गुरुवार, 30 नवंबर 2023

गोलोक और पञ्चमवर्ण तथा विष्णु और कृष्ण का भेद- विडियो -

नमस्कार मित्रो !   मित्रो - इस विडियो में आप लोग परम प्रभु श्रीकृष्ण के उन तीन प्रसंग के विषय में जानेगे' जिसे आजतक बहुत ही कम लोग जानते हैं। 

अथवा कहें कि  फिर जानते ही नहीं हैं- किन्तु आज हम इस युगान्त कारी ज्ञान के आधार पर भगवान् श्रीकृष्ण से सम्बन्धित उन घटनाओं को प्रस्तुत करेंगे जिसे जानबूझ कर अथवा अज्ञानतावश कथाकारों द्वारा अब तक नहीं बताया गया है। जिसके परिणाम स्वरूप जनमानस में कृष्ण के वास्तविक चरित्रों ( कारनामों)  का प्रचार प्रसार नहीं हो सका और श्रीकृष्ण के रहस्यों से सारी दुनिया अनिभिज्ञ रह गयी ।
कृष्ण के वास्तविक स्वरूप का यथावत् ज्ञान न होने के कारण  साधारण लोग आज तक भ्रम जाल में भँसकर संसार के चक्कर लगा रहे-

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और इसी भ्रमजाल को दूर करने के लिए अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के चारित्रिक रहस्यों को सम्पूर्ण सारगर्भित  रूप से बताने के लिए हमने  इस विडियो को  प्रमुख रूप तीन भागों में बाँटा हैं ताकि -

आप लोगों को स्टेप बाइ स्टेप (क्रमश:) समझ में आ जाय कि कृष्ण क्या थे उनका आध्यात्मिक और सांसारिक क्या योगदान था ?-
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जिसमें आप लोग विडियों के प्रथम भाग "ब्रह्माण्ड की संरचना" को जानते हुए यह जान पायेगें कि सबसे ऊपर कौन सा लोक है और उनसे नीचे क्रमश कौन कौन से लोक है। क्या इस ब्रह्माण्ड से परे भी कोई लोक है ?

और उस लोक में कौन कौन प्राणी रहते हैं , तथा उन लोके के अधिपति कौन है ? और उन अधिपतियों के भी अधिपति (सुप्रीम पावर) कौन है ?

जिसकी शक्ति से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड गतिमान है  जिसे ईश्वर, परम-प्रभु परम-तत्व" इत्यादि नामों से तत्वज्ञानी अपने अपने हिसाब से ही उस एक  परम शक्ति का अनुभव व वर्णन किया करते हैं।

फिर आप लोग विडियो के दूसरे भाग में सृष्टि उत्पत्ति को दो तरीकों से जानेंगे- जिसमें सर्वप्रथम सुप्रीम पावर ( परम प्रभु श्रीकृष्ण) द्वारा सृष्टि कि उत्पत्ति को जानेंगे-  जिसमे आप लोग जान    पायेंगे  कि परम प्रभु श्रीकृष्ण से सर्व प्रथम नारायण, ब्रह्मा, और विष्णु तथा शिव के अतिरिक्त गोलोक में ही गोप और गोपियाँ तथा देवों धर्म वायु आदि  की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ?  यह वराह कल्प का सर्जन है।

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उसी क्रम में आप लोग जान पाएंगे की श्रीकृष्ण के कितने भेद और विभेद हैं। जिसमे आप लोग तुलनात्मक ढ़ग से यह भेद कर पाएंगे कि श्री कृष्ण से भगवान विष्णु की उत्पत्ति हुई कि विष्णु से भगवान श्रीकृष्ण की

फिर सृष्टि उत्पत्ति के द्वितीय क्रम में जान पाएंगे कि प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि रचना होती हैं -जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य तथा शूद्र चार वर्णो की उत्पत्ति कर ब्रह्मा जी उपने कार्य में सफल होते हैं। 
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फिर आप लोग विडियो के अन्तिम व तीसरे भाग में यह भी जान पाएंगे कि ब्रह्मा जी की सृष्टि- रचना  चार वर्णों के अतिरिक्त भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक पाँचवा वर्ण अर्थात वैष्णव वर्ण भी विद्यमान है। जो ब्रह्मा जी के चार वर्णो से अलग है और जिसकी उत्पत्ति  सर्वोच्च सत्ता- श्रीकृष्ण अर्थात जिसे (स्वराट- विष्णु ) भी कह सकते हैं  से हुई है।

जिनके  सदस्यगण  व लीला सहचर एक मात्र गोप ( अहीर ) ही हैं। जिन अहीरों को ही वास्तविक वैष्णव कहा जाता है । ये स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव हैं। स्वराट् विष्णु कृष्ण ही अपर नाम है।

आगामी विडियों में हम स्पष्ट करेंगे कि अत्रि चन्द्रमा ( सोम) और बुध का अहीर जाति से क्या सम्बन्ध है।
अत्रि की उत्पत्ति कभी ब्रह्मा के मन से तो कभी शिव से अग्नि रूप में होती है। अत्रि की उपस्थिति  आभीर कन्या  गायत्री और जगत पिता ब्रह्मा के विवाह के प्रसंग में भी होती है जिसमें गायत्री स्वयं सावित्री द्वारा गायक  और ब्रह्मा के विवाह में सहायक सभी सप्तर्षि गण सभी देवों और देवीयों के अतिरिक्त स्वयं ब्रह्मा और विष्णु तथा शिव को भी शापित कर देती हैं।  तब सावित्री द्वारा दिए गये शाप के निवारण स्वरूप आभीर कन्या गायत्री ही सभी के शाप को वरदान में बदल देती हैं। और अत्रि और विष्णु को अपनी अहीर जाति के उत्थान मार्गदर्शन और संरक्षण करने का वचन देती हैं। 
तभी से अत्रि आभीर जाति के गोत्र प्रवर्तक माने जाते हैं। और विष्णु  सतयुग में नहुष और द्वापर में अपने मूल कारण सम्पूर्ण अंशों से  कृष्ण रूप में गोपों ( अहीरों ) के मध्य में अवतरित होते हैं ।
गर्ग सहिता में सभी यादवों अथवा अहीरों को कृष्ण नें अपना सनातन अंश कहा है। इस लिए भी अहीरों (यादवों)को विष्णु से उत्पन्न -माना है।
क्योंकि शास्त्रों की विरोधाभासी बातों में एक बात तो मिथकीय आधार पर स्वीकार करनी पड़ेगी ।
तर्क या दर्शन को आधार पर स्वीकार करना भी शास्त्रीय पद्धति है।

कालान्तर में गोपों यादवों अथवा अहीरों के सर्वोपरिता को विखण्डन करने के लिए पुरोहितों में उन्हें ब्राह्मण वाद के दायरे में समेटने का प्रयास किया - और ब्रह्मा के मन से अत्रि उत्पन्न किए और अत्रि के नेत्रों से चन्द्रमा उत्पन्न कर दिया परन्तु चन्द्रमा कभी समुद्र से उत्पन्न हो जाता है।
और चन्द्रमा से बुध को उत्पन्न कर दिया जबकि देखा जाए तो अत्रि सप्तर्षि मण्डल ( उर्सामेजर-

उर्सा मेजर (बड़ा भालू)

स्थान: उत्तरी गोलार्ध
निर्देशांक:
दायां आरोहण: 11 घंटे
झुकाव: +50º
स्रोत: ग्रीक, रोमन और मूल अमेरिकी पौराणिक कथाएँ
उरसा प्रमुख नक्षत्र

नाम के पीछे की कहानी: नक्षत्र नाम, उर्सा मेजर, का अर्थ है बड़ा भालू। "भालू" संघ की उत्पत्ति दो प्रमुख सभ्यताओं में हुई है, जिन्होंने आकाश में दो बिल्कुल अलग भालू देखे थे।

जिन यूनानियों ने इस तारामंडल को यह नाम दिया था (बाद में उस लैटिन नाम का अनुवाद किया गया जिसे हम आज इस्तेमाल करते हैं) उनका मानना ​​था कि तारे अपने पंजों वाले पैरों पर चलते हुए भालू के आकार को रेखांकित करते हैं। इसे और इसके छोटे साथी, उर्सा माइनर को बूटेस और उसके शिकारी कुत्तों का शिकार कहा गया था। भालू की लंबी बिल्ली जैसी पूंछ प्राचीन पैटर्न का हिस्सा थी और कुछ हद तक एक रहस्य है। ओविड की एक कहानी ने स्पष्टीकरण देने की कोशिश की। उस मिथक में, ज़ीउस को कैलिस्टो से प्यार हो गया। हेरा ने ईर्ष्या के कारण उसे भालू में बदल दिया। उसका बेटा आर्कस (आर्कटुरस का नाम, नक्षत्र बूटेस का वैकल्पिक नाम) जंगल में उसके पास आया और वह उसका स्वागत करने के लिए दौड़ी। यह न जानते हुए कि भालू उसकी माँ थी, वह उसे मारने ही वाला था। उसे बचाने के लिए, ज़ीउस ने आर्कस को एक छोटे भालू में बदल दिया, उन दोनों को उनकी पूंछ से पकड़ लिया और उन्हें आकाश में फेंक दिया, जिससे उनकी पूंछ फैल गई।

कई मूल अमेरिकी जनजातियाँ भी इस तारामंडल को भालू के रूप में संदर्भित करती हैं, लेकिन एक चतुर जोड़ के साथ। इन सितारों के उनके विवरण में, भालू वही है, लेकिन "पूंछ" के बिना। इसके बजाय, वे तीन सितारे तीन आशावादी शिकारी हैं, और बीच वाला भालू को खाना पकाने के लिए खाना पकाने का बर्तन ले जा रहा है।

सप्तर्षिमंडल
यूरेनोग्राफिया
से जोहान्स हेवेलियस का उर्सा मेजर (1690)

इस तारामंडल में देखा जाने वाला सबसे आम पैटर्न सबसे चमकीले सितारों के एक छोटे समूह से बना है (जिसे एस्टरिज्म कहा जाता है) जो बिग डिपर की रूपरेखा बनाता है। यह नाम कई अलग-अलग संस्कृतियों से आया है, जिसमें इन सितारों में एक लंबे हैंडल वाला चम्मच देखा गया है, जिसका इस्तेमाल अक्सर पीने के लिए पानी डुबाने के लिए किया जाता है। अन्य लोग इस पैटर्न को हल कहते हैं, डिपर के बजाय, एक पुरानी शैली, बैल द्वारा खींचा जाने वाला खेत का हल। बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हल का पैटर्न, ट्राइओन्स के मिथक में संदर्भित आकृति है, बैलों और हल को चरवाहे बूट्स द्वारा चलाया जाता है। मिस्रवासियों और चीनियों ने अलग-अलग संघ देखे। अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक समय में भी, प्रारंभिक यूरोपीय सभ्यताओं ने इस पैटर्न के लिए नए अर्थों का आविष्कार करना जारी रखा।

सप्तर्षि तारामंडल ( Major Constellation)

सप्तर्षि तारामंडल - प्रमुख गलाक्सियाँ और नेब्युला
सप्तर्षि तारामंडल (Ursa Major) पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध (Northern Hemisphere) के आकाश में नज़र आने वाला एक तारामंडल है। जैसा पहले उल्लेख है कि आधुनिक खगोल-शास्त्र में तारा-समूह के आस-पास के सम्पूर्ण क्षेत्र को भी तारामंडल ही कहा जाता है. परन्तु यहाँ किसी भी संदेह की स्थिति से बचने के लिए यहाँ ये बताना आवश्यक है कि इस लेख में हम सात तारों के समूह के बारे में चर्चा कर रहे हैं जो नक्षत्र या तारा-पुंज (Asterism) बनाते हैं, ना कि उसके आसपास के क्षेत्र की जिसके लिए हम तारामंडल (Constellation) का प्रयोग करेंगे. भारत में इसे फाल्गुन-चैत्र माह से श्रावण-भाद्र माह तक बेहतर रूप में आसमान में

सात तारों के एक समूह के रूप में देखा जा सकता है। इसमें चार तारें एक चतुर्भुजीय आकृति का निर्माण करते हैं और शेष तीन तिरछी लक़ीर में रहते हैं। प्राचीन भारत में इन सात तारों को सात-ऋषि माना गया था जिनके नाम क्रमशः क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस, वाशिष्ठ तथा मारीचि माने गए थे, इसलिए इसका नाम सप्तर्षि पड़ा. इसे एक पतंग का आकार भी माना जा सकता है जो कि आकाश में डोर के साथ उड़ रही हो। किसी-किसी लोक क्षेत्र में इसे ‘खटिया-चोर’ के भी नाम से जाना जाता है, क्योंकि चार चौकोर आकृति बनाने वाले तारे एक खटिया (पलंग) की तरह लगते हैं जिन्हें तीन चोर ले के भाग रहे हों. इस तारामंडल के आगे के दो तारों को जोड़ने वाली पंक्ति को यदि सीधे उत्तर दिशा में बढ़ायें तो यह ध्रुव तारे पर पहुंचती है। यह प्राचीन काल से ही विश्व कि विभिन्न सभ्याताओं में पहचाने जाने वाला प्रमुख तारामंडल था जिसकी अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूप में कल्पना की गयी थी. संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में इसे बिग डिपर या बड़े चम्मच (Big Dipper) और कभी-कभी बड़े भालू (Big Bear), यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) में इसे प्लौघ या हल (Plough) के नाम से जाना जाता है. इसका वैज्ञानिक नाम उर्सा मेजर (Ursa Major) है।

चन्द्रमा एक पृथ्वी का उपग्रह है और उसकी उत्पत्ति पृथ्वी से तो सम्भव है परन्तु सप्तर्षि मण्डल के तारे अत्रि से नहीं- और चन्द्रमा से बुध ग्रह की उत्पत्ति भी असम्भव है।  की उत्पत्ति 
Old English Wōdnesdæg ‘day of Odin’, named after the Germanic god Odin or Woden, the supreme god; translation of late Latin Mercurii dies, Odin being equated with the Roman god Mercury. Compare with Dutch woensdag

पुरानी अंग्रेज़ी Wōdnesdæg 'ओडिन का दिन', जिसका नाम जर्मनिक देवता ओडिन या वोडेन, सर्वोच्च देवता के नाम पर रखा गया था; दिवंगत लैटिन मर्क्यूरी डाइस का अनुवाद, ओडिन की तुलना रोमन देवता मर्करी से की गई। डच वोन्सडैग से तुलना करें 

Etymological origin-
The Old Norse theonym Óðinn (runic ᚢᚦᛁᚾ on the Ribe skull fragment) is a cognate of other medieval Germanic names, 

including Old English Wōden,
 Old Saxon Wōdan, 
Old Dutch Wuodan, and 
Old High German Wuotan 
(Old Bavarian Wûtan). 

They all derive from the reconstructed Proto-Germanic masculine theonym *Wōðanaz (or *Wōdunaz). 

Translated as 'lord of frenzy', or as 'leader of the possessed', *Wōðanaz stems from the Proto-Germanic adjective *wōðaz ('possessed, inspired, delirious, raging') attached to the suffix *-naz ('master of').


Woðinz (read from right to left), a probably authentic attestation of a pre-Viking Age form of Odin, on the Strängnäs stone.

Internal and comparative evidence all point to the ideas of a divine possession or inspiration, and an ecstatic divination. In his Gesta Hammaburgensis ecclesiae pontificum (1075–1080 AD), Adam of Bremen explicitly associates Wotan with the Latin term furor, which can be translated as 'rage', 'fury', 'madness', or 'frenzy' (Wotan id est furor : "Odin, that is, furor"). As of 2011, an attestation of Proto-Norse Woðinz, on the Strängnäs stone, has been accepted as probably authentic, but the name may be used as a related adjective instead meaning "with a gift for (divine) possession" (ON: øðinn).

Other Germanic cognates derived from *wōðaz include Gothic woþs ('possessed'), Old Norse óðr ('mad, frantic, furious'), Old English wōd ('insane, frenzied') and Dutch woed ('frantic, wild, crazy'), along with the substantivized forms Old Norse óðr ('mind, wit, sense; song, poetry'), Old English wōþ ('sound, noise; voice, song'), Old High German wuot ('thrill, violent agitation') and Middle Dutch woet ('rage, frenzy'), from the same root as the original adjective. The Proto-Germanic terms *wōðīn ('madness, fury') and *wōðjanan ('to rage') can also be reconstructed. Early epigraphic attestations of the adjective include un-wōdz ('calm one', i.e. 'not-furious'; 200 CE) and wōdu-rīde ('furious rider'; 400 CE).

Philologist Jan de Vries has argued that the Old Norse deities Óðinn and Óðr were probably originally connected (as in the doublet Ullr–Ullinn), with Óðr (*wōðaz) being the elder form and the ultimate source of the name Óðinn (*wōða-naz). He further suggested that the god of rage Óðr–Óðinn stood in opposition to the god of glorious majesty Ullr–Ullinn in a similar manner to the Vedic contrast between Varuna and Mitra.

The adjective *wōðaz ultimately stems from a Pre-Germanic form *uoh₂-tós, which is related to the Proto-Celtic terms *wātis, meaning 'seer, sooth-sayer' (cf. Gaulish wāteis, Old Irish fáith 'prophet') and *wātus, meaning 'prophesy, poetic inspiration' (cf. Old Irish fáth 'prophetic wisdom, maxims', Old Welsh guaut 'prophetic verse, panegyric'). According to some scholars, the Latin term vātēs ('prophet, seer') is probably a Celtic loanword from the Gaulish language, making *uoh₂-tós ~ *ueh₂-tus ('god-inspired') a shared religious term common to Germanic and Celtic rather than an inherited word of earlier Proto-Indo-European (PIE) origin. In the case a borrowing scenario is excluded, a PIE etymon *(H)ueh₂-tis ('prophet, seer') can also be posited as the common ancestor of the attested Germanic, Celtic and Latin forms.

व्युत्पत्ति संबंधी उत्पत्ति-
पुराना नॉर्स उपनाम Óðinn (रिबे खोपड़ी के टुकड़े पर रूनिक ᚢᚦᛁᚾ) अन्य मध्ययुगीन जर्मनिक नामों का एक सजातीय है,

पुरानी अंग्रेज़ी वोडेन सहित,
 ओल्ड सैक्सन वोडन,
पुराने डच वुओडन, और
पुराना उच्च जर्मन वुओटन
(ओल्ड बवेरियन वुटन)।

वे सभी पुनर्निर्मित प्रोटो-जर्मेनिक मर्दाना उपनाम *वोडानाज़ (या *वुडुनाज़) से प्राप्त हुए हैं।'उन्माद के स्वामी', या 'आवेशित लोगों के नेता' के रूप में अनुवादित, * वुडानाज़ प्रोटो-जर्मनिक विशेषण * वुज़ाज़ ('आवेशित, प्रेरित, प्रलापित, उग्र') से उत्पन्न होता है जो प्रत्यय *-नाज़ ('का स्वामी) से जुड़ा होता है। ').


वोडिन्ज़ (दाएं से बाएं पढ़ें), स्ट्रांगनास पत्थर पर ओडिन के पूर्व-वाइकिंग युग के रूप का संभवतः प्रामाणिक प्रमाणन।

आंतरिक और तुलनात्मक साक्ष्य सभी दैवीय स्वामित्व या प्रेरणा, और एक परमानंद भविष्यवाणी के विचारों की ओर इशारा करते हैं। अपने गेस्टा हैमाबर्गेंसिस एक्लेसिया पोंटिफिकम (1075-1080 ईस्वी) में, ब्रेमेन के एडम ने स्पष्ट रूप से वोटन को लैटिन शब्द फ़्यूरोर के साथ जोड़ा है, जिसका अनुवाद 'क्रोध', 'रोष', 'पागलपन' या 'उन्माद' (वोतन आईडी इस्ट) के रूप में किया जा सकता है। रोष : "ओडिन, अर्थात् रोष")। 2011 तक, स्ट्रांगनास पत्थर पर प्रोटो-नॉर्स वोडिन्ज़ के सत्यापन को संभवतः प्रामाणिक के रूप में स्वीकार कर लिया गया है, लेकिन नाम का उपयोग संबंधित विशेषण के रूप में किया जा सकता है जिसका अर्थ है "(दिव्य) कब्जे के लिए एक उपहार के साथ" (ON: øðinn) ).

*wōðaz से प्राप्त अन्य जर्मनिक सजातीयों में गॉथिक woþs ('कब्जे वाला'), पुराना नॉर्स óðr ('पागल, उन्मत्त, उग्र'), पुरानी अंग्रेज़ी wōd ('पागल, उन्मादी') और डच woed ('उन्मत्त, जंगली, पागल') शामिल हैं। ), मूल रूपों के साथ पुराने नॉर्स óðr ('मन, बुद्धि, भावना; गीत, कविता'), पुरानी अंग्रेज़ी wōþ('ध्वनि, शोर; आवाज, गीत'), पुराना उच्च जर्मन उद्धरण ('रोमांचक, हिंसक आंदोलन') और मध्य डच शब्द ('क्रोध, उन्माद'), मूल विशेषण के समान मूल से। प्रोटो-जर्मनिक शब्द *wōðīn ('पागलपन, रोष') और *wōðjanan ('क्रोध करना') का भी पुनर्निर्माण किया जा सकता है। विशेषण के प्रारंभिक पुरालेखीय सत्यापन में अन-वोड्ज़ ('शांत व्यक्ति', यानी 'उग्र नहीं'; 200 सीई) और वुडू-राइड ('उग्र सवार'; 400 सीई) शामिल हैं।

भाषाशास्त्री जान डे व्रीज़ ने तर्क दिया है कि पुराने नॉर्स देवता Óðinn और Óðr संभवतः मूल रूप से जुड़े हुए थे (जैसा कि दोहरे Ullr-Ullinn में), Óðr (*wōðaz) बड़ा रूप है और Óðinn (*wōða-) नाम का अंतिम स्रोत है। नाज़)। उन्होंने आगे सुझाव दिया कि क्रोध के देवता Óðr-Óðinn गौरवशाली महिमा के देवता Ulllr-Ullinn के विरोध में खड़े थे, उसी तरह जैसे वरुण और मित्रा के बीच वैदिक विरोधाभास था।

विशेषण *wōðaz अंततः प्री-जर्मनिक रूप *uoh₂-tós से उत्पन्न होता है, जो प्रोटो-सेल्टिक शब्दों *वाटिस से संबंधित है, जिसका अर्थ है 'द्रष्टा, भविष्यवक्ता' (cf. गॉलिश वेटिस, पुरानी आयरिश आस्था 'पैगंबर') और *वाटस, जिसका अर्थ है 'भविष्यवाणी, काव्यात्मक प्रेरणा' (सीएफ.)पुराना आयरिश फतह 'भविष्यवाणी ज्ञान, कहावतें', पुराना वेल्श गाउट 'भविष्यवाणी छंद, पैनेजिरिक')।कुछ विद्वानों के अनुसार, लैटिन शब्द वेटेस ('पैगंबर, द्रष्टा') संभवतः गॉलिश भाषा का एक सेल्टिक ऋणशब्द है, जो *uoh₂-tós ~ *ueh₂-tus ('ईश्वर-प्रेरित') को जर्मनिक के लिए एक सामान्य धार्मिक शब्द बनाता है। और पहले प्रोटो-इंडो-यूरोपीय (पीआईई) मूल के विरासत में मिले शब्द के बजाय सेल्टिक। यदि उधार परिदृश्य को बाहर रखा जाता है, तो एक PIE व्युत्पत्ति *(H)ueh₂-tis ('पैगंबर, द्रष्टा') को प्रमाणित जर्मनिक, सेल्टिक और लैटिन रूपों के सामान्य पूर्वज के रूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है।


📚: सूर्य और चन्द्रमा हैं। ये दनु के वंश में विख्यात दानव बताये गये हैं।
सूर्यवंश और चन्द्र वंश देव ही नही अपितु दानव वंश भी है।
( महाभारत-65) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)


 ( कश्यप को विवाही दक्ष की तेरह कन्याऐं-)
मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः।
प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश।11।
अदितिर्दितिर्दनुः काला दनायुः सिंहिका तथा।
क्रोधा प्राधा च विश्वा च विनता कपिला मुनिः।
12।
अनुवाद:- मरीचि के पुत्र कश्यप और कश्यप से ये प्रजा दक्ष की तरह कन्याओं में उत्पन्न हुई।


अदित्यां द्वादशादित्याः संभूता भुवनेश्वराः।
ये राजन्नामतस्तांस्ते कीर्तयिष्यामि भारत।14।
अनुवाद:- बारह आदित्य -

धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो( इन्द्रो) वरुणस्त्वंश एव च।
भगो विवस्वान्पूषा च सविता दशमस्तथा।15।

एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरुच्यते।
जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः।16।

रुद्रस्यानुचरः श्रीमान्महाकालेति यं विदुः।
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चत्वारिंशद्दनोः पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत।21।
चालीस दनु के पुत्र सर्वत्र ख्यात हैं-

तेषां प्रथमजो राजा विप्रचित्तिर्महायशाः
शम्बरो नमुचिश्चैव पुलोमा चेति विश्रुतः।22।

असिलोमा च केशी च दुर्जयश्चैव दानवः।
अयःशिरा अश्वशिरा अश्वशह्कुश्च वीर्यवान्।23।
कृष्ण का शत्रु केशि दानव था ( दैत्य नहीं था)
दैत्य और दानव में भेद है।
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और दानवों के नाम निम्न श्लोक में हैं।

"तथा गगनमूर्धा च वेगवान्केतुमांश्च सः।
स्वर्भानुरश्वोऽश्वपतिर्वृषपर्वाऽजकस्तथा।24।

अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः।
इषुपादेकचक्रश्च विरूपाक्षहराहरौ।25।

निचन्द्रश्च निकुम्भश्च कुपटः कपटस्तथा।
शरभः शलभश्चैव सूर्याचन्द्रमसौ तथा।
एते ख्याता दनोर्वंशे दानवाः परिकीर्तिताः।26।
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अन्यौ तु खलु देवानां सूर्याचन्द्रमसौ स्मृतौ।
अन्यौ दानवमुख्यानां सूर्याचन्द्रमसौ तथा।27।
देवों में सूर्य चन्द्रमा और दानवों में सूर्य चन्द्रमा भिन्न भिन्न हैं।
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इमे च वंशाः प्रथिताः सत्ववन्तो महाबलाः।
दनुपुत्रा महाराज दश दानववंशजाः।28।

एकाक्षो मृतपो वीरः प्रलम्बनरकावपि।
वातापिः शत्रुतपनः शठश्चैव महासुरः।29।

गविष्ठश्च वनायुश्च दीर्घजिह्वश्च दानवः।
असङ्ख्येयाः स्मृतास्तेषां पुत्राः पौत्राश्च भारत।30।

सिंहिका सुषुवे पुत्रं राहुं चन्द्रार्कमर्दनम्।
सुचन्द्रं चन्द्रहर्तारं तथा चन्द्रप्रमर्दनम्।31।

क्रूरस्वभावं क्रूरायाः पुत्रपौत्रमनन्तकम्।
गणः क्रोधवशो नाम क्रूरकर्माऽरिमर्दनः।32।

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दनायुषः पुनः पुत्राश्चत्वारोऽसुरपुंगवाः।
विक्षरो बल वीरौ च वृत्रश्चैव महासुरः।33।
(दनायुष: के चार पुत्र हुए-)





और विडियो के अन्त में हम  एक समीक्षा प्रस्तुत करेंगे  कि भगवान श्रीकृष्ण की कथा का राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार प्रसार के लिए हमने कौन सी संस्था का निर्माण किया है ? और इस दुर्लभ प्रसंग को विस्तार पूर्वक जानकारी के लिए एक पुस्तक प्रकाशित करने के लिए किन दो  विद्वानों को प्रेरित  किया है ? 

मित्रों विडियो थोड़ा लम्बा अवश्य किन्तु अद्भुत जानकारी से परिपूर्ण है। 

जिसे आज तक साधारण लोग नहीं जानते हैं  इसलिए इस विडियो को एकाग्र चित्त होकर अन्त तक अवश्य देखें-

तो चलिए इसे भगवान श्री कृष्ण का नाम कि उच्चारण करके  प्रारम्भ करते हैं।

"सच्चिदानन्द रूपाय विश्व उत्पत्ति आदि  हेतवे  तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः
(श्रीपद्मपुराण उत्तरखण्ड श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्य
भक्तिनारदसमागमो नामक प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥)
अनुवाद:-
हे सत् चित्त आनंद! हे संसार की उत्पत्ति के कारण! हे दैहिक, दैविक और भौतिक तीनो तापों का विनाश करने वाले महाप्रभु! हे श्रीकृष्ण! आपको कोटि कोटि नमन.

स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु ( श्रीकृष्ण)  जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में ही विराजमान हैं वही आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित हो इस पृथ्वी पर आते हैं; 

क्योंकि आभीर(गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप ( शरीर) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है। 

इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो  को हम प्रस्तुत करते हैं।

कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।

अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर  स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -

 "भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण  गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।                       इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)

गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत:  इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_ 

ऋग्वेद में विष्णु के लिए  'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।  वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित  विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं। 

जो पुराण वर्णित गोलोक का  ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा  "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे  ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।

विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप  परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ  रहती हैं , वहाँ पड़ता है।

"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।

ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)

शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥

इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है


इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -

"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।

उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के)
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के  (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो  विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान (लोक ) को सदैव देखते हैं।

ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।)

सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित  अथवा विचरण करती हैं उस  स्थानों को - तुम्हारे  जाने के लिए जिसे-  वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का  उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है  उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥


उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि  में वर्णित गोलोक है ।

'विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है। 

सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत:  गोलोक की ही सृष्टि हैं 



विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों मैं ही रहता है।

"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।

 विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।

विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड '  ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में  गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।

ऋग्वेद 1.22.18) में  भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।



विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।


आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।

और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।

"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।

वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का  पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।

 "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजामि- अहम्।। 
श्रीमद्भगवद्गीता ( 4/7) 

हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।

अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।


कृष्ण और विष्णु का भेद- 

 (दर- असल विष्णु शब्द तीन सात्विक सत्ताओं का वाचक है। एक वह जो स्वराट्-  अथवा स्वयंप्रकाश अथवा सबका मूलकारण द्विभुजधारी गोलोक वासी कृष्ण रूप है। 

 द्वितीय वह रूप है जो  कृष्ण और और उनकी आदि -प्राकृतिक शक्ति राधा दौंनों के संयोग से उत्पन्न विराट रूप है जो अनन्त है।  स्वयं कृष्ण भी इसके विस्तार को नहीं जानते ! 

और  तृतीय रूप जो इस विराट महाविष्णु के प्रत्येक रोमकूप में उत्पन्न ब्रह्माण्ड के देव त्रयी( ब्रह्मा विष्णु महेश) में क्षुद्र विराट्( छोटे विष्णु) नाम से हैं। वह अन्तिम है।इन्हीं की नाभि कमल से ब्रह्मा और फिर उनसे चातुर्वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र उत्पन्न होते है।यद्यपि गोलोक में भी ब्रह्मा की उत्पत्ति कृष्ण की नाभि से होती है। परन्तु सृष्टि उत्पादक के रूप में तो रोमकूपीय ब्रह्माण्ड में क्षुद्र विराट् विष्णु के नाभि कमल से होती है। और शिव भी  शिव लोक से आकर  इन्हीं की प्रेरणासे अंश रूप इन्हीं ब्रह्मा के ललाट से उत्पन्न होकर रुदन करने से रूद्र कहलाते हैं। 

विष्णु के तीनों रूप सत्व गुण की ही क्रमश: तीन अवस्था १- विशिष्ट सत्व २-शुद्ध सत्व और ३-सत्व ये तीन अवस्थाऐं हैं।

"पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक विशेष विचारणीय हैं।

१- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों का धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है !

इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर अहीरो को दिव्य लोको (गोलोकों) में निवास करने का अधिकारी बनाकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दी गयी है।

"आभीर लोग पूर्वकाल में भी धर्मतत्व वेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल कहकर सम्बोधित किए गये हैं।

तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन श्लोकों में निर्दशित है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।      मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।

"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।          युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा- मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों (गोलोकों) को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।

"गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह वर्णन है।

"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्‍ण की पूजा करके, उन्‍हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।

उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्‍ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्‍य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।

तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोको में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।

क्योंकि सभी यादव मेरे ही अंश है।

"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः ॥ जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥

"शब्दार्थ:-१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न) २-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले। ४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले। ५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में +सन् भावे अ प्रत्यय ।= जयेच्छायां । ६- जित्वा= जीतकर।७-अरीन्= शत्रुओ को। ८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे। ९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।१०-बलिं = भेंट /उपहार।११- दिशाम् = दिशाओं में।

"अनुवाद:-समस्‍त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं।वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।


सन्दर्भ:- गर्गसंहिता‎ खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)

"गोप अथवा यादव एक ही हैं। क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।"

जब ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन हो सकते हैं।

और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के शरीर से उत्पन्न हैं। अत: पुराणों में स्वयं ब्राह्मणों के आदि पितामह ब्रह्मा गोपों की स्तुति करते हैं । और उनकी चरणधूलि लेकर अपने को धन्य मानते हैं। गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं गोप स्वराट विष्णु (कृष्ण) की सृष्टि हैं।  इसी लिए ब्रह्मा भी गोपों की स्तुति करते हैं।


"शास्त्र में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।

सम्पूर्ण गोप अथवा यादव विष्णु अथवा कृष्ण के अंश अथवा उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हुए है। यह बात ब्रह्म-वैवर्त पुराण ,गर्गसंहिता ,पद्मपुराण और अन्य परवर्ती ग्रन्थ लक्ष्मी नारायणी संहिता और ब्रह्म संहिता आदि में वर्णित है।

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विष्णोरिदम् ।  विष्णु + अण् । )  विष्णुसम्बन्धी  वैष्णव!

विष्णु के उपासक, भक्त और विष्णु से सम्बंधित वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु के इन छै: गुणों से युक्त होने के कारण भगवत् - संज्ञा है। जो निम्नलिखित हैं।

 १-अनन्त ऐश्वर्य, २-वीर्य, ३-यश, ४-श्री, ५-ज्ञान और ६-वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण परमात्मा को भगवान् या भगवत् कहा जाता है।

"इस कारण वैष्णवों को भागवत नाम से भी जाना जाता है - भगवत्+अण्=भागवत।

जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत् है। श्रीमद् -वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत में 'भगवान्' कहा गया है।

उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है वल्लभाचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ में वर्णन है।

"श्रीमद्वल्लभाचार्य लिखित -सिद्धान्त मुक्तावलि "वैष्णव धर्म मूलत: भक्तिमार्ग है।"भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य भक्ति को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।


"मान ले कि ब्रह्माण्ड के जो गोप हैं उनके साथ लीला सहचर बनने के लिए विष्णु उपस्थित होते हैं तो ये असम्भव है ।





देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के द्वादश सूक्त की यह नब्बे वी ऋचा में जिसमें ब्राह्मी सृष्टि का वर्णन है - ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होते हैं।

"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12
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श्लोक का अनुवाद:- इस (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)

"वक्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे। "सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः।-5।

अनुवाद:-
धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्मा जी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर- इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था।
 तात! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये ।5-6।

श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्म पर्व में पराशरगीता विषयक दो सौ छानबेवाँ अध्‍याय
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ब्रह्मा की सृष्टि हैं। यही चातुर्वर्ण व्यवस्था के अवयव हैं। परन्तु गोप  स्वराट् विष्णु से गोलोक में उत्पन्न हुए है। वह ब्राह्मी सृष्टि नहीं माने जाऐंगे- वे स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) से उत्पन्न होने से वैष्णव हैं। 

"इसी सिद्धान्त से पञ्चम वर्ण की उत्पत्ति हुई जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। अथवा पुरोहितों अथवा कथावाचको  द्वारा जानबूझकर छिपाया गया !

शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु या कृष्ण या मूल तत्व परम्ब्रह्म के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव (विष्णु या कृष्ण या मूल तत्व परम्ब्रह्म के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।

"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:" आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
👇(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)

अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे।

वास्तव में विष्णु का ही गोलोक धाम का वृहद् रूप कृष्ण है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।

"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।"

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः।२२।

परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥२३॥

यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयंते स्वतेजसि ॥तं वदंति परे साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥२४॥

अनुवाद:-नन्‍दराज साक्षात द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। गोलोक में जो गोपालगण हैं, वे साक्षात श्रीकृष्‍ण के रोम से प्रकट हुए हैं और गोपियॉं श्रीराधा के रोम से उद्भुत हुई हैं।

वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आयी हैं। कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं, जो पूर्वकृत पुण्‍यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्‍ण को प्राप्‍त हुई हैं।२१-२२।

भगवान श्रीकृष्‍ण साक्षात परिपूर्णतम परमात्‍मा हैं, असंख्‍य ब्रह्माण्‍डों के अधिपति, गोलोक के स्‍वामी तथा परात्‍पर ब्रह्म हैं। जिनके अपने तेज में सम्‍पूर्ण तेज विलीन होते हैं, उन्‍हें ब्रह्मा आदि उत्‍कृष्‍ट देवता साक्षात ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं, 

____सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः।११।
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"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३। ।

ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)।(१.२.४३
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में  वैष्णव नाम से है  और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
 
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण में हैं।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप  है।
अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है।

शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव,गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ही ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था में शामिल नहीं माने जाते हैं। विष्णु से उत्पन्न होने से इनका पृथक वर्ण वैष्णव है।

  1. तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ३।
  2. जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
  3. क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
  4. हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।
  5. तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः ।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः७।
  6. धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ८।
  7. उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।९।
  8. ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः १०।
  9. तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अंडजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ११।

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"अनुवाद:-महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो ! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।

वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।

चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न  होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।


विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते .३..........सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ: उच्यते ।४।

अनुवाद:- विष्णु से यह उत्पन्न होने ही वैष्णव कहे जाते हैं....... सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता है।३-४।

"ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र चार वर्ण और उनके अनुसार( जातीयाँ) इस विश्व में हैं उसी प्रकार वैष्णव वर्ण के अनुसार एक स्वतन्त्र जाति है।*

"विशेष:- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियाँ नहीं हैं ये वर्ण हैं जातियाँ वर्णों के अन्तर्गत ही होती है।

"पद्म पुराण उत्तरखण्ड में अध्याय 68 में  वैष्णव वर्ण को रूप में वर्णित है

"जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।

पद्म पुराण कार ने वैष्णव वर्ण के रूप में सम्पादित किया है। 


ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है।"जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यन्त धन्य हैं।९। 

जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है  हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।

"उपर्युक्त श्लोकों में गोपों के वैष्णव वर्ण तथा भागवत धर्म का संकेत है जिसे अन्य जाति के पुरुष गोपों के प्रति श्रृद्धा और कृष्ण भक्ति से प्राप्त कर लेते हैं।। 

"सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)

"विशेष:-विष्णोरस्य रोमकूपैर्भवति  अण्सन्तति वाची- विष्णु+ अण् = वैष्णव= विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु से सम्बन्धित- जन वैष्णव हैं।

अर्थ- विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं। 

वैष्णव वर्ण की स्वतन्त्र जाति आभीर है। पद्म पुराण उत्तराखण्ड के अतिरिक्त इसका संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी है । प्रसंगानुसार वर्णित किया गया है।

श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्साहस्र्यां संहितायामुत्तरखंडे उमापतिनारदसंवादे वैष्णवमाहात्म्यंनाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ।६८।

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अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही होने से रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।

किसी भी पुराण अथवा शास्त्र में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं हुई है ।

गोप वैष्णव वर्ण में आभीर जाति के रूप में हैं देखे नीचे ब्रह्मवैवर्त पुराण का सन्दर्भ-

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मूल विष्णु स्वयं भगवान् कृष्ण का गोलोक वासी सनातन रूप है। और स्थूल विष्णु ही उनका विराट् रूप है।
कृष्ण सदैव गोपों में ही अवतरित होते हैं। और
गो" गोलोक और गोप सदैव समन्वित (एकत्रित) रहते हैं।

गोपों की उत्पत्ति गोपियों सहित कृष्ण और राधा से गोलोक धाम में ही होती है। कृष्ण की लीलाओं के सहायक बनने के लिए ही गोप गोलोक से सीधे पृथ्वी लोक में आते हैं।

और जब तक पृथ्वी पर गोप जाति विद्यमान रहती है तब तक कृष्ण भी अपने लौकिक जीवन का अवसान होने पर भी निराकार रूप से विद्यमान रहते ही हैं। इसमें कोई सन्देह पृथ्वी पर दोनों की उपस्थित कृष्ण के होने को सूचित करती है। 

"गोप अथवा यादव एक ही थे क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।" जिसका समान भावार्थ है।

"जब ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन क्यों नहीं हो सकते हैं ?

और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् विष्णु के शरीर से उत्पन्न हैं।परन्तु दोनों की उत्पत्ति मूलत: ब्रह्माण्ड से परे गोलोक में ही होती है और ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट के एक रोम कप में स्थित  ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा के मुख से -इसलिए गोप अथवा यादव ब्राह्मणों से कई गुना  श्रेष्ठ व पूज्य हैं

परन्तु उन्हें इसके अनुरूप चरित्र स्थापित करने की आवश्यकता है।

परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं जो कि गोप जाति के अनुकूल नहीं है । "किसी शास्त्र में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं दर्शायी है!

तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं  । इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।

(👇 "कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।

👇(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)

अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे।

वास्तव में विष्णु का ही गोलोक धाम का वृहद् रूप कृष्ण है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।


"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।"

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः।२२।

परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥२३॥

यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयंते स्वतेजसि ॥तं वदंति परे साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥२४॥

अनुवाद:-नन्‍दराज साक्षात द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। गोलोक में जो गोपालगण हैं, वे साक्षात श्रीकृष्‍ण के रोम से प्रकट हुए हैं और गोपियॉं श्रीराधा के रोम से उद्भुत हुई हैं।

वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आयी हैं। कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं, जो पूर्वकृत पुण्‍यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्‍ण को प्राप्‍त हुई हैं।२१-२२।

भगवान श्रीकृष्‍ण साक्षात परिपूर्णतम परमात्‍मा हैं, असंख्‍य ब्रह्माण्‍डों के अधिपति, गोलोक के स्‍वामी तथा परात्‍पर ब्रह्म हैं। जिनके अपने तेज में सम्‍पूर्ण तेज विलीन होते हैं, उन्‍हें ब्रह्मा आदि उत्‍कृष्‍ट देवता साक्षात ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं, 

____सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः।११।
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"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३। ।

ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)।(१.२.४३
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में  वैष्णव नाम से है  और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
 
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण में हैं।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप  है।
अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है।

शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव,गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ही ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था में शामिल नहीं माने जाते हैं। विष्णु से उत्पन्न होने से इनका पृथक वर्ण वैष्णव है।

  1. तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ३।
  2. जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
  3. क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
  4. हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।
  5. तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः ।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः७।
  6. धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ८।
  7. उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।९।
  8. ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः १०।
  9. तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अंडजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ११।

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"अनुवाद:-महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो ! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।

वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।

चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न  होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।

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"विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते .३..........सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ: उच्यते ।४।

अनुवाद:- विष्णु से यह उत्पन्न होने ही वैष्णव कहे जाते हैं....... सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता है।३-४।

"ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र चार वर्ण और उनके अनुसार( जातीयाँ) इस विश्व में हैं उसी प्रकार वैष्णव वर्ण के अनुसार एक स्वतन्त्र जाति है।*

"विशेष:- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियाँ नहीं हैं ये वर्ण हैं जातियाँ वर्णों के अन्तर्गत ही होती है।

"पद्म पुराण उत्तरखण्ड में अध्याय 68 में  वैष्णव

वर्ण को रूप में वर्णित है

"जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।

पद्म पुराण कार ने वैष्णव वर्ण के रूप में सम्पादित किया है। 


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