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धर्म और संस्कृति के नाम पर नग्न होना आज केवल पाखण्ड मात्र है। समय, परिस्थितियों और देश- स्थान के अनुसार नियम भी बदल जाते हैं। अत: प्राचीन समय बातें आज उसी रूप में चरितार्थ नहीं हो सकती हैं। इस लिए पुराने जमाने की बाते उसी रूप लागू करना मूर्खता है। साधु यदि साधना और आत्मिक ज्ञान से हीन हो तो वह वास्तव में नंगा ही है।
उसका यह नंगापन उसके बाह्य आडम्बर से जाहिर- है।
नंगा होकर महिलाओं से पैर छुबवाना तो कोई धर्म या सभ्यता नहीं है।
धर्म के नाम पर व्याप्त गंदगी को निकालना आज आवश्यक हैं।
"वस्त्रहीन होना प्रकृति के विरुद्ध भले ही न हो परन्तु मानवीय सभ्यता के विरुद्ध अवश्य है।
क्योंकि मनुष्य अस्तित्व काम और रति क्रियाओं के मिलन के परिणाम स्वरूप उत्पन्न उर्जा से जीवन ग्रहण करता है।
चेतन प्राणीयों का संसार मैथुनीय सृष्टि से ही विकसित होता है।
कामशक्ति को नियन्त्रित और मर्यादित करने के लिए सभ्यता काम विधान मानवीय है।
जब ऋषि' मुनि और सिद्ध भी काम नियन्त्रण ते लिए कृशकाय होते रहे परंतु बहुत से इसे नियन्त्रित नहीं कर पाये तो आज का साधक कैसे नियन्त्रित कर सकता है ? और वह भी जो कृशकाय न हो !
स्वस्थ शरीर में काम उत्तेजना स्वाभाविक ही है । स्त्री और पुरुष की शारीरिक -मानसिक संरचना ऋणात्मक और धनात्मक आवेश युक्त है।
ऋण और धन आवेश मिलकर विस्फोटक हो जाते हैं।
ये महाराज मोटे- सोटे शरीर वाले महिलाओं से चरण स्पर्श करा रहे हैं । इनके लिए ये कौन सी सार्थक क्रिया है ?
इसमें विकृति होना स्वाभाविक ही है ।
मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों और वृत्तियों के अधीन रहता है।
काम सम्पूर्ण स्वस्थ शरीर में व्याप्त हो शरीर को निरोग करता है।
अनुकूल परिस्थितियों में उसका स्फुटन भी सम्भव है।
यह सत्य है कि वस्त्रों को धारण करने की महती अवश्यकता का कारण मनुष्य का इंद्रियों पे नियन्त्रण न होना मात्र है ।
परन्तु सभ्यता इसका मौलिक पहलू है जो चेतना का सर्जन है। जिसने उद्दीप्त कामाग्नि को संयमित करने के लिए सभ्यता का सर्जन किया।
अन्यथा अन्य समस्त जीव प्रकृति के अनुरूप मूल रुप में वस्त्रहीन ही तो रहते हैं। जिनमें यौन व्यवहार भी अनियन्त्रित ही होता है।
न इनके माता सा सम्बन्ध होता नव बिन सा न पुत्री का -
मनुष्य एक अतिचेतना सम्पन्न प्राणी है। और पशु निम्न चेतना युक्त प्राणी हैं।
दोनों के चेतना स्तर भिन्न हैं।
मनुष्य नवीन कर्म सृजन करने वाला शरीर ( योेैनि) लिए हुए है। और अन्य प्राणियों पशु आदि की केवल भोग योनि है।
जो अपने कुत्सित कर्मों को प्रारब्ध के अधीन होकर भोगते रहते हैं ।
जिनके न वाणी है न शब्द और नाहीं सभ्यता ! सभ्यता तो मानवीय सर्जन है पशुओं का समाज हो सकता है परन्तु उनकी सभ्यता या संस्कृति नहीं।
मनुष्य जब पशुओं के समान था तब नंगा रहकर अनैतिक यौन व्यवहार करता रहता था। वह निम्न चेतना युक्त प्राणी था।
परन्तु उसके सभ्य बनने में उसकी चेतना का विकास हुआ और उसने पशुओं से पृथक होने के लिए वस्त्रों का निर्माण किया और यौनिक अंगों को आच्छादित भी किया।
योगी ,ज्ञानी और अति चेतना से सम्पन्न प्राणी है।
वह पशुओं के समान जड़ नहीं है।
पशु केवल खाने और भोग करने में ही जीवन व्यतीत करते हैं।
इंद्रियों पे पूर्ण नियंत्रण होने पर भी उस योगी के लिए वस्त्रों का सर्वथा त्याग मर्यादित नहीं है।
प्राचीन काल में भी लंगोट का विधान साधक के लिए अनिवार्य था जब वस्त्र उत्पादक यन्त्र या कारखाने भी नहीं थे।
महिलाएँ भी नग्न होकर अपनी साध्वी स्थितियों का परिचय दे सकती हैं।
तब इन्हीं साधकों के समर्थकों को आपत्ति क्यों होगी -
वस्त्रहीन होना प्रकृति के विरुद्ध तो नहीं है परन्तु सभ्यता के विरुद्ध अवश्य है।
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मनुष्य का नग्न होना उसके आदिम व असभ्य और निम्न रूप का दिग्दर्शन है।
नग्न-वादियों रंगों को परिभाषित
नग्नाः=ग्ना गमनीया स्त्री न विद्यते यस्य स नग्नो ब्रह्मचारी तपस्वी। अत्रापि ग्नाशब्द उपलक्षकः, विषयवासनारहितो नग्न उच्यते।
ये नग्नाः=विषयवासनारहिताः सन्ति ते
(न ) जिस प्रकार- (दुर्मदास:- दूषित मद से उन्मत्त लोग। युध्यन्ते-युद्ध करते हैं। हृत्सु- हृदयों में। सुरायाम्- पीतास:- सुरा पीने वाले लोग। नग्ना: -
नंगे लोग।ऊध:-स्तन या छाती। जरन्ते- जारों की तरह मसलते रहते हैं। जीर्ण करते रहते हैं।
नग्नाः=ग्ना गमनीया स्त्री न विद्यते यस्य स नग्नो ब्रह्मचारी तपस्वी।
जिसके साथ कोई ग्ना (स्त्री) नही हो वह नग्नो- ब्रह्म चारी तपस्वी है।
नंगों की भी अच्छी परिभाषा गन्दिगी को सहेजने वालों ने की है।
अत्रापि ग्नाशब्द उपलक्षकः, विषयवासनारहितो नग्न उच्यते। यहाँ भी ग्ना शब्द उपलक्षक है। विषय वासना ( काम- या सेक्स की इच्छा) से रहित नग्न- कहलाता है।
ये नग्नाः= विषयवासनारहिताः सन्ति ते नग्ना: कथ्यन्ते।
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परन्तु पुराण कहते हैं कि पुरुषों को नग्ना स्त्रीयों के कभी नहीं देखना चाहिए।
“न नग्नां स्त्रियमीक्षेत् पुरुषं वा कदाचन न नग्न पुरुषीक्षेत् स्त्रीयम् ।
न च मूत्रं पुरीषं वा न वै संस्पृष्टमैथुनम् ॥
नोच्छिष्टः
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