रविवार, 26 नवंबर 2023

गोपों- का वर्ण कार्ष्णि - वैष्णव - कृष्ण सर्वस्वं- विडियो-

"स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में विराजमान हैं वही आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित हो इस पृथ्वी पर आते हैं; 

क्योंकि आभीर(गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप ( शरीर) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है। 

इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।  नीचे हम गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्कृयों को प्रस्तुत करते हैं। कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना इसी तथ्य को सूचित करता है।

"भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय गोपेषु गृहे जातं कृष्णं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते।२१। 

गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च  गङ्गा स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम्।          

  प्रेक्षन्ति- अहर्निश-अमलं सुमुखं गवां च ।        जाति परान विदिता भुवि गोप जाते: ।२२।

अनुवाद:-भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण  गोपों के घर में प्रकट हुए  हैं। आदि पुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।                                    इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)

गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत:  इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_ 

ऋग्वेद में विष्णु के लिए  'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।  वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित  विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं। 

जो पुराण वर्णित गोलोक का  ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा  "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे  ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।

विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप  परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ  रहती हैं , वहाँ पड़ता है।

"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।

ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)

शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥

इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है।

"सायण भाष्य पर आधारित अर्थ-
.विष्णु जगत् के रक्षक हैं, उनको आघात करनेवाला कोई नहीं है। उन्होंने समस्त धर्मों को धारण कर ब्रह्माण्ड का तीन कदमों में परिक्रमा किया।18।

अर्थात्- इसमें भी कहा गया है कि किसी के द्वारा जिसकी हिंसा नहीं हो सकती, उस सर्वजगत के रक्षक विष्णु ने अग्निहोत्रादि कर्मों का पोषण करते हुए पृथिव्यादि स्थानों में अपने तीन पदों से क्रमण (गमन) किया।

इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -

"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।

उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के)
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के  (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो  विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान (लोक ) को सदैव देखते हैं।

ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।)

सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित  अथवा विचरण करती हैं उस  स्थानों को - तुम्हारे  जाने के लिए जिसे-  वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का  उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है  उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥

सायण- भाष्य-"हे यजमान और उसकी पत्नी ! तुम दोनों के लिए जाने योग्य उन प्रसिद्ध सुखपूर्वक निवास करने योग्य स्थानों की हम कामना करते हैं। जिन स्थानों पर गायें  स्वर्ण मण्डित- सींगों वाली बहुतायत से हैं।

उन निवास स्थानों के आधारभूत द्युलोक में बहुत से महात्माओं के द्वारा स्तुति करने योग्य और कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु का गन्तव्य रूप में प्रसिद्ध  परम- पद( गोलोक )अपनी महिमा से अत्यधिक उद्भासित होता है।६।

विशेष:- भूरि= स्वर्ण नपु- शब्दरत्नालि  २- प्रचुर त्रि० अमरः कोष । भूरि पद के दो अर्थ हैं पहले स्वर्ण अर्थ है भूरिश्रृंगा प्रसंग में और द्वितीय परमपमवभाति भूरि " के प्रसंग में  प्रचुर अथवा बहुत के अर्थ में।

उपर्युक्त ऋचा के प्रयुक्त पदों का अर्थ-
हे पत्नीयजमानौ !                                    १-“वां =युष्मदर्थं।  - तुम्हारे लिए                        २-“ता= तानि {गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धानि} - वह स्थान।

३- “वास्तूनि =सुखनिवासयोग्यानि स्थानानि- वस्तव्य- निवास करने योग्य स्थान।
४- “गमध्यै युवयोः = गमनाय । तुम्हारे गमन करने के लिए ।
५-“उश्मसि= कामयामहे । तदर्थं विष्णुं प्रार्थयाम इत्यर्थः ।  इसके लिए विष्णु से प्रार्थना करते हैं।

६- तानीत्युक्तं =कानीत्याह । “यत्र येषु वास्तुषु- जहाँ जिस स्थान पर ।
७-"गावः= धेनव: । बहुत सी गायें।
८-भूरिशृङ्गाः = स्वर्णमण्डिता शृङ्गाः गाव:। सोने से जिनके सींग पण्डित हैं वे गायें।

९-“अयासः =यासो गन्तारः । - इधर उधर विचरण करने वाली हैं। 
१०-“उरुगायस्य= बहुभिर्महात्मभिर्गातव्यस्य स्तुत्यस्य । जिसकी सन्तों द्वारा बहुत स्तुति की गयी है।
११-“वृष्णः = कामानां वर्षितुर्विष्णु:।- कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु ।
१२-“पदं= स्थानं ( लोक )                      १३-“भूरि =अतिप्रभूतम् स्वर्णं वा“

१४-अव “भाति = प्रकाशयति। प्रकाशित होता है।
अयं ऋचायां गोपदो धेनु वाचक इति इस ऋचा में गो पद धेनु का वाचक है।

ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 154 की  ऋचा -

पदों का अर्थ:-(यत्र) -जहाँ (अयासः)- प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)- स्वर्ण युक्त सींगों वाली (गावः)- गायें हैं (ता)- उन । (वास्तूनि)- स्थानों को (वाम्)- तुम को (गमध्यै)- जाने के लिए (उश्मसि)- तुम चाहते हो। (उरुगायस्य)- बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)- सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्)- उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान( लोक) (भूरिः)- अत्यन्त (अव-भाति) उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम वर्णन करते हैं ॥६॥

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उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि  में वर्णित गोलोक है ।

'विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है। 

सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत:  गोलोक की ही सृष्टि हैं 

ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया - 'यज्ञो वै विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है।

"एवं पुरा विष्णुरभूच्च वामनो धुन्धुं विजेतुं च त्रिविक्रमोऽभूत्। यस्मिन् स दैत्येन्द्रसुतो जगाम महाश्रमे पुण्ययुतो महर्षे।।( ७८/९०)

 सन्दर्भ:- इति श्रीवामनपुराण अध्याय।52।

विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों मैं ही रहता है।

"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।

 विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।

विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड '  ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में  गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।

ऋग्वेद 1.22.18) में  भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।

जैसा कि हम पूर्व में बता चके हैं। इसी बात पुन: निर्देशित करते हैं।

"विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।


आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।

और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।

"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।

वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का  पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।

 "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजामि- अहम्।। 
श्रीमद्भगवद्गीता ( 4/7) 

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः हानिः इन्द्रियाणिनियमानि-संयमानि अभ्युत्थानम् उद्भवः अधर्मस्य तदा तदा आत्मानं सृजामि अहं मायया।।किमर्थम।

हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।

अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।

"कृष्ण और विष्णु का भेद- 

 (दर- असल विष्णु शब्द तीन सात्विक सत्ताओं का वाचक है। एक वह जो स्वराट्-  अथवा स्वयंप्रकाश अथवा सबका मूलकारण द्विभुजधारी गोलोक वासी कृष्ण रूप है। 

 द्वितीय वह रूप है जो  कृष्ण और और उनकी आदि -प्राकृतिक शक्ति राधा दौंनों के संयोग से उत्पन्न विराट रूप है जो अनन्त है।  स्वयं कृष्ण भी इसके विस्तार को नहीं जानते ! 

और  तृतीय रूप जो इस विराट महाविष्णु के प्रत्येक रोमकूप में उत्पन्न ब्रह्माण्ड के देव त्रयी( ब्रह्मा विष्णु महेश) में क्षुद्र विराट्( छोटे विष्णु) नाम से हैं। वह अन्तिम है।इन्हीं की नाभि कमल से ब्रह्मा और फिर उनसे चातुर्वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र उत्पन्न होते है।यद्यपि गोलोक में भी ब्रह्मा की उत्पत्ति कृष्ण की नाभि से होती है। परन्तु सृष्टि उत्पादक के रूप में तो रोमकूपीय ब्रह्माण्ड में क्षुद्र विराट् विष्णु के नाभि कमल से होती है। और शिव भी  शिव लोक से आकर  इन्हीं की प्रेरणासे अंश रूप इन्हीं ब्रह्मा के ललाट से उत्पन्न होकर रुदन करने से रूद्र कहलाते हैं। 

विष्णु के तीनों रूप सत्व गुण की ही क्रमश: तीन अवस्था १- विशिष्ट सत्व २-शुद्ध सत्व और ३-सत्व ये तीन अवस्थाऐं हैं।

"पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक विशेष विचारणीय हैं।

१- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों का धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है !

इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर अहीरो को दिव्य लोको (गोलोकों) में निवास करने का अधिकारी बनाकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दी गयी है।

"आभीर लोग पूर्वकाल में भी धर्मतत्व वेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल कहकर सम्बोधित किए गये हैं।

तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन श्लोकों में निर्दशित है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।      मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।

"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।          युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा- मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों (गोलोकों) को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।

"गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह वर्णन है।

"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्‍ण की पूजा करके, उन्‍हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।

उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्‍ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्‍य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।

तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोको में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।

क्योंकि सभी यादव मेरे ही अंश है।

"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः ॥ जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥

"शब्दार्थ:-१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न) २-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले। ४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले। ५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में +सन् भावे अ प्रत्यय ।= जयेच्छायां । ६- जित्वा= जीतकर।७-अरीन्= शत्रुओ को। ८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे। ९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।१०-बलिं = भेंट /उपहार।११- दिशाम् = दिशाओं में।

"अनुवाद:-समस्‍त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं।वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता‎ खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)

"गोप अथवा यादव एक ही हैं। क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।"

जब ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन हो सकते हैं।

और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के शरीर से उत्पन्न हैं। अत: पुराणों में स्वयं ब्राह्मणों के आदि पितामह ब्रह्मा गोपों की स्तुति करते हैं । और उनकी चरणधूलि लेकर अपने को धन्य मानते हैं। गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं गोप स्वराट विष्णु (कृष्ण) की सृष्टि हैं।  इसी लिए ब्रह्मा भी गोपों की स्तुति करते हैं।

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"शास्त्र में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।

सम्पूर्ण गोप अथवा यादव विष्णु अथवा कृष्ण के अंश अथवा उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हुए है। यह बात ब्रह्म-वैवर्त पुराण ,गर्गसंहिता ,पद्मपुराण और अन्य परवर्ती ग्रन्थ लक्ष्मी नारायणी संहिता और ब्रह्म संहिता आदि में वर्णित है।

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विष्णोरिदम् ।  विष्णु + अण् । )  विष्णुसम्बन्धी  वैष्णव!

विष्णु के उपासक, भक्त और विष्णु से सम्बंधित वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु के इन छै: गुणों से युक्त होने के कारण भगवत् - संज्ञा है। जो निम्नलिखित हैं।

 १-अनन्त ऐश्वर्य, २-वीर्य, ३-यश, ४-श्री, ५-ज्ञान और ६-वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण परमात्मा को भगवान् या भगवत् कहा जाता है।

"इस कारण वैष्णवों को भागवत नाम से भी जाना जाता है - भगवत्+अण्=भागवत।

जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत् है। श्रीमद् -वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत में 'भगवान्' कहा गया है।

उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है वल्लभाचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ में वर्णन है।

"श्रीमद्वल्लभाचार्य लिखित -सिद्धान्त मुक्तावलि "वैष्णव धर्म मूलत: भक्तिमार्ग है।"भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य भक्ति को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।


"मान ले कि ब्रह्माण्ड के जो गोप हैं उनके साथ लीला सहचर बनने के लिए विष्णु उपस्थित होते हैं तो ये असम्भव है ।





देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के द्वादश सूक्त की यह नब्बे वी ऋचा में जिसमें ब्राह्मी सृष्टि का वर्णन है - ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होते हैं।

"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12
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श्लोक का अनुवाद:- इस (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)

"वक्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे। "सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः।-5।

अनुवाद:-
धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्मा जी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर- इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था।
 तात! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये ।5-6।

श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्म पर्व में पराशरगीता विषयक दो सौ छानबेवाँ अध्‍याय
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ब्रह्मा की सृष्टि हैं। यही चातुर्वर्ण व्यवस्था के अवयव हैं। परन्तु गोप  स्वराट् विष्णु से गोलोक में उत्पन्न हुए है। वह ब्राह्मी सृष्टि नहीं माने जाऐंगे- वे स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) से उत्पन्न होने से वैष्णव हैं। 

"इसी सिद्धान्त से पञ्चम वर्ण की उत्पत्ति हुई जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। अथवा पुरोहितों अथवा कथावाचको  द्वारा जानबूझकर छिपाया गया !

शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु या कृष्ण या मूल तत्व परम्ब्रह्म के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।

"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:" आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
👇(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)

अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे।

वास्तव में विष्णु का ही गोलोक धाम का वृहद् रूप कृष्ण है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।

"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।"

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः।२२।

परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥२३॥

यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयंते स्वतेजसि ॥तं वदंति परे साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥२४॥

अनुवाद:-नन्‍दराज साक्षात द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। गोलोक में जो गोपालगण हैं, वे साक्षात श्रीकृष्‍ण के रोम से प्रकट हुए हैं और गोपियॉं श्रीराधा के रोम से उद्भुत हुई हैं।

वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आयी हैं। कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं, जो पूर्वकृत पुण्‍यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्‍ण को प्राप्‍त हुई हैं।२१-२२।

भगवान श्रीकृष्‍ण साक्षात परिपूर्णतम परमात्‍मा हैं, असंख्‍य ब्रह्माण्‍डों के अधिपति, गोलोक के स्‍वामी तथा परात्‍पर ब्रह्म हैं। जिनके अपने तेज में सम्‍पूर्ण तेज विलीन होते हैं, उन्‍हें ब्रह्मा आदि उत्‍कृष्‍ट देवता साक्षात ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं, 

____सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः।११।
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"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३। ।

ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)।(१.२.४३
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में  वैष्णव नाम से है  और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
 
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण में हैं।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप  है।
अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है।

शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव,गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ही ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था में शामिल नहीं माने जाते हैं। विष्णु से उत्पन्न होने से इनका पृथक वर्ण वैष्णव है।

  1. तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ३।
  2. जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
  3. क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
  4. हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।
  5. तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः ।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः७।
  6. धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ८।
  7. उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।९।
  8. ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः १०।
  9. तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अंडजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ११।

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"अनुवाद:-महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो ! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।

वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।

चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न  होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।

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"विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते .३..........सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ: उच्यते ।४।

अनुवाद:- विष्णु से यह उत्पन्न होने ही वैष्णव कहे जाते हैं....... सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता है।३-४।

"ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र चार वर्ण और उनके अनुसार( जातीयाँ) इस विश्व में हैं उसी प्रकार वैष्णव वर्ण के अनुसार एक स्वतन्त्र जाति है।*

"विशेष:- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियाँ नहीं हैं ये वर्ण हैं जातियाँ वर्णों के अन्तर्गत ही होती है।

"पद्म पुराण उत्तरखण्ड में अध्याय 68 में  वैष्णव वर्ण को रूप में वर्णित है

"जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।

पद्म पुराण कार ने वैष्णव वर्ण के रूप में सम्पादित किया है। 


*56-67 . इस घोर कलियुग में मनुष्य अल्पायु होते हैं। वे नापाक कृत्यों में लगे हुए हैं। और उन्हें (विष्णु के) नाम पर विश्वास नहीं है। इसी प्रकार ब्राह्मण विधर्मी होते हैं और सदैव पाप कर्मों में लगे रहते हैं। वे संध्या (प्रार्थना) से रहित हैं (अर्थात प्रार्थना नहीं करते हैं) , व्रत से च्युत हो गए हैं, दुष्ट हैं और गन्दे स्वरूप के हैं। जैसे ब्राह्मण हैं, वैसे ही क्षत्रिय भी हैं और वैसे ही वैश्य भी हैं । इसी तरह शूद्र और अन्य भी हैं , लेकिन विष्णु के भक्त नहीं। हे भगवान, शूद्र कलियुग में द्विजों की श्रेणी से बाहर हैं। वे नहीं जानते कि क्या धर्मी है, क्या अधर्मी है, और क्या लाभदायक है और क्या नहीं। हे गुरु, यह जानकर मैं आपके पास आया हूं। और मैंने ब्रह्मा के मुख से (विष्णु के) नामों का महत्व भी सुना है। आप सभी देवताओं के भगवान हैं, और हमेशा मेरे स्वामी हैं। आप त्रिपुर , विश्वात्मा और सृष्टिकर्ता के बार-बार शत्रु हैं । मुझ पर कृपा करें और विष्णु के हजारों नामों का वर्णन करें, जो मनुष्यों का सौभाग्य उत्पन्न करते हैं और उनमें सदैव महान भक्ति उत्पन्न करते हैं। यह ब्राह्मणों को ब्रह्म (परमात्मा या वेद) देता है। यह क्षत्रियों को विजय प्रदान करता है। यह वैश्यों को धन देता है और शूद्रों को सदैव सुख देता है। हे महेश्वर , मैं आपसे इसे सुनने की इच्छा रखता हूं। केशव (अर्थात विष्णु) के सभी भक्तों में आप (सबसे अधिक) सक्षम हैं। हे अच्छे व्रत वाले, मुझ पर कृपा करो, और यदि यह गुप्त न हो तो मुझे बताओ। यह बहुत शुद्ध है. यह सदैव समस्त तीर्थों से परिपूर्ण रहता है। अत: मेरी इसे सुनने की इच्छा है। हे भगवान, हे ब्रह्मांड के स्वामी, (कृपया) इसे बताएं।


नारद के वचन सुनकर, (शिव) की आँखें आश्चर्य से फैल गईं। विष्णु के नामों का स्मरण करते हुए वह भयभीत हो गया।

     पद्मपुराण-अध्यायः ६८

" महेश्वर उवाच-शृणु नारद वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् ।१।

यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रहत्यादिपातकात् । तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।२।____________________

तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ।३।

सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते ।येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः। ४।

क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।

हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।

तुलसीकाष्ठजां मालां कण्ठे वै धारयेद्यतः।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः।७।

धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ।८।

उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वन्ति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते ।९।

ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः ।१०।

तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अण्डजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ।११।

ते तु सर्वेऽपि विज्ञेयाः शंखचक्रगदाधराः ।येषां दर्शनमात्रेण ब्रह्महा शुद्ध्यते सदा ।१२।

किन्तु वक्ष्यामि देवर्षे तेभ्यो धन्यतमा भुवि ।वैष्णवा ये तु दृश्यन्ते भुवनेऽस्मिन्महामुने ।१३।

ते वै विष्णुसमाश्चैव ज्ञातव्यास्तत्वकोविदैः ।कलौ धन्यतमा लोके श्रुता मे नात्र संशयः ।१४।

विष्णोः पूजा कृता तेन सर्वेषां पूजनं कृतम् ।महादानं कृतं तेन पूजिता येन वैष्णवाः ।१५।

फलं पत्रं तथा शाकमन्नं वा वस्त्रमेव च।वैष्णवेभ्यः प्रयच्छन्ति ते धन्या भुवि सर्वदा ।१६।

अर्चितो वैष्णवो यैस्तु सर्वेषां चैव पूजनम् ।कृतं यैरर्चितो विष्णुस्ते वै धन्यतमा मताः ।१७।

तेषां दर्शनमात्रेण शुद्ध्यते पातकान्नरः ।किमन्यद्बहुनोक्तेन भूयोभूयश्च वाडव ।१८।

अतो वै दर्शनं तेषां स्पर्शने सुखदायकम् ।यथा विष्णुस्तथा चायं नांतरं वर्तते क्वचित् ।१९।

इति ज्ञात्वा तु भो वत्स सर्वदा पूजयेद्बुधः ।एक एव तु यैर्विप्रो वैष्णवो भुवि भोज्यते ।सहस्रं भोजितं तेन द्विजानां नात्र संशयः ।२०।

इति श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्साहस्र्यां संहितायामुत्तरखंडे उमापतिनारदसंवादे वैष्णवमाहात्म्यंनाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ।६८।

अध्याय 68 - विष्णु के भक्तों की महानता

                 "महेश्वर ने कहा :

1-9. हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें विष्णु के भक्तों के लक्षण बताऊंगा , जिन्हें सुनने से लोग ब्राह्मण की हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं ।

हे मुनिश्रेष्ठ, सुनो। अब मैं तुम्हें बताऊंगा कि उनके लक्षण किस प्रकार के हैं और उनका स्वभाव कैसा है। हे मुनिश्रेष्ठ, सुनो। मैं तुम्हें उस तरह के एक व्यक्ति का वर्णन करूंगा।

चूँकि वह विष्णु का या विष्णु से उत्पन्न है, इसलिए उसे वैष्णव कहा जाता है ।

______________ 

सभी जातियों( वर्णो) में वैष्णव को सबसे महान कहा जाता है। वैष्णव उन लोगों के परिवार में पैदा होता है जिनका भोजन उत्कृष्ट होता है (अर्थात जो उत्कृष्ट भोजन खाते हैं)।

 हे ब्राह्मण, जिनमें क्षमा, दया, तप और सत्य का वास है, उनके दर्शन मात्र से पाप कपास की तरह नष्ट हो जाते हैं ।

जिसका मन हानि करने से मुक्त होकर विष्णु में स्थिर हो गया है, (उसी प्रकार) जो सदैव शंख, चक्र, गदा, कमल (इनके चिन्ह) धारण करता है, उसी प्रकार वह भी जो अपने गले में (इन चिह्नों को) धारण करता है। तुलसी की माला (तुलसी) - लकड़ी, और हमेशा बारह प्रकार के निशान लगाता है, इसलिए वह भी जो धर्म और अधर्म के बीच अंतर जानता है, उसे वैष्णव कहा जाता है। वह सदैव वेदों और पवित्र ग्रंथों का पाठ (पाठ) करता रहता है और सदैव यज्ञ करता रहता है। इसी प्रकार उनका कुल भी धन्य है, और जो चौबीस पर्व बारम्बार मनाते हैं, वे ही महिमावान माने जाते हैं।

10-20. संसार में विष्णु के वे भक्त जिनके परिवार में केवल (अर्थात कम से कम) विष्णु का एक भक्त पैदा हुआ है, सबसे अधिक धन्य हैं। हे ब्राह्मण, उन्होंने बार-बार उस परिवार को मुक्त कराया है। अण्डप्रजक, अंकुरणशील, सजीवप्रजक आदि सभी प्राणियों को शंख, चक्र और गदाधारी जानना चाहिए। 

उनके दर्शन मात्र से ब्राह्मण का हत्यारा सदैव शुद्ध हो जाता है। लेकिन, हे दिव्य ऋषि, मैं आपको बताऊंगा कि हे महान ऋषि, पृथ्वी पर देखे गए वैष्णव उनसे भी अधिक धन्य हैं। 

सत्य जानने वालों को उन्हें विष्णु के समान मानना ​​चाहिए। मैंने सुना है कि कलियुग में वे निस्संदेह संसार में सबसे अधिक धन्य हैं ।

जिसने विष्णु की पूजा की, उसने सभी की पूजा की। जिसने विष्णु के भक्तों का सम्मान किया है उसने एक बड़ा उपहार दिया है। जो लोग विष्णु के भक्तों को फल, पत्ते, सब्जियां, भोजन या वस्त्र देते हैं, वे पृथ्वी पर हमेशा धन्य रहते हैं।

 जिन्होंने विष्णु के भक्त की पूजा की है, उन्होंने सभी की पूजा की है। जिन लोगों ने विष्णु की पूजा की है, वे सबसे अधिक धन्य कहे जाते हैं। इनके दर्शन मात्र से ही मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है।

 हे ब्राह्मण, दूसरी बातें बार-बार बताने से क्या लाभ? इसलिए इन्हें देखने और छूने से आनंद मिलता है। जैसे विष्णु हैं वैसे ही यह भक्त भी है। उनमें कोई अंतर नहीं है. हे बालक, यह जानकर बुद्धिमान व्यक्ति को सदैव (विष्णु के भक्त का) सम्मान करना चाहिए।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो विष्णु के एक भक्त वैष्णव को भोजन कराता है, उसने एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराया है। ऐसा मानना चाहिए !

और ब्रह्मवैवर्तपुराण कार ने जाति के रूप में वैष्णव को उद्धृत किया है।  यद्यपि जाति और वर्ण में अन्तर तो है परन्तु ब्राह्मणवाद में जाति और वर्ण एकार्थी हैं। जैसा कि निम्न विवेचना से स्पष्ट है ।

वर्णः, पुं, (व्रियते इति  वृ + “कॄवृजॄषिद्रुगुपन्य- निस्वपिभ्यो नित् ।” उणादि सूत्र ३ । १० । इति नः । स च नित्।) = जातिः। यहाँ वर्ण जाति अर्थ में हैं।

"सा च ब्राह्मणः क्षत्त्रियो वैश्यः शूद्रश्च । एषामुत्पत्त्यादिर्यथा । यदा भगवान् पुरुषरूपेण सृष्टिं कृतवान् तदास्य शरीरात् चत्वारो वर्णा उत्पन्नाः।

मुखतो ब्राह्मणाः बाहुतः क्षत्त्रियाः ऊरुतो वैश्याः पादतः शूद्रा जाताः।

एतेषां वर्णानां धर्म्माः शास्त्रेषु निरूपिताः सन्ति । 

तत्र ब्राह्मणधर्म्मा उच्यन्ते ।अध्ययनं यजनं दानञ्चेति । जीविका- स्त्रयः अध्यापनं याजनं प्रतिग्रहश्चेति । १ ।

क्षत्त्रियस्य त्रयो धर्म्माः । अध्ययनं यजनं दानञ्च । प्रजानां रक्षणं जीविका ।२।

वैश्यस्य त्रयो धर्म्माः । अध्ययनं यजनं दानञ्च चतस्रो जीविकाः। कृषिः गोरक्षणं वाणिज्यं कुशीद-ञ्चेति । ३ । 

शूद्रस्य तु ब्रह्मक्षत्त्रविशां शुश्रूषा धर्म्मो जीविका च ।४।

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जिनका आहार ( भोजन ) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया , तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।

उन वैष्णवों के दर्शन  मात्र से  पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और  अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५। 

जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है  गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।

प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७। 

जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।

ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है।"जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यन्त धन्य हैं।९। 

जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है  हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।

"उपर्युक्त श्लोकों में गोपों के वैष्णव वर्ण तथा भागवत धर्म का संकेत है जिसे अन्य जाति के पुरुष गोपों के प्रति श्रृद्धा और कृष्ण भक्ति से प्राप्त कर लेते हैं।। 

"सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)

"विशेष:-विष्णोरस्य रोमकूपैर्भवति  अण्सन्तति वाची- विष्णु+ अण् = वैष्णव= विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु से सम्बन्धित- जन वैष्णव हैं।

अर्थ- विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं। 

वैष्णव वर्ण की स्वतन्त्र जाति आभीर है। पद्म पुराण उत्तराखण्ड के अतिरिक्त इसका संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी है । प्रसंगानुसार वर्णित किया गया है।

श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्साहस्र्यां संहितायामुत्तरखंडे उमापतिनारदसंवादे वैष्णवमाहात्म्यंनाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ।६८।

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अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही होने से रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।

किसी भी पुराण अथवा शास्त्र में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं हुई है ।

गोप वैष्णव वर्ण में आभीर जाति के रूप में हैं देखे नीचे ब्रह्मवैवर्त पुराण का सन्दर्भ-

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मूल विष्णु स्वयं भगवान् कृष्ण का गोलोक वासी सनातन रूप है। और स्थूल विष्णु ही उनका विराट् रूप है।
कृष्ण सदैव गोपों में ही अवतरित होते हैं। और
गो" गोलोक और गोप सदैव समन्वित (एकत्रित) रहते हैं।

गोपों की उत्पत्ति गोपियों सहित कृष्ण और राधा से गोलोक धाम में ही होती है। कृष्ण की लीलाओं के सहायक बनने के लिए ही गोप गोलोक से सीधे पृथ्वी लोक में आते हैं।

और जब तक पृथ्वी पर गोप जाति विद्यमान रहती है तब तक कृष्ण भी अपने लौकिक जीवन का अवसान होने पर भी निराकार रूप से विद्यमान रहते ही हैं। इसमें कोई सन्देह पृथ्वी पर दोनों की उपस्थित कृष्ण के होने को सूचित करती है। 

"गोप अथवा यादव एक ही थे क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।" जिसका समान भावार्थ है।

"जब ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन क्यों नहीं हो सकते हैं ?

और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् विष्णु के शरीर से उत्पन्न हैं।परन्तु दोनों की उत्पत्ति मूलत: ब्रह्माण्ड से परे गोलोक में ही होती है और ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट के एक रोम कप में स्थित  ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा के मुख से -इसलिए गोप अथवा यादव ब्राह्मणों से कई गुना  श्रेष्ठ व पूज्य हैं

परन्तु उन्हें इसके अनुरूप चरित्र स्थापित करने की आवश्यकता है।

परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं जो कि गोप जाति के अनुकूल नहीं है । "किसी शास्त्र में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं दर्शायी है!

तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं  । इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।

(👇 "कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:४१।

(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे।

वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।

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             "राधोवाच -
"यत्प्राप्तये विधिहरप्रमुखास्तपन्ति
     वह्नौ तपः परमया निजयोगरीत्या ।
दत्तः शुकः कपिल आसुरिरंगिरा
     यत्पादारविन्दमकरन्दरजः स्पृशन्ति ॥ २० ॥

"तं कृष्णमादिपुरुषम् परिपूर्णदेवम्
     लीलावतारमजमार्तिहरं जनानाम् ।
भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय गोपेषु गृहे
     जातं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते ॥ २१ ॥

गाः पालयन्ति सततं रजसो गवां च
     गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
   जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥ २२ ॥

अनुवाद:-

श्रीराधा ने कहा- सखी ! जिनकी प्राप्ति के लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योग रीति से पंचाग्निसेवनपूर्वक तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अंगिरा आदि भी जिनके चरणाविन्दों के मकरन्द और पराग का सादर स्पर्श करते हैं; 

उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजनदु:खहारी, प्रभु ! भूतल-भूरि-भार-हरणकारी तथा सत्पुरुषों के कल्याण के लिये गोपों के घर में प्रकट हुए 

आदि पुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा  तुम कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है।

राधा जी कहती हैं- मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। 

तुम उसे काला-कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की श्याम-विभा से विलसित सुन्दर कला का दर्शन करके उन्हीं में मन लग जाने के कारण भगवान नीलकण्ठ औरों के सुन्दर मुख को छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये

और  उस काले-कलूटे के लिये ही पागलों की भाँति व्रज में दौड़ते फिरते हैं !

एक बात तो स्पष्ट है कृष्ण अपने सम्पूर्ण कलाओं के साथ मानव रूप में केवल गोप जाति में ही उत्पन्न होते है।

राम, परशुराम अथवा बुद्ध कभी गायें पालते या चारण करते नहीं सुने जाते हैं क्योंकि ये क्षुद्र वराट् (छोटे-विष्णु) के अवतार हो  हैं परन्तु कृष्ण जो विष्णु से से भी परे और उनके भी मूलकारण रूप हैं। अपने गोप रूप में ही गोपों मैं अवतरित होते हैं।
जिनकी नाभि से गोलोक में ब्राह्मा तो उत्पन्न होते हैं परन्तु वे सृष्टि का प्रारम्भ क्षुद्र विराट् विष्णु के नाभि कमल से पुन: उत्पन्न होकर ही करते हैं।
कृष्ण और राधा से उत्पन्न विराट ( महाविष्णु) से उनके प्रत्येक रोम कूप में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में पृथक-पृथक - ब्रह्मा, विष्णु और शिव की उत्पत्ति होती है।

 परन्तु द्विभुजधारी कृष्ण स्वयं  सदैव जब कभी भी पृथ्वी पर अवतरित होते हैं । तो गोपों में ही अवतरित होते हैं। वे नित्य गोपालन और रास क्रीडा करते हैं। यह रास मूलत: हल्लीशम् नृत्य का रूपान्तरण है। जो अहीरों की सांस्कृतिक परम्परा का एक अभिन्न उत्सव है।

" हल्लं हलं ईशा हलदण्डं वत् समन्वित्वा गोपिकाणां स्त्रीणां  गोपाम् सह नर्त्तनम् - इति हल्लीशम्   (पुं   उपरूपकविशेषः । 
साहित्य- दर्पण में जिसका लक्षण है।   साहित्यदर्पण ।  ६ । ५५५ ।  

“ हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः । वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः । मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः ॥ 

गोपिकाओं की चरण रज लेने के लिए तीनों ब्रह्मा विष्णु महेश लालायित रहते हैं।

नारद पुराण में इसका एक वर्णन देंखे-


अनुवाद:-
वृन्दावन के कुँज में चन्द्रमा की किरणों से प्लावित( डूबी हुई) रात्रि में नन्दपुत्र श्रीकृष्ण ने गोपीगण के साथ रास-नृत्य मूलक आनन्दक्रीड़ा की थी
भला उन गोपी गण के भाग्य का गायन मैं कैसे कर सकता हूँ ? 

उन गोपी गण की चरण-रज लेने के लिए  इन्द्र आदि देवता ही नहीं अपितु स्वयं देवत्रयी के  प्रतिनिधि ब्रह्मा ,विष्णु और महेश भी व्यग्र रहते हैं ।

वृन्दावन के तृण ,मृग पक्षी और कृमि पर्यन्त प्राणीगण भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पूज्यत्तम हैं।

वृन्दावन में जो कोई भी प्राणी भक्तिभाव से  इन अद्वैत ब्रह्म की उपासना करेगा वह आनन्द-सिन्धु में प्लावित हो जायेगा ।
सन्दर्भ:बृहद् नारद पुराण बृहद उपाख्यान में उत्तर-भागका वसु मोहिनी
"संवाद के अन्तर्गत वृन्दावन महात्म्य नामक अस्सीवाँ अध्याय -


गोपा गोप्यश्च विविधप्राभृतान्नकरांबुजाः।
मन्दारदींश्च तद्बाह्ये पूजयेत्कल्पपादपान् ।८०-६९।

सन्दर्भ:- श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे तृतीयपादे कृष्णमन्त्रनिरूपणं नामाशीतितमोऽध्यायः । ८०।

नारद पुराण में सभी दोनों की पूजा का विधान-

दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।

एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम् ।।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।। ८०-५९ ।।

पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।

दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।।

सुविंदा मित्रविंदा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।

ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम् ।।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।

गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४।


दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः ।।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।

नन्द, यशोदा, वसुदेव तथा देवकी सभी गोप जाति में अवतरित 

वसुश्रेष्ठ द्रोण और उनकी पत्नी धरा ने नन्द और यशोदा के रूप में जन्म लिया वसु धर्म के पुत्र थे और धर्म स्वयं गोलोक वासी कृष्ण से उत्पन्न थे।

ब्रजमंडल में सुमुख नामक गोप की पत्नी पाटला के गर्भ से धरा का जन्म यशोदा के रूप में हुआ। और उनका विवाह पर्जन्य के बीच के पुत्र  नन्द से हुआ। 
और वसुदेव का जन्म भी गोपों में हुआ - 

शूरसेनाभिधःशूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥

•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए  कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ

सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।

____________ 

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः ।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः।२७।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम् ।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः।२८।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः ।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।

इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।३२

*****

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः ।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः ।३४।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते ।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः ।३५।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः ।३६।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः ।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया ।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन ।1.55.४०।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले । ४१ ।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् । ४२।

गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः ।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः ।४३।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते ।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।४५।

वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ।
४६।

जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।४७।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना । ४८।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन। ४९।

             "वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् । 1.55.५० ।

तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ।५१

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः ।५२।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
हरिवंशपर्व सम्पूर्ण ।

अनुवाद:- 

अध्याय 55 - (विष्णु का उत्तर) हरिवंश पुराण ​​- हरिवंश पर्व--

18. ब्रह्मा ने कहा: - हे भगवान, हे नारायण , मुझसे सफलता की कुंजी सुनो और पृथ्वी पर तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे?

19. उनके कुल का यश बढ़ाने के लिये तुम्हें यादव कुल में जन्म लेना पड़ेगा ।

20. तुम भलाई के लिये इन असुरों का नाश करके और अपने महान कुल को बढ़ाकर मानवजाति की व्यवस्था स्थापित करोगे। इस विषय में मुझसे सुनो.

______ 

21 हे नारायण, प्राचीन काल में, महाबली वरुण के महान यज्ञ में , कश्यप ने यज्ञ के लिए दूध देने वाली सभी गायों को हरण कर लिया था।

24. कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, अदिति और सुरभि , जो वरुण से गायों को उसकी विना सहमति के लेना चाहती थीं।

23 तब वरुण मेरे पास आये और सिर झुकाकर प्रणाम करके बोले, “हे श्रद्धेय, पिता ने मेरी सारी गायें हरण कर ली हैं।

24. हे पितामह, उन्होने अपना काम पूरा करके भी उन गायोंको लौटाने की इच्छा नही की है ।। वह अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभि के नियंत्रण में हैं।

25. हे प्रभु, मेरी वे सब गायें जब चाहें तब दिव्य और अनन्त दूध देती हैं। अपनी शक्ति से सुरक्षित होकर वे समुद्र  के तट में विचरण करती हैं।

26. वे देवताओं के अमृत के समान सदा दूध देती रहती हैं। कश्यप के अलावा कोई और नहीं है जो उन्हें अपने अधीन कर सके।

27. हे ब्रह्मा, गुरु, उपदेशक या कोई भी हो यदि कोई भटक जाता है तो आप ही उसे नियंत्रित करते हैं। आप हमारे परम आश्रय हैं।

28. हे संसार के गुरु, यदि उन शक्तिशाली व्यक्तियों को दंड नहीं दिया जाएगा जो अपना काम नहीं जानते हैं, तो संसार की व्यवस्था निश्चित ही अस्तित्व में नहीं रहेगी।

29. आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। क्या तुम मुझे मेरी गायें दिलवा दोगे, मैं फिर समुद्र में चला जाऊंगा।

30. ये गायें मेरी आत्मा हैं , वे मेरी अनन्त शक्ति हैं। आपकी समस्त सृष्टि में गाय और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण  ऊर्जा के शाश्वत स्रोत हैं।

31. सबसे पहले गाय को बचाना चाहिए. जब वे बच जाती हैं तो वे ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं। गौ-ब्राह्मणों की रक्षा से ही सारा संसार कायम है।''

32. हे अच्युत , जल के राजा वरुण द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर और गायों के अपहरण के बारे में वास्तव में सूचित होने पर- मुझ ब्रह्मा ने कश्यप को श्राप दे दिया।

33. जिस अंश से महामनस्वी कश्यप ने गायों को चुराया था, उस अंश से वह पृथ्वी पर गोप के रूप में जन्म लें ।

34. उनकी दोनों पत्नियाँ सुरभि और अदिति भी उनके ही साथ गोपों में जन्म लें।

35-36. वह उनके साथ गोपिकाओ के रूप में  सुखपूर्वक रहेंगी। शक्तिशाली कश्यप का वह अंश वासुदेव के नाम से जाना जाएगा और जो पृथ्वी पर गायों के बीच रहेगा। जहाँ मथुरा के पास गोवर्धन नाम का एक पर्वत है ।

37-42. कंस को  कर( टेक्स)  अर्पित करते हुए वह गायों से आसक्त होकर वहां रहता है।  जिनकी दो पत्नियाँ अदिति और सुरभि वासुदेव की देवकी और रोहिणी नाम की दो पत्नियों के रूप में पैदा हुईं । 

वहाँ गोपों के सभी गुणों से युक्त उनके एक पुत्र  के रूप में जन्म लेने के कारण वह वहीं बड़े  होगे जैसा कि आप पहले अपने तीन कदमों वाले रूप में करते थे।

फिर अपने आप को (योग के) रूप आच्छादित करके, हे मधुसूदन, क्या आप दुनिया के कल्याण के लिए वहां नहीं जाओगे। 

ये सभी देवता आपकी विजय और आशीर्वाद के उद्घोष से आपका स्वागत कर रहे हैं।

 तुम पृथ्वी पर उतरकर रोहिणी और देवकी से अपना जन्म लेकर उन्हें माता रूप में प्रसन्न करो। सहस्रों दुग्ध दासियाँ भी पृथ्वी पर छा जायेंगी।

43. हे विष्णु , जब आप जंगल में गायों को चराते हुए घूमेंगे तो वे जंगली फूलों की मालाओं से सुशोभित आपके सुंदर रूप को देखेंगे।

44. हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाले, हे विशाल भुजाओं वाले नारायण, जब आप बालक बनकर ग्वालबालों के गांवों में जाएंगे तो सभी लोग बालक बन जाएंगे।

45-46. हे कमल नेत्रों वाले, आपके प्रति समर्पित मन वाले ग्वालबाल होने के नाते आपके सभी भक्त आपकी सहायता करेंगे; जंगल में गायें चराते, चरागाहों में दौड़ते और यमुना के जल में स्नान करते हुए वे तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह प्राप्त कर लेंगे। और वासुदेव का जीवन धन्य हो जाएगा।

47. तू उसे अपना पिता कहेगा, और वह तुझे अपना पुत्र कहेगा। कश्यप को बचाइये और किसे आप अपने पिता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं?

48. हे विष्णु, अदिति को बचाएं और कौन आपको गर्भ धारण कर सकता है? इसलिए, हे मधुसूदन, आप अपने स्वनिर्मित योग द्वारा विजय के लिए आगे बढ़ें। हम भी अपनी-अपनी बस्तियों की मरम्मत करते हैं।

49. वैशम्पायन ने कहा: - देवताओं को दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करने का आदेश देकर भगवान विष्णु क्षीर  सागर के उत्तरी किनारे पर अपने निवास स्थान पर चले गए।

60. इस क्षेत्र में सुमेरु पर्वत की एक गुफा है जिसमें पहुँचना कठिन है, जिसकी पूजा संक्रांति के दौरान उनके तीन चरण चिन्हों से की जाती है।

61. वहाँ गुफा में, अपने पुराने शरीर को छोड़कर, सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान हरि ने उसकी आत्मा को वसुदेव के घर भेज दिया।


नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-

दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।    वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।

एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम् ।।यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।। ८०-५९ ।।

पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।

दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।।रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।।

सुविन्दा मित्रविंदा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।सुशीला च लसद्रम्यचित्रिताम्बरभूषणा ।८०-६२।

ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम् ।।    नन्दगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।

गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४।

दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः ।।धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।

अनुवाद:-

इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।

अरुणश्यामले हारमणिकुण्डल मण्डिते ।। बलः शंखेंदुधवलो मुशलं लांगलं दधत् ।८०-६६ ।

हालालोलो नीलवासा हलवानेककुंडलः ।।कला या श्यामला भद्रा सुभद्रा भद्रभूषणा । ८०-६७ ।।

वराभययुता पीतवसना रूढयौवना ।।वेणुवीणाहेमयष्टिशंखश्रृंगादिपाणयः ।८०-६८ ।।

गोपा गोप्यश्च विविधप्राभृतान्नकराम्बुजाः ।।मन्दारदींश्च तद्बाह्ये पूजयेत्कल्पपादपान् ।८०-६९।

लसद्गोपगोपीगवां वृंदमध्ये स्थितं वासवाद्यैः सुरैरर्चितांध्रिम् ।। महाभारभूतामरारातियूथांस्ततः पूतनादीन्निहंतुं प्रवृत्तम् ।८०-८० ।

लसद्गोपगोपीगवां वृन्दमध्यस्तितं सांद्रमेघप्रभंसुंन्दरांगम् ।।शिखंडिच्छदापीडमब्जायताक्षं लसञ्चिल्लिकं पूर्णचद्राननं च ।। ८०-८३ ।।

शिक्षावेषधरं कृष्णं किंकिणीजालशोभितम् ।।ध्यात्वा प्रतर्पयेन्मंत्री दुग्धबुद्ध्या शुभैर्जलैः ।। ८०-१४० ।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे तृतीयपादे कृष्णमन्त्रनिरूपणं नामाशीतितमोऽध्यायः ।८०।


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यहाँ एक बात विचारणीय है कि , साधारण देव इन्द्र आदि की तो बात ही छोड़ो बल्कि सृष्टि के तीन काल और तीन गुणों ( सत,रज और तम के प्रतिनिथि ईश्वर के प्रतिरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गोप- गोपिकाओं के पैरों की धूल लेने के आकाँक्षी हैं। 

"गोप गोपिकाओं की महानता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ?
ब्रह्माण्ड में देवत्रयी में विद्यमान विष्णु क्षुद्र- विराट है। जो विराट के एक रोमकूप में उत्पन्न ब्रह्माण्ड के पालक विष्णु हैं।

और इस विराट- विष्णु की उत्पत्ति स्वराट् (स्वयं प्रकाश विष्णु से हुई जिनका गोलोक में वास है। वैकुण्ठ लोक में विद्यमान नारायण भी स्वराट्- उत्पन्न उसका अकर्मक रूप है।     इस लिए क्षुद्र विराट ( छोटा विष्णु) ही प्रत्येक ब्रह्माण्ड में पालनकर्ता के रूप में उपस्थित रहते हैं। 

परन्तु जो स्वराट् विष्णु के रूप में सर्वोच्च हैं उनके गोलोक और पृथ्वी लोक दोनों पर  समान व्यवहार ही हैं। उनका गाये और गोपों का सानिध्य शाश्वत है।

"पृथ्वी पर जब तक गोपों का अस्तित्व हैं तब तक कृष्ण का भी अस्तित्व है। भले ही वह मानव शरीर से नहीं हो परन्तु निराकार रूप से अवश्य उपस्थित हैं ;  वैष्णवों की यह मान्यता है।

परशुराम अथवा बुद्ध या कहें राम कभी भी कृष्ण के पूर्ण अवतार नहीं हैं। ये सब  छोटे विष्णु के  आँशिक अवतार हो सकते हैं जो कि प्रकृति  स्वरूपा राधा से उत्पन्न विराट पुरुष (गर्भोदकशायी विष्णु) से उत्पन्न हुए हैं।

विष्णु शब्द सत्वाधिकारी ईश्वरीय सत्ता के तीन रूपों या वाचक है :-
१-स्वराट् २-विराट् और ३-क्षुद्र विराट्  

१-स्वराट्- कारणार्णवशायी विष्णु का वाचक है २-विराट गर्भोदक शायी विष्णु का वाचक है जो प्रकृति रूपी राधा और कृष्ण की प्रथम सन्तान हैं। इसके प्रत्येक रोम में एक एक ब्रह्माण्ड है। 

३-तृतीय विष्णु क्षुद्रविराट्- हैं जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में शिव और ब्रह्मा के कारण हैं।
जिनका नाभि कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा से रूद्र उत्पन्न होते हैं।
यही विष्णु कभी कश्यप ऋषि की सन्तान के रूप में वामन तो कभी इन्द्र के छोटे भाई विष्णु बनते हैं। 

कृष्ण का स्वरूप सबसे पृथक है वे सबके निमित्ति कारण और उपादान कारण भी हैं।

ब्रह्म वैवर्त- पुराण में उनके निज धाम गोलोक का वर्णन निम्न प्रकार से है।


ब्रह्म वैवर्त पुराण-प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3)

परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक का वर्णन-
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भगवान नारायण कहते हैं– नारद ! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा( अचानक) दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। 

उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा।

माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा।

जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।

परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है।

इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा विष्णु और शिव आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता। 

प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है ? ऊपर वैकुण्ठलोक है।

यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके भी ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है। 
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श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है।

सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। 

पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।


ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है।
_____________________________,_
गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं।
वत्स नारद! देवताओं की संख्या  (तीन + तीस) करोड़ है।
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ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं।  नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
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नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल ख़ाली था।

दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया।

तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।
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पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। 
कहा- ‘बेटा ! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ।
 जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अंग है। आदि में ‘ऊँ’ का स्थान है। बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं। 
अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ऊँ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है। इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं।
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(देवी भागवत पुराण- प्रकृति खण्ड- स्कन्ध नवम् अध्याय तृतीय)
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ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।
यह बालक महाविष्णु है।
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विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराटमय बालक से कहा- ‘पुत्र! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।’ उस समय विराट व्यापक प्रभु ही बालक रूप से विराजमान था। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही।

बालक ने कहा– आपके चरण कमलों मे मेरी अविचल भक्ति हो– मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परन्तु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आप में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये। जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है।

 जिस अज्ञानीजन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ-सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है।

 प्रभो! जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती। महाभाग! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं। 

आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं।

नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करके वह बालक चुप हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे।

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ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3) देवी भागवत पराण
नवम स्कन्ध तृतीय अध्याय-

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने सूक्ष्म अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे।

विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे सूक्ष्म अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'

इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।

भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’

नारद ! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।

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ब्रह्म वैवर्त पुराण-
प्रकृतिखण्ड: अध्याय(3) देवीभागवत पुराण नवम स्कन्ध तृतीय (अध्याय)
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नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।

ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। 

साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
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सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। 
वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे।  यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया।

नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं। 

ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

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गोलोक और पृथ्वी लोक दोनों पर उनके समान व्यवहार ही हैं। गाये और गोपों का सानिध्य शाश्वत है।

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इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं। 

इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।

                   "सौतिरुवाच।
आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः ।1.3.३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः ।।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः ।३१।

तपसां फलदाता च प्रदाता सर्वसम्पदाम् ।।
स्रष्टा विधाता कर्त्ता च हर्त्ता च सर्वकर्मणाम्।३२।

धाता चतुर्णां वेदानां ज्ञाता वेदप्रसूपतिः ।।
शान्तः सरस्वतीकान्तः सुशीलश्च कृपानिधिः।३३।

श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं पुटाञ्जलिः ।।
पुलकांकितसर्वांगो भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।३४ ।

                   "ब्रह्मोवाच-
कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम् ।।
अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम् ।। ३५ ।।

किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम् ।।
नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम्।।३६।।

वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम् ।।
रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्।।३७।।

इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्नसिंहासने वरम् ।।
नारायणेशौ संभाष्य स उवास तदाज्ञया ।। ३८ ।।

इति ब्रह्मकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत्।।
पापानि तस्य नश्यन्ति दुःस्वप्नः सुस्वप्नो भवेत् ।। ३९ ।।

भक्तिर्भवति गोविन्दे श्रीपुत्रपौत्रवर्द्धिनी ।।
अकीर्तिः क्षयमाप्नोति सत्कीर्त्तिर्वर्द्धते चिरम् ।। 1.3.४० ।।

इति ब्रह्मवैवर्त्ते ब्रह्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।।

"अनुवाद:-

सौति कहते हैं – तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के नाभि-कमल से बड़े-बूढ़े महातपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दाँत और केश सभी सफेद थे। चार मुख थे। वे ब्रह्मा जी योगियों के ईश्वर, शिल्पियों के स्वामी तथा सबके जन्मदाता गुरु हैं। तपस्या के फल देने वाले और सम्पूर्ण सम्पत्तियों के जन्मदाता हैं। वे ही स्रष्टा और विधाता हैं तथा समस्त कर्मों के कर्ता, धर्ता एवं संहर्ता हैं। चारों वेदों को वे ही धारण करते हैं। वे वेदों के ज्ञाता, वेदों को प्रकट करने वाले और उनके पति (पालक) हैं। उनका शील-स्वभाव सुन्दर है। वे सरस्वती के कान्त, शान्तचित्त और कृपा की निधि हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया। उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था तथा उनकी ग्रीवा भगवान के सामने भक्तिभाव से झुकी हुई थी।

ब्रह्मखण्ड : अध्याय 3

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ब्रह्मा जी बोले – जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोप-वेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी नित्य किशोरावस्था है, जो सदा शान्त रहते हैं, जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है तथा जो नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण हैं, उन परम मनोहर गोपी वल्लभ को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में विराजमान होते हैं, रासलीला में जिनका निवास है तथा जो रासजनित उल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन रासेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

ऐसा कहकर ब्रह्मा जी ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से नारायण तथा महादेव जी के साथ सम्भाषण करते हुए श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे। जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और बुरे सपने अच्छे सपनों में बदल जाते हैं। भगवान गोविन्द में भक्ति होती है, जो पुत्रों और पौत्रों की वृद्धि करने वाली है। इस स्तोत्र का पाठ करने से अपयश नष्ट होता है और चिरकाल तक सुयश बढ़ता रहता है।

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