्यहमनाथवत्॥४६॥
                   सावित्री ने कहा !
 ​​प्रिय पुत्र, तुम्हारे पिता सभी देवताओं से घिरे होने के कारण अच्छी तरह से बसे हुए हैं। मैं एक अनाथ  की तरह अकेले वहां कैसे जाऊँगी ?।४६।

तद्ब्रूहि पितरं गत्वा मुहूर्तं परिपाल्यताम्॥४७॥
जाकर पिता जी से कहना कि थोड़ी देर धैर्य रखें।४७।
यावदभ्येति शक्राणी गौरी लक्ष्मीस्तथा पराः॥
देवकन्याःसमाजेऽत्र ताभिरेष्याम्यहऽद्रुतम्॥ ४८॥
(वह प्रतीक्षा करने में प्रसन्न हो सकते हैं) जब तक कि इन्द्राणी, गौरी , लक्ष्मी और अन्य देव-पत्नियाँ आती हैं। देव कन्या हमारी सभा में एकत्रित  हो जाएं। तब  मैं उनके साथ शीघ्र आऊँगी।४८।

सर्वासां प्रेषितो वायुनिमन्त्रेण कृते मया॥
आगमिष्यन्ति ताःशीघ्रमेवं वाच्यःपिता त्वया।४९।
तुम्हारे पिता को सूचित किया जाए कि वायु को मेरे द्वारा उन सभी को आमंत्रित करने के लिए भेजा गया है। वे इसी समय आएंगीं।४९।
                   "सूत उवाच॥
सोऽपि गत्वा द्रुतं प्राह सोमभारार्दितं विधिम्॥
नैषाभ्येति जगन्नाथ प्रसक्ता गृहकर्मणि॥६.१८१.५०॥
             "सूत ने कहा'
वह पुलस्त्य भी सोमभार से पीड़ित ब्रहमा से शीघ्र बोले ! वह ( सावित्री)  नहीं आती हैं जगन्नाथ ( ब्रह्मा) वह तो गृह कार्य में लगी हुईं हैं।
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सा मां प्राह च देवानां पत्नीभिः सहिता मखे॥
अहं यास्यामि तासां च नैकाद्यापि प्रदृश्यते॥५१॥
वह मुझसे कहती है, 'मैं देवों की पत्नियों के साथ यज्ञ में जाऊँगी। लेकिन अभी तक इनमें से कोई भी नजर नहीं आया है.।५१।

एवं ज्ञात्वा सुरश्रेष्ठ कुरु यत्ते सुरोचते॥
अतिक्रामति कालोऽयं यज्ञयानसमुद्रवः॥
तिष्ठते च गृहव्यग्रा सापि स्त्री शिथिलात्मिका॥
५२।
इस प्रकार जानकर, हे सुरों में सबसे उत्कृष्ट, और वही करो जो तुम्हें अच्छा लगे । यज्ञ- अनुष्ठान की प्रक्रिया के लिए बहुत देर हो रही है। वह स्त्री  आलसी है  अपने घरेलू कामों में लगी है।५२।
                
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य पुलस्त्यस्य पितामहः॥
समीपस्थं तदा शक्रं प्रोवाच वचनं द्विजाः॥५३॥    अनुवाद:-             
पुलस्त्य के वचन को सुनकर, पितामह ने पास में खड़े हुए  इन्द्र और ब्राह्मणो से कहा।५३।
                   ॥ब्रह्मोवाच॥
शक्र नायाति सावित्री सापि स्त्री शिथिलात्मिका॥
अनया भार्यया यज्ञो मया कार्योऽयमेव तु॥५४॥
                    ब्रह्मा ने कहा !
हे इन्द्र ! सावित्री नहीं आती है। वह  एक आलसी स्त्री है। लेकिन, क्या मुझे ऐसी पत्नी के साथ यह यज्ञ करना चाहिए ?।५४।

गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः॥
यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥५५॥
 अनुवाद:-               
हे शक्र( इन्द्र) जाओ और जल्दी से किसी दूसरी कन्या को ले आओ ताकि यज्ञ के लिए शुभ मुहूर्त निकल न जाए।५५।

पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः।
 ५६।
हे ब्राह्मणों, पितामह के वचनों को सुनकर, इन्द्र - उनके लिए कन्या की  खोज में गये । जल्द ही वह उससे मिले, क्योंकि वह पास में घूम रही थी ।५६।

अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता॥
कन्यका गोपजा तन्वी चन्द्रास्या पद्मलोचना।५७।
सिर पर मट्ठे का घड़ा रखे इन्द्र द्वारा एक कन्या देखी गयी  जो  एक दुबली-पतली अहीर की कन्या, कमलनयन और चंद्रमुखी थी। ५७।
सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता॥
सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने ॥५८॥
वह यौवन की दहलीज पर थी। वह सभी शुभ गुणों पूर्ण  थी। उनसे इन्द्र!  ने पूछा: "हे कमल-नेत्री, तुम कौन हो ?।५८। 

कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि नः॥५९॥
क्या आप कुंवारी हैं या  विवाहित हो ? बताओ हमको तुम किसकी पुत्री हो ?”।५९।
                   "कन्योवाच ॥
गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता॥
यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम्॥ ६.१८१.६०॥
                   कन्या ने कहा :
मैं एक अहीर की बेटी हूँ। आपका कल्याण हो। मैं यहां छाछ बेचने आयी हूं। यदि आप इसे चाहते हैं, तो मुझे इसकी लागत का मूल्य भुगतान करें। देरी ना करें।६०।  

तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम्॥
जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले॥६१॥
यह सुनकर, स्वर्ग के देव इन्द्र भी  उसे  गोप कन्या मानकर मट्ठा की मटकी वहीं छोड़कर भूतल पर पकड़कर तेजी से  ।६१। 
अथ तां रुदतीं शक्रःसमादाय त्वरान्वितः॥
गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः॥६२॥
रोती हुई उस कन्या को इन्द्र ने लाकर शीघ्र ही  एक गाय के मुंह में प्रवेश करा कर उसे गुदा से बाहर खींच लिया।६२।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३॥
इस प्रकार यज्ञ के योग्य करके और बड़े कुण्ड के शुभ जलों से से स्नान कराकर सुन्दर वस्त्र पहनाकर।६३।
ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे॥६४॥
तब उसने प्रसन्नतापूर्वक चतुर्भुज से कहा जो उसके पास जाकर और उसे सभी देवों की सभा के सामने खड़ा कर दिया:।६४।
कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना॥
तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता॥६५॥
हे सुरों में श्रेष्ठ, यह कन्या अब मेरे द्वारा आपके लिए लाई गई है। वह सुन्दर अंगों  वाली है और सभी शुभ लक्षणों से चिह्नित है।६५।
गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख॥६६॥

हे चतुर्भुज ब्रह्मा ! गोप कन्या जानकर और इसको गाय के मुख से प्रवेश कराके तथा पवित्र करने के लिए गाय के गुदा द्वार  से निकाला गया है ।६६।
हे चतुर्भुज, यह जानकर कि वह एक अहीर की बेटी है, उसे पवित्र करने के उद्देश्य से एक गाय के मुंह में प्रवेश करा दिया किया गया और फिर गुदा( मलद्वार) से बाहर निकाला गया।६६।

             ॥श्रीवासुदेव उवाच॥
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ॥
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥ ६७ ॥
             श्री वासुदेव ने कहा !
 गाय और ब्राह्मण एक ही कुल  के हैं। यह दो भागों में विभक्त है, जैसे एक में मन्त्रों का वास है, जबकि दूसरे में हवि का वास है।६७।
धेनूदराद्विनिष्क्रान्ता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये॥६८।
गाय के पेट से निकलकर यह कन्या ब्राह्मणों की कन्या बनी है। मख ( यज्ञ)की पूर्ति के लिए, हे भगवान आप इसका हाथ पकड़ लो।६८।
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥६९॥
इससे यज्ञ के प्रदर्शन के लिए शुभ मुहूर्त से पहले ही पाणि ग्रहण करो ।६९।
★                 ॥रुद्र -उवाच॥ 
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता ॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति ॥ ६.१८१.७०॥
                   रुद्र ने कहा :
 वह गाय के मुख में प्रविष्ट होकर गुदाद्वार से बाहर निकाली गई। इसलिए इनका नाम गायत्री रखा गया है । वह तुम्हारी पत्नी बनेगी।७०।
                    ॥ब्रह्मोवाच॥
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि ॥
संभूय ब्राह्मणी श्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम॥७१॥
                     ब्रह्मा ने कहा :
सभी ब्राह्मण सामूहिक रूप से कहें कि यद्यपि वह एक अहीर की बेटी है, अब वह एक उत्कृष्ट ब्राह्मण लड़की बन गई है ताकि वह मेरी पत्नी बन सके।७१।
★              ॥ ब्राह्मणा ऊचुः॥
एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥
  अनुवाद:-                                 
                 ब्राह्मणों ने कहा :
वह एक उत्कृष्ट ब्राह्मण स्त्री होगी जो एक  अहीराणी के जन्म से मुक्त होगी। हमारे कहने पर, हे चतुर्मुखी, उससे शीघ्र विवाह करो।७२।
                  ॥सूत उवाच॥
ततः पाणिग्रहं चक्रे तस्या देवः पितामहः॥
कृत्वा सोमन्ततो मूर्ध्निगृह्योक्तविधिना द्विजाः।७३।
                 सूत जी  बोले :
तब भगवान पितामह ने उनसे विवाह किया। फिर, हे ब्राह्मणों, उन्होंने सोम को सिर के ऊपर धारण किया, जिस तरह गृह्य सूत्र में इसका आदेश दिया गया है ।७३।
सन्तिष्ठति च तत्रस्था महादेवी सुपावनी॥
अद्यापि लोके विख्याता धनसौभाग्यदायिनी।७४।
पवित्र महान देवी आज भी वहां विराजमान हैं। वह धन और दाम्पत्य सुख की दाता के रूप में प्रसिद्ध है।७४।
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यस्तस्यां कुरुते मर्त्यः कन्यादानं समाहितः॥
समस्तं फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः॥७५॥
 जो मनुष्य बड़ी एकाग्रता से वहाँ कन्या का दान करता है, वह राजसूय और अश्व-यज्ञ का पूरा लाभ प्राप्त करता है ।७५।
कन्या हस्तग्रहं तत्र याऽऽप्नोति पतिना सह॥
सा स्यात्पुत्रवती साध्वी सुखसौभाग्यसंयुता॥७६॥
वहां विवाह करने वाली कन्या को पुत्र, सुख और वैवाहिक सौभाग्य की प्राप्ति होती है।७६।
पिण्डदानं नरस्तस्यां यः करोति द्विजोत्तमाः॥
पितरस्तस्य संतुष्टास्तर्पिताः पितृतीर्थवत् ॥७७॥
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, यदि कोई व्यक्ति वहाँ  (पिण्डदान) करता है तो पितृ उससे प्रसन्न होते हैं जैसे कि पितृतीर्थ में तर्पण किया गया हो ।७७।
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इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्ययवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः॥१८१
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यह स्कन्द पुराण के नागर-खण्ड के तीर्थ-महात्म्य का एकसौ इकयासीवाँ अध्याय है।
अध्याय -(181)- गायत्री तीर्थ की महिमा
माता-पिता: खण्ड-1 -गर्तातीर्थ-महात्म्य
       
                      

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