शनिवार, 18 नवंबर 2023

नारायण से विष्णु का प्रादुर्भाव होना - वराहपुराण

अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति।
नारायणात्प्राणो जायते ।
मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।
नारायणाद्ब्रह्मा जायते ।
नारायणाद्रुद्रो जायते ।
नारायणादिन्द्रो जायते ।
नारायणात्प्रजापतिः प्रजायते । नारायणादद्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि छन्दांसि नारायणादेव समुत्पद्यन्ते। नारायणात्प्रवर्तन्ते ।
नारायणे प्रलीयन्ते।
एतदृवेदशिरोऽधीते ॥
 (प्रथम छन्द) नारायणोपनिषद्-

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उन पुरुषरूप भगवान् नारायण ने संकल्प किया कि ‘मैं' प्रजा। (जीवो) की सृष्टि करूँ । अतः उन्हीं के द्वारा समस्त जीवों की उत्पत्ति हुई । नारायण से समष्टिगत प्राण का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हीं के द्वारा मन और समस्त इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई। भगवान् नारायण द्वारा ही आकाश, वायु, तेज, जल एवं सम्पूर्ण जगत् को धारण करने वाली पृथ्वी आदि सभी का प्राकट्य हुआ। भगवान् नारायण से ही ब्रह्मा जी प्रादुर्भूत हुए। नारायण से भगवान् रुद्र उत्पन्न होते हैं। नारायण द्वारा ही देवराज इन्द्र प्रकट हुए। नारायण द्वारा प्रजापति का भी प्रादुर्भाव हुआ। नारायण से ही द्वादश आदित्य उत्पन्न हुए। ग्यारह रुद्र, अष्टवसु एवं सम्पूर्ण छन्द भगवान् नारायण से प्रकट हुए। नारायण द्वारा ही प्रेरणा प्राप्त करके सभी अपने-अपने कार्यों में लग जाते हैं तथा भगवान् नारायण में ही अन्त में विलीन हो जाते हैं। ऐसा ही यह ऋग्वेदीय उपनिषद् का कथन है 


         (वराहपुराण अध्याय- 31) 

             "महातपा उवाच !
मनोर्नाम मनुत्वं च यदेतत् पठ्यते किल।
प्रयोजनवशाद् विष्णुरसावेव तु मूर्त्तिमान्।१।
महातप ने कहा:-
राजन् ! यह जो मनु का नाम और मनु तत्व (मन्त्र) पढ़ा जाता है। वह प्रयोजन वश विष्णु का ही स्वरूप से हैं।।१।

योऽसौ नारायणो देवः परात् परतरो नृप।
तस्य चिन्ता समुत्पन्ना सृष्टिं प्रति नरोत्तम ।२ ।
जो वह नारायण देव हैं परम् ब्रह्म हैं। प्रभु के मन में सृष्टि विषयक संकल्प उत्पन्न हुआ।२।

सृष्टा चेयं मया सृष्टिः पालनीया मयैव ह ।
कर्मकाण्डं त्वमूर्त्तेन कर्तुं नैवेह शक्यते ।
तस्मान्मूर्त्तिं सृजाम्येकां यया पाल्यमिदं जगत् ।३।
 सृजित यह सृष्टि जिसका पालन भी तो मुझे ही करना है। यह सब कर्मकाण्ड का प्रपञ्च जिसे मैं करने में समर्थ नहीं  है अत: ऐसी सगुण मूर्ति का निर्माण करुँ जिससे जगत का पालन हो सके। ३।

एवं चिन्तयतस्तस्य सत्याभिध्यायिनो नृप ।
प्राक्सृष्टिजातं राजन् वै मूर्त्तिमत् तत्पुरो बभौ।४।
इस प्रकार चिन्तन करते हुए एक प्राक्तनी विशिष्ट स्वरूपा शक्ति धारिणी सत्ता उनके समक्ष प्रकट हो गयी। ४।

पुरोभूते ततस्तस्मिन् देवो नारायणः स्वयम् ।
प्रविशन्तं ददर्शाथ त्रैलोक्यं तस्य देहतः ।५।
इसमें स्वयं पुराण पुरुष नारायण ही प्रकट हो गये और उन्होंने लोकत्रय को अपने वैष्णव शरीर में प्रवेश होते हुए देखा फिर वह प्रभु के शरीर से बाहर आया ।५।

ततः सस्मार भगवान् वरदानं पुरातनम् ।
वागादीनां ततस्तुष्टः प्रादात् तस्य पुनर्वरम् ।६ ।
उस अवसर पर उन्हें अपने प्राचीन वरदान की बात याद आयी । जो भगवान ने संतुष्ट होकर बाणी आदि को दिया था।६। 

सर्वज्ञः सर्वकर्ता त्वं सर्वलोकनमस्कृतः ।
त्रैलोक्यविशनाच्च त्वं भव विष्णुः सनातनः।७ ।
भगवान नारायण ने वरदान देते हुए कहा :-  तुम्हें सभी वस्तुओं का ज्ञान होगा तुम सबके कर्ता होगे सम्पूर्ण लोक तुमको नमस्कार करेंगे  तुम सनातन होने विष्णु नाम धारण करो तुम सब लोको की रक्षा करोगे ! और विनाश करने से भव ( रूद्र) होगे।७।

देवानां सर्वदा कार्यं कर्त्तव्यं ब्रह्मणस्तथा ।
सर्वज्ञत्वं च भवतु तव देव न संशयः ।८।
देवों और ब्राह्मणों के कार्यों को करना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम सर्वज्ञ हों  इसमें कोई सन्देह नहीं है।८।

एवमुक्त्वा ततो देवः प्रकृतिस्थो बभूव ह ।
विष्णुरप्यधुना पूर्वां बुद्धिं सस्मार च प्रभुः ।९।
इस प्रकार  कहकर नारायण अपने प्राकृत रूप में स्थित हो गये फिर अब विष्णु को भी पहले की बात ध्यान में आगयी ।९।
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तदा सञ्चिन्त्य भगवान् योगनिद्रां महातपाः ।
तस्यां संस्थाप्य भगवानिन्द्रियार्थोद्भवाः प्रजाः।
ध्यात्वा परेण रूपेण ततः सुष्वाप वै प्रभुः ।१०।
तब महा तपस्वी भगवान ने  योगनिद्रा को चिन्तन करके  स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न होने वाली सृष्टि का भार  उस योगनिद्रा को सौंप दिया।
मैं स्वयं उन परम प्रभु नारायण का ही तो रूप हूँ। ऐसा विचार कर वे फिर सो गये ।१०।

तस्य सुप्तस्य जठरान्महत्पद्मं विविःसृतम् 
सप्तद्वीपवती पृथ्वी ससमुद्रा सकानना ।११ ।
उनके सो जाने पर उनके नाभि से एक महा कमल उत्पन्न हुआ सात द्वीपों वाली पृथ्वी समुद्र और जंगल सब के सब उस कमल पर स्थित थे।११।

तस्य रूपस्य विस्तारं पातालं नालसंस्थितम् ।
कर्णिकायां तथा मेरुस्तन्मध्ये ब्रह्मणो भवः।१२।
उस कमलनाल का विस्तार आकाश से पाताल तक फैला था उस कमल की कर्णिका पर सुमेरू पर्वत सुशोभित हो रहा था। उसके बीच में ब्रह्मा जी विराजमान थे।१२।

एवं दृष्ट्वा परं तस्य शरीरस्य तु सम्भवम् ।
मुमुचे तच्छरीरस्थो वायुर्वायुं समसृजत् ।१३।
फिर उस शरीर के भीतर जो पवन देव थे उन्होंने व्यवहार के लिए  वायु का सर्जन किया।१३।

अविद्याविजयं चेमं शङ्खरूपेण धारय ।
अज्ञानच्छेदनार्थाय खङ्गं तेऽस्तु सदा करे ।१४।
इस अविद्या पर विजय पाने वाले शंख रूप को धारण करो। और अज्ञान का छेदन करने के लिए तलवार सदा तुम्हारे हाथ में रहे।१४।

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अच्युत केशव ! भयंकर कालचक्र को काटने के लिए यह चक्र तुम धारण करो -अधर्म रूपी गज का वध करने के लिए यह गदा धारण करो ।१५।

मालेयं भूतमाता ते कण्ठे तिष्ठतु सर्वदा ।
श्रीवत्सकौस्तुभौ चेमौ चन्द्रादित्यच्छलेन ह ।१६।
सभी भूतों को उत्पन्न करने वाली उनकी माता यह वैजयन्ती माला तुम्हारे कण्ठ में सदा सुशोभित होती रहे सूर्य और चन्द्रमा ये दोनों वत्स और कौस्तुभ के स्थान पर शोभा पाऐं ।१६।

मारुतस्ते गतिर्वीर गरुत्मान् स च कीर्त्तितः ।
त्रैलोक्यगामिनी देवी लक्ष्मीस्तेऽस्तु सदाश्रये ।
द्वादशी च तिथिस्तेऽस्तु कामरूपी च जायते ।१७।
मारुत चलने में सबसे गतिशील है वह आपके लिए गरुड बन जाए तीनों लोकों में विचरने वाली लक्ष्मी सदा तुम्हारी आश्रिता रहे। आपकी तिथि द्वादशी हो और आप अपने अभीष्ट रूप से विराजें अथवा कामरूप में उत्पन्न हों।१७।


घृताशनो भवेद्यस्तु द्वादश्यां त्वल्परायणः।
स स्वर्गवासी भवतु पुमान् स्त्री वा विशेषतः।१८।
इस द्वादशी तिथि के दिन स्त्री पुरुष जो कोई आप पर श्रद्धा रखते हुए घी के अल्प- आहार पर रहे वह स्वर्ग में स्थान पाने का अधिकारी हो जाए।१८।

एष विष्णुस्तवाख्यातो मूर्तयो देवदानवान् ।
हन्ति पाति शरीराणि सृजत्यन्यानि चात्मनः।१९।
इस नाम से ख्यात हुए देव- दानव सब उन्हीं की मूर्तियाँ हैं। वे स्वयं  ही वही परम् पुरुष नारायण विष्णु  कभी हनन करने लिए हन्ता और कभी रक्षा करने के लिए त्राता अनेक शरीर धारण करते हैं।१९।

युगे युगे सर्वगोऽयं वेदान्ते पुरुषो ह्यसौ ।
न हीनबुद्ध्या वक्तव्यो मनुष्योऽयं कदाचन ।२० ।
वे युग युग में सर्वत्र विचरण करते हैं ।
उन्हें वेदान्त पुरुष कहा जाता है। जो उन्हें केवल मनुष्य मानता है उसे बुद्धि हीन ही समझना चाहिए ।२०।

य एवं श्रृणुयात् सर्गं वैष्णवं पापनाशनम् ।
स कीर्तिमिह सम्प्राप्य स्वर्गलोके महीयते ।२१।
पापों का नाश करने वाला यह सर्ग वैष्णव सर्ग कहलाता है। जो इसका पठन करता है वह स्वर्ग लोक में जाकर  पूजा जाता है।२१।



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