मंगलवार, 14 नवंबर 2023

दीपा: बलिम्- बनाम(versus)दीपावली- श्री कृष्ण सर्वस्वम्

"बहवो दीपा: बलिं राजानमुद्दिश्य युगपद्। दीप्यन्ते यस्मिन् उत्सवे इति  दीपावली उच्यते।।१। 


परम्दानी विष्णोर्ध्यानि  राज्ञ: बल्यु: बलौ स्मृतौ।

*************************************
बहुत से दीपक एक साथ राजा बलि के उद्देश्य से जिस उत्सव में  जलाऐ जाते हैं। वह दी पाव लि कहलाता है।१।

आशय- बहुत से दीपों को जब परमदानी असुर राज बलि को  उद्देश्य करके जलाया जाता इस उत्सव को दीपा : बलिम्- कहा गया परन्तु कालान्तर में इसका नवीन रूप दीपावली हो गया -
सन्दर्भ- पद्मपुराण( उत्तर खण्ड) स्कन्द पुराण ( वैष्णव खण्ड) वामन पुराण तथा भविष्य पुराण आदि महाभारत अनुशासन पर्व आदि  -
प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली का त्योहार मनाया जाता है।
समय के साथ इस त्योहार को मनाने के ढ़ग भी बदले हैं।
"यह त्यौहार असुर राजा बलि के बलिदान और त्याग करने की स्मृति में मनाया जाता है।
माना जाता है कि दिपावली के यह पर्व प्राचीन काल से ही मनाया जाता रहा हैं।
सत् युग के आदिकाल से -जब राजा बलि ने यज्ञ किया था।
इस उत्सव के प्रारंभ होने को लेकर कई तरह के तथ्‍य सामने आते हैं।
 यह दीपावलि का पर्व  शीत काल की सूचना देने वाला त्यौहार है।
लक्ष्मी और दिवाली का सम्बन्ध भी राजा बलि से सम्बन्धित है। लक्षमी ने राज बलि से भाई की सम्बन्ध माना था । और बलि को  आग्रहीत किया आप के साथ मेरा यह शाश्वत सम्बन्ध रहे - रक्षा बन्धन और भाई दौज दोनों ही उत्सव भाई बहन के पवित्र आत्मीयता सूचक उत्सव है।

यही कारण है कि  लक्ष्मी पूजा भी दीपावली पर होती है ।

____       
असुर राजा बलि और दिवाली का सम्बन्ध सत् युग से आज तक है परन्तु जनसाधारण इस सम्बन्ध को नहीं जानता क्योंकि पुरोहितों ने उसका यथार्थ व्याख्यान ही नहीं किया।

दीपावली का पर्व सबसे पहले राजा महाबली बलि के काल से प्रारंभ हुआ था। 
विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बलि की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे।
 तभी से दीपोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ। 

पुराणों में इसका साक्ष्य हम क्रमानुसार प्रस्तुत करते हैं।

पद्मपुराण  खण्डः (६) (उत्तरखण्डः) अध्यायः ।१२२।

              "कार्तिकमासमाहात्म्यम्
                         "ब्रह्मोवाच!
प्रतिपद्यथ चाऽभ्यंगं कृत्वा नीराजनं ततः ।।
सुवेषः सत्कथागीतैर्दानैश्च दिवसं नयेत् ।। १ ।।

शंकरस्तु पुरा द्यूतं ससर्ज सुमनोहरम् ।।
कार्तिके शुक्लपक्षे तु प्रथमेऽहनि सत्यवत् ।। २ ।।

बलिराज्यदिनस्याऽपि माहात्म्यं शृणु तत्त्वतः ।।
स्नातव्यं तिलतैलेन नरैर्नारीभिरेव च ।। ३ ।।

यदि मोहान्न कुर्वीत स याति यमसादनम् ।।
पुरा कृतयुगस्यादौ दानवेंद्रो बलिर्महान् ।। ४ ।।

तेन दत्ता वामनाय भूमिः स्वमस्तकान्विता ।।
तदानीं भगवान्साक्षात्तुष्टो बलिमुवाच ह ।। ५।।

कार्तिके मासि शुक्लायां प्रतिपद्यां यतो भवान् ।।
भूमिं मे दत्तवान्भक्त्या तेन तुष्टोऽस्मि तेऽनघ ।६।
______________    
वरं ददामि ते राजन्नित्युक्त्वाऽदाद्वरं तदा ।।
त्वन्नाम्नैव भवेद्राजन्कार्तिकी प्रतिपत्तिथिः।। ७ ।।

एतस्यां ये करिष्यंति तैलस्नानादिकार्चनम् ।।
तदक्षयं भवेद्राजन्नात्र कार्या विचारणा ।। ८ ।।

तदाप्रभृति लोकेऽस्मिन्प्रसिद्धा प्रतिपत्तिथिः ।।
प्रतिपत्पूर्वविद्धा नो कर्तव्या तु कथंचन ।। ९ ।।

तत्राभ्यंगं न कुर्वीत अन्यथा मृतिमाप्नुयात् ।।
प्रतिपद्यां यदा दर्शो मुहूर्तप्रमितो भवेत् । 2.4.10.१०।

मांगल्यं तद्दिने चेत्स्याद्वित्तादिस्तस्य नश्यति ।।
बलेश्च प्रतिपद्दर्शाद्यदि विद्धं भविष्यति ।। ११ ।।

तस्यां यद्यथ चाऽऽर्तिक्यं नारी मोहात्करिष्यति ।।
नारीणां तत्र वैधव्यं प्रजानां मरणं ध्रुवम् ।। १२ ।।

अविद्धा प्रतिपच्चेत्स्यान्मुहूर्तमपरेऽहनि ।।
उत्सवादिककृत्येषु सैव प्रोक्ता मनीषिभिः।१३ ।।

प्रतिपत्स्वल्पमात्राऽपि यदि न स्यात्परेऽहनि ।।
पूर्वविद्धा तदा कार्या कृता नो दोषभाग्भवेत् ।१४।

तद्दिने गृहमध्ये तु कुर्यान्मूर्तिं तदांगणे ।।
गोमयेन च तत्राऽपि दधि तत्पुरतः क्षिपेत् ।१५।

आर्तिक्यं तत्र संस्थाप्य एवं कुर्याद्विधानतः ।।
अभ्यंगं ये न कुर्वंति तस्यां तु मुनिपुंगव ।। १६ ।।

न मांगल्यं भवेत्तेषां यावत्स्याद्वत्सरं ध्रुवम् ।।
यो यादृशेन रूपेण तस्यां तिष्ठेच्छुभे दिने ।। १७ ।।

आवर्षं तद्भवेत्तस्य तस्मान्मंगलमाचरेत्।
यदीच्छेत्स्वशुभान्भोगान्भोक्तुं दिव्यान्मनोहरान्
 १८।

कुरु दीपोत्सवं रम्यं त्रयोदश्यादिकेषु च ।।
शंकरश्च भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थिते ।। १९ ।।

गौर्या जित्वा पुरा शंभुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः ।।
अतोऽर्थं शंकरो दुःखी गौरी नित्यं सुखस्थिता ।। 2.4.10.२०।।

द्यूतं निषिद्धं सर्वत्र हित्वा प्रतिपदं बुधाः ।
प्रथमं विजयो यस्य तस्य संवत्सरं सुखम् ।२१।

भवान्याऽभ्यर्थिता लक्ष्मीर्धेनुरूपेण संस्थिता ।।
प्रातर्गोवर्द्धनः पूज्यो द्यूतं रात्रौ समाचरेत् ।। २२ ।।

भूषणीयास्तदा गावो वर्ज्या वहनदोहनात् ।२३ ।।

गोवर्द्धन धराऽऽधार गोकुलत्राणकारक ।।
विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव ।। २४ ।।

या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।।
घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु ।। २५ ।।

अग्रतः संतु मे गावो गावो मे संतु पृष्ठतः ।।
गावो मे हृदयं संतु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।। २६ ।।

                  ।। इति गोवर्द्धनपूजा ।।
सद्भावेनैव संतोष्य देवान्सत्पुरुषान्नरान् ।।
इतरेषामन्नपानैर्वाक्यदानेन पंडितान् ।। २७ ।।

वस्त्रैस्तांबूलधूपैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः ।।
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरंतःपुरनिवासिनः ।।२८।।

ग्राम्यान्वृषभदानैश्च सामंतान्नृपतिर्धनैः ।।
पदातिजनसंघांश्च ग्रैवेयैः कटकैः शुभैः ।।
स्वनामांकैश्च तान्राजा तोषयेत्सज्जनान्पृथक् ।। २९।

यथार्थं तोषयित्वा तु ततो मल्लान्नरांस्तथा ।।
वृषभान्महिषांश्चैव युध्यमानान्परैः सह ।। 2.4.10.३० ।।

दीपोत्सवं जनितसर्वजनप्रमोदं कुर्वंति ये शुभतया वलिराजपूजाम् ।।
दानोपभोगसुखबुद्धिमतां कुलानां हर्षं प्रयाति सकलं प्रमुदा च वर्षम् ।।५८।।

जयचिह्नमिदं राजा निदधीत प्रयत्नतः ।। ६९।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे कार्तिकमासमाहात्म्ये कार्तिकशुक्लप्रतिपन्माहात्म्यवर्णनंनाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।।

________        
सत्यं क्रमेण चैकेन क्रमेयं भूर्भुवादिकम्।
बलेरपि हितार्थाय कृतमेतत् क्रमत्रयम्।। ९२.५०

तस्माद् यन्मम बालेय त्वत्पित्राम्बु करे महत्।
दत्तं तेनायुरेतस्य कल्पं यावद् भविष्यति।। ९२.५१

गते मन्वन्तरे बाण श्राद्धदेवस्य साम्प्रतम्।
सावर्णिके च संप्राप्ते बलिरिन्द्रो भविष्यति।। ९२.५२

इत्थं प्रोक्त्वा बलिसुतं बाणं देवस्त्रिविक्रमः।
प्रोवाच बलिमभ्येत्य वचनं मधुराक्षरम्।। ९२.५३

"श्रीभगवानुवाच'
आपूरणाद् दक्षिणाया गच्छ राजन् महाफलम्।
सुतलं नाम पातालं वस तत्र निरामयः।। ९२.५४

बलिरुवाच।।
सुतले वसतो नाथ मम भोगाः कुतोऽव्ययाः।
भविष्यन्ति तु येनाहं निवत्स्यामि निरामयः।। ९२.५५

त्रिविक्रम उवाच।।
सुतलस्थस्य दैत्येन्द्र यानि भोगानि तेऽधुना।
भिवष्यन्ति महार्हाणि तानि वक्ष्यामि सर्वशः।। ९२.५६

दानान्यविधिदत्तानि श्राद्धान्यश्रोत्रियाणि च।
तथाधीतान्यव्रतिभिर्दास्यन्ति भवतः फलम्।। ९२.५७

तथान्यमुत्सवं पुण्यं वृत्ते शक्रमहोत्सवे।
द्वारप्रतिपदा नाम तव भावी महोत्सवः।। ९२.५८

तत्र त्वां नरशार्दूला हृष्टाः पुष्टाः स्वलंकृताः।
पुष्पदीपप्रदानेन अर्जयिष्यन्ति यत्नतः।। ९२.५९

तत्रोत्सवो मुख्यतमो भविष्यति दिवानिशं हृष्टजनाभिरामम्।यथैव राज्ये भवतस्तु साम्प्रतं तथैव सा भाव्यथ कौमुदी च।। ९२।

अनुवाद:-
बलि के कल्याण के लिए ही मैनें तीन पग किए हैं।
हे बलि पुत्र तुम्हारे पिता ने मेरे हाथ में शुद्ध जल दिया है। *

इससे इनकी आयु एक कल्प होगी ।* 
_________
बाण श्राद्धदेव का वर्तमान मन्वन्तर बीत जाने के बाद  सावर्णि मन्वन्तर के आने पर बलि स्वर्ग के राजा इन्द्र बनेंगे

बलि पुत्र बाण से इस प्रकार कहने के बाद बलि के समीप गये और उससे मधुर वचन कहने लगे।४७-५३।

श्री भगवान् ने कहा:- दक्षिणा की सम्पन्नता होने तक तुम्हें यह महान फल प्राप्त करना होगा। 

तुम सुतल नामक लोक में स्वस्थ नीरोग होकर शासन करोगे।५४।

बलि ने कहा:- नाथ  सुतल में निवास करते समय  नीरोग - स्वस्थ रहने के लिए अक्षय अविनाशी स्वाथ्य प्रद भोग कहाँ से प्राप्त होंगे ।५५। ?

त्रिविक्रम ने कहा :- दैत्येन्द्र मैं इस समय तुम्हारे सामने उन  अमूल्य  भोगों का वर्णन करता हूँ। जो पृथ्वी के तल में निवास करते समय तुम्हें प्राप्त होंगे।

अविधि पूर्वक किए गये दान, अश्रोत्रिय  द्वारा किए गये एवं ब्रह्मचर्य व्रत  रहित अध्ययन भी आपको फल प्रदान करेंगे ।

इन्द्र पूजन के बाद आने वाली प्रतिपदा को तुम्हारे पूजन के प्रति दूसरा उत्सव मनाया जाऐगा !

जिसका नाम होगा "द्वार प्रतिपदा"  उस उत्सव के समय हृष्ट- पुष्ट नर श्रेष्ठ लोग  सुन्दर रूप से सजधजकर पुष्प और दीप देकर प्रयत्न पूर्वक आपकी अर्चना करेंगे।
आपके राज्य में इस समय  जिस प्रकार दिन रात जन समुदाय के प्रसन्न रहने के कारण सुन्दर महोत्सव बना रहता है। 

उसी प्रकार उत्सवों में श्रेष्ठ वह कौमुदी  नामक उत्सव होगा  जो पृथ्वी वासी मनुष्यों को मोद ( आनन्द ) प्रदान करने वाला होगा।५६-६०।


प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। समय के साथ इस त्योहार को मनाने के ढ़ग भी बदले हैं।
माना जाता है कि दिपावली के यह पर्व प्राचीन काल से ही मनाया जाता रहा हैं। सत् युग के आदिकाल से -जब राजा बलि ने यज्ञ किया था।
इस उत्सव के प्रारंभ होने को लेकर कई तरह के तथ्‍य सामने आते हैं। यह होली क्या समानांतर शीत काल की सूचना देने वाला त्यौहार है।
जैसे होली का उत्सव ग्रीष्मकाल की सूचना देता है।

 
लक्ष्मी और दिवाली का सम्बन्ध भी राजा बलि से सम्बन्धित है। लक्षमी ने राज बलि से भाई की सम्बन्ध माना था ।
इसी लिए लक्ष्मी पूजा भी दीपावली पर होती है ।

____       
असुर राजा बलि और दिवाली : कहते हैं कि दीपावली का पर्व सबसे पहले राजा महाबली बलि के काल से प्रारंभ हुआ था। विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बलि की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। तभी से दीपोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ। 

पुराणों में इसका साक्ष्य हम क्रमानुसार प्रस्तुत करते हैं।

पद्मपुराण  खण्डः (६) (उत्तरखण्डः) अध्यायः ।१२२।

            "कार्तिकमासमाहात्म्यम्
                   "ब्रह्मोवाच!
प्रतिपद्यथ चाऽभ्यंगं कृत्वा नीराजनं ततः ।।
सुवेषः सत्कथागीतैर्दानैश्च दिवसं नयेत् ।। १ ।।

शंकरस्तु पुरा द्यूतं ससर्ज सुमनोहरम् ।।
कार्तिके शुक्लपक्षे तु प्रथमेऽहनि सत्यवत् ।। २ ।।

बलिराज्यदिनस्याऽपि माहात्म्यं शृणु तत्त्वतः ।।
स्नातव्यं तिलतैलेन नरैर्नारीभिरेव च ।। ३ ।।

यदि मोहान्न कुर्वीत स याति यमसादनम् ।।
पुरा कृतयुगस्यादौ दानवेंद्रो बलिर्महान् ।। ४ ।।

तेन दत्ता वामनाय भूमिः स्वमस्तकान्विता ।।
तदानीं भगवान्साक्षात्तुष्टो बलिमुवाच ह ।। ५।।

कार्तिके मासि शुक्लायां प्रतिपद्यां यतो भवान् ।।
भूमिं मे दत्तवान्भक्त्या तेन तुष्टोऽस्मि तेऽनघ ।६।

वरं ददामि ते राजन्नित्युक्त्वाऽदाद्वरं तदा ।।
त्वन्नाम्नैव भवेद्राजन्कार्तिकी प्रतिपत्तिथिः।। ७ ।।

एतस्यां ये करिष्यंति तैलस्नानादिकार्चनम् ।।
तदक्षयं भवेद्राजन्नात्र कार्या विचारणा ।। ८ ।।

तदाप्रभृति लोकेऽस्मिन्प्रसिद्धा प्रतिपत्तिथिः ।।
प्रतिपत्पूर्वविद्धा नो कर्तव्या तु कथंचन ।। ९ ।।

तत्राभ्यंगं न कुर्वीत अन्यथा मृतिमाप्नुयात् ।।
प्रतिपद्यां यदा दर्शो मुहूर्तप्रमितो भवेत् । 2.4.10.१०।

मांगल्यं तद्दिने चेत्स्याद्वित्तादिस्तस्य नश्यति ।।
बलेश्च प्रतिपद्दर्शाद्यदि विद्धं भविष्यति ।। ११ ।।

तस्यां यद्यथ चाऽऽर्तिक्यं नारी मोहात्करिष्यति ।।
नारीणां तत्र वैधव्यं प्रजानां मरणं ध्रुवम् ।। १२ ।।

अविद्धा प्रतिपच्चेत्स्यान्मुहूर्तमपरेऽहनि ।।
उत्सवादिककृत्येषु सैव प्रोक्ता मनीषिभिः।१३ ।।

प्रतिपत्स्वल्पमात्राऽपि यदि न स्यात्परेऽहनि ।।
पूर्वविद्धा तदा कार्या कृता नो दोषभाग्भवेत् ।१४।

तद्दिने गृहमध्ये तु कुर्यान्मूर्तिं तदांगणे ।।
गोमयेन च तत्राऽपि दधि तत्पुरतः क्षिपेत् ।१५।

आर्तिक्यं तत्र संस्थाप्य एवं कुर्याद्विधानतः ।।
अभ्यंगं ये न कुर्वंति तस्यां तु मुनिपुंगव ।। १६ ।।

न मांगल्यं भवेत्तेषां यावत्स्याद्वत्सरं ध्रुवम् ।।
यो यादृशेन रूपेण तस्यां तिष्ठेच्छुभे दिने ।। १७ ।।

आवर्षं तद्भवेत्तस्य तस्मान्मंगलमाचरेत्।
यदीच्छेत्स्वशुभान्भोगान्भोक्तुं दिव्यान्मनोहरान्
 १८।

कुरु दीपोत्सवं रम्यं त्रयोदश्यादिकेषु च ।।
शंकरश्च भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थिते ।। १९ ।।


गौर्या जित्वा पुरा शंभुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः ।।
अतोऽर्थं शंकरो दुःखी गौरी नित्यं सुखस्थिता ।। 2.4.10.२०।।

द्यूतं निषिद्धं सर्वत्र हित्वा प्रतिपदं बुधाः ।
प्रथमं विजयो यस्य तस्य संवत्सरं सुखम् ।२१।

भवान्याऽभ्यर्थिता लक्ष्मीर्धेनुरूपेण संस्थिता ।।
प्रातर्गोवर्द्धनः पूज्यो द्यूतं रात्रौ समाचरेत् ।। २२ ।।

भूषणीयास्तदा गावो वर्ज्या वहनदोहनात् ।२३ ।।
______________________________
गोवर्द्धन धराऽऽधार गोकुलत्राणकारक ।।
विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव ।। २४ ।।

या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।।
घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु ।। २५ ।।

अग्रतः संतु मे गावो गावो मे संतु पृष्ठतः ।।
गावो मे हृदयं संतु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।। २६ ।।

             ।। इति गोवर्द्धनपूजा ।।
सद्भावेनैव संतोष्य देवान्सत्पुरुषान्नरान् ।।
इतरेषामन्नपानैर्वाक्यदानेन पंडितान् ।। २७ ।।

वस्त्रैस्तांबूलधूपैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः ।।
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरंतःपुरनिवासिनः ।।२८।।

ग्राम्यान्वृषभदानैश्च सामंतान्नृपतिर्धनैः ।।
पदातिजनसंघांश्च ग्रैवेयैः कटकैः शुभैः ।।
स्वनामांकैश्च तान्राजा तोषयेत्सज्जनान्पृथक् ।। २९ ।।

यथार्थं तोषयित्वा तु ततो मल्लान्नरांस्तथा ।।
वृषभान्महिषांश्चैव युध्यमानान्परैः सह ।। 2.4.10.३० ।।

राज्ञस्तथैव योधांश्च पदातीन्समलंकृतान् ।।
मंचाऽऽरूढः स्वयं पश्येन्नटनर्तकचारणान् ।३१।

युद्धापयेद्वासयेच्च गोमहिष्यादिकं च यत् ।।
वत्सानाकर्षयेद्गोभिरुक्तिप्रत्युक्तिवादनात् ।। ३२ ।।

ततोऽपराह्नसमये पूर्वस्यां दिशि सुव्रत ।।
मार्गपालीं प्रबध्नाति दुर्गस्तंभेऽथ पादपे ।।३३।।

कुशकाशमयीं दिव्यां लंबकैर्बहुभिः प्रिये ।।
वीक्षयित्वा गजानश्वान्मार्गपाल्यास्तले नयेत् ।। ३४।

गावो वृषांश्च महिषान्महिषीर्घटकोत्कटान् ।।
कृतहोमैर्द्विजेंद्रैस्तु बध्नीयान्मार्गपालिकाम् ।। ३५।

नमस्कारं ततः कुर्यान्मन्त्रेणानेन सुव्रत ।।
मार्गपालि नमस्तुभ्यं सर्वलोकसुखप्रदे ।।
तले तव सुखेनाश्वा गजा गावश्च संतु मे ।। ३६ ।।

मार्गपालीतले पुत्र यांति गावो महावृषाः ।।
राजानो राजपुत्राश्च ब्राह्मणाश्च विशेषतः ।। ३७ ।।

मार्गपाली समुल्लंघ्य नीरुजः सुखिनो हि ते ।।
कृत्वैतत्सर्वमेवेह रात्रौ दैत्यपतेर्बलेः ।। ३८ ।।

पूजां कुर्यात्ततः साक्षाद्भूमौ मंडलके कृते ।।
बलिमालिख्य दैत्येंद्रं वर्णकैः पंचरंगकैः ।। ३९ ।।

सर्वाभरणसंपूर्णं विंध्यावलिसमन्वितम् ।।
कूष्मांडमयजंभोरुमधुदानवसंवृतम् ।। 2.4.10.४० ।।

संपूर्णं कृष्टवदनं किरीटोत्कटकुण्डलम् ।।
द्विभुजं दैत्यराजानं कारयित्वा स्वके पुनः ।। ४१ ।।
गृहस्य मध्ये शालायां विशालायां ततोऽर्चयेत् ।।
मातृभ्रातृजनैः सार्द्धं संतुष्टो बन्धुभिः सह ।। ४२ ।।
कमलैः कुमुदैः पुष्पैः कह्लारै रक्तकोत्पलैः ।।
गन्धपुष्पान्ननैवेद्यैः सक्षीरैर्गुडपायसैः ।। ४३ ।।
मद्यमांससुरालेह्यचोष्यभक्ष्योपहारकैः ।।
मन्त्रेणाऽनेन राजेंद्र समन्त्री सपुरोहितः ।।
पूजां करिष्यते यो वै सौख्यं स्यात्तस्य वत्सरम् ।। ४४ ।।
बलिराज नमतुभ्यं विरोचनसुत प्रभो ।।
भविष्येंद्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।। ४५ ।।
एवं पूजाविधानेन रात्रौ जागरणं ततः ।।
कारयेद्वै क्षणं रात्रौ नटनृत्यकथानकैः ।। ४६ ।।
लोकश्चापि गृहस्यांते सपर्यां शुक्लतंदुलैः ।।
संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैः प्रपूजयेत् ।। ४७ ।।
बलिमुद्दिश्य वै तत्र कार्यं सर्व च सुव्रत ।।
यानि यान्यक्षयाण्याहुर्मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ।। ४८ ।।
यदत्र दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।।
तदक्षयं भवेत्सर्वं विष्णोः प्रीतिकरं शुभम् ।। ।। ४९ ।।
रात्रौ ये न करिष्यंति तव पूजां बले नराः ।।
तेषां च श्रोत्रियो धर्मः सर्वस्त्वामुपतिष्ठतु ।। 2.4.10.५० ।।

विष्णुना च स्वयं वत्स तुष्टेन बलये पुनः ।।
उपकारकरं दत्तमसुराणां महोत्सवम् ।।५१।।

एकमेवमहोरात्रं वर्षेवर्षे च कार्तिके ।।
दत्तं दानवराजस्य आदर्शमिव भूतले ।।५२।।

यः करोति नृपो राज्ये तस्य व्याधिभयं कुतः ।।
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं तस्य संपदनुत्तमा ।। ५३ ।।

नीरुजश्च जनाः सर्वे सर्वोपद्रववर्जिताः ।। ५४ ।।
कौमुदी क्रियते यस्माद्भावं कर्तुं महीतले ।।
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां च सुव्रत ।।
हर्षदुःखादिभावेन तस्य वर्षं प्रयाति हि ।। ५५।।

रुदिते रोदितं वर्षं प्रहृष्टे तु प्रहर्षितम् ।।
भुक्तौ भोग्यं भवेद्वर्षं स्वस्थे स्वस्थं भविष्यति ।। ५६ ।।

वैष्णवी दानवी चेयं तिथिः प्रोक्ता च कार्तिके ।। ५७ ।।

दीपोत्सवं जनितसर्वजनप्रमोदं कुर्वंति ये शुभतया वलिराजपूजाम् ।।
दानोपभोगसुखबुद्धिमतां कुलानां हर्षं प्रयाति सकलं प्रमुदा च वर्षम् ।।५८।।
अनुवाद:-वहाँ सदा सुभिक्ष क्षेम आरोग्य अत्युत्तम सम्पत्ति विद्यमान रहती है।नीरोग और व्याधि रहित हो जाते हैं। हे सुव्रत नारद इस प्रतिपदा के दिन जो मनुष्य जिस भाव से रहते हैं वे वर्ष भर उसी भाव से व्यतीत करते हैं। जो इस दि रोता है वह वह पूरे वर्ष तक रोता रहेगा जो हर्षित अवस्था में रहेगा वह हर्षित रहेगा जो भोजन करके स्वस्थ और तृप्त रहेगा वह वर्ष तक स्वस्थ ही रहेगा ।


कार्तिक मास की इस तिथि को  वैष्णवी दानवी- तिथि कहा जाता है।*****इस दिन दीपोत्सव द्वारा सर्वत्र आनन्द प्राप्त होता है। जो शुभ चाहने वाले  व्यक्ति इस उत्सव का अनुष्ठान करते हैं वे बुद्धिमान लोग नाना भोगों से आनन्दित  रहते हैं।उनका सम्पूर्ण कुल उस वर्ष आनन्दित रहता है।५३-५८।

 *बलिपूजां विधायैयं पश्चादुत्क्रीडनं*


__________
बलिपूजां विधायैवं पश्चाद्गोक्रीडनं चरेत् ।। ५९ ।।
गवां क्रीडादिने यत्र रात्रौ दृश्येत चन्द्रमाः ।।
सोमो राजा पशून्हंति सुरभीपूजकांस्तथा ।। 2.4.10.६० ।।
__________    
प्रतिपद्दर्शसंयोगे क्रीडनं तु गवां मतम् ।।
परविद्धासु यः कुर्यात्पुत्रदारधनक्षयः ।। ६१ ।।

अलंकार्यास्तदा गावो गोग्रासादिभिरर्चिताः ।।
गीतवादित्रनिर्घोषैर्नयेन्नगरबाह्यतः ।।
आनीय च ततः पश्चात्कुर्यान्नीराजनाविधिम्।६२ ।।

अथ चेत्प्रतिपत्स्वल्पा नारी नीराजनं चरेत् ।।
द्वितीयायां ततः कुर्यात्सायं मंगलमालिकाः ।६३ ।।
अनुवाद,:-
इस प्रकार बलि की पूजा करने के बाद गो क्रीडा करनी चाहिए गो क्रीडा के दिन रात में चन्द्र दर्शन होने पर सोम राज पशु और गोपूजक का नाश करते हैं।  ( उस दिन चन्द्रमा न देखें।) अमावस्या युक्त प्रतिपदा हो तभी गो क्रीडा का आयोजन करें।  जो मानव परिविद्धा प्रतिपदा काल में गो क्रीडा का आचरण करता है। उसके पुत्र-पुत्री तथा धन का क्षय होता है।५९-६१।
गो खेल में गायों के समूह को अलंकृत करें 
गो ग्रास ( घास ) आदि से उसकी पूजा करें  विविध मंगल गीत और वाद्य घोष के साथ उनको नगर के बाहर ला कर उनकी           नीराजना(आरती करना। दीपक दिखाना) करनी चाहिए यदि इस दिन प्रतिपदा अत्यन्त काल तक रहे तो उस मात्र नीराजना"  करके द्वितीया में सायंकाल के समय मांगलिक क्रियाऐं सम्पन्न करनी चाहिए ।

एवं नीराजनं कृत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।
प्रतिपत्पूर्वविद्धैव यष्टिकाकर्षणे भवेत् ।। ६४ ।।

कुशकाशमयीं कुर्याद्यष्टिकां सुदृढां नवाम् ।।
देवद्वारे नृपद्वारेऽथवाऽऽनेया चतुष्पथे ।। ६५ ।।

तामेकतो राजपुत्रा हीनवर्णास्तथैकतः ।।
गृहीत्वा कर्षयेयुस्ते यथासारं मुहुर्मुहुः ।। ६६ ।।

समसंख्या द्वयोः कार्या सर्वेऽपि बलवत्तराः ।।
जयोऽत्र हीनजातीनां जयो राज्ञस्तु वत्सरम्।६७ ।

उभयोः पृष्ठतः कार्या रेखा तत्कर्षकोपरि ।।
रेखांते यो नयेत्तस्य जयो भवति नाऽन्यथा ।६८ ।।

जयचिह्नमिदं राजा निदधीत प्रयत्नतः ।। ६९।

इस विधान से की गयी नीराजन क्रिया से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। 
यष्टिकार्षण में पूर्वविद्धा प्रतिपदा तिथि ही ग्राह्य है।
यह यष्टिका नव कुशकाश द्वारा मजबूती से बनाकर देव द्वार नृपद्वार किंवा नृपद्वार अथवा चतुष्पद पर रखें उसके एक ओर राजकुमार दूसरी ओर हीन जाति के लोग पकड़े यष्टिका( लाठी) की सार वत्ता को देखकर एक और राज कुमार ओर दूसरी ओर हीन जाति वालों की संख्या समान हो। सभी तुल्य बल हों वे दोनो प्रकार के लोग उसे अपनी ओर खींचे दौंनों दल के पीछे एक रेखा खींचनी  चाहिए जो यष्टिका खींचते हुए यह रेखा पार कर जाए इस यष्टिकाकर्षण में वही विजयी माना जाएगा  राजा स्वयं परिवेक्षण करे । यष्टिकाकर्षण में राजकुमार वाले दल अथवा हीन जाति की जय - पराजय द्वारा ही एक वर्ष तक जय-पराजय की सूचना मिलेगी । ६२-६९।

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे कार्तिकमासमाहात्म्ये कार्तिकशुक्लप्रतिपन्माहात्म्यवर्णनंनाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।।
___________________
अनुवाद:-
श्रवण करो ! इस दिन नर-नारीगण तिल तैल लगाकर स्नान करें यदि मोह वश कोई यह नहीं करता तब उसे यम के घर जीना पड़ता है।

पूर्वकाल में सतयुग के प्रारम्भ में  बलवान् बलि का  जन्म हुआ था। बलि ने सम्पूर्ण भूमि तथा अपना मस्तक भी वामन रूपी भगवान को दान किया  था।
तब साक्षात वामन भगवान् ने बलि के प्रति सन्तुष्ट होकर यह वरदान दिया था– हे निष्पाप तुमने कार्तिक मास कि  शुक्ल प्रतिपदा के दिन भक्ति समर्पण के साथ मुझे भूमि किया है। इस लिए मैं तुम्हारे प्रति सन्तुष्ट हो गया हूँ। राजन् मैं तुमको वर प्रदान करुँगा  हरि का वचन सुनकर बलि ने वर माँगा तब हरि वर देते हुए बलि से कहा :-

हे राजन ! तुम्हारे नाम से कार्तिक प्रतिपदा के दिन जो तैल स्नान और अर्चना करते हैं।  वे अक्षय पद को प्राप्त करते हैं इसमें किसी प्रकार के सन्देह की  गुंजाइश नहीं है।

ब्रह्मा ने कहा :-हे नारद ! तभी  से यह प्रतिपदा तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गयी इस प्रतिपदा(परिवा) तिथि को कभी भी पूर्वविद्धाग्रहण न करें अथवा पूर्वविद्धा प्रतिपदा के दिन  तैलाभ्यंगादि न करें जो इसके विपरीत कार्य करता है। वह मृत्यु के मुख में गिरता है। प्रतिपदा के दिन जब मुहूर्त मात्र अमावस्या का योग रहता है। तब इस प्रतिपदा में मांगल्य कार्य हेतु  अनुष्ठान करने पर धन नष्ट हो जाता है । अमावस्या विद्ध बलि प्रतिपदा तिथि में मोहवशात् यदि नारी  ऋतु काल में काम क्रीड़ा करती है । तब उसे पुत्र नाश और वैधव्य प्राप्त होता है। इसमें संशय नहीं  ।१-१२।

दीपोत्सव करे पूर्वकाल में शंकर और पार्वती ने भी ‌प्रतिपदा के दिन द्यूत क्रीड़ा की थी।१३-१९।
मनीषि गण का मत है कि यदि अविद्धा प्रतिपदा का अगले दिन मुहूर्त मात्र भी स्पर्श होता है।तब उपवास कार्य हेतु वह प्रशस्त है। यदि पर दिन (अगले दिन ) अल्प मात्र भी प्रतिपदा न हो  तब पूर्व विद्धा प्रतिपदा के करने में दोष नहीं  होता ‌। परन्तु इस दिन ही घर में ने मूर्ति रखकर  आंगन को गोबर से लीप कर के उस मूर्ति के सामने दधि छिड़कें तथा वहाँ आर्तिक्य(* एक जलती हुई दीपक वाली थाली ) स्‍थापित करके यथा विधि पूजा आदि करें ! हे मुनि श्रेष्ठ ! इस प्रतिपदा के दिन जो अभ्यंग(लेपन) नहीं लगाते पुन: प्रतिपदा आदि तिथि  आने तक उनका वही अमंल होता रहता है-इसमें सन्देह नहीं है।
इस शुभ प्रतिपदा के दिन व्यक्ति शुभ अथवा अशुभ  जिस किसी भी कार्य में लगा रहेगा एक वर्ष तक उसका शुभ-अशुभ फल उस कार्य के ही अनुरूप होगा ।
अत: इस दिन शुभ कार्य ही करना चाहिए यदि व्यक्ति अपने लिए दिव्य मनोहर भोगों की कामना करता है तो त्रयोदशी आदि तिथियों को श्रवण करो ! इस दिन नरनारीगण तिल तैल लगाकर स्नान करें यदि मोह वश कोई यह नहीं करता तब उसे यम के घर जाना पड़ता है।

पूर्वकाल में सतयुग के प्रारम्भ में  बलवान् बलि का  जन्म हुआ था। बलि ने सम्पूर्ण भूमि तथा अपना मस्तक भी वामन रूपी भगवान को दान किया  था। तब साक्षात वामन भगवान् ने बलि के प्रति सन्तुष्ट होकर यह वरदान दिया था– हे निष्पाप तुमने कार्तिक मास कि  शुक्ल प्रतिपदा के दिन भक्ति समर्पण के साथ मुझे भूमि किया है। इस लिए मैं तुम्हारे प्रति सन्तुष्ट हो गया हूँ। राजन् मैं तुमको वर प्रदान करुँगा  हरि का वचन सुनकर बलि ने वर माँगा तब हरि वर देते हुए बलि से कहा :-

हे राजन ! तुम्हारे नाम से कार्तिक प्रतिपदा के दिन जो तैल स्नान और अर्चना करते हैं।  वे अक्षय पद को प्राप्त करते हैं इसमें किसी प्रकार के सन्देह की  गुंजाइश नहीं है।

_______    

ब्रह्मा ने कहा -
हे नारद ! तभी  से यह प्रतिपदा तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गयी इस प्रतिपदा( परिवा) तिथि को कभी भी पूर्वविद्धाग्रहण न करें अथवा पूर्वविद्धा प्रतिपदा के दिन  तैलाभ्यंगादि न करें जो इसके विपरीत कार्य करता है।वह मृत्यु के मुख में गिरता है। प्रतिपदा के दिन जब मुहूर्त मात्र अमावस्या का योग रहता है। तब इस प्रतिपदा में मांगल्य कार्य हेतु   अनुष्ठान करने पर धन नष्ट हो जाता है । अमावस्या विद्ध बलि प्रतिपदा तिथि में मोहवशात् यदि नारी  ऋतु काल में काम क्रीड़ा करती है । तब उसे पुत्र नाश और वैधव्य प्राप्त होता है। इसमें संशय नहीं  ।१-१२।

दीपोत्सव करे पूर्वकाल में शंकर और पार्वती ने भी ‌प्रतिपदा के दिन द्यूत क्रीड़ा की थी।१३-१९।

मनीषि गण का मत है कि यदि अविद्धा प्रतिपदा का अगले दिन मुहूर्त मात्र भी स्पर्श होता है।तब उपवास कार्य हेतु वह प्रशस्त है। यदि पर दिन (अगले दिन ) अल्प मात्र भी प्रतिपदा न हो  तब पूर्व विद्धा प्रतिपदा के करने में दोष नहीं  होता ‌। परन्तु इस दिन ही घर में ने मूर्ति रखकर  आंगन को गोबर से लीप कर के उस मूर्ति के सामने दधि छिड़कें तथा वहाँ आर्तिक्य() स्‍थापित करके यथा विधि पूजा आदि करें ! हे मुनि श्रेष्ठ ! इस प्रतिपदा के दिन जो अभ्यंग() नहीं लगाते  पुन: प्रतिपदा आदि तिथि  आने तक उनका वही अमंल होता रहता है। इसमें सन्देह नहीं है। इस शुभ प्रतिपदा के दिन व्यक्ति शुभ अथवा अशुभ  जिस किसी भी कार्य में लगा रहेगा एक वर्ष तक उसका शुभ-अशुभ फल उस कार्य के ही अनुरूप होगा । अत: इस दिन शुभ कार्य ही करना चाहिए यदि व्यक्ति अपने लिए दिव्य मनोहर भोगों की कामना करता है तो त्रयोदशी आदि तिथियों को  दीपोत्सव करे पूर्वकाल में शंकर और पार्वती ने भी ‌प्रतिपदा के दिन द्यूत क्रीड़ा की थी।१३-१९।
_______
इस द्यूत क्रीड़ा में गौरी ने विजय प्राप्त की तथा शंकर पराजित और निर्वस्त्र होकर वहाँ से चले गये। केवल इतना ही नही इस प्रतिपदा के दिन गौरी ने सुख प्राप्त किया और शंकर विविध दु:खभागी हे गये पण्डितों ने सब जगह द्यूत क्रीड़ा की मनाही की है तो भी प्रतिपदा के दिन वह निषिद्ध नहीं है। इस दिन जो व्यक्ति पहले जो विजय लाभ करता है। वह पूरे एक वर्ष तक सुखी रहता है। भवानी के आह्वान से लक्ष्मी धेनुरूपेण गाय के रूप में उत्पन्न हो गयीं इस लिए सुबह होता पूजन करने के बाद रात को जुआ का खेल खेलें!उस दिन गायों को अनेक आभूषणों से सजाऐं बैल आदि वाहन का कार्य लेना और गो दोहन करना उस दिन (मनाही) निषिद्ध है।२०-२३।

  दीपोत्सव करे पूर्वकाल में शंकर और पार्वती ने भी ‌प्रतिपदा के दिन द्यूत क्रीड़ा की थी।१३-१९।






                 "कार्तिकेय उवाच।
दीपावलिफलं नाथ विशेषाद्ब्रूहि सांप्रतम् ।
किमर्थं क्रियते सा तु तस्याः का देवता भवेत् ।१।

किं च तत्र भवेद्देयं किं न देयं वद प्रभो ।
प्रहर्षः कोऽत्र निर्दिष्टः क्रीडा कात्र प्रकीर्तिता ।२।
                 "सूत उवाच।
इति स्कंदवचः श्रुत्वा भगवान्कामशोषणः ।
साधूक्त्वा कार्तिकं विप्राः प्रहसन्निदमब्रवीत् ।३।
                  "श्रीशिव उवाच।
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां तु पावके ।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति ।४।

मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह ।
त्रयोदशीदीपदानात्सूर्यजः प्रीयतामिति ।५।

कार्तिके कृष्णपक्षे च चतुर्दश्यां विधूदये।
अवश्यमेव कर्त्तव्यं स्नानं च पापभीरुभिः 
।६।

पूर्वविद्धा चतुर्दश्या कार्तिकस्य सितेतरे ।
पक्षे प्रत्यूषसमये स्नानं कुर्यादतंद्रितः ।७।

तैले लक्ष्मीर्जले गंगा दीपावल्यां चतुर्दशीम् ।
प्राप्तः स्नानं हि यः कुर्याद्यमलोकं न पश्यति।८।

अपामार्गस्तथा तुंबी प्रपुन्नाटं च वाह्वलम् ।
भ्रामयेत्स्नानमध्ये तु नरकस्य क्षयाय वै ।९।

सीतालोष्टसमायुक्त सकंटक दलान्वित ।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनः पुनः ।१०।

अपामार्गं प्रपुन्नाटं भ्रामयेच्छिरसोपरि ।
ततश्च तर्पणं कार्यं यमराजस्य नामभिः ।११।

यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चांतकाय च ।
वैवस्ताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ।१२।

औदुंबराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने ।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः ।१३।

नरकाय प्रदातव्यो दीपः संपूज्य देवताः ।
ततः प्रदोषसमये दीपान्दद्यान्मनोहरान् ।१४।
_________________
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु विशेषतः ।
कूटागारेषु चैत्येषु सभासु च नदीषु च ।१५।

प्राकारोद्यानवापीषु प्रतोली निष्कुटेषु च।
मंदुरासु विविक्तासु हस्तिशालासु चैव हि।१६।

एवं प्रभातसमये ह्यमावास्यां तु पावकं।
स्नात्वा देवान्पितॄन्भक्त्या संपूज्याथ प्रणम्य च।१७।

कृत्वा तु पार्वणं श्राद्धं दधिक्षीरघृतादिभिः ।
भोज्यैर्नानाविधैर्विप्रान्भोजयित्वा क्षमापयेत् ।१८।

ततोपराह्णसमये पोषयेन्नागरान्प्रिय ।
तेषां गोष्ठीं च मानं च कृत्वा संभाषणं नृपः ।१९।

वक्तृणां वत्सरं यावत्प्रीतिरुत्पद्यते गुह ।
अप्रबुद्धे हरौ पूर्वं स्त्रीभिर्लक्ष्मीः प्रबोधयेत् ।२०।

प्रबोधसमये लक्ष्मीं बोधयित्वा तु सुस्त्रिया ।
पुमान्वै वत्सरं यावल्लक्ष्मीस्तं नैव मुंचति ।२१।

अभयं प्राप्य विप्रेभ्यो विष्णुभीता सुरद्विषः।
सुप्तं क्षीरोदधौ ज्ञात्वा लक्ष्मीं पद्माश्रितां तथा।२२।

त्वं ज्योतिः श्री रविश्चंद्रो विद्युत्सौवर्णतारकः।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपज्योतिः स्थिता तु या।२३।
______    
या लक्ष्मीर्दिवसे पुण्ये दीपावल्यां च भूतले ।
गवां गोष्ठे तु कार्तिक्यां सा लक्ष्मीर्वरदा मम ।२४।

शंकरश्च भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थितौ ।
भवान्याभ्यर्चिता लक्ष्मीर्धेनुरूपेण संस्थिता ।२५।
______
गौर्या जित्वा पुरा शंभुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः ।
अतोऽयं शंकरो दुःखी गौरी नित्यं सुखेस्थिता।२६।

प्रथमं विजयो यस्य तस्य संवत्सरं सुखम् ।
एवं गते निशीथे तु जने निद्रार्धलोचने ।२७।

तावन्नगरनारीभिस्तूर्य डिंडिमवादनैः ।
निष्कास्यते प्रहृष्टाभिरलक्ष्मीश्च गृहांगणात् ।२८।

पराजये विरुद्धं स्यात्प्रतिपद्युदिते रवौ ।
प्रातर्गोवर्द्धनः पूज्यो द्यूतं रात्रौ समाचरेत् ।२९।

भूषणीयास्तथा गावो वर्ज्या वहनदोहनात् ।
गोवर्द्धनधराधार गोकुलत्राणकारक ।३०।

विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव ।
या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।३१।

घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु ।
अग्रतः संतु मे गावो गावो मे संतु पृष्ठतः ।
गावो मे हृदये संतु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।३२।

इतिगोवर्द्धनपूजा ।
सद्भावेनैव संतोष्य देवान्सत्पुरुषान्नरान् ।
इतरेषामन्नपानैर्वाक्यदानेन पंडितान् ।३३।

वस्त्रैस्तांबूलदीपैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः ।
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरंतःपुर निवासिनः ।३४।

ग्रामर्षभं च दानैश्च सामंतान्नृपतिर्धनैः ।
पदातिजनसंघांश्च ग्रैवेयैः कटकैः शुभैः ।३५।

स्वानमात्यांश्च तान्राजा तोषयेत्स्वजनान्पृथक् ।
यथार्थं तोषयित्वा तु ततो मल्लान्नटांस्तथा ।३६।

वृषभांश्च महोक्षांश्च युद्ध्य्मानान्परैः सह ।
राजान्यांश्चापि योधांश्च पदातीन्स समलंकृतान्।३७।

मंचारूढः स्वयं पश्येन्नटनर्तकचारणान् ।
योधयेद्वासयेच्चैव गोमहिष्यादिकं च यत् ।३८।

वत्सानाकर्षयेद्गोभिरुक्तिप्रत्युक्ति वादनात् ।
ततोपराह्णसमये पूर्वस्यां दिशि पावके ।३९।

मार्गपालद्यं प्रबध्नीयाद्दुर्गस्तंभेऽथ पादपे ।
कुशकाशमयीं दिव्यां लंबकैर्बहुभिर्गुह ।४०।

वीक्षयित्वा गजानश्वान्मार्गपाल्यास्तले नयेत् ।
गावैर्वृषांश्चमहिषान्महिषीर्घंटिकोत्कटाः ।४१।

कृतहोमैर्द्विजेंद्रैस्तु बध्नीयान्मार्गपालिकाम् ।
नमस्कारं ततः कुर्यान्मंत्रेणानेन सुव्रतः ।४२।

मार्गपालि नमस्तुभ्यं सर्वलोकसुखप्रदे ।
मार्गपालीतले स्कंद यांति गावो महावृषाः ।४३।

राजानो राजपुत्राश्च ब्राह्मणाश्च विशेषतः ।
मार्गपालद्यं समुल्लंघ्य निरुजः सुखिनो हि ते ।४४।

कृत्वैतत्सर्वमेवेह रात्रौ दैत्यपतेर्बलेः ।
पूजां कुर्यात्ततः साक्षाद्भूमौ मंडलके कृते ।४५।

बलिमालिख्य दैत्येंद्रं वर्णकैः पंचरंगकैः ।
सर्वाभरणसंपूर्णं विंध्यावलिसमन्वितम् ।४६।
____________________________
कूष्मांडमय जंभोरु मधुदानवसंवृतम् ।
संपूर्णं हृष्टवदनं किरीटोत्कटकुंडलम् ।४७।

द्विभुजं दैत्यराजानं कारयित्वा स्वके पुनः ।
गृहस्य मध्ये शालायां विशालायां ततोऽर्चयेत् ।४८।

मातृभ्रातृजनैः सार्द्धं संतुष्टो बंधुभिः सह ।
कमलैः कुमुदैः पुष्पैः कल्हारै रक्तकोत्पलैः ।४९।

गंधपुष्पान्ननैवेद्यैः सक्षीरैर्गुडपायसैः ।
मद्यमांससुरालेह्य चोष्य भक्ष्योपहारकैः 6.122.५०।
मंत्रेणानेन राजेंद्र सः मंत्री सपुरोहितः ।
पूजां करिष्यते यो वै सौख्यं स्यात्तस्य वत्सरम् ५१।
बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो ।
भविष्येंद्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।५२।

एवं पूजाविधिं कृत्वा रात्रौ जागरणं ततः ।
कारयेद्वै क्षणं रात्रौ नटनर्तकगायकैः ।५३।

लोकैश्चापि गृहस्यांते सपर्यां शुक्लतंडुलैः ।
संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैश्च पूजयेत् ।५४।

बलिमुद्दिश्य वै तत्र कार्यं सर्वं च पावके ।
यानि यान्यक्षयान्याहु ऋषयस्तत्वदर्शिनः ।५५।

यदत्र दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।
तदक्षयं भवेत्सर्वं विष्णोः प्रीतिकरं शुभम् ।५६।

रात्रौ ये न करिष्यंति तव पूजां बलेर्नराः ।
तेषामश्रोत्रियं धर्मं सर्वं त्वामुपतिष्ठतु ।५७।

विष्णुना च स्वयं वत्स तुष्टेन बलये पुनः ।
उपकारकरं दत्तमसुराणां महोत्सवम् ।५८।

तदा प्रभृति सेनाने प्रवृत्ता कौमुदी सदा ।
सर्वोपद्रवविद्रावा सर्वविघ्नविनाशिनी ।५९।

लोकशोकहरा काम्या धनपुष्टिसुखावहा ।
कुशब्देन मही ज्ञेया मुद हर्षे ततो द्वयम् ।६०।

धातुत्वे निगमैश्चैव तेनैषा कौमुदी स्मृता ।
कौमोदं ते जना यस्मान्नानाभावैः परस्परम् ।६१।

हृष्टतुष्टाः सुखापन्नास्तेनैषा कौमुदी स्मृता ।
कुमुदानि बलेर्यस्यां दीयंते तेन षण्मुख ।६२।

अघार्थं पार्थिवैः पुत्र तेनैषा कौमुदी स्मृता ।
एकमेवमहोरात्रं वर्षेवर्षे च कार्तिके ।६३।

दत्तं दानवराजस्य आदर्शमिव भूतल ।
यः करोति नृपो राज्ये तस्य व्याधिभयं कुतः ।६४।

सुभिक्षं क्षेममारोग्यं तस्य संपदनुत्तमा ।
नीरुजश्च जनाः सर्वे सर्वोपद्रववर्जिताः ।६५।

कौमुदी क्रियते तस्माद्भावं कर्तुं महीतले ।
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां च षण्मुख ।६६।

हर्षदुःखादिभावेन तस्य वर्षं प्रयाति हि ।
रुदिते रोदते वर्षं हृष्टे वर्षं प्रहर्षितम् ।६७।

भुक्ते भोक्ता भवेद्वर्षं स्वस्थे स्वस्थं भविष्यति ।
तस्मात्प्रहृष्टैः कर्त्तव्या कौमुदी च शुभैर्नरैः ।६८।
____________________
वैष्णवी दानवी चेयं तिथिः प्रोक्ता च कार्तिके।
दीपोत्सवंजनित सर्वजनप्रसादं कुर्वंति ये शुभतया बलिराजपूजाम् ।६९।

दानोपभोगसुखबुद्धिमतां कुलानां हर्षं प्रयाति सकलं प्रभुदं च वर्षम् ।७०।

स्कंदैतास्तिथयो नूनं द्वितीयाद्याश्च विश्रुताः ।
मासैश्चतुर्भिश्च ततःप्रावृट्काले शुभावहाः ।७१।

प्रथमा श्रावणे मासि तथा भाद्रपदे परा ।
तृतीयाश्वयुजेमासि चतुर्थी कार्तिके भवेत् ।७२।

कलुषा श्रावणे मासि तथा भाद्रपदेमला ।
आश्विने प्रेतसंचारा कार्तिके याम्यकामता ।७३।

गुह उवाच।
कस्मात्सा कलुषा प्रोक्ता कस्मात्सा निर्मला मता ।
कस्मात्सा प्रेतसंचारा कस्माद्याम्या प्रकीर्तिता ।७४।

सूत उवाच।
इति स्कंदवचः श्रुत्वा भगवान्भूतभावनः ।
उवाच वचनं श्लक्ष्णं प्रहसन्वृषभध्वजः ।७५।

महेश उवाच।
पुरा वृत्रवधे वृत्ते प्राप्ते राज्ये पुरंदरे ।
ब्रह्महत्यापनोदार्थमश्वमेधः प्रवर्तितः ।७६।

क्रोधादिंद्रेण वज्रेण ब्रह्महत्या निषूदिता ।
षड्विधा सा क्षितौ क्षिप्ता वृक्षतोयमहीतले ।७७।

नार्यां भ्रूणहणिवह्नौ संविभज्य यथाक्रमम् ।
तत्पापश्रवणात्पूर्वं द्वितीयाया दिनेन च ।७८।

नारीवृक्षनदीभूमिवह्निभ्रूणहनस्तथा ।
कलुषीभवनं जातो ह्यतोर्थं कलुषा स्मृता ।७९।

मधुकैटभयो रक्ते पुरा मग्नानु मेदिनी ।
अष्टांगुला पवित्रा सा नारीणां तु रजोमलम् ।८०।

नद्यः प्रावृण्मला सर्वा वह्निरूर्ध्वं मषीमलः ।
निर्यासमलिना वृक्षाः संगाद्भ्रूणहनो मलाः ।८१।

कलुषानि चरंत्यस्यां तेनैषा कलुषा मता ।
देवर्षिपितृधर्माणां निंदका नास्तिकाः शठाः ।८२।

तेषां सा वाङ्मलात्पूता द्वितीया तेन निर्मला ।
अनध्यायेषु शास्त्राणि पाठयंति पठंति च ।८३।

सांख्यकास्तार्किकाः श्रौतास्तेषां शब्दापशब्दजात् 
मलात्पूता द्वितीयायां ततोर्थे निर्मला च सा ।८४।

कृष्णस्य जन्मना वत्स त्रैलोक्यं पावितं भवेत् ।
नभस्येते विनिर्दिष्टा निर्मला सा तिथिर्बुधैः ।८५।

अग्निष्वात्ता बर्हिषद आज्यपाः सोमपास्तथा ।
पितॄन्पितामहान्प्रेतसंचारात्प्रेतसंचरा ।८६।

प्रेतास्तु पितरः प्रोक्तास्तेषां तस्यां तु संचरः ।
पुत्रपौत्रेस्तुदौहित्रैः स्वधामंत्रैस्तु पूजिताः ।८७।

श्राद्धदानमखैस्तृप्ता यांत्यतः प्रेतसंचरा ।
महालये तु प्रेतानां संचारो भुवि दृश्यते ।८८।

तेनैषा प्रेतसंचारा कीर्तिता शिखिवाहन ।
यमस्य क्रियते पूजा यतोऽस्या पावके नरैः ।८९।

तेनैषा याम्यका प्रोक्ता सत्यं सत्यं मयोदितम् ।
एतत्कार्तिकमाहात्म्यं ये शृण्वंति नरोत्तमाः ।९०।

कार्तिकस्नानजं पुण्यं तेषां भवति निश्चितम् ।९१।

कार्तिके च द्वितीयायां पूर्वाह्णे यममर्चयेत् ।
भानुजायां नरः स्नात्वा यमलोकं न पश्यति 
९२।

कार्तिके शुक्लपक्षे तु द्वितीयायां तु शौनक ।
यमो यमुनया पूर्वं भोजितः स्वगृहेऽचितः ।९३।

द्वितीयायां महोत्सर्गो नारकीयाश्च तर्पिताः ।
पापेभ्यो विप्रयुक्तास्ते मुक्ताः सर्वनिबंधनात् ।९४।

आशंसिताश्च संतुष्टाः स्थिताः सर्वे यदृच्छया ।
तेषां महोत्सवो वृत्तो यमराष्ट्रसुखावहः ।९५।

अतो यमद्वितीयेयं त्रिषुलोकेषु विश्रुता ।
तस्मान्निजगृहे विप्र न भोक्तव्यं ततो बुधैः ।९६।

स्नेहेन भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं पुष्टिवर्द्धनं ।
दानानि च प्रदेयानि भगिनीभ्यो विधानतः ।९७।

स्वर्णालंकारवस्त्राणि पूजासत्कारसंयुतम् ।
भोक्तव्यं सह जायाश्च भगिन्याहस्ततः परम् ।९८।

सर्वासु भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं बलवर्द्धनम् ।
ऊर्जे शुक्लद्वितीयायां पूजितस्तर्पितो यमः ।९९।

महिषासनमारूढो दंडमुद्गरभृत्प्रभुः ।
वेष्टितः किंकरैहृष्टैस्तस्मै याम्यात्मने नमः 6.122.१००।

यैर्भगिन्यः सुवासिन्यो वस्त्रदानादि तोषिताः ।
न तेषां वत्सरं यावत्कलहो न रिपोर्भयम् ।१०१।

धन्यं यशस्यमायुष्यं धर्मकामार्थसाधनम् ।
व्याख्यातं सकलं पुत्र सरहस्यं मयानघ ।१०२।

यस्यां तिथौ यमुनया यमराजदेवः संभोजितः प्रतितिथौ स्वसृसौहृदेन ।
तस्मात्स्वसुः करतलादिह यो भुनक्ति प्राप्नोति वित्तशुभसंपदमुत्तमां सः ।१०३।
_________________________________
इति श्रीपाद्मेमहापुराणे पंचपंचाशत्ससहस्रसंहितायामुत्तरखंडे कार्तिकमाहात्म्ये
द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।१२२।




भविष्यपुराण - /पर्व ४ (उत्तरपर्व)/अध्यायः १४०
            "दीपालिकोत्सववर्णनम्

               "श्रीकृष्ण उवाच !
पुरा वामनरूपेण याचयित्वा धरामिमाम् ।
बलियज्ञे हरिः सर्वं क्रांतवान्विक्रमैस्त्रिभिः ।१ ।

इन्द्राय दत्तवान्राज्यं बलिं पातालवासिनम् ।।
कृत्वा दैत्यपतेर्वासमहोरात्रं पुनर्नृप ।। २ ।।

एकमेव हि भोगार्थं बलिराज्येतिचिह्नितम् ।।
सरहस्यं तदेतत्ते कथयामि नरोत्तम ।। ३ ।।

कार्त्तिके कृष्णपक्षस्य पञ्चदश्यां निशागमे ।।
यथेष्टचेष्टा दैत्यानां राज्यं तेषां महीतले ।। ४ ।।

                   "युधिष्ठिर उवाच ।।
निश्शेषेण हृषीकेश कौमुदीं ब्रूहि मे प्रभो ।
किमर्थं दीयते दानं तस्यां का देवता भवेत् ।५ ।
किंस्वित्तस्यै भवेद्देयं केभ्यो देवं जनार्दन ।
प्रहर्षः कोऽत्र निर्दिष्टः क्रीडा कात्र प्रकीर्तिता ।६ ।

                       "श्रीकृष्ण उवाच ।।
कार्त्तिके कृष्णपक्षे च चतुर्दश्यां दिनोदये ।।
अवश्यमेव कर्तव्यं स्नानं नरकभीरुभिः ।। ७ ।।

अपामार्गपल्लवान्वा भ्राभयेन्मस्तकोपरि ।।
सीतालोष्टसमायुक्तसकंटकदलान्वितान् ।। ८ ।।

हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणं पुनःपुनः ।।
आपदं किल्बिषं चापि ममापहर सर्वशः ।।

अपामार्ग नमस्तेस्तु शरीरं मम शोधय ।। ९ ।।       ( इत्यपामार्ग भ्रमण मन्त्रः)
ततश्च तर्पणं कार्यं धर्मराजस्य नामभिः ।।
यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चांतकाय च ।।
वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ।4.140.     १०।

नरकाय प्रदातव्यो दीपः संपूज्य देवताः ।।
ततः प्रदोषसमये दीपान्दद्यान्मनोरमान् ।११ ।

ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु मठेषु च ।।
कूटागारेषु चैत्येषु सभासु च नदीषु च ।। १२ ।।

प्राकारोद्यानवापीषु प्रतोलीनिष्कुटेषु च ।।
सिद्धार्हबुद्धचामुंडाभैरवायतनेषु च ।।
मंदुरासु विविक्तासु हस्तिशालासु चैव हि ।। १३ ।।

एवं प्रभातसमयेऽमावास्यायां नराधिप ।।
स्नात्वा देवान्पितॄन्भक्त्या संपूज्याथ प्रणम्य च। १४।

कृत्वा तु पार्वणं श्राद्धं दधिक्षीरघृतादिभिः ।।
भोज्यैर्नानाविधैर्विप्रान्भोजयित्वा क्षमाप्य च।१५।

ततोऽपराह्णसमये घोषयेन्नगरे नृपः ।।
अद्य राज्यं बलेर्लोका यथेष्टं मोद्यतामिति ।। १६ ।।

लोकश्चापि परे हृष्येत्सुधाधवलिताजिरे ।।
वृक्षचन्दनमालाढ्यैश्चर्चिते च गृहेगृहे ।। १७ ।।

द्यूतपानरतोदृप्तनरनारीमनोहरे ।।
नृत्यवादित्रसंघुष्टे सम्प्रज्वलितदीपके ।। १८।।

अन्योन्यप्रीतिसंहृष्टदत्तलाभेन वै जने ।।
तांबूलहृष्ट वदने कुङ्कुमक्षोदचर्चिते ।। १९ ।।

दुकूलपट्टनेपथ्ये स्वर्णमाणिक्यभूषिते ।।
अद्भुतोद्भटशृंगारप्रदर्शितकुतूहले।4.140.२०।

युवतीजनसंकीर्णवस्त्रोज्ज्वलविहारिणि ।।
दीपमालाकुले रम्ये विध्वस्तध्वांतसञ्चये ।।
प्रदोषे दोषरहिते शस्तदोषागमे शुभे ।। २१ ।।

शशिपूर्णमुखाभिश्च कन्याभिः क्षिप्ततण्डुलम् ।।
नीराजनं प्रकर्तव्यं वृक्षशाखासु दीपकैः ।। २२ ।।

भ्राम्यमाणो नतो मूर्घ्नि मनुजानां जनाधिपः ।।
वृक्षशाखांतदीपानां निरस्ताद्दर्शनाद्व्रजेत् ।।
नीराजनं तु तेनेह प्रोच्यते विजयप्रदम् ।। २३ ।।

तस्माज्जनेन कर्तव्यं रक्षोदोषभयापहम् ।।
यात्राविहारसञ्चारे जयजीवेति वादिना ।। २४ ।।

क्षुद्रोपसर्गरहिते राजचौरभयोज्झिते ।।
मित्रस्वजनसम्बन्धिसुहत्प्रेमानुरंजिते ।। २५ ।।

ततोऽर्द्धरात्रसमये स्वयं राजा व्रजेत्पुरम् ।।
अवलोकयितुं रम्यं पद्भ्यामेव शनैःशनैः ।। २६ ।।

महता तूर्यघोषेण ज्वलद्भिर्हस्तदीपकैः ।।
कृतशोभां पुरीं पश्येत्कृतरक्षां स्वकैर्नरैः ।। २७ ।।

तं दृष्ट्वा महदाश्चर्यमृद्धिं चैवात्मनः शुभाम् ।।
बलिराज्यप्रमोदं च ततः स्वगृहमाव्रजेत् ।। २८ ।।

एवं गते निशार्धे तु जने निद्रार्द्रलोचने ।।
तावन्नगरनारीभिः शूर्पडिंडिमवादनैः ।।
निष्क्राम्यते प्रहृष्टाभिरलक्ष्मीः स्वगृहांगणात्।२९ ।।

ततः प्रबुद्धे सकले जने जातमहोत्सवे ।।
माल्यदीपकहस्ते च स्नेहनिर्भरलोचने ।। 4.140.३० ।

वेश्या विलासिनी सार्धं स्वस्ति मंगलकारिणी
गृहाद्गृहं व्रजन्ती च पादाभ्यंगप्रदायिनी ।३१ ।

पिष्टकोद्वर्तनपरे गुरुशुश्रूषणाकुले ।।
द्विजाभिवादनपरे सुखराज्याभिवीक्षणे ।३२।

सुवासिनीभ्यो दाने च दीयमाने यदृच्छया ।।
यथाप्रभातसमये राजार्हमानयेज्जनम् ।। ३३ ।।

सद्भावेनैव सन्तोष्या देवाः सत्पुरुषा द्विजाः ।।
इतरे चान्नपानेन वाक्प्रदानेन पंडिताः ।। ३४ ।।

वस्त्रैस्तांबूलदानैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः ।।
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरन्तःपुरविलासिनीः ।। ३५ ।।

ग्रामैर्विषयदानैश्च सामंतनृपतीन्धनैः ।।
पदातीनङ्गसंलग्नान्ग्रैवेयकटकैः स्वकान् ।। ३६ ।।

स्वयं राजा तोषयेत्स जनान्भृत्यान्पृथक्पृथक् ।।
यथार्हं तोषयित्वा तु ततो मल्लनटान्भटान् ।।३७।।

वृषभान्महिषांश्चैव युध्यमानान्परैः सह ।।
गजानश्वांश्च योधांश्च पदातीन्समलंकृतान् ।।३८।।

मंचारूढः स्वयं पश्येन्नटनर्तकचारणान् ।।
क्रुद्धापयेदानयेच्च गोमहिष्यादिकं ततः ।। ३९ ।।

दिष्ट्या कार्यं पयोज्योतिरुक्तिप्रत्युक्तिका वदेत् ।।
ततोपराह्नसमये पूर्वस्यां दिशि भारत ।। 4.140.४० ।।

मार्गपालीं प्रबध्नीयात्तुंगस्तंभेऽथ पादपे ।।
कुशकाशमयीं दिव्यां संभवे बहुभिर्वृताम् ।। ४१ ।।

पूजयित्वा गजान्वाजीन्सार्धे यामत्रये गते ।।
गावो वृषाः समहिषा मंडिता घटिकोत्कटाः।४२ ।।

कृते होमे द्विजेन्द्रैस्तु गृह्णीयान्मार्गपालिकाम् ।।
राष्ट्रभोज्येन धाराभिः सहस्रेण शतेन वा ।।४३।।

स्वशक्त्यपेक्षया वापि गृह्णीयाद्वामभोजनैः ।।
मातुः कुलं पितृकुलमात्मानं सहबंधुभिः ।। ४४।।

संतारयेत्स सकलं मार्गपालीं ददाति यः ।।
नीराजनं च तत्रैव कार्यं राज्ञे जयप्रदम् ।।४५।।

मार्गपालीतलेनेत्थं हया गावो गजा वृषाः ।।
राजानो राजपुत्राश्च ब्राह्मणा शूद्रजातयः ।। ४६ ।।

मार्गपालीं समुल्लंघ्य नीरुजः स्यात्सुखी सदा ।।
कृत्वैतत्सर्वमेवेह रात्रौ दैत्यपतेर्बलेः ।। ।। ४७ ।।

पूजां कुर्यान्नरः साक्षाद्भूमौ मंडलके कृते ।।
बलिमालिख्य दैत्येन्द्रं वर्णकैः पंचरंगकैः ।। ४८ ।।
___________
सर्वाभरणसंपूर्णं विंध्यावल्या सहासितम्।।
कूष्मांडबाणजंघोरुमुरदानवसंवृतम् ।। ४९ ।।

संपूर्णहृष्टवदनं किरीटोत्कटकुण्डलम् ।।
द्विभुजं दैत्यराजानं कारयित्वा नृपः स्वयम्।।4.140.५०।।

गृहस्य मध्ये शालायां विशालायां ततोऽर्चयेत् ।।
भ्रातृमंत्रिजनैः सार्द्धं संतुष्टो वंदिभिः स्तुतः।५१ ।।

कमलैः कुमुदैः पुष्पैः कह्लारै रक्तकोत्पलैः ।।
गन्धधूपान्ननैवेद्यैरक्षतैर्गुडपूपकैः ।।५२।।

मद्यमांससुरालेह्यदीपवर्त्युपहारकैः ।।
मंत्रेणानेन राजेन्द्र समंत्री सपुरोहितः ।। ५३ ।।

बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो ।।
भविष्येन्द्रसुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।। ५४ ।।

एवं पूजां नृपः कृत्वा रात्रौ जागरणं ततः ।।
कारयेत्प्रेक्षणीयादि नटक्षत्रकथानकैः ।। ५५ ।।

लोकश्चापि गृहस्यांते शय्यायां शुक्लतंडुलैः ।।
संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैश्च पूजयेत् ।५६ ।

बलिमुद्दिश्य दीयंते दानानि कुरुनन्दन ।।
यानि तान्यक्षयाण्याहुर्मयैवं संप्रदर्शितम् ।। ५७ ।।

यदस्यां दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।।
तदक्षयं भवेत्सर्वं विष्णोः प्रीतिकरं परम् ।। ५८ ।।
"
विष्णुना वसुधा लब्धा प्रीतेन बलये पुनः ।।
उपकारकरो दत्तश्चासुराणां महोत्सवः ।। ५९ ।।

ततः प्रभृति राजेन्द्र प्रवृत्ता कौमुदी पुनः ।।
सर्वोपद्रवविद्रावि सर्वविघ्नविनाशिनी ।।4.140.६०।।

लोकशोकहरी काम्या धनपुष्टिसुखावहा ।।
कुशब्देन मही ज्ञेया मुदी हर्षे ततः परम् ।। ६१ ।।

धातुज्ञैर्नैगमज्ञैश्च तेनैषा कौमुदी स्मृता ।।
कौ मोदन्ते जना यस्यां नानाभावैः परस्परा ।। ६२।
हृष्टास्तुष्टाः सुखायत्तास्तेनैषा कौमुदी स्मृता ।।
कुमुदानि बलेर्यस्माद्दीयन्तेऽस्यां युधिष्ठिर ।। ६३ ।।

अर्थार्थे पार्थ भूमौ च तेनैषा कौमुदी स्मृता ।।
एकमेवमहोरात्रं वर्षे वर्षे विशांपते ।। ६४ ।।

दत्तं दानवराजस्य आदर्शमिव भूतले ।।
यः करोति नृपो राष्ट्रं तस्य व्याधिभयं ।६५ ।।

कुत ईति भयं तत्र नास्ति मृत्युकृतं भयम् ।।
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं सर्वसम्पद उत्तमाः ।। ६६ ।।

नीरुजश्च जनाः सर्वे सर्वोपद्रववर्जिताः ।।
कौमुदीकरणाद्राजन्भवतीह महीतले ।। ६७ ।।

यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर ।।
हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति हि ।। ६८ ।।

रुदिते रोदिति वर्षं हृष्टो वर्षं प्रहृष्यति ।।
भुक्तौ भोक्ता भवेद्वर्षं स्वस्थः स्वस्थो भवेदिति ।। ६९ ।।
तस्मात्प्रहृष्टैस्तुष्टैश्च कर्तव्या कौमुदी नरैः ।।
वैष्णवी दानवी चेयं तिथिः पैत्री युधिष्ठिर ।। 4.140.७० ।।

उपशमितमेघनादं प्रज्वलितदशाननं अमित       राममि
रामायणमिव सुभगं दीपदिनं हरतु वो दुरितम् ।। ७१ ।।

कूष्माण्डादानरम्यं कुवलयखण्डैश्च धातुकाभद्रम् ।ऋ
शरदिव हरिगतनिद्रं दीपदिनं हरतु वो दुरितम् ।।७२।।

दीपोत्सवे जनितसर्वजनप्रमोदां कुर्वंति ये सुमनसो बलिराजपूजाम् ।।
दानोपभोगसुखवृद्धिशताकुलानां हर्षेण वर्षमिह पार्थिव याति तेषाम् ।।७३।।
_______________
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपालिकोत्सववर्णनं नाम चत्वारिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः ।१४० ।।



वामनपुराणम्
९२.२७ विशाखा देवदेवस्य भ्रुवोर्मध्ये व्यवस्थिताः। (पाठभेदः)




          पुलस्त्य उवाच।।
एतस्मिन्नन्तरे प्राप्ते भगवान् वामनाकृतिः।
यज्ञवाटमुपागम्य उच्चैर्वचनमब्रवीत्।। ९२.१

ॐकारपूर्वाः श्रुतयो मखेऽस्मिन् तिष्ठन्ति रूपेण तपोधनानाम्।
यज्ञोऽश्वमेधः प्रवरः क्रतूनां मुख्यस्तथा सत्रिषु दैत्यनाथः।। ९२.२

इत्थं वचनमाकर्ण्य दानवाधिपतिर्वशी।
सार्घपात्रः समभ्यागाद्यत्र देवः स्थितोऽभवत्।। ९२.३

ततोऽर्च्य. देवदेवेशमर्च्यमर्घ्यादिनासुरः।
भरद्वाजर्षिणा सार्धं यज्ञवाटं प्रवेशयत्।। ९२.४

प्रविष्टमात्रं देवेशं प्रतिपूज्य विधानतः।
प्रोवाच भगवन् ब्रूहि किं दद्मि तव मानद।। ९२.५

ततोऽब्रवीत् सुरश्रेष्ठो दैत्यराजानमव्ययः।
विहस्य सुचिरं कालं भरद्वाजमवेक्ष्य च।। ९२.६

गुरोर्मदीयस्य गुरुस्तस्यास्त्यग्निपरिग्रहः।
न स धारयते भूम्यां पारक्यां जातवेदसम्।। ९२.७

तदर्थमभियाचेऽहं मम दानवपार्थिव।
मच्छरीरप्रमाणेन देहि राजन् पदत्रयम्।। ९२.८

सुरारेर्वचनं श्रुत्वा बलिर्भार्यामवेक्ष्य च।
बाणं च तनयं वीक्ष्य इदं वचनमब्रवीत्।। ९२.९

न केवलं प्रमाणेन वामनोऽयं लघुः प्रिये।
येन क्रमत्रयं मौर्ख्याद् याचते बुद्धितोऽपि च।। ९२.१०

प्रायो विधाताऽल्पधियां नराणां बहिष्कृतानां च महानुभाग्यैः।
धनादिकं भूरि न वै ददाति यथेह विष्णोर्न बहुप्रयासः।। ९२.११

न ददाति विधिस्तस्य यस्य भाग्यविपर्ययः।
मयि दातरि यश्चायमद्य याचेत् पदत्रयम्।। ९२.१२

इत्येवमुक्त्वा वचनं महात्मा भूयोऽप्युवाचाथ हरिं दनूजः।
याचस्व विष्णो गजवाजिभूमिं दासी हिरण्यं यदभीप्सितं च।। ९२.१३

भवान् याचयिता विष्णो अहं दाता जगत्पतिः।
दातुर्याचयितुर्लज्जा कथं न स्यात् पदत्रये।। ९२.१४

रसातलं वा पृथिवीं भुवं नाकमथापि वा।
एतेभ्यः कतमं दद्यां स्थानं याचस्व वामन।। ९२.१५

                   वामन उवाच।।
गजाश्वभूहिरण्यादि तदर्थिभ्यः प्रदीयताम्।
एतावता त्वहं चार्थी देहि राजन् पदत्रयम्।। ९२.१६

इत्येवमुक्ते वचने वामनेन महासुरः।
बलिर्भृङ्गारमादाय ददौ विष्णोः क्रमत्रयम्।। ९२.१७

पाणौ तु पतिते तोये दिव्यं रूपं चकार ह।
त्रैलोक्यक्रमणार्थाय बहुरूपं जगन्मयम्।। ९२.१८

पद्भ्यां भूमिस्तथा जङ्घे नभस्त्रैलोक्यवन्दितः।
सत्यं तपो जानुयुग्मे ऊरुभ्यां मेरुमन्दरौ।। ९२.१९

विश्वेदेवा कटीभागे मरुतो वस्तिशीर्षगाः।
लिङ्गे स्थितो मन्मथश्च वृषणाभ्यां प्रजापतिः।। ९२.२०

कुक्षिभ्यामर्णवाः सप्त जठरे भुवनानि च।
वलिषु त्रिषु नद्यश्च यज्ञास्तु जठरे स्थिताः।। ९२.२१

इष्टापूर्तादयः सर्वाः क्रियास्तत्र तु संस्थिताः।
पृष्ठस्था वसवो देवाः स्कन्धौ रुद्रैरधिष्ठितौ।। ९२.२२

बाहवश्च दिशः सर्वा वसवोऽष्टौ करे स्मृताः।
हृदये संस्थितो ब्रह्मा कुलिशो हृदयास्थिषु।। ९२.२३

श्रीसमुद्रा उरोमध्ये चन्द्रमा मनसि स्थितः।
ग्रीवादितिर्देवमाता विद्यास्तद्वलयस्थिताः।। ९२.२४

मुखे तु साग्नयो विप्राः संस्कारा दशनच्छदाः।
धर्मकामार्थमोक्षीयाः शास्त्रः शौचसमन्विताः।। ९२.२५

लक्ष्म्या सह ललाटस्थाः श्रवणाभ्यामथाश्विनौ।
श्वासस्थो मातरिश्वा च मरुतः सर्वसंधिषु।। ९२.२६

सर्वसूक्तानि दशना जिह्वा देवी सरस्वती।
चन्द्रादित्यौ च नयने पक्ष्मस्थाः कृत्तिकादयः।। ९२.२७

शिखायां देवदेवस्य ध्रुवो राजा न्यषीदत।
तारका रोमकूपेभ्यो रोमाणि च महर्षयः।। ९२.२८

गुणैः सर्वमयो भूत्वा भगवान् भूतभावनः।
क्रमेणैकेन जगतीं जहार सचराचराम्।। ९२.२९

भूमिं विक्रममाणस्य महारूपस्य तस्य वै।
दक्षिणोऽभूत् स्तनश्चन्द्रः सूर्योऽभूदथ चोत्तरः।
नक्षश्चाक्रमतो नाभिं सूर्येन्दू सव्यदक्षिणौ।। ९२.३०

द्वितीयेन क्रमेणाथ स्वर्महर्जनतापसाः।
क्रान्तार्धार्धेन वैराजं मध्येनापूर्यताम्बरम्।। ९२.३१

ततः प्रतापिना ब्रह्मन् बृहद्विष्ण्वङ्घ्रिणाम्बरे।
ब्रह्माण्डोदरमाहत्य निरालोकं जगाम ह।। ९२.३२

विश्वाङ्‌घ्रिणा प्रसरता कटाहो भेदितो बलान्।
कुटिला विष्णुपादे तु समेत्य कुटिला ततः।। ९२.३३

तस्या विष्णुपदीत्येवं नामाख्यातमभून्मुने।
तथा सुरनदीत्येवं तामसेवन्त तापसाः।
भगवानप्यसंपूर्णे तृतीये तु क्रमे विभुः।। ९२.३४

समभ्येत्य बलिं प्राह ईषत् प्रस्फुरिताधरः।
ऋणाद् भवति दैत्येन्द्र बन्धनं घोरदर्शनम्।
त्वं पूरय पदं तन्मे नो चेद् बन्धं प्रतीच्छ भोः।। ९२.३५

तन्मुरारिवचः श्रुत्वा विहस्याथ बलेः सुतः।
बाणः प्राहामरपतिं वचनं हेतुसंयुतम्।। ९२.३६

बाण उवाच।।
कृत्वा महीमल्पतरां जगत्पते स्वायंभुवादिभुवनानि वै षट्।
कथं बलिं प्रार्थयसे सुविस्तृतां यां प्राग्भवान् नो विपुलामथाकरोत्।। ९२.३७

विभो मही यावतीयं त्वयाऽद्य सृष्टा समेता भुवनान्तरालैः।
दत्ता च तातेन हि तावतीयं किं वाक्छलेनैष निबध्यतेऽद्य।। ९२.३८

या नैव शक्या भवता हि पूरितुं कथं वितन्याद् दितिजेश्वरोऽसौ।
शक्तस्तु संपूजयितुं मुरारे प्रसीद मा बन्धनमादिशस्व।। ९२.३९

प्रोक्तं श्रुतौ भवतापीश वाक्यं दानं पात्रे भवते सौख्यदायि।
देशे सुपुण्ये वरदे यच्च काले तच्चाशेषं दृश्यते चक्रपाणे।। ९२.४०

दानं भूमिः सर्वकामप्रदेयं भवान् पात्रं देवदेवो जितात्मा।
कालो ज्येष्ठामूलयोगे मृगाङ्गः कुरुक्षेत्रं पुण्यदेशं प्रसिद्धम्।। ९२.४१

किं वा देवोऽस्मद्विधैर्बुद्धिहीनैः शिक्षापनीयः साधु वाऽसाधु चैव।
स्वयं श्रुतीनामपि चादिकर्त्ता व्याप्य स्थितः सदसद् यो जगद् वै।। ९२.४२

कृत्वा प्रमाणं स्वयमेव हीनं पदत्रयं याचितवान् भुवश्च।
किं त्वं न गृह्णासि जगत्त्रयं भो रूपेण लोकत्रयवन्दितेन।। ९२.४३

नात्राश्चर्यं यज्जगद् वै समग्रं क्रमत्रयं नैव पूर्णं तवाद्य।
क्रमेण त्वं लङ्घयितुं समर्थो लीलामेतां कृतवान् लोकनाथ।। ९२.४४

प्रमाणहीनां स्वयमेव कृत्वा वसुंधरां माधव पद्मनाभ।
विष्णो न बध्नासि बलिं न दूरे प्रभुर्यदेवेच्छति तत्करोति।। ९२.४५

पुलस्त्य उवाच।।
इत्येवमुक्ते वचने बाणेन बलिसूनुना।
प्रोवाच भगवान् वाक्यमादिकर्त्ता जनार्दनः।। ९२.४६

त्रिविक्रम उवाच।।
यान्युक्तानि वचांसीत्थं त्वया बालेय साम्प्रतम्।
तेषां वै हेतुसंयुक्तं श्रृणु प्रत्युत्तरं मम।। ९२.४७

पूर्वमुक्तस्तव पिता मया राजन् पदत्रयम्।
देहि मह्यं प्रमाणेन तदेतत् समनुष्ठितम्।। ९२.४८

किं न वेत्ति प्रमाणं मे बलिस्तव पितासुर।
प्रायच्छद् येन निःशङ्कं ममानन्तं क्रमत्रयम्।। ९२.४९

सत्यं क्रमेण चैकेन क्रमेयं भूर्भुवादिकम्।
बलेरपि हितार्थाय कृतमेतत् क्रमत्रयम्।। ९२.५०

तस्माद् यन्मम बालेय त्वत्पित्राम्बु करे महत्।
दत्तं तेनायुरेतस्य कल्पं यावद् भविष्यति।। ९२.५१

गते मन्वन्तरे बाण श्राद्धदेवस्य साम्प्रतम्।
सावर्णिके च संप्राप्ते बलिरिन्द्रो भविष्यति।। ९२.५२

इत्थं प्रोक्त्वा बलिसुतं बाणं देवस्त्रिविक्रमः।
प्रोवाच बलिमभ्येत्य वचनं मधुराक्षरम्।। ९२.५३

श्रीभगवानुवाच।।
आपूरणाद् दक्षिणाया गच्छ राजन् महाफलम्।
सुतलं नाम पातालं वस तत्र निरामयः।। ९२.५४

बलिरुवाच।।
सुतले वसतो नाथ मम भोगाः कुतोऽव्ययाः।
भविष्यन्ति तु येनाहं निवत्स्यामि निरामयः।। ९२.५५

त्रिविक्रम उवाच।।
सुतलस्थस्य दैत्येन्द्र यानि भोगानि तेऽधुना।
भिवष्यन्ति महार्हाणि तानि वक्ष्यामि सर्वशः।। ९२.५६

दानान्यविधिदत्तानि श्राद्धान्यश्रोत्रियाणि च।
तथाधीतान्यव्रतिभिर्दास्यन्ति भवतः फलम्।। ९२.५७

तथान्यमुत्सवं पुण्यं वृत्ते शक्रमहोत्सवे।
द्वारप्रतिपदा नाम तव भावी महोत्सवः।। ९२.५८

तत्र त्वां नरशार्दूला हृष्टाः पुष्टाः स्वलंकृताः।
पुष्पदीपप्रदानेन अर्जयिष्यन्ति यत्नतः।। ९२.५९

तत्रोत्सवो मुख्यतमो भविष्यति दिवानिशं हृष्टजनाभिरामम्।यथैव राज्ये भवतस्तु साम्प्रतं तथैव सा भाव्यथ कौमुदी च।। ९२.६०

इत्येवमुक्त्वा मधुहा दितीश्वरं विसर्जयित्वा सुतलं सभार्यम्।
यज्ञं समादाय जगाम तूर्णं स शक्रसद्भामरसंघजुष्टम्।। ९२.६१

दत्त्वा मघोने च विभुस्त्रिविष्टपं कृत्वा च देवान् मखभागभोक्तॄन्।
अन्तर्दधे विश्वपतिर्महर्षे संपश्यतामेव सुराधिपानाम्।। ९२.६२

स्वर्गं गते धातरि वासुदेवे शाल्वोऽसुराणां महता बलेन।
कृत्वा पुरं सौभमिति प्रसिद्धं तदान्तरिक्षे विचचार कामात्।। ९२.६३

मयस्तु कृत्वा त्रिपुरं महात्मा सुवर्णताम्रायसमग्र्यसौख्यम्।
सतारकाक्षः सह वैद्युतेन संतिष्ठते भृत्यकलत्रवान् सः।। ९२.६४

बणोऽपि देवेन हृते त्रिविष्टपे बद्धे बलौ चापि रसातलस्थे।
कृत्वा सुगुप्तं भुवि शोणिताख्यं पुरं स चास्ते सह दानवेन्द्रैः।। ९२.९२

एवं पुरा चक्रधरेण विष्णुना बद्धो बलिर्वामनरूपधारिणा।
शक्रप्रियार्थं सुरकार्यसिद्धये हिताय विप्रर्षभगोद्विजानाम्।। ९२.६६

प्रादुर्भवस्ते कथितो महर्षे पुण्यः शुचिर्वामनस्याघहारी।
श्रुते यस्मिन् संस्मृते कीर्तिते च पापं याति प्रक्षयं पुण्यमेति।। ९२.६७

एतत् प्रोक्तं भवतः पुण्यकीर्त्तेः प्रादुर्भावो बलिबन्धोऽव्ययस्य।
यच्चाप्यन्यत् श्रोतुकामोऽसि विप्र तत्प्रोच्यतां कथयिष्याम्यशेषम्।। ९२.६८
______    
इति श्रीवामनपुराणे पञ्चषष्टितमोऽध्यायः । ९२।

अनुवाद:- पुलस्त्य जी बोले- 
इसके अनन्तर वामन भगवान् आगये। यज्ञ शाला के निकट आकर वे ऊँचे स्वर में बोले - ओ३म् कार  वेदमन्त्र तपस्वी ऋषियों के रूप में इस यज्ञ में स्थित है।
यज्ञों में अश्व मेल यज्ञ सर्वोत्तम है। और दैत्यों के स्वामी बलि यज्ञ कर्ताओं मे सर्वश्रेष्ठ हैं। इस प्रकार की बातें सुनकर इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले दानवों के स्वामी बलि अर्घ्य पात्र लेकर वहाँ गये जहाँ वामन भगवान् उपस्थित थे।इसके बाद अर्घ्य आदि से देवों के भी स्वामी वामन भगवान् की अर्चना करके दानवों के स्वामी बलि ने भरद्वाज ऋषि के साथ उन भगवान को यज्ञ शाला में प्रवेश कराया यज्ञ शाला में प्रवेश करते ही बलि ने भगवान का विधि पूर्वक पूजा कीऔर कहा मान देने वाले भगवन् बोलिए मैं आपको क्या दूँ!।१-५।

इसके बाद देवों म्ं श्रेष्ठ अविनाशी भगवान् ने देर तक हँस कर भरद्वाज ऋषि को देखकर दैत्य राज से कहा! मेरे गुरु के गुरु अग्निहोत्री ( यज्ञ के अनुष्ठाता) हैं। वे दूसरों की भूमि में अग्नि स्थापन नहीं करते हैं। दानव पते ! राजन् मैं उनके लिए आपसे याचना करता हूँ। कि मेरे शरीर के परिणाम से तीन पग भूमि मुझे देने की कृपा करें। मुरारी प्रभु के वचन सुनने बाद बलि ने पत्नी और पुत्र बाण को देखकर अपनी पत्नी से यह वचन कहा-

यह वामन केवल शारीरिक प्रमाण से ही छोटा नहीं बुद्धि से भी छोटा है। क्योंकि अज्ञान वश यह मुझसे केवल तीन पग भूमि लकी याचना करता है।६-१०।

विधाता प्राय: कम बुद्धि वालों अभागों  को अधिक धन आदि नहीं देते जैसे इस यज्ञ में विष्णु ने अधिक के लिए प्रयत्न नहीं किया हा। जिसका भाग्य अनुकूल नहीं होता है उसे ईश्वर नहीं देते हैं। मेरे जैसे दानी से भी तीन पग भूमि की याचना करते हैं। इस प्रकार कहकर बलि ने फिर कहा- विष्णो! आप याचना करने वाले हैं और मैं जगत्पति देने वाला। 
ऐसी अवस्था में तीन पग भूमि का दान करने में ( देने व  लेने वाले को कोई  लज्जा नहीं होगी। वामन यदि आप याचना करते हैं तो कहिए रसातल पृथ्वी लोक भुवर्लोक अथवा स्वर्ग लोक मैं किस स्थान का दान करूँ उसे माँगिए। ११-१५।

भगवान वामन बोले -हाथी घोड़ा भूमि सौना आदि वस्तुओं को उन्हें चाहने वालों को ही दीजिये मैं केवल तीन पग भूमि की याचना करता हूँ।

आपने पृथ्वी को विशाल नहीं बनाया इस लिए बलि से आप अत्यन्त विशाल भूमि कैसे माँगते हैं। विभो भुवनों के मध्यवर्ती स्थानों के साथ जितनी पृथ्वी की सृष्टि आपने की थी वह मेरे पिता ने आपको आज दी अत: आज कपट के द्वारा उन्हें क्यों बाँधते हैं। हे मुरारी जिस पृथ्वी की कमा को आप पूरा नहीं कर सकते उसे ये दानवपति कैसे विस्तृत कर सकेंगे ये आपकी पूजा करने में समर्थ हैं। अत: आप प्रसन्न हों और इन्हें बन्धन प्राप्त करने काल आदेश न दें।
प्रभो ! *आपने ही वेदों में कहा कि पवित्र देश काल और वर देने के समय सत् पात्र में दिया गया दान सुख देने वाला होता है। ।**
चक्र पाणे! वह सम्पूर्ण योग दिखलाई पड़ रहा है।३७-४०।


समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला भूमि का दान प्राप्त हो रहा है। देवों के अधिदेव अपने आप को नियन्त्रित रखने वाले आप पात्र हैं। ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र के योग में स्थित चन्द्रमा में युक्त काल  है। तथा प्रसिद्ध पवित्र कुरुक्षेत्र का देश है। अथवा हम जैसे बुद्धि हीन लोगों के द्वारा आप भगवान को उचित या अनुचित शिक्षा क्या दी जाए ! आप स्वयं देवों के आदि सृष्टिकर्ता और सदसद् विश्व को व्याप्त कर स्थित हैं। आपने स्वय अपने परिमाण( शारीरिक आकार,) को छोटा बनाकर तीन पग भूमि माँगी थी देव क्या आपने अपने तीनों लोकों में वन्दित रूप से तीनों लोकों को व्याप्त नहीं कर लिया है?

(यह तो शर्त और नियमों के विपरीत ही है।)
आपके तीन पदों को पूरा संसार पूरा नहीं कर सका-
इसमे आश्चर्य की कोई बात नहीं है।  क्योंकि आप इसको एक पग से ही लाँघ सकते हैं। लोकनाथ आपने तो यह लीला ही की है। माधव पद्मनाभ विष्णो!

पृथ्वी को अपने आप छोटे प्रतिमान( पैमाने ) में बनाकर बलि को बाँध ना उचित नहीं है। प्रभु ! आप जो चाहते हो वही करते हो!४१-४५ ।

त्रिविक्रम ने कहा! - बलिनन्दन तुमने इस समय जिन वचनों को कहा है। उसका कारण सहित प्रत्युत्तर मुझसे सुनो!मैंने पहले ही तुम्हारे पिता से यह कहा था  राजन् मेरे प्रमाण के अनुसार मुझे तीन पग भूमि दो ! उन्होंने भलीभांति इनका सम्मान किया  असुर क्या तुम्हारे पिता जी बलि मेरा प्रमाण नही जानते थे । जो उन्होंने नि: शंक होकर  मेरे तीन पगों का दान किया सचमुच मैं अपने एक ही पग से समस्त भी भुव और समस्त लोक को नाप सकता हूँ।

बलि के कल्याण के लिए ही मैनें तीन पग किए हैं।
हे बलि पुत्र तुम्हारे पिता ने मेरे हाथ मे शुद्ध जल दिया है। *इससे इनकी आयु एक कल्प होगी ।* बाण श्राद्ध देव का वर्तमान मन्वन्तर बीत जाने के बाद  सावर्णि मन्वन्तर के आने पर बलि स्वर्ग के राजा इन्द्र बनेंगे

बलि पुत्र बाण से इस प्रकार कहने के बाद बलि के समीप गये और उससे मधुर वचन कहने लगे।४७-५३।

श्री भगवान् ने कहा:- दक्षिणा की सम्पन्नता होने तक तुम्हें यह महान फल प्राप्त करना होगा। तुम समतल नामक लोक में स्वस्थ नीरोग होकर शासन करोगे।५४।

बलि ने कहा:- नाथ  समतल में निवास करते समय  नीरोग - स्वस्थ रहने के लिए अक्षय अविनाशी स्वाथ्य प्रद भोग कहाँ से प्राप्त होंगे ।५५। ?

त्रिविक्रम ने कहा :- दैत्येन्द्र मैं इस समय तुम्हारे सामने उन  अमूल्य  भोगों का वर्णन करता हूँ। जो पृथ्वी के तल में निवास करते समय तुम्हें प्राप्त होंगे।

अविधि पूर्वक किए गये दान अश्रोत्रिय  द्वारा किए गये एवं ब्रह्मचर्य व्रत  रहित अध्ययन आपको फल प्रदान करेंगे ।

इन्द्र पूजन के बाद आने वाली प्रतिपदा को तुम्हारे पूजन के प्रति दूसरा उत्सव मनाया जाऐगा ! जिसका नाम होगा "द्वार प्रतिपदा"  उस उत्सव के समय हृष्ट पुष्ट नर श्रेष्ठ लोग  सुन्दर रूप से सजधजकर पुष्प और दीप देकर प्रत्यन पूर्वक आपकी अर्चना करेंगे
आपके राज्य में इस समय  जिस प्रकार दिन रात जन समुदाय के प्रसन्न रहने के कारण सुन्दर महोत्सव बना रहता है। उसी प्रकार उत्सवों में श्रेष्ठ वह कौमुदी नामक उत्सव होगा ।५६-६०।

मधुसूदन ने दानवेश्वर बलि से इस प्रकार कहकर उसे पत्नी के साथ समतल लोक में भेज दिया । इसके बाद वे शीघ्र यज्ञ के अग्नि देव ( अग्नि देव) को साथ ले  देव समूह से सेवित इन्द्र भवन चले गये।

महर्षि!इसके बाद सबका पालन पोषण करने वाले व्यापक भगवान् विष्णु इन्द्र को स्वर्ग देकर एर देवों को यज्ञ भाग का अधिकारी बनाकर देवताओं के देखते देखते ही अन्तर्ध्यान हो गये

ब्रह्मा - वासुदेव के स्वर्ग चले जाने कि बाद दानव शाल्व दैत्य की बड़ी सेना लेकर शौभ नाम का प्रसिद्ध नगर बनाकर इच्छा के अनुसार आकाश में विचरण करने लगे से को और अपनी पत्नीयों के साथ  महात्मा मय सौने ताँबे और लोहे के तीन नगरों का निर्माण करके तारकाक्ष और वैद्युत के साथ अत्यंत सुखपूर्वक उनमें रहने लगा।६१-६४।

बाणासुर भी विष्णु के द्वारा स्वर्ग छीन लिए जाने पर और बलि के बँधने तथा वसा तल मे मन रहने पर अत्यन्त सुरक्षित शोणित नामक पुर का निर्माण कर दानवों के साथ रहने लगा 
इस प्रकार प्राचीन काल में चक्र धारण करने वाले वामन रूप धारण कर इन्द्र की भलाई और देवों की कार्य सिद्धि तथा ब्राह्मण ऋषियों ( गायों के समूह) और ब्राह्मणों के हित कि लिए बलि को बाँधा था ।
महर्षे ! मैंने आपसे वामन के पापहारी पुण्य युक्त एवं पवित्र प्रादुर्भाव का वर्णन किया ।अब आप अन्य जो सुनना चाहते हो वह कहिए ! मैं पूर्ण रूप से उसकी वर्णन करुँगा।६५-६८।





यह पृष्ठ सारस्वत और भोज के बीच संवाद का वर्णन करता है जो स्कंद पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 19 है, जो अठारह महापुराणों में से सबसे बड़ा है, प्राचीन भारतीय समाज और हिंदू परंपराओं को एक विश्वकोश प्रारूप में संरक्षित करता है, धर्म (सदाचारी जीवनशैली) जैसे विषयों पर विस्तार से बताता है ), ब्रह्मांड विज्ञान (ब्रह्मांड का निर्माण), पौराणिक कथा (इतिहास), वंशावली (वंश) आदि। यह स्कंद पुराण के प्रभास खंड के वस्त्रपथ-क्षेत्र-महात्म्य का उन्नीसवां अध्याय है।

अध्याय 19 - सारस्वत और भोज के बीच संवाद:-

राजा (भोज) ने कहा :

1. मुझे बताओ कि इस प्रकार यज्ञ शुल्क लेने के बाद महान विष्णु ने क्या किया? मेरी बड़ी जिज्ञासा है.

सारस्वत ने कहा :

2. भूमि-ग्राही विष्णु के लिए स्वर्गीय प्राणियों द्वारा गाए गए स्तुति के भजनों के बाद, उन्होंने राजा बलि को यज्ञ के अनुष्ठान से निष्कासित कर दिया । इस प्रकार यज्ञ शुल्क प्राप्त होने पर यज्ञ समाप्त हो गया।

3-4. भगवान का तीसरा कदम अधूरा रह जाने पर भगवान ने अपना मुंह खोला और निचले होंठ को थोड़ा हिलाकर राजा बलि से कहा, “ऋण न चुकाने पर बंधन भयानक हो जाता है। अत: बेहतर होगा कि तुम मेरा तीसरा कदम पूरा करो अन्यथा मेरी बेड़ियों में बंध जाओ।”

5-11. विष्णु के इन शब्दों को सुनकर बाली का पुत्र बाण सामने आया और ब्रह्माण्डधारी वामन से पूछा : "बौने का शरीर धारण करके और तीन कदम भूमि माँगकर, आप इतने ब्रह्माण्डधारी कैसे हो गए?" विशाल) रूप? हे विश्व के स्वामी! यदि आप तीसरा पग भूमि मांगने की इच्छा रखते हैं तो बौने का रूप धारण करें। राक्षसों का राजा बलि तीसरा पग अवश्य देगा। उपहार केवल वामन रूप को ही दिए जा सकते हैं जिनके पैर बाली ने धोए हैं, इस ब्रह्मांडीय रूप को नहीं। आपने ही इस ब्रह्माण्ड की रचना की है और राजा बलि इसी ब्रह्माण्ड में रहते हैं। महान शक्ति और प्रमुखता से संपन्न व्यक्ति बलपूर्वक चीजें नहीं लेता। हे विश्व के स्वामी! यदि आप इस संसार को अपना मानते हैं, तो इस राक्षस राजा को आपकी भक्ति से विमुख होने के कारण अपना मान खोकर इसके गले में रस्सी डालकर निष्कासित कर दीजिए। तुम्हें कौन रोक सकता है? यदि गायों का स्वामी अपनी गायों की रक्षा के लिए दूसरे चरवाहे को नियुक्त करता है तो पहले वाला चरवाहा कुछ नहीं कर सकता।

12. बलि के पुत्र द्वारा ऐसा कहे जाने पर इस संसार के प्रथम रचयिता विष्णु ने कहा:

13-17. "ओह लड़का! आपने इस समय जो कुछ कहा है उसका कारण सहित उत्तर मैं आपको सुनवा रहा हूँ। हे बाण! तुम्हारे पिता ने पहली ही बार में कहा था कि वह मुझे तीन पग ज़मीन देंगे और मैंने उन्हें इसकी कीमत भी बता दी। कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे पिता बलि उस उपाय को नहीं समझते? मैंने इस बलि की भलाई के लिए तीन पग भूमि मांगी है। इसलिए, आपके पिता भौतिक संसार की अवधि के समय तक एक कल्प के लिए सात निचली दुनियाओं में से छठे (यानी ' सुतल दुनिया') में रहेंगे । हे बाण! इस उम्र के बाद मनु करेंगे अन्य सावन्क [ सावर्णिक ?] मनु और आपके पिता बाली के युग में प्रवेश करके उन्हें इंद्र का ताज पहनाया जाएगा ।

18. बलि के पुत्र से यह कहकर वामन भगवान बलि के पास आये और मधुर स्वर में बोले।

भगवान ने कहा :

19 हे राक्षस राजा! यज्ञ में पूर्ण आहुति न देने पर सात पाताल लोकों में से छठे लोक में प्रवेश करो। 'सुतल' नामक उस पाताल लोक में वे रोगों से मुक्त रहते हैं।

बाली ने कहा :

20. हे प्रभु! मैं सुतल लोक में सुखपूर्वक रहते हुए आपके चरणों का दर्शन और वन्दन कैसे कर सकता हूँ?

दयालु भगवान ने कहा :

21-26. हे राक्षस राजा! मैं हमेशा तुम्हारे दिल में रहता हूँ. इसलिए, आपके पास मेरी दृष्टि प्राप्त करने का अवसर है क्योंकि मैं हमेशा आपके पास रहूंगा। इन्द्र का एक और शुभ उत्सव होगा। इसमें हर कदम पर रोशनी होगी। इस उत्सव में स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट, सुसज्जित तथा श्रेष्ठ राजा आपका आदर-सत्कार करेंगे तथा दीप तथा पुष्प अर्पित करेंगे। यह पर्व पृथ्वी के लिये मंगलमय होगा और तुम्हारे नाम से पुकारा जायेगा। इससे आप सालों तक खुश रहेंगे। जो दृढ़ मन और श्रद्धा से आपकी पूजा-अर्चना करेगा, वह भी सुखी होता रहेगा।

27-28. ऐसा कहकर, विष्णु ने सुतल लोक में राक्षस-राजा बाली को उसकी पत्नी सहित आश्रय दिया और भूमि लेकर दिव्य प्राणियों द्वारा सेवित इंद्र के निवास में शीघ्रता से आ गए। इंद्र को स्वर्ग देकर और देवताओं को महिमा का आनंद दिलाकर, दुनिया के भगवान विष्णु, राजाओं के देखते ही देखते गायब हो गए।

29-31. बलि का राज्य छीनकर और उसमें इंद्र को शामिल करके, विष्णु ने राक्षसों को वहां से निकाल दिया और नरकवासियों को वहां बसाया। बलि को रोकने से देवता बहुत प्रसन्न हुए। तब भगवान वामन ने निवासियों के लिए अपना मूड हल्का कर दिया।

सारस्वत ने पूछा :

32. आपने वामन की पवित्र, पापनाशक और कल्याणप्रद जन्म कथा सुनाई है, जिसे सुनने और गाने से पाप नष्ट हो जाते हैं और पुण्य का उदय होता है।

भगवान ने कहा :

33. “ सरस्वत के इन शब्दों को सुनकर , राजा भोज ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ ऋषियों के रूप में सम्मानित किया, उन्हें प्रणाम किया और भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की।

34. तब राजा भोज ने स्थापित प्रथा के अनुसार परिवार के सदस्यों के साथ वस्त्रपथ की यात्रा फिर से शुरू की। वहाँ अपना जीवन कृतार्थ करके वे परमधाम को चले गये।

यानी अंत में विष्णु की दुनिया।

35-36. मैंने वस्त्रपथ क्षेत्र का वर्णन किया है जो प्रभास -क्षेत्र का एक हिस्सा है। जो कोई इन शुभ वचनों को सुनता या पढ़ता है, वह भगवान विष्णु के लोक को जाता है। जैसे गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं , उसी प्रकार पुराण सुनने से पाप धुल जाते हैं।

37. मैंने तुम्हें यह गुप्त कथा सुनायी है। विष्णु की भक्ति से विमुख लोगों को इसे नहीं सुनना चाहिए। ब्राह्मण द्वारा इसे सुनने से भी पाप होता है - निंदा करने वाला जघन्य पापी, अपने गुरु से शत्रुता रखने वाला और सदैव पाप करने के बारे में सोचने वाला।

38-40. जो मनुष्य इसे सोच-समझकर पढ़ता है, उसका विश्वास शिव और श्रीकृष्ण पर दृढ़ हो जाता है । उस विश्वास से मनुष्य को सब कुछ मिल जाता है। अत: इस पुराण के वाचक को गायें, भूमि, सोना, धन तथा आभूषण देने चाहिए। ऐसा बताने वाला स्वयं गरीब होता है। इसे तीन बार पढ़ने और सुनने से मन की सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं।








___________
< स्कन्दपुराण.- खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)‎ | कार्तिकमासमाहात्म्यम्
           "ब्रह्मोवाच !

प्रतिपद्यथ चाऽभ्यंगं कृत्वा नीराजनं ततः ।
सुवेषः सत्कथागीतैर्दानैश्च दिवसं नयेत् ।१।

शंकरस्तु पुरा द्यूतं ससर्ज सुमनोहरम् ।
कार्तिके शुक्लपक्षे तु प्रथमेऽहनि सत्यवत् । २।

____________________
बलिराज्यदिनस्याऽपि माहात्म्यं शृणु तत्त्वतः ।।
स्नातव्यं तिलतैलेन नरैर्नारीभिरेव च ।३।

यदि मोहान्न कुर्वीत स याति यमसादनम् ।
पुरा कृतयुगस्यादौ दानवेंद्रो बलिर्महान् । ४।

तेन दत्ता वामनाय भूमिः स्वमस्तकान्विता ।
तदानीं भगवान्साक्षात्तुष्टो बलिमुवाच ह ।५।

कार्तिके मासि शुक्लायां प्रतिपद्यां यतो भवान् ।
भूमिं मे दत्तवान्भक्त्या तेन तुष्टोऽस्मि तेऽनघ ।६।

वरं ददामि ते राजन्नित्युक्त्वाऽदाद्वरं तदा। त्वन्नाम्नैव भवेद्राजन्कार्तिकी प्रतिपत्तिथिः।७ ।
________
एतस्यां ये करिष्यन्ति तैलस्नानादिकार्चनम् ।।
तदक्षयं भवेद्राजन्नात्र कार्या विचारणा । ८ ।

तदाप्रभृति लोकेऽस्मिन्प्रसिद्धा प्रतिपत्तिथिः ।
प्रतिपत्पूर्वविद्धा नो कर्तव्या तु कथंचन । ९ ।

तत्राभ्यंगं न कुर्वीत अन्यथा मृतिमाप्नुयात् ।।
प्रतिपद्यां यदा दर्शो मुहूर्तप्रमितो भवेत्। 2.4.10.१० ।

मांगल्यं तद्दिने चेत्स्याद्वित्तादिस्तस्य नश्यति ।।
बलेश्च प्रतिपद्दर्शाद्यदि विद्धं भविष्यति ।११ ।

तस्यां यद्यथ चाऽऽर्तिक्यं नारी मोहात्करिष्यति ।।
नारीणां तत्र वैधव्यं प्रजानां मरणं ध्रुवम् ।१२।
_____________________
अविद्धा प्रतिपच्चेत्स्यान्मुहूर्तमपरेऽहनि ।
उत्सवादिककृत्येषु सैव प्रोक्ता मनीषिभिः । १३ ।

प्रतिपत्स्वल्पमात्राऽपि यदि न स्यात्परेऽहनि ।
पूर्वविद्धा तदा कार्या कृता नो दोषभाग्भवेत् ।१४।

तद्दिने गृहमध्ये तु कुर्यान्मूर्तिं तदांगणे ।।
गोमयेन च तत्राऽपि दधि तत्पुरतः क्षिपेत् ।१५ ।

आर्तिक्यं तत्र संस्थाप्य एवं कुर्याद्विधानतः ।।
अभ्यंगं ये न कुर्वंति तस्यां तु मुनिपुंगव ।१६।

न मांगल्यं भवेत्तेषां यावत्स्याद्वत्सरं ध्रुवम् ।।
यो यादृशेन रूपेण तस्यां तिष्ठेच्छुभे दिने ।१७।

आवर्षं तद्भवेत्तस्य तस्मान्मंगलमाचरेत् ।
यदीच्छेत्स्वशुभान्भोगान्भोक्तुं दिव्यान्मनोहरान् ।१८।
______    
कुरु दीपोत्सवं रम्यं त्रयोदश्यादिकेषु च ।
शंकरश्च भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थिते ।१९ ।

गौर्या जित्वा पुरा शम्भुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः ।
अतोऽर्थं शंकरो दुःखी गौरी नित्यं सुखस्थिता । 2.4.10.२०।

द्यूतं निषिद्धं सर्वत्र हित्वा प्रतिपदं बुधाः ।
प्रथमं विजयो यस्य तस्य संवत्सरं सुखम् ।२१।

भवान्याऽभ्यर्थिता लक्ष्मीर्धेनुरूपेण संस्थिता।
प्रातर्गोवर्द्धनः पूज्यो द्यूतं रात्रौ समाचरेत् ।२२।

भूषणीयास्तदा गावो वर्ज्या वहनदोहनात् ।२३।

गोवर्द्धन धराऽऽधार गोकुलत्राणकारक ।।
विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव ।२४।

या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।।
घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु ।२५ ।

अग्रतः संतु मे गावो गावो मे संतु पृष्ठतः ।।
गावो मे हृदयं संतु गवां मध्ये वसाम्यहम् । २६ ।

           " इति गोवर्द्धनपूजा ।।
सद्भावेनैव संतोष्य देवान्सत्पुरुषान्नरान् ।।
इतरेषामन्नपानैर्वाक्यदानेन पंडितान् ।२७।

वस्त्रैस्तांबूलधूपैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः ।।
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरंतःपुरनिवासिनः ।२८।

ग्राम्यान्वृषभदानैश्च सामंतान्नृपतिर्धनैः ।
पदातिजनसंघांश्च ग्रैवेयैः कटकैः शुभैः ।।
स्वनामांकैश्च तान्राजा तोषयेत्सज्जनान्पृथक् ।२९।

यथार्थं तोषयित्वा तु ततो मल्लान्नरांस्तथा ।।
वृषभान्महिषांश्चैव युध्यमानान्परैः सह । 2.4.10.३०।

राज्ञस्तथैव योधांश्च पदातीन्समलंकृतान् ।
मंचाऽऽरूढः स्वयं पश्येन्नटनर्तकचारणान् । ३१।

युद्धापयेद्वासयेच्च गोमहिष्यादिकं च यत् ।
वत्सानाकर्षयेद्गोभिरुक्तिप्रत्युक्तिवादनात् ।३२ ।

ततोऽपराह्नसमये पूर्वस्यां दिशि सुव्रत ।।
मार्गपालीं प्रबध्नाति दुर्गस्तंभेऽथ पादपे ।३३।

कुशकाशमयीं दिव्यां लंबकैर्बहुभिः प्रिये ।।
वीक्षयित्वा गजानश्वान्मार्गपाल्यास्तले नयेत् ।३४।

गावो वृषांश्च महिषान्महिषीर्घटकोत्कटान् ।
कृतहोमैर्द्विजेंद्रैस्तु बध्नीयान्मार्गपालिकाम् ।३५ ।

नमस्कारं ततः कुर्यान्मन्त्रेणानेन सुव्रत ।।
मार्गपालि नमस्तुभ्यं सर्वलोकसुखप्रदे ।।
तले तव सुखेनाश्वा गजा गावश्च संतु मे ।। ३६ ।।

मार्गपालीतले पुत्र यांति गावो महावृषाः ।।
राजानो राजपुत्राश्च ब्राह्मणाश्च विशेषतः ।३७।

मार्गपाली समुल्लंघ्य नीरुजः सुखिनो हि ते ।।
कृत्वैतत्सर्वमेवेह रात्रौ दैत्यपतेर्बलेः ।। ३८ ।।
______________________
पूजां कुर्यात्ततः साक्षाद्भूमौ मंडलके कृते ।।
बलिमालिख्य दैत्येंद्रं वर्णकैः पंचरंगकैः ।। ३९ ।।

सर्वाभरणसंपूर्णं विंध्यावलिसमन्वितम् ।।
कूष्मांडमयजंभोरुमधुदानवसंवृतम् ।। 2.4.10.४० ।।

संपूर्णं कृष्टवदनं किरीटोत्कटकुण्डलम् ।
द्विभुजं दैत्यराजानं कारयित्वा स्वके पुनः । ४१।

गृहस्य मध्ये शालायां विशालायां ततोऽर्चयेत् ।।
मातृभ्रातृजनैः सार्द्धं संतुष्टो बन्धुभिः सह ।। ४२ ।।

कमलैः कुमुदैः पुष्पैः कह्लारै रक्तकोत्पलैः ।।
गन्धपुष्पान्ननैवेद्यैः सक्षीरैर्गुडपायसैः ।। ४३ ।।
_____________________
मद्यमांससुरालेह्यचोष्यभक्ष्योपहारकैः ।।
मन्त्रेणाऽनेन राजेंद्र समन्त्री सपुरोहितः ।।
पूजां करिष्यते यो वै सौख्यं स्यात्तस्य वत्सरम् ।। ४४ ।।

बलिराज नमतुभ्यं विरोचनसुत प्रभो ।।
भविष्येंद्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।। ४५ ।।

__________    
एवं पूजाविधानेन रात्रौ जागरणं ततः ।।
कारयेद्वै क्षणं रात्रौ नटनृत्यकथानकैः ।। ४६ ।।

लोकश्चापि गृहस्यांते सपर्यां शुक्लतंदुलैः ।।
संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैः प्रपूजयेत्।४७ ।।
______
बलिमुद्दिश्य वै तत्र कार्यं सर्व च सुव्रत ।।
यानि यान्यक्षयाण्याहुर्मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ।। ४८ ।।
_____ 
यदत्र दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।।
तदक्षयं भवेत्सर्वं विष्णोः प्रीतिकरं शुभम् ।।४९ ।।

रात्रौ ये न करिष्यंति तव पूजां बले नराः ।
तेषां च श्रोत्रियो धर्मः सर्वस्त्वामुपतिष्ठतु ।। 2.4.10.५० ।।

विष्णुना च स्वयं वत्स तुष्टेन बलये पुनः ।।
उपकारकरं दत्तमसुराणां महोत्सवम् ।।५१।।

______________
एकमेवमहोरात्रं वर्षेवर्षे च कार्तिके ।।
दत्तं दानवराजस्य आदर्शमिव भूतले ।।५२।।

यः करोति नृपो राज्ये तस्य व्याधिभयं कुतः ।।
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं तस्य संपदनुत्तमा ।। ५३ ।।

नीरुजश्च जनाः सर्वे सर्वोपद्रववर्जिताः । ५४।

कौमुदी क्रियते यस्माद्भावं कर्तुं महीतले ।।
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां च सुव्रत ।।
हर्षदुःखादिभावेन तस्य वर्षं प्रयाति हि ।५५।

रुदिते रोदितं वर्षं प्रहृष्टे तु प्रहर्षितम् ।।
भुक्तौ भोग्यं भवेद्वर्षं स्वस्थे स्वस्थं भविष्यति ।। ५६ ।।
वैष्णवी दानवी चेयं तिथिः प्रोक्ता च कार्तिके ।। ५७ ।।

दीपोत्सवं जनितसर्वजनप्रमोदं कुर्वंति ये शुभतया वलिराजपूजाम्।
दानोपभोगसुखबुद्धिमतां कुलानां हर्षं प्रयाति सकलं प्रमुदा च वर्षम् ।।५८।।

______   
बलिपूजां विधायैवं पश्चाद्गोक्रीडनं चरेत् ।५९ ।
_____________
गवां क्रीडादिने यत्र रात्रौ दृश्येत चन्द्रमाः ।।
सोमो राजा पशून्हंति सुरभीपूजकांस्तथा ।। 2.4.10.६०।

प्रतिपद्दर्शसंयोगे क्रीडनं तु गवां मतम् ।।
परविद्धासु यः कुर्यात्पुत्रदारधनक्षयः । ६१।

अलंकार्यास्तदा गावो गोग्रासादिभिरर्चिताः ।।
गीतवादित्रनिर्घोषैर्नयेन्नगरबाह्यतः ।।
आनीय च ततः पश्चात्कुर्यान्नीराजनाविधिम् ।६२।

अथ चेत्प्रतिपत्स्वल्पा नारी नीराजनं चरेत् ।।
द्वितीयायां ततः कुर्यात्सायं मंगलमालिकाः ।६३ ।।

एवं नीराजनं कृत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।
प्रतिपत्पूर्वविद्धैव यष्टिकाकर्षणे भवेत् ।६४।

कुशकाशमयीं कुर्याद्यष्टिकां सुदृढां नवाम् ।।
देवद्वारे नृपद्वारेऽथवाऽऽनेया चतुष्पथे ।। ६५ ।।

तामेकतो राजपुत्रा हीनवर्णास्तथैकतः ।।
गृहीत्वा कर्षयेयुस्ते यथासारं मुहुर्मुहुः ।। ६६ ।।

समसंख्या द्वयोः कार्या सर्वेऽपि बलवत्तराः ।।
जयोऽत्र हीनजातीनां जयो राज्ञस्तु वत्सरम्।६७।

उभयोः पृष्ठतः कार्या रेखा तत्कर्षकोपरि ।।
रेखांते यो नयेत्तस्य जयो भवति नाऽन्यथा।६८ ।।

जयचिह्नमिदं राजा निदधीत प्रयत्नतः ।। ६९।

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे कार्तिकमासमाहात्म्ये कार्तिकशुक्लप्रतिपन्माहात्म्यवर्णनंनाम दशमोऽध्यायः ।१० ।
___________________


यह स्कंद पुराण के वैष्णव-खंड के कार्तिकमास-महात्म्य का दसवां अध्याय है।

अध्याय 10 - कार्तिक शुक्ल पक्ष के पहले दिन का माहात्म्य

 कार्तिकमास-महात्म्य


                    ब्रह्मा ने कहा :
1. प्रतिपदा के दिन ( कार्तिक के पहले दिन )

 भक्त को उबटन लगाकर स्नान करना चाहिए और फिर नीराजन संस्कार करना चाहिए।

 उसे साफ-सुथरे कपड़े पहनकर अच्छी कहानियाँ सुनने, गीत गाने और उपहार देने में दिन बिताना चाहिए।

2.भगवान शंकर ने पहले कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष के पहले दिन आकर्षक द्यूत (पासा का खेल) बनाया था  ये सच है।

3-4 बालि के राज्य का माहात्म्य (कथन) यथार्थतः सुनो। स्त्री-पुरुषों को  तिल मसूड़े) के तेल से स्नान करना चाहिए। यदि भ्रमवश कोई ऐसा नहीं करता, तो वह यम के लोक में जाता है ।
______________________
4बी-5. पूर्व में, कृतयुग की शुरुआत में , बाली दानवों का महान राजा था । पृथ्वी और अपना सिर भी उन्होंने वामन को दे दिया था। 
उस समय भगवान स्वयं प्रसन्न हो गये और उन्होंने बलि से कहाः [1]

6-8. “हे निष्पाप, चूँकि आपने कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के पहले दिन( प्रतिपदा) को बड़ी भक्ति से मुझे पृथ्वी दी है, इसलिए मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें वरदान दूँगा। हे राजा।”

यह कहने के बाद, उन्होंने वरदान दिया: “हे राजा, कार्तिक महीने की पहली तिथि आपके नाम से जानी जाएगी।

 हे राजन, यदि भक्त इस दिन तेल स्नान आदि करके पूजा करते हैं, तो इससे अक्षय लाभ मिलता है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।"

9-12. तभी से प्रतिपदा तिथि संसार में अत्यंत प्रसिद्ध हो गयी।

 यदि प्रतिपदा पिछली तिथि (अर्थात् अमावस्या) को ओवरलैप करता है तो इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। [2]

यदि प्रतिपदा के दिन लगभग एक मुहूर्त अवधि का दर्श (अमावस्या) हो तो तेल से स्नान नहीं करना चाहिए , 
अन्यथा मृत्यु हो जाती है।
____________     
यदि बलि की प्रतिपदा को दर्श (अमावस्या) हो और उस दिन कोई शुभ संस्कार किया जाए तो उसका धन आदि नष्ट हो जाएगा।

यदि बलि-प्रतिपदा (कार्तिक का पहला दिन) दर्श द्वारा दूषित हो और यदि कोई महिला उस दिन भ्रमवश आर्तिक्य (चेहरे के चारों ओर दीपक लहराना) करती है, तो महिलाओं को विधवापन का सामना करना पड़ेगा और उनकी संतान निश्चित रूप से मर जाएगी .

13-15. यदि अगले दिन कम से कम एक मुहूर्त (48 मिनट) के लिए बिना ओवरलैप किए प्रतिपदा हो तो उसे ही विद्वानों द्वारा बताए गए पवित्र संस्कारों, त्योहारों आदि के लिए स्वीकार किया जाना चाहिए।

यदि अगले दिन थोड़ी देर के लिए भी प्रतिपदा न हो तो जो प्रतिपदा अतिव्याप्त हो उसे ग्रहण किया जा सकता है। ऐसा करने पर कोई पाप नहीं होगा. उस दिन आंगन में गाय के गोबर से एक मूर्ति बनानी चाहिए; उसके सामने दही छिड़कना चाहिए.

16-20. वहां अर्तिक्य (?) रखने के बाद भक्त को आदेश के अनुसार ऐसा करना चाहिए।

हे महान ऋषि, उस दिन यदि लोग अशुद्ध वस्त्रों से स्नान नहीं करते हैं, तो उस पूरे वर्ष के दौरान निश्चित रूप से उनके लिए कुछ भी शुभ नहीं होगा।
______________

पूरे वर्ष व्यक्ति उसी रूप और विशेषताओं में रहेगा जैसा उस शुभ दिन पर था। अत: मनुष्य को शुभ संस्कार करने चाहिए।
______________________
यदि कोई अत्यंत शानदार, दिव्य और मनमोहक सुखों का आनंद लेना चाहता है, तो उसे तेरहवें और उसके बाद के दिनों में रोशनी का सुंदर त्योहार मनाना चाहिए।
__________
शंकर और भवानी पहले मनोरंजन के लिए पासे का खेल खेलते थे। खेल में गौरी ने शम्भु को हरा दिया और नग्न अवस्था में छोड़ दिया। इसी कारण से शंकर दुखी हो गए जबकि गौरी हमेशा खुश रहती थीं।

21. हे बुद्धिमान पुरूषों! इस प्रतिपदा को छोड़कर अन्य सभी समय पासों का खेल (जुआ) वर्जित है।
______________________
 यदि कोई शुरुआत में ही गेम जीत जाता है, तो उसे पूरे साल खुशी मिलेगी।

22. भवानी द्वारा मांगी गई लक्ष्मी गाय के रूप में ही रहीं। [3] सुबह गोवर्धन की पूजा की जाती है और रात में पासे का खेल खेला जाता है।

23-26. गायों का श्रृंगार करना चाहिए (किन्तु) उनका दूध नहीं निकालना चाहिए। बैलों को बोझ उठाने के काम में नहीं लगाना चाहिए: “हे गोवर्धन, हे पृथ्वी के पालनकर्ता, हे गायों के झुंड के रक्षक, तुम्हें विष्णु की भुजाओं ने ऊपर उठाया है ; (मेरे लिए) करोड़ों गौओं के दाता बनो। लक्ष्मी मेरे पापों को दूर करें, जो लक्ष्मी संसार के अभिभावकों के लिए गाय के रूप में खड़ी थीं और जो यज्ञ के लिए घी धारण करती हैं । गौओं को मेरे सामने रहने दो। गायों को मेरे पीछे रहने दो। गौओं को मेरे हृदय में रहने दो। मैं गायों के बीच रहता हूं।”

इस प्रकार गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।

27-29. राजा को विभिन्न प्रकार के लोगों को उपयुक्त उपहार आदि देकर प्रसन्न करना चाहिए। देवताओं और साधु लोगों को अच्छाई (स्वभाव और व्यवहार) से प्रसन्न करना चाहिए। दूसरों को भोजन देकर; विद्वानों ने उन्हें विवाद का अवसर देकर, और भीतरी सदन के सदस्यों को वस्त्र, पान के पत्ते, धूप, फूल, कपूर, केसर, विभिन्न प्रकार के भोजन और विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के माध्यम से। उसे ग्रामीण लोगों को बैल देकर और जागीरदार राजाओं को धन देकर संतुष्ट करना चाहिए। (सामान्य) लोगों के समूह तथा पैदल सेना को उत्तम हारों द्वारा प्रसन्न करना चाहिए। राजा को अच्छे लोगों को विशेष रूप से अपना नाम अंकित किये हुए शानदार कंगन देकर संतुष्ट करना चाहिए।

30-32. (सभी को) उचित रूप से संतुष्ट करने के बाद, राजा को पहलवानों और अन्य पुरुषों, बैल, भैंसों और राजा के अच्छी तरह से सुसज्जित पैदल सैनिकों [सैनिकों?] की लड़ाई (लड़ाई, द्वंद्व आदि) देखनी चाहिए। [4] उसे एक (ऊँचे) मंच पर बैठकर अभिनेताओं, नर्तकों और चारणों को व्यक्तिगत रूप से देखना चाहिए और गायों और भैंसों को लड़ाना चाहिए और फिर उन्हें ढकने के लिए वस्त्र प्रदान करना चाहिए।
________________
 गाय के माध्यम से बछड़ों को आकर्षित करना चाहिए। तर्क-प्रतिवाद हो सकते हैं.

33-35. फिर, दोपहर में, हे पवित्र संस्कारों के ऋषि, भक्त पूर्वी दिशा में मार्गपाली [5] (सड़क रक्षक - कुश और काश घास से बनी एक देवता) की मूर्ति स्थापित करते हैं । वे इसे किले के खंभों और पेड़ों पर लगाते हैं। पुतला दैवीय स्वरूप का होगा जिसमें अनेक सामग्रियां होंगी। घोड़ों और हाथियों को मार्गपाली के नीचे ले जाना चाहिए। गाय, बैल, नर भैंस और मादा भैंस को बड़े झुंड में बांध कर रखना चाहिए। जिन प्रतिष्ठित ब्राह्मणों ने होम किया है , उनके द्वारा उन्हें मार्गपालिका (पास) बंधवाना चाहिए।

36. फिर, हे अच्छे पवित्र संस्कारों के ऋषि, उसे इस मंत्र को दोहराते हुए प्रणाम करना चाहिए : "हे मार्गपाली, आपको प्रणाम, हे सभी संसारों को सुख देने वाले, घोड़े, हाथी और गाय आपके नीचे खुशी से रहें।"

37. हे पुत्र, गायों, बड़े बैलों, राजाओं, राजकुमारों और ब्राह्मणों को विशेष रूप से मार्गपाली के नीचे जाना चाहिए।

38-44. मार्गपाली को पार करने से वे रोगों से मुक्त हो जाते हैं। वे खुश हैं।


___________  



यह सब करने के बाद भक्त को दैत्यों के राजा बलि [6] की पूजा सीधे जमीन पर बने रहस्यमय चित्र में करनी चाहिए। रात्रि में पांच अलग-अलग रंगों से महादानव बलि का चित्र बनाकर पूजा की जानी चाहिए। उसे सम्पूर्ण आभूषणों से सुशोभित तथा विन्ध्यावली सहित होना चाहिए । वह दानव, कुष्मांडा , माया , जंभा, श्रु और मधु से घिरा हुआ है । पूरे चेहरे का रंग काला है. उसके पास शानदार कान की बालियाँ और एक मुकुट है। दैत्यों के राजा की केवल दो भुजाएँ होनी चाहिए।

चित्र बनाने के बाद उसे अपने घर में ही किसी बड़े हॉल में माता, भाई, बन्धु-बान्धवों तथा अन्य लोगों के साथ उसका पूजन करना चाहिए।

उनकी पूजा कमल, कुमुदिनी, लाल कमल तथा सुगंधित पुष्पों से करनी चाहिए। पके हुए चावल, दूध, गुड़, दूध की खीर, मदिरा, मांस, मदिरा, विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों (चाटने, चूसने और खाने आदि की वस्तुएं) का नैवेद्य होना चाहिए । प्रतिष्ठित राजा को अपने मंत्रियों तथा पुरोहितों के साथ निम्नलिखित मंत्र से पूजा करनी चाहिए। वह एक साल तक खुश रहेगा:
_____    
45. “हे राजा बलि, हे स्वामी, हे विरोचन के पुत्र , हे देवों के शत्रु, भविष्य के इंद्र , आपको नमस्कार है ; यह पूजा स्वीकार की जाए।”

46-48. इस पूजा को विधि-विधान से करने के बाद रात्रि जागरण करना चाहिए। उसे रात के समय नृत्य और कथा वाचन के माध्यम से एक महान उत्सव मनाना चाहिए।
___________________
आम लोगों को भी अपने घरों में सफेद चावल के दानों का प्रसाद रखना चाहिए। (खीलें)

उन्हें राजा बलि की स्थापना करनी चाहिए और फल-फूलों से उनकी पूजा करनी चाहिए।

हे उत्तम पवित्र संस्कारों वाले ऋषि! यह सब बली को ध्यान में रखकर किया जाना है। जो कुछ भी किया जाता है वह सत्य को जानने वाले ऋषियों द्वारा शाश्वत लाभ देने वाला बताया गया है।

49. दान के रूप में जो कुछ भी दिया जाता है, चाहे वह मात्रा में छोटा हो या बड़ा, उससे अनन्त लाभ होता है। यह विष्णु के लिए शुभ और प्रसन्न होगा।

50. (विष्णु ने बली से इस प्रकार कहा:) "हे बली, जो मनुष्य तुम्हारी पूजा नहीं करते उनके सभी वैदिक संस्कार तुम्हारे पास आ जाएं।"
___________________"""
51. असुरों का पक्ष लेने वाला यह महान त्योहार , हे प्रिय, विष्णु ने प्रसन्न होकर बलि को प्रदान किया था।

______________________

52-55. इस प्रकार, हर साल कार्तिक महीने में एक दिन और एक रात पृथ्वी पर दानवों के राजा को दी जाती है, जैसे कि यह उनके लिए आदर्श हो।

____________________
यदि कोई राजा ऐसा करेगा तो उसके राज्य में बीमारी का भय कैसे रहेगा? वहाँ समृद्धि और प्रचुरता, कल्याण और उत्तम स्वास्थ्य होगा। 
उसका धन उत्तम होगा। सभी लोग रोगों से मुक्त होंगे और सभी प्रकार की विपत्तियों से रहित होंगे। हे अच्छे पवित्र संस्कारों के ऋषि, कौमुदी का यह त्योहार पृथ्वी पर महान भावनाओं और संवेदनाओं को उत्पन्न करने और विनियमित करने के लिए मनाया जाता है। 

प्रत्येक व्यक्ति को इस विशेष दिन पर उसके कार्य करने के तरीके के अनुसार प्रसन्नता या निराशा, शोक या शोक होगा।

56-57. यदि कोई रोए, तो सारा वर्ष विलाप का वर्ष होगा; यदि वह समलैंगिक है, तो पूरा वर्ष उल्लास का होगा; यदि वह सुख भोगता (खाता-पीता) तो पूरा वर्ष सुखमय हो जाता है। यदि वह सामान्य और स्वस्थ है, तो वह (पूरे वर्ष) ऐसा ही रहेगा। 

कार्तिक माह की यह तिथि विष्णु के साथ-साथ दानव के लिए भी विशेष बताई गई है।
_______________     
58. जो लोग सभी लोगों को प्रसन्न करते हुए रोशनी का त्योहार शानदार ढंग से मनाते हैं और जो राजा बलि की शुभ पूजा करते हैं, उनके (उनके) परिवारों का पूरा वर्ष (जो) दान, भोग, आनंद और बुद्धि से संपन्न होता है, आनंद से गुजरेगा। और सर्वत्र अत्यधिक आनंद।
____________    
59-60. बलि की पूजा करने के बाद, भक्त को गोकृष्ण [7] (गायों और बैलों का खेल) मनाना चाहिए। यदि गाय की क्रीड़ा के दिन चंद्रमा दिखाई दे, तो सोम राजा (चमकता हुआ चंद्रमा) जानवरों और गाय के उपासकों को मार डालता है।

61. जिस दिन दर्श (अमावस्या) प्रतिपदा (पहले दिन) हो उस दिन गायों की क्रीड़ा मनानी चाहिए । यह स्वीकृत स्थिति है. यदि कोई व्यक्ति इसे ऐसे दिन मनाता है जब प्रतिपदा द्वितीया से आच्छादित हो , तो उसे धन का नाश और पत्नी और पुत्र की मृत्यु का सामना करना पड़ेगा।

62. तब गायों का श्रृंगार किया जाता है। गोग्रास आदि प्रसाद से उनकी पूजा करनी चाहिए । उन्हें वाद्य और स्वर संगीत के साथ शहर से बाहर ले जाया जाना चाहिए। फिर उन्हें वापस लाया जाना चाहिए और नीराजन का संस्कार किया जाना चाहिए।

63. यदि प्रतिपदा की अवधि कम हो तो स्त्री को नीराजन संस्कार करना चाहिए। इसके बाद दूसरे दिन शाम को वरमाला का शुभ संस्कार किया जाएगा।

64. यदि प्रतिपदा को पिछली तिथि (अमावस्या) के साथ जोड़ा जाए, तो यष्टिकाकर्षण [8] (छड़ी/डोरी को बाहर निकालना?) संस्कार किया जाना चाहिए।

65-66. यष्टिका (डोरी) कुश की बनी होनी चाहिए । यह ताज़ा और दृढ़ होना चाहिए। उसे मंदिर के प्रवेश द्वार, राजा के महल या चार सड़कों के चौराहे पर लाया जाना चाहिए। राजकुमारों को एक छोर पकड़ना चाहिए और निचली जाति के लोगों को दूसरा छोर। इसे पकड़ने के बाद वे इसे जितनी बार भी उनकी ताकत अनुमति दे, खींचेंगे।

67-69. दोनों टीमों में समान संख्या में व्यक्ति शामिल होने चाहिए। ये सभी बहुत मजबूत होने चाहिए. यदि इस (रस्साकशी) में निम्न जाति की जीत हो तो राजा पूरे वर्ष विजयी रहेगा। डोरी पकड़ने वाली प्रत्येक टीम के पीछे एक रेखा खींची जानी चाहिए। यदि लोग सीमा लांघते हैं तो उन्हें जीता हुआ माना जाता है, अन्यथा नहीं। राजा को ही विजय की यह रेखा सावधानीपूर्वक खींचनी है।
______________________
फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :

वीवी 6-8 बताएं कि कार्तिक के शुक्ल पक्ष के पहले दिन को बली प्रतिपदा क्यों कहा जाता है ।

[2] :

वीवी 9-14 निर्दिष्ट करें कि किसे प्रतिपदा तिथि के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए ।

[3] :

वीवी 22-29 में गोवर्धन पूजा की प्रथा का वर्णन है। गोवर्धन मथुरा जिले में वृन्दावन से 18 मील दूर एक पहाड़ी है। (यूपी) कहा जाता है कि कृष्ण ने इसे अपनी छोटी उंगली पर धारण किया था और इसकी छत्रछाया में गायों, बछड़ों और व्रज के लोगों की रक्षा की थी, जबकि इंद्र ने एक सप्ताह तक भारी बारिश की थी।

[4] :

वीवी 30-32 राजा को पुरुषों के साथ-साथ जानवरों के युद्ध-खेल देखने की सलाह देता है।

[5] :

वीवी 33-37 मार्गपाली के संबंध में प्रक्रिया का वर्णन करता है। यह देवता रास्ते में गायों आदि का रक्षक माना जाता है।

[6] :
______
वीवी 39-58 में बलि पूजा की विधि बताई गई है।

[7] :

वीवी 59-63: गाय के खेल: सांडों की लड़ाई इस त्योहार का एक हिस्सा है।

[8] :

वीवी 64-69. यह एक दिलचस्प सामाजिक घटना है: एक रस्साकशी जिसमें बांस की छड़ी या कुशा घास की रस्सी का उपयोग किया जाता है।

पद्मपुराणम्‎ | खण्डः (६) (उत्तरखण्डः)

अध्यायः ।१२२।

< स्कन्दपुराणम्‎ | खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)‎ | कार्तिकमासमाहात्म्यम्
                  ' ब्रह्मोवाच 
प्रतिपद्यथ चाऽभ्यंगं कृत्वा नीराजनं ततः ।।
सुवेषः सत्कथागीतैर्दानैश्च दिवसं नयेत् ।। १ ।।
शंकरस्तु पुरा द्यूतं ससर्ज सुमनोहरम् ।।
कार्तिके शुक्लपक्षे तु प्रथमेऽहनि सत्यवत् ।। २ ।।
बलिराज्यदिनस्याऽपि माहात्म्यं शृणु तत्त्वतः ।।
स्नातव्यं तिलतैलेन नरैर्नारीभिरेव च ।। ३ ।।
यदि मोहान्न कुर्वीत स याति यमसादनम् ।।
पुरा कृतयुगस्यादौ दानवेंद्रो बलिर्महान् ।। ४ ।।
तेन दत्ता वामनाय भूमिः स्वमस्तकान्विता ।।
तदानीं भगवान्साक्षात्तुष्टो बलिमुवाच ह ।। ५।।
कार्तिके मासि शुक्लायां प्रतिपद्यां यतो भवान् ।।
भूमिं मे दत्तवान्भक्त्या तेन तुष्टोऽस्मि तेऽनघ।६ ।।
वरं ददामि ते राजन्नित्युक्त्वाऽदाद्वरं तदा ।।
त्वन्नाम्नैव भवेद्राजन्कार्तिकी प्रतिपत्तिथिः।। ७ ।।
एतस्यां ये करिष्यंति तैलस्नानादिकार्चनम् ।।
तदक्षयं भवेद्राजन्नात्र कार्या विचारणा ।। ८ ।।
तदाप्रभृति लोकेऽस्मिन्प्रसिद्धा प्रतिपत्तिथिः ।।
प्रतिपत्पूर्वविद्धा नो कर्तव्या तु कथंचन ।। ९ ।।
तत्राभ्यंगं न कुर्वीत अन्यथा मृतिमाप्नुयात् ।।
प्रतिपद्यां यदा दर्शो मुहूर्तप्रमितो भवेत् ।। । । 2.4.10.१० ।।
मांगल्यं तद्दिने चेत्स्याद्वित्तादिस्तस्य नश्यति ।।
बलेश्च प्रतिपद्दर्शाद्यदि विद्धं भविष्यति ।। ११ ।।
तस्यां यद्यथ चाऽऽर्तिक्यं नारी मोहात्करिष्यति ।।
नारीणां तत्र वैधव्यं प्रजानां मरणं ध्रुवम् ।। १२ ।।
अविद्धा प्रतिपच्चेत्स्यान्मुहूर्तमपरेऽहनि ।।
उत्सवादिककृत्येषु सैव प्रोक्ता मनीषिभिः ।१३ ।।
प्रतिपत्स्वल्पमात्राऽपि यदि न स्यात्परेऽहनि ।।
पूर्वविद्धा तदा कार्या कृता नो दोषभाग्भवेत् ।१४।
तद्दिने गृहमध्ये तु कुर्यान्मूर्तिं तदांगणे ।।
गोमयेन च तत्राऽपि दधि तत्पुरतः क्षिपेत् ।। १५।
आर्तिक्यं तत्र संस्थाप्य एवं कुर्याद्विधानतः ।।
अभ्यंगं ये न कुर्वंति तस्यां तु मुनिपुंगव ।। १६ ।।
न मांगल्यं भवेत्तेषां यावत्स्याद्वत्सरं ध्रुवम् ।।
यो यादृशेन रूपेण तस्यां तिष्ठेच्छुभे दिने ।। १७ ।।
आवर्षं तद्भवेत्तस्य तस्मान्मंगलमाचरेत् ।।
यदीच्छेत्स्वशुभान्भोगान्भोक्तुं दिव्यान्मनोहरान् ।। १८ ।।
कुरु दीपोत्सवं रम्यं त्रयोदश्यादिकेषु च ।।
शंकरश्च भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थिते ।। १९ ।।
गौर्या जित्वा पुरा शंभुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः ।।
अतोऽर्थं शंकरो दुःखी गौरी नित्यं सुखस्थिता ।। 2.4.10.२० ।।
द्यूतं निषिद्धं सर्वत्र हित्वा प्रतिपदं बुधाः ।।
प्रथमं विजयो यस्य तस्य संवत्सरं सुखम् ।। २१ ।।
भवान्याऽभ्यर्थिता लक्ष्मीर्धेनुरूपेण संस्थिता ।।
प्रातर्गोवर्द्धनः पूज्यो द्यूतं रात्रौ समाचरेत् ।। २२ ।।
भूषणीयास्तदा गावो वर्ज्या वहनदोहनात् ।। २३ ।।
गोवर्द्धन धराऽऽधार गोकुलत्राणकारक ।।
विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव ।। २४ ।।
या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।।
घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु ।। २५ ।।
अग्रतः संतु मे गावो गावो मे संतु पृष्ठतः ।।
गावो मे हृदयं संतु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।। २६ ।।
।। इति गोवर्द्धनपूजा ।। ।।
सद्भावेनैव संतोष्य देवान्सत्पुरुषान्नरान् ।।
इतरेषामन्नपानैर्वाक्यदानेन पंडितान् ।। २७ ।।
वस्त्रैस्तांबूलधूपैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः ।।
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरंतःपुरनिवासिनः ।।२८।।
ग्राम्यान्वृषभदानैश्च सामंतान्नृपतिर्धनैः ।।
पदातिजनसंघांश्च ग्रैवेयैः कटकैः शुभैः ।।
स्वनामांकैश्च तान्राजा तोषयेत्सज्जनान्पृथक् ।। २९ ।।
यथार्थं तोषयित्वा तु ततो मल्लान्नरांस्तथा ।।
वृषभान्महिषांश्चैव युध्यमानान्परैः सह ।। 2.4.10.३० ।।
राज्ञस्तथैव योधांश्च पदातीन्समलंकृतान् ।।
मंचाऽऽरूढः स्वयं पश्येन्नटनर्तकचारणान् ।। ३१ ।।
युद्धापयेद्वासयेच्च गोमहिष्यादिकं च यत् ।।
वत्सानाकर्षयेद्गोभिरुक्तिप्रत्युक्तिवादनात् ।। ३२ ।।
ततोऽपराह्नसमये पूर्वस्यां दिशि सुव्रत ।।
मार्गपालीं प्रबध्नाति दुर्गस्तंभेऽथ पादपे ।।३३।।
कुशकाशमयीं दिव्यां लंबकैर्बहुभिः प्रिये ।।
वीक्षयित्वा गजानश्वान्मार्गपाल्यास्तले नयेत् ।। ३४ ।।
गावो वृषांश्च महिषान्महिषीर्घटकोत्कटान् ।।
कृतहोमैर्द्विजेंद्रैस्तु बध्नीयान्मार्गपालिकाम् ।। ३५ ।।
नमस्कारं ततः कुर्यान्मन्त्रेणानेन सुव्रत ।।
मार्गपालि नमस्तुभ्यं सर्वलोकसुखप्रदे ।।
तले तव सुखेनाश्वा गजा गावश्च संतु मे ।। ३६ ।।
मार्गपालीतले पुत्र यांति गावो महावृषाः ।।
राजानो राजपुत्राश्च ब्राह्मणाश्च विशेषतः ।। ३७ ।।
मार्गपाली समुल्लंघ्य नीरुजः सुखिनो हि ते ।।
कृत्वैतत्सर्वमेवेह रात्रौ दैत्यपतेर्बलेः ।। ३८ ।।
पूजां कुर्यात्ततः साक्षाद्भूमौ मंडलके कृते ।।
बलिमालिख्य दैत्येंद्रं वर्णकैः पंचरंगकैः ।। ३९ ।।
सर्वाभरणसंपूर्णं विंध्यावलिसमन्वितम् ।।
कूष्मांडमयजंभोरुमधुदानवसंवृतम् ।। 2.4.10.४० ।।
संपूर्णं कृष्टवदनं किरीटोत्कटकुण्डलम् ।।
द्विभुजं दैत्यराजानं कारयित्वा स्वके पुनः ।। ४१ ।।
गृहस्य मध्ये शालायां विशालायां ततोऽर्चयेत् ।।
मातृभ्रातृजनैः सार्द्धं संतुष्टो बन्धुभिः सह ।। ४२ ।।
कमलैः कुमुदैः पुष्पैः कह्लारै रक्तकोत्पलैः ।।
गन्धपुष्पान्ननैवेद्यैः सक्षीरैर्गुडपायसैः ।। ४३ ।।
मद्यमांससुरालेह्यचोष्यभक्ष्योपहारकैः ।।
मन्त्रेणाऽनेन राजेंद्र समन्त्री सपुरोहितः ।।
पूजां करिष्यते यो वै सौख्यं स्यात्तस्य वत्सरम् ।। ४४ ।।
बलिराज नमतुभ्यं विरोचनसुत प्रभो ।।
भविष्येंद्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।। ४५ ।।
एवं पूजाविधानेन रात्रौ जागरणं ततः ।।
कारयेद्वै क्षणं रात्रौ नटनृत्यकथानकैः ।। ४६ ।।
लोकश्चापि गृहस्यांते सपर्यां शुक्लतंदुलैः ।।
संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैः प्रपूजयेत् ।। ४७ ।।
बलिमुद्दिश्य वै तत्र कार्यं सर्व च सुव्रत ।।
यानि यान्यक्षयाण्याहुर्मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ।। ४८ ।।
यदत्र दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।।
तदक्षयं भवेत्सर्वं विष्णोः प्रीतिकरं शुभम् ।। ।। ४९ ।।
रात्रौ ये न करिष्यंति तव पूजां बले नराः ।।
तेषां च श्रोत्रियो धर्मः सर्वस्त्वामुपतिष्ठतु ।। 2.4.10.५० ।।
विष्णुना च स्वयं वत्स तुष्टेन बलये पुनः ।।
उपकारकरं दत्तमसुराणां महोत्सवम् ।।५१।।
एकमेवमहोरात्रं वर्षेवर्षे च कार्तिके ।।
दत्तं दानवराजस्य आदर्शमिव भूतले ।।५२।।
यः करोति नृपो राज्ये तस्य व्याधिभयं कुतः ।।
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं तस्य संपदनुत्तमा ।। ५३ ।।
नीरुजश्च जनाः सर्वे सर्वोपद्रववर्जिताः ।। ।। ५४ ।।
कौमुदी क्रियते यस्माद्भावं कर्तुं महीतले ।।
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां च सुव्रत ।।
हर्षदुःखादिभावेन तस्य वर्षं प्रयाति हि ।। ।।५५।।
रुदिते रोदितं वर्षं प्रहृष्टे तु प्रहर्षितम् ।।
भुक्तौ भोग्यं भवेद्वर्षं स्वस्थे स्वस्थं भविष्यति ।। ५६ ।।
वैष्णवी दानवी चेयं तिथिः प्रोक्ता च कार्तिके ।। ५७ ।।
दीपोत्सवं जनितसर्वजनप्रमोदं कुर्वंति ये शुभतया वलिराजपूजाम् ।।
दानोपभोगसुखबुद्धिमतां कुलानां हर्षं प्रयाति सकलं प्रमुदा च वर्षम् ।।५८।।
बलिपूजां विधायैवं पश्चाद्गोक्रीडनं चरेत् ।। ५९ ।।
गवां क्रीडादिने यत्र रात्रौ दृश्येत चन्द्रमाः ।।
सोमो राजा पशून्हंति सुरभीपूजकांस्तथा ।। 2.4.10.६० ।।
प्रतिपद्दर्शसंयोगे क्रीडनं तु गवां मतम् ।।
परविद्धासु यः कुर्यात्पुत्रदारधनक्षयः ।। ६१ ।।
अलंकार्यास्तदा गावो गोग्रासादिभिरर्चिताः ।।
गीतवादित्रनिर्घोषैर्नयेन्नगरबाह्यतः ।।
आनीय च ततः पश्चात्कुर्यान्नीराजनाविधिम् ।। ६२ ।।
अथ चेत्प्रतिपत्स्वल्पा नारी नीराजनं चरेत् ।।
द्वितीयायां ततः कुर्यात्सायं मंगलमालिकाः ।। ६३ ।।
एवं नीराजनं कृत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।
प्रतिपत्पूर्वविद्धैव यष्टिकाकर्षणे भवेत् ।। ६४ ।।
कुशकाशमयीं कुर्याद्यष्टिकां सुदृढां नवाम् ।।
देवद्वारे नृपद्वारेऽथवाऽऽनेया चतुष्पथे ।। ६५ ।।
तामेकतो राजपुत्रा हीनवर्णास्तथैकतः ।।
गृहीत्वा कर्षयेयुस्ते यथासारं मुहुर्मुहुः ।। ६६ ।।
समसंख्या द्वयोः कार्या सर्वेऽपि बलवत्तराः ।।
जयोऽत्र हीनजातीनां जयो राज्ञस्तु वत्सरम् ।। ६७ ।।
उभयोः पृष्ठतः कार्या रेखा तत्कर्षकोपरि ।।
रेखांते यो नयेत्तस्य जयो भवति नाऽन्यथा ।। ६८ ।।
जयचिह्नमिदं राजा निदधीत प्रयत्नतः ।। ६९ ।।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे कार्तिकमासमाहात्म्ये कार्तिकशुक्लप्रतिपन्माहात्म्यवर्णनंनाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।।
___________________

                 "कार्तिकेय उवाच।
दीपावलिफलं नाथ विशेषाद्ब्रूहि सांप्रतम् ।
किमर्थं क्रियते सा तु तस्याः का देवता भवेत् ।१।

किं च तत्र भवेद्देयं किं न देयं वद प्रभो ।
प्रहर्षः कोऽत्र निर्दिष्टः क्रीडा कात्र प्रकीर्तिता ।२।
                 "सूत उवाच।
इति स्कंदवचः श्रुत्वा भगवान्कामशोषणः ।
साधूक्त्वा कार्तिकं विप्राः प्रहसन्निदमब्रवीत् ।३।
                  "श्रीशिव उवाच।
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां तु पावके ।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति ।४।

मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह ।
त्रयोदशीदीपदानात्सूर्यजः प्रीयतामिति ।५।

कार्तिके कृष्णपक्षे च चतुर्दश्यां विधूदये।
अवश्यमेव कर्त्तव्यं स्नानं च पापभीरुभिः 
।६।

पूर्वविद्धा चतुर्दश्या कार्तिकस्य सितेतरे ।
पक्षे प्रत्यूषसमये स्नानं कुर्यादतंद्रितः ।७।

तैले लक्ष्मीर्जले गंगा दीपावल्यां चतुर्दशीम् ।
प्राप्तः स्नानं हि यः कुर्याद्यमलोकं न पश्यति।८।

अपामार्गस्तथा तुंबी प्रपुन्नाटं च वाह्वलम् ।
भ्रामयेत्स्नानमध्ये तु नरकस्य क्षयाय वै ।९।

सीतालोष्टसमायुक्त सकंटक दलान्वित ।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनः पुनः ।१०।

अपामार्गं प्रपुन्नाटं भ्रामयेच्छिरसोपरि ।
ततश्च तर्पणं कार्यं यमराजस्य नामभिः ।११।

यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चांतकाय च ।
वैवस्ताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ।१२।

औदुंबराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने ।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः ।१३।

नरकाय प्रदातव्यो दीपः संपूज्य देवताः ।
ततः प्रदोषसमये दीपान्दद्यान्मनोहरान् ।१४।
_________________
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु विशेषतः ।
कूटागारेषु चैत्येषु सभासु च नदीषु च ।१५।

प्राकारोद्यानवापीषु प्रतोली निष्कुटेषु च।
मंदुरासु विविक्तासु हस्तिशालासु चैव हि।१६।

एवं प्रभातसमये ह्यमावास्यां तु पावकं।
स्नात्वा देवान्पितॄन्भक्त्या संपूज्याथ प्रणम्य च।१७।

कृत्वा तु पार्वणं श्राद्धं दधिक्षीरघृतादिभिः ।
भोज्यैर्नानाविधैर्विप्रान्भोजयित्वा क्षमापयेत् ।१८।

ततोपराह्णसमये पोषयेन्नागरान्प्रिय ।
तेषां गोष्ठीं च मानं च कृत्वा संभाषणं नृपः ।१९।

वक्तृणां वत्सरं यावत्प्रीतिरुत्पद्यते गुह ।
अप्रबुद्धे हरौ पूर्वं स्त्रीभिर्लक्ष्मीः प्रबोधयेत् ।२०।

प्रबोधसमये लक्ष्मीं बोधयित्वा तु सुस्त्रिया ।
पुमान्वै वत्सरं यावल्लक्ष्मीस्तं नैव मुंचति ।२१।

अभयं प्राप्य विप्रेभ्यो विष्णुभीता सुरद्विषः।
सुप्तं क्षीरोदधौ ज्ञात्वा लक्ष्मीं पद्माश्रितां तथा।२२।

त्वं ज्योतिः श्री रविश्चंद्रो विद्युत्सौवर्णतारकः।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपज्योतिः स्थिता तु या।२३।
______    
या लक्ष्मीर्दिवसे पुण्ये दीपावल्यां च भूतले ।
गवां गोष्ठे तु कार्तिक्यां सा लक्ष्मीर्वरदा मम ।२४।

शंकरश्च भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थितौ ।
भवान्याभ्यर्चिता लक्ष्मीर्धेनुरूपेण संस्थिता ।२५।
______
गौर्या जित्वा पुरा शंभुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः ।
अतोऽयं शंकरो दुःखी गौरी नित्यं सुखेस्थिता।२६।

प्रथमं विजयो यस्य तस्य संवत्सरं सुखम् ।
एवं गते निशीथे तु जने निद्रार्धलोचने ।२७।

तावन्नगरनारीभिस्तूर्य डिंडिमवादनैः ।
निष्कास्यते प्रहृष्टाभिरलक्ष्मीश्च गृहांगणात् ।२८।

पराजये विरुद्धं स्यात्प्रतिपद्युदिते रवौ ।
प्रातर्गोवर्द्धनः पूज्यो द्यूतं रात्रौ समाचरेत् ।२९।

भूषणीयास्तथा गावो वर्ज्या वहनदोहनात् ।
गोवर्द्धनधराधार गोकुलत्राणकारक ।३०।

विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव ।
या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।३१।

घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु ।
अग्रतः संतु मे गावो गावो मे संतु पृष्ठतः ।
गावो मे हृदये संतु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।३२।

इतिगोवर्द्धनपूजा ।
सद्भावेनैव संतोष्य देवान्सत्पुरुषान्नरान् ।
इतरेषामन्नपानैर्वाक्यदानेन पंडितान् ।३३।

वस्त्रैस्तांबूलदीपैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः ।
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरंतःपुर निवासिनः ।३४।

ग्रामर्षभं च दानैश्च सामंतान्नृपतिर्धनैः ।
पदातिजनसंघांश्च ग्रैवेयैः कटकैः शुभैः ।३५।

स्वानमात्यांश्च तान्राजा तोषयेत्स्वजनान्पृथक् ।
यथार्थं तोषयित्वा तु ततो मल्लान्नटांस्तथा ।३६।

वृषभांश्च महोक्षांश्च युद्ध्य्मानान्परैः सह ।
राजान्यांश्चापि योधांश्च पदातीन्स समलंकृतान्।३७।

मंचारूढः स्वयं पश्येन्नटनर्तकचारणान् ।
योधयेद्वासयेच्चैव गोमहिष्यादिकं च यत् ।३८।

वत्सानाकर्षयेद्गोभिरुक्तिप्रत्युक्ति वादनात् ।
ततोपराह्णसमये पूर्वस्यां दिशि पावके ।३९।

मार्गपालद्यं प्रबध्नीयाद्दुर्गस्तंभेऽथ पादपे ।
कुशकाशमयीं दिव्यां लंबकैर्बहुभिर्गुह ।४०।

वीक्षयित्वा गजानश्वान्मार्गपाल्यास्तले नयेत् ।
गावैर्वृषांश्चमहिषान्महिषीर्घंटिकोत्कटाः ।४१।

कृतहोमैर्द्विजेंद्रैस्तु बध्नीयान्मार्गपालिकाम् ।
नमस्कारं ततः कुर्यान्मंत्रेणानेन सुव्रतः ।४२।

मार्गपालि नमस्तुभ्यं सर्वलोकसुखप्रदे ।
मार्गपालीतले स्कंद यांति गावो महावृषाः ।४३।

राजानो राजपुत्राश्च ब्राह्मणाश्च विशेषतः ।
मार्गपालद्यं समुल्लंघ्य निरुजः सुखिनो हि ते ।४४।

कृत्वैतत्सर्वमेवेह रात्रौ दैत्यपतेर्बलेः ।
पूजां कुर्यात्ततः साक्षाद्भूमौ मंडलके कृते ।४५।

बलिमालिख्य दैत्येंद्रं वर्णकैः पंचरंगकैः ।
सर्वाभरणसंपूर्णं विंध्यावलिसमन्वितम् ।४६।
____________________________
कूष्मांडमय जंभोरु मधुदानवसंवृतम् ।
संपूर्णं हृष्टवदनं किरीटोत्कटकुंडलम् ।४७।

द्विभुजं दैत्यराजानं कारयित्वा स्वके पुनः ।
गृहस्य मध्ये शालायां विशालायां ततोऽर्चयेत् ।४८।

मातृभ्रातृजनैः सार्द्धं संतुष्टो बंधुभिः सह ।
कमलैः कुमुदैः पुष्पैः कल्हारै रक्तकोत्पलैः ।४९।

गंधपुष्पान्ननैवेद्यैः सक्षीरैर्गुडपायसैः ।
मद्यमांससुरालेह्य चोष्य भक्ष्योपहारकैः 6.122.५०।
मंत्रेणानेन राजेंद्र सः मंत्री सपुरोहितः ।
पूजां करिष्यते यो वै सौख्यं स्यात्तस्य वत्सरम् ५१।
बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो ।
भविष्येंद्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।५२।

एवं पूजाविधिं कृत्वा रात्रौ जागरणं ततः ।
कारयेद्वै क्षणं रात्रौ नटनर्तकगायकैः ।५३।

लोकैश्चापि गृहस्यांते सपर्यां शुक्लतंडुलैः ।
संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैश्च पूजयेत् ।५४।

बलिमुद्दिश्य वै तत्र कार्यं सर्वं च पावके ।
यानि यान्यक्षयान्याहु ऋषयस्तत्वदर्शिनः ।५५।

यदत्र दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।
तदक्षयं भवेत्सर्वं विष्णोः प्रीतिकरं शुभम् ।५६।

रात्रौ ये न करिष्यंति तव पूजां बलेर्नराः ।
तेषामश्रोत्रियं धर्मं सर्वं त्वामुपतिष्ठतु ।५७।

विष्णुना च स्वयं वत्स तुष्टेन बलये पुनः ।
उपकारकरं दत्तमसुराणां महोत्सवम् ।५८।

तदा प्रभृति सेनाने प्रवृत्ता कौमुदी सदा ।
सर्वोपद्रवविद्रावा सर्वविघ्नविनाशिनी ।५९।

लोकशोकहरा काम्या धनपुष्टिसुखावहा ।
कुशब्देन मही ज्ञेया मुद हर्षे ततो द्वयम् ।६०।

धातुत्वे निगमैश्चैव तेनैषा कौमुदी स्मृता ।
कौमोदं ते जना यस्मान्नानाभावैः परस्परम् ।६१।

हृष्टतुष्टाः सुखापन्नास्तेनैषा कौमुदी स्मृता ।
कुमुदानि बलेर्यस्यां दीयंते तेन षण्मुख ।६२।

अघार्थं पार्थिवैः पुत्र तेनैषा कौमुदी स्मृता ।
एकमेवमहोरात्रं वर्षेवर्षे च कार्तिके ।६३।

दत्तं दानवराजस्य आदर्शमिव भूतल ।
यः करोति नृपो राज्ये तस्य व्याधिभयं कुतः ।६४।

सुभिक्षं क्षेममारोग्यं तस्य संपदनुत्तमा ।
नीरुजश्च जनाः सर्वे सर्वोपद्रववर्जिताः ।६५।

कौमुदी क्रियते तस्माद्भावं कर्तुं महीतले ।
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां च षण्मुख ।६६।

हर्षदुःखादिभावेन तस्य वर्षं प्रयाति हि ।
रुदिते रोदते वर्षं हृष्टे वर्षं प्रहर्षितम् ।६७।

भुक्ते भोक्ता भवेद्वर्षं स्वस्थे स्वस्थं भविष्यति ।
तस्मात्प्रहृष्टैः कर्त्तव्या कौमुदी च शुभैर्नरैः ।६८।
____________________
वैष्णवी दानवी चेयं तिथिः प्रोक्ता च कार्तिके।
दीपोत्सवंजनित सर्वजनप्रसादं कुर्वंति ये शुभतया बलिराजपूजाम् ।६९।

दानोपभोगसुखबुद्धिमतां कुलानां हर्षं प्रयाति सकलं प्रभुदं च वर्षम् ।७०।

स्कंदैतास्तिथयो नूनं द्वितीयाद्याश्च विश्रुताः ।
मासैश्चतुर्भिश्च ततःप्रावृट्काले शुभावहाः ।७१।

प्रथमा श्रावणे मासि तथा भाद्रपदे परा ।
तृतीयाश्वयुजेमासि चतुर्थी कार्तिके भवेत् ।७२।

कलुषा श्रावणे मासि तथा भाद्रपदेमला ।
आश्विने प्रेतसंचारा कार्तिके याम्यकामता ।७३।

गुह उवाच।
कस्मात्सा कलुषा प्रोक्ता कस्मात्सा निर्मला मता ।
कस्मात्सा प्रेतसंचारा कस्माद्याम्या प्रकीर्तिता ।७४।

सूत उवाच।
इति स्कंदवचः श्रुत्वा भगवान्भूतभावनः ।
उवाच वचनं श्लक्ष्णं प्रहसन्वृषभध्वजः ।७५।

महेश उवाच।
पुरा वृत्रवधे वृत्ते प्राप्ते राज्ये पुरंदरे ।
ब्रह्महत्यापनोदार्थमश्वमेधः प्रवर्तितः ।७६।

क्रोधादिंद्रेण वज्रेण ब्रह्महत्या निषूदिता ।
षड्विधा सा क्षितौ क्षिप्ता वृक्षतोयमहीतले ।७७।

नार्यां भ्रूणहणिवह्नौ संविभज्य यथाक्रमम् ।
तत्पापश्रवणात्पूर्वं द्वितीयाया दिनेन च ।७८।

नारीवृक्षनदीभूमिवह्निभ्रूणहनस्तथा ।
कलुषीभवनं जातो ह्यतोर्थं कलुषा स्मृता ।७९।

मधुकैटभयो रक्ते पुरा मग्नानु मेदिनी ।
अष्टांगुला पवित्रा सा नारीणां तु रजोमलम् ।८०।

नद्यः प्रावृण्मला सर्वा वह्निरूर्ध्वं मषीमलः ।
निर्यासमलिना वृक्षाः संगाद्भ्रूणहनो मलाः ।८१।

कलुषानि चरंत्यस्यां तेनैषा कलुषा मता ।
देवर्षिपितृधर्माणां निंदका नास्तिकाः शठाः ।८२।

तेषां सा वाङ्मलात्पूता द्वितीया तेन निर्मला ।
अनध्यायेषु शास्त्राणि पाठयंति पठंति च ।८३।

सांख्यकास्तार्किकाः श्रौतास्तेषां शब्दापशब्दजात् 
मलात्पूता द्वितीयायां ततोर्थे निर्मला च सा ।८४।

कृष्णस्य जन्मना वत्स त्रैलोक्यं पावितं भवेत् ।
नभस्येते विनिर्दिष्टा निर्मला सा तिथिर्बुधैः ।८५।

अग्निष्वात्ता बर्हिषद आज्यपाः सोमपास्तथा ।
पितॄन्पितामहान्प्रेतसंचारात्प्रेतसंचरा ।८६।

प्रेतास्तु पितरः प्रोक्तास्तेषां तस्यां तु संचरः ।
पुत्रपौत्रेस्तुदौहित्रैः स्वधामंत्रैस्तु पूजिताः ।८७।

श्राद्धदानमखैस्तृप्ता यांत्यतः प्रेतसंचरा ।
महालये तु प्रेतानां संचारो भुवि दृश्यते ।८८।

तेनैषा प्रेतसंचारा कीर्तिता शिखिवाहन ।
यमस्य क्रियते पूजा यतोऽस्या पावके नरैः ।८९।

तेनैषा याम्यका प्रोक्ता सत्यं सत्यं मयोदितम् ।
एतत्कार्तिकमाहात्म्यं ये शृण्वंति नरोत्तमाः ।९०।

कार्तिकस्नानजं पुण्यं तेषां भवति निश्चितम् ।९१।

कार्तिके च द्वितीयायां पूर्वाह्णे यममर्चयेत् ।
भानुजायां नरः स्नात्वा यमलोकं न पश्यति 
९२।

कार्तिके शुक्लपक्षे तु द्वितीयायां तु शौनक ।
यमो यमुनया पूर्वं भोजितः स्वगृहेऽचितः ।९३।

द्वितीयायां महोत्सर्गो नारकीयाश्च तर्पिताः ।
पापेभ्यो विप्रयुक्तास्ते मुक्ताः सर्वनिबंधनात् ।९४।

आशंसिताश्च संतुष्टाः स्थिताः सर्वे यदृच्छया ।
तेषां महोत्सवो वृत्तो यमराष्ट्रसुखावहः ।९५।

अतो यमद्वितीयेयं त्रिषुलोकेषु विश्रुता ।
तस्मान्निजगृहे विप्र न भोक्तव्यं ततो बुधैः ।९६।

स्नेहेन भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं पुष्टिवर्द्धनं ।
दानानि च प्रदेयानि भगिनीभ्यो विधानतः ।९७।

स्वर्णालंकारवस्त्राणि पूजासत्कारसंयुतम् ।
भोक्तव्यं सह जायाश्च भगिन्याहस्ततः परम् ।९८।

सर्वासु भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं बलवर्द्धनम् ।
ऊर्जे शुक्लद्वितीयायां पूजितस्तर्पितो यमः ।९९।

महिषासनमारूढो दंडमुद्गरभृत्प्रभुः ।
वेष्टितः किंकरैहृष्टैस्तस्मै याम्यात्मने नमः 6.122.१००।

यैर्भगिन्यः सुवासिन्यो वस्त्रदानादि तोषिताः ।
न तेषां वत्सरं यावत्कलहो न रिपोर्भयम् ।१०१।

धन्यं यशस्यमायुष्यं धर्मकामार्थसाधनम् ।
व्याख्यातं सकलं पुत्र सरहस्यं मयानघ ।१०२।

यस्यां तिथौ यमुनया यमराजदेवः संभोजितः प्रतितिथौ स्वसृसौहृदेन ।
तस्मात्स्वसुः करतलादिह यो भुनक्ति प्राप्नोति वित्तशुभसंपदमुत्तमां सः ।१०३।
_________________________________
इति श्रीपाद्मेमहापुराणे पंचपंचाशत्ससहस्रसंहितायामुत्तरखंडे कार्तिकमाहात्म्ये
द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।१२२।

अध्याय 122 - दीपावली का उत्सव

कार्तिकेय ने कहा :

हे भगवन्, अब मुझे विशेष रूप से दीपावली का फल बताइये । यह क्यों मनाया जाता है? इसका देवता क्या होगा? हे प्रभु, मुझे बताएं कि उत्सव के दौरान क्या देना चाहिए और क्या नहीं। इसके दौरान किस (किस) उल्लास का संकेत मिलता है? किस खेल का उल्लेख है?1-2

सुता ने कहा :

3. कार्तिकेय के ये वचन सुनकर कामदेव को भस्म करने वाले भगवान ने कहा, 'अच्छा' और हंसकर हे ब्राह्मणों , ये वचन बोले ।

श्री शिव ने कहा :

4-20. हे कार्तिकेय, कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष के तेरहवें दिन मनुष्य को अपने घर के बाहर यम को दीपदान करना चाहिए । जिससे अकाल मृत्यु से बचाव होता है। "मृत्यु के हाथ में पाश और पत्नी सहित सूर्य पुत्र इस प्रकाश अर्पण से प्रसन्न हों" जो लोग पापों से डरते हैं, उन्हें अँधेरे के चौदहवें दिन चन्द्रोदय के समय अवश्य स्नान करना चाहिए कार्तिक का आधा भाग. उसे सावधानी बरतते हुए कार्तिक के कृष्ण पक्ष के पिछले दिन से छेदित (अर्थात् मिश्रित) चौदहवें दिन प्रातःकाल स्नान करना चाहिए। लक्ष्मी तेल में और गंगा जल में निवास करती हैं। जो दीपावली में चतुर्दशी को प्रातः स्नान करता है, वह यमलोक को नहीं देखता। नरक को नष्ट करने के लिए (यानि बचने के लिए) उसे स्नान करते समय अपामार्ग , तुम्बी , प्रपुन्नता , वहवला (टहनियाँ) घुमानी चाहिए। "हे अपामार्ग, झुर्रीदार भूमि के ढेले और कांटों तथा पत्तों से युक्त होकर, बार-बार घूमने पर मेरे पाप को दूर करो।" उसे अपामार्ग और प्रपुन्नता को अपने सिर के ऊपर घुमाना चाहिए। फिर यम का नाम लेकर (अर्थात् जपकर) जल से तर्पण करना चाहिए। "यम, धर्मराज , मृत्यु , अंतक , वैवस्वत , काल और सर्वभूतक्षय (सभी प्राणियों का नाश करने वाला), औदुंबर , दधना, नील , परमेष्ठिन, वृकोदर , चित्र , चित्रगुप्त को नमस्कार ।" देवताओं की पूजा करने के बाद, उसे (अर्थात राजा को) नरक को एक ज्योति अर्पित करनी चाहिए । फिर रात के समय उसे ब्रह्मा , विष्णु , शिव आदि के मंदिरों में और विशेष रूप से घरों, अभयारण्यों, सभा हॉलों, नदियों के शीर्ष पर स्थित अपार्टमेंटों में मनभावन रोशनी अर्पित करनी चाहिए। प्राचीरें, उद्यान, कुएँ, सड़कें, घरों के निकट सुख-वन, अस्तबल और हाथियों के निवास भी। हे कार्तिकेय, इस प्रकार अमावस्या के दिन प्रातः स्नान करके, भक्तिपूर्वक देवताओं तथा मृत पितरों को नमस्कार करके तथा दही, घी, दूध आदि से पार्वण श्राद्ध करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए  विभिन्न प्रकार के भोजन, और उनसे क्षमा मांगें। फिर हे प्रिये, दोपहर के समय राजा को प्रजा को संतुष्ट करना चाहिए। उनसे बातचीत करके, उनका आदर करके उनसे बातचीत करनी चाहिए। हे कार्तिकेय, एक वर्ष तक बातचीत करने वालों में प्रेम उत्पन्न होता है। विष्णु के उठने से पहले, उन्हें महिलाओं के माध्यम से लक्ष्मी को जागृत करना चाहिए।

21-32. जब कोई पुरुष किसी अच्छी स्त्री के माध्यम से उठते समय लक्ष्मी को जगाता है तो एक वर्ष तक लक्ष्मी उसका पीछा नहीं छोड़ती है। विष्णु से भयभीत देवताओं के शत्रुओं (अर्थात् राक्षसों) ने ब्राह्मणों से अभय प्राप्त किया, यह जानने के बाद कि (विष्णु) क्षीरसागर में सो रहे थे, और लक्ष्मी ने कमल का सहारा लिया था। “आप चमक हैं, श्री रवि (अर्थात् सूर्य), चंद्रमा, बिजली, स्वर्ण सितारा; दीपक की चमक में होने वाली चमक सभी चमकों की चमक है। वह लक्ष्मी जो कार्तिक में दीपावली के शुभ दिन पर पृथ्वी पर, गौशाला में रहती है, मुझे वरदान दे सकती है। शिव और भवानी ने पासे को एक खेल के रूप में खेलना शुरू कर दिया। भवानी द्वारा प्रसन्न की गई लक्ष्मी गाय के रूप में बनी रहीं। पूर्व में पार्वती ने पासे के खेल में शिव को हरा दिया था और उन्हें नग्न अवस्था में भेज दिया था। तो यह शिव अप्रसन्न है । गौरी हमेशा खुश रहती हैं. जो सबसे पहले विजय प्राप्त करता है, वह वर्ष सुखपूर्वक व्यतीत करता है। जब रात इसी तरह बीत जाती है और लोगों की आंखें आधी बंद हो जाती हैं, तो हर्षित शहरी महिलाएं संगीत वाद्ययंत्रों और ढोल बजाकर अलक्ष्मी को घर के आंगन से बाहर निकाल देती हैं। हार की स्थिति में (पासे के खेल में) स्थिति विपरीत होगी। पहले दिन सुबह सूर्य उदय होने पर गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए और रात को पासे का खेल खेलना चाहिए। फिर गायों को सजाना चाहिए; और उनका उपयोग (भार आदि) ढोने के लिए नहीं किया जाना चाहिए या उनका दूध नहीं निकाला जाना चाहिए। “हे गोवर्धन, हे पृथ्वी के आधार, हे गोकुल के रक्षक , हे विष्णु के हाथ से उठाए गए आप (हमें) करोड़ों गायें दे दीजिए। वह लक्ष्मी जो क्षेत्र के राजाओं की गाय के रूप में रहती है और जो यज्ञ के लिए घी ले जाती है, वह मेरे पाप को दूर कर सकती है। गायें मेरे सामने खड़ी रहें। गायें मेरे पीछे रहें। गायें मेरे हृदय में रहें। मैं गायों के बीच रहता हूं।” इस प्रकार गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।

33-42. उसे सच्ची भक्ति से देवताओं और सत्पुरुषों को प्रसन्न करके दूसरों को भोजन देकर और विद्वानों को प्रसाद देकर (अर्थात् कोमल वचन बोलकर) प्रसन्न करना चाहिए। (उसे हरम के निवासियों को वस्त्र, ताम्बूल , रोशनी, फूल, कपूर, केसर, भोजन और उत्तम और निम्न गुणवत्ता के खाद्य पदार्थ देकर प्रसन्न करना चाहिए)। राजा को गाँव के मुखिया को उपहार देकर और जागीरदारों को धन देकर और पैदल सैनिकों को अच्छे गले के आभूषण और कंगन देकर प्रसन्न करना चाहिए। राजा को अपने मन्त्रियों तथा अपनी प्रजा को भी पृथक-पृथक प्रसन्न करना चाहिये। फिर पहलवानों और अभिनेताओं को, आपस में लड़ते हुए बैलों और बड़े-बड़े बैलों को तथा अन्य सैनिकों और पैदल सैनिकों को, जो अच्छी तरह से सजे हुए हैं, ऊँचे आसन पर बिठाकर, उचित रूप से तृप्त करके, अभिनेताओं, नर्तकों और भाटकों को देखना चाहिए, और कारण बताना चाहिए गाय-भैंस आदि जो (उसके पास) हैं, उनसे लड़ना और दहाड़ना। (आवाज़ों के) शब्दों और प्रतिक्रियाओं के माध्यम से वह गायों को अपने बछड़ों को आकर्षित करता है। फिर, हे कार्तिकेय, उसे दोपहर के समय पूर्व दिशा में रास्ते पर एक दिव्य मेहराब स्थापित करना चाहिए, जिसे किले के खंभे या पेड़ से बांधा जाए; (यह कुश (घास) से बना होना चाहिए और इसमें फूलों की कई लटकती हुई लड़ियाँ होनी चाहिए। कई घोड़ों और हाथियों को देखकर, उसे उन्हें और गायों के साथ बैलों को, साथ ही घंटियों के साथ क्रोधित भैंसों और भैंसों को भी मेहराब के आधार पर ले जाना चाहिए। उसे यज्ञ कराने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा तोरण लगवाना चाहिए। फिर, उसे, एक अच्छे व्रत के अनुसार, इस भजन को पढ़कर प्रणाम करना चाहिए:

43-57. "हे मार्गपाली, समस्त संसार को सुख देने वाली आपको नमस्कार है।" हे कार्तिकेय, मार्गपाली के आधार पर गायें और बड़े बैल जाते हैं। मार्गपाली को पार करने पर राजा, राजकुमार और विशेषकर ब्राह्मण रोगमुक्त और प्रसन्न हो जाते हैं। यह सब करने के बाद रात्रि के समय उसे जमीन पर घेरा बनाकर वास्तव में राक्षसों के राजा बलि की पूजा करनी चाहिए । पांच रंगों से चित्रित, (चित्र) राक्षसों के स्वामी बाली, सभी आभूषणों से परिपूर्ण, विंध्यावली के साथ, कुष्मांडा , माया , जम्भारू, मधु राक्षसों से घिरे हुए , और उनके पूरे चेहरे पर प्रसन्नता के साथ मुकुट और उज्ज्वल बालियां, और फिर से अपने घर में एक छोटे या बड़े कक्ष में दो भुजाओं वाले राक्षसों के भगवान का चित्र बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिए। राजाओं के भगवान, जो प्रसन्न होकर अपने मंत्रियों और पुजारियों और अपनी माँ, भाइयों और रिश्तेदारों के साथ कमल, लाल कमल, फूल, सफेद कमल और नीले कमल, चंदन के साथ (राक्षस-भगवान) की पूजा करते हैं, फूल, दूध, गुड़ और मीठे दूध के साथ खाने की चीजें, शराब, मांस, शराब, चाट या चूसकर खाई जाने वाली चीजें, (अन्य) खाने की चीजें और प्रसाद, और इस भजन (पाठ) से उस वर्ष के दौरान खुशी मिलती है: " हे राजा बलि, हे स्वामी, हे विरोचन के पुत्र , आपको नमस्कार है। हे भावी इंद्र , हे देवताओं के शत्रु, इस पूजा को स्वीकार करें। इस प्रकार पूजा करने और रात्रि जागरण करने के बाद, उसे (अन्य लोगों को) अभिनेताओं, नर्तकों, गायकों के साथ रात्रि जागरण करना चाहिए और घर के अंदर एक पलंग पर सफेद चावल के साथ राजा बलि की (प्रतिमा) स्थापित करनी चाहिए, और फल-फूलों से उनकी पूजा करनी चाहिए. हे कार्तिकेय, वहां सब कुछ बलि के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए। ऋषि, सत्य के द्रष्टा कहते हैं कि वे सभी (वस्तुएँ) जो अक्षय हैं (उनके पास आती हैं)। यहां जो भी छोटा या बड़ा उपहार दिया जाएगा, वह सब अक्षय, शुभ और विष्णु को प्रसन्न करने वाला होगा। हे बालि, जो मनुष्य रात्रि में आपकी पूजा नहीं करते, उनके सभी अरुचिकर आचरण आपके पास आएं।

58-69. हे बालक, स्वयं विष्णु ने प्रसन्न होकर राक्षसों को उपकृत करने वाले बलि को यह महान उत्सव प्रदान किया है। हे कार्तिकेय, तब से ( हमेशा के लिए) कौमुदी का यह उत्सव शुरू हो गया। यह सभी संकटों को पिघला देता है और सभी कठिनाइयों को नष्ट कर देता है। यह लोगों के दुखों को दूर करता है, इच्छाओं को पूरा करता है और धन, पोषण और खुशी लाता है। 'कू' शब्द का अर्थ है पृथ्वी, ' मुदा ' शब्द का अर्थ है आनंद। दोनों (शब्दों के एक साथ आने) के मूल (अर्थ) के कारण इस त्योहार को कौमुदी कहा जाता है (यानि कहा जाता है), क्योंकि पृथ्वी पर लोग (इस दौरान) परस्पर आनंद मनाते हैं। वे प्रसन्न और प्रसन्न हैं, आनंदित हैं, इसलिए इसे कौमुदी कहा जाता है। हे पुत्र, चूंकि इसमें राजा अपने पापों को दूर करने के लिए बलि को लाल कमल अर्पित करते हैं, इसलिए इसे कौमुदी कहा जाता है। जो राजा प्रति वर्ष राक्षसों के राजा को एक दिन और रात के लिए दर्पण के समान (स्वच्छ) पृथ्वी देता है, उसे रोगों से कैसे भय हो सकता है? उसके पास प्रचुर मात्रा में अनाज, सुख, स्वास्थ्य, उत्कृष्ट धन है। सभी लोग रोगों से मुक्त और सभी विपत्तियों से मुक्त हैं। इसलिए पृथ्वी पर भक्ति फैलाने के लिए कौमुदी (त्योहार) मनाया जाता है। हे कार्तिकेय, जो इस (अर्थात उत्सव) के दौरान एक (विशेष) भावना के साथ रहता है, वह वर्ष को खुशी, दुःख आदि की भावना के साथ गुजारता है। यदि वह रोता है, तो वर्ष उसे रुलाता है; यदि वह प्रसन्न है, तो वर्ष आनंदमय है। यदि वह (त्योहार) का आनंद लेता है तो वह वर्ष का आनंद लेता है; अगर वह खुश है, तो साल खुशहाल होगा। अतः सत्पुरुषों को हर्षपूर्वक कौमुदी का उत्सव मनाना चाहिये। कार्तिक में यह दिन विष्णु और राक्षसों के लिए पवित्र माना जाता है।

70-73. बुद्धिमान लोगों के परिवारों में, उपहार और भोग के कारण खुशी होती है, जो सभी को प्रसन्न करते हुए प्रकाश उत्सव मनाते हैं, और जो भगवान (?) को देते हुए बाली की पूजा करते हैं, उनका पूरा वर्ष खुशी से गुजरता है। हे स्कन्द , द्वितीया से आरंभ होने वाली ये तिथियां सर्वविदित हैं। चार मास और फिर वर्षा ऋतु में ये कल्याणकारक होते हैं। पहला श्रावण मास में ; दूसरा भाद्रपद के महीने में है ; तीसरा आश्विन में है ; चतुर्थ कार्तिक में होगा (अर्थात् पतन)। कलुषा श्रावण माह में, अमला भाद्रपद में, प्रेतसंचार आश्विन में और याम्यकाम्यता कार्तिक में आती है।

कार्तिकेय ने कहा :

74. जिसे (श्रवण में) कलुषा क्यों कहा जाता है? जिसे (भाद्रपद में) निर्मला क्यों कहा गया है? एक को (आश्विन में प्रेतसंचार क्यों कहा जाता है? और चौथे को याम्या क्यों कहा जाता है ?

सुता ने कहा :

75. कार्तिकेय के इन शब्दों को सुनकर, प्राणियों के कारण, वृषभधारी भगवान हँसे, और (ये) कोमल शब्द बोले।

महेश ने कहा :

76-88. पूर्व में जब वृत्र की हत्या हुई और इंद्र ने राज्य प्राप्त किया, तो ब्राह्मण की हत्या के पाप को दूर करने के लिए घोड़े की बलि शुरू की गई। इंद्र ने गुस्से में अपने वज्र से ब्राह्मण (वृत्र) को मार डाला। हत्या का पाप छह प्रकार से पृथ्वी पर डाला गया: वृक्ष में, जल में, भूमि पर, स्त्री में, गर्भपात कराने वाली में, और उचित क्रम में विभाजित करके अग्नि में। दूसरे दिन से एक दिन पहले उस पाप के बारे में सुनने से स्त्री, वृक्ष, नदी, भूमि, अग्नि और गर्भपात कराने वाला प्रदूषित हो जाते हैं। इसी कारण इसे कलुषा कहा जाता है। पूर्वकाल में पृथ्वी मधु और कैटभ के रक्त में विलीन हो गई थी । अतः आठ अंगुल की माप से वह अपवित्र है। स्त्रियों का मासिक स्राव अशुद्ध होता है। वर्षा ऋतु में सभी नदियाँ अपवित्र होती हैं। आग (ऊपर जाना) कालिख के कारण अशुद्ध है। वृक्ष उत्सर्जन के कारण अशुद्ध होते हैं। जो गर्भपात का कारण बनते हैं वे संपर्क के कारण अशुद्ध होते हैं। इस दिन गंदगी फैली रहती है। इसलिए, उसे कलुषा कहा जाता है। ऐसे दुष्ट नास्तिक हैं जो देवताओं और ऋषियों की अच्छी प्रथाओं की निंदा करते हैं। दूसरा उनके शब्दों की गंदगी से शुद्ध है. इसलिए, यह निर्मला है. सांख्य , तर्किक (अर्थात तर्कशास्त्री) अध्ययन के लिए निषिद्ध दिनों में पवित्र ग्रंथों को पढ़ाते और अध्ययन करते हैं । दूसरे (अर्थात अमला) दिन श्रुति -अनुयायियों को उनके शब्दों की गंदगी और बुरे शब्दों से शुद्ध किया जाता है। इसलिए इसे निर्मला कहा जाता है। हे बच्चे, श्रावण में कृष्ण के जन्म से तीनों लोक शुद्ध हो जायेंगे । ज्ञानियों ने इसका संकेत निर्मला के रूप में किया है। प्रेतसंचार को (तथाकथित) मृत पूर्वजों, अग्निश्वत्तों , बर्हिषदों , अज्यपों और सोमपों जैसे पोते-पोतियों के आंदोलनों के कारण कहा जाता है। मृत पूर्वजों को दिवंगत आत्मा कहा जाता है। वे उस (दिन) पर आगे बढ़ते हैं। उनके पुत्रों तथा उनके पुत्र-पुत्रियों द्वारा स्वधा मंत्रों से उनकी पूजा की जाती है । वे दिवंगत आत्माओं को श्राद्ध , उपहार और बलिदान से तृप्त करके चले जाते हैं । महालय पर आत्माओं को पृथ्वी पर विचरण करते देखा जाता है ।

89-103. इसलिए, हे कार्तिकेय, इसे प्रेतसंचार कहा जाता है, चूँकि, हे कार्तिकेय, इस दिन पुरुषों द्वारा यम की पूजा की जाती है, इसलिए, इसे याम्यका कहा जाता है। मैंने सत्य और सत्य ही कहा है। जो श्रेष्ठ पुरुष कार्तिक के माहात्म्य को सुनते हैं, उन्हें अवश्य ही (प्रतिदिन) कार्तिक स्नान का पुण्य प्राप्त होता है। मनुष्य को कार्तिक मास की द्वितीया तिथि के दिन प्रातः काल भानुज स्नान करके यमराज की पूजा करनी चाहिए। (जिससे) वह यम को नहीं देखता। हे शौनक, पूर्व में, कार्तिक के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन, यम को अपने घर में यमुना द्वारा भोजन कराया गया था और उनका सम्मान किया गया था। दूसरे दिन एक महान् उपहार (दिया जाता है) नरक के निवासी संतुष्ट हैं। वे पापों से पृथक (अर्थात मुक्त) होकर सभी बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। वे सभी अपनी इच्छानुसार प्रशंसा पाकर प्रसन्न रहते हैं। यमलोक को सुख देने वाला यह महान पर्व उनके लिये होता है। इसलिए, यह यमद्वितीया तीनों लोकों में प्रसिद्ध है, इसलिए बुद्धिमानों को (इस दिन) घर पर भोजन नहीं करना चाहिए। उन्हें स्नेहपूर्वक अपनी बहन के हाथ से पौष्टिक भोजन लेना चाहिए; बहनों को विधिवत उपहार देना चाहिए। फिर सोने के आभूषणों और वस्त्रों का दान करने और (अपनी बहन का) सम्मान करने के साथ-साथ उन्हें अपनी बहन के हाथ से संपूर्ण रक्त खाना चाहिए। सभी (इन दिनों) बहन के हाथ का ही भोजन करना चाहिए। यह पौष्टिक है. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को यमराज प्रसन्न होते हैं। यम भैंसे के आसन (अर्थात पीठ) पर आरूढ़ हैं। प्रभु के पास एक लाठी और एक हथौड़ा है। वह अपने प्रसन्न सेवकों से घिरा हुआ है। याम्य के स्वरूप को नमस्कार। जिन्होंने अपनी बहनों को, जिनके पति जीवित हैं, वस्त्र आदि देकर प्रसन्न कर लिया है, उन्हें इस वर्ष न तो किसी से झगड़ा होता है और न ही शत्रु से भय होता है। हे निष्पाप, हे मेरे पुत्र, मैंने तुझे सारा वृत्तांत रहस्य सहित बता दिया है। यह धन्य है, सफलता देता है, आयु बढ़ाता है, धर्मकर्म और भोग का साधन है। चूँकि इस दिन भगवान यमराज को बहन के स्नेह (अपने भाई के लिए) से यमुना ने तृप्त किया था, इसलिए जो इस दिन अपनी बहन के हाथ से भोजन करता है, उसे धन और उत्कृष्ट धन की प्राप्ति होती है।





___________     
प्रस्तावित - यादव योगेश कुमार रोहि-
_____________    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें