- सूर्य मंडल,
- परमेष्ठी मंडल और
- स्वायम्भू मंडल।
________
अखिल ब्रह्माण्ड का प्रत्येक पिण्ड ( ग्रह ,उपग्रह तारा, नक्षत्र आदि सतत गतिशील है। ये गतियाँ इनकी दो प्रकार से है। भ्रमण और परिक्रमण दोंनो गतियाँ पिण्ड में निहित उसके द्रव्यमान ( भार ) के आनुपातिक गुरुत्वाकर्षण के परिणाम स्वरूप नियत हैं।
और यह गतिशीलता भी द्रव्यमान के आनुपातिक परिणाम से न्यूनाधिक होती है।
ब्रह्माण्ड के सभी ग्रह उपग्रह तारा आदि की गति समान नहीं हैं।
इस गतिशीलता का सिद्धान्त ब्रह्माण्डीय पिण्डों के घनत्व (भौतिकी में किसी पदार्थ के इकाई आयतन में निहित द्रव्यमान या मात्रा या भार ( वजन) को उस पदार्थ का घनत्व (डेंसिटी) कहते हैं )और द्रव्यमान के आधार पर उनके समानान्तर पिण्ड के सापेक्ष गुरुत्वाकर्षण होता है।
ग्रहीय गति के नियम
गुरुत्वाकर्षण बल- ब्रह्माण्ड में पदार्थ का प्रत्येक कण दूसरे कण को द्रव्यमान.के कारण अपनी ओर आकर्षित करता है। इस सर्वव्यापी आकर्षण बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहते हैं।
उदाहरण—हम जानते हैं कि सभी ग्रह सूर्य के परितः( चारों ओर) दीर्घवृत्तीय कक्षाओं में चक्कर लगाते हैं तथा उपग्रह ग्रहों के परितः चक्कर लगाते हैं। वास्तव में, सूर्य प्रत्येक ग्रह को अपनी ओर आकर्षित करता है तथा ग्रह भी उपग्रहों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं पृथ्वी सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है, अपितु सभी आकाशीय पिण्ड एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। विभिन्न पिण्डों के मध्य कार्यरत इस बल को ही गुरुत्वाकर्षण कहते हैं।
गुरुत्वाकर्षण और क्या करता है ? किसी ग्रह( ब्रह्माण्डीय पिण्ड का आकार और द्रव्यमान उसके समानांतर पिण्ड के सापेक्ष गुरुत्वाकर्षण (खिंचाव) को निर्धारित करता है।
गुरुत्वाकर्षण वह है जो ग्रहों को सूर्य के चारों ओर कक्षा में रखता है और जो चंद्रमा को पृथ्वी के चारों ओर कक्षा में रखता है। चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण खिंचाव समुद्रों को अपनी ओर खींचता है, जिससे समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है। गुरुत्वाकर्षण तारों और ग्रहों को उस सामग्री को एक साथ खींचकर बनाता है जिससे वे बने हैं।
- ग्रहों में मापने योग्य गुण होते हैं, जैसे आकार, द्रव्यमान, घनत्व और संरचना। किसी ग्रह का आकार और द्रव्यमान उसके गुरुत्वाकर्षण खिंचाव को निर्धारित करता है।
- किसी ग्रह का द्रव्यमान और आकार यह निर्धारित करता है कि उसका गुरुत्वाकर्षण खिंचाव कितना मजबूत है।
सूर्य आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा करता है, और अपने साथ हमारे सौर मंडल के ग्रहों, क्षुद्रग्रहों, धूमकेतुओं और अन्य वस्तुओं को भी अपने गुरुत्वाकर्षण में बाँधे रखता है।
हमारा सौर मंडल 450,000 मील प्रति घंटे (720,000 किलोमीटर प्रति घंटे) के औसत वेग से घूम रहा है।
लेकिन इस गति से भी, सूर्य को आकाशगंगा के चारों ओर एक पूर्ण यात्रा करने में लगभग 230 मिलियन वर्ष लगते हैं। एक मिलियन दशलाख के बराबर संख्या है। इससे आप 230 मिलियन का अन्दाजा लगा सकते हो
सूर्य अपनी धुरी पर घूमता हुआ आकाशगंगा के चारों ओर भी घूमता है।
ग्रहों की कक्षाओं के तल के संबंध में इसके घूर्णन में 7.25 डिग्री का झुकाव है। चूंकि सूर्य ठोस नहीं है, इसलिए अलग-अलग हिस्से अलग-अलग गति से घूमते हैं।
भूमध्य रेखा पर, सूर्य लगभग हर 25 पृथ्वी दिनों में एक बार घूमता है,
लेकिन इसके ध्रुवों पर, सूर्य हर 36 पृथ्वी दिनों में अपनी धुरी पर एक बार घूमता है।
________________________________
वर्ष की लंबाई : सूर्य का कोई "वर्ष" नहीं होता। लेकिन सूर्य लगभग हर 230 मिलियन पृथ्वी वर्ष में आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा करता है, और ग्रहों, क्षुद्रग्रहों, धूमकेतुओं और अन्य वस्तुओं को अपने साथ लाते हुए ।
प्रश्न यह भी उठता है कि क्या आकाशगंगा किसी चीज की परिक्रमा करती है ?
आकाशगंगा वास्तव में किसी उल्लेखनीय चीज़ की परिक्रमा करती है। जिसे भारतीय खगोलीय शब्दावली में परमेष्ठि कह सकते हैं। यह सैजिटेरियस ए* नामक एक सुपरमैसिव ब्लैक होल के चारों ओर घूमती है, जो हमारे सूर्य के द्रव्यमान का लगभग चार मिलियन गुना है।
यह विस्मयकारी ब्लैक होल हमारी आकाशगंगा के केंद्र में स्थित है, और इसकी गतिविधियों को गहराई से आकार दे रहा है।
मंदाकिनी / आकाशगंगा : यह भौतिकता का सबसे बड़ा तंत्र है। जो मुख्यतः तारों से निर्मित होता है। इस तंत्र में अन्य कई प्रकार के तंत्र (मंदाकिनी पुंज, तारामंडल, सौरमंडल आदि ), गैस और धूल के कण शामिल होते हैं।
कहा जाता है कि आकाशगंगा के केंद्र में श्याम विवर (ब्लेक हॉल) होता है।
आकाशगंगा का शेष भाग इसी केंद्र (श्याम विवर) की परिक्रमा करता है।
"आकाशगंगा अपनी आकृति के आधार पर तीन प्रकार की होती हैं।
सर्पिलाकार मंदाकिनी अपेक्षाकृत सबसे बड़ी होती है।
सर्पिलाकार आकाशगंगा के केन्द्र की आकृति के आधार पर सर्पिलाकार आकाशगंगा की अवस्थाएँ (मंदाकिनी पुंज का विस्तार, उसकी परिक्रमण गति, आकाशगंगा की घूर्णन गति और उसका आकार) निर्धारित होती हैं।
इन आकाशगंगाओं का केंद्र गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण बिंदु अथवा रेखा की आकृति का होता है।
जो सर्पिलाकार आकाशगंगा की नियति निर्धारित करता है। वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान ब्रह्माण्ड- सृष्टि पंच मण्डल क्रम वाली है।
- सूर्य मंडल,
- परमेष्ठी मंडल और
- स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मण्डल का चक्कर लगा रहे हैं।
जैसी चन्द्र पृथ्वी के, पृथ्वी सूर्य के , सूर्य परमेष्ठी के, परमेष्ठी स्वायम्भू के
चन्द्र की पृथ्वी की एक परिक्रमा -> एक मासपृथ्वी की सूर्य की एक परिक्रमा -> एक वर्षसूर्य की परमेष्ठी की एक परिक्रमा ->एक मन्वन्तरपरमेष्ठी की स्वायम्भू की एक परिक्रमा ->एक कल्पमन्वन्तर मान- सूर्य मण्डल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केन्द्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वन्तर काल कहा गया। - इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष। एक से दूसरे मन्वन्तर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है। अत: संध्यांश सहित मन्वन्तर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केन्द्र का चक्र पूरा करता है।
कल्प- परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है। यानी आकाश गंगा अपने से ऊपर वाली आकाश गंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया। यानी इसका माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का एक दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात, अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।
ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष
ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्माण्ड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,000000000 वर्ष)भारतीय ऋषियों की इस गणना को देखकर यूरोप के प्रसिद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञानी
Carl Sagan ने अपनी पुस्तक "Cosmos" में कहा "विश्व में भारतीय दर्शन एकमात्र ऐसा दर्शन है जो इस सिद्धान्त पर समर्पित है कि इस ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति और क्षय की एक सतत प्रक्रिया चल रही है और यही एक धर्म है, जिसने समय के सूक्ष्मतम से लेकर बृहत्तम माप, जो समान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्राहृ दिन रात तक की गणना की है, जो संयोग से आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा इनके पास और भी लम्बी गणना के माप है।" कार्ल सेगन ने इसे संयोग कहा है यह ठोस ग्रहीय गणना पर आधारित है।
संकल्प मंत्र में कहते हैं....
ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे
अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रह्मा की आयु का द्वितीय परार्ध-वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे हो गये हैं।
श्वेत वाराह कल्पे-कल्प याने ब्रह्मा के 51वें वर्ष का पहला दिन है।
वैवस्वतमन्वंतरे- ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उसमें सातवां मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
अष्टाविंशतितमे कलियुगे- एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होती हैं, उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है।
कलियुगे प्रथमचरणे- कलियुग का प्रारंभिक समय है।
कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5104 चल रहा है।
जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम
अमुक स्थाने - कार्य का स्थान
अमुक संवत्सरे - संवत्सर का नाम
अमुक अयने - उत्तरायन/दक्षिणायन
अमुक ऋतौ - वसंत आदि छह ऋतु हैं
अमुक मासे - चैत्र आदि 12 मास हैं
अमुक पक्षे - पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)
अमुक तिथौ - तिथि का नाम
अमुक वासरे - दिन का नाम
अमुक समये - दिन में कौन सा समय
उपरोक्त में अमुक के स्थान पर क्रमश : नाम बोलने पड़ते है ।जैसे अमुक स्थाने : में जिस स्थान पर अनुष्ठान किया जा रहा है उसका नाम बोल जाता है ।- 2. पश्चिमी और भारतीय कालगणना का अंतर
पाश्चात्य कालगणना (Western time calculations)
चिल्ड्रन्स ब्रिटानिका Vol 3-1964 में कैलेंडर के संदर्भ में उसके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन किया गया है। कैलेंडर यानी समय विभाजन का तरीका-वर्ष, मास, दिन, का आधार, पृथ्वी की गति और चन्द्र की गति के आधार पर करना। लैटिन में Moon के लिए Luna शब्द है, अत: Lunar Month कहते हैं। लैटिन में Sun के लिए Sol शब्द है, अत: Solar Year वर्ष कहते हैं। आजकल इसका माप 365 दिन 5 घंटे 48 मिनिट व 46 सेकेण्ड है। चूंकि सौर वर्ष और चन्द्रमास का तालमेल नहीं है, अत: अनेक देशों में गड़बड़ रही।
दूसरी बात, समय का विभाजन ऐतिहासिक घटना के आधार पर करना। ईसाई मानते हैं कि ईसा का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है, इस आधार पर इतिहास को वे दो हिस्सों में विभाजित करते हैं। एक बी.सी. तथा दूसरा ए.डी.। B.C. का अर्थ है Before Christ - यह ईसा के उत्पन्न होने से पूर्व की घटनाओं पर लागू होता है। जो घटनाएं ईसा के जन्म के बाद हुई उन्हें A.D. कहा जाता है जिसका अर्थ है Anno Domini अर्थात् In the year of our Lord. यह अलग बात है कि यह पद्धति ईसा के जन्म के बाद कुछ सदी तक प्रयोग में नहीं आती थी।
रोमन कैलेण्डर-आज के ई। सन् का मूल रोमन संवत् है जो ईसा के जन्म से 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना के साथ प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में इसमें दस माह का वर्ष होता था, जो मार्च से दिसम्बर तक चलता था तथा 304 दिन होते थे। बाद में राजा नूमा पिम्पोलियस ने इसमें दो माह Jonu Arius और Februarius जोड़कर वर्ष 12 माह का बनाया तथा इसमें दिन हुए 355, पर आगे के वर्षों में ग्रहीय गति से इनका अंतर बढ़ता गया, तब इसे ठीक 46 बी.सी. करने के लिए जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने हेतु नये कैलेंडर का आदेश दिया तथा उस समय के वर्ष को कहा कि इसमें 445 1/4 दिन होंगे ताकि पूर्व में आया अंतर ठीक हो सके। इसलिए उस वर्ष यानी 46 बी.सी. को इतिहास में संभ्रम का वर्ष (Year of confusion) कहते हैं।
जूलियन कैलेंडर- जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने के लिए एक व्यवस्था दी। क्रम से 31 व 30 दिन के माह निर्धारित किए तथा फरवरी 29 दिन की। Leap Year में फरवरी भी 30 दिन की कर दी। इसी के साथ इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए उसने वर्ष के सातवें महीने के पुराने नाम Quinitiles को बदलकर अपने नाम पर जुलाई किया, जो 31 दिन का था। बाद में सम्राट आगस्टस हुआ; उसने भी अपना नाम इतिहास में अमर करने हेतु आठवें महीने Sextilis का नाम बदलकर उस माह का नाम अगस्त किया। उस समय अगस्त 30 दिन का होता था पर-"सीजर से मैं छोटा नहीं", यह दिखाने के लिए फरवरी के माह जो उस समय 29 दिन का होता था जो एक दिन लेकर अगस्त भी 31 दिन का किया। तब से मास और दिन की संख्या वैसी ही चली आ रही है।
ग्रेगोरियन कैलेंडर - 16वीं सदी में जूलियन कैलेन्डर में 10 दिन बढ़ गए और चर्च फेस्टीवल ईस्टर आदि गड़बड़ आने लगे, तब पोप ग्रेगोरी त्रयोदश ने 1582 के वर्ष में इसे ठीक करने के लिए यह हुक्म जारी किया कि 4 अक्तूबर को आगे 15 अक्तूबर माना जाए। वर्ष का आरम्भ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से करने को कहा। रोमन कैथोलिकों ने पोप के आदेश को तुरन्त माना, पर प्रोटेस्टेंटों ने धीरे-धीरे माना। ब्रिाटेन जूलियन कैलेंडर मानता रहा और 1752 तक उसमें 11 दिन का अंतर आ गया। अत: उसे ठीक करने के लिए 2 सितम्बर के बाद अगला दिन 14 सितम्बर कहा गया। उस समय लोग नारा लगाते थे "Criseus back our 11 days"। इग्लैण्ड के बाद बुल्गारिया ने 1918 में और ग्रीक आर्थोडाक्स चर्च ने 1924 में ग्रेगोरियन कैलेण्डर माना।
भारत में कालगणना का इतिहास (Indian time calculations)
भारतवर्ष में ग्रहीय गतियों का सूक्ष्म अध्ययन करने की परम्परा रही है तथा कालगणना पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य की गति के आधार पर होती रही तथा चंद्र और सूर्य गति के अंतर को पाटने की भी व्यवस्था अधिक मास आदि द्वारा होती रही है। संक्षेप में काल की विभिन्न इकाइयां एवं उनके कारण निम्न प्रकार से बताये गये-
दिन अथवा वार- सात दिन- पृथ्वी अपनी धुरी पर १६०० कि.मी. प्रति घंटा की गति से घूमती है, इस चक्र को पूरा करने में उसे २४ घंटे का समय लगता है। इसमें १२ घंटे पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने रहता है उसे अह: तथा जो पीछे रहता है उसे रात्र कहा गया। इस प्रकार १२ घंटे पृथ्वी का पूर्वार्द्ध तथा १२ घंटे उत्तरार्द्ध सूर्य के सामने रहता है। इस प्रकार १ अहोरात्र में २४ होरा होते हैं। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी भाषा का ण्दृद्वद्ध शब्द ही होरा का अपभ्रंश रूप है। सावन दिन को भू दिन भी कहा गया।
सौर दिन-पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 1 लाख कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से कर रही है। पृथ्वी का 10 चलन सौर दिन कहलाता है।
चन्द्र दिन या तिथि- चन्द्र दिन को तिथि कहते हैं। जैसे एकम्, चतुर्थी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि। पृथ्वी की परिक्रमा करते समय चन्द्र का 12 अंश तक चलन एक तिथि कहलाता है।
सप्ताह- सारे विश्व में सप्ताह के दिन व क्रम भारत वर्ष में खोजे गए क्रम के अनुसार ही हैं। भारत में पृथ्वी से उत्तरोत्तर दूरी के आधार पर ग्रहों का क्रम निर्धारित किया गया, यथा- शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुद्ध और चन्द्रमा। इनमें चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे पास है तो शनि सबसे दूर। इसमें एक-एक ग्रह दिन के 24 घंटों या होरा में एक-एक घंटे का अधिपति रहता है। अत: क्रम से सातों ग्रह एक-एक घंटे अधिपति, यह चक्र चलता रहता है और 24 घंटे पूरे होने पर अगले दिन के पहले घंटे का जो अधिपति ग्रह होगा, उसके नाम पर दिन का नाम रखा गया। सूर्य से सृष्टि हुई, अत: प्रथम दिन रविवार मानकर ऊपर क्रम से शेष वारों का नाम रखा गया।
निम्न तालिका से सातों दिनों के क्रम को हम सहज समझ सकते हैं-
पक्ष-पृथ्वी की परिक्रमा में चन्द्रमा का १२ अंश चलना एक तिथि कहलाता है। अमावस्या को चन्द्रमा पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य रहता है। इसे ० (अंश) कहते हैं। यहां से १२ अंश चलकर जब चन्द्रमा सूर्य से १८० अंश अंतर पर आता है, तो उसे पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार एकम् से पूर्णिमा वाला पक्ष शुक्ल पक्ष कहलाता है तथा एकम् से अमावस्या वाला पक्ष कृष्ण पक्ष कहलाता है।
मास- कालगणना के लिए आकाशस्थ २७ नक्षत्र माने गए (१) अश्विनी (२) भरणी (३) कृत्तिका (४) रोहिणी (५) मृगशिरा (६) आर्द्रा (७) पुनर्वसु (८) पुष्य (९) आश्लेषा (१०) मघा (११) पूर्व फाल्गुन (१२) उत्तर फाल्गुन (१३) हस्त (१४) चित्रा (१५) स्वाति (१६) विशाखा (१७) अनुराधा (१८) ज्येष्ठा (१९) मूल (२०) पूर्वाषाढ़ (२१) उत्तराषाढ़ (२२) श्रवणा (२३) धनिष्ठा (२४) शतभिषाक (२५) पूर्व भाद्रपद (२६) उत्तर भाद्रपद (२७) रेवती।
२७ नक्षत्रों में प्रत्येक के चार पाद किए गए। इस प्रकार कुल १०८ पाद हुए। इनमें से नौ पाद की आकृति के अनुसार १२ राशियों के नाम रखे गए, जो निम्नानुसार हैं-
(१) मेष (२) वृष (३) मिथुन (४) कर्क (५) सिंह (६) कन्या (७) तुला (८) वृश्चिक (९) धनु (१०) मकर (११) कुंभ (१२) मीन। पृथ्वी पर इन राशियों की रेखा निश्चित की गई, जिसे क्रांति कहते है। ये क्रांतियां विषुव वृत्त रेखा से २४ उत्तर में तथा २४ दक्षिण में मानी जाती हैं। इस प्रकार सूर्य अपने परिभ्रमण में जिस राशि चक्र में आता है, उस क्रांति के नाम पर सौर मास है। यह साधारणत: वृद्धि तथा क्षय से रहित है।
चन्द्र मास- जो नक्षत्र मास भर सायंकाल से प्रात: काल तक दिखाई दे तथा जिसमें चन्द्रमा पूर्णता प्राप्त करे, उस नक्षत्र के नाम पर चान्द्र मासों के नाम पड़े हैं- (१) चित्रा (२) विशाखा (३) ज्येष्ठा (४) अषाढ़ा (५) श्रवण (६) भाद्रपद (७) अश्विनी (८) कृत्तिका (९) मृगशिरा (१०) पुष्य (११) मघा (१२) फाल्गुनी। अत: इसी आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन-ये चन्द्र मासों के नाम पड़े।
उत्तरायण और दक्षिणायन-पृथ्वी अपनी कक्षा पर २३ अंश उत्तर पश्चिमी में झुकी हुई है। अत: भूमध्य रेखा से २३ अंश उत्तर व दक्षिण में सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती हैं। सूर्य किरणों का लम्बवत् पड़ना संक्रान्ति कहलाता है। इसमें २३ अंश उत्तर को कर्क रेखा कहा जाता है तथा दक्षिण को मकर रेखा कहा जाता है। भूमध्य रेखा को ०० अथवा विषुव वृत्त रेखा कहते हैं। इसमें कर्क संक्रान्ति को उत्तरायण एवं मकर संक्रान्ति को दक्षिणायन कहते हैं।
वर्षमान- पृथ्वी सूर्य के आस-पास लगभग एक लाख कि.मी. प्रति घंटे की गति से १६६०००००० कि.मी. लम्बे पथ का ३६५ दिन में एक चक्र पूरा करती है। इस काल को ही वर्ष माना गया।
युगमान- 4,32,000 वर्ष में सातों ग्रह अपने भोग और शर को छोड़कर एक जगह आते हैं। इस युति के काल को कलियुग कहा गया। दो युति को द्वापर, तीन युति को त्रेता तथा चार युति को सतयुग कहा गया। चतुर्युगी में सातों ग्रह भोग एवं शर सहित एक ही दिशा में आते हैं। - बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पश्चिमी देशों में उनके अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार मानव सृष्टि को मात्र पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता था। जबकि इस्लामी दर्शन में इस विषय पर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया है। पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक भी अपने धर्म-ग्रन्थों की भांति ही यही राग अलापते रहे कि मानवीय सृष्टि का बहुत प्राचीन नहीं है। इसके विपरीत भारतीय जीवन-दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का प्रारम्भ हुए १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, १० वर्ष बीत चुके हैं और अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से उसका १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, ११वां वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। भूगर्भ से सम्बन्धित नवीनतम आविष्कारों के बाद तो पश्चिमी विद्वान और वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करने लगे हैं कि हमारी यह सृष्टि प्राय: २ अरब वर्ष पुरानी है।
अपने देश में हेमाद्रि संकल्प में की गयी सृष्टि की व्याख्या के आधार पर इस समय स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष नामक छह मन्वन्तर पूर्ण होकर अब वैवस्वत मन्वन्तर के २७ महायुगों के कालखण्ड के बाद अठ्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता, द्वापर नामक तीन युग भी अपना कार्यकाल पूरा कर चौथे युग अर्थात कलियुग के ५०११वें सम्वत् का प्रारम्भ हो रहा है। इसी भांति विक्रम संवत् २०६६ का भी श्रीगणेश हो रहा है।
भारतीय जीवन-दर्शन की मान्यता है कि सृष्टिकर्ता भगवान् व्रह्मा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी मानवीय सृष्टि की कालगणना के अनुसार भारत में प्रचलित सम्वत्सर केवल हिन्दुओं, भारतवासियों का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार या समस्त मानवीय सृष्टि का सम्वत्सर है। इसलिए यह सकल व्रह्माण्ड के लिए नव वर्ष के आगमन का सूचक है।
ब्रह्माजी प्रणीत यह कालगणना निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित होने के कारण पूरी तरह वैज्ञानिक है। अत: नक्षत्रों को आधार बनाकर जहां एक ओर विज्ञानसम्मत चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कात्तिर्क, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन नामक १२ मासों का विधान एक वर्ष में किया गया है, वहीं दूसरी ओर सप्ताह के सात दिवसों यथा रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार तथा शनिवार का नामकरण भी व्रह्मा जी ने विज्ञान के आधार पर किया है।
आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित ईसाइयत के ग्रेगेरियन कैलेण्डर को दृष्टिपथ में रखकर अज्ञानी जनों द्वारा प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि व्रह्मा जी ने आधा चैत्र मास व्यतीत हो जाने पर नव सम्वत्सर और सूर्योदय से नवीन दिवस का प्रारम्भ होने का विधान क्यों किया है? इसी भांति सप्ताह का प्रथम दिवस सोमवार न होकर रविवार ही क्यों निर्धारित किया गया है?- जैसा ऊपर कहा जा चुका है, व्रह्मा जी ने इस मानवीय सृष्टि की रचना तथा कालगणना का पूरा उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रखकर किया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि ‘चैत्रमासे जगत् व्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि, शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।‘ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस को सूर्योदय से कालगणना का औचित्य इस तथ्य में निहित है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, पृथ्वी, नक्षत्रों आदि की रचना से पूर्व सम्पूर्ण त्रैलोक्य में घटाटोप अन्धकार छाया हुआ था। दिनकर(सूर्य) की उत्पत्ति के साथ इस धरा पर न केवल प्रकाश प्रारम्भ हुआ अपितु भगवान् आदित्य की जीवनदायिनी ऊर्जा शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी तल पर जीव-जगत का जीवन भी सम्भव हो सका। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्ष का आरम्भ, अर्द्धरात्रि के स्थान पर सूर्योदय से दिवस परिवर्तन की व्यवस्था तथा रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस घोषित करने का वैज्ञानिक आधार तिमिराच्छन्न अन्धकार को विदीर्ण कर प्रकाश की अनुपम छटा बिखेरने के साथ सृजन को सम्भव बनाने की भगवान् भुवन भास्कर की अनुपमेय शक्ति में निहित है। वैसे भी इंग्लैण्ड के ग्रीनविच नामक स्थान से दिन परिवर्तन की व्यवस्था में अर्द्ध रात्रि के १२ बजे को आधार इसलिए बनाया गया है; क्योंकि जब इंग्लैण्ड में रात्रि के १२ बजते हैं, तब भारत में भगवान् सूर्यदेव की अगवानी करने के लिए प्रात: ५.३० बजे होते हैं।
वारों के नामकरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया में व्रह्मा जी ने स्पष्ट किया कि आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमश: बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों को साथ लेकर व्रह्मा जी ने सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी अपने उपग्रह चन्द्रमा सहित स्वयं एक ग्रह है, किन्तु पृथ्वी पर उसके नाम से किसी दिवस का नामकरण नहीं किया जायेगा; किन्तु उसके उपग्रह चन्द्रमा को इस नामकरण में इसलिए स्थान दिया जायेगा; क्योंकि पृथ्वी के निकटस्थ होने के कारण चन्द्रमा आकाशमण्डल की रश्मियों को पृथ्वी तक पहुँचाने में संचार उपग्रह का कार्य सम्पादित करता है और उससे मानवीय जीवन बहुत गहरे रूप में प्रभावित होता है। लेकिन पृथ्वी पर यह गणना करते समय सूर्य के स्थान पर चन्द्र तथा चन्द्र के स्थान पर सूर्य अथवा रवि को रखा जायेगा।
हम सभी यह जानते हैं कि एक अहोरात्र या दिवस में २४ होरा या घण्टे होते हैं। व्रह्मा जी ने इन २४ होरा या घण्टों में से प्रत्येक होरा का स्वामी क्रमश: सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल को घोषित करते हुए स्पष्ट किया कि सृष्टि की कालगणना के प्रथम दिवस पर अन्धकार को विदीर्ण कर भगवान् भुवन भास्कर की प्रथम होरा से क्रमश: शुक्र की दूसरी, बुध की तीसरी, चन्द्रमा की चौथी, शनि की नौवीं, गुरु की छठी तथा मंगल की सातवीं होरा होगी। इस क्रम से इक्कीसवीं होरा पुन: मंगल की हुई। तदुपरान्त सूर्य की बाईसवीं, शुक्र की तेईसवीं और बुध की चौबीसवीं होरा के साथ एक अहोरात्र या दिवस पूर्ण हो गया। इसके बाद अगले दिन सूर्योदय के समय चन्द्रमा की होरा होने से दूसरे दिन का नामकरण सोमवार किया गया। अब इसी क्रम से चन्द्र की पहली, आठवीं और पंद्रहवीं, शनि की दूसरी, नववीं और सोलहवीं, गुरु की तीसरी, दशवीं और उन्नीसवीं, मंगल की चौथी, ग्यारहवीं और अठ्ठारहवीं, सूर्य की पाचवीं, बारहवीं और उन्नीसवीं, शुक्र की छठी, तेरहवीं और बीसवीं, बुध की सातवीं, चौदहवीं और इक्कीसवीं होरा होगी। बाईसवीं होरा पुन: चन्द्र, तेईसवीं शनि और चौबीसवीं होरा गुरु की होगी। अब तीसरे दिन सूर्योदय के समय पहली होरा मंगल की होने से सोमवार के बाद मंगलवार होना सुनिश्चित हुआ। इसी क्रम से सातों दिवसों की गणना करने पर वे क्रमश: बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शनिवार घोषित किये गये; क्योंकि मंगल से गणना करने पर बारहवीं होरा गुरु पर समाप्त होकर बाईसवीं होरा मंगल, तेईसवीं होरा रवि और चौबीसवीं होरा शुक्र की हुई। अब चौथे दिवस की पहली होरा बुध की होने से मंगलवार के बाद का दिन बुधवार कहा गया। अब बुधवार की पहली होरा से इक्कीसवीं होरा शुक्र की होकर बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं होरा क्रमश: बुध, चन्द्र और शनि की होगी। तदुपरान्त पांचवें दिवस की पहली, होरा गुरु की होने से पांचवां दिवस गुरुवार हुआ। पुन: छठा दिवस शुक्रवार होगा; क्योंकि गुरु की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के पश्चात् तेईसवीं होरा मंगल और चौबीसवीं होरा सूर्य की होगी। अब छठे दिवस की पहली होरा शुक्र की होगी। सप्ताह का अन्तिम दिवस शनिवार घोषित किया गया; क्योंकि शुक्र की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के उपरान्त बुध की तेईसवीं और चन्द्रमा की चौबीसवीं होरा पूर्ण होकर सातवें दिवस सूर्योदय के समय प्रथम होरा शनि की होगी।
संक्षेप में व्रह्मा जी प्रणीत इस कालगणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों, दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित वैज्ञानिक रूप से किया गया है। दिवसों के नामकरण को प्राप्त विश्वव्यापी मान्यता इसी तथ्य का प्रतीक है। - आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को तो हम सभी जानते है । आइंस्टीन ने अपने सिद्धांत में दिक् व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की। उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से रहता है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रहों पर समय का माप भिन्न रहता है।
समय छोटा-बड़ा रहता है।
उदाहरण के लिए यदि दो जुडुवां भाइयों मे से एक को पृथ्वी पर ही रखा जाये तथा दुसरे को किसी अन्य गृह पर भेज दिया जाये और कुछ वर्षों पश्चात लाया जाये तो दोनों भाइयों की आयु में अंतर होगा।
आयु का अंतर इस बात पर निर्भर करेगा कि बालक को जिस गृह पर भेजा गया उस गृह की सूर्य से दुरी तथा गति , पृथ्वी की सूर्य से दुरी तथा गति से कितनी अधिक अथवा कम है। - समय का गुण परिवर्तन है और यह परिवर्तन पदार्थ व प्राणी के सतत् सर्जन और क्षरण (उत्पति-विनाश) यह परिवर्तन सभी सजीव निर्जीव जगत में परमाणु से लेकर ब्रह्माण्ड में समान रूप से घटित हो रहा है।
एक और उदाहरण के अनुसार चलती रेलगाड़ी में रखी घडी उसी रेल में बैठे व्यक्ति के लिए सामान रूप से चलती है क्योकि दोनों रेल के साथ एक ही गति से गतिमान है परन्तु वही घडी रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए धीमे चल रही होगी । कुछ सेकंडों को अंतर होगा । यदि रेल की गति और बढाई जाये तो समय का अंतर बढेगा और यदि रेल को प्रकाश की गति (299792.458 किमी प्रति सेकंड) से दोड़ाया जाये (जोकि संभव नही) तो रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए घडी पूर्णतया रुक जाएगी । - सापेक्षता का सिद्धांत पोराणिक कथाओं मेंइसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं। श्रीमद्भागवत पुराण में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके। जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं? ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा, जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी {1 चर्तुयुगी = 4 युग (सत्य,द्वापर,त्रेता,कलि ) = 1 महायुग } बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना।
अब पृथ्वी लोक पर तुम्हे तुम्हारे सगे सम्बन्धी, तुम्हारा राजपाट तथा वैसी भोगोलिक स्थतियां भी नही मिलेंगी जो तुम छोड़ कर आये हो |
साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। अन्यथा लौटने के पश्चात तुम इसे भी जीवित नही पाते |
अब यदि एक घड़ी भी देर कि तो सीधे कलयुग (द्वापर के पश्चात कलयुग ) में जा गिरोगे |
इससे यह भी स्पष्ट है की निश्चय ही ब्रह्मलोक कदाचित हमारी आकाशगंगा से भी कहीं अधिक दूर है । मेरे मतानुसार यह स्थान ब्रह्माण्ड का केंद्र होना चाहिए ।
इसी कारण वहां का एक मिनट भी पृथ्वी लोक के खरबों वर्षों के समान है |
यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी। यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।
काल के मापन की सूक्ष्मतम और महत्तम इकाई के वर्णन को पढ़कर दुनिया का प्रसिद्ध ब्राह्माण्ड विज्ञानी Carl Sagan अपनी पुस्तक Cosmos में लिखता है, "विश्व में एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्राह्माण्ड सृजन और विनाश का चक्र सतत चल रहा है। तथा यही एक धर्म है जिसमें काल के सूक्ष्मतम नाप परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्राह्म दिन और रात की गणना की गई, जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"
__________
योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में योग साधना से समय में पीछे जाना और पूर्वजन्मों का अनुभव तथा भविष्य में जाने के अनेक वर्णन मिलते हैं
श्याम की चर्चा हमारा प्राण है,
श्याम की चर्चा सुखों की खान है,
श्याम की चर्चा हमारी शान है,
श्याम की चर्चा हमारा मान है,
श्याम-चर्चा है सुखद हमको परम।
श्याम की चर्चा सुनाता जो हमें,
श्याम की चर्चा बताता जो हमें,
श्याम-परिपाटी सिखाता जो हमें,
श्याम की रति में लगाता जो हमें,
हैं कृतज्ञ सदैव हम उसके परम।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)भगवान श्रीकृष्ण के रूप, गुण और लीला जितनी अद्भुत व अलौकिक हैं, उतना ही अद्भुत, अलौकिक व अविश्वसनीय उनका गोलोकधाम है। प्रारम्भ से लेकर लीलावसान तक श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण चरित्र स्वयं भी हैरान कर देने वाला है–एक नवजात बालक अपनी षष्ठी के दिन एक राक्षसी का प्राणान्त कर दे, कुछ ही महीनों में बड़े-बड़े राक्षसों (शकटासुर, अघासुर, तृणावर्त आदि) का ‘अच्युतम् केशवम्’ (अंत) कर दे–यह सब मायापति श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं क्योंकि वे ईश्वरों के भी ईश्वर परमब्रह्म परमात्मा हैं। पुराणों में गोलोकधाम का जो वर्णन है, वह मनुष्य की सोच, विश्वास व कल्पना से परे है। वहां का सब कुछ अनिर्वचनीय (वर्णन न किया जा सके), अदृष्ट और अश्रुत (वैसा दृश्य कभी देखने व सुनने में न आया हो) है। गोलोकधाम बहुमूल्य रत्नों व मणियों के सारतत्व से बना है, वहां के घर, नदी के तट, सीढ़ियां, मार्ग, स्तम्भ, परकोटे, दर्पण, दरवाजे सभी कुछ रत्नों व मणियों से बने हैं। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी नीली आभा के कारण भक्तों द्वारा ‘नीलमणि’ नाम से पुकारे जाते हैं। हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि गोलोकधाम में कितने गोप-गोपियां है, कितने कल्पवृक्ष हैं, कितनी गौएं हैं। सब कुछ इतना अलौकिक व आश्चर्यचकित कर देने वाला है कि सहज ही उस पर विश्वास करना कठिन हो जाता है। पर भक्ति तर्क से नहीं, विश्वास से होती है। गोलोकधाम का पूरा वर्णन करना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी संभव नहीं है, परन्तु श्रद्धा, भक्ति और प्रेमरूपी त्रिवेणी के द्वारा उसको समझना और मन की कल्पनाओं द्वारा उसमें प्रवेश करना संभव है, अन्यथा किसकी क्षमता है जो इस अनन्त सौंदर्य, अनन्त ऐश्वर्य और अनन्त माधुर्य को भाषा के द्वारा व्यक्त कर सके।
गोलोकधाम के अनन्तान्त सौन्दर्य-ऐश्वर्य-माधुर्य की एक झलक
पूर्वकाल में दैत्यों और असुर स्वभाव वाले राजाओं के भार से पीड़ित होकर पृथ्वी गौ का रूप धारणकर ब्रह्मा, शंकर और धर्म आदि देवताओं के साथ वैकुण्ठधाम गई और भगवान विष्णु से अपने कष्ट से मुक्ति के लिए याचना करने लगी। तब भगवान विष्णु ने समस्त देवताओं से कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं, उनकी कृपा के बिना यह कार्य सिद्ध नहीं होगा, अत: तुम लोग उन्हीं के अविनाशी धाम को जाओ। ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से कहा–यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है, तो उसके लोक का हमें दर्शन कराइए। भगवान विष्णु ने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड शिखर पर स्थित गोलोकधाम का मार्ग दिखलाया।
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा गोलोकधाम का दर्शन
भगवान विष्णु द्वारा बताये मार्ग का अनुसरण कर देवतागण ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग से करोड़ों योजन ऊपर गोलोकधाम में पहुंचे। गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। वहीं तक सृष्टि की अंतिम सीमा है। गोलोकधाम परमात्मा श्रीकृष्ण के समान ही नित्य है। यह भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। अप्राकृत आकाश में स्थित इस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी योगशक्ति से (बिना आधार के) वायु रूप से धारण करते हैं। उसकी लम्बाई-चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। वह सब ओर मण्डलाकार फैला हुआ है। परम महान तेज ही उसका स्वरूप है।
प्रलयकाल में वहां केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप-गोपियों से भरा रहता है। गोलोक के नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है। वैकुण्ठ व शिवलोक भी गोलोक की तरह नित्य धाम हैं। इन सबकी स्थिति कृत्रिम विश्व से बाहर है, ठीक उसी तरह जैसे आत्मा, आकाश और दिशाएं कृत्रिम जगत से बाहर तथा नित्य हैं।
विरजा नदी से घिरा हुआ शतश्रृंग पर्वत गोलोकधाम का परकोटा है। श्रीवृन्दावन से युक्त रासमण्डल गोलोकधाम का अलंकार है। जैसे कमल में कर्णिका होती है, उसी प्रकार इन नदी, पर्वत और वन आदि के मध्यभाग में वह मनोहर गोलोकधाम प्रतिष्ठित है। उस चिन्मय लोक की भूमि दिव्य रत्नमयी है। उसके सात दरवाजे हैं। वह सात खाइयों से घिरा हुआ है। उसके चारों ओर लाखों परकोटे हैं। रत्नों के सार से बने विचित्र खम्भे, सीढ़ियां, मणिमय दर्पणों से जड़े किवाड़ और कलश, नाना प्रकार के चित्र, दिव्य रत्नों से रचित असंख्य भवन उस धाम की शोभा को और बढ़ा देते हैं।
योगियों को स्वप्न में भी इस धाम का दर्शन नहीं होता परन्तु वैष्णव भक्त भगवान की कृपा से उसको प्रत्यक्ष देखते और वहाँ जाते हैं। वहां आधि, व्याधि, जरा, मृत्यु, शोक और भय का प्रवेश नहीं है। मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, सोलह विकार तथा महतत्त्व भी वहां प्रवेश नहीं कर सकते फिर तीनों गुणों–सत्, रज, तम के विषय में तो कहना ही क्या? वहां न काल की दाल गलती है और न ही माया का कोई वश चलता है फिर माया के बाल-बच्चे तो वहां जा ही कैसे सकते हैं। यह केवल मंगल का धाम है जो समस्त लोकों में श्रेष्ठतम है। वहां कामदेव के समान रूपलावण्यवाली, श्यामसुन्दर के समान विग्रहवाली श्रीकृष्ण की पार्षदा द्वारपालिकाओं का काम करती हैं।
जब देवताओं ने गोलोकधाम में प्रवेश करना चाहा तो द्वारपालिकाओं में प्रमुख पीले वस्त्र पहने व हाथ में बेंत लिए शतचन्द्रानना सखी ने उन्हें रोक दिया और पूछा–आप सब देवता किस ब्रह्माण्ड के निवासी हैं, बताएं। यह सुनकर देवताओं को बहुत आश्चर्य हुआ कि क्या अन्य ब्रह्माण्ड भी हैं, हमने तो उन्हें कभी नहीं देखा। शतचन्द्रानना सखी ने उन्हें बताया कि यहां तो विरजा नदी में करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें आप जैसे ही देवता वास करते हैं। क्या आप लोग अपना नाम-गांव भी नहीं जानते? इस प्रकार उपहास का पात्र बने सभी देवता चुपचाप खड़े रहे तब भगवान विष्णु ने कहा–जिस ब्रह्माण्ड में भगवान पृश्निगर्भ का अवतार हुआ है, तथा विराट रूपधारी भगवान वामन के नख से जिस ब्रह्माण्ड में छिद्र बन गया है, हम उसी से आए हैं। तब उन देवताओं को गोलोकधाम में प्रवेश की आज्ञा मिली। मन की तीव्र गति से चलते हुए समस्त देवता विरजा नदी के तट पर जा पहुंचे।
विरजा नदी–विरजा नदी का तट स्फटिकमणि के समान उज्जवल और विस्तृत था। उस तट पर कहीं तो मूंगों के अंकुर दिखाई दे रहे थे, तो कहीं पद्मरागमणि, कौस्तुभमणि, इन्द्रनीलमणि, मरकतमणि, स्यमन्तकमणि और स्वर्णमुद्राओं की खानें थीं। उस नदी में उतरने के लिए वैदूर्यमणि की सुन्दर सीढ़ियां बनी हुईं थीं। उस परम आश्चर्यजनक तट को देखकर सभी देवता नदी के उस पार गए तो उन्हें शतश्रृंग पर्वत दिखाई दिया।
रत्नमयशतश्रृंग पर्वत–शतश्रृंग पर्वत दिव्य पारिजात वृक्षों, कल्पवृक्षों और कामधेनुओं द्वारा सब ओर से घिरा था। यह पर्वत चहारदीवारी की तहरह गोलोक के चारों ओर फैला हुआ था। उसकी ऊंचाई एक करोड़ योजन और लम्बाई दस करोड़ योजन थी। गोलोक का यह ‘गोवर्धन’ पर्वत कल्पलताओं के समुदाय से सुशोभित था। उसी के शिखर पर गोलाकार रासमण्डल है।
रासमण्डल–गोलोकधाम में दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित चन्द्रमण्डल के समान गोलाकार रासमण्डल है, जिसका विस्तार दस हजार योजन है। वह फूलों से लदे हुए पारिजात वन से, सहस्त्रों कल्पवृक्षों से और सैंकड़ों पुष्पोद्यानों से घिरा हुआ है। उस रासमण्डल में तीन करोड़ रत्नों से बने भवन हैं, जहां रत्नमय प्रदीप प्रकाश देते हैं और नाना प्रकार की भोगसामग्री संचित है। श्वेतधान्य, विभिन्न पल्लवों, फल, दूर्वादल और मंगलद्रव्य उस रासमण्डल की शोभा बढ़ाते हैं। चंदन, अगरु, कस्तूरी और कुंकुमयुक्त जल का वहां सब ओर छिड़काव हुआ है। रेशमी सूत में गुंथे हुए चंदन के पत्तों की बंदनवारों और केले के खम्भों द्वारा वह चारों ओर से घिरा हुआ था। पीले रंग की साड़ी व रत्नमय आभूषणों से विभूषित गोपकिशोरियां उस रासमण्डल को घेरे हुए हैं। श्रीराधिका के चरणारविन्दों की सेवा में लगे रहना ही उनका मनोरथ है। रासमण्डल के सब ओर मधु की और अमृत की बाबलियां हैं। अनेक रंगों के कमलों से सुशोभित क्रीडा-सरोवर रासमण्डल को चारों ओर से घेरे हुए हैं, जिनमें असंख्य भौंरों के समूह गूंजते रहते हैं। रासमण्डल में असंख्य कुंज-कुटीर हैं जो रासमण्डल की शोभा को और बढ़ा रहे हैं। श्रीराधा की आज्ञा से असंख्य गोपसुन्दरियां रासमण्डल की रक्षा में नियुक्त रहती हैं। उस रासमण्डल को देखकर जब सब देवता उस पर्वत की सीमा से बाहर हुए तब उन्हें रमणीय वृन्दावन के दर्शन हुए।
वृन्दावन–वृन्दावन श्रीराधामाधव को बहुत प्रिय है। यह युगल स्वरूप का क्रीडास्थल है। विरजा नदी के जल से भीगी हुई मंद-मंद वायु कल्पवृक्षों के समूह को छूकर कस्तूरी जैसी सुगन्धित हो जाती है। ऐसी सुगन्धित वायु का स्पर्श पाकर मोतिया, बेला, जूही, कुन्द, केतकी, माधवीलता आदि लताओं के समूह मदमस्त हो झूमते दिखाई देते हैं। सारा वन कदम्ब, मंदार, चन्दन आदि सुगन्धित पुष्पों की अलौकिक सुगंध से भरा रहता है जिन पर मधुलोभी भौंरे गुंजन करते फिरते हैं। इन भ्रमरों की गुंजार से सारा वृन्दावन मुखरित रहता है। ऐसे ही आम, नारंगी, कटहल, ताड़, नारियल, जामुन, बेर, खजूर, सुपारी, आंवला, नीबू, केला आदि के वृक्ष समूह उस वन की शोभा को और भी बढ़ा देते हैं।
वृन्दावन के मध्य भाग में बत्तीस वनों से युक्त एक ‘निज निकुंज’ है जिसका आंगन अक्षयवटों से अलंकृत है। पद्मरागादि सात प्रकार की मणियों से उसकी दीवारें व फर्श बने हैं। रत्नमय अलंकारों से सजी करोड़ों गोपियां श्रीराधा की आज्ञा से उस वन की रक्षा करती हैं। साथ ही श्रीकृष्ण के समान रूप वाले व सुन्दर वस्त्र व आभूषणों से सजे-धजे गोप उस वृन्दावन में इधर-उधर विचरण कर रहे थे। वहां कोटि-कोटि पीली पूंछ वाली सवत्सा गौएं हैं जिनके सींगों पर सोना मढ़ा है व दिव्य आभूषणों, घण्टों व मंजीरों से विभूषित हैं। नाना रंगों वाली गायों में कोई उजली, कोई काली, कोई पीली, कोई लाल, कोई तांबई तो कोई चितकबरे रंग की हैं। दूध देने में समुद्र की तुलना करने वाली उन गायों के शरीर पर गोपियों के हाथों की हथेलियों के चिह्न (छापे) लगे हैं। गायों के साथ उनके छोटे-छोटे बछड़े भी हैं जो चारों तरफ हिरनों की तरह छलांगें लगा रहे हैं। गायों के झुण्ड में ही धर्मरूप सांड भी मस्ती में इधर-उधर घूम रहे थे। गौओं की रक्षा करने वाले गोपाल हाथ में बेंत व बांसुरी लिए हुए हैं व श्रीकृष्ण के समान श्यामवर्ण हैं। वे अत्यन्त मधुर स्वर में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान कर रहे थे। ऐसे रमणीय वृन्दावन के दर्शन करते हुए वे देवतागण गोलोकधाम में जा पहुंचे।
गोलोक में कितने घर हैं, यह कौन बता सकता है? श्रीकृष्ण की सेवा में लगे रहने वाले गोपों के रत्नजटित पचास करोड़ आश्रम हैं जो विभिन्न प्रकार के भोगों से सम्पन्न हैं। श्रीकृष्ण के पार्षदों के दस करोड़ आश्रम हैं। पार्षदों में भी प्रमुख वे लोग जो श्रीकृष्ण के समान ही रूप बनाकर रहते हैं, उनके एक करोड़ आश्रम हैं। श्रीराधिका में विशुद्ध भक्ति रखने वाली गोपांगनाओं के बत्तीस करोड़ व उनकी किंकरियों के दस करोड़ आश्रम हैं।
भक्तों के लिए सुलभ गोलोकधाम
सैंकड़ों वर्षों की तपस्याओं से पवित्र हुए जो भक्त भूतल पर श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हैं, सोते-जागते हर समय अपने मन को श्रीकृष्ण में लगाए रहते हैं, दिन-रात ‘राधाकृष्ण’, श्रीकृष्ण’ की रट लगाए हुए है, नाम जपते हैं, उनके कर्मबंधन नष्ट हो जाते हैं। ऐसे भक्तों के लिए गोलोक में बहुत सुन्दर निवासस्थान बने हुए हैं, जो उत्तम मणिरत्नों से निर्मित व समस्त भोगसामग्री से सम्पन्न हैं। ऐसे भवनों की संख्या सौ करोड़ है।
थोड़ा आगे चलने पर देवताओं को एक अक्षयवट दिखाई दिया जिसका विस्तार पांच योजन व ऊंचाई दस योजन है। उसमें सहस्त्रों तनें और असंख्य शाखाएं थीं। लाल-लाल पके फलों से लदे उस वृक्ष के नीचे रत्नमय वेदिकाएं बनीं हुईं थी। उस वृक्ष के नीचे श्रीकृष्ण के समान ही पीताम्बरधारी, चंदन से अंगों को सजाये हुए व रत्नमय आभूषण पहने गोपशिशु खेल रहे थे।
वहां से होते हुए देवतागण एक सुन्दर राजमार्ग से होकर चले जो लालमणियों से निर्मित था और जिसके दोनों ओर रत्नमय विश्राम-मण्डप बने थे। राजमार्ग पर कुंकुम-केसर के जल का छिड़काव किया गया था। रत्नमय मंगल कलशों व सहस्त्रों केले के खम्भों से उस पथ को दोनों ओर से सजाया गया था। झुंड-की-झुंड गोपिकाएं उस मार्ग को घेरे खड़ी थीं। कुछ दूर जाने पर देवताओं को गोपीशिरोमणि श्रीकृष्णप्राणाधिका श्रीराधा का निवासस्थान दिखाई दिया।
श्रीराधा के अंत:पुर का वर्णन
श्रीराधा के अंत:पुर में प्रवेश के लिए देवताओं को सोलह द्वार पार करने पड़े जोकि उत्तम रत्नों व मणियों से निर्मित थे। प्रथम द्वार की रक्षा द्वारपाल वीरभानु कर रहे थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर ही देवताओं को प्रथम द्वार से आगे जाने दिया। दूसरे द्वार पर चन्द्रभानु हाथ में सोने का बेंत लिए पांच लाख गोपों के साथ थे, तीसरे द्वार पर सूर्यभानु हाथ में मुरली लिए नौ लाख गोपों सहित उपस्थित थे। चौथे द्वार पर हाथ में मणिमय दण्ड लिए वसुभानु नौ लाख गोपों के साथ, पांचवें द्वार पर हाथ में बेंत लिए देवभानु दस लाख गोपों के साथ, छठे द्वार पर शक्रभानु दस लाख गोपों के साथ, सातवें द्वार पर रत्नभानु बारह लाख गोपों के साथ, आठवें द्वार पर सुपार्श्व दण्ड व बारह लाख गोपों के साथ, नवें द्वार पर सुबल बारह लाख गोपों के साथ पहरा दे रहे थे। दसवें द्वार पर सुदामा नामक गोप जिनका रूप श्रीकृष्ण के ही समान था, दण्ड लिए बीस लाख गोपों के साथ प्रतिष्ठित थे। ग्यारहवें द्वार पर व्रजराज श्रीदामा करोड़ों गोपों के साथ उपस्थित थे, जिन्हें श्रीराधा अपने पुत्र के समान मानती थीं। उनकी आज्ञा लेकर जब देवेश्वर आगे गए तो आगे के तीनों द्वार स्वप्नकालिक अनुभव के समान अद्भुत, अश्रुत, अतिरमणीय व विद्वानों के द्वारा भी अवर्णनीय थे। उन तीनों द्वारों की रक्षा में कोटि-कोटि गोपांगनाएं नियुक्त थीं। वे सुन्दरियों में भी परम सुन्दरी, रूप-यौवन से सम्पन्न, रत्नाभरणों से विभूषित, सौभाग्यशालिनी व श्रीराधिका की प्रिया हैं। उन्होंने चंदन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से अपना श्रृंगार किया हुआ था।
सोलहवां द्वार सब द्वारों में प्रधान श्रीराधा के अंत:पुर का द्वार था जिसकी रक्षा श्रीराधा की तैंतीस (33) सखियां करती थीं। उन सबके रूप-यौवन व वेशभूषा, अलंकारों व गुणों का वर्णन करना संभव नहीं है। श्रीराधा के ही समान उम्र वाली उनकी तैंतीस सखियां हैं–सुशीला, शशिकला, यमुना, माधवी, रति, कदम्बमाला, कुन्ती, जाह्नवी, स्वयंप्रभा, चन्द्रमुखी, पद्ममुखी, सावित्री, सुधामुखी, शुभा, पद्मा, पारिजाता, गौरी, सर्वमंगला, कालिका, कमला, दुर्गा, भारती, सरस्वती, गंगा, अम्बिका, मधुमती, चम्पा, अपर्णा, सुन्दरी, कृष्णप्रिया, सती, नन्दिनी, और नन्दना। श्रीराधा की सेवा में रहने वाली गोपियां भी उन्हीं की तरह हैं। वे हाथों में श्वेत चंवर लिए रहती हैं। वहां नाना प्रकार का वेश धारण किए गोपिकाओं में कोई हाथों से मृदंग बजा रही थी, तो कोई वीणा-वादन कर रही थी, कोई करताल, तो कोई रत्नमयी कांजी बजा रही थी, कुछ गोपिकाएं नुपुरों की झनकार कर रहीं थीं। श्रीराधा और श्रीकृष्ण के गुणगान सम्बन्धी पदों का संगीत वहां सब ओर सुनाई पड़ता था। किन्हीं के माथे पर जल से भरे घड़े रखे थे। कुछ नृत्य का प्रदर्शन कर रहीं थी।
इन्द्रनीलमणि और सिंदूरी मणियों से बना यह द्वार पारिजात के पुष्पों से सजा था। उन्हें छूकर बहने वाली वायु से वहां सर्वत्र दिव्य सुगंध फैली हुई थी। श्रीराधा के उस आश्चर्यमय अन्त:पुर के द्वार का अवलोकन कर देवताओं के मन में श्रीराधाकृष्ण के दर्शनों की उत्कण्ठा जाग उठी। उनके शरीर में रोमांच हो आया और भक्ति के उद्रेक से आंखें भर आईं। श्रीकृष्णप्राणाधिका श्रीराधा के अंत:पुर का सब कुछ अनिर्वचनीय था।
यह मनोहर भवन गोलाकार बना है और इसका विस्तार बारह कोस का है। इसमें सौ भवन बने हुए हैं। यह चारों ओर से कल्पवृक्षों से घिरा है। श्रीराधाभवन इतने बहुमूल्य रत्नों व मणियों से निर्मित है कि उनकी आभा व तेज से ही वह सदा जगमगाता रहता है। यह अमूल्य इन्द्रनीलमणि के खम्भों से सुशोभित, रत्ननिर्मित मंगल कलशों से अलंकृत और रत्नमयी वेदिकाओं से विभूषित है। विचित्र चित्रों द्वारा चित्रित, माणिक्य, मोतियों व हीरों के हारों से अलंकृत, रत्नों की सीढ़ियों से शोभित, तथा रत्नमय प्रदीपों से प्रकाशित श्रीराधा का भवन तीन खाइयों व तीन दुर्गम द्वारों से घिरा है जिसके प्रत्येक द्वार पर और भीतर सोलह लाख गोपियां श्रीराधा की सेवा में रहती हैं। श्रीराधा की किंकरियों की शोभा भी अलौकिक है जो तपाये हुए स्वर्ण के समान अंगकांति वाली, रत्नमय अलंकारों से अलंकृत व अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्रों से शोभित हैं।
फल, रत्न, सिन्दूर, कुंकुम, पारिजात पुष्पों की मालाओं, श्वेत चंवर, मोती-माणिक्यों की झालरें, चंदन-पल्लवों की बन्दरवार, चंदन-अगुरु-कस्तूरी जल का छिड़काव, फूलों की सुगन्ध से सुवासित वायु और ब्रह्माण्ड में जितनी भी दुर्लभ वस्तुएं है–उन सबसे उस स्थान को इतना विभूषित किया गया था कि वह सर्वथा अवर्णनीय, अनिरुपित व अकल्पनीय है।
इस दिव्य निज निकुंज (अंत:पुर) के भीतर देवताओं को एक तेजपुंज दिखाई दिया। उसको प्रणाम करने पर देवताओं को उसमें हजार दल वाला एक बहुत बड़ा कमल दिखाई दिया। उसके ऊपर एक सोलह दल का कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दल वाला कमल है। उसके ऊपर कौस्तुभमणियों से जड़ित तीन सीढ़ियों वाला एक सिंहासन है, उसी पर भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधिकाजी के साथ विराजमान हैं।
मणि-निर्मित जगमग अति प्रांगण, पुष्प-परागों से उज्जवल।
छहों उर्मियों से विरहित वह वेदी अतिशय पुण्यस्थल।।
वेदी के मणिमय आंगन पर योगपीठ है एक महान।
अष्टदलों के अरुण कमल का उस पर करिये सुन्दर ध्यान।।
उसके मध्य विराजित सस्मित नन्द-तनय श्रीहरि सानन्द।
दीप्तिमान निज दिव्य प्रभा से सविता-सम जो करुणा-कंद।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)देवताओं ने भगवान श्रीकृष्ण के अत्यन्त मनोहर रूप को देखा–उनका नूतन जलधर के समान श्यामवर्ण, प्रफुल्ल लाल कमल से तिरछे नेत्र, शरत्चन्द्र के समान निर्मल मुख, दो भुजाएं, अधरों पर मन्द मुसकान, चंदन, कस्तूरी व कुंकुम से चर्चित अंग, श्रीवत्सचिह्न व कौस्तुभमणिभूषित वक्ष:स्थल, रत्नजड़ित किरीट-हार-बाजूबंद, आजानुलम्बिनी वनमाला–ये सब उनकी शोभा बढ़ाते हैं। हाथों में कंगन हैं जो घूमती हुई अग्नि (लुकारी) की शोभा बिखेर रहे हैं। श्रीअंग पर दिव्य रेशमी अत्यन्त निर्मल पीताम्बर सुशोभित है, जिसकी कान्ति तपाये हुए सुवर्ण-की-सी है। ललाट पर तिलक है जो चारों ओर चंदन से और बीच में कुंकुमबिन्दु से बनाया हुआ है। सिर में कनेर के पुष्पों के आभूषण हैं। मस्तक पर मयूरपिच्छ शोभा पा रहा है। श्रीअंगों पर श्रृंगार के रूप में रंग-बिरंगे बेल-बूटों की रचना हो रही है। वक्ष:स्थल पर कमलों की माला झूल रही है जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। उनके चंचल नेत्र श्रीराधा की ओर लगे हैं। भगवान श्रीकृष्ण के वामभाग में विराजित श्रीराधा के कंधे पर उनकी बांयी भुजा सुशोभित है। भगवान ने अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है और हाथ में बांसुरी को धारण कर रखा है। वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं जिस पर रत्नमय छत्र तना है। उनके प्रिय सखा ग्वालबाल श्वेत चंवर लिए सदा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं। सुन्दर वेषवाली गोपियां माला व चंदन से उनका श्रृंगार करती हैं। वे मन्द-मन्द मुस्कराते रहते हैं और वे गोपियां कटाक्षपूर्ण चितवन से उनकी ओर निहारती रहती हैं।
सबके आदिकारण वे स्वेच्छामय रूपधारी भगवान सदैव नित्य किशोर हैं। कस्तूरी, कुंकुम, गन्ध, चंदन, दूर्वा, अक्षत, पारिजात पुष्प तथा विरजा के निर्मल जल से उन्हें नित्य अर्घ्य दिया जाता है। राग-रागिनियां भी मूर्तिमान होकर वाद्ययन्त्र और मुख से उन्हें मधुर संगीत सुनाती हैं। वे रासमण्डल में विराजित रासेश्वर, परमानन्ददाता, सत्य, सर्वसिद्धिस्वरूप, मंगलकारी, मंगलमय, मंगलदाता और आदिपुरुष हैं। बहुत-से नामों द्वारा उन्हीं को पुकारा जाता है। ऐसा उत्कृष्टरूप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण वैष्णवों के परम आराध्य हैं। वे समस्त कारणों के कारण, समस्त सम्पदाओं के दाता, सर्वजीवन और सर्वेश्वर हैं।
वहां श्रीराधारानी रत्नमय सिंहासन पर विराजमान होती हैं। लाखों गोपियां उनकी सेवा में रहती हैं। श्वेत चम्पा के समान उनकी गौरकान्ति है, अरुण ओष्ठ ओर अधर अपनी लालिमा से दुपहरिए के फूल की लालिमा को पराजित कर रहे थे। वे अमूल्य रत्नजटित वस्त्राभूषण पहने, बांये हाथ में रत्नमय दर्पण तथा दाहिने में सुन्दर रत्नमय कमल धारण करती हैं। उनके ललाट पर अनार के फूल की भांति लाल सिंदूर और माथे पर कस्तूरी-चंदन के सुन्दर बिन्दु उनकी शोभा को और बढ़ा रहे हैं। गालों पर विभिन्न मंगलद्रव्यों (कुंकुम, चंदन आदि) से पत्रावली की रचना की गई है। सिर पर घुंघराले बालों का जूड़ा मालती की मालाओं व वेणियों से अलंकृत है। वे उत्तम रत्नों से बनी वनमाला, पारिजात पुष्पों की माला, नुकीली नासिका में गजमुक्ता की बुलाक, हार, केयूर, कंगन आदि पहने हुए हैं। दिव्य शंख के बने हुए विचित्र रमणीय आभूषण भी उनके श्रीअंगों को विभूषित कर रहे हैं। उनके दोनों चरण कमलों की प्रभा को छीने लेते थे जिनमें उन्होंने बहुमूल्य रत्नों के बने हुए पाशक (बिछुए) पहने हुए हैं। उनके अंग-अंग से लावण्य छिटक रहा है। मन्द-मन्द मुसकराते हुए वे प्रियतम श्रीकृष्ण को तिरछी चितवन से निहार रहीं हैं। यह युगल स्वरूप आठ दिव्य सखियों व श्रीदामा आदि आठ गोपालों के द्वारा सेवित हैं।
अष्ट सखी करतीं सदा सेवा परम अनन्य।
श्रीराधा-माधव युगल की, कर निज जीवन धन्य।।
इनके चरण-सरोज में बारम्बार प्रनाम।
करुना कर दें श्रीजुगल-पद-रज-रति अभिराम।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)गोलोक व भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्त कर देवता आनन्द के समुद्र में गोते खाने लगे। यह गोलोकधाम अत्यन्त दुर्लभ है। इसे केवल शंकर, नारायण, अनन्त, ब्रह्मा, विष्णु, महाविराट्, पृथ्वी, गंगा, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, विष्णुमाया, सावित्री, तुलसी, गणेश, सनत्कुमार, स्कन्द, नर-नारायण ऋषि, कपिल, दक्षिणा, यज्ञ, ब्रह्मपुत्र, योगी, वायु, वरुण, चन्द्रमा, सूर्य, रुद्र, अग्नि तथा कृष्णमन्त्र के उपासक वैष्णव–इन सबने ही देखा है। दूसरों ने इसे कभी नहीं देखा है। कृष्ण भक्त ही गोलोक के अधिकारी हैं क्योंकि अपने भक्तों के लिए श्रीकृष्ण अंधे की लकड़ी, निराश्रय के आश्रय, प्राणों के प्राण, निर्बल के बल, जीवन के जीवन, देवों के देव, ईश्वरों के ईश्वर यानि सर्वस्व वे हीं हैं बस।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें