द्वादशपर्व
महाभारतम्-
-शांतिपर्व अध्याय 296-
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति नानाधर्मप्रतिपादकपराशरगीतानुवाद-
जनक उवाच।
वर्णो विशेषवर्णानां महर्षे केन जायते।
एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं तद्ब्रूहि वदतां वर।1।
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः।2।
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।3।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।4।
वक्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः।-5।
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः। 6।
चतुर्णामेव वर्णानामागमः पुरुषर्षभ।
अतोन्ये त्वतिरिक्ता ये ते वै संकरजाः स्मृताः।7।
क्षत्रियातिरथाम्बष्ठा उग्रा वैदेहकास्तथा।
श्वपाकाः पुल्कसाः स्तेना निषादाः सूतमागधाः।8।
अयोगाः कारणा व्रात्याश्चाण्डालाश्च नराधिप।
एते चतुर्भ्यो वर्णेभ्यो जायन्ते वै परस्परात्।। 9।
"जनक उवाच।
ब्रह्मणैकेन जातानां नानात्वं गोत्रतः कथम्।
बहूनीह हि लोके वै गोत्राणि मुनिसत्तम।। 10।
यत्र तत्र कथं जाताः स्वयोनिं मुनयो गताः।
शूद्रयोनौ समुत्पन्ना वियोनौ च तथा परे।11।
'पराशर उवाच।
राजन्नैतद्भवेद्ब्राह्ममपकृष्टेन जन्मना।
महात्मनां समुत्पत्तिस्तपसा भावितात्मनाम्। 12।
उत्पाद्य पुत्रान्मुनयो नृपते यत्र तत्र ह।
स्वेनैव तपसा तेषामृषित्वं विदधुः पुनः।13।
पितामहश्च मे पूर्वमृश्यशृङ्गश्च काश्यपः।
वेदस्ताण्ड्यः कृपश्चैव काक्षीवत्कमठादयः।14।
यवक्रीतश्च नृपते द्रोणश्च वदतांवरः।
आयुर्मतङ्गो दत्तश्च द्रुमदो मात्स्य एव च।15।
एते स्वां प्रकृतिं प्राप्ता वैदेह तपसो बलात्।
प्रतिष्ठिता वेदविदो दमेन तपसैव हि। 16।
मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।17।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।18।
"जनक उवाच।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
ततः सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि।19।
"पराशर उवाच।
प्रतिग्रहो याजनं च तथैवाध्यापनं नृप।
विशेषधर्मा विप्राणां रक्षा क्षत्रस्य शोभना।20।
कृषिश्च पाशुपाल्यं च वाणिज्यं च विशामपि।
द्विजानां परिचर्या च शूद्रकर्म नराधिप। 21।
विशेषधर्मा नृपते वर्णानां परिकीर्तिताः।
धर्मान्साधारणांस्तात विस्तरेण शृणुष्व मे। 22।
आनृशंस्यमर्हिसा चाप्रमादः संविभागिता।
श्राद्धकर्मातिथेयं च सत्यमक्रोध एव च।23।
स्वेषु दारेषु संतोषः शौचं नित्याऽनसूयता।
आत्मज्ञानं तितिक्षा च धर्माः साधारणा नृप। 24।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्रयो वर्णा द्विजातयः।
अत्र तेषामधीकारो धर्मेषु द्विपदां वर।25।
विकर्मावस्थिता वर्णाः पतन्ति नृपते त्रयः।
उन्नमन्ति यथा सन्त आश्रित्येह स्वकर्मसु।26।
न चापि शूद्रः पततीति निश्चयो
न चापि संस्कारमिहार्हतीति वा।
श्रुतिप्रयुक्तं न च धर्ममाप्नुते
न चास्य धर्मे प्रतिषेधनं कृतम्।27।
वैदेहकं शूद्रमुदाहरन्ति
द्विजा महाराज श्रुतोपपन्नाः।
अहं हि पश्यामि नरेन्द्र देवं
विश्वस्य विष्णुं जगतः प्रधानम्।28।
सतां वृत्तमधिष्ठाय निहीना उद्दिधीर्षवः।
मन्त्रवर्जं न दुष्यन्ति कुर्वाणाः पौष्टिकीः क्रियाः।29।
यथायथा हि सद्वॄत्तमालम्बन्तीतरे जनाः।
यथातथा सुखं प्राप्य प्रेत्य चेह च मोदते।30।
"जनक उवाच।
किं कर्म दूषयत्येनमथो जातिर्महामुने।
संदेहो मे समुत्पन्नस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि। 31।
"पराशर उवाच।
असंशयं महाराज उभयं दोषकारकम्।
कर्म चैव हि जातिश्च विशेषं तु निशामय।32।
जात्या च कर्मणा चैव दुष्टं कर्म न सेवते।
जात्या दुष्टश्च यः पापं न करोति स पूरुषः।33।
जात्या प्रधानं पुरुषं कुर्वाणं कर्म धिक्कृतम्
कर्म तद्दूषयत्येनं तस्मात्कर्म न शोभनम्। 34।
"जनक उवाच।
कानि कर्माणि धर्म्याणि लोकेऽस्मिन्द्विजसत्तम्।
न हिंसन्तीह भूतानि क्रियमाणानि सर्वदा।35।
"पराशर उवाच।
शृणु मेऽत्र महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
यानि कर्माण्यहिंस्राणि नरं त्रायन्ति सर्वदा। 36।
संन्यस्याग्नीनुदासीनाः पश्यन्ति विगतज्वराः।
नैःश्रेयसं कर्मपथं समारुह्य यथाक्रमम्। 37।
प्रश्रिता विनयोपेता दमनित्याः सुसंशिताः।
पयान्ति स्थानमजरं सर्वकर्मविवर्जिताः। 38।
सर्वे वर्णा धर्मकार्याणि सम्यक्
कृत्वा राजन्सत्यवाक्यानि चोक्त्वा।
त्यक्त्वा धर्मं दारुणं जीवलोके
यान्ति स्वर्गं नात्र कार्यो विचारः।39।
" इति श्रीमन्महाभारते
शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि
द्व्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः। 302।
गीताप्रेस- 296 वाँ अध्याय-
षण्णवत्यधिकद्विशततम (296) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षण्णवत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद:-
पराशरगीता- वर्णविशेष की उत्पत्ति का रहस्य, तपोबल से उत्कृष्ट वर्ण की प्राप्ति, विभिन्न वर्णों के विशेष और सामान्य धर्म, सत्कर्म की श्रेष्ठता तथा हिंसारहित धर्म का वर्णन:-
जनक ने पूछा- वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ?
यह मैं जानना चाहता हूँ।
आप इस विषय को बतायें। श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है। ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है, तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी?
पराशर जी ने कहा- महाराज! यह ठीक है कि जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं। उत्तम क्षेत्र और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र ही होता है। यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्न कोटि का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।
वक्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः।-5।
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः। 6।
धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्मा जी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर- इन अंगों से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ था।
तात! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये ।5-6।
प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में पराशरगीता विषयक दो सौ छानबेवाँ अध्याय
पुरुषप्रवर! इस प्रकार ब्रह्मा जी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई। इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। नरेश्वर! क्षत्रिय, अतिरथ, अम्बष्ठ, उग्र, वैदेह, श्वपाक, पुल्कस, स्तेन, निषाद, सूत, मागध, अयोग, करण, व्रात्य और चाण्डाल- ये ब्राह्मण आदि चार वर्णों से अनुलोम और विलोम वर्ण की स्त्रियों के साथ परस्पर संयोग होने से उत्पन्न होते हैं।
जनक ने पूछा- मुनिश्रेष्ठ! जब सबको एकमात्र ब्रह्मा जी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं। ऋषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए?
पराशर जी ने कहा- राजन! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरुषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये। नरेश्वर! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबकोअपने ही तपोबल से ऋषि बना दिया।
षण्णवत्यधिकद्विशततम (296) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षण्णवत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
विदेहराज! मेरे पितामह वसिष्ठ जी, काश्यप-गोत्रीय ॠष्यश्रृगं, वेद, ताण्ड्य, कृप, कक्षीवान्, कमठ आदि, यवक्रीत, वक्ताओं में श्रेष्ठ द्रोण, आयु, मतंग, दत्त, द्रुपद तथा मत्स्य - ये सब तपस्या का आश्रय लेने से ही अपनी-अपनी प्रकृति को प्राप्त हुए थे।
इन्द्रियसंयम और तप से ही वे वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे। पृथ्वीनाथ!
पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।
जनक ने पूछा- भगवन्! आप मुझे सब वर्णों के विशेष धर्म बताइये, फिर सामान्य धर्मों का भी वर्णन कीजिये; क्योंकि आप सब विषयों का प्रतिपादन करने में कुशल हैं।
पराशर जी ने कहा- राजन! दान लेना, यज्ञ कराना तथा विद्या पढाना-ये ब्राह्मणों के विशेष धर्म हैं। (जो उनकी जीविका के साधन हैं) प्रजा की रक्षा करना क्षत्रिय के लिये श्रेष्ठ धर्म है।
नरेश्वर! कृषि, पशुपालन और व्यापार- ये वैश्यों के कर्म हैं तथा द्विजातियों की सेवा शूद्र का धर्म है। महाराज! ये वर्णों के विशेष धर्म बताये गये हैं। तात! अब उनके साधारण धर्मों का विस्तारपूर्वक वर्णन मुझसे सुनो।
क्रूरता का अभाव (दया), अंहिसा, अप्रमाद (सावधानी), देवता-पितर आदि को उनके भाग समर्पित करना अथवा दान देना, श्राद्धकर्म, अतिथिसत्कार, सत्य, अक्रोध, अपनी ही पत्नी में संतुष्ट रहना, पवित्रता रखना, कभी किसी के दोष न देखना, आत्मज्ञान तथा सहनशीलता - ये सभी वर्णों के सामान्य धर्म हैं।
नरश्रेष्ठ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य - ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। उपर्युक्त धर्मों में इन्हीं का अधिकार है। नरेश्वर! ये तीन वर्ण विपरीत कर्मों में प्रवृत होने पर पतित हो जाते हैं। सत्पुरुषों का आश्रय ले अपने-अपने कर्मों में लगे रहने से जैसे इनकी उन्नति होती है, वैसे ही विपरीत कर्मों के आचरण से पतन भी हो जाता है।
यह निश्चय है कि शूद्र पतित नहीं होता तथा वह उपनयन आदि संस्कार का भी अधिकारी नहीं है। उसे वैदिक अग्निहोत्र आदि कर्मों के अनुष्ठान का भी अधिकार नहीं प्राप्त है; परंतु उपर्युक्त सामान्य धर्मों का उसके लिये निषेध भी नहीं किया गया है। महाराज विदेहनरेश! वेद-शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न द्विज शूद्र को प्रजापति के तुल्य बताते हैं (क्योंकि वह परिचार्या द्वारा समस्त प्रजा का पालन करता है); परंतु नरेन्द्र! मैं तो उसे सम्पूर्ण जगत के प्रधान रक्षक भगवान विष्णु के रूप में देखता हूँ।
(क्योंकि पालन कर्म विष्णु का ही है और वह अपने उस कर्म द्वारा पालनकर्ता श्रीहरि की आराधना करके उन्हीं को प्राप्त होता है) हीनवर्ण के मनुष्य (शुद्र) यदि अपना उद्धार करना चाहें तो सदाचार का पालन करते हुए आत्मा को उन्नत बनाने वाली समस्त क्रियाओं का अनुष्ठान करें; परंतु वैदिक मन्त्र का उच्चारण न करें। ऐसा करने से वे दोष के भागी नहीं होते हैं।
षण्णवत्यधिकद्विशततम (296) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
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महाभारत: शान्ति पर्व: षण्णवत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद
इतर जातीय मनुष्य भी जैसे-जैसे सदाचार का आश्रय लेते हैं, वैसे-ही-वैसे सुख पाकर इहलोक और परलोक में भी आनन्द भोगते हैं। जनक ने पूछा- महामुने! मनुष्य को उसके कर्म दूषित करते हैं या जाति? मेरे मन में यह संदेह उत्पन्न हुआ है, आप इसका विवेचन कीजिये।
पराशर जी ने कहा- महाराज! इसमें संदेह नहीं कि कर्म और जाति दोनो ही दोषकारक होते हैं; परंतु इसमें जो विशेष बात है, उसे बताता हूँ, सुनो। जो जाति और कर्म- इन दोनों से श्रेष्ठ तथा पापकर्म का सेवन नहीं करता एवं जाति से दूषित होकर भी जो पापकर्म नहीं करता है, वही पुरुष कहलाने योग्य है।
जाति से श्रेष्ठ पुरुष भी यदि निन्दित कर्म करता है तो वह कर्म उसे कलंकित कर देता है; इसलिये किसी भी दृष्टि से बुरा कर्म करना अच्छा नहीं है।
जनक ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! इस लोक में कौन-कौन-से ऐसे धर्मानुकूल कर्म है, जिनका अनुष्ठान करते समय कभी किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं होती?
पराशर जी ने कहा- महाराज! तुम जिन कर्मों के विषय में पूछ रहे हो, उन्हें बताता हूँ, मुझसे सुनो। जो कर्म हिंसा से रहित हैं, वे सदा मनुष्य की रक्षा करते हैं।
जो लोग (संन्यास की दीक्षा ले) अग्निहोत्र का त्याग करके उदासीन भाव से सब कुछ देखते रहते हैं और सब प्रकार की चिन्ताओं से रहित हो क्रमश: कल्याणकारी कर्म के पथ पर आरूढ़ होकर नम्रता, विनय और इन्द्रियसंयम आदि गुणों को अपनाते तथा तीक्ष्ण व्रत का पालन करते हैं, वे सब कर्मों से रहित हो अविनाशी पद को प्राप्त कर लेते हैं। राजन! सभी वर्णों के लोग इस जीव-जगत में अपने-अपने धर्मानुसार कर्म का भली-भाँति अनुष्ठान करके, सदा सत्य बोलकर तथा भयानक पापकर्म का सर्वथा परित्याग करके स्वर्गलोक में जाते हैं। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में पराशरगीता विषयक दो सौ छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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