bhagwan shri krishna golok dhaam

श्याम की चर्चा हमारा प्राण है,
श्याम की चर्चा सुखों की खान है,
श्याम की चर्चा हमारी शान है,
श्याम की चर्चा हमारा मान है,
श्याम-चर्चा है सुखद हमको परम।
श्याम की चर्चा सुनाता जो हमें,
श्याम की चर्चा बताता जो हमें,
श्याम-परिपाटी सिखाता जो हमें,
श्याम की रति में लगाता जो हमें,
हैं कृतज्ञ सदैव हम उसके परम।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)

भगवान श्रीकृष्ण के रूप, गुण और लीला जितनी अद्भुत व अलौकिक हैं, उतना ही अद्भुत, अलौकिक व अविश्वसनीय उनका गोलोकधाम है। प्रारम्भ से लेकर लीलावसान तक श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण चरित्र स्वयं भी हैरान कर देने वाला है–एक नवजात बालक अपनी षष्ठी के दिन एक राक्षसी का प्राणान्त कर दे, कुछ ही महीनों में बड़े-बड़े राक्षसों (शकटासुर, अघासुर, तृणावर्त आदि) का ‘अच्युतम् केशवम्’ (अंत) कर दे–यह सब मायापति श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं क्योंकि वे ईश्वरों के भी ईश्वर परमब्रह्म परमात्मा हैं। पुराणों में गोलोकधाम का जो वर्णन है, वह मनुष्य की सोच, विश्वास व कल्पना से परे है। वहां का सब कुछ अनिर्वचनीय (वर्णन न किया जा सके), अदृष्ट और अश्रुत (वैसा दृश्य कभी देखने व सुनने में न आया हो) है। गोलोकधाम बहुमूल्य रत्नों व मणियों के सारतत्व से बना है, वहां के घर, नदी के तट, सीढ़ियां, मार्ग, स्तम्भ, परकोटे, दर्पण, दरवाजे सभी कुछ रत्नों व मणियों से बने हैं। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी नीली आभा के कारण भक्तों द्वारा ‘नीलमणि’ नाम से पुकारे जाते हैं। हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि गोलोकधाम में कितने गोप-गोपियां है, कितने कल्पवृक्ष हैं, कितनी गौएं हैं। सब कुछ इतना अलौकिक व आश्चर्यचकित कर देने वाला है कि सहज ही उस पर विश्वास करना कठिन हो जाता है। पर भक्ति तर्क से नहीं, विश्वास से होती है। गोलोकधाम का पूरा वर्णन करना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी संभव नहीं है, परन्तु श्रद्धा, भक्ति और प्रेमरूपी त्रिवेणी के द्वारा उसको समझना और मन की कल्पनाओं द्वारा उसमें प्रवेश करना संभव है, अन्यथा किसकी क्षमता है जो इस अनन्त सौंदर्य, अनन्त ऐश्वर्य और अनन्त माधुर्य को भाषा के द्वारा व्यक्त कर सके।

गोलोकधाम के अनन्तान्त सौन्दर्य-ऐश्वर्य-माधुर्य की एक झलक

पूर्वकाल में दैत्यों और असुर स्वभाव वाले राजाओं के भार से पीड़ित होकर पृथ्वी गौ का रूप धारणकर ब्रह्मा, शंकर और धर्म आदि देवताओं के साथ वैकुण्ठधाम गई और भगवान विष्णु से अपने कष्ट से मुक्ति के लिए याचना करने लगी। तब भगवान विष्णु ने समस्त देवताओं से कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं, उनकी कृपा के बिना यह कार्य सिद्ध नहीं होगा, अत: तुम लोग उन्हीं के अविनाशी धाम को जाओ। ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से कहा–यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है, तो उसके लोक का हमें दर्शन कराइए। भगवान विष्णु ने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड शिखर पर स्थित गोलोकधाम का मार्ग दिखलाया।

ब्रह्मादि देवताओं द्वारा गोलोकधाम का दर्शन

भगवान विष्णु द्वारा बताये मार्ग का अनुसरण कर देवतागण ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग से करोड़ों योजन ऊपर गोलोकधाम में पहुंचे। गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। वहीं तक सृष्टि की अंतिम सीमा है। गोलोकधाम परमात्मा श्रीकृष्ण के समान ही नित्य है। यह भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। अप्राकृत आकाश में स्थित इस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी योगशक्ति से (बिना आधार के) वायु रूप से धारण करते हैं। उसकी लम्बाई-चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। वह सब ओर मण्डलाकार फैला हुआ है। परम महान तेज ही उसका स्वरूप है।

प्रलयकाल में वहां केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप-गोपियों से भरा रहता है। गोलोक के नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है। वैकुण्ठ व शिवलोक भी गोलोक की तरह नित्य धाम हैं। इन सबकी स्थिति कृत्रिम विश्व से बाहर है, ठीक उसी तरह जैसे आत्मा, आकाश और दिशाएं कृत्रिम जगत से बाहर तथा नित्य हैं।

विरजा नदी से घिरा हुआ शतश्रृंग पर्वत गोलोकधाम का परकोटा है। श्रीवृन्दावन से युक्त रासमण्डल गोलोकधाम का अलंकार है। जैसे कमल में कर्णिका होती है, उसी प्रकार इन नदी, पर्वत और वन आदि के मध्यभाग में वह मनोहर गोलोकधाम प्रतिष्ठित है। उस चिन्मय लोक की भूमि दिव्य रत्नमयी है। उसके सात दरवाजे हैं। वह सात खाइयों से घिरा हुआ है। उसके चारों ओर लाखों परकोटे हैं। रत्नों के सार से बने विचित्र खम्भे, सीढ़ियां, मणिमय दर्पणों से जड़े किवाड़ और कलश, नाना प्रकार के चित्र, दिव्य रत्नों से रचित असंख्य भवन उस धाम की शोभा को और बढ़ा देते हैं।

योगियों को स्वप्न में भी इस धाम का दर्शन नहीं होता परन्तु वैष्णव भक्त भगवान की कृपा से उसको प्रत्यक्ष देखते और वहाँ जाते हैं। वहां आधि, व्याधि, जरा, मृत्यु, शोक और भय का प्रवेश नहीं है। मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, सोलह विकार तथा महतत्त्व भी वहां प्रवेश नहीं कर सकते फिर तीनों गुणों–सत्, रज, तम के विषय में तो कहना ही क्या? वहां न काल की दाल गलती है और न ही माया का कोई वश चलता है फिर माया के बाल-बच्चे तो वहां जा ही कैसे सकते हैं। यह केवल मंगल का धाम है जो समस्त लोकों में श्रेष्ठतम है। वहां कामदेव के समान रूपलावण्यवाली, श्यामसुन्दर के समान विग्रहवाली श्रीकृष्ण की पार्षदा द्वारपालिकाओं का काम करती हैं।

जब देवताओं ने गोलोकधाम में प्रवेश करना चाहा तो द्वारपालिकाओं में प्रमुख पीले वस्त्र पहने व हाथ में बेंत लिए शतचन्द्रानना सखी ने उन्हें रोक दिया और पूछा–आप सब देवता किस ब्रह्माण्ड के निवासी हैं, बताएं। यह सुनकर देवताओं को बहुत आश्चर्य हुआ कि क्या अन्य ब्रह्माण्ड भी हैं, हमने तो उन्हें कभी नहीं देखा। शतचन्द्रानना सखी ने उन्हें बताया कि यहां तो विरजा नदी में करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें आप जैसे ही देवता वास करते हैं। क्या आप लोग अपना नाम-गांव भी नहीं जानते? इस प्रकार उपहास का पात्र बने सभी देवता चुपचाप खड़े रहे तब भगवान विष्णु ने कहा–जिस ब्रह्माण्ड में भगवान पृश्निगर्भ का अवतार हुआ है, तथा विराट रूपधारी भगवान वामन के नख से जिस ब्रह्माण्ड में छिद्र बन गया है, हम उसी से आए हैं। तब उन देवताओं को गोलोकधाम में प्रवेश की आज्ञा मिली। मन की तीव्र गति से चलते हुए समस्त देवता विरजा नदी के तट पर जा पहुंचे।

विरजा नदी–विरजा नदी का तट स्फटिकमणि के समान उज्जवल और विस्तृत था। उस तट पर कहीं तो मूंगों के अंकुर दिखाई दे रहे थे, तो कहीं पद्मरागमणि, कौस्तुभमणि, इन्द्रनीलमणि, मरकतमणि, स्यमन्तकमणि और स्वर्णमुद्राओं की खानें थीं। उस नदी में उतरने के लिए वैदूर्यमणि की सुन्दर सीढ़ियां बनी हुईं थीं। उस परम आश्चर्यजनक तट को देखकर सभी देवता नदी के उस पार गए तो उन्हें शतश्रृंग पर्वत दिखाई दिया।

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रत्नमयशतश्रृंग पर्वत–शतश्रृंग पर्वत दिव्य पारिजात वृक्षों, कल्पवृक्षों और कामधेनुओं द्वारा सब ओर से घिरा था। यह पर्वत चहारदीवारी की तहरह गोलोक के चारों ओर फैला हुआ था। उसकी ऊंचाई एक करोड़ योजन और लम्बाई दस करोड़ योजन थी। गोलोक का यह ‘गोवर्धन’ पर्वत कल्पलताओं के समुदाय से सुशोभित था। उसी के शिखर पर गोलाकार रासमण्डल है।

रासमण्डल–गोलोकधाम में दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित चन्द्रमण्डल के समान गोलाकार रासमण्डल है, जिसका विस्तार दस हजार योजन है। वह फूलों से लदे हुए पारिजात वन से, सहस्त्रों कल्पवृक्षों से और सैंकड़ों पुष्पोद्यानों से घिरा हुआ है। उस रासमण्डल में तीन करोड़ रत्नों से बने भवन हैं, जहां रत्नमय प्रदीप प्रकाश देते हैं और नाना प्रकार की भोगसामग्री संचित है। श्वेतधान्य, विभिन्न पल्लवों, फल, दूर्वादल और मंगलद्रव्य उस रासमण्डल की शोभा बढ़ाते हैं। चंदन, अगरु, कस्तूरी और कुंकुमयुक्त जल का वहां सब ओर छिड़काव हुआ है। रेशमी सूत में गुंथे हुए चंदन के पत्तों की बंदनवारों और केले के खम्भों द्वारा वह चारों ओर से घिरा हुआ था। पीले रंग की साड़ी व रत्नमय आभूषणों से विभूषित गोपकिशोरियां उस रासमण्डल को घेरे हुए हैं। श्रीराधिका के चरणारविन्दों की सेवा में लगे रहना ही उनका मनोरथ है। रासमण्डल के सब ओर मधु की और अमृत की बाबलियां हैं। अनेक रंगों के कमलों से सुशोभित क्रीडा-सरोवर रासमण्डल को चारों ओर से घेरे हुए हैं, जिनमें असंख्य भौंरों के समूह गूंजते रहते हैं। रासमण्डल में असंख्य कुंज-कुटीर हैं जो रासमण्डल की शोभा को और बढ़ा रहे हैं। श्रीराधा की आज्ञा से असंख्य गोपसुन्दरियां रासमण्डल की रक्षा में नियुक्त रहती हैं। उस रासमण्डल को देखकर जब सब देवता उस पर्वत की सीमा से बाहर हुए तब उन्हें रमणीय वृन्दावन के दर्शन हुए।

वृन्दावन–वृन्दावन श्रीराधामाधव को बहुत प्रिय है। यह युगल स्वरूप का क्रीडास्थल है। विरजा नदी के जल से भीगी हुई मंद-मंद वायु कल्पवृक्षों के समूह को छूकर कस्तूरी जैसी सुगन्धित हो जाती है। ऐसी सुगन्धित वायु का स्पर्श पाकर मोतिया, बेला, जूही, कुन्द, केतकी, माधवीलता आदि लताओं के समूह मदमस्त हो झूमते दिखाई देते हैं। सारा वन कदम्ब, मंदार, चन्दन आदि सुगन्धित पुष्पों की अलौकिक सुगंध से भरा रहता है जिन पर मधुलोभी भौंरे गुंजन करते फिरते हैं। इन भ्रमरों की गुंजार से सारा वृन्दावन मुखरित रहता है। ऐसे ही आम, नारंगी, कटहल, ताड़, नारियल, जामुन, बेर, खजूर, सुपारी, आंवला, नीबू, केला आदि के वृक्ष समूह उस वन की शोभा को और भी बढ़ा देते हैं।

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वृन्दावन के मध्य भाग में बत्तीस वनों से युक्त एक ‘निज निकुंज’ है जिसका आंगन अक्षयवटों से अलंकृत है। पद्मरागादि सात प्रकार की मणियों से उसकी दीवारें व फर्श बने हैं। रत्नमय अलंकारों से सजी करोड़ों गोपियां श्रीराधा की आज्ञा से उस वन की रक्षा करती हैं। साथ ही श्रीकृष्ण के समान रूप वाले व सुन्दर वस्त्र व आभूषणों से सजे-धजे गोप उस वृन्दावन में इधर-उधर विचरण कर रहे थे। वहां कोटि-कोटि पीली पूंछ वाली सवत्सा गौएं हैं जिनके सींगों पर सोना मढ़ा है व दिव्य आभूषणों, घण्टों व मंजीरों से विभूषित हैं। नाना रंगों वाली गायों में कोई उजली, कोई काली, कोई पीली, कोई लाल, कोई तांबई तो कोई चितकबरे रंग की हैं। दूध देने में समुद्र की तुलना करने वाली उन गायों के शरीर पर गोपियों के हाथों की हथेलियों के चिह्न (छापे) लगे हैं। गायों के साथ उनके छोटे-छोटे बछड़े भी हैं जो चारों तरफ हिरनों की तरह छलांगें लगा रहे हैं। गायों के झुण्ड में ही धर्मरूप सांड भी मस्ती में इधर-उधर घूम रहे थे। गौओं की रक्षा करने वाले गोपाल हाथ में बेंत व बांसुरी लिए हुए हैं व श्रीकृष्ण के समान श्यामवर्ण हैं। वे अत्यन्त मधुर स्वर में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान कर रहे थे। ऐसे रमणीय वृन्दावन के दर्शन करते हुए वे देवतागण गोलोकधाम में जा पहुंचे।

गोलोक में कितने घर हैं, यह कौन बता सकता है? श्रीकृष्ण की सेवा में लगे रहने वाले गोपों के रत्नजटित पचास करोड़ आश्रम हैं जो विभिन्न प्रकार के भोगों से सम्पन्न हैं। श्रीकृष्ण के पार्षदों के दस करोड़ आश्रम हैं। पार्षदों में भी प्रमुख वे लोग जो श्रीकृष्ण के समान ही रूप बनाकर रहते हैं, उनके एक करोड़ आश्रम हैं। श्रीराधिका में विशुद्ध भक्ति रखने वाली गोपांगनाओं के बत्तीस करोड़ व उनकी किंकरियों के दस करोड़ आश्रम हैं।

भक्तों के लिए सुलभ गोलोकधाम

सैंकड़ों वर्षों की तपस्याओं से पवित्र हुए जो भक्त भूतल पर श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हैं, सोते-जागते हर समय अपने मन को श्रीकृष्ण में लगाए रहते हैं, दिन-रात ‘राधाकृष्ण’, श्रीकृष्ण’ की रट लगाए हुए है, नाम जपते हैं, उनके कर्मबंधन नष्ट हो जाते हैं। ऐसे भक्तों के लिए गोलोक में बहुत सुन्दर निवासस्थान बने हुए हैं, जो उत्तम मणिरत्नों से निर्मित व समस्त भोगसामग्री से सम्पन्न हैं। ऐसे भवनों की संख्या सौ करोड़ है।

थोड़ा आगे चलने पर देवताओं को एक अक्षयवट दिखाई दिया जिसका विस्तार पांच योजन व ऊंचाई दस योजन है। उसमें सहस्त्रों तनें और असंख्य शाखाएं थीं। लाल-लाल पके फलों से लदे उस वृक्ष के नीचे रत्नमय वेदिकाएं बनीं हुईं थी। उस वृक्ष के नीचे श्रीकृष्ण के समान ही पीताम्बरधारी, चंदन से अंगों को सजाये हुए व रत्नमय आभूषण पहने गोपशिशु खेल रहे थे।

वहां से होते हुए देवतागण एक सुन्दर राजमार्ग से होकर चले जो लालमणियों से निर्मित था और जिसके दोनों ओर रत्नमय विश्राम-मण्डप बने थे। राजमार्ग पर कुंकुम-केसर के जल का छिड़काव किया गया था। रत्नमय मंगल कलशों व सहस्त्रों केले के खम्भों से उस पथ को दोनों ओर से सजाया गया था। झुंड-की-झुंड गोपिकाएं उस मार्ग को घेरे खड़ी थीं। कुछ दूर जाने पर देवताओं को गोपीशिरोमणि श्रीकृष्णप्राणाधिका श्रीराधा का निवासस्थान दिखाई दिया।

श्रीराधा के अंत:पुर का वर्णन

श्रीराधा के अंत:पुर में प्रवेश के लिए देवताओं को सोलह द्वार पार करने पड़े जोकि उत्तम रत्नों व मणियों से निर्मित थे। प्रथम द्वार की रक्षा द्वारपाल वीरभानु कर रहे थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर ही देवताओं को प्रथम द्वार से आगे जाने दिया। दूसरे द्वार पर चन्द्रभानु हाथ में सोने का बेंत लिए पांच लाख गोपों के साथ थे, तीसरे द्वार पर सूर्यभानु हाथ में मुरली लिए नौ लाख गोपों सहित उपस्थित थे। चौथे द्वार पर हाथ में मणिमय दण्ड लिए वसुभानु नौ लाख गोपों के साथ, पांचवें द्वार पर हाथ में बेंत लिए देवभानु दस लाख गोपों के साथ, छठे द्वार पर शक्रभानु दस लाख गोपों के साथ, सातवें द्वार पर रत्नभानु बारह लाख गोपों के साथ, आठवें द्वार पर सुपार्श्व दण्ड व बारह लाख गोपों के साथ, नवें द्वार पर सुबल बारह लाख गोपों के साथ पहरा दे रहे थे। दसवें द्वार पर सुदामा नामक गोप जिनका रूप श्रीकृष्ण के ही समान था, दण्ड लिए बीस लाख गोपों के साथ प्रतिष्ठित थे। ग्यारहवें द्वार पर व्रजराज श्रीदामा करोड़ों गोपों के साथ उपस्थित थे, जिन्हें श्रीराधा अपने पुत्र के समान मानती थीं। उनकी आज्ञा लेकर जब देवेश्वर आगे गए तो आगे के तीनों द्वार स्वप्नकालिक अनुभव के समान अद्भुत, अश्रुत, अतिरमणीय व विद्वानों के द्वारा भी अवर्णनीय थे। उन तीनों द्वारों की रक्षा में कोटि-कोटि गोपांगनाएं नियुक्त थीं। वे सुन्दरियों में भी परम सुन्दरी, रूप-यौवन से सम्पन्न, रत्नाभरणों से विभूषित, सौभाग्यशालिनी व श्रीराधिका की प्रिया हैं। उन्होंने चंदन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से अपना श्रृंगार किया हुआ था।

सोलहवां द्वार सब द्वारों में प्रधान श्रीराधा के अंत:पुर का द्वार था जिसकी रक्षा श्रीराधा की तैंतीस (33) सखियां करती थीं। उन सबके रूप-यौवन व वेशभूषा, अलंकारों व गुणों का वर्णन करना संभव नहीं है। श्रीराधा के ही समान उम्र वाली उनकी तैंतीस सखियां हैं–सुशीला, शशिकला, यमुना, माधवी, रति, कदम्बमाला, कुन्ती, जाह्नवी, स्वयंप्रभा, चन्द्रमुखी, पद्ममुखी, सावित्री, सुधामुखी, शुभा, पद्मा, पारिजाता, गौरी, सर्वमंगला, कालिका, कमला, दुर्गा, भारती, सरस्वती, गंगा, अम्बिका, मधुमती, चम्पा, अपर्णा, सुन्दरी, कृष्णप्रिया, सती, नन्दिनी, और नन्दना। श्रीराधा की सेवा में रहने वाली गोपियां भी उन्हीं की तरह हैं। वे हाथों में श्वेत चंवर लिए रहती हैं। वहां नाना प्रकार का वेश धारण किए गोपिकाओं में कोई हाथों से मृदंग बजा रही थी, तो कोई वीणा-वादन कर रही थी, कोई करताल, तो कोई रत्नमयी कांजी बजा रही थी, कुछ गोपिकाएं नुपुरों की झनकार कर रहीं थीं। श्रीराधा और श्रीकृष्ण के गुणगान सम्बन्धी पदों का संगीत वहां सब ओर सुनाई पड़ता था। किन्हीं के माथे पर जल से भरे घड़े रखे थे। कुछ नृत्य का प्रदर्शन कर रहीं थी।

इन्द्रनीलमणि और सिंदूरी मणियों से बना यह द्वार पारिजात के पुष्पों से सजा था। उन्हें छूकर बहने वाली वायु से वहां सर्वत्र  दिव्य सुगंध  फैली हुई थी। श्रीराधा के उस आश्चर्यमय अन्त:पुर के द्वार का अवलोकन कर देवताओं के मन में श्रीराधाकृष्ण के दर्शनों की उत्कण्ठा जाग उठी। उनके शरीर में रोमांच हो आया और भक्ति के उद्रेक से आंखें भर आईं। श्रीकृष्णप्राणाधिका श्रीराधा के अंत:पुर का सब कुछ अनिर्वचनीय था।

यह मनोहर भवन गोलाकार बना है और इसका विस्तार बारह कोस का है। इसमें सौ भवन बने हुए हैं। यह चारों ओर से कल्पवृक्षों से घिरा है। श्रीराधाभवन इतने बहुमूल्य रत्नों व मणियों से निर्मित है कि उनकी आभा व तेज से ही वह सदा जगमगाता रहता है। यह अमूल्य इन्द्रनीलमणि के खम्भों से सुशोभित, रत्ननिर्मित मंगल कलशों से अलंकृत और रत्नमयी वेदिकाओं से विभूषित है। विचित्र चित्रों द्वारा चित्रित, माणिक्य, मोतियों व हीरों के हारों से अलंकृत, रत्नों की सीढ़ियों से शोभित, तथा रत्नमय प्रदीपों से प्रकाशित श्रीराधा का भवन तीन खाइयों व तीन दुर्गम द्वारों से घिरा है जिसके प्रत्येक द्वार पर और भीतर सोलह लाख गोपियां श्रीराधा की सेवा में रहती हैं। श्रीराधा की किंकरियों की शोभा भी अलौकिक है जो तपाये हुए स्वर्ण के समान अंगकांति वाली, रत्नमय अलंकारों से अलंकृत व अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्रों से शोभित हैं।

फल, रत्न, सिन्दूर, कुंकुम, पारिजात पुष्पों की मालाओं, श्वेत चंवर, मोती-माणिक्यों की झालरें, चंदन-पल्लवों की बन्दरवार, चंदन-अगुरु-कस्तूरी जल का छिड़काव, फूलों की सुगन्ध से सुवासित वायु और ब्रह्माण्ड में जितनी भी दुर्लभ वस्तुएं है–उन सबसे उस स्थान को इतना विभूषित किया गया था कि वह सर्वथा अवर्णनीय, अनिरुपित व अकल्पनीय है।

इस दिव्य निज निकुंज (अंत:पुर) के भीतर देवताओं को एक तेजपुंज दिखाई दिया। उसको प्रणाम करने पर देवताओं को उसमें हजार दल वाला एक बहुत बड़ा कमल दिखाई दिया। उसके ऊपर एक सोलह दल का कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दल वाला कमल है। उसके ऊपर कौस्तुभमणियों से जड़ित तीन सीढ़ियों वाला एक सिंहासन है, उसी पर भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधिकाजी के साथ विराजमान हैं।

मणि-निर्मित जगमग अति प्रांगण, पुष्प-परागों से उज्जवल।
छहों उर्मियों से विरहित वह वेदी अतिशय पुण्यस्थल।।
वेदी के मणिमय आंगन पर योगपीठ है एक महान।
अष्टदलों के अरुण कमल का उस पर करिये सुन्दर ध्यान।।
उसके मध्य विराजित सस्मित नन्द-तनय श्रीहरि सानन्द।
दीप्तिमान निज दिव्य प्रभा से सविता-सम जो करुणा-कंद।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)

देवताओं ने भगवान श्रीकृष्ण के अत्यन्त मनोहर रूप को देखा–उनका नूतन जलधर के समान श्यामवर्ण, प्रफुल्ल लाल कमल से तिरछे नेत्र, शरत्चन्द्र के समान निर्मल मुख, दो भुजाएं, अधरों पर मन्द मुसकान, चंदन, कस्तूरी व कुंकुम से चर्चित अंग, श्रीवत्सचिह्न व कौस्तुभमणिभूषित वक्ष:स्थल, रत्नजड़ित किरीट-हार-बाजूबंद, आजानुलम्बिनी वनमाला–ये सब उनकी शोभा बढ़ाते हैं। हाथों में कंगन हैं जो घूमती हुई अग्नि (लुकारी) की शोभा बिखेर रहे हैं। श्रीअंग पर दिव्य रेशमी अत्यन्त निर्मल पीताम्बर सुशोभित है, जिसकी कान्ति तपाये हुए सुवर्ण-की-सी है। ललाट पर तिलक है जो चारों ओर चंदन से और बीच में कुंकुमबिन्दु से बनाया हुआ है। सिर में कनेर के पुष्पों के आभूषण हैं। मस्तक पर मयूरपिच्छ शोभा पा रहा है। श्रीअंगों पर श्रृंगार के रूप में रंग-बिरंगे बेल-बूटों की रचना हो रही है। वक्ष:स्थल पर कमलों की माला झूल रही है जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। उनके चंचल नेत्र श्रीराधा की ओर लगे हैं। भगवान श्रीकृष्ण के वामभाग में विराजित श्रीराधा के कंधे पर उनकी बांयी भुजा सुशोभित है। भगवान ने अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है और हाथ में बांसुरी को धारण कर रखा है। वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं जिस पर रत्नमय छत्र तना है। उनके प्रिय सखा ग्वालबाल श्वेत चंवर लिए सदा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं। सुन्दर वेषवाली गोपियां माला व चंदन से उनका श्रृंगार करती हैं। वे मन्द-मन्द मुस्कराते रहते हैं और वे गोपियां कटाक्षपूर्ण चितवन से उनकी ओर निहारती रहती हैं।

सबके आदिकारण वे स्वेच्छामय रूपधारी भगवान सदैव नित्य किशोर हैं। कस्तूरी, कुंकुम, गन्ध, चंदन, दूर्वा, अक्षत, पारिजात पुष्प तथा विरजा के निर्मल जल से उन्हें नित्य अर्घ्य दिया जाता है। राग-रागिनियां भी मूर्तिमान होकर वाद्ययन्त्र और मुख से उन्हें मधुर संगीत सुनाती हैं। वे रासमण्डल में विराजित रासेश्वर, परमानन्ददाता, सत्य, सर्वसिद्धिस्वरूप, मंगलकारी, मंगलमय, मंगलदाता और आदिपुरुष हैं। बहुत-से नामों द्वारा उन्हीं को पुकारा जाता है। ऐसा उत्कृष्टरूप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण वैष्णवों के परम आराध्य हैं। वे समस्त कारणों के कारण, समस्त सम्पदाओं के दाता, सर्वजीवन और सर्वेश्वर हैं।

वहां श्रीराधारानी रत्नमय सिंहासन पर विराजमान होती हैं। लाखों गोपियां उनकी सेवा में रहती हैं। श्वेत चम्पा के समान उनकी गौरकान्ति है, अरुण ओष्ठ ओर अधर अपनी लालिमा से दुपहरिए के फूल की लालिमा को पराजित कर रहे थे। वे अमूल्य रत्नजटित वस्त्राभूषण पहने, बांये हाथ में रत्नमय दर्पण तथा दाहिने में सुन्दर रत्नमय कमल धारण करती हैं। उनके ललाट पर अनार के फूल की भांति लाल सिंदूर और माथे पर कस्तूरी-चंदन के सुन्दर बिन्दु उनकी शोभा को और बढ़ा रहे हैं। गालों पर विभिन्न मंगलद्रव्यों (कुंकुम, चंदन आदि) से पत्रावली की रचना की गई है। सिर पर घुंघराले बालों का जूड़ा मालती की मालाओं व वेणियों से अलंकृत है। वे उत्तम रत्नों से बनी वनमाला, पारिजात पुष्पों की माला, नुकीली नासिका में गजमुक्ता की बुलाक, हार, केयूर, कंगन आदि पहने हुए हैं। दिव्य शंख के बने हुए विचित्र रमणीय आभूषण भी उनके श्रीअंगों को विभूषित कर रहे हैं। उनके दोनों चरण कमलों की प्रभा को छीने लेते थे जिनमें उन्होंने बहुमूल्य रत्नों के बने हुए पाशक (बिछुए) पहने हुए हैं। उनके अंग-अंग से लावण्य छिटक रहा है। मन्द-मन्द मुसकराते हुए वे प्रियतम श्रीकृष्ण को तिरछी चितवन से निहार रहीं हैं। यह युगल स्वरूप आठ दिव्य सखियों व श्रीदामा आदि आठ गोपालों के द्वारा सेवित हैं।

अष्ट सखी करतीं सदा सेवा परम अनन्य।
श्रीराधा-माधव युगल की, कर निज जीवन धन्य।।
इनके चरण-सरोज में बारम्बार प्रनाम।
करुना कर दें श्रीजुगल-पद-रज-रति अभिराम।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)

गोलोक व भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्त कर देवता आनन्द के समुद्र में गोते खाने लगे। यह गोलोकधाम अत्यन्त दुर्लभ है। इसे केवल शंकर, नारायण, अनन्त, ब्रह्मा, विष्णु, महाविराट्, पृथ्वी, गंगा, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, विष्णुमाया, सावित्री, तुलसी, गणेश, सनत्कुमार, स्कन्द, नर-नारायण ऋषि, कपिल, दक्षिणा, यज्ञ, ब्रह्मपुत्र, योगी, वायु, वरुण, चन्द्रमा, सूर्य, रुद्र, अग्नि तथा कृष्णमन्त्र के उपासक वैष्णव–इन सबने ही देखा है। दूसरों ने इसे कभी नहीं देखा है। कृष्ण भक्त ही गोलोक के अधिकारी हैं क्योंकि अपने भक्तों के लिए श्रीकृष्ण अंधे की लकड़ी, निराश्रय के आश्रय, प्राणों के प्राण, निर्बल के बल, जीवन के जीवन, देवों के देव, ईश्वरों के ईश्वर यानि सर्वस्व वे हीं हैं बस।