आर्य-समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द तथा उन के अनुयायी कहने लगे कि राधा के चरित्र की कृष्ण के साथ कल्पना बाद के कवियों या विधर्मियों ने श्रीकृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए की है।
वह गोकुल के सारे निवासियों को प्रसन्न रखने की क्षमता होने के कारण राम कहलाएगा और अपनी प्रचुर शारीरिक शक्ति के कारण बलभद्र कहलाएगा।
नन्द और वसुदेव दोनों का कुल वृष्णि ही था दोनों एक पितामह देवमीढ़ के पौत्र (नाती) थे। और
भागवत पुराण में राधा या वर्णन न होना उचित ही है क्यों कि कृष्ण चरित्र का सबसे अधिक हनन तो भागवत पुराण कार ने भी कसर नहीं छोड़ी
इतना ही नही चीरहरणलीला की आड़ में भी भागवत कार ने अपनी कामुक प्रवृत्तियों का प्रदर्शन किया है।
अब इस बात का उत्तर देने के चक्कर में आज के कुछ अभिनव कथावाचक बिना सम्प्रदायानुगमन के ही श्रीमद्भागवत में कहीं भी (र) और (ध) शब्द की संगति देखकर वहीं हठपूर्वक राधा को सिद्ध करने बैठ जाते हैं।
वे राधावन्त और राधावान् शब्द के अर्थ करते हैं जो राधा से युक्त है अथवा राधा का भक्त !
देवता तो अमृतपान कर चुके थे, सो उनका कबन्धीकरण सम्भव नहीं, वैसे भी कबन्ध तो सुरों के नहीं, असुरों के ही बने हैं
ऐसे तो सभी अर्थ सिद्ध ही हो जाएंगे। जहाँ रावण के लिए वाल्मीकिजी या विश्वामित्रजी ने श्रीमान् शब्द का प्रयोग किया है, वहाँ श्री का अर्थ लक्ष्मी लेने से व्याकरण उसे सिद्ध करके लक्ष्मीपति बना देगा किन्तु प्रसङ्गविरोध उस शब्दसिद्धि के साधु होने पर भी अग्राह्य बताएगा, वहाँ श्रीमान् शब्द का अर्थ ऐश्वर्यसम्पन्न ही लगाएंगे।
तातः= पुंल्लिंग (तनोति विस्तारयति गोत्रादिकमिति । तन + “दुतनिभ्यां दीर्घश्च ।” उणादि सूत्र ।३ ।९० । इति क्तः दीर्घश्च। अनुदात्तेति नलोपः) पिता पुत्र चाचा दादा आदि पारिवारिक जन ।
पञ्चानन शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ शिव होगा और कहाँ सिंह, यह भी प्रकरण ही बताएगा। पञ्चं विस्तीर्णमाननमस्य पञ्चानन:- पाँच मुख वाला सिंह के चार मुख तो पंजे ही होते है और पाँचवाँ उसका स्वयं का मुख-
परम्परालब्ध प्रसङ्गसम्मत सिद्ध अर्थ के उपलब्ध होने पर भी अपारम्परिक प्रसङ्गविरुद्ध अर्थग्रहण सैन्धवं आनय के समान विभ्रमकारक और दोषपूर्ण है। पर्याय और लक्षण भी प्रसङ्ग से सम्मत ही होकर ग्राह्य होते हैं, विरुद्ध जाकर नहीं।
आश्चर्य है कि इतना अद्भुत विशेषण जो कि इतना महत्वपूर्ण है कि मस्तक कटने पर भी श्रीराधाप्रताप से वे कबन्धरूप से पुनः उठ खड़े हुए, फिर भी पूर्व के तत्ववेत्ता श्रीधराचार्य, श्रीवल्लभाचार्य, श्रीवीराघवाचार्य, श्रीवंशीधराचार्य, श्रीजीवगोस्वामीजीप्रभृति, श्रीविश्वनाथचक्रवर्ती आदि सबों ने इसमें कहीं श्रीराधाजी की इस अद्भुत महिमा का उल्लेख तक करना उचित नहीं समझा, अपितु धावन्तो आदि ही अर्थ किया।
श्रीराधाजी के इस अप्रकाशित माहात्म्य को अब जाकर इस विवाद के बाद प्रकाशित करने हेतु आप सभी गुरुजनों का आभार।
स्वयं श्रीकृष्णरूप होने से शुकदेवजी ब्रह्मभावावेश के कारण 'राधा' शब्द के उच्चारणमात्र से छः महीनों के लिए मूर्च्छित हो जाते थे, और परीक्षित् की आयु सप्तदिनावधि ही शेष थी, अतः उनके हित की कामना से शुकदेवजी ने राधाजी का प्रत्यक्ष नाम नहीं लिया है।
श्रीराधानाममात्रेण मूर्च्छा षाण्मासिकी भवेत्।
अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षित्हितकृन्मुनिः॥
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उपर्युक्त श्लोक का तृतीय और चतुर्थ पाद विचारणीय है -
"परीक्षित्हितकृन्मुनि: नोच्चारितं"। यहां परीक्षित्हितकृन्मुनिना स्पष्टं (श्रीराधानाम) नोच्चारितम् - ऐसा प्रयोग न करके "अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षित्हितकृन्मुनि:" यह प्रथमान्त प्रयोग कैसे ?
तो आप कहना होगा कि आधावन्तः को राधावन्तः और उसका अन्वय कबन्धाः के साथ करके असिद्ध को सिद्ध करने वाले महानुभाव "अतो नोच्चारितं स्पष्टं, (यस्मात्स) मुनिः परीक्षित्हितकृत्" ऐसा अर्थाध्याहार क्यों नहीं करते, जबकि ऐसे श्लोकप्रयोग बहुतायत से उपलब्ध भी हैं।
वैसे भी स्पष्ट कर ही दिया -
यथा प्रियङ्गुपत्रेषु गूढमारुण्यमिष्यते।
श्रीमद्भागवते शास्त्रे राधिकातत्त्वमीदृशम्॥
जैसे मेहन्दी के पत्तों में (बाहर से हरा होने पर भी) लालिमा अन्दर छिपी हुई, सर्वत्र व्याप्त रहती है वैसे ही श्रीमद्भागवत में राधिकातत्त्व बाहर से न दिखने पर भी अन्दर सर्वत्र निहित है।
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श्रीमद्भागवत क्या है ? श्रीकृष्ण की साक्षात् वाङ्मयी मूर्ति है। पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कहा - तेनेयं वाङ्मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः। और स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में भगवती कालिन्दी ने कहा है - आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका।
आत्माराम कृष्ण की आत्मा निश्चय ही राधिकाजी हैं।
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तो देह में आत्मा होती हुई भी, जैसे नहीं दिखती है, अदृश्यभाव से निहित होती है, मेहन्दी के पत्तों में लालिमा छिपी होती है, वैसे ही श्रीकृष्णरूपी शब्दकलेवर श्रीमद्भागवत में आत्मारूपी राधिका अदृश्यरूप से निहित हैं।
उनका प्रत्यक्ष नहीं, सांकेतिक वर्णन शुकदेवजी ने किया है।
"यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने।
सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम्॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय - ३०) उसी अध्याय में यह भी कहा - देखे नीचे-
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"अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः॥
इस श्लोक में श्रीराधिकाजी का संकेत है जो उचित भी है। रासक्रीड़ा के मध्य अन्य गोपियों को छोड़कर एक वरिष्ठ गोपी को भगवान् ले गए थे।
वेदों ने कहा कि वे गोपिका श्रीराधाजी ही तो हैं। ऋग्वेद के राधोपनिषत् ने कहा - वृषभानुसुता गोपी मूलप्रकृतिरीश्वरी। वह गोपी मूलप्रकृति, ईश्वरी, वृषभानु की पुत्री हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि दूसरे स्कन्ध में निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः, इस श्लोक से भी राधाजी का संकेत होता है। अन्यजन कहते हैं कि 'एवं पुरा धारणयात्मयोनिः' श्लोक में पु'रा-धा'रणया शब्द को जोड़ने से राधाजी दिखती हैं। किन्तु अनयाराधितो वाले श्लोक के समान इनमें प्रसङ्गबल प्राप्त नहीं होता।
अब हम इसपर चर्चा करते हैं कि श्रीराधाजी का जन्म जिन वृषभानुगोप और माता कलावती/कीर्तिदा/कीर्ति के घर हुआ, वे कौन हैं ? पूरा प्रसङ्ग तो बताना विस्तारभय से सम्भव नहीं, मात्र प्रधान घटनाक्रम और श्लोकों को सन्दर्भित करते हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण एवं गर्गसंहिता-से उद्धृत श्लोक-
"श्रीबहुलाश्व उवाच
वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत्।
कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि॥
"श्रीनारद उवाच
नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः।
चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः॥
पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः।
कलावती रत्नमाला मेनका नाम नामतः॥
कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते।
वैदेहाय रत्नमालां मेनकां च हिमाद्रये॥
पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः।
सीताभूद्रत्नमालायां मेनकायां च पार्वती॥
द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते।
अनुवाद:-
राजा बहुलाश्व ने पूछा - वृषभानु का कितना बड़ा सौभाग्य था कि राधाजी उनकी बेटी के रूप में आयीं। कलावती और सुचन्द्र ने पिछले जन्म में ऐसा क्या पुण्य किया था ? देवर्षि नारद बोले - महाराज नृग ने पुत्र के सुचन्द्र हुए जो विष्णु भगवान् के ही अंश और अत्यन्त सुन्दर थे।
पितरों की तीन मनोहर मानस पुत्रियाँ थीं - रत्नमाला, मेनका और कलावती। इसमें कलावती का विवाह बुद्धिमान् सुचन्द्र से हुआ। रत्नमाला का विवाह विदेहराज जनक से और मेनका का हिमालय से हुआ।
इसमें रत्नमाला की पुत्री के रूप में सीताजी और मेनका की पुत्री पार्वती हुईं जिनका चरित्र विस्तार से पुराणों में बताया गया है।
फिर इतनी बात कहकर नारद जी ने सुचन्द्र और कलावती की तपस्या का वर्णन किया और बताया कि कैसे ब्रह्मदेव उन्हें वरदान देने आए।
उन्होंने प्रसन्न होकर मात्र सुचन्द्र को मोक्ष देने का प्रस्ताव रखा तो कलावती ने कहा कि मेरे पति का मोक्ष हो जाएगा तो मेरा क्या होगा ?
तब ब्रह्मदेव ने कहा कि मोक्ष का कोई दूसरा उपाय देखते हैं -
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युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया ।
भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः॥
"श्रीनारद उवाच -
इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा।
कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः॥
कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च।
जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्भवा॥
सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत्।
जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः॥
सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः।
तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः॥
वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात्॥
(गर्गसंहिताखण्ड, गोलोकखण्ड, अध्याय -8)
अनुवाद:-
ब्रह्मदेव ने कहा - परिपूर्णत्तम श्रीकृष्ण की प्रिया राधा जब तुम्हारी पुत्री के रूप में आएंगी तब तुम दोनों मोक्ष को प्राप्त कर जाओगे। नारद मुनि कहते हैं - ब्रह्मदेव के दिव्य और अमोघरूपी वरदान के कारण सुचन्द्र और कलावती ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया।
इसमें कन्नौज के राजा भलन्दन के यज्ञ में अग्निकुण्ड से कलावती (कीर्तिदा के नाम से) दिव्यरूप से प्रकट हुईं और सुरभानु के यहाँ सुचन्द्र ने वृषभानु के नाम से जन्म लिया।
तात्पर्य यह कि यज्ञ करते समय इनका जन्म हुआ।
वे दूसरे कामदेव के समान सुन्दर थे और उन दोनों को अपने पूर्वजन्म की बातें जातिस्मरसिद्धि के कारण स्मरण थीं। इन दोनों से बुद्धिमान् नन्दराय जी ने अपना रिश्ता जोड़ लिया।
वृषभानु और कलावती का यह आख्यान सुनने वाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त होकर श्रीकृष्ण के सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।
"सनत्कुमार उवाच"
पितॄणां तनयास्तिस्रःशृणुत प्रीतमानसाः।
वचनं मम शोकघ्नं सुखदं सर्वदैव वः ।।२७।।
विष्णोरंशस्य शैलस्य हिमाधारस्य कामिनी ।।
ज्येष्ठा भवतु तत्कन्या भविष्यत्येव पार्वती ।।२८।
धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च ।।
तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति।। २९।।
वृषभानस्य वैश्यस्य कनिष्ठा च कलावती।
भविष्यति प्रिया राधा तत्सुता द्वापरान्ततः।३०।
मेनका योगिनी पत्या पार्वत्याश्च वरेण च ।।
तेन देहेन कैलासं गमिष्यति परम्पदम् ।। ३१ ।।
धन्या च सीतया सीरध्वजो जनकवंशजः ।।
जीवन्मुक्तो महायोगी वैकुण्ठं च गमिष्यति।३२।
कलावती वृषभानस्य कौतुकात्कन्यया सह ।
जीवन्मुक्ता च गोलोकं गमिष्यति न संशयः।३३।
विना विपत्तिं महिमा केषां कुत्र भविष्यति ।।
सुकर्मिणां गते दुःखे प्रभवेद्दुर्लभं सुखम् ।३४।
यूयं पितॄणां तनयास्सर्वास्स्वर्गविलासिकाः ।।
कर्मक्षयश्च युष्माकमभवद्विष्णुदर्शनात् ।। ३५ ।।
इत्युक्त्वा पुनरप्याह गतक्रोधो मुनीश्वरः ।।
शिवं संस्मृत्य मनसा ज्ञानदं भुक्तिमुक्तिदम् ।। ३६।
अपरं शृणुत प्रीत्या मद्वचस्सुखदं सदा ।।
धन्या यूयं शिवप्रीता मान्याः पूज्या ह्यभीक्ष्णशः।३७।
मेनायास्तनया देवी पार्वती जगदम्बिका ।।
भविष्यति प्रिया शम्भोस्तपः कृत्वा सुदुस्सहम्।। ३८।
धन्या सुता स्मृता सीता रामपत्नी भविष्यति ।।
लौकिकाचारमाश्रित्य रामेण विहरिष्यति ।३९ ।
कलावतीसुता राधा साक्षाद्गोलोकवासिनी ।।
गुप्तस्नेहनिबद्धा सा कृष्णपत्नी भविष्यति।४०।
"ब्रह्मोवाच"
इत्थमाभाष्य स मुनिर्भ्रातृभिस्सह संस्तुतः।
सनत्कुमारो भगवाँस्तत्रैवान्तर्हितोऽभवत् ।४१।
तिस्रो भगिन्यस्तास्तात पितॄणां मानसीः सुताः।।
गतपापास्सुखं प्राप्य स्वधाम प्रययुर्द्रुतम्।४२।।
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इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखंडे पूर्वगतिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।
(शिवपुराण, रुद्रसंहिता, पार्वतीखण्ड, अध्याय - २)
अनुवाद:-
यह वृत्तान्त शिवपुराण में निम्न प्रकार से वर्णित है। जो सबसे बड़ी मेनका है, वह विष्णु के अंशभूत हिमालय(हिमवत) की पत्नी बनेगी, जिसकी पुत्री पार्वती होंगी। जो दूसरी धन्या नाम की योगसम्पन्न कन्या है, वह सीरध्वज जनक की पत्नी बनेगी जिसकी पुत्री के रूप में महालक्ष्मी सीताजी का रूप धारण करके आएंगी।
जो सबसे छोटी कन्या कलावती है, वह वृषभानु वैश्य (गोप) की पत्नी बनेगी और द्वापरयुग के अन्त में उसकी पुत्री राधा बनेगी।
पार्वती के वरदान से मेनका अपने पति के साथ सदेह परमधाम कैलास जाएगी। धन्या के साथ महायोगी विदेह जनक अपनी पुत्री सीता के कारण जीवन्मुक्त होकर वैकुण्ठलोक को जाएंगे। अपनी पुत्री राधा के साथ वृषभान और कलावती गोलोक जाएंगे, इसमें संशय नहीं है।
श्रीराधाजी के जन्म का एक सुन्दर वृत्तान्त पद्मपुराण में वर्णित राधाष्टमी व्रतकथा के अन्तर्गत भी मिलता है।
"पद्मपुराण - (ब्रह्मखण्डः अध्यायः -८
-शौनक उवाच-
"कथयस्व महाप्राज्ञ गोलोकं याति कर्मणा ।
सुमते दुस्तरात्केन जनःसंसारसागरात् ।
राधायाश्चाष्टमी सूत तस्या माहात्म्यमुत्तमम्।१।
-सूत उवाच-
ब्रह्माणं नारदोऽपृच्छत्पुरा चैतन्महामुने।
तच्छृणुष्व समासेन पृष्टवान्स इति द्विज।२।
नारद उवाच-
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविदां वर।
राधाजन्माष्टमी तात कथयस्व ममाग्रतः।३।
तस्याःपुण्यफलं किंवा कृतं केन पुराविभो।
अकुर्वतां जनानां हि किल्बिषं किं भवेद्द्विज।४।
केनैव तु विधानेन कर्त्तव्यं तद्व्रतं कदा ।
____________________
कस्माज्जाता च सा राधा तन्मे कथय मूलतः।५।
"ब्रह्मोवाच-"
राधाजन्माष्टमीं वत्स शृणुष्व सुसमाहितः ।
कथयामि समासेन समग्रं हरिणा विना ।६।
कथितुं तत्फलं पुण्यं न शक्नोत्यपि नारद।
कोटिजन्मार्जितं पापं ब्रह्महत्यादिकं महत्।७।
कुर्वंति ये सकृद्भक्त्या तेषांनश्यति तत्क्षणात्।
एकादश्याः सहस्रेण यत्फलं लभते नरः।८।
राधाजन्माष्टमी पुण्यं तस्माच्छतगुणाधिकम् ।
मेरुतुल्यसुवर्णानि दत्वा यत्फलमाप्यते।९।
सकृद्राधाष्टमीं कृत्वा तस्माच्छतगुणाधिकम् ।
कन्यादानसहस्रेण यत्पुण्यं प्राप्यते जनैः ।१०।
_________________
वृषभानुसुताष्टम्या तत्फलं प्राप्यते जनैः।
गंगादिषु च तीर्थेषु स्नात्वा तु यत्फलं लभेत् ।११।
________________
कृष्णप्राणप्रियाष्टम्याः फलं प्राप्नोति मानवः ।
एतद्व्रतं तु यः पापी हेलया श्रद्धयापि वा ।१२।
करोति विष्णुसदनं गच्छेत्कोटिकुलान्वितः।
पुरा कृतयुगे वत्स वरनारी सुशोभना।१३।
सुमध्या हरिणीनेत्रा शुभांगी चारुहासिनी।
सुकेशी चारुकर्णी च नाम्ना लीलावती स्मृता।१४।
तया बहूनि पापानि कृतानि सुदृढानि च।
एकदा साधनाकांक्षी निःसृत्य पुरतः स्वतः।१५।
गतान्यनगरं तत्र दृष्ट्वा सुज्ञ जनान्बहून् ।
राधाष्टमीव्रतपरान्सुंदरे देवतालये ।१६।
गंधपुष्पैर्धूपदीपैर्वस्त्रैर्नानाविधैः फलैः।
भक्तिभावैः पूजयन्तो राधाया मूर्तिमुत्तमाम् ।१७।
केचिद्गायंति नृत्यंति पठंति स्तवमुत्तमम् ।
तालवेणुमृदंगांश्च वादयंति च के मुदा ।१८।
तांस्तांस्तथाविधान्दृष्ट्वा कौतूहलसमन्विता।
जगाम तत्समीपं सा पप्रच्छ विनयान्विता ।१९।
भो भोः पुण्यात्मानो यूयं किं कुर्वंतो मुदान्विताः।
कथयध्वं पुण्यवंतो मां चैव विनयान्विताम् ।२०।
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा परकार्यहितेरताः।
आरेभिरे तदा वक्तुं वैष्णवा व्रततत्पराः ।२१।
"राधाव्रतिन ऊचु"
भाद्रे मासि सिताष्टम्यां जाता श्रीराधिका यतः।
अष्टमी साद्य संप्राप्ता तांकुर्वाम प्रयत्नतः।२२।
गोघातजनितं पापं स्तेयजं ब्रह्मघातजम् ।
परस्त्रीहरणाच्चैव तथा च गुरुतल्पजम् ।२३।
विश्वासघातजं चैव स्त्रीहत्याजनितं तथा ।
एतानि नाशयत्याशु कृता या चाष्टमी नृणाम् ।२४।
तेषां च वचनं श्रुत्वा सर्वपातकनाशनम् ।
करिष्याम्यहमित्येव परामृष्य पुनः पुनः ।२५।
तत्रैव व्रतिभिः सार्द्धं कृत्वा सा व्रतमुत्तमम् ।
दैवात्सा पंचतां याता सर्पघातेन निर्मला ।२६।
ततो यमाज्ञया दूताः पाशमुद्गरपाणयः ।
आगतास्तां समानेतुं बबन्धुरतिकृच्छ्रतः ।२७।
यदा नेतुं मनश्चक्रुर्यमस्य सदनं प्रति ।
तदागता विष्णुदूताः शंखचक्रगदाधराः ।२८।
हिरण्मयं विमानं च राजहंसयुतं शुभम् ।
छेदनं चक्रधाराभिः पाशं कृत्वा त्वरान्विताः।२९।
रथे चारोपयामासुस्तां नारीं गतकिल्बिषाम्।
निन्युर्विष्णुपुरं ते च गोलोकाख्यं मनोहरम्।३०।
___________________
कृष्णेन राधया तत्र स्थिता व्रतप्रसादतः।
राधाष्टमीव्रतं तात यो न कुर्य्याच्च मूढधीः ।३१।
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नरकान्निष्कृतिर्नास्ति कोटिकल्पशतैरपि ।
स्त्रियश्च या न कुर्वंति व्रतमेतच्छुभप्रदम् ।३२।
राधाविष्णोः प्रीतिकरं सर्वपापप्रणाशनम् ।
अंते यमपुरीं गत्वा पतंति नरके चिरम् ।३३।
__________
"कदाचिज्जन्मचासाद्य पृथिव्यां विधवाध्रुवम् ।
एकदा पृथिवी वत्स दुष्टसंघैश्च ताडिता ।३४।
गौर्भूत्वा च भृशं दीना चाययौ सा ममांतिकम् ।
निवेदयामास दुःखं रुदंती च पुनः पुनः ३५।
तद्वाक्यं च समाकर्ण्य गतोऽहं विष्णुसंनिधिम्
कृष्णे निवेदितश्चाशु पृथिव्या दुःखसंचयः ३६।
तेनोक्तं गच्छ भो ब्रह्मन्देवैः सार्द्धं च भूतले।
अहं तत्रापि गच्छामि पश्चान्ममगणैः सह।३७।
तच्छ्रुत्वा सहितो दैवैरागतः पृथिवीतलम् ।
ततः कृष्णः समाहूय राधां प्राणगरीयसीम् ।३८।
उवाच वचनं देवि गच्छेहं पृथिवीतलम् ।
पृथिवीभारनाशाय गच्छ त्वं मर्त्त्यमंडलम्।३९।
इति श्रुत्वापि सा राधाप्यागता पृथिवीं ततः ।
भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमीसंज्ञिके तिथौ।४०।
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वृषभानोर्यज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिवा ।
यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी ।।४१।
राजानं दमना भूत्वा तां प्राप्य निजमंदिरम् ।
दत्तवान्महिषीं नीत्वा सा च तां पर्यपालयत् ।४२।
इति ते कथितं वत्स त्वया पृष्टं च यद्वचः ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः।४३।
-सूत उवाच-
य इदं शृणुयाद्भक्त्या चतुर्वर्गफलप्रदम् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तश्चांतेयातिहरेर्गृहम् ।४४।
इति श्रीपाद्मे महापुराणे ब्रह्मखंडे ब्रह्मनारदसंवादे श्रीराधाष्टमीमाहात्म्यंनाम सप्तमोऽध्यायः ।७।
अनुवाद:-
अध्याय 7 - राधाष्टमी का माहात्म्य-
शौनका ने कहा :
1. हे परम ज्ञानी, हे अति बुद्धिमान, मुझे बताओ कि मनुष्य किस कर्म के कारण संसार रूपी समुद्र से, जिसे पार करना मुश्किल है, गायों की दुनिया( गोलोक) में जाता है और, हे सूत, राधाष्टमी और उसके उत्कृष्ट महत्व के बारे में बताऐं ।
सूत ने कहा :
2. हे ब्राह्मण , हे महान ऋषि, पूर्व में नारद ने ब्रह्मा से यह पूछा था । संक्षेप में सुनिए, उसने उससे क्या पूछा था।
नारद ने कहा :
3-5। हे प्रपौत्र, हे परम ज्ञानी, हे सर्व पवित्र ग्रंथों को जानने वालों में श्रेष्ठ, हे प्रिय, मुझे (के बारे में) राधाजन्माष्टमी बताओ। हे स्वामी इसका धर्म फल क्या है ?
पुराने दिनों में इसे किसने देखा ?
हे ब्राह्मण , जो लोग इसका पालन नहीं करते हैं उनका क्या पाप होगा ?
व्रत का पालन किस प्रकार करना चाहिए ?
इसे कब मनाया जाना है ? मुझे (सब) बताओ कि आदि से, जिससे राधा का जन्म हुआ।
ब्रह्मा ने कहा :
6-12। हे बालक, राधाजन्माष्टमी (के व्रत का वर्णन) को बहुत ध्यान से सुनो। सारा हिसाब संक्षेप में बताता हूँ।
हे नारद, विष्णु के अतिरिक्त इसके पुण्य फल के बारे में बताना (किसी के लिए) संभव नहीं है। वह ब्राह्मण की हत्या जैसा पाप, जिन्होंने इसे एक करोड़ जन्मों के माध्यम से अर्जित किया है, एक क्षण में नष्ट हो जाता है, (जब) वे भक्तिपूर्वक (यानी व्रत) का पालन करते हैं। राधाजन्माष्टमी का धार्मिक फल उस फल से सौ गुना अधिक है जो मनुष्य एक हजार एकादशी (दिनों का व्रत) रखने से प्राप्त करता है। राधाष्टमी का पुण्य एक बार करने से जो फल मिलता है, वह मेरु के बराबर सोना देने से सौ गुना अधिक होता है।(पर्वत)। लोग राधाष्टमी से वह फल प्राप्त करते हैं, जो (पुण्य) वे एक हजार कन्याओं (विवाह में) देकर प्राप्त करते हैं। मनुष्य को कृष्ण की प्रिय अष्टमी (अर्थात् राधाष्टमी) का वह फल प्राप्त होता है, जो उसे गंगा जैसे पवित्र स्थानों में स्नान करने से प्राप्त होता है । (यहाँ तक कि) एक पापी जो इस व्रत का आकस्मिक रूप से या श्रद्धापूर्वक पालन करता है, वह अपने परिवार के एक करोड़ सदस्यों के साथ विष्णु के स्वर्ग में जाएगा।
13-20। हे बालक, पूर्व में कृतयुग में एक उत्कृष्ट, बहुत सुंदर स्त्री, एक सुंदर (यानी पतली) कमर वाली, एक मादा हिरण की तरह आँखें वाली, एक सुंदर रूप वाली, सुंदर केश वाली, सुंदर कान वाली, लीलावती के नाम से जानी जाती थी. उसने बहुत घोर पाप किया था। एक बार वह धन की लालसा में अपने नगर से निकलकर दूसरे नगर में चली गई। वहाँ, एक सुंदर मंदिर में, उसने कई बुद्धिमान लोगों को राधाष्टमी व्रत का पालन करते हुए देखा।
वे चंदन, पुष्प, धूप, दीप, वस्त्र के टुकड़े और नाना प्रकार के फलों से राधा की उत्कृष्ट प्रतिमा की भक्तिपूर्वक पूजा कर रहे थे। कुछ ने गाया, नृत्य किया, स्तुति के उत्कृष्ट भजन का पाठ किया।
कुछ (अन्य) खुशी से वीणा बजाते थे और ढोल पीटते थे।
उन्हें इस प्रकार देखकर कौतूहल से भरी हुई वह उनके पास गई और विनयपूर्वक उनसे बोलीः “हे धार्मिक मनवालो, तुम आनंद से भरे हुए क्या कर रहे हो? हे गुणवानों, मुझे बताओ कि कौन विनम्रता से भरा हुआ है (जो तुम कर रहे हो)।
21-24। वे भक्त व्रत का पालन करने वाले और दूसरों को उपकार करने और उनका भला करने में रुचि रखते हुए बोलने लगे।
जिन लोगों ने राधा (-अष्टमी) व्रत का पालन किया था, उन्होंने कहा: "आज वह आठवां दिन आया है - यानी शुक्ल पक्ष के आठवें दिन - राधा का जन्म हुआ था।
हम इसे ध्यान से देख रहे हैं। गाय की हत्या, चोरी या ब्राह्मण की हत्या से उत्पन्न पाप या किसी दूसरे की पत्नी को हरण करने से उत्पन्न होने वाले पाप के समान यह अष्टमी (इस प्रकार) मनुष्य के पापों को शीघ्र नष्ट कर देती है।
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व्यक्ति, या (एक पुरुष के) अपने शिक्षक के बिस्तर (यानी पत्नी) का उल्लंघन करने के कारण।
25-42। उनकी बातें सुनकर और बार-बार मन ही मन सोचती हुई, 'मैं (इस व्रत का) पालन करूँगी, जो सभी पापों को नष्ट कर देता है' उसने वहाँ उपस्थित लोगों के साथ उस उत्तम व्रत का पालन किया। उस पवित्र स्त्री की मृत्यु सर्प द्वारा चोट लगने (अर्थात् डसने) के कारण हुई। तब ( यम के) दूत हाथों में पाश और हथौड़े लिए हुए यम की आज्ञा से वहाँ आए और उसे बहुत ही दर्दनाक तरीके से बाँध दिया।
जब उन्होंने उसे यम के निवास पर ले जाने का फैसला किया, तो विष्णु के दूत शंख और गदा लेकर आए (वहाँ)। (वे अपने साथ लाए थे) सोने का बना हुआ एक शुभ वायुयान, जिसमें राजकीय हंस जुते हुए थे। उन्होंने शीघ्र ही चक्रों के किनारों को काटकर उस स्त्री को जिसका पाप दूर हो गया था, रथ पर बिठा दिया।
वे उसे विष्णु के आकर्षक नगर गोलोक में ले गए, जहाँ वह मन्नत की अनुकूलता के कारण कृष्ण और राधा के साथ रही।
हे प्रिय, जो मूर्ख राधाष्टमी के व्रत का पालन नहीं करता है, उसे सैकड़ों करोड़ कल्पों के लिए भी नरक से मुक्ति नहीं मिलती है ।
वे स्त्रियाँ भी जो कल्याणकारी, राधा और विष्णु को प्रसन्न करने वाले, समस्त पापों का नाश करने वाले इस व्रत का पालन नहीं करतीं, वे अंत में यम के नगर में जाती हैं
और दीर्घकाल के लिए नरक में गिरती हैं।
यदि वे संयोग से पृथ्वी पर जन्म लेते हैं, तो वे निश्चित रूप से विधवा हो जाती हैं। हे बालक, एक बार (इस) पृथ्वी पर दुष्टों के दल ने आक्रमण कर दिया।
वह अत्यंत असहाय होकर गाय बन गई और मेरे पास आ गई। वह बार-बार रो-रोकर अपनी व्यथा मुझसे कह रही थी। उसकी बातें सुनकर मैं विष्णु के सान्निध्य में गया।
मैंने जल्दी से कृष्ण (अर्थात् विष्णु) को उसके दुःख की तीव्रता बता दी। उसने (मुझसे) कहा: "हे ब्राह्मण, देवताओं के साथ पृथ्वी पर जाओ।
बाद में मैं भी अपने सेवकों के साथ वहाँ जाऊँगा।” यह सुनकर मैं देवताओं सहित पृथ्वी पर आ गया।
तब कृष्ण ने राधा (जो उनके लिए थीं) को अपने प्राणों से भी बड़ा बताते हुए (ये) शब्द (उन्हें) कहे; “हे देवी, मैं पृथ्वी के बोझ को नष्ट करने के लिए पृथ्वी पर जा रहा हूँ। तुम (भी) पृथ्वी पर जाओ। उन (शब्दों) को सुनकर, राधा भी तब पृथ्वी पर चली गईं।
वह राधिका भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में अष्टमी नामक दिन को वृषभानु की यज्ञ भूमि पर दिन के समय प्रकट हुईं ।
यज्ञ के लिए शुद्ध होने पर वह दिव्य रूप धारण करके (वहाँ) प्रकट हुई।
राजा ने मन ही मन प्रसन्न होकर उसे अपने घर ले जाकर अपनी रानी को सौंप दिया।
उसने उसका पालन-पोषण भी किया।
43. इस प्रकार हे बालक, जो बातें मैं ने तुझ से कही हैं वे गुप्त रहें, गुप्त रहें, और सावधानी से गुप्त रहें।
सूता ने कहा :
44. जो मनुष्य (मनुष्य जीवन के) चारों लक्ष्यों का फल देने वाले इस (व्रत का लेखा-जोखा) श्रद्धापूर्वक सुनेगा, वह सब पापों से मुक्त होकर अन्त में विष्णु के घर जाता है।
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हिंसायज्ञैश्च भगवान्स च तृप्तिमवाप्नुयात् ।
स च यज्ञपशुर्वह्नौ ब्रह्मभूयाय कल्पते । ।
तस्य मोक्षप्रभावेन महत्पुण्यमवाप्नुयात् । ५८।
विधिहीनो नरः पापी हिंसायज्ञं करोति यः ।
अन्धतामिस्रनरकं तद्दोषेण वसेच्चिरम् ।५९।
महत्पुण्यं महत्पापं हिंसायज्ञेषु वर्तते ।
अतस्तु भगवान्कृष्णो हिंसायज्ञं कलौ युगे। 3.4.19.६०
समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके ।
अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले । ६१।
देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः ।
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । ।
प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्य चागता ।६३।
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्।
नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः ।
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः । ६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः ।
शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः । । ६६
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इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः । १९।।
कल्पभेद से एक मत मानता है कि वृषभानु को यज्ञ के समय अन्तरिक्ष से आयी हुई दिव्यरूप वाली राधाजी मिली थीं -
"भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमीसंज्ञिके तिथौ।
वृषभानोर्यज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिवा॥
यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी॥
(पद्मपुराण, ब्रह्मखण्ड, अध्याय- ७, श्लोक - ४१)
अस्तु, यह सिद्ध है कि कलावती और उनकी पुत्री राधिकाजी, दोनों अयोनिजा हैं।
मानवों के समान गर्भ से इनका जन्म नहीं हुआ है। और इन्होंने भी कभी गर्भ धारण नहीं किया यही इनकी अमानवीयता को सूचित करता है।
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अयोनिसंभवश्चायमाविर्भूतो महीतले ।
वायुपूर्णं मातृगर्भे कृत्वा च मायया हरिः ।५२।
आविर्भूय वसुं मूर्तिं दर्शयित्वा जगाम ह।
युगेयुगे वर्णभेदो नामभेदोऽस्य बल्लव।५३।
ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)
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नित्याऽनित्या सर्वरूपा सर्वकारणकारणम् ।।
बीजरूपा च सर्वेषां मूलप्रकृतिरीश्वरी ।२४ ।।
पुण्ये वृन्दावने रम्ये गोलोके रासमण्डले।।
राधा प्राणाधिकाऽहं च कृष्णस्य परमात्मनः।२५।
अहं दुर्गा विष्णुमाया बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता ।
अहं लक्ष्मीश्च वैकुण्ठे स्वयं देवी सरस्वती।२५ ।।
सावित्री वेदमाताऽहं ब्रह्माणी ब्रह्मलोकतः ।।
अहं गङ्गा च तुलसी सर्वाधारा वसुन्धरा । २७ ।।
नानाविधाऽहं कलया मायया सर्वयोषितः ।।
साऽहं कृष्णेन संसृष्टा नृप भ्रूभंगलीलया ।२८।।
भ्रूभंगलीलया सृष्टो येन पुंसा महान्विराट्।।
लोम्नां कूपेषु विश्वानि यस्य सन्ति हि नित्यशः
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इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने दुर्गास्तोत्रं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ।।६६।।
श्रीदामशापाद्दैवेन गोपी राधा च गोकुले ।।
वृषभानुसुता सा च माता तस्याः कलावती ।९२।
कृष्णस्यार्द्धांगसंभूता नाथस्य सदृशी सती ।
गोलोकवासिनी सेयमत्र कृष्णाज्ञयाऽधुना ।९३।
अयोनिसंभवा देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
मातुर्गर्भं वायुपूर्णं कृत्वा च मायया सती ।। ९४।
वायुनिःसरणे काले धृत्वा च शिशुविग्रहम् ।।
आविर्बभूव मायेयं पृथ्व्यां कृष्णोपदेशतः।९५।
वर्धते सा व्रजे राधा शुक्ले चंद्रकला यथा।
श्रीकृष्णतेजसोऽर्द्धेन सा च मृर्तिमती सती।९६।
एका मूर्तिर्द्विधाभूता भेदो वेदे निरूपितः ।
इयं स्त्री सा पुमान् किंवा सा वा कांता पुमानयम्।९७।।(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)
अनुवाद:- अर्थ यह है कि मूलप्रकृति राधाजी अयोनिजा हैं। माता के गर्भवती अवस्था में मात्र वायु से उनका उदर बढ़ रहा था। प्रसव के समय बस योनि से वायु का ही निःसरण हुआ, उसके बाद श्रीकृष्ण भगवान् के (गोलोक में) कहे अनुसार बाहर ही शिशु के रूप में तत्काल राधिका प्रकट हो गयी थीं।
शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन वे बढ़ने लगीं। श्रीकृष्ण की मूर्ति ही दो रूपों में राधा-कृष्णमय है।
एक का ही दो होना, यह मूर्तिभेद वेदों में वर्णित है। (वैदिक प्रमाण आगे दृष्टव्य है।)
भगवान् श्रीकृष्ण ने भी बताया है कि राधा और उनकी माता, सीता और उनकी माता, दुर्गा (पार्वती) और उनकी माता, यह सब अयोनिजा ही हैं।
"अयोनिसम्भवा राधा राधामाता कलावती।
यास्यत्येव हि तेनैव नित्यदेहेन निश्चितम्॥
पितृणां मानसी कन्या धन्या मान्या कलावती।
धन्या च सीतामाता च दुर्गामाता च मेनका॥
अयोनिसम्भवा दुर्गा तारा सीता च सुन्दरी।
अयोनिसम्भवास्ताश्च धन्या मेना कलावती॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ८९)
सनत्कुमारीय योगरहस्योपनिषत् में सनकादि कुमारों ने श्रीनारदजी को कहा था कि राधा के साथ स्वामी श्रीकृष्ण की तीनों काल में पूजा करनी चाहिए - त्रिकालं पूजयेत्कृष्णं राधया सहितं विभुम्।
नारदजी के पूछने पर सनत्कुमारों ने श्रीराधाजी का जो तात्त्विक परिचय दिया था, वह इस प्रकार है -
प्रेमभक्त्युपदेशाय राधाख्यो वै हरिः स्वयम्।
वेदे निरूपितं तत्त्वं तत्सर्वं कथयामि ते॥
उत्सर्जने तु रा शब्दो धारणे पोषणे च धा।
विश्वोत्पत्तिस्थितिलयहेतू राधा प्रकीर्तिता॥
वृषभं त्वादिपुरुषं सूयते या तु लीलया।
वृषभानुसुता तेन नाम चक्रे श्रुतिः स्वयम्॥
गोपनादुच्यते गोपी गो भूवेदेन्द्रियार्थके।
तत्पालने तु या दक्षा तेन गोपी प्रकीर्तिता॥
गोविन्दराधयोरेवं भेदो नार्थेन रूपतः।
श्रीकृष्णो वै स्वयं राधा या राधा स जनार्दनः॥
(सनत्कुमारीय योगरहस्योपनिषत् ०७/४-८)
आदर्श प्रेम तथा भक्ति का अपनी जीवन के माध्यम से उपदेश देने के लिये श्रीहरि स्वयं ही 'राधा' नामसे प्रसिद्ध हुए।
वेद में इनके तत्त्व का जिस प्रकार निरूपण हुआ है, वह सब प्रस्तुत करते हैं। 'रा' शब्द समर्पण या त्याग के अर्थ में प्रयुक्त होता है और 'धा' शब्द धारण एवं पोषण के अर्थ में।
इसके अनुसार राधा इस विश्व की उत्पत्ति, पालन तथा लय की हेतुभूता कही गयी गयी हैं।
आदिपुरुष विराट् ही वृषभ है, उसको निश्चय ही वे लीलापूर्वक उत्पन्न करती हैं; अतः स्वयं श्रुतिने उनका नाम 'वृषभानुसुता' रख दिया है। वे सबका गोपन (रक्षण) करनेसे 'गोपी' कहलाती हैं।
'गो' शब्द गौ, भूमि, वेद तथा इन्द्रियों के अर्थ में प्रसिद्ध है। राधा इन 'गो' शब्दवाच्य सभी का श्लिष्टार्थ में पालन करने में सक्षम हैं, इसलिये भी 'गोपी' कही गयी हैं। इस प्रकार गोविन्द तथा श्रीराधामें केवल बाह्य रूप का अन्तर है, अर्थ की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है।
श्रीकृष्ण स्वयं राधा हैं और जो राधा हैं, वे साक्षात् श्रीकृष्ण हैं। अब हम राधाकृष्ण शब्द के शास्त्रोक्त अर्थ पर विचार करेंगे।
"राशब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम्।
धाशब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम्॥
कृष्णवामांशसम्भूता राधा रासेश्वरी पुरा।
तस्याश्चांशांशकलया बभूवुर्देवयोषितः॥
रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचकः।
ततोऽवाप्नोति मुक्तिं च तेन राधा प्रकीर्तिता॥
बभूव गोपीसङ्घश्च राधाया लोमकूपतः।
श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ४८)
अनुवाद:-
रा शब्द के उच्चारणमात्र से भक्त अत्यन्त दुर्लभ मुक्ति को प्राप्त करता है और धा शब्द के उच्चारण होने पर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के धाम की ओर वह बढ़ने लगता है। पूर्वकाल में रासेश्वरी राधाजी श्रीकृष्ण के बाएं भाग से प्रकट हुई थीं और उनके अंशों के अंश से अन्य देवताओं की स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं।
रा शब्द का अर्थ आदान है, धा शब्द का अर्थ मुक्ति है। उनके माध्यम से व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होती है, अतः उन्हें राधा कहते है। श्रीराधाजी के रोमकूप से समस्त गोपियाँ और श्रीकृष्ण के रोमकूप से सभी गोपजन उत्पन्न हुए हैं, ऐसा समझना चाहिए।
भगवान् कहते हैं -
जानामि विश्वं सर्वार्थं ब्रह्मानन्तो महेश्वरः।
धर्मः सनत्कुमारश्च नरनारायणावृषी।।
कपिलश्च गणेशश्च दुर्गा लक्ष्मीः सरस्वती।
वेदाश्च वेदमाता च सर्वज्ञा राधिका स्वयम्।।
एते जानन्ति विश्वार्थं नान्यो जानाति कश्चन॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ८४, श्लोक - ५५-५७)
अनुवाद:-
इस पूरे ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण रहस्य मैं जानता हूँ, ब्रह्माजी जानते हैं, शेषनाग जानते हैं, भगवान् शिव जानते हैं, धर्मराज जानते हैं, सनत्कुमार और नरनारायण ऋषि जानते हैं, कपिलदेव और भगवान् गणेश जानते हैं, देवी दुर्गा जानती हैं, लक्ष्मीजी और देवी सरस्वती जानती हैं, सभी वेद जानते हैं, वेदमाता गायत्री और सर्वज्ञा राधिका जानती हैं। ये सब विश्व को सम्पूर्णता से जानते हैं, इनके अतिरिक्त कोई नहीं।
पुनः आगे कहा -
"रासे सम्भूय रामा सा दधार पुरतो मम।
तेन राधा समाख्याता पुरा विद्भिः प्रपूजिता॥
प्रहृष्टा प्रकृतिश्चास्यास्तेन प्रकृतिरीश्वरी।
शक्ता स्यात्सर्वकार्येषु तेन शक्तिः प्रकीर्तिता॥
अनुवाद:-
रास में आकर उन्होंने मुझे पकड़ लिया, धारण कर लिया था, अतः उन्हें विद्वानों ने राधा कहकर पूजन किया। उनका स्वभाव प्रसन्न रहने का है, अतः प्रकृति और ईश्वरी कहते हैं। सभी कार्यों में समर्थ होने के कारण शक्ति कहलाती हैं।
"गोपनादुच्यते गोपी राधिका कृष्णवल्लभा।
देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ८१)
अनुवाद:-
सबों की रक्षा करने से कृष्ण की वल्लभा राधा को गोपी कहते हैं। वह परम देवता राधा कृष्णमयी हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में सामवेद की परम्परा के अनुसार राधा शब्द का अर्थ ब्रह्मदेव को भगवान् नारायण ने बताया है।
राधाशब्दस्य व्युत्पत्तिः सामवेदे निरूपिता।
नारायणस्तामुवाच ब्रह्माणं नाभिपङ्कजे॥
राधा का गूढार्थ क्या है ?
रेफो हि कोटिजन्माघं कर्मभोगं शुभाशुभम्।
आकारो गर्भवासञ्च मृत्युञ्च रोगमुत्सृजेत्॥
धकारमायुषो हानिमाकारो भवबन्धनम्।
श्रवणस्मरणोक्तिभ्यः प्रणश्यति न संशयः॥
रेफो हि निश्चलां भक्तिं दास्यं कृष्णपदाम्बुजे।
सर्वेप्सितं सदानन्दं सर्वसिद्धौघमीश्वरम्॥
धकारः सहवासञ्च तत्तुल्यकालमेव च।
ददाति सार्ष्णिं सारूप्यं तत्त्वज्ञानं हरेः स्वयम्॥
आकारस्तेजसो राशिं दानशक्तिं हरौ यथा।
योगशक्तिं योगमतिं सर्वकालहरिस्मृतिम्॥
(ब्रह्मवैवर्त्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)
अनुवाद:-
'र'कार करोड़ों जन्मों के पापसमूह और शुभाशुभ कर्मभोग को कहते हैं। 'आ'कार गर्भवास और मृत्यु आदि को व्यक्त करता है। 'ध'कार आयु की हानि और 'आ'कार संसाररूपी बन्धन को दर्शाता है। राधानाम के श्रवण और स्मरण से यह सब अर्थ और विकार नष्ट हो जाते हैं और नवीन अर्थ हो जाता है।
'र'कार से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में निश्चल भक्ति और सेवाभाव की उपलब्धि हो जाती है। सभी प्रकार के आनन्द और सिद्धियों का समूह द्योतित होता है। 'ध'कार से श्रीकृष्ण के साथ नित्य रहना होता है और उनके सायुज्य तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है।
आ'कार से उनके ही समान तेजस्विता और दानशक्ति का बोध होता है। योगबल और सदैव श्रीकृष्णचिन्तन प्राप्त होता है।
अब श्रीकृष्ण कौन हैं ?
ककारः कमलाकान्त ऋकारो राम इत्यपि।
षकारः षड्गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत्॥
णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक्।
विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी॥
सम्प्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छुद्धे महात्मनि।
परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः॥
(गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड, अध्याय - १५)
अनुवाद:-
'कृष्णः' शब्द में 'क्' का अर्थ है, कमला अर्थात् लक्ष्मीदेवी का स्वामी। 'ऋ' का अर्थ है सबों को चित्त को अपने मे रमण कराने वाले राम। 'ष्' का अर्थ है श्वेतद्वीप में निवास करने वाले बल, तेज, ज्ञानादि षडैश्वर्य के अधिपति विष्णु। 'ण्' का अर्थ है, सभी नरसंज्ञक जीवों में सिंह के समान अग्रणी नरसिंह। 'अ' का अर्थ कभी नष्ट न होने वाला अक्षरपुरुष, जो अग्निभोजी (सर्वयज्ञानां भोक्ता) है। कृष्ण शब्द में प्राणसञ्चारक विसर्ग साक्षात् जीवात्मा एवं परमात्मारूपी नर एवं नारायण ऋषि हैं। जिस शुद्धस्वरूप महान् आत्मा (चेतन) में यह छः अर्थ पूर्ण रूप से लीन हैं, उस परिपूर्णतम तत्त्व को 'कृष्ण' कहा जाता है।
श्रीधरस्वामी महाभारत के आश्रय से व्यक्त करते हैं -
कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्चनिर्वृतिवाचकः। कृष्णस्तद्भावयोगाच्च कृष्णो भवति सात्त्वतः॥
कृषि शब्द से पृथ्वी (जगत्) का वाचन होता है और ण अक्षर निर्वृत्ति का वाचक है। इस प्रकार से सत्वगुण का विस्तार करने वाले विष्णु संसार से मुक्त करने के कारण कृष्ण कहलाते हैं। आकृष्ट करने से भी कृष्ण हैं - कर्षणात्कृष्णः। और कृष् विलेखने- से कृषक और पशुपालक भी कृष्ण को श्लेषमयी अर्थ हैं ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
जगन्माता च प्रकृतिः पुरुषश्च जगत्पिता।
गरीयसीति जगतां माता शतगुणैःपितुः॥
राधाकृष्णेति गौरीशेत्येवं शब्दःश्रुतौ श्रुतः।
कृष्णराधेशगौरीति लोके न च कदा श्रुतः॥
अनुवाद:-
प्रकृति संसार की माता है और पुरुष संसार का पिता है। जगत्पिता की अपेक्षा जगन्माता सौ गुणा महान् है। वेदों में राधाकृष्ण, गौरीश आदि शब्द ही सुनने में आते हैं, कृष्णराधा या ईशगौरी नहीं। फिर आगे स्पष्ट कहा -
"नारद उवाच"
आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं विदुर्बुधाः।।
निमित्तमस्य मां भक्तं वद भक्तजनप्रिय ।।३३।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण )
आदौ पुरुषमुच्चार्य पश्चात्प्रकृतिमुच्चरेत्।
स भवेन्मातृगामी च वेदातिक्रमणे मुने॥
अनुवाद:-
जो पहले पुरुष का नाम लेकर बाद में प्रकृति का नाम लेता है, हे नारद ! उसे वेद की मर्यादा का अतिक्रमण करने के कारण माता से सम्भोग करने का पाप लगता है। एक और प्रमाण देखें -
गौरतेजो विना यस्तु श्यामतेजस्समर्चयेत्।
जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत्पातकी शिवे॥
सन्दर्भ-ग्रन्थ:-(सम्मोहनतन्त्र)
भगवान् शिव भी कहते हैं - हे शिवे ! गौरतेज (श्रीराधा) के बिना जो श्यामतेज (श्रीकृष्ण) की पूजा, जप अथवा ध्यान करता है, वह पातकी होता है।
स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में वर्णन है -
"आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ ।
आत्मारामतया प्राज्ञैः प्रोच्यते गूढवेदिभिः॥२२॥
कामास्तु वाञ्छितास्तस्य गावो गोपाश्च गोपिकाः।
नित्यां सर्वे विहाराद्या आप्तकामस्ततस्त्वयम्॥ २३॥
श्रीस्कान्दे महापुराणे एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे
श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये शाण्डील्योपदिष्ट व्रजभूमिमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथोमोऽध्यायः॥१॥
अनुवाद:-
उन श्रीकृष्ण की आत्मा राधिका हैं और उनके साथ ही रमण करने से इस रहस्य को जानने वाले बुद्धिमान् उन्हें आत्माराम कहते हैं। आत्मा से युक्त होकर ही देह सार्थक है। शक्ति से युक्त शक्तिमान् की सार्थकता है, अतः कहा -
आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः।
व्यतिक्रमे ब्रह्महत्यां लभते नात्र संशयः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ४९, श्लोक - ६०)
अनुवाद:-
बुद्धिमान् को चाहिए कि पहले राधा और फिर कृष्ण का उच्चारण करे। विपरीत करने से उसे ब्रह्महत्या लगती है, इसमें संशय नहीं है।
कथाविस्तार के भय से वृत्तान्त का सार ही प्रस्तुत है । वैष्णव परम्परा में शुकदेव-परीक्षित् संवादात्मक श्रीमद्भागवत और उपपुराणभूत अनुभागवत है जिसे आदिपुराण अथवा सनत्कुमार पुराण भी कहते हैं।
शाक्त परम्परा में वेदव्यास-जनमेजय संवादात्मक देवीभागवत और उसका उपपुराणभूत महाभागवत है, जिसे देवीपुराण भी कहते हैं। इस दौनों के अतिरिक्त एक अन्य देवीपुराण भी है। हेमाद्रि आदि के वचनों से कालिकापुराण की मूलभागवत संज्ञा है।
श्रीशुकदेवजी के निजी भाववश श्रीमद्भागवत में राधानाम प्रत्यक्ष नहीं आया है किन्तु जहाँ ऐसी परिस्थिति नहीं थी, ऐसे देवीभागवत और महाभागवत आदि में श्रीराधाजी का प्रत्यक्ष नाम और चरित्र वर्णित है।
तान्त्रिक परम्परा में तो कहते हैं कि जहाँ श्रीराधाजी का नाम आ जाए और गायत्री का आख्यान हो, वही ग्रन्थ श्रीमद्भागवतसंज्ञक हो जाता है। पञ्चभागवतों का सङ्केत यहाँ भी प्राप्त है -
_______________
एतद्धि पद्मिनीतन्त्रं श्रीमद्भागवतं स्मृतम्।
येषु येषु च शास्त्रेषु गायत्री वर्तते प्रिये॥
पञ्चविष्णोरुपाख्यानं यत्र तन्त्रेषु दृश्यते।
पद्मिन्याश्च गुणाख्यानं तद्धि भागवतं स्मृतम्॥
(वासुदेवरहस्य, राधातन्त्र, अष्टादश पटल)
अनुवाद:-
राधातन्त्र के इसी पटल में कात्यायनी देवी का व्रत करने वाली कृष्ण की कामना करने वाली कन्याओं को कृष्णप्राप्ति का वरदान मिलने का वर्णन है -
"कात्यायन्युवाच
मा भयं कुरुषे पुत्रि कृष्णं प्राप्स्यसि साम्प्रतम्।
आगे कहते हैं -
संस्थिता पद्मिनी राधा यावत्कृष्णसमागमः।
अन्याभिर्गोपकन्याभिर्वर्द्धमाना गृहे गृहे॥
अनुवाद:-
राधातन्त्र में श्रीकृष्ण को कालिकारूप भी कहा है।
कृष्णस्तु कालिका साक्षात् राधाप्रकृतिपद्मिनी।
हे कृष्ण राधे गोविन्द इदमुच्चार्य यत्नतः॥
(वासुदेवरहस्य, राधातन्त्र, उनतीस -(29)पटल)
महाभागवत में भी श्रीशिव का राधावतार और देवी का श्रीकृष्णावतार सन्दर्भित है -
कदाचिद्राधिका शम्भुश्चारुपञ्चमुखाम्बुजः।
कृष्णो भूत्वा स्वयं गौरी चक्रे विहरणं मुने॥
(महाभागवत उपपुराण, अध्याय - ५३, श्लोक - १५)
मुण्डमाला तन्त्र में भगवती कहती हैं -
गोलोके चैव राधाहं वैकुण्ठे कमलात्मिका।
ब्रह्मलोके च सावित्री भारती वाक्स्वरूपिणी॥
(मुण्डमालातन्त्र, सप्तम पटल, श्लोक - ७४)
अनुवाद:-
मैं गोलोक में राधा हूँ, वैकुण्ठ में लक्ष्मी हूँ, ब्रह्मलोक में सावित्री, भारती और सरस्वती के रूप से रहती हूँ।
नारदपुराण का भी यही मत है -
कृष्णो वा मूलप्रकृतिः शिवो वा राधिका स्वयम्।
एवं वा मिथुनं वापि न केनापीति निश्चितम्॥
(नारदपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ५९)
"पुरा सृष्टिक्रमे जाताः समुद्राः सप्त मोहिनि।
राधिका गर्भसम्भूता दिव्यदेहाः पृथग्विधाः॥
ते सप्त सागरा बालाः स्तन्यपानकृतक्षणाः।
ततस्ते सर्वतो दृष्ट्वा मातरं तां जगत्प्रसूम्॥
मा भैष्ट पुत्रास्तिष्ठामि समीपे भवतामहम्।
द्रवरूपा भवन्तस्तु पृथग्रूपचराः सदा॥
वर्तध्वं क्षारतां यातु कनिष्ठोऽभ्यन्तरे स्थितः।
एवमुक्त्वा जगन्नाथो बालकान्विससर्ज ह॥
तेषां तु सान्त्वनोर्थाय समीपस्थः सदाभवत्॥
यः प्रविष्टो रतिगृहं स क्षारोदो बभूव ह।
अन्ये तु द्रवरूपा वै क्षीरोदाद्याः पृथक् स्थिताः॥
(नारदपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ५८)
शिवपुराण, देवीभागवत आदि के अनुसार राधाजी के शाप के कारण सुदामा गोप को दैत्ययोनि में शङ्खचूड के रूप में जन्म लेना पड़ा था अतः बदले में राधाजी को उन्होंने शाप दिया कि आपको सौ वर्षों का श्रीकृष्णवियोग होगा। अतः संसार की दृष्टि से श्रीराधाकृष्ण का प्रत्यक्ष मिलन नहीं हुआ। उनका गुप्त विवाह ब्रह्मा जी ने भाण्डीरवट के समीप कराया था।
प्रधान श्लोक प्रस्तुत हैं पूरा प्रसङ्ग सम्बन्धित ग्रन्थ के प्रकरण में स्वयं परिश्रम करके पढ़ें। श्लोक २१ देखें, ब्रह्मदेव ने विवाह कराने से पूर्व कहा -
गर्गसंहिता खण्डः १ (गोलोकखण्डः)
श्रीकृष्ण-राधिका विवाहवर्णनम्
श्रीनारद उवाच -
गाश्चारयन् नन्दनमङ्कदेशे संलालयन् दूरतमं सकाशात् ।
कलिंदजातीरसमीरकंपितं
नंदोऽपि भांडीरवनं जगाम ॥१॥
कृष्णेच्छया वेगतरोऽथ वातो
घनैरभून्मेदुरमंबरं च।
तमालनीपद्रुमपल्लवैश्च
पतद्भिरेजद्भिरतीव भाः कौ ॥२॥
तदांधकारे महति प्रजाते
बाले रुदत्यंकगतेऽतिभीते।
नंदो भयं प्राप शिशुं स बिभ्र-
द्धरिं परेशं शरणं जगाम॥ ३॥
तदैव कोट्यर्कसमूहदीप्ति-
रागच्छतीवाचलती दिशासु।
बभूव तस्यां वृषभानुपुत्रीं
ददर्श राधां नवनंदराजः॥ ४॥
कोटींदुबिंबद्युतिमादधानां
नीलांबरां सुंदरमादिवर्णाम् ।
मंजीरधीरध्वनिनूपुराणा-
माबिभ्रतीं शब्दमतीव मंजुम्॥५॥
कांचीकलाकंकणशब्दमिश्रां
हारांगुलीयांगदविस्फुरंतीम् ।
श्रीनासिकामौक्तिकहंसिकीभिः
श्रीकंठचूडामणिकुंडलाढ्याम् ॥६॥
तत्तेजसा धर्षित आशु नंदो
नत्वाथ तामाह कृतांजलिः सन् ।
अयं तु साक्षात्पुरुषोत्तमस्त्वं
प्रियास्य मुख्यासि सदैव राधे ॥७॥
गुप्तं त्विदं गर्गमुखेन वेद्मि
गृहाण राधे निजनाथमंकात् ।
एनं गृहं प्रापय मेघभीतं
वदामि चेत्थं प्रकृतेर्गुणाढ्यम् ॥८॥
नमामि तुभ्यं भुवि रक्ष मां त्वं
यथेप्सितं सर्वजनैर्दुरापम् ।
श्रीराधोवाव -
अहं प्रसन्ना तव भक्तिभवा-
न्मद्दर्शनं दुर्लभमेव नंद ॥९॥
श्रीनंद उवाच -
यदि प्रसन्नासि तदा भवेन्मे
भक्तिर्दृढा कौ युवयोः पदाब्जे।
सतां च भक्तिस्तव भक्तिभाजां
संगः सदा मेऽथ युगे युगे च ॥१०॥
श्रीनारद उवाच -
तथास्तु चोक्त्वाथ हरिं कराभ्यां
जग्राह राधा निजनाथमंकात् ।
गतेऽथ नंदे प्रणते व्रजेशे
तदा हि भांडीरवनं जगाम ॥११॥
गोलोकलोकाच्च पुरा समागता
भूमिर्निजं स्वं वपुरादधाना।
या पद्मरागादिखचित्सुवर्णा
बभूव सा तत्क्षणमेव सर्वा ॥१२॥
वृंदावनं दिव्यवपुर्दधानं
वृक्षैर्वरैः कामदुघैः सहैव।
कलिंदपुत्री च सुवर्णसौधैः
श्रीरत्नसोपानमयी बभूव ॥१३॥
गोवर्धनो रत्नशिलामयोऽभू-
त्सुवर्णशृङ्गैः परितः स्फुरद्भिः।
मत्तालिभिर्निर्झरसुंदरीभि-
र्दरीभिरुच्चांगकरीव राजन् ॥१४॥
तदा निकुंजोऽपि निजं वपुर्दध-
त्सभायुतं प्रांगणदिव्यमंडपम् ।
वसंतमाधुर्यधरं मधुव्रतै-
र्मयूरपारावतकोकिलध्वनिम् ॥१५॥
सुवर्णरत्नादिखचित्पटैर्वृतं
पतत्पताकावलिभिर्विराजितम् ।
सरः स्फुरद्भिर्भ्रमरावलीढितै-
र्विचर्चितं कांचनचारुपंकजैः ॥१६॥
तदैव साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तमो
बभूव कैशोरवपुर्घनप्रभः।
पीतांबरः कौस्तुभरत्नभूषणो
वंशीधरो मन्मथराशिमोहनः ॥१७॥
भुजेन संगृह्य हसन्प्रियां हरि-
र्जगाम मध्ये सुविवाहमंडपम् ।
विवाहसंभारयुतः समेखलं
सदर्भमृद्वारिघटादिमंडितम् ॥१८॥
तत्रैव सिंहासन उद्गते वरे
परस्परं संमिलितौ विरेजतुः।
परं ब्रुवंतौ मधुरं च दंपती
स्फुरत्प्रभौ खे च तडिद्घनाविव ॥१९॥
तदांबराद्देववरो विधिः प्रभुः
समागतस्तस्य परस्य संमुखे।
नत्वा तदंघ्री ह्युशती गिराभिः
कृताञ्जलिश्चारु चतुर्मुखो जगौ ॥२०॥
श्रीब्रह्मोवाच -
अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१॥
गोलोकनाथस्त्वमतीव लीलो
लीलावतीयं निजलोकलीला ।
वैकुंठनाथोऽसि यदा त्वमेव
लक्ष्मीस्तदेयं वृषभानुजा हि ॥ २२॥
त्वं रामचंद्रो जनकात्मजेयं
भूमौ हरिस्त्वं कमलालयेयम् ।
यज्ञावतारोऽसि यदा तदेयं
श्रीदक्षिणा स्त्री प्रतिपत्निमुख्या ॥२३॥
त्वं नारसिंहोऽसि रमा तदेयं
नारायणस्त्वं च नरेण युक्तः ।
तदा त्वियं शांतिरतीव साक्षा-
च्छायेव याता च तवानुरूपा ॥२४॥
त्वं ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था
कालो यदेमां च विदुः प्रधानाम् ।
महान्यदा त्वं जगदंकुरोऽसि
राधा तदेयं सगुणा च माया ॥२५॥
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे श्रीराधिकाविवाहवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः।१६।
अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१ ॥
अनुवाद:-
जो अनादि हैं, सबके आदि हैं, पुरुषोत्तमों के भी पुरुषोत्तम हैं, अपने भक्तों पर कृपा करने वाले ऐसे परात्पर ब्रह्म, असंख्य ब्रह्माण्डों के स्वामी, राधा के पति आप श्रीकृष्णचन्द्र की मैं शरण में जाता हूँ। फिर आगे बहुत लम्बी स्तुति है, विवाह के विधानों का वर्णन करने के बाद श्लोक ३४ में देखें -
संवासयामास सुपीठयोश्च तौ
कृताञ्जली मौनयुतौ पितामहः।
तौ पाठयामास तु पञ्चमन्त्रकं
समर्प्य राधां च पितेव कन्यकाम्॥
अनुवाद:-
मौन होकर पितामह ब्रह्माजी ने उन दोनों को उत्तम आसन पर बैठाकर हाथ जोड़कर विवाहसम्बन्धी पांच मन्त्र पढ़वाकर, पिता के समान राधाजी का कन्यादान करके उन्हें श्रीकृष्ण को सौंप दिया।
इस समय राधाकृष्ण का शरीर किशोरावस्था के समान था। विवाह के बाद उनकी दाम्पत्यलीला का वर्णन है, फिर श्लोक ५० में देखें -
"हरेश्च शृङ्गारमलं प्रकर्तुं
समुद्यता तत्र यदा हि राधा।
तदैव कृष्णस्तु बभूव बालो
विहाय कैशोरवपुः स्वयं हि॥
अनुवाद:-
जब श्रीहरि की शृङ्गारलीला पूर्ण हुई तो श्रीराधाजी ने विश्राम का विचार किया और श्रीकृष्ण अपने किशोरस्वरूप को छोड़कर छोटे बच्चे बन गए। इसके बाद उनके बालकों के समान भूमि पर लोटने और रोने का वर्णन है, जिससे वियोगवश राधाजी व्यथित हो गयीं किन्तु शाप को स्मरण करके उन्होंने श्रीकृष्ण को गोद मे उठाया और वन से उनके घर ले गयीं। तब श्रीकृष्ण को सकुशल देखकर यशोदाजी ने कहा -
"उवाच राधां नृप नन्दगेहिनी
धन्यासि राधे वृषभानुकन्यके
त्वया शिशुर्मे परिरक्षितो भया-
न्मेघावृते व्योम्नि भयातुरो वने॥
(गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड, अध्याय - १६, श्लोक - ५४)
अनुवाद:-नन्दपत्नी यशोदाजी ने अपने पुत्र को देखकर राधाजी से कहा - हे वृषभानु की पुत्री राधिके ! तुम धन्य हो। आज बहुत तेज वर्षा होने वाली है और मेरा बालक वन की ओर चला गया था, सो तुमने उसे यहाँ वापस लाकर बड़े भय से उसकी रक्षा की।
राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र,यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है।
अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं..
परन्तु यदि शास्त्रीय आधार पर ही राधा जी के अस्तित्व का विवेचन किया जा तो राधा जी का वर्णन सभी प्रसिद्ध वैष्णव पुराणों में है। भागवत पुराण और महाभारत में वर्णन एक इन ग्रन्थों का प्रक्षेप ही है। नन्द के पिता पर्जन्य और माता वरीयसी(वर्षीयसी) का वर्णन भी पुराणों मे नहीं है परन्तु भविष्य पुराण में वर्णित चैतन्य महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वीमी के वैष्णव ग्रन्थों में वर्णित है।
तो क्या नन्द की वंशावली और उनके माता पिता के अस्तित्व को नकारा जा सकता है।
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। जो कि व्रज का ऐतिहासिक गाँव है। यहाँ राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्वप्रसिद्ध मंदिर बरसाना( बहत्सानु) ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। जहाँ बृषभानु आभीर गोप मुखिया रहते थे। यह आश्चर्य की बात हे कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता, यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य है। भागवत और महाभारत का सम्पादन महात्मा तथागत बुद्ध के परवर्ती काल तक हुआ
इसी लिए दौनों ग्रन्थों में महात्मा बुद्ध का वर्णन है।
भागवत पुराण-श्लोक 10.40.22
"नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छप्रायक्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्किरूपिणे ॥२२॥
शब्दार्थ:-नम:—नमस्कार; बुद्धाय—बुद्ध को; शुद्धाय—शुद्ध; दैत्य-दानव—दिति तथा दानु की सन्तानों के; मोहिने—मोहने वाले को; म्लेच्छ—मांस-भक्षक अछूत के; प्राय—समान; क्षत्र—राजाओं; हन्त्रे—मारने वाले को; नम:—नमस्कार; ते—तुम्हें; कल्कि- रूपिणे—कल्कि के रूप में ।.
अनुवाद:-आपके शुद्ध रूप भगवान् तथागत बुद्ध को नमस्कार है, जो दैत्यों तथा दानवों को मोह लेगें। आपके कल्कि रूप को नमस्कार है, जो राजा बनने वाले अशुद्ध बोलने वालों का संहार करने वाले होंगे।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर वर्णन है कि 👇
"नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्य दानवमोहिने"। म्लेच्छ प्राय: क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे"।२२।
अनुवाद:-
दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ । और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे ! मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।
"महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व के भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में स्वयं भीष्म पितामह भगवान कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में ही उनके भविष्य में होने वाले अन्य अवतारों बुद्ध और कल्कि की स्तुति भी करते हैं ।
भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇
भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार का स्तुति करते हैं ।
जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -
👇अब बुद्ध का समय ई०पू० (566)वर्ष है । फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं ?
नि:सन्देह सत्य के दर्शन के लिए हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।
पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है ।
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।
इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।
नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन इस प्रकार है। देखें👇
___________________
दानवांस्तु वशे कृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागतः।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नमः।। 12-46-107
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहनः।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नमः।12-46-108
👇
अनुवाद:-
अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन: बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।
👇
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहन:।धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।
अनुवाद:-
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्छों का वध करेंगे उन कल्कि रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।
इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
राजधर्मपर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः।।
👇
आशय यह कि
"जो सृष्टि की रक्षा के लिये दानवों को अपने अधीन करके पुनः बुद्धभाव को प्राप्त हो गये, उन बुद्धस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिये म्लेच्छों का वध करेंगे, उन कल्किरूप श्रीहरि को नमस्कार है।
( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है।
"इसके अतिरिक्त इसी शान्ति पर्व अध्याय -(348) निर्णय सागर प्रेस मुम्बई के महाभारत में हैं भी हैं। बुद्ध भीष्म से बहुत बाद में हुए परन्तु भीष्म से बुद्ध की स्तुति कराकर महाभारत के क्षेपक(बाद में मिलाया हुआ मिश्रित श्लोक) को स्वयं प्रमाणित कर दिया है।
जय देव ने गीतगोविन्द श्रृँगारिक गीत् काव्य द्वारा राधा और कृष्ण को काम शास्त्री नायिका और नायक बना कर उनके चरित्र का हनन ही किया है।
वसन्ते वासन्ती कुसुम सुकुमारैः अवयवैः
भ्रमन्तीम् कान्तारे बहु विहित कृष्ण अनुसरणाम् |
अमन्दम् कन्दर्प ज्वर जनित चिन्त आकुलतया
वलद् बाधाम् राधाम् स रसम् इदम् उचे सह चरी ||१-७||
अनुवाद:-
किसी समय वसन्त ऋतूकी सुमधुर बेलामें विरह-वेदनासे अत्यन्त कातर होकर राधिका एक विपिनसे दूसरे विपिनमें श्रीकृष्णका अन्वेषण करने लगी, माधवी लताके पुष्पोंके समान उनके सुकुमार अंग अति क्लान्त हो गये, वे कन्दर्पपीड़ाजनित चिन्ताके कारण अत्यन्त विकल हो उठीं, तभी कोई एक सखी उनको अनुरागभरी बातोंसे सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी ||१-७||
निन्दति यज्ञ विधेः अ ह ह श्रुति जातम् | सदय हृदय दर्शित पशु घातम् ||
केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे || (अध्याय प्रथम १-९) ||
अनुवाद:-
हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देखकर श्रुति समुदाय की निन्दा की है। आपकी जय हो ||
१-९ ||
म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम्। धूम केतुम् इव किम् अपि करालम् ||
केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे || अ प १-१० ||
अनुवाद:-
हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || अ प १-१० ||
श्लिष्यति काम् अपि चुंबति काम् अपि काम् अपि रमयति रामाम् |
पश्यति सः स्मित चारु तराम् अपराम् अनु गच्छति वामाम् |
हरिरिह केलिपरे ॥ अ प ४-७ ||
अनुवाद:-
श्रृंगार-रसकी लालसामें श्रीकृष्ण कहीं किसी रमणीका आलिंगन करते हैं, किसीका चुम्बन करते हैं, किसीके साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधाका अवलोकन कर किसीको निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनीके पीछे-पीछे चल रहे हैं ॥अ प ४-७ ||
(सन्दर्भ:- गीत-गोविन्द)
"भीष्म उवाच"
नारदः परिप्रपच्छ भगवन्तं जनार्दनम्।
एकार्णवे महाघोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे।१।
"श्रीगवानुवाच"
शृणु नारद तत्वेन प्रादुर्भावान्महामुने।
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्कीति ते दश।।२।
__________________
ततःकलियुगस्यादौ द्विजराजतरुं श्रितः।
भीषया मागधेनैव धर्मराजगृहे वसन्।४२।
काषायवस्रसंवीतो मुण्डितः शुक्लदन्तवान्।
शुद्धोदनसुतो बुद्धो मोहयिष्यामि मानवान्।४३।
शूद्राः सुद्धेषु भुज्यन्ते मयि बुद्धत्वमागते।
भविष्यन्ति नराः सर्वे बुद्धाः काषायसंवृताः।४४।
अनध्याया भविष्यन्ति विप्रा यागविवर्जिताः।
अग्निहोत्राणि सीदन्ति गुरुपूजा च नश्यति।४५।
न शृण्वन्ति पितुः पुत्रा न स्नुषा नैव भ्रातरः।
न पौत्रा न कलत्रा वा वर्तन्तेऽप्यधमोत्तमाः।४६।
एवंभूतं जगत्सर्वं श्रुतिस्मृतिविवर्जितम्।
भविष्यति कलौ पूर्णे ह्यशुद्धो धर्मसंकरः।४७।
तेषां सकाशाद्धर्मज्ञा देवब्रह्मविदो नराः।
भविष्यन्ति ह्यशुद्धाश्च न्यायच्छलविभाषिणः।४८।
ये नष्टधर्मश्रोतारस्ते समाः पापनिश्चये।
तस्मादेता न संभाष्या न स्पृश्या च हितार्थिभिः।
उपवासत्रयं कुर्यात्तत्संसर्गविशुद्धये।४९।
ततः कलियुगस्यान्ते ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः।
कल्किर्विष्णुयशःपुत्रो याज्ञवल्क्यःपुरोहितः।५०।
तस्मिन्नाशे वनग्रामे तिष्ठेत्सोन्नासिमो हयः।
सहया ब्राह्मणाः सर्वे तैरहं सहितः पुनः।
म्लेच्छानुत्सादयिष्यामि पाषण्डांश्चैव सर्वशः।५१।
पाषण्डश्च कलौ तत्र माययैव विनश्यते।
पाषण्डकांश्चैव हत्वा तत्रान्तं प्रलये ह्यहम्।५२।
("शान्ति पर्व अध्याय-348
___________________
राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया।
कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है। यहाँ पर हम वस्तुतः राधा शब्द व चरित्र कहाँ से आया इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
यद्यपि यह भी एक धृष्टता ही है क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण व श्री राधाजी दोनों अभिन्न स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं।
राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता वेद-उपनिषद में तो राधा का उल्लेख है परन्तु आर्यसमाजीयों के यौगिक धातुज अर्थ ही इण्टनेट वेवसाइटों पर अपलोड हैं।
राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है परन्तु श्रँगारपरक रूप में ही है।
"मह्यं प्रोवाच देवर्षे भविष्यच्चरितं हरेः ।।
सुखमास्तेऽधुना देवः कृष्णो गधासमन्वितः ।। ८१-२५ ।।
गोलोकेऽस्मिन्महेशान गोपगोपीसुखावहः।।
स कदाचिद्धरालोके माथुरे मंडले शिव ।८१-२६।
आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृंदाग्ण्ये करिष्यति ।।
वृपभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ ।।
सखायं विरजागेहद्वाःस्थं क्रुद्धा शपिष्यति ।।
ततः सोऽपि महाभाग राधां प्रतिशपिष्यति ।। ८१-२८ ।।
याहि त्वं मानुषं लोकं मिथः शापाद्धरां ततः ।।
प्राप्स्यत्यथ हरिः पश्चाद्ब्रह्मणा प्रार्थितः क्षितौ ।। ८१-२९ ।।
भूभारहरणायैव वासुदेवो भविष्यति।
वसुदेवगृहे जन्म प्राप्य यादवनंदनः । ८१-३०।
कंसासुरभिया पश्चाद्व्रजं नन्दस्य यास्यति।
तत्र यातो हरिः प्राप्तां पूतनां बालघातिनीम्। ८१-३१।
वियोजयिष्यति प्राणैश्चक्रवातं च दानवम् ।
वत्सासुरं महाकायं हनिष्यति सुरार्द्दनम् ।८१-३२।
दमित्वा कालियं नागं यम्या उच्चाटयिष्यति।
दुःसहं धेनुकं हत्वा वकं नद्वदघासुरम्।८१-३३।
दावं प्रदावं च तेथा प्रलंबं च हनिष्यति ।
ब्रह्मणमिंद्रं वरुणं प्रमत्तौ धनदात्मजो। ८१-३४।
विमदान्स विधायेषो हनिष्यति वृपासुरम् ।
शंखचू डंकेशिनं च व्योमं हत्वा व्रजे वसन् । ८१-३५।
एकादश समास्तत्र गोपीभिः क्रीडायिष्यति ।।
ततश्च मथुरां प्राप्य रजकं संनिहत्य च ।८१-३६।
कुब्जामृज्वीं ततः कृत्वा धनुर्भंक्त्वा गजोत्तमम् ।।
हत्वा कुवलयापीडं मल्लांश्चाणूरकादिकान् । ८१-३७।
कंसं स्वमातुलं कृष्णो हनिष्यति ततः परम् ।।
विमुच्य पितरौ बद्धौ यवनेशं निहत्य च।८१-३८।
जरासंध भयात्कृष्णो द्वारकायां समुष्यति ।।
रुक्मिणीं सत्यभामां च सत्यां जाम्बवतीं तथा । ८१-३९ ।
कैकेयीं लक्ष्मणां मित्रविंदां कालिंदिकां विभुः ।।
दारान्षोडशसाहस्रान्भौमं हत्वोद्वहिष्यति ।। ८१-४० ।।
पौंड्रकं शिशुपालं च दंतवक्त्रं विदूरथम् ।।
शाल्वं च हत्वा द्विविदं बल्वलं घातयिष्यति ।। ८१-४१ ।।
वज्रनाभं सुनाभं च सार्द्धं वै षट्पुरालयैः ।।
त्रिशरीरं ततो दैत्यं हनिष्यति वरोर्ज्जितम् ।। ८१-४२ ।।
कौखान्पांडवांश्चापि निमित्तमितरेतरम् ।।
कृत्वा हनिष्यति शिव भूभारहरमोत्सुकः ।। ८१-४३ ।।
यदून्यदुभिग्न्योन्यं संहबृत्य स्वकुलं हरिः ।।
पुनरेतन्निजं धाम समेष्यति च सानुगः ।८१-४४।
एतत्तेऽभिहितं शंभो भविष्यच्चरितं हरेः ।।
गच्छ द्रक्ष्यसि तत्सर्वं जगतीतलगे हरौ ।८१-४५।
तच्छ्रुत्वां सुरभेर्वाक्यं भृशं प्रीतो विधातृज ।।
स्वस्थानं पुनरायातस्तुभ्यं चापि मयोदितम् ।। ८१-४६ ।।
त्वं च द्रक्ष्यसि कालेन चरितं गोकुलेशितुः ।।
तच्छ्रुत्वा शूलिनो वाक्यं वसुर्दृष्टतनूरुहः ।८१-४७।
गायन्माद्यन् विभुं तंत्र्या रमयाम्यातुरं जगत् ।।
एतद्भविष्यत्कथितं मया तुभ्यं द्विजोत्तम ।८१-४८।
यथा तु गौतमस्तद्वदहं चापि हिते रतः ।।
"सूत उवाच।
इत्युक्त्वा नारदस्तस्मै वसवे स द्विजन्मने ।। ८१-४९ ।।
जगाम वीणा रणयंश्चिन्तयन्यदनंदनम् ।।
स वसुस्तद्वचः श्रुत्वा व्रजे सुप्रीतमानसः ।। ८१-५० ।।
उवास सर्वदा विप्राः कृष्णक्रीडेक्षणोत्सुकः ।। ८१-५१ ।।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे बृहदुपाख्याने उत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे वसुचरित्रनिरूपणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः।८१।
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सुविवृतं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः ।
गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः ॥७॥ऋग्वेद-१/१०/७
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते ।
पिबा त्वस्य गिर्वणः ॥१०॥
(ऋग्वेद ३/५१/१० )
–ओ राधापति वेदमन्त्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो।
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस: सवितारं नृचक्षसं .. (ऋग्वेद १ २ २.७).
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम्॥7॥
देवता — सविता ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः;
ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सायण भाष्य के आधार पर)
निवास के कारणभूत, अनेक प्रकार के धनों के विभाजनकर्ता और मनुष्य के प्रकाश-कर्ता सूर्य का हम आह्वान करते हैं।
ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो।
यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्ध्नि रहस् प्रेमयुक्त:
राधिकातापनीयोपनिषत्} में वर्णन है कि "यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरणे मूर्ध्नि रहसि प्रेमयुक्तः। यस्या अङ्के विलुण्ठन् कृष्णदेवो गोलोकाख्यं नैव सस्मार धामपदं सांशा कमला शैलपुत्री तां राधिकां शक्तिधात्रीं नमाम:।
अनुवाद:- जिनकी चरणधूलि भगवान अपने शिर पर धारण करते हैं। जिनके अंक में लेट ने पर भगवान अपने गोलोक को भूल जाते हैं जिन राधा सी ही अंश हैं करोड़ो लक्ष्मी करोड़ो ब्रह्माणी और करोड़ो पार्वती वह हैं राधा।
राधा शब्द के दो अर्थ सम्पूरक व श्लिष्ट है--
1--आराधिका( कृष्ण की आराधना करने वाली सा राधा )
2--आराध्या ( जिसकी सब आराधना करे सा राधा)
--- जब भगवान रास के समय अंतर्धान हो गये थे तो तब गोपियो ने देखा की भगवान अकेले ही अंतर्धान नही हुए थे बल्कि साथ मे एक गोपी को भी लेकर चले गये थे --
तब गोपियो ने कहा था की-- अन्यान् आराधितो नूनम् भगवान हरिर्रिश्वर:-- अर्थात् जिस गोपी को कृष्ण लेकर चले गये है उस गोपी ने जरुर हमसे ज्यादा आराधना की होगी तभी तो हमे छोड गये ओर उसे ले गये-- जिस गोपी को भगवान लेकर गये वही राधा थी-- पहला अर्थ आराधिका स्पष्ट हुआ--
दुसरा अर्थ आराध्या यानि जिसकी कृष्ण भी भक्ति करते है वो राधा--
राधैवाराध्यते मया--ब्रह्मवैवर्त पुराण-- इसलिए राधा शब्द के दोनो अर्थ है-- कृष्ण की आराधना करने वाली ओर कृष्ण की आराध्या यानि कृष्ण जिसकी आराधना करते है---
ब्रह्म वैवर्त पुराण मे भगवान किशोरी जी से क्षमा मांगते है की राधे सर्वापराधम् क्षमस्व सर्वेश्वरी---
उपनिषदो मे प्रश्न किया गया की कस्मात् राधिकाम् उपासते अर्थात् राधा रानी की उपासना क्यो की जाती है ??
तब उत्तर दिया गया की-- यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त--- अर्थात् जिसकी चरण धुलि को कृष्ण अपने सिर पर रखते है ओर जिसकी गोद मे सिर रखकर कृष्ण अपने गोलोक को भी भुल जाते है वो राधा है--(सामवेदीय राधोपनीषद्)--
उसके बाद फिर राधा उपनिषद कहता है की वृषभानु सुता देवी मुलप्रकृतिश्वरी:-- वृषभानु की राधा ही मुल प्रकृति है--
ये भी कहा गया है की राधा ओर कृष्ण दोनो एक है --इनमें भेद करने वाला कालसुत्र नर्क मे जाता है ईसलिए भेद मत करना पर रस की दृष्टि से ओर हास परिहास मे श्री राधा ही सर्वश्रेष्ठ है लेकिन भेदभाव नही करना---
श्रीराधा माधव चिन्तन पृ. 83 श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सामरहस्योपनिषद में कहा गया है—
"अनादिरयं पुरुष एक एवास्ति। तदेव रूपं द्विधा विधाय
समाराधनतत्परोऽभूत्। तस्मात तां राधां रसिकानन्दां वेदविदो वदन्ति।।
वह अनादि पुरुष एक ही है, पर अनादि काल से ही वह अपने को दो रूपों में बनाकर अपनी ही आराधना के लिये तत्पर है। इसलिये वेदज्ञ पुरुष श्रीराधा को रसिकानन्दरूपा बतलाते हैं।
"राधातापनी-उपनिषद् में आता है—ये यं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहश्चैक क्रीडनार्थ द्विधाभूत।
अनुवाद:-
‘जो ये राधा और जो ये कृष्ण रस के सागर हैं वे एक ही हैं, पर खेल के लिये दो रूप बने हुए हैं।
ब्रह्माण्डपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—
"राधा कृष्णात्मिका नित्यं कृष्णो राधात्मको ध्रुवम्। वृन्दावनेश्वरी राधा राधैवाराध्यते मया।
अनुवाद:-
‘राधा की आत्मा सदा मैं श्रीकृष्ण हूँ और मेरी (श्रीकृष्ण की) आत्मा निश्चय ही राधा है। श्रीराधा वृन्दावन की ईश्वरी हैं, इस कारण मैं राधा की ही आराधना करता हूँ।’
श्रीराधा माधव चिन्तन पृष्ठ संख्या- 84
श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
की प्रेम-साधना और उनका अनिर्वचनीय स्वरूप
यः कृष्णः सापि राधा च या राधाकृष्ण एव सः।
एकं ज्योतिर्द्विधा भिन्नं राधामाधवरूपकम।।
‘जो श्रीकृष्ण हैं, वही श्रीराधा हैं और जो श्रीराधा हैं, वही श्रीकृष्ण हैं; श्रीराधा-माधव के रूप में एक ही ज्योति दो प्रकार से प्रकट है।’
ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान के वचन हैं—
"आवयोर्बुद्धिभेदं च यः करोति नराधमः। तस्य वासः कालसूत्रे यावच्चन्द्रदिवाकरौ।।
‘मुझमें (श्रीकृष्ण में) और तुम में (श्रीराधा में) जो अधम मनुष्य भेद मानता है, वह जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, तब तक ‘कालसूत्र’ नामक नरक में रहेगा।’ भगवान श्रीकृष्ण ने राधा से कहा है— ‘प्राणाधिके राधिके! वास्तव में हम-तुम दो नहीं हैं; जो तुम हो, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही तुम हो। जैसे दूध में धवलता है, अग्नि में दाहिका शक्ति है, पृथ्वी में गन्ध है, उसी प्रकार मेरा-तुम्हारा अभिन्न सम्बन्ध है।
सृष्टि की रचना में भी तुम्हीं उपादान बनकर मेरे साथ रहती हो। मिट्टी न हो तो कुम्हार घड़ा कैसे बनाये; सोना न हो तो सुनार गहना कैसे बनाये। वैसे ही यदि तुम न रहो तो मैं सृष्टिरचना नहीं कर सकता। तुम सृष्टि की आधार रूपा हो और मैं उसका अच्युत बीज हूँ।
अन्य पुराणो से भी राधा जी के प्रमाण देखिये--
यथा राधाप्रियाविष्णो : (पद्म पुराण )
राधा वामांशसंभूतामहालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण )
तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण )
"शिवकुण्डे सुनन्दा तु नन्दिनी देविका तटे।
रुक्मिणी द्वारवत्यान्तु राधा वृन्दावने वने ॥ १३.३८ ॥
अनुवाद:- शिवकुण्ड में सुनन्दा तो नन्दिनी नाम देविका तट पर रुक्मणि नाम द्वारिका में है तो वृन्दावन में यही राधा जी हैं।।
देवकी मथुरायान्तु पाताले परमेश्वरी।
चित्रकूटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्यनिवासिनी॥ १३.३९ ॥
अनुवाद:-मथुरा में देवकी तो पालाल में परमेश्वरी। चित्रकूट में सीता तो विन्ध्याँचल पर
विन्ध्यनिवासिनी हैं।
(मत्स्यपुराण अध्याय -१३)
राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवीभागवत पुराण )
तमिलनाडू की गाथा के अनुसार–दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह,उत्तर के यादव के समकक्ष हैं| एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे| उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया -श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था| तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का २.
अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्रीय संहिता के अनुसार-विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति–दिशाओं की देवी भी कहते हैं| नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं–अदिति |
श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है जो दक्षिण की राधा है| एक कथा के अनुसार राधा के कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी |
पुराणों में श्रीराधा :
वेदव्यास जी ने श्रीमदभागवतम के अलावा १७ और पुराण रचे हैं इनमें से छ:में श्री राधारानी का उल्लेख है।
"राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवी भागवत पुराण )
यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमदभागवतम १०.३०.३५ )
–श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर हो गए। महारास से विलग हो गए। गोपी राधा का ही एक नाम है |
अन्याअ अराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर:-(श्रीमद भागवतम )
–इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है। इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं ) संग ले गए, इसीलिये वह आराधिका …राधिका है |
वस्तुतः ऋग्वेदिक व यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति = रयि (संसार, ऐश्वर्य, श्री, वैभव) +धा (धारक, धारण करने वालीशक्ति) से हुई है; अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तोब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तो तो समस्त संसार की धारक चितशक्ति, ह्लादिनी शक्ति, परमेश्वरी राधा का आविर्भाव हुआ|
भविष्य पुराण में–जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा गया तो उनकी मूल कृतित्व – काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए—कालरूप- कृष्ण व उनकी सहोदरी (साथ-साथ उदभूत) राधा-परमेश्वरी, कर्म रूप – ब्रह्मा व नियति (सहोदरी) , धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा (सहोदरी) एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ( सहोदरी ) इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी, चिच्छित-शक्ति है (ब्रह्मसंहिता)।
वही परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण का लीला-रमण व लौकिक रूप के अविर्भाव के साथ उनकी साथी, प्रेमिका, पत्नी हुई व ब्रजबासिनी रूप में जन-नेत्री।
भागवत पुराण में-एक अराधिता नाम की गोपी का उल्लेख है, किसी एक प्रिय गोपी को भग्वान श्री कृष्ण महारास के मध्य में लोप होते समय साथ ले गये थे ,जिसे ’मान ’ होने पर छोडकर अन्तर्ध्यान हुए थे; संभवतः यह वही गोपी रही होगी जिसे गीत-गोविन्द के रचयिता , विद्यापति,व सूरदास आदि परवर्ती कवियों, भक्तों ने श्रंगारभूति श्री कृष्ण (पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) रूप में कल्पित व प्रतिष्ठित किया।
वस्तुतः गीत गोविन्द व भक्ति काल के समय स्त्रियों के सामाज़िक(१ से १० वीं शताब्दी) अधिकारों में कटौती होचुकी थी, उनकी स्वतंत्रता ,स्वेच्छा, कामेच्छा अदि पर अंकुश था। अत राधा का चरित्र महिला उत्थान व उन्मुक्ति के लिये रचित हुआ। पुरुष-प्रधान समाज में कृष्ण उनके अपने हैं,जो उनकी उंगली पर नाचते है, स्त्रियों के प्रति जवाब देह हैं,नारी उन्मुक्ति ,उत्थान के देवता हैं। इस प्रकार बृन्दावन-अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री राधाजी का ब्रज में , जन-जन में, घर-घर में ,मन-मन में, विश्व में, जगत में प्राधान्य हुआ। वे मातृ-शक्ति हैं, भगवान श्रीकृष्ण के साथ सदा-सर्वदा संलग्न, उपस्थित, अभिन्न–परमात्म-अद्यात्म-शक्ति; | अतः वे लौकिक-पत्नी नहीं होसकतीं, उन्हें बिछुडना ही होता है, गोलोक के नियमन के लिये । अथर्ववेदीय राधोपनिषद में श्री राधा रानी के २८ नामों का उल्लेख है। गोपी ,रमा तथा “श्री “राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं।
३. श्रीमद्भागवत में –कृष्ण की रानियाँ का कथन है —
कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरज: श्रिय:
कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत: (श्रीमदभागवतम् )
—हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसका कुंकुम श्रीकृष्ण के पैरों से चस्पां है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ). यहाँ “श्री “राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है महालक्ष्मी के लिए नहीं। क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेळ हैं। वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी।महाभारत में राधा का उल्लेख उस समय आ सकता था जब शिशुपाल श्रीकृष्ण की लम्पटता का बखान कर रहा था। परन्तु भागवतकार निश्चय ही राधा जैसे पावन चरित्र को इसमें घसीटना नहीं चाहता होगा, अतः शिशुपाल से केवल सांकेतिक भाषा में कहलवाया गया, अनर्गल बात नहीं कहलवाई गयी|
कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत में तत्व रूप में राधा का नाम सर्वत्र है क्योंकि उसमें कृष्ण को सदैव श्रीकृष्ण कहा गया है। श्री का अर्थ राधा ही है जो आत्मतत्व की भांति सर्वत्र अन्तर्गुन्थित है, श्रीकृष्ण = राधाकृष्ण |
श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए ‘वृषभानु पत्नी‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। राधा वृषभानु की पुत्री थी। पद्म पुराणने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। यह भी कथा मिलती है कि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेते समय अपने परिवार के सभी देवताओं से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा। तभी राधा भी जो चतुर्भुज विष्णु की अर्धांगिनी और लक्ष्मी के रूप में वैकुंठलोक में निवास करती थीं, राधा बनकर पृथ्वी पर आई। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उसका विवाह रापाण अथवा रायाण नामक व्यक्ति के साथ हुआ था। अन्यत्र राधा और कृष्ण के विवाह का भी उल्लेख मिलता है। कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी। यह भी किम्बदन्ती है कि जन्म के समय राधा अन्धी थी और यमुना में नहाते समय जाते हुए राजा वृषभानु को सरोवर में कमल के पुष्प पर खेलती हुई मिली। शिशु अवस्था में ही श्री कृष्ण की माता यशोदा के साथ बरसाना में प्रथम मुलाक़ात हुई, पालने में सोते हुए राधा को कृष्ण द्वारा झांक कर देखते ही जन्मांध राधा की आँखें खुल गईं ।
महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी। दे भी क्यूँ न ? राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें, वृन्दावन की वे कुंज गलियाँ वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी।
राधा जो वनों में भटकती, कृष्ण कृष्ण पुकारती, अपने प्रेम को अमर बनाती, उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नहीदेखा, तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए ।
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। यहाँ राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ की लट्ठामार होली सारी दुनियाँ में मशहूर है। ४.
श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए ‘वृषभानु पत्नी‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। पद्मपुराण ने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया।
कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे। किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना। स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात मन की बात सुन सकें। जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास–क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब ‘जरा’ के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई। उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए ‘राधा’ शब्द का उच्चारण किया। जिसे ‘जरा’ ने सुना और ‘उद्धव’ को जो उसी समय वहां पहुंचे उन्हें सुनाया। उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे। सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद जब उद्धव राधा के पास पहुँचे तो वे केवल इतना ही कह सके राधा- कान्हा तो सारे संसार के थे |
किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी…कान्हा के ह्रदय में केवल राधा थीं
समस्त भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को शाश्वत प्रेम की श्रेणी में रखते हैं।
इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।
बरसाना के श्रीजी के मंदिर में ठाकुर जी भी रहते हैं। भले ही चूनर ओढ़ा देते हैं सखी वेष में रहते हैं ताकि कोई जान न पाये | महात्माओं से सुनते हैं कि ऐसा संसार में कहीं नहीं है जहाँ कृष्ण सखी वेश में रहते हैं।
जो पूर्ण पुरुषोत्तम पुरुष सखी बने ऐसा केवल बरसाने में है ।
अति सरस्यौ बरसानो जू |
राजत रमणीक रवानों जू ||
जहाँ मनिमय मंदिर सोहै जू |
वस्तुतः गीत गोविन्द व भक्ति काल के समय स्त्रियों के सामाज़िक(१ से १० वीं शताब्दी) अधिकारों में कटौती होचुकी थी, उनकी स्वतंत्रता ,स्वेच्छा, कामेच्छा अदि पर अंकुश था। अत राधा का चरित्र महिला उत्थान व उन्मुक्ति के लिये रचित हुआ।
पुरुष-प्रधान समाज में कृष्ण उनके अपने हैं, जो उनकी उंगली पर नाचते है, स्त्रियों के प्रति जवाब देह हैं, नारी उन्मुक्ति, उत्थान के देवता हैं। इस प्रकार बृन्दावन-अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री राधाजी का ब्रज में, जन-जन में, घर-घर में ,मन-मन में, विश्व में, जगत में प्राधान्य हुआ। वे मातृ-शक्ति हैं, भगवान श्रीकृष्ण के साथ सदा-सर्वदा संलग्न, उपस्थित, अभिन्न–परमात्म-अद्यात्म-शक्ति; अतः वे लौकिक-पत्नी नहीं होसकतीं, उन्हें बिछुडना ही होता है, गोलोक के नियमन के लिये ।
"राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी ।
यह शब्द वेदों में भी आया है ।
वैसे भी व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा शब्द - स्त्रीलिंग रूप में है जैसे- (राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् +अच्+ टाप् ):- राधा ।
अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है । वह शक्ति राधा है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है । और कृष्ण राधा के पति हैं । __________________
"इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो।
___________________
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ .२ २. ७) ___________________
सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! जो राधा को गोपियों मध्य में से ले गए ; वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें। ___________________
"त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) ___________________
अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें । जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो ।
वेदों में ही अन्यत्र कृष्ण के विषय में लिखा ।
"त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि ।
वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) ___________________
अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण अग्नि के सदृश् गमन करने वाले हैं । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं ,
ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे ।
इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है ।
जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही तो राधा के पिता थे। वेदों के अतिरिक्त उपनिषदों में राधा और कृष्ण का पवित्र वर्णन है । यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : -(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद ) राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत् चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं।
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में वासुदेव कृष्ण का वर्णन:- ___________________
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल अध्याय दश सूक्त चौउवन 1/54/ 6-7-8-9- वी ऋचाओं तक यदु और तुर्वशु का वर्णन है ।
और इसी सूक्त में राधा तथा वासुदेव कृष्ण आदि का वर्णन है ।
परन्तु यहाँ भी परम्परागत रूप से देव संस्कृतियों के पुरोहितों ने गलत भाष्य किया है ।
पेश है एक नमूना - 👇
"त्वमाविथ नर्यं तुर्वशुं यदुं त्वं तुर्वीतिं(तूर्वति इति तुर्वी )वय्यं शतक्रतो।
त्वं रथमेतशं कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव ।16।
अन्वय:- त्वं नर्यं आविथ शतक्रतो ; त्वं यदु और तुर्वशु को मारने वाले (तुर्वी ) (इति :- इस प्रकार हो वय्यं (गति को) । त्वं रथमेतशं (तुम रथ को गति देने वाले )शम् ( कल्याण) कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव अर्थ:- हे सौ कर्म करने वाले इन्द्र ! तुम नरौं के रक्षक हो तुम तुर्वशु और यदु का तुर्वन ( दमन ) करने वाले तुर्वी इति - इस प्रकार से हो ! तुम वय्यं ( गति को ) भी दमन करने वाले हो । तुम रथ और एतश ( अश्व) को बचाने वाले हो तुम शम्बर के निन्यानवै पुरो को नष्ट करने वाले हो ।6।
"स घा राजा सत्पति : शूशुवज्जनो रातहव्य: प्रति य: शासमिन्वति।
उक्था वायो अभिगृणाति राधसा दानुरस्मा उपरा पिन्वते दिव: ।।7।
साहसी राजा सत् का स्वामी होता है । वह राधा मेरे उरस् (हृदय में ) ज्ञान देती हैं (अभिगृणाति- ज्ञान देती हैं ।
सा- वह राधा । (दान - उरस् -मा ) तब ऊपर प्रकाश पिनहता है । विशेष:- यहाँं राधस्-अन्न अर्थ न होकर राधा सा रूप है (वह राधा) असमं क्षत्रमसमा मनीषा प्र सोमपा अपसा सन्तु नेमे । ये त इन्द्र ददुषो वर्धयन्ति मही क्षत्रं स्थविरं वृष्ण्यं च ।8।
सोम पायी इन्द्र हमारे पास सीमा रहित -बल और बुद्धि हो हम तुम्हें नमन करते हैं ।
हे इन्द्र उषा काल में जो दान देते हैं वे बढ़ते हैं । उनकी पृथ्वी और शक्ति बढ़ती है।
जैसे वृद्ध वृष्णि वंशीयों की शक्ति और बल बढ़ा था । तुभ्येत् एते बहुला अद्रि दुग्धाश्च चमूषदश्चमसा इन्द्रपाना: व्यश्नुहि तर्पया काममेषा मथा मनो वसुदेवाय कृष्व(वासुदेवाय कृष्ण)।।8।
हे वासुदेव कृष्ण ! पाषाणों से कूटकर और छानकर यह पेय सोम इन्द्र के लिए था । परन्तु हे कृष्ण इसका भोग आप करो यह तुम्हारे ही निमित्त हैं !
अपनी इच्छा तृप्त करने के पश्चात् फिर हमको देने की बात सोचो।8।
विशेष :-यद्यपि कृष्ण सोम पान नहीं करते थे । परन्तु मन्त्रकार कृष्ण के शक्ति प्रभाव से प्रभावित होकर उन्हें भी इन्द्र के समान सोम समर्पण करना प्रलोभित करना चाहता है।
वन्दे वृन्दावनानन्दा राधिका परमेश्वरी ।
गोपिकां परमां श्रेष्ठां ह्लादिनीं शक्तिरूपिणीम् ॥
श्रीराधां परमाराज्यां कृष्णसेवापरायणाम् ।
श्रीकृष्णाङ्ग सदाध्यात्री नवधाभक्तिकारिणी ॥
येषां गुणमयी-राधा वृषभानुकुमारिका ।
दामोदरप्रिया-राधा मनोभीष्टप्रदायिनी ॥
तस्या नामसहस्रं त्वं श्रुणु भागवतोत्तमा ॥
मानसतन्त्रे अनुष्टुप्छन्दसे अकारादि क्षकारान्तानि
श्रीराधिकासहस्रनामानि ॥
"अथ स्तोत्रम् ।
ॐ अनन्तरूपिणी-राधा अपारगुणसागरा ।
अध्यक्षरा आदिरूपा अनादिराशेश्वरी॥१॥
अणिमादि सिद्धिदात्री अधिदेवी अधीश्वरी ।
अष्टसिद्धिप्रदादेवी अभया अखिलेश्वरी ॥२॥
अनङ्गमञ्जरीभग्ना अनङ्गदर्पनाशिनी ।
अनुकम्पाप्रदा-राधा अपराधप्रणाशिनी ॥३॥
अन्तर्वेत्री अधिष्ठात्री अन्तर्यामी सनातनी ।
अमला अबला बाला अतुला च अनूपमा ॥४॥
अशेषगुणसम्पन्ना अन्तःकरणवासिनी ।
अच्युता रमणी आद्या अङ्गरागविधायिनी ॥५॥
अरविन्दपदद्वन्द्वा अध्यक्षा परमेश्वरी ।
अवनीधारिणीदेवी अचिन्त्याद्भुतरूपिणी ॥६॥
अशेषगुणसाराच अशोकाशोकनाशिनी ।
अभीष्टदा अंशमुखी अक्षयाद्भुतरूपिणी ॥७॥
अवलम्बा अधिष्ठात्री अकिञ्चनवरप्रदा ।
अखिलानन्दिनी आद्या अयाना कृष्णमोहिनी॥८॥
अवधीसर्वशास्त्राणामापदुद्धारिणी शुभा ।
आह्लादिनी आदिशक्तिरन्नदा अभयापि च ॥ ७॥
अन्नपूर्णा अहोधन्या अतुल्या अभयप्रदा ।
इन्दुमुखी दिव्यहासा इष्टभक्तिप्रदायिनी ॥१०॥
इच्छामयी इच्छारूपा इन्दिरा ईश्वरीऽपरा ।
इष्टदायीश्वरी माया इष्टमन्त्रस्वरूपिणी ॥११॥
ओङ्काररूपिणीदेवी उर्वीसर्वजनेश्वरी ।
ऐरावतवती पूज्या अपारगुणसागरा ॥१२॥
कृष्णप्राणाधिकाराधा कृष्णप्रेमविनोदिनी ।
श्रीकृष्णाङ्गसदाध्यायी कृष्णानन्दप्रदायिनी॥१३॥
कृष्णाऽह्लादिनीदेवी कृष्णध्यानपरायणा ।
कृष्णसम्मोहिनीनित्या कृष्णानन्दप्रवर्धिनी ॥१४॥
कृष्णानन्दा सदानन्दा कृष्णकेलि सुखास्वदा ।
कृष्णप्रिया कृष्णकान्ता कृष्णसेवापरायणा॥१५॥
कृष्णप्रेमाब्धिसभरी कृष्णप्रेमतरङ्गिणी ।
कृष्णचित्तहरादेवी कीर्तिदाकुलपद्मिनी ॥१६॥
कृष्णमुखी हासमुखी सदाकृष्णकुतूहली ।
कृष्णानुरागिणीधन्याकिशोरीकृष्णवल्लभा॥१७॥
कृष्णकामा कृष्णवन्द्या कृष्णाब्धे सर्वकामना ।
कृष्णप्रेममयी-राधा कल्याणी कमलानना ॥१८॥
कृष्णसून्मादिनी काम्या कृष्णलीला शिरोमणी।
कृष्णसञ्जीवनी राधाकृष्णवक्षस्थलस्थिता॥ १९॥
कृष्णप्रेमसदोन्मत्ता कृष्णसङ्गविलासिनी ।
श्रीकृष्णरमणीराधा कृष्णप्रेमाऽकलङ्किणी॥ २०॥
कृष्णप्रेमवतीकर्त्री कृष्णभक्तिपरायणा ।
श्रीकृष्णमहिषी पूर्णा श्रीकृष्णाङ्गप्रियङ्करी ॥ २१॥
कामगात्रा कामरूपा कलिकल्मषनाशिनी ।
कृष्णसंयुक्तकामेशी श्रीकृष्णप्रियवादिनी ॥ २२॥
कृष्णशक्ति काञ्चनाभा कृष्णाकृष्णप्रियासती ।
कृष्णप्राणेश्वरी धीरा कमलाकुञ्जवासिनी ॥२३॥
कृष्णप्राणाधिदेवी च किशोरानन्ददायिनी ।
कृष्णप्रसाध्यमाना च कृष्णप्रेमपरायणा ॥२४॥
कृष्णवक्षस्थितादेवी श्रीकृष्णाङ्गसदाव्रता ।
कुञ्जाधिराजमहिषी पूजन्नूपुररञ्जनी ॥२५॥
कारुण्यामृतपाधोधी कल्याणी करुणामयी ।
कुन्दकुसुमदन्ता च कस्तूरिबिन्दुभिः शुभा ॥२६॥
कुचकुटमलसौन्दर्या कृपामयी कृपाकरी ।
कुञ्जविहारिणी गोपी कुन्ददामसुशोभिनी ॥२७॥
कोमलाङ्गी कमलाङ्घ्री कमलाऽकमलानना ।
कन्दर्पदमनादेवी कौमारी नवयौवना ॥ २८॥
कुङ्कुमाचर्चिताङ्गी च केसरीमध्यमोत्तमा ।
काञ्चनाङ्गी कुरङ्गाक्षी कनकाङ्गुलिधारिणी ॥ २९॥
करुणार्णवसम्पूर्णा कृष्णप्रेमतरङ्गिणी ।
कल्पदृमा कृपाध्यक्षा कृष्णसेवा परायणा ॥ ३०॥
खञ्जनाक्षी खनीप्रेम्णा अखण्डिता मानकारिणी ।
गोलोकधामिनी-राधा गोकुलानन्ददायिनी ॥ ३१॥
गोविन्दवल्लभादेवी गोपिनी गुणसागरा ।
गोपालवल्लभा गोपी गौराङ्गी गोधनेश्वरी ॥ ३२॥
गोपाली गोपिकाश्रेष्ठा गोपकन्या गणेश्वरी ।
गजेन्द्रगामिनीगन्या गन्धर्वकुलपावनी ॥ ३३॥
गुणाध्यक्षा गणाध्यक्षा गवोन्गती गुणाकरा ।
गुणगम्या गृहलक्ष्मी गोप्येचूडाग्रमालिका ॥। ३४॥
गङ्गागीतागतिर्दात्री गायत्री ब्रह्मरूपिणी ।
गन्धपुष्पधरादेवी गन्धमाल्यादिधारिणी ॥ ३५॥
गोविन्दप्रेयसी धीरा गोविन्दबन्धकारणा ।
ज्ञानदागुणदागम्या गोपिनी गुणशोभिनी ॥ ३६॥
गोदावरी गुणातीता गोवर्धनधनप्रिया ।
गोपिनी गोकुलेन्द्राणी गोपिका गुणशालिनी ॥ ३७॥
गन्धेश्वरी गुणालम्बा गुणाङ्गी गुणपावनी ।
गोपालस्य प्रियाराधा कुञ्जपुञ्जविहारिणी ॥ ३८॥
गोकुलेन्दुमुखी वृन्दा गोपालप्राणवल्लभा ।
गोपाङ्गनाप्रियाराधा गौराङ्गी गौरवान्विता ॥ ३९॥
गोवत्सधारिणीवत्सा सुबलावेशधारिणी ।
गीर्वाणवन्द्या गीर्वाणी गोपिनी गणशोभिता ॥ ४०॥
घनश्यामप्रियाधीरा घोरसंसारतारिणी ।
घूर्णायमाननयना घोरकल्मषनाशिनी ॥ ४१॥
चैतन्यरूपिणीदेवी चित्तचैतन्यदायिनी ।
चन्द्राननी चन्द्रकान्ती चन्द्रकोटिसमप्रभा ॥ ४२॥
चन्द्रावली शुक्लपक्षा चन्द्राच कृष्णवल्लभा ।
चन्द्रार्कनखरज्योती चारुवेणीशिखारुचिः ॥ ४३॥
चन्दनैश्चर्चिताङ्गी च चतुराचञ्चलेक्षणा ।
चारुगोरोचनागौरी चतुर्वर्गप्रदायिनी ॥ ४४॥
श्रीमतीचतुराध्यक्षा चरमागतिदायिनी ।
चराचरेश्वरीदेवी चिन्तातीता जगन्मयी ॥ ४५॥
चतुःषष्टिकलालम्बा चम्पापुष्पविधारिणी ।
चिन्मयी चित्शक्तिरूपा चर्चिताङ्गी मनोरमा॥४६॥
चित्रलेखाच श्रीरात्री चन्द्रकान्तिजितप्रभा ।
चतुरापाङ्गमाधुर्या चारुचञ्चललोचना ॥ ४७॥
छन्दोमयी छन्दरूपा छिद्रछन्दोविनाशिनी ।
जगत्कर्त्री जगद्धात्री जगदाधाररूपिणी ॥ ४८॥
जयङ्करी जगन्माता जयदादियकारिणी ।
जयप्रदाजयालक्ष्मी जयन्ती सुयशप्रदा ॥ ४९॥
जाम्बूनदा हेमकान्ती जयावती यशस्विनी ।
जगहिता जगत्पूज्या जननी लोकपालिनी ॥ ५०॥
जगद्धात्री जगत्कर्त्री जगद्बीजस्वरूपिणी ।
जगन्माता योगमाया जीवानां गतिदायिनी ॥५१॥
जीवाकृतिर्योगगम्या यशोदानन्ददायिनी ।
जपाकुसुमसङ्काशा पादाब्जामणिमण्डिता॥ ५२॥
जानुद्युतिजितोत्फुल्ला यन्त्रणाविघ्नघातिनी ।
जितेन्द्रिया यज्ञरूपा यज्ञाङ्गी जलशायिनी ॥ ५३॥
जानकीजन्मशून्याच जन्ममृत्युजराहरा ।
जाह्नवी यमुनारूपा जाम्बूनदस्वरूपिणी ॥५४॥
झणत्कृतपदाम्भोजा जडतारिनिवारिणी ।
टङ्कारिणी महाध्याना दिव्यवाद्यविनोदिनी॥ ५५॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभा त्रैलोक्यलोकतारिणी ।
तिलपुष्पजितानासा तुलसीमञ्जरीप्रिया ॥ ५६॥
त्रैलोक्याऽकर्षिणी-राधा त्रिवर्गफलदायिनी ।
तुलसीतोषकर्त्री च कृष्णचन्द्रतपस्विनी ॥ ५७॥
तरुणादित्यसङ्काशा नखश्रेणिसमप्रभा ।
त्रैलोक्यमङ्गलादेवी दिग्धमूलपदद्वयी ॥ ५८॥
त्रैलोक्यजननी-राधा तापत्रयनिवारिणी ।
त्रैलोक्यसुन्दरी धन्या तन्त्रमन्त्रस्वरूपिणी ॥ ५९॥
त्रिकालज्ञा त्राणकर्त्री त्रैलोक्यमङ्गलासदा ।
तेजस्विनी तपोमूर्ती तापत्रयविनाशिनी ॥६०॥
त्रिगुणाधारिणी देवी तारिणी त्रिदशेश्वरी ।
त्रयोदशवयोनित्या तरुणीनवयौवना ॥ ६१॥
हृत्पद्मेस्थितिमति स्थानदात्री पदाम्बुजे ।
स्थितिरूपा स्थिरा शान्ता स्थितसंसारपालिनी ॥ ६२॥
दामोदरप्रियाधीरा दुर्वासोवरदायिनी ।
दयामयी दयाध्यक्षा दिव्ययोगप्रदर्शिनी ॥ ६३॥
दिव्यानुलेपनारागा दिव्यालङ्कारभूषणा ।
दुर्गतिनाशिनी-राधा दुर्गा दुःखविनाशिनी ॥ ६४॥
देवदेवीमहादेवी दयाशीला दयावती ।
दयार्द्रसागराराधा महादारिद्र्यनाशिनी ॥ ६५॥
देवतानां दुराराध्या महापापविनाशिनी ।
द्वारकावासिनी देवी दुःखशोकविनाशिनी ॥ ६६॥
दयावती द्वारकेशा दोलोत्सवविहारिणी ।
दान्ता शान्ता कृपाध्यक्षा दक्षिणायज्ञकारिणी॥ ६७॥
दीनबन्धुप्रियादेवी शुभा दुर्घटनाशिनी ।
ध्वजवज्राब्जपाशाङ्घ्री धीमहीचरणाम्बुजा॥ ६८॥
धर्मातीता धराध्यक्षा धनधान्यप्रदायिनी ।
धर्माध्यक्षा ध्यानगम्या धरणीभारनाशिनी ॥६९॥
धर्मदाधैर्यदाधात्री धन्यधन्यधुरन्धरी ।
धरणीधारिणीधन्या धर्मसङ्कटरक्षिणी ॥ ७०॥
धर्माधिकारिणीदेवी धर्मशास्त्रविशारदा ।
धर्मसंस्थापनाधाग्रा ध्रुवानन्दप्रदायिनी ॥ ७१॥
नवगोरोचना गौरी नीलवस्त्रविधारिणी ।
नवयौवनसम्पन्ना नन्दनन्दनकारिणी ॥ ७२॥
नित्यानन्दमयी नित्या नीलकान्तमणिप्रिया ।
नानारत्नविचित्राङ्गी नानासुखमयीसुधा ॥ ७३॥
निगूढरसरासज्ञा नित्यानन्दप्रदायिनी ।
नवीनप्रवणाधन्या नीलपद्मविधारिणी ॥ ७४॥
नन्दाऽनन्दा सदानन्दा निर्मला मुक्तिदायिनी ।
निर्विकारा नित्यरूपा निष्कलङ्का निरामया ॥ ७५॥
नलिनी नलिनाक्षी च नानालङ्कारभूषिता ।
नितम्बिनि निराकाङ्क्षा नित्यासत्या सनातनी॥ ७६॥
नीलाम्बरपरीधाना नीलाकमललोचना ।
निरपेक्षा निरूपमा नारायणी नरेश्वरी ॥ ७७॥
निरालम्बा रक्षकर्त्री निगमार्थप्रदायिनी ।
निकुञ्जवासिनी-राधा निर्गुणागुणसागरा ॥ ७८॥
नीलाब्जा कृष्णमहिषी निराश्रयगतिप्रदा ।
निधूवनवनानन्दा निकुञ्जशी च नागरी ॥ ७९॥
निरञ्जना नित्यरक्ता नागरी चित्तमोहिनी ।
पूर्णचन्द्रमुखी देवी प्रधानाप्रकृतिपरा ॥ ८०॥
प्रेमरूपा प्रेममयी प्रफुल्लजलजानना ।
पूर्णानन्दमयी-राधा पूर्णब्रह्मसनातनी ॥ ८१॥
परमार्थप्रदा पूज्या परेशा पद्मलोचना ।
पराशक्ति पराभक्ति परमानन्ददायिनी ॥ ८२॥
पतितोद्धारिणी पुण्या प्रवीणा धर्मपावनी ।
पङ्कजाक्षी महालक्ष्मी पीनोन्नतपयोधरा ॥ ८३॥
प्रेमाश्रुपरिपूर्णाङ्गी पद्मेलसदृषानना ।
पद्मरागधरादेवी पौर्णमासीसुखास्वदा ॥ ८४॥
पूर्णोत्तमो परञ्ज्योती प्रियङ्करी प्रियंवदा ।
प्रेमभक्तिप्रदा-राधा प्रेमानन्दप्रदायिनी ॥ ८५॥
पद्मगन्धा पद्महस्ता पद्माङ्घ्री पद्ममालिनी ।
पद्मासना महापद्मा पद्ममाला-विधारिणी ॥ ८६॥
प्रबोधिनी पूर्णलक्ष्मी पूर्णेन्दुसदृषानना ।
पुण्डरीकाक्षप्रेमाङ्गी पुण्डरीकाक्षरोहिनी ॥ ८७॥
परमार्थप्रदापद्मा तथा प्रणवरूपिणी ।
फलप्रिया स्फूर्तिदात्री महोत्सवविहारिणी ॥ ८८॥
फुल्लाब्जदिव्यनयना फणिवेणिसुशोभिता ।
वृन्दावनेश्वरी-राधा वृन्दावनविलासिनी ॥ ८९॥
वृषभानुसुतादेवी व्रजवासीगणप्रिया ।
वृन्दा वृन्दावनानन्दा व्रजेन्द्रा च वरप्रदा ॥ ९०॥
विद्युत्गौरी सुवर्णाङ्गी वंशीनादविनोदिनी ।
वृषभानुराधेकन्या व्रजराजसुतप्रिया ॥ ९१॥
विचित्रपट्टचमरी विचित्राम्बरधारिणी ।
वेणुवाद्यप्रियाराधा वेणुवाद्यपरायणा ॥ ९२॥
विश्वम्भरी विचित्राङ्गी ब्रह्माण्डोदरीकासती ।
विश्वोदरी विशालाक्षी व्रजलक्ष्मी वरप्रदा ॥ ९३॥
ब्रह्ममयी ब्रह्मरूपा वेदाङ्गी वार्षभानवी ।
वराङ्गना कराम्भोजा वल्लवी वृजमोहिनी ॥ ९४॥
विष्णुप्रिया विश्वमाता ब्रह्माण्डप्रतिपालिनी ।
विश्वेश्वरी विश्वकर्त्री वेद्यमन्त्रस्वरूपिणी ॥ ९५॥
विश्वमाया विष्णुकान्ता विश्वाङ्गी विश्वपावनी ।
व्रजेश्वरी विश्वरूपा वैष्णवी विघ्ननाशिनी ॥ ९६॥
ब्रह्माण्डजननी-राधा वत्सला व्रजवत्सला ।
वरदा वाक्यसिद्धा च बुद्धिदा वाक्प्रदायिनी ॥ ९७॥
विशाखाप्राणसर्वस्वा वृषभानुकुमारिका ।
विशाखासख्यविजिता वंशीवटविहारिणी ॥ ९८॥
वेदमाता वेदगम्या वेद्यवर्णा शुभङ्करी ।
वेदातीता गुणातीता विदग्धा विजनप्रिया ॥ ९९।
भक्तभक्तिप्रिया-राधा भक्तमङ्गलदायिनी ।
भगवन्मोहिनी देवी भवक्लेशविनाशिनी ॥ १००॥
भाविनी भवती भाव्या भारती भक्तिदायिनी ।
भागीरथी भाग्यवती भूतेशी भवकारिणी ॥१०१॥
भवार्णवत्राणकर्त्री भद्रदा भुवनेश्वरी ।
भक्तात्मा भुवनानन्दा भाविका भक्तवत्सला ॥ १०२॥
भुक्तिमुक्तिप्रदा-राधा शुभा भुजमृणालिका ।
भानुशक्तिच्छलाधीरा भक्तानुग्रहकारिणी ॥ १०३॥
______________________
माधवी माधवायुक्ता मुकुन्दाद्यासनातनी ।
महालक्ष्मी महामान्या माधवस्वान्तमोहिनी ॥ १०४॥
महाधन्या महापुण्या महामोहविनाशिनी ।
मोक्षदा मानदा भद्रा मङ्गलाऽमङ्गलात्पदा ॥ १०५॥
मनोभीष्टप्रदादेवी महाविष्णुस्वरूपिणी ।
माधव्याङ्गी मनोरामा रम्या मुकुररञ्जनी ॥ १०६॥
मनीशा वनदाधारा मुरलीवादनप्रिया ।
मुकुन्दाङ्गकृतापाङ्गी मालिनी हरिमोहिनी ॥ १०७॥
मानग्राही मधुवती मञ्जरी मृगलोचना ।
नित्यवृन्दा महादेवी महेन्द्रकृतशेखरी ॥ १०८॥
मुकुन्दप्राणदाहन्त्री मनोहरमनोहरा ।
माधवमुखपद्मस्या मथुपानमधुव्रता ॥ १०९॥
मुकुन्दमधुमाधुर्या मुख्यावृन्दावनेश्वरी ।
मन्त्रसिद्धिकृता-राधा मूलमन्त्रस्वरूपिणी ॥ ११०॥
मन्मथा सुमतीधात्री मनोज्ञमतिमानिता ।
मदनामोहिनीमान्या मञ्जीरचरणोत्पला ॥ १११॥
यशोदासुतपत्नी च यशोदानन्ददायिनी ।
यौवनापूर्णसौन्दर्या यमुनातटवासिनी ॥ ११२॥
यशस्विनी योगमाया युवराजविलासिनी ।
युग्मश्रीफलसुवत्सा युग्माङ्गदविधारिणी ॥ ११३॥
यन्त्रातिगाननिरता युवतीनांशिरोमणी ।
श्रीराधा परमाराध्या राधिका कृष्णमोहिनी ॥ ११४॥
रूपयौवनसम्पन्ना रासमण्डलकारिणी ।
राधादेवी पराप्राप्ता श्रीराधापरमेश्वरी ॥ ११५॥
राधावाग्मी रसोन्मादी रसिका रसशेखरी ।
राधारासमयीपूर्णा रसज्ञा रसमञ्जरी ॥ ११६॥
राधिका रसदात्री च राधारासविलासिनी ।
रञ्जनी रसवृन्दाच रत्नालङ्कारधारिणी ॥ ११७॥
रामारत्नारत्नमयी रत्नमालाविधारिणी ।
रमणीरामणीरम्या राधिकारमणीपरा ॥ ११८॥
रासमण्डलमध्यस्था राजराजेश्वरी शुभा ।
राकेन्दुकोटिसौन्दर्या रत्नाङ्गदविधारिणी ॥ ११९॥
रासप्रिया रासगम्या रासोत्सवविहारिणी ।
लक्ष्मीरूपा च ललना ललितादिसखिप्रिया ॥ १२०॥
लोकमाता लोकधात्री लोकानुग्रहकारिणी ।
लोलाक्षी ललिताङ्गी च ललिताजीवतारका ॥ १२१॥
लोकालया लज्जारूपा लास्यविद्यालताशुभा ।
ललिताप्रेमललितानुग्धप्रेमलिलावती ॥ १२२॥
लीलालावण्यसम्पन्ना नागरीचित्तमोहिनी ।
लीलारङ्गीरती रम्या लीलागानपरायणा ॥ १२३॥
लीलावती रतिप्रीता ललिताकुलपद्मिनी ।
शुद्धकाञ्चनगौराङ्गी शङ्खकङ्कणधारिणी ॥ १२४॥
शक्तिसञ्चारिणी देवी शक्तीनां शक्तिदायिनी ।
सुचारुकबरीयुक्ता शशिरेखा शुभङ्करी ॥ १२५॥
सुमती सुगतिर्दात्री श्रीमती श्रीहरिपिया ।
सुन्दराङ्गी सुवर्णाङ्गी सुशीला शुभदायिनी ॥ १२६॥
शुभदा सुखदा साध्वी सुकेशी सुमनोरमा ।
सुरेश्वरी सुकुमारी शुभाङ्गी सुमशेखरा ॥ १२७॥
शाकम्भरी सत्यरूपा शस्ता शान्ता मनोरमा ।
सिद्धिधात्री महाशान्ती सुन्दरी शुभदायिनी ॥ १२८॥
शब्दातीता सिन्धुकन्या शरणागतपालिनी ।
शालग्रामप्रिया-राधा सर्वदा नवयौवना ॥ १२९॥
सुबलानन्दिनीदेवी सर्वशास्त्रविशारदा ।
सर्वाङ्गसुन्दरी-राधा सर्वसल्लक्षणान्विता ॥ १३०॥
सर्वगोपीप्रधाना च सर्वकामफलप्रदा ।
सदानन्दमयीदेवी सर्वमङ्गलदायिनी ॥ १३१॥
सर्वमण्डलजीवातु सर्वसम्पत्प्रदायिनी ।
संसारपारकरणी सदाकृष्णकुतूहला ॥ १३२॥
सर्वागुणमयी-राधा साध्या सर्वगुणान्विता ।
सत्यस्वरूपा सत्या च सत्यनित्या सनातनी ॥ १३३॥
सर्वमाधव्यलहरी सुधामुखशुभङ्करी ।
सदाकिशोरिकागोष्ठी सुबलावेशधारिणी ॥ १३४॥
सुवर्णमालिनी-राधा श्यामसुन्दरमोहिनी ।
श्यामामृतरसेमग्ना सदासीमन्तिनीसखी ॥ १३५॥
षोडशीवयसानित्या षडरागविहारिणी ।
हेमाङ्गीवरदाहन्त्री भूमाता हंसगामिनी ॥ १३६॥
हासमुखी व्रजाध्यक्षा हेमाब्जा कृष्णमोहिनी ।
हरिविनोदिनी-राधा हरिसेवापरायणा ॥ १३७॥
हेमारम्भा मदारम्भा हरिहारविलोचना ।
हेमाङ्गवर्णारम्या श्रेषहृत्पद्मवासिनी ॥ १३८॥
हरिपादाब्जमधुपा मधुपानमधुव्रता ।
क्षेमङ्करी क्षीणमध्या क्षमारूपा क्षमावती ॥ १३९॥
क्षेत्राङ्गी श्रीक्षमादात्री क्षितिवृन्दावनेश्वरी ।
क्षमाशीला क्षमादात्री क्षौमवासोविधारिणी ।
क्षान्तिनामावयवती क्षीरोदार्णवशायिनी ॥ १४०॥
राधानामसहस्राणि पठेद्वा श्रुणुयादपि ।
इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्या मन्त्रसिद्धिर्भवेत् ध्रुवम् ॥ १४१॥
धर्मार्थकाममोक्षांश्च लभते नात्र संशयः ।
वाञ्छासिद्धिर्भवेत्तस्य भक्तिस्यात् प्रेमलक्षण ॥ १४२॥
लक्ष्मीस्तस्यवसेत्गेहे मुखेभातिसरस्वती ।
अन्तकालेभवेत्तस्य राधाकृष्णेचसंस्थितिः ॥ १४३॥
______________________
इति श्रीराधामानसतन्त्रे श्रीराधासहस्रनामस्तोत्रान्तर्गतानामावलिःसम्पूर्णा।
उपर्युक्त राधासहस्रनामावलि के 104 वें श्लोक का है।
माधवी माधवायुक्ता मुकुन्दाद्यासनातनी ।
महालक्ष्मी महामान्या माधवस्वान्तमोहिनी ॥ १०४॥
राधा च राधिका चैव आनंदा वृषभानुजा ।।
वृन्दावनेश्वरी पुण्या कृष्णमानसहारिणी ।१२८।
प्रगल्भा चतुरा कामा कामिनी हरिमोहिनी ।।
ललिता मधुरा माध्वी किशोरी कनकप्रभा।१२९।
जितचन्द्रा जितमृगा जितसिंहा जितद्विपा ।।
जितरम्भा जितपिका गोविंदहृदयोद्भवा ।१३० ।।
जितबिंबा जितशुका जितपद्मा कुमारिका ।।
श्रीकृष्णाकर्षणा देवी नित्यं युग्मस्वरूपिणी।१३१।
नित्यं विहारिणी कांता रसिका कृष्णवल्लभा ।।
आमोदिनी मोदवती नंदनंदनभूषिता।८२-१३२ ।।
दिव्यांबरा दिव्यहारा मुक्तामणिविभूषिता ।।
कुञ्जप्रिया कुञ्जवासा कुञ्जनायकनायिका।१३३।
चारुरूपा चारुवक्त्रा चारुहेमांगदा शुभा ।।
श्रीकृष्णवेणुसंगीता मुरलीहारिणी शिवा।१३४।
भद्रा भगवती शांता कुमुदा सुन्दरी प्रिया ।।
कृष्णरतिः श्रीकृष्णसहचारिणी ।१३५ ।।
वंशीवटप्रियस्थाना युग्मायुग्मस्वरूपिणी ।।
भांडीरवासिनी शुभ्रा गोपीनाथप्रिया सखी।१३६।
श्रुतिनिःश्वसिता दिव्या गोविंदरसदायिनी ।।
श्रीकृष्णप्रार्थनीशाना महानन्दप्रदायिनी ।१३७ ।।
वैकुण्ठजनसंसेव्या कोटिलक्ष्मी सुखावहा ।।
कोटिकन्दर्पलावण्या रतिकोटिरतिप्रदा।१३८।
भक्तिग्राह्या भक्तिरूपा लावण्यसरसी उमा ।।
ब्रह्मरुद्रादिसंराध्या नित्यं कौतूहलान्विता ।१३९ ।।
नित्यलीला नित्यकामा नित्यश्रृंगारभूषिता ।।
नित्यवृन्दावनरसा नन्दनन्दनसंयुता।१४० ।।
गोपगिकामण्डलीयुक्ता नित्यं गोपालसंगता ।।
गोरसक्षेपणी शूरा सानन्दानन्ददायिनी ।। ८२-१४१ ।।
महालीला प्रकृष्टा च नागरी नगचारिणी ।।
नित्यमाघूर्णिता पूर्णा कस्तूरीतिलकान्विता ।। ८२-१४२ ।।
पद्मा श्यामा मृगाक्षी च सिद्धिरूपा रसावहा ।।
कोटिचन्द्रानना गौरी कोटिकोकिलसुस्वरा ।। ८२-१४३ ।।
शीलसौंदर्यनिलया नन्दनन्दनलालिता ।।
अशोकवनसंवासा भांडीरवनसङ्गता।१४४।
कल्पद्रुमतलाविष्टा कृष्णा विश्वा हरिप्रिया ।।
अजागम्या भवागम्या गोवर्द्धनकृतालया ।। ८२-१४५ ।।
यमुनातीरनिलया शश्वद्गोविंदजल्पिनी ।।
शश्वन्मानवती स्निग्धा श्रीकृष्णपरिवन्दिता ।। ८२-१४६ ।।
कृष्णस्तुता कृष्णवृता श्रीकृष्णहृदयालया ।।
देवद्रुमफला सेव्या वृन्दावनरसालया।८२-१४७ ।।
कोटितीर्थमयी सत्या कोटितीर्थफलप्रदा ।।
कोटियोगसुदुष्प्राप्या कोटियज्ञदुराश्रया ।। ८२-१४८ ।।
मनसा शशिलेखा च श्रीकोटिसुभगाऽनघा ।।
कोटिमुक्तसुखा सौम्या लक्ष्मीकोटिविलासिनी ।। ८२-१४९ ।।
तिलोत्तमा त्रिकालस्था त्रिकालज्ञाप्यधीश्वरी ।।
त्रिवेदज्ञा त्रिलोकज्ञा तुरीयांतनिवासिनी ।। ८२-१५० ।।
दुर्गाराध्या रमाराध्या विश्वाराध्या चिदात्मिका।
देवाराध्या पराराध्या ब्रह्माराध्या परात्मिका।१५१।
शिवाराध्या प्रेमसाध्या भक्ताराध्या रसात्मिका।
कृष्णप्राणार्पिणी भामा शुद्धप्रेमविलासिनी।१५२।
कृष्णाराध्या भक्तिसाध्या भक्तवृन्दनिषेविता।
विश्वाधारा कृपाधारा जीवधारातिनायिका। १५३।
शुद्धप्रेममयी लज्जा नित्यसिद्धा शिरोमणिः।
दिव्यरूपा दिव्यभोगा दिव्यवेषा मुदान्विता।१५४।
दिव्यांगनावृन्दसारा नित्यनूतनयौवना ।।
परब्रह्मावृता ध्येया महारूपा महोज्ज्वला।१५५ ।।
कोटिसूर्यप्रभा कोटिचन्द्रबिंबाधिकच्छविः।
कोमलामृतवागाद्या वेदाद्या वेददुर्लभा।१५६।
कृष्णासक्ता कृष्णभक्ता चन्द्रावलिनिषेविता ।।
कलाषोडशसंपूर्णा कृष्णदेहार्द्धधारिणी ।१५७ ।।
कृष्णबुद्धिः कृष्णसाराकृष्णरूपविहारिणी ।
कृष्णकान्ता कृष्णधना कृष्णमोहनकारिणी ।१५८।
कृष्णदृष्टिः कृष्णगोत्री कृष्णदेवी कुलोद्वहा ।।
सर्वभूतस्थितावात्मा सर्वलोकनमस्कृता ।१५९ ।
कृष्णदात्री प्रेमधात्री स्वर्णगात्री मनोरमा ।।
नगधात्री यशोठात्री महादेवी शुभंकरी।१६०।
श्रीशेषदेवजननी अवतारगणप्रसूः ।।
उत्पलांकारविंदांका प्रसादांका द्वितीयका।१६१ ।।
रथांका कुंजरांका च कुंडलांकपदस्थिता ।।
छत्रांका विद्युदंका च पुष्पमालांकितापि च ।१६२।
दंडांका मुकुटांका च पूर्णचन्द्रा शुकांकिता ।।
कृष्णात्रहारपाका च वृन्दाकुंजविहारिणी ।१६३।
कृष्णप्रबोधनकरी कृष्णशेषान्नभोजिनी ।।
पद्मकेसरमध्यस्था संगीतागमवेदिनी।१६४।
कोटिकल्पांतभ्रूभंगा अप्राप्तप्रलयाच्युता ।।
सर्वसत्त्वनिधिः पद्मशंखादिनिधिसेविता।१६५ ।
अणिमादिगुणैश्वर्या देववृन्दविमोहिनी ।।
सस्वानन्दप्रदा सर्वा सुवर्णलतिकाकृतिः ।१६६ ।।
कृष्णाभिसारसंकेता मालिनी नृत्यपण्डिता ।।
गोपीसिंधुसकाशाह्वां गोपमण्डपशोभिनी।१६७ ।।
श्रीकृष्णप्रीतिदा भीता प्रत्यंगपुलकांचिता ।।
श्रीकृष्णालिंगनरता गोविंदविरहाक्षमा।१६८।
अनंतगुणसंपन्ना कृष्णकीर्तनलालसा ।।
बीजत्रयमयी मूर्तिः कृष्णानुग्रहवांछिता।१६९ ।।
विमलादिनिषेव्या च ललिताद्यार्चिता सती ।।
पद्मवृन्दस्थिता हृष्टा त्रिपुरापरिसेविता।१७०।
वृन्तावत्यर्चिता श्रद्धा दुर्ज्ञेया भक्तवल्लभा ।।
दुर्लभा सांद्रसौख्यात्मा श्रेयोहेतुः सुभोगदा।१७१।।
सारंगा शारदा बोधा सद्वृंदावनचारिणी ।।
ब्रह्मानन्दा चिदानन्दा ध्यानान्दार्द्धमात्रिका।१७२।
गंधर्वा सुरतज्ञा च गोविंदप्राणसंगमा ।।
कृष्णांगभूषणा रत्नभूषणा स्वर्णभूषिता।१७३।
श्रीकृष्णहृदयावासमुक्ताकनकनालि (सि) का।
सद्रत्नकंकणयुता श्रीमन्नीलगिरिस्थिता ।१७४ ।।
स्वर्णनूपुरसंपन्ना स्वर्णकिंकिणिमंडिता ।।
अशेषरासकुतुका रंभोरूस्तनुमध्यमा ।१७५।
पराकृतिः पररानन्दा परस्वर्गविहारिणी ।।
प्रसूनकबरी चित्रा महासिंदूरसुन्दरी।१७६।
कैशोरवयसा बाला प्रमदाकुलशेखरा ।।
कृष्णाधरसुधा स्वादा श्यामप्रेमविनोदिनी।१७७।
शिखिपिच्छलसच्चूडा स्वर्णचंपकभूषिता ।।
कुंकुमालक्तकस्तूरीमंडिता चापराजिता।१७८ ।।
हेमहरान्वितापुष्पा हाराढ्या रसवत्यपि ।।
माधुर्य्यमधुरा पद्मा पद्महस्ता सुविश्रुता।१७९ ।।
भ्रूभंगाभंगकोदंडकटाक्षशरसंधिनी ।।
शेषदेवाशिरस्था च नित्यस्थलविहारिणी।१८०।
कारुण्यजलमध्यस्था नित्यमत्ताधिरोहिणी ।।
अष्टभाषवती चाष्टनायिका लक्षणान्विता।१८१ ।।
सुनूतिज्ञा श्रुतिज्ञा च सर्वज्ञा दुःखहारिणी ।।
रजोगुणेश्वरी चैव जरच्चंद्रनिभानना।१८२ ।।
केतकीकुसुमाभासा सदा सिंधुवनस्थिता ।।
हेमपुष्पाधिककरा पञ्चशक्तिमयी हिता।१८३ ।।
स्तनकुभी नराढ्या च क्षीणापुण्या यशस्वनी ।।
वैराजसूयजननी श्रीशा भुवनमोहिनी।१८४ ।।
महाशोभा महामाया महाकांतिर्महास्मृतिः ।।
महामोहा महाविद्या महाकीर्तिंर्महारतिः।१८५ ।।
महाधैर्या महावीर्या महाशक्तिर्महाद्युतिः ।।
महागौरी महासंपन्महाभोगविलासिनी।१८६ ।।
समया भक्तिदाशोका वात्सल्यरसदायिनी ।।
सुहृद्भक्तिप्रदा स्वच्छा माधुर्यरसवर्षिणी।१८७ ।।
भावभक्तिप्रदा शुद्धप्रेमभक्तिविधायिनी ।।
गोपरामाभिरामा च क्रीडारामा परेश्वरी।१८८ ।
नित्यरामा चात्मरामा कृष्णरामा रमेश्वरी ।।
एकानैकजगद्व्याप्ता विश्वलीलाप्रकाशिनी।१८९।
सरस्वतीशा दुर्गेशा जगदीशा जगद्विधिः ।।
विष्णुवंशनिवासा च विष्णुवंशसमुद्भवा।१९०।
विष्णुवंशस्तुता कर्त्री विष्णुवंशावनी सदा ।।
आरामस्था वनस्था च सूर्य्यपुत्र्यवगाहिनी।१९१।
प्रीतिस्था नित्ययंत्रस्था गोलोकस्था विभूतिदा ।।
स्वानुभूतिस्थिता व्यक्ता सर्वलोकनिवासिनी।१९२।
अमृता ह्यद्भुता श्रीमन्नारायणसमीडिता ।।
अक्षरापि च कूटस्था महापुरुषसंभवा।१९३।
औदार्यभावसाध्या च स्थूलसूक्ष्मातिरूपिणी ।।
शिरीषपुष्पमृदुला गांगेयमुकुरप्रभा।१९४ ।।
नीलोत्पलजिताक्षी च सद्रत्नकवरान्विता ।।
प्रेमपर्यकनिलया तेजोमंडलमध्यगा।१९५ ।।
कृष्णांगगोपनाऽभेदा लीलावरणनायिका ।।
सुधासिंधुसमुल्लासामृतास्यंदविधायिनी।१९६ ।।
कृष्णचित्ता रासचित्ता प्रेमचित्ता हरिप्रिया ।।
अचिंतनगुणग्रामा कृष्णलीला मलापहा।१९७ ।।
राससिंधुशशांका च रासमंडलमंडीनी ।।
नतव्रता सिंहरीच्छा सुमीर्तिः सुखंदिता।१९८ ।।
गोपीचूडामणिर्गोपीगणेड्या विरजाधिका ।।
गोपप्रेष्ठा गोपकन्या गोपनारी सुगोपिका।१९९।
गोपधामा सुदामांबा गोपाली गोपमोहिनी ।।
गोपभूषा कृष्णभूषा श्रीवृन्दावनचंद्रिका।२०० ।।
वीणादिघोषनिरता रासोत्सवविकासिनी ।।
कृष्णचेष्टा परिज्ञाता कोटिकंदर्पमोहिनी।२०१ ।।
श्रीकृष्ण गुणनागाढ्या देवसुंदरिमोहिनी ।।
कृष्णचंद्रमनोज्ञा च कृष्णदेवसहोदरी।२०२ ।।
कृष्णाभिलाषिणी कृष्णप्रेमानुग्रहवांछिता ।।
क्षेमा च मधुरालापा भ्रुवोमाया सुभद्रिका।२०३।
प्रकृतिः परमानन्दा नीपद्रुमतलस्थिता ।।
कृपाकटाक्षा बिम्बोष्टी रम्भा चारुनितम्बिनी।२०४।
स्मरकेलिनिधाना च गंडताटंकमंडिता ।।
हेमाद्रिकांतिरुचिरा प्रेमाद्या मदमंथरा।२०५ ।।
कृष्णचिंता प्रेमचिंता रतिचिन्ता च कृष्णदा ।।
रासचिंता भावचिंता शुद्धचंता महारसा।२०६ ।
कृष्णादृष्टित्रुटियुगा दृष्टिपक्ष्मिविनिंदिनी ।।
कन्दर्पजननी मुख्या वैकुंठगतिदायिनी।२०७ ।।
रासभावा प्रियाश्लिष्टा प्रेष्ठा प्रथमनायिका ।।
शुद्धादेहिनी च श्रीरामा रसमञ्जरी।२०८ ।।
सुप्रभावा शुभाचारा स्वर्णदी नर्मदांबिका।।
गोमती चंद्रभागेड्या सरयूस्ताम्रपर्णिसूः।२०९ ।।
निष्कलंकचरित्रा च निर्गुणा च निरंजना ।।
एतन्नामसहस्रं तु युग्मरूपस्य नारद।२१०।।
पठनीयं प्रयत्नेन वृन्दावनरसावहे ।।
महापापप्रशमनं वंध्यात्वविनिवर्तकम्।२११।।
दारिद्र्य शमनं रोगनाशनं कामदं महत् ।।
पापापहं वैरिहरं राधामाधवभक्तिदम् ।२१२।
नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुंठमेधसे।।
राधासंगसुधासिंधौ नमो नित्यविहारिणे।२१३ ।।
राधादेवी जगत्कर्त्री जगत्पालनतगत्परा ।।
जगल्लयविधात्री च सर्वेशी सर्वसूतिका।२१४।
तस्या नामसहस्रं वै मया प्रोक्तं मुनीश्वर ।।
भुक्तिमुक्तिप्रदं दिव्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।२१५।
"इतिश्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे राधाकृष्ण सहस्रनामकथनं नामद्वयशीतितमोऽध्यायः।।८२।।
________
पितृवंशानुकथनं सृष्टवंशानुकीर्तनम् ।।
भृगुशापस्तथा विष्णोर्दशधा जन्मने क्षितौ ।। १०७-७ ।।
कीर्त्तनं पूरुवंशस्य वंशो हौताशनः परम् ।।
क्रियायोगस्ततः पश्चात्पुराणपरिकीर्तनम् ।। १०७-८ ।।
_____
एतद्विघ्नेशखंडं हि सर्वविघ्नविनाशनम् ।।
श्रीकृष्णजन्मसंप्रश्नो जन्माख्यानं ततोऽद्भुतम् ।। १०१-१५ ।।
गोकुले गमनं गश्चात्पूतनादिवदाद्भूताः ।।
बाल्यकौमारजा लीला विविधास्तत्र वर्णिताः ।। १०१-१६ ।।
"रासक्रीडा च गोपीभिः शारदी समुदाहृता ।।
रहस्ये राधया क्रीडा वर्णिता बहुविस्तरा। १०१-१७।।सहाक्रूरेण तत्पश्चान्मथुरागमनं हरेः ।।
कंसादीनां वधे वृत्ते कृष्णस्य द्विजसंस्कृतिः ।। १०१-१८ ।।
काश्यसांदीपनेः पश्चाद्विद्योपादानमद्भुतम् ।।
यवनस्य वधः पश्चाद्द्वारकागमनं हरे;।१०१-१९।नरकादिवधस्तत्र कृष्णेन विहितोऽद्भुतः ।।
कृष्णखंडमिदं विप्र नृणां संसारखंडनम् ।। १०१-२० ।।
पठितं च श्रुतं ध्यातं पूजितं चाभिवंदितम् ।।
इत्येतद्ब्रह्मवैवर्तपुराणं चात्यलौकिकम् ।। १०१-२१ ।।
व्यासोक्तं चादि संभूतं पठञ्छृण्वन्विमुच्यते ।।
विज्ञानाज्ञानशमनाद्धोरात्संसारसागरात् ।। १०१-२२ ।।
लिखित्वेदं च यो दद्यान्माध्यां धेनुसमन्वितम् ।।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति स मुक्तोऽज्ञानबंधनात् ।। १०१-२३ ।।
यश्चानुक्रमणीं चापि पठेद्वा श्रृणुयादपि ।।
सोऽपि कृष्णप्रसादेन लभते वांछितं फलम् ।। १०१-२४ ।।
इति
श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने ब्रह्मवैवर्तपुराणानुक्रमणीनिरूपणं नामैकोत्तरशततमोऽध्यायाः ।। १०१ ।।
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