स्थान: उत्तरी गोलार्ध
निर्देशांक:
दायां आरोहण: 11 घंटे
झुकाव: +50º
स्रोत: ग्रीक, रोमन और मूल अमेरिकी पौराणिक कथाएँ
नाम के पीछे की कहानी: नक्षत्र नाम, उर्सा मेजर, का अर्थ है बड़ा भालू। "भालू" संघ की उत्पत्ति दो प्रमुख सभ्यताओं में हुई है, जिन्होंने आकाश में दो बिल्कुल अलग भालू देखे थे।
जिन यूनानियों ने इस तारामंडल को यह नाम दिया था (बाद में उस लैटिन नाम का अनुवाद किया गया जिसे हम आज इस्तेमाल करते हैं) उनका मानना था कि तारे अपने पंजों वाले पैरों पर चलते हुए भालू के आकार को रेखांकित करते हैं। इसे और इसके छोटे साथी, उर्सा माइनर को बूटेस और उसके शिकारी कुत्तों का शिकार कहा गया था। भालू की लंबी बिल्ली जैसी पूंछ प्राचीन पैटर्न का हिस्सा थी और कुछ हद तक एक रहस्य है। ओविड की एक कहानी ने स्पष्टीकरण देने की कोशिश की। उस मिथक में, ज़ीउस को कैलिस्टो से प्यार हो गया। हेरा ने ईर्ष्या के कारण उसे भालू में बदल दिया। उसका बेटा आर्कस (आर्कटुरस का नाम, नक्षत्र बूटेस का वैकल्पिक नाम) जंगल में उसके पास आया और वह उसका स्वागत करने के लिए दौड़ी। यह न जानते हुए कि भालू उसकी माँ थी, वह उसे मारने ही वाला था। उसे बचाने के लिए, ज़ीउस ने आर्कस को एक छोटे भालू में बदल दिया, उन दोनों को उनकी पूंछ से पकड़ लिया और उन्हें आकाश में फेंक दिया, जिससे उनकी पूंछ फैल गई।
कई मूल अमेरिकी जनजातियाँ भी इस तारामंडल को भालू के रूप में संदर्भित करती हैं, लेकिन एक चतुर जोड़ के साथ। इन सितारों के उनके विवरण में, भालू वही है, लेकिन "पूंछ" के बिना। इसके बजाय, वे तीन सितारे तीन आशावादी शिकारी हैं, और बीच वाला भालू को खाना पकाने के लिए खाना पकाने का बर्तन ले जा रहा है।
इस तारामंडल में देखा जाने वाला सबसे आम पैटर्न सबसे चमकीले सितारों के एक छोटे समूह से बना है (जिसे एस्टरिज्म कहा जाता है) जो बिग डिपर की रूपरेखा बनाता है। यह नाम कई अलग-अलग संस्कृतियों से आया है, जिसमें इन सितारों में एक लंबे हैंडल वाला चम्मच देखा गया है, जिसका इस्तेमाल अक्सर पीने के लिए पानी डुबाने के लिए किया जाता है। अन्य लोग इस पैटर्न को हल कहते हैं, डिपर के बजाय, एक पुरानी शैली, बैल द्वारा खींचा जाने वाला खेत का हल। बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हल का पैटर्न, ट्राइओन्स के मिथक में संदर्भित आकृति है, बैलों और हल को चरवाहे बूट्स द्वारा चलाया जाता है। मिस्रवासियों और चीनियों ने अलग-अलग संघ देखे। अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक समय में भी, प्रारंभिक यूरोपीय सभ्यताओं ने इस पैटर्न के लिए नए अर्थों का आविष्कार करना जारी रखा।
सप्तर्षि तारामंडल ( Major Constellation)
सप्तर्षि तारामंडल - प्रमुख गलाक्सियाँ और नेब्युला |
अरिष्टा:- कश्यप ऋषि की स्त्री और दक्ष प्रजापति की पुत्री जिससे गंधर्व उत्पन्न हुए थे ।"
भक्तिनारदसमागमो नामक प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥)
इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।
अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -
"भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।
(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)
गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत: इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_
ऋग्वेद में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं।
जो पुराण वर्णित गोलोक का ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।
विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ रहती हैं , वहाँ पड़ता है।
"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)
शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है
इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -
"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।
उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के)
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥
अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान (लोक ) को सदैव देखते हैं।
ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-
सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित अथवा विचरण करती हैं उस स्थानों को - तुम्हारे जाने के लिए जिसे- वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥
उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि में वर्णित गोलोक है ।
'विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है।
सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत: गोलोक की ही सृष्टि हैं
विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों मैं ही रहता है।
"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।
विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।
विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड ' ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।
ऋग्वेद 1.22.18) में भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।
विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।
"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।
वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।
हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।
अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
विष्णु के तीनों रूप सत्व गुण की ही क्रमश: तीन अवस्था १- विशिष्ट सत्व २-शुद्ध सत्व और ३-सत्व ये तीन अवस्थाऐं हैं।
"पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक विशेष विचारणीय हैं।
१- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों का धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है !
इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर अहीरो को दिव्य लोको (गोलोकों) में निवास करने का अधिकारी बनाकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दी गयी है।
"आभीर लोग पूर्वकाल में भी धर्मतत्व वेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल कहकर सम्बोधित किए गये हैं।
तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन श्लोकों में निर्दशित है।
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा- मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों (गोलोकों) को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
"गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह वर्णन है।
"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्ण की पूजा करके, उन्हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।
उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।
तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोको में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
क्योंकि सभी यादव मेरे ही अंश है।
"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः ॥ जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥
"शब्दार्थ:-१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न) २-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले। ४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले। ५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में +सन् भावे अ प्रत्यय ।= जयेच्छायां । ६- जित्वा= जीतकर।७-अरीन्= शत्रुओ को। ८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे। ९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।१०-बलिं = भेंट /उपहार।११- दिशाम् = दिशाओं में।
सन्दर्भ:- गर्गसंहिता खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)
"गोप अथवा यादव एक ही हैं। क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।"
जब ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन हो सकते हैं।
और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के शरीर से उत्पन्न हैं। अत: पुराणों में स्वयं ब्राह्मणों के आदि पितामह ब्रह्मा गोपों की स्तुति करते हैं । और उनकी चरणधूलि लेकर अपने को धन्य मानते हैं। गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं गोप स्वराट विष्णु (कृष्ण) की सृष्टि हैं। इसी लिए ब्रह्मा भी गोपों की स्तुति करते हैं।
"शास्त्र में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
सम्पूर्ण गोप अथवा यादव विष्णु अथवा कृष्ण के अंश अथवा उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हुए है। यह बात ब्रह्म-वैवर्त पुराण ,गर्गसंहिता ,पद्मपुराण और अन्य परवर्ती ग्रन्थ लक्ष्मी नारायणी संहिता और ब्रह्म संहिता आदि में वर्णित है।
___________
विष्णोरिदम् । विष्णु + अण् । ) विष्णुसम्बन्धी वैष्णव!
विष्णु के उपासक, भक्त और विष्णु से सम्बंधित वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु के इन छै: गुणों से युक्त होने के कारण भगवत् - संज्ञा है। जो निम्नलिखित हैं।
१-अनन्त ऐश्वर्य, २-वीर्य, ३-यश, ४-श्री, ५-ज्ञान और ६-वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण परमात्मा को भगवान् या भगवत् कहा जाता है।
"इस कारण वैष्णवों को भागवत नाम से भी जाना जाता है - भगवत्+अण्=भागवत।
जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत् है। श्रीमद् -वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत में 'भगवान्' कहा गया है।
उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है वल्लभाचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ में वर्णन है।
"श्रीमद्वल्लभाचार्य लिखित -सिद्धान्त मुक्तावलि "वैष्णव धर्म मूलत: भक्तिमार्ग है।"भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य भक्ति को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।
श्लोक का अनुवाद:- इस (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
"वक्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे। "सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः।-5।
शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु या कृष्ण या मूल तत्व परम्ब्रह्म के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव (विष्णु या कृष्ण या मूल तत्व परम्ब्रह्म के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।
"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:" आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
👇(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे।
वास्तव में विष्णु का ही गोलोक धाम का वृहद् रूप कृष्ण है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।"
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥२३॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयंते स्वतेजसि ॥तं वदंति परे साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥२४॥
अनुवाद:-नन्दराज साक्षात द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। गोलोक में जो गोपालगण हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं और गोपियॉं श्रीराधा के रोम से उद्भुत हुई हैं।
वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आयी हैं। कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं, जो पूर्वकृत पुण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्ण को प्राप्त हुई हैं।२१-२२।
भगवान श्रीकृष्ण साक्षात परिपूर्णतम परमात्मा हैं, असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति, गोलोक के स्वामी तथा परात्पर ब्रह्म हैं। जिनके अपने तेज में सम्पूर्ण तेज विलीन होते हैं, उन्हें ब्रह्मा आदि उत्कृष्ट देवता साक्षात ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं,
____सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः।११।
_______________
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३। ।
- तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ३।
- जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
- क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
- हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।
- तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः ।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः७।
- धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ८।
- उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।९।
- ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः १०।
- तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अंडजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ११।
_________________
वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।
चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।
अनुवाद:- विष्णु से यह उत्पन्न होने ही वैष्णव कहे जाते हैं....... सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता है।३-४।
"पद्म पुराण उत्तरखण्ड में अध्याय 68 में वैष्णव वर्ण को रूप में वर्णित है।
"जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
पद्म पुराण कार ने वैष्णव वर्ण के रूप में सम्पादित किया है।
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है।"जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यन्त धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
"सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)
अर्थ- विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं।
वैष्णव वर्ण की स्वतन्त्र जाति आभीर है। पद्म पुराण उत्तराखण्ड के अतिरिक्त इसका संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी है । प्रसंगानुसार वर्णित किया गया है।
श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्साहस्र्यां संहितायामुत्तरखंडे उमापतिनारदसंवादे वैष्णवमाहात्म्यंनाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ।६८।
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अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही होने से रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।
किसी भी पुराण अथवा शास्त्र में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं हुई है ।
गोप वैष्णव वर्ण में आभीर जाति के रूप में हैं देखे नीचे ब्रह्मवैवर्त पुराण का सन्दर्भ-
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"गोप अथवा यादव एक ही थे क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।" जिसका समान भावार्थ है।
परन्तु उन्हें इसके अनुरूप चरित्र स्थापित करने की आवश्यकता है।
परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं जो कि गोप जाति के अनुकूल नहीं है । "किसी शास्त्र में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं दर्शायी है!
तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं । इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।
(👇 "कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
👇(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे।
वास्तव में विष्णु का ही गोलोक धाम का वृहद् रूप कृष्ण है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
।
"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।"
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥२३॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयंते स्वतेजसि ॥तं वदंति परे साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥२४॥
अनुवाद:-नन्दराज साक्षात द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। गोलोक में जो गोपालगण हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं और गोपियॉं श्रीराधा के रोम से उद्भुत हुई हैं।
वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आयी हैं। कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं, जो पूर्वकृत पुण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्ण को प्राप्त हुई हैं।२१-२२।
भगवान श्रीकृष्ण साक्षात परिपूर्णतम परमात्मा हैं, असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति, गोलोक के स्वामी तथा परात्पर ब्रह्म हैं। जिनके अपने तेज में सम्पूर्ण तेज विलीन होते हैं, उन्हें ब्रह्मा आदि उत्कृष्ट देवता साक्षात ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं,
____सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः।११।
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"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३। ।
- तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ३।
- जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
- क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
- हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।
- तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः ।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः७।
- धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ८।
- उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।९।
- ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः १०।
- तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अंडजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ११।
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वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।
चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।
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अनुवाद:- विष्णु से यह उत्पन्न होने ही वैष्णव कहे जाते हैं....... सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता है।३-४।
"जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
पद्म पुराण कार ने वैष्णव वर्ण के रूप में सम्पादित किया है।
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