📚: सूर्य और चन्द्रमा हैं। ये दनु के वंश में विख्यात दानव बताये गये हैं।
सूर्यवंश और चन्द्र वंश देव ही नही अपितु दानव वंश भी है।
( महाभारत-65) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
( कश्यप को विवाही दक्ष की तेरह कन्याऐं-)
मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः।
प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश।11।
अदितिर्दितिर्दनुः काला दनायुः सिंहिका तथा।
क्रोधा प्राधा च विश्वा च विनता कपिला मुनिः।
12।
अनुवाद:- मरीचि के पुत्र कश्यप और कश्यप से ये प्रजा दक्ष की तरह कन्याओं में उत्पन्न हुई।
अदित्यां द्वादशादित्याः संभूता भुवनेश्वराः।
ये राजन्नामतस्तांस्ते कीर्तयिष्यामि भारत।14।
अनुवाद:- बारह आदित्य -
धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो( इन्द्रो) वरुणस्त्वंश एव च।
भगो विवस्वान्पूषा च सविता दशमस्तथा।15।
एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरुच्यते।
जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः।16।
रुद्रस्यानुचरः श्रीमान्महाकालेति यं विदुः।
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चत्वारिंशद्दनोः पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत।21।
चालीस दनु के पुत्र सर्वत्र ख्यात हैं-
तेषां प्रथमजो राजा विप्रचित्तिर्महायशाः।
शम्बरो नमुचिश्चैव पुलोमा चेति विश्रुतः।22।
असिलोमा च केशी च दुर्जयश्चैव दानवः।
अयःशिरा अश्वशिरा अश्वशह्कुश्च वीर्यवान्।23।
कृष्ण का शत्रु केशि दानव था ( दैत्य नहीं था)
दैत्य और दानव में भेद है।
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और दानवों के नाम निम्न श्लोक में हैं।
"तथा गगनमूर्धा च वेगवान्केतुमांश्च सः।
स्वर्भानुरश्वोऽश्वपतिर्वृषपर्वाऽजकस्तथा।24।
अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः।
इषुपादेकचक्रश्च विरूपाक्षहराहरौ।25।
निचन्द्रश्च निकुम्भश्च कुपटः कपटस्तथा।
शरभः शलभश्चैव सूर्याचन्द्रमसौ तथा।
एते ख्याता दनोर्वंशे दानवाः परिकीर्तिताः।26।
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अन्यौ तु खलु देवानां सूर्याचन्द्रमसौ स्मृतौ।
अन्यौ दानवमुख्यानां सूर्याचन्द्रमसौ तथा।27।
देवों में सूर्य चन्द्रमा और दानवों में सूर्य चन्द्रमा भिन्न भिन्न हैं।
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इमे च वंशाः प्रथिताः सत्ववन्तो महाबलाः।
दनुपुत्रा महाराज दश दानववंशजाः।28।
एकाक्षो मृतपो वीरः प्रलम्बनरकावपि।
वातापिः शत्रुतपनः शठश्चैव महासुरः।29।
गविष्ठश्च वनायुश्च दीर्घजिह्वश्च दानवः।
असङ्ख्येयाः स्मृतास्तेषां पुत्राः पौत्राश्च भारत।30।
सिंहिका सुषुवे पुत्रं राहुं चन्द्रार्कमर्दनम्।
सुचन्द्रं चन्द्रहर्तारं तथा चन्द्रप्रमर्दनम्।31।
क्रूरस्वभावं क्रूरायाः पुत्रपौत्रमनन्तकम्।
गणः क्रोधवशो नाम क्रूरकर्माऽरिमर्दनः।32।
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दनायुषः पुनः पुत्राश्चत्वारोऽसुरपुंगवाः।
विक्षरो बल वीरौ च वृत्रश्चैव महासुरः।33।
(दनायुष: के चार पुत्र हुए-)
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(प्राधा की सन्तान-)
अरूपां सुभगां भासीमिति प्राधा व्यजायत।
सिद्धः पूर्णश्च बर्हिश्च पूर्णायुश्च महायशाः। 46।
ब्रह्मचारी रतिगुणः सुपर्णश्चैव सप्तमः।
विश्वावसुश्च भानुश्च सुचन्द्रो दशमस्तथा।47।
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इत्येते देवगन्धर्वाः प्राधेयाः परिकीर्तिताः।
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(अरिष्टा की सन्तान अप्सराएँ तथा चार गन्धर्व-)
अरिष्टाऽसूत सुभगा देवी देवर्षितः पुरा।
अलम्बुषा मिश्रकेशी विद्युत्पर्णा तिलोत्तमा।49।
अरुणा रक्षिता चैव रम्भा तद्वन्मनोरमा।
केशिनी च सुबाहुश्च सुरता सुरजा तथा।50।
सुप्रिया चातिबाहुश्च विख्यातौ च हाहा हूहूः।
तुम्बुरुश्चेति चत्वारः स्मृता गन्धर्वसत्तमाः।51।
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इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
सम्भवपर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः/65
निचन्द्रश्च निकुम्भश्च कुपटः कपटस्तथा।
शरभः शलभश्चैव सूर्याचन्द्रमसौ तथा।
एते ख्याता दनोर्वंशे दानवाः परिकीर्तिताः।26।
अन्यौ तु खलु देवानां सूर्याचन्द्रमसौ स्मृतौ।
अन्यौ दानवमुख्यानां सूर्याचन्द्रमसौ तथा।27।
इमे च वंशाः प्रथिताः सत्ववन्तो महाबलाः।
दनुपुत्रा महाराज दश दानववंशजाः।28।
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महाराज! ये विख्यात दानववंश कहे गये हैं, जो बड़े धैर्यवान और महाबलवान हुए हैं। दनु के पुत्रों में निम्नांकित दानवों के दस कुल बहुत प्रसिद्ध हैं। एकाक्ष, वीर मृतपा, प्रलम्ब, नरक, वातापी, शत्रुतपन, महान् असुर शठ, गविष्ठ, बनायु तथा दानव दीर्धजिह्व। भारत! इन सबके पुत्र-पौत्र असंख्य बताये गये हैं।
सिंहिका ने राहु नाम के पुत्र को उत्पन्न किया, जो चन्द्रमा और सूर्य का मान-मर्दन करने वाला है। इसके सिवा सुचन्द्र, चन्द्रहर्ता तथा चन्द्रप्रमर्दन को भी उसी ने जन्म दिया। क्रूरा (क्रोधा) के क्रूर स्वभाव वाले असंख्य पुत्र-पौत्र उत्पन्न हुए। शत्रुओं का नाश करने वाला क्रूरकुमार क्रोधवश नामक गण भी क्रूरा की ही संतान हैं।
दनायुष( दनायु:) के असुरों में श्रेष्ठ चार पुत्र हुए- विक्षर, बल, वीर और महान् असुर वृत्र।
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प्राधा नाम वाली दक्ष कन्या ने अनवद्या, मनु, वंशा, असुरा, मार्गणप्रिया, अरूपा, सुभगा और भासी इन कन्याओं को उत्पन्न किया। सिद्ध, पूर्ण, वर्हि, महायशस्वी पूर्णायु, ब्रह्मचारी, रतिगुण, सातवें सुपर्ण, आठवें विश्वावसु, नवे भानु और दसवें सुचन्द्र- ये दस देव-गन्धर्व भी प्राधा के ही पुत्र बताये गये हैं। इनके सिवा महाभाग देवी प्राधा ने पहले देवर्षि (कश्यप) के समागम से इन प्रसिद्ध अप्सराओं के शुभ लक्षण वाले समुदाय को उत्पन्न किया था। उनके नाम ये हैं- अलम्बुषा, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अरुण, रक्षिता, रंभा, मनोरमा, केशिनी, सुबाहु, सुरता, सुरजा और सुप्रिया। अतिवाहु, सुप्रसिद्ध हाहा और हूहू तथा तुम्बुरु- ये चार श्रेष्ठ गन्धर्व भी प्राधा के ही पुत्र माने गये हैं।
गड़बड़ झाला-
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राजन ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति का वृतान्त बताया है। इसी तरह गन्धर्वों, अप्सराओं, नागों, सुपर्णों, रुद्रों मरुद्गणों, गौओं तथा श्रीसम्पन्न पुण्यकर्मा ब्राह्मणों के जन्म की कथा भली-भाँति कही है।
इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में आदित्यादिवंशकथन-विषयक पैंसठवाँ 65वाँ अध्याय पूरा हुआ।
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क्रोधवशा से हरी हुई हरी से वानर हुए । पुलस्त्य से भी वानर हुए ऐसा कहा है। परन्तु पुलस्त्य की पत्नी हरी नहीं थी- यह विरोधाभासी श्लोक है-
नव क्रोधवशा नारीः प्रजज्ञे क्रोधसंभवाः।
मृगी च मृगमन्दा च हरी भद्रमना अपि।। 1-67-60।
मातङ्गी त्वथ शार्दूली श्वेता सुरभिरेव च।
सर्वलक्षणसंपन्ना सुरसा चैव भामिनी।1-67-61
अपत्यं तु मृगाः सर्वे मृग्या नरवरोत्तम।
ऋक्षाश्च मृगमन्दायाः सृमराश्च परंतप।। 1-67-62
ततस्त्वैरावतं नागं जज्ञे भद्रमनाः सुतम्।
ऐरावतः सुतस्तस्या देवनागो महागजः।। 1-67-63।
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हर्याश्च हरयोऽपत्यं वानराश्च तरस्विनः।
गोलाङ्गूलांश्च भद्रं ते हर्याः पुत्रान्प्रचक्षते।। 1-67-64
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इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
संभवपर्वणि सप्तषष्टितमोऽध्यायः। 67 ।
हिन्दी अनुवाद:-
महाभारत आदि पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-22
का हिन्दी अनुवाद:-
महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान-परंपरा का वर्णन वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन ! ब्रह्मा के मानस पुत्र छः महर्षियों के नाम तुम्हें ज्ञात हो चुके हैं। उनके सातवें पुत्र थे स्थाणु।
स्थाणु के परम तेजस्वी ग्यारह पुत्र विख्यात हैं। मृगव्याध, सर्प, महायशस्वी निर्ऋति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, शत्रुसंतापन पिनाकी, दहन, ईश्वर, परम कान्तिमान कपाली, स्थाणु और भगवान भव- ये ग्यारह रुद्र माने गये हैं।
मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलत्स्य पुलह और क्रतु- ये ब्रह्मा जी के छः बड़े शक्तिशाली महर्षि हैं। अंगिरा के तीन पुत्र हुए, जो लोक में सर्वत्र विख्यात हैं। उनके नाम ये हैं- बृहस्पति, उतथ्य और संवर्त!
ये तीनों ही उत्तम व्रत धारण करने वाले हैं। मनुजेश्वर! अत्रि के बहुत-से पुत्र सुने जाते हैं।
ये सब-के-सब वेदवेत्ता, सिद्व और शान्तचित्त महर्षि हैं।
परश्रेष्ठ! बुद्धिमान पुलस्त्य मुनि के पुत्र राक्षस, वानर, किन्नर तथा यक्ष हैं।
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राजन! पुलह के शरभ, सिंह, किम्पुरुष, व्याघ्र, रीछ और ईहामृग (भेड़िया) जाति के पुत्र हुए। क्रतु (यज्ञ) के पुत्र क्रतु ही समान पवित्र, तीनों लोकों में विख्यात, सत्यवादी, व्रतपरायण तथा भगवान सूर्य के आगे चलने वाले साठ हजार वालखिल्य ऋषि हुए।
भूमिपाल! ब्रह्मा जी के दाहिने अंगूठे से महातपस्वी शान्तचित्त महर्षि भगवान दक्ष उत्पन्न हुए।
( ये ब्रह्मा के पैर से होने के कारण शूद्र हैं)
दक्ष की पचास कन्याऐं-
इसी प्रकार उन महात्मा के बायें अंगूठे से उनकी पत्नी का प्रादुर्भाव हुआ। महर्षि ने उसके गर्भ से पचास कन्याऐं उत्पन्न कीं।
ये सभी कन्याऐं परमसुन्दर अंगों वाली तथा विकसित कमल के सदृश विशाल लोचनों से सुशोभित थीं। प्रजापति दक्ष के पुत्र जब नष्ट हो गये, तब उन्होंने अपनी उन कन्याओं को पुत्रिका बनाकर रखा (और उनका विवाह पुत्रिका धर्म के अनुसार ही किया।)[1]
राजन! दक्ष ने दस कन्याऐं धर्म को, सत्ताईस कन्याऐं चन्द्रमा को और तेरह कन्याऐं महर्षि कश्यप को दिव्य विधि के अनुसार समर्पित कर दीं।
पुराणों में लक्ष्मी धर्म की पत्नी-
अब मैं धर्म की पत्नीयों के नाम बता रहा हूं, सुनो- कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेघा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्वि, लज्जा और मति- ये धर्म की दस पत्नियां हैं।
धर्म के दश लक्षण ही धर्म की पत्नीयाँ-
स्वयंभू ब्रह्मा जी ने इन सब को धर्म का द्वार निश्चित किया है अर्थात इनके द्वारा धर्म में प्रवेश होता है। चन्द्रमा की सत्ताईस स्त्रियां समस्त लोकों में विख्यात हैं। वे पवित्र व्रत धारण करने वाली सोमपत्नियां काल-विभाग का ज्ञापन करने में नियुक्त हैं। लोक-व्यवहार निर्वाह करने के लिये वे सब-की-सब नक्षत्र-वाचक नामों से युक्त हैं। पितामह ब्रह्मा जी के स्तन से उत्पन्न होने के कारण मुनिवर धर्मदेव उनके पुत्र माने गये हैं। प्रजापति दक्ष भी ब्रह्मा जी के ही पुत्र हैं। दक्ष की कन्याओं के गर्भ से धर्म के आठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिन्हें वसुगण कहते हैं। अब मैं वसुओं का विस्तारपूर्वक परिचय देता हूँ।
धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास- ये आठ वसु कहे गये हैं।
धर और ब्रह्मवेत्ता ध्रुव धूम्रा के पुत्र हैं।
चन्द्रमा मनस्विनी के और अनिल श्वासा के पुत्र हैं। अहरता के और अनल शाण्डिली के पुत्र हैं और प्रत्युष और प्रभास ये दोनों प्रभाता के पुत्र बताये गये हैं। धर के दो पुत्र हुए द्रविण और हुतहव्यवह।
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धूम्राके धर्म से उत्पन्न पुत्र धर ध्रुव और ध्रुव के
पुत्र काल-
सब लोकों को अपना ग्रास बनाने वाले भगवान काल ध्रुव के पुत्र हैं।
सोम के मनोहर नामक स्त्री के गर्भ से प्रथम तो वर्चा नामक पुत्र हुआ, जिससे लोग वर्चस्वी (तेज, कान्ति और पराक्रम से सम्पन्न) होते हैं, फिर शिशिर, प्राण तथा रमण नामक पुत्र उत्पन्न हुए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें↑ मनुस्मृति में प्रजापति दक्ष को ही पुत्रिका-विधी का प्रवर्तक बताकर उसका लक्ष्य इस प्रकार दिया है- अपुत्रो८नेन विधिना सुतां कवींत पुत्रिकाम्। यदपत्यं भवेदस्यां तन्मम स्यात् स्वधाकरम्॥ (मनु. 9।127)
महाबुद्धिमान शुक्र ही आचार्य और दैत्यों के गुरु हुए। वे ही योगबल से मेधावी, ब्रह्मचारी एवं व्रतपरायण बृहस्पति के रूप में प्रकट हो देवताओं के भी गुरु होते हैं।
ब्रह्मा जी ने जब भृगुपुत्र शुक्र को जगत् के योगक्षेम के कार्य में नियुक्त कर दिया, तब महर्षि भृगु ने एक दूसरे निर्दोष पुत्र को जन्म दिया।
जनेश्वर! काकी ने उल्लुओं और श्येनी बाजों को जन्म दिया;
भाषी ने मुर्गों तथा गीधों का उत्पन्न किया। कल्याणमयी धृतराष्ट्री ने सब प्रकार के हंसों, कलहंसों तथा चक्रवाकों को जन्म दिया। कल्याणमय गुणों से सम्पन्न तथा समस्त शुभलक्षणों से युक्त यशस्विनी शुकी ने शुकों (तोतों) को ही उत्पन्न किया।
क्रोधवशा ने नौ प्रकार के क्रोधजनित कन्याओं को जन्म दिया। उनके नाम ये है- मृगी, मृगमन्दा, हरि, भद्रमना, मातंगी, सार्दुली, स्वेता, सुरभि तथा सम्पूर्ण लक्षणों से सम्पन्न सुन्दरी सुरसा।
नरश्रेष्ठ! समस्त मृग मृगी की संताने हैं। परमतप! मृगमन्दा से रीछ तथा सृमर (छोटी जाति के मृग) उत्पन्न हुए। भद्रमना ने ऐरावत हाथी को अपने पुत्र रूप में उत्पन्न किया। देवताओं का हाथी महान गजराज ऐरावत भद्रमना का ही पुत्र है।
महाभारत: आदि पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद:-
भाषी को मुर्गों तथा गीधों का उत्पन्न किया।
क्रोधवशा ने नौ प्रकार के क्रोधजनित कन्याओं को जन्म दिया। उनके नाम ये है- मृगी, मृगमन्दा, हरि, भद्रमना, मातंगी, सार्दुली, स्वेता, सुरभि तथा सम्पूर्ण लक्षणों से सम्पन्न सुन्दरी सुरसा। नरश्रेष्ठ! समस्त मृग मृगी की संताने हैं। परमतप! मृगमन्दा से रीछ तथा सृमर (छोटी जाति के मृग) उत्पन्न हुए। भद्रमना ने ऐरावत हाथी को अपने पुत्र रूप में उत्पन्न किया। देवताओं का हाथी महान गजराज ऐरावत भद्रमना का ही पुत्र है।
महाभारत: आदि पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद राजन! तुम्हारा कल्याण हो, वेगवान घोड़े और वानर हरि के पुत्र हैं और हरि क्रोधवशा की पुत्री हैं। गाय के समान पूंछ वाले लंगूरों को भी हरी का ही पुत्र बताया जाता है।
द्रोपदी के पाँच पुत्रों के नाम-
द्रौपदी के जो पांच पुत्र थे, उनके रूप में पांच विश्वेदेवगण ही प्रकट हुए थे। उनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं - प्रतिविध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, नकुलनन्दन शतानीक तथा पराक्रमी श्रुतसेन।
राजन! तुम्हारा कल्याण हो, वेगवान घोड़े और वानर हरि के पुत्र हैं। गाय के समान पूंछ वाले लंगूरों को भी हरी का ही पुत्र बताया जाता है।
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अथ ते सर्वशोंशैः स्वैर्गन्तुं भूमिं कृतक्षणाः। नारायणममित्रघ्नं वैकुण्ठमुपचक्रमुः।51 |
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यः स चक्रगदापाणिः पीतवासाः शितिप्रभः। पद्मनाभः सुरारिघ्नः पृथुचार्वञ्चितेक्षणः।52। |
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प्रजापतिपतिर्देवः सुरनाथो महाबलः। श्रीवत्साङ्को हृषीकेशः सर्वदैवतपूजितः।53। |
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तं भुवः शोधनायेन्द्र उवाच पुरुषोत्तमम्। अंशेनावतरेत्येवं तथेत्याह च तं हरिः।54। |
|
"इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः।। 65। | |
।। समाप्तमंशावतरणपर्व ।। |
देवताओं के भी देवता जो सनातन पुरुष भगवान नारायण हैं, उन्हीं के अंश स्वरूप प्रतापी वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण मनुष्यों में अवतीर्ण हुए थे। महाबली बलदेव शेषनाग के अंश थे। राजन्! महातेजस्वी प्रद्युम्न को तुम सनत्कुमार का अंश जानो।
सन्दर्भ:-
महाभारत: आदि पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय:
आरुषी तु मनोः कन्या तस्य पत्नी मनीषिणः।
और्वस्तस्यां समभवदूरुं भित्त्वा महायशाः॥ 1-67-46
नरेश्वर! वे अप्सरायें मनुष्य लोक में सोलह हजार देवियों के रूप में उत्पन्न हुई थीं जो सब-की-सब भगवान श्रीकृष्ण की पत्नियां हुईं। नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने के लिये भूतल पर विदर्भराज भीष्मक के कुल में सतीसाध्वी रुक्मिणी देवी के नाम से लक्ष्मी जी का ही अंश प्रकट हुआ था।
गोलोक से गोपिकाऐ कृष्ण की पत्नी थीं नकि अप्सराऐं- ये विरोधाभास -
महाभारत मे गोलोक का वर्णन-
महाभारत: अनुशासनपर्व: त्र्यशीतितमो अध्याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद:-
ब्रह्मा जी का इन्द्र से गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना और गौओं को वरदान देना
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जो मनुष्य सदा यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन और गोदान करते हैं, उन्हें प्रतिदिन यज्ञदान और यज्ञ करने का फल मिलता है।
दही और गोघृत के बिना यज्ञ नहीं होता। उन्हीं से यज्ञ का यज्ञत्व सफल होता है। अत: गौओं को यज्ञ का मूल कहते हैं। सब प्रकार के दानों में गोदान ही उत्तम माना जाता है; इसलिये गौएँ श्रेष्ठ, पवित्र तथा परम पावन हैं।
मनुष्य को अपने शरीर की पुष्टि तथा सब प्रकार के विघ्नों की शांति के लिये भी गौओं का सेवन करना चाहिये।
इनके दूध, दही और घी सब पापों से छुड़ाने वाले हैं। भरतश्रेष्ठ! गौएँ इहलोक और परलोक में भी महान तेजोरूप मानी गयी हैं।
गौओं से बढ़कर पवित्र कोई वस्तु नहीं है।
युधिष्ठिर! इस विषय में विद्वान पुरुष इन्द्र और ब्रह्मा जी के इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं।
पूर्वकाल में देवताओं द्वारा दैत्यों के परास्त हो जाने पर जब इन्द्र तीनों लोकों के अधीश्वर हुए, तब समस्त प्रजा मिलकर बड़ी प्रसन्नता के साथ सत्य और धर्म में तत्पर रहने लगी। कुन्तीनन्दन! तदनन्तर एक दिन जब ऋषि, गन्धर्व, किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, असुर, गरुड़ और प्रजापतिगण ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित थे, नारद, पर्वत, विश्वावसु, हाहा और हूहू नामक गन्धर्व जब दिव्य तान छेड़कर गाते हुए वहाँ उन भगवान ब्रह्मा जी की उपासना करते थे, वायु देव दिव्य पुष्पों की सुगंध लेकर बह रहे थे, पृथक-पृथक ऋतुऐं भी उत्तम सौरभ से युक्त दिव्य पुष्प भेंट कर रही थीं, देवताओं का समाज जुटा था, समस्त प्राणियों का समागम हो रहा था, दिव्य-वाद्यों की मनोरम ध्वनि गूंज रही थी तथा दिव्यांगनाओं और चारणों से वह समुदाय घिरा हुआ था।
उसी समय देवराज इन्द्र ने देवेश्वर ब्रह्मा जी को प्रणाम करे पूछा- 'भगवन! पितामह! गोलोक समस्त देवताओं और लोकपालों के ऊपर क्यों है? मैं इसे जानाना चाहता हूँ।
प्रभो ! गौओं ने यहाँ किस तपस्या का अनुष्ठान अथवा ब्रह्मचर्य का पालन किया है, जिससे वे रजोगुण से रहित होकर देवताओं से भी ऊपर स्थान में सुखपूर्वक निवास करती हैं?'
तब ब्रह्मा जी ने बलसूदन इन्द्र से कहा- 'बलासुर का विनाश करने वाले देवेन्द्र! तुमने सदा गौओं की अवहेलना की है। प्रभो! इसलिये तुम इनका माहात्म्य नहीं जानते। सुरश्रेष्ठ! गौओं का महान प्रभाव और माहात्म्य मैं बताता हूँ, सुनो।'
वासव! गौओं को यज्ञ का अंग और साक्षात यज्ञरूप बतलाया गया है; क्योंकि इनके दूध, दही और घी के बिना यज्ञ किसी तरह सम्पन्न नहीं हो सकता। ये अपने दूध-घी से प्रजा का भी पालन पोषण करती हैं। इनके पुत्र (बैल) खेती के काम आते तथा नाना प्रकार के धान्य एवं बीज उत्पन्न करते हैं। उन्हीं से यज्ञ सम्पन्न होते और हव्य-कव्य का भी सर्वथा निर्वाह होता है।
सुरेश्वर! इन्हीं गौओं से दूध, दही और घी प्राप्त होते हैं। ये गौएँ बड़ी पवित्र होती हैं। बैल भूख-प्यास से पीड़ित होकर भी नाना प्रकार के बोझ ढोते रहते हैं। इस प्रकार गौएँ अपने कर्म से ऋषियों तथ प्रजाओं का पालन करती हैं।
वासव! इनके व्यवहार में माया नहीं होती। ये सदा सत्कर्म में ही लगी रहती हैं। इसी से ये गौएँ हम सब लोगों के ऊपर स्थान में निवास करती हैं।'
शक्र! तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने यह बात बताई कि गौएँ देवताओं के ऊपर स्थान में क्यों निवास करती हैं। शतक्रतु इन्द्र! इसके सिवा ये गौएँ वरदान भी प्राप्त कर चुकी हैं और प्रसन्न होने पर दूसरों को वर देने की शक्ति रखती हैं। सुरभि गौएँ पुण्यकर्म करने वाली और शुभलक्षिणा होती हैं।
सुरश्रेष्ठ! बलसूदन! वे जिस उद्देश्य से पृथ्वी पर गयी हैं, उसको भी मैं पूर्णरूप से बता रहा हूँ, सुनो।
त्र्यशीतितमो (83) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: त्र्यशीतितमो अध्याय: श्लोक 25-52 का हिन्दी अनुवाद:-
तात! पहले सत्ययुग में जब महामना देवेश्वरगण तीनों लोकों पर शासन करते थे और अमरश्रेष्ठ! जब देवी अदिति पुत्र के लिये नित्य एक पैर से खड़ी रहकर अत्यन्त घोर एवं दुष्कर तपस्या करती थीं और उस तपस्या से संतुष्ट होकर साक्षात भगवान विष्णु ही उनके गर्भ में पदार्पण करने वाले थे, उन्हीं दिनों की बात है, महादेवी अदिति को महान तप करती देख दक्ष की
ववव धर्मपरायण पुत्री सुरभि देवी ने बड़े हर्ष के साथ घोर तपस्या आरंभ की। कैलास के रमणीय शिखर पर जहाँ देवता और गन्धर्व सदा विराजित रहते हैं, वहाँ वह उत्तम योग का आश्रय ले ग्यारह हज़ार वर्षों तक एक पैर से खड़ी रही।
उसकी तपस्या से देवता, ऋषि और बड़े-बड़े नाग भी संतप्त हो उठे। वे सब लोग मेरे साथ ही सुभलक्षिणा तपस्विनी सुरभि देवी के पास जाकर खड़े हुए। तब मैंने वहाँ उससे कहा- 'सती-साध्वी देवी! तुम किसलिये यह घोर तपस्या करती हो? शोभने! महाभागे! मैं तुम्हारी इस तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। देवी! तू इच्छानुसार वर माँग।' पुरन्दर! इस तरह मैंने सुरभि को वर माँगने के लिये प्रेरित किया।
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सुरभि ने कहा- 'भगवन! निष्पाप लोक पितामह! मुझे वर लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरे लिये तो सबसे बड़ा वर यही है कि आज आप मुझ पर प्रसन्न हो गये हैं।'
ब्रह्मा जी ने कहा- देवेश्वर! देवन्द्र! शचीपते! जब सुरभि ऐसी बात कहने लगी, तब मैंने उसे जो उत्तर दिया वह सुनो।
ब्रह्मा जी ने कहा- देवी! सुभानने! तुमने लोभ और कामना को त्याग दिया है। तुम्हारी इस निष्काम तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ; अतः तुम्हें अमरत्व का वरदान देता हूँ।
तुम मेरी कृपा से तीनों लोकों के ऊपर निवास करोगी और तुम्हारा वह धाम ‘गोलोक’ नाम से विख्यात होगा।
महाभागे! तुम्हारी सभी शुभ संतानें, समस्त पुत्र और कन्याएँ मानवलोक में उपयुक्त कर्म करती हुई निवास करेंगी। देवी! शुभे! तुम अपने मन से जिन दिव्य अथवा मानवी भोगों का चिंतन करोगी तथा जो स्वर्गीय सुख होगा, वे सभी तुम्हें स्वतः प्राप्त होते रहेंगे। सहस्राक्ष! सुरभि के निवास भूत गोलोक में सबकी सम्पूर्ण कामनाऐं पूर्ण होती हैं। वहाँ मृत्यु और बुढ़ापा का आक्रमण नहीं होता है। अग्नि का भी जोर नहीं चलता।
वासव! वहाँ न कोई दुर्भाग्य है और न अशुभ। वहाँ दिव्य वन, भवन तथा परम सुन्दर एवं इच्छानुसार विचरने वाले विमान मौजूद हैं। कमलनयन इन्द्र! ब्रह्मचर्य, तपस्या, यत्न, इन्द्रियसंयम, नाना प्रकार के दान, पुण्य, तीर्थ सेवन, महान तप और अनान्य शुभकर्मों के अनुष्ठान से ही गोलोक की प्राप्ति हो सकती है। असुरसूदन शक्र ! इस प्रकार तुम्हारे पूछने के अनुसार मैंने सारी बातें बतलायी हैं। अब तुम्हें गौओं का कभी तिरस्कार नहीं करना चाहिये।
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्रह्मा जी का यह कथन सुनकर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र प्रतिदिन गौओं की पूजा करने लगे। उन्होंने उनके प्रति बहुत सम्मान प्रकट किया। महाघुते! यह सब
वासव! वहाँ न कोई दुर्भाग्य है और न अशुभ। वहाँ दिव्य वन, भवन तथा परम सुन्दर एवं इच्छानुसार विचरने वाले विमान मौजूद हैं। कमलनयन इन्द्र! ब्रह्मचर्य, तपस्या, यत्न, इन्द्रियसंयम, नाना प्रकार के दान, पुण्य, तीर्थ सेवन, महान तप और अनान्य शुभकर्मों के अनुष्ठान से ही गोलोक की प्राप्ति हो सकती है। असुरसूदन शक्र ! इस प्रकार तुम्हारे पूछने के अनुसार मैंने सारी बातें बतलायी हैं। अब तुम्हें गौओं का कभी तिरस्कार नहीं करना चाहिये।
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्रह्मा जी का यह कथन सुनकर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र प्रतिदिन गौओं की पूजा करने लगे। उन्होंने उनके प्रति बहुत सम्मान प्रकट किया। महाघुते! यह सब मैंने तुमसे गौओं का परम पावन, परम पवित्र और अत्यन्त उत्तम माहात्मय कहा है। पुरुषसिंह! यदि इसका कीर्तन किया जाये तो यह समस्त पापों से छुटकारा दिलाने वाला हैं। जो एकाग्रचित्त हो सदा यज्ञ और श्राद्ध में हव्य और कव्य अर्पण करते समय ब्राह्मणों को यह प्रसंग सुनायेगा, उसका दिया हुआ (हव्य और कव्य) समस्त कामनाओं का पूर्ण करने वाला और अक्षय होकर पितरों को प्राप्त होगा।
गौभक्त मनुष्य जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, वह सब उसे प्राप्त होती हैं। स्त्रियों में जो भी गौओं की भक्ता है, वे मनोवांछित कामनाऐं प्राप्त कर लेती हैं। पुत्रार्थी मनुष्य पुत्र पाता है और कन्यार्थी कन्या। धन चाहने वालों को धन और धर्म चाहने वालों को धर्म प्राप्त होता है। विद्यार्थी विद्या पाता है और सुखार्थी सुख। भारत! गौभक्त के लिये यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत
दानधर्मपर्वमें गोलाक का वर्णन विषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)
स्कन्ध 4, अध्याय 18 -
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पाप भार से व्यथित पृथ्वीका देवलोक जाना, इन्द्रका देवताओं और पृथ्वीके साथ ब्रह्मलोक जाना, ब्रह्माजीका पृथ्वी तथा इन्द्रादि देवताओं सहित विष्णुलोक जाकर विष्णुकी स्तुति करना, विष्णुद्वारा अपने को भगवती के अधीन बताना
व्यासजी बोले- हे राजन्! सुनिये, अब मैं श्रीकृष्णके महान् चरित्र, उनके अवतार के कारण और भगवती के अद्भुत चरित्रका वर्णन करूँगा ll 1॥
एक समयकी बात है [पापियोंके] भारसे व्यथित, अत्यधिक कृश, दीन तथा भयभीत पृथ्वी गौका रूप धारण करके रोती हुई स्वर्गलोक गयी ॥ 2 ॥
वहाँ इन्द्रने पूछा- हे वसुन्धरे। इस समय तुम्हें कौन सा भय है, तुम्हें किसने पीड़ा पहुंचायी है और तुम्हें क्या दुःख है ? 3 ॥
यह सुनकर पृथ्वीने कहा- हे देवेश यदि आप पूछ ही रहे हैं तो मेरा सारा दु:ख सुन लीजिये। हे मानद में भारसे दबी हुई हूँ ll 4 l
"मगधदेशका राजा महापापी जरासन्ध, चेदिनरेश शिशुपाल, प्रतापी काशिराज, रुक्मी, बलवान् कंस, महाबली नरकासुर, सौभनरेश शाल्व, क्रूर केशी, धेनुकासुर और वत्सासुर- ये सभी राजागण धर्महीन, परस्पर विरोध रखनेवाले, पापाचारी, मदोन्मत्त और साक्षात् कालस्वरूप हो गये हैं॥ 5-7॥
हे इन्द्र ! उनसे मुझे बहुत व्यथा हो रही है। मैं उनके भारसे दबी हुई हूँ और अब [ उनका भार सहनेमें] मैं असमर्थ हो गयी हूँ। हे विभो ! मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? मुझे यही महान् चिन्ता है ॥ 8 ॥
हे इन्द्र ! पूर्वमें मैं [ दानव हिरण्याक्षसे] पीड़ित थी। उस समय परम ऐश्वर्यशाली वराहरूपधारी भगवान् विष्णुने मेरा उद्धार किया था। यदि वे वराहरूप धारण करके मेरा उद्धार न किये होते तो उससे भी अधिक दुःखकी स्थितिमें मैं न पहुँचती आप ऐसा जानिये ॥ 9 ॥
कश्यपके पुत्र दुष्ट दैत्य हिरण्याक्षने मुझे चुरा लिया था और उस महासमुद्रमें डुबो दिया था। उस समय भगवान् विष्णुने सूकरका रूप धारणकर | उसका संहार किया और मेरा उद्धार किया। तदनन्तर उन वराहरूपधारी विष्णुने मुझे स्थापित करके स्थिर कर दिया अन्यथा मैं इस समय पातालमें स्वस्थचित्त रहकर सुखपूर्वक सोयी रहती।
हे देवेश ! अब मैं दुष्टात्मा राजाओंका भार वहन करनेमें समर्थ नहीं हूँ ॥10-12 ॥
हे इन्द्र! अब आगे अट्ठाईसवाँ दुष्ट कलियुग आ रहा है। उस समय मैं और भी पीड़ित हो जाऊँगी तब तो मैं शीघ्र ही रसातलमें चली जाऊँगी। अतएव हे देवदेवेश! इस दुःखरूपी महासागरसे मुझे पार कर दीजिये; मेरा बोझ उतार दीजिये, मैं आपके चरणों में नमन करती हूँ ।। 13-14 ॥
इन्द्र बोले- हे वसुन्धरे! मैं इस समय तुम्हारे | लिये क्या कर सकता हूँ। तुम ब्रह्माकी शरणमें जाओ, वे ही तुम्हारा दुःख दूर करेंगे, मैं भी वहाँ आ जाऊँगा ।। 15 ।।
यह सुनकर पृथ्वीने तत्काल ब्रह्मलोक के लिये प्रस्थान कर दिया। उसके पीछे-पीछे इन्द्र भी सभी देवताओंके साथ वहाँ पहुँच गये ।। 16 ।।
हे महाराज! उस आयी हुई धेनुको अपने सम्मुख उपस्थित देखकर तथा ध्यान दृष्टिद्वारा उसे पृथ्वी जान करके ब्रह्माजीने कहा- हे कल्याणि ! तुम किसलिये रो रही हो और तुम्हें कौन-सा दुःख है; मुझे अभी बताओ। हे पृथ्वि! किस पापाचारीने तुम्हें पीड़ा पहुँचायी है, मुझे बताओ ॥ 17-18 ll
धरा बोली- हे जगत्पते! यह दुष्ट कलि अब आनेवाला है। मैं उसीके आतंकसे डर रही हूँ; क्योंकि उस समय सभी लोग पापाचारी हो जायँगे। सभी राजालोग दुराचारी हो जायँगे, आपसमें विरोध करनेवाले होंगे और चोरीके कर्ममें संलग्न रहेंगे। वे राक्षसके रूपमें एक-दूसरेके पूर्णरूपसे शत्रु बन जायँगे। हे पितामह! उन राजाओंका वध करके मेरा भार उतार दीजिये। हे महाराज! मैं राजाओंकी सेनाके भारसे दबी हुई हूँ ॥ 19-21 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे देवि! तुम्हारा भार उतारनेमें मैं सर्वथा समर्थ नहीं हूँ। अब हम दोनों चक्रधारी देवाधिदेव भगवान् विष्णुके धाम चलते हैं। वे जनार्दन तुम्हारा भार अवश्य उतार देंगे। मैंने पहलेसे ही भलीभाँति विचार करके तुम्हारा कार्य करनेकी योजना बनायी है। [ उन्होंने इन्द्रसे कहा-] हे सुरश्रेष्ठ! जहाँपर भगवान् जनार्दन विद्यमान हैं, अब आप | वहीँ पर चलें ॥। 22-23 ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर वे वेदकर्ता चतुर्मुख ब्रह्माजी हंसपर आरूढ़ हुए और देवताओं तथा गोरूपधारिणी पृथ्वीको साथ में लेकर विष्णुलोक के लिये प्रस्थित हो गये। [ वहाँ पहुँचकर] भक्ति से परिपूर्ण हृदयवाले ब्रह्माजी वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे ।24-25।
ब्रह्माजी बोले- आप हजार मस्तकोंवाले, हजार नेत्रोंवाले और हजार पैरोंवाले हैं। आप देवताओंके भी आदिदेव तथा सनातन वेदपुरुष हैं। हे विभो ! हे रमापते ! भूतकाल, भविष्यकाल तथा वर्तमानकालका जो भी हमारा अमरत्व है, उसे आपने ही हमें प्रदान किया है। आपकी इतनी बड़ी महिमा है कि उसे त्रिलोकी में कौन नहीं जानता ? आप ही सृष्टि करनेवाले, पालन करनेवाले और संहार करनेवाले हैं। आप सर्वव्यापी और सर्वशक्तिसम्पन्न हैं ॥ 26-28 ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार स्तुति करनेपर पवित्र हृदयवाले वे गरुडध्वज भगवान् विष्णु प्रसन्न हो गये और उन्होंने ब्रह्मा आदि देवताओंको अपने दर्शन दिये। प्रसन्न मुखमण्डलवाले भगवान् विष्णुने देवताओंका स्वागत किया और विस्तारपूर्वक उनके आगमनका कारण पूछा ।। 29-30 ॥
तदनन्तर पद्मयोनि ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम करनेके उपरान्त पृथ्वीके दुःखका स्मरण करते हुए उनसे कहा- हे विष्णो हे जनार्दन। अब पृथ्वीका भार दूर कर देना आपका कर्तव्य है। अतः हे दयानिधे ! द्वापरका अन्तिम समय उपस्थित होनेपर आप पृथ्वीपर अवतार लेकर दुष्ट राजाओंको मारकर पृथ्वीका भार उतार दीजिये ।। 31-32 ॥
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हे सुव्रत। वे हितकारिणी भगवती सर्वप्रथम स्वेच्छापूर्वक जैसा करना चाहती हैं, वैसा ही करती हैं। हमलोग भी सदा उनके ही अधीन रहते हैं ॥ 35 ॥
अब आपलोग स्वयं अपनी बुद्धिसे विचार करें कि यदि मैं स्वतन्त्र होता तो महासमुद्रमें मत्स्य और कच्छपरूपधारी क्यों बनता ? तिर्यक्-योनियोंमें कौन सा भोग प्राप्त होता है, क्या यश मिलता है. कौन-सा सुख होता है और कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है? [इस प्रकार ] क्षुद्रयोनियोंमें जन्म क्षुद्रयोनियोंमें जन्म लेनेवाले मुझ विष्णु को क्या फल मिला ? ॥ 36-37 ॥
यदि मैं स्वतन्त्र होता तो सूकर, नृसिंह और वामन क्यों बनता? इसी प्रकार हे पितामह! मैं जमदग्निपुत्र (परशुराम) के रूपमें उत्पन्न क्यों होता ? इस भूतलपर मैं [ क्षत्रियोंके संहार जैसा] नृशंस कर्म क्यों करता और उनके रुधिरसे समस्त सरोवरोंको क्यों भर डालता ?
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उस समय मैं जमदग्निपुत्र परशुरामके रूपमें जन्म | लेकर एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी युद्धमें क्षत्रियोंका संहार क्यों करता और घोर निर्दयी बनकर गर्भस्थ शिशुओं तक को भला क्यों भारता ? ॥ 38-40 ॥
हे देवेन्द्र! राम का अवतार लेकर मुझे दण्डकवन में पैदल विचरण करना पड़ा, गेरुआ वस्त्र धारण करना पड़ा और जटा वल्कल धारी बनना पड़ा। उस निर्जन वनमें असहाय रहते हुए तथा पास में बिना किसी भोज्य सामग्री के ही निर्लज्ज होकर आखेट करते हुए मैं इधर-उधर भटकता रहा ।। 41-42 ।
उस समय माया से आच्छादित रहनेके कारण मैं उस मायावी स्वर्ण-मृगको नहीं पहचान सका और जानकीको पर्णकुटीमें छोड़कर उस मृगके पीछे
पीछे निकल पड़ा ॥ 43 ॥
मेरे बहुत मना करनेपर भी प्राकृत गुणोंसे व्यामुग्ध होनेके कारण लक्ष्मण भी उस सीताको छोड़कर मेरे पदचिह्नोंका अनुसरण करते हुए वहाँसे निकल पड़े ॥ 44 ॥
तदनन्तर कपटस्वभाव राक्षस रावणने भिक्षुकका रूप धारण करके शोकसे व्याकुल जानकीका तत्काल हरण कर लिया 45 ॥
तब दुःखसे व्याकुल होकर मैं वन-वन भटकता हुआ रोता रहा और अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये मैंने सुग्रीवसे मित्रता की। मैंने अन्यायपूर्वक वालीका वध किया तथा उसे शापसे मुक्ति दिलायी और इसके बाद वानरोंको अपना सहायक बनाकर लंकाकी ओर प्रस्थान किया 46-47 ॥
इसी प्रकार क्या शेषनाग भी आपकी शक्ति के बिना पृथ्वी को धारण कर सकने में समर्थ हैं ? ॥ 18 ॥
मेरे अवतार लेने से पूर्व देवताओंके प्रजापति कश्यप अपनी पत्नीके साथ यदुकुलमें वसुदेव नामसे अवतीर्ण होंगे।
उसी प्रकार भृगुके शापसे अविनाशी भगवान् विष्णु अपने अंशसे वहीं पर वसुदेव के पुत्रके रूपमें उत्पन्न होंगे ॥ 32-33 ॥
देवी भागवत चतुर्थ स्कन्ध) अध्याय 32-
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विष्णु सहस्रनाम में नहुष भी विष्णु का रूप है।
इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ॥ ४७ ॥
हे विष्णु आप पूर्वकाल में राजा नहुष होकर प्रकट हुए थे।
दानवांस्तु वशे कृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागतः। सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नमः।। | 12-46-107a 12-46-107b |
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहनः। धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नमः।। | 12-46-108a 12-46-108b |
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुतिविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
गायों की उत्पत्ति कथा - माहाभारत-
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-118
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति विस्तरेण गवोत्पत्तिप्रकारकथनम्।1।
महाभारतम्/अनुशासनपर्व
`युधिष्ठिर उवाच।
सुरभेः काः प्रजाः पूर्वं मार्ताण्डादभवन्पुरा।
एतन्मे शंस तत्वेनि गोषु मे प्रीयते मनः।1।
"भीष्म उवाच।
शृणु नामानि दिव्यानि गोमातॄणां विशेषतः।
याभिर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः कल्याणीभिर्जनाधिप।2।
सुरभ्यः प्रथमोद्भूता याश्च स्युः प्रथमाः प्रजाः।
मयोच्यमानाः शृणु ताः प्राप्स्यसे विपुलं यशः।3।
तप्त्वा तपो घोरतपाः सुरभिर्दिप्ततेजसः।
सुषावैकादश सुतान्रुद्रा ये च्छन्दसि स्तुताः।4।
अजैकपादहिर्बुध्न्यस्त्र्यम्बकश्च महायशाः।
वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपाली रैवतस्तथा।।5।
हरश्च बहुरूपश्च उग्र उग्रोऽथ वीर्यवान्।
तस्य चैवात्मजः श्रीमान्विश्वरूपो महायशाः।6।
एकादशैते कथिता रुद्रास्ते नाम नामतः।
महात्मानो महायोगास्तेजोयुक्ता महाबलाः।7।
एते वरिष्ठजन्मानो देवानां ब्रह्मवादिनाम्।
विप्राणां प्रकृतिर्लोके एत एव हि विश्रुताः।8।
एत एकादश प्रोक्ता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः।
शतं त्वेतत्समाख्यातं शतरुद्रं महात्मनाम्।9।
सुषुवे प्रथमां कन्यां सुरभिः पृथिवीं तदा।
विश्वकामदुघा धेनुर्या धारयति देहिनः।10।
उपर्युक्त महाभारत का श्लोक पूर्णत: वैदिक सिद्धान्तों ते विपरीत होने से प्रक्षिप्त है।
क्योंकि -
समाधान:- एक वैदिक श्रोता ऋषि से प्रश्न किया " यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ? मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादा उच्येते ?
(ऋग्वेद▪10/90/11 )जिस पुरुष का विधान किया गया ? उसका कितने प्रकार विकल्पन( रचना) की गयी अर्थात् प्रजापति द्वारा जिस समय पुरुष विभक्त हुए तो उनको कितने भागों में विभक्त किया गया, इनके मुख ,बाहू उरु और चरण क्या कहे गये ? तो ऋषि ने इस प्रकार 👇 उत्तर दिया
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य:कृत: उरू तदस्य यदवैश्य: पद्भ्यां शूद्रोऽजायत|।
ऋग्वेद -10/90/11-12》
उत्तर–इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण जाति भुजा से क्षत्रिय जाति,और वैश्य जाति ऊरु से तथा शूद्र जाति दौनों पैरों से उत्पन्न हुई।
पुरुष सूक्त में जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण है ।
इस लिए यहाँ कल्पना शब्द से उत्पत्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाऐगा नकि अलंकार की कल्पना का अर्थ । क्योंकि अन्यत्र भी अकल्पयत् क्रियापद रचना करने के अर्थ में है।
"सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" ऋग्वेद- १०/ १९१/३ अर्थात् सूर्य चन्द्र विधाता ने पूर्व रचना में बनाए थे वैसे ही अन्य इस रचना में बनाए हैं । सृष्टि उत्पत्ति के विषय में कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में वर्णन है कि
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प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत ।
तमग्निर्देवान्लवसृजत गायत्रीछन्दो रथन्तरं साम ।
ब्राह्मणोमनुष्याणाम् अज: पशुनां तस्मात्ते मुख्या मुखतो। ह्यसृज्यन्तोरसो बाहूभ्यां पञ्चदशं निरमिमीत ।।
तमिन्द्रो देवतान्वसृज्यतत्रष्टुपछन्दो बृहत् साम राजन्यो मनुष्याणाम् अवि: पशुनां तस्मात्ते वीर्यावन्तो वीर्याध्यसृज्यन्त ।।
मध्यत: सप्तदशं निरमिमीत तं विश्वे देवा देवता अनवसृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपं साम वैश्यो मनुष्याणां गाव: पशुनां तस्मात्त आद्या अन्नधानाध्यसृज्यन्त तस्माद्भूयां सोन्योभूयिष्ठा हि देवता। अन्वसृज्यन्तपत्त एकविंशं निरमिमीत तमनुष्टुप्छन्द: अन्वसृज्यत वैराजे साम शूद्रो मनुष्याणां अश्व: पशुनां तस्मात्तौ भूतसंक्रमिणावश्वश्च शूद्रश्च तसमाच्छूद्रो । यज्ञेनावक्ऌप्तो नहि देवता अन्वसृज्यत तस्मात् पादावुपजीवत: पत्तो ह्यसृज्यताम्।।
(तैत्तिरीयसंहिता--७/१/४/९/)।👇
तैत्तिरीयसंहिता काण्ड 7 प्रपाठकः 1अनुवाक- 4-5-6
(4) प्रजापतिर् वाव ज्येष्ठः स ह्य् एतेनाग्रे ऽयजत प्रजापतिर् अकामयत प्र जायेयेति स मुखतस् त्रिवृतं निर् अमिमीत तम् अग्निर् देवतान्व् असृज्यत गायत्री छन्दो रथंतरꣳ साम ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम् । तस्मात् ते मुख्याः । मुखतो ह्य् असृज्यन्त । उरसो बाहुभ्याम् पञ्चदशं निर् अमिमीत तम् इन्द्रो देवतान्व् असृज्यत त्रिष्टुप् छन्दो बृहत्
(5) साम राजन्यो मनुष्याणाम् अविः पशूनाम् । तस्मात् ते वीर्यावन्तः । वीर्याद् ध्य् असृज्यन्त मध्यतः सप्तदशं निर् अमिमीत तं विश्वे देवा देवता अन्व् असृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपꣳ साम
वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् । तस्मात् त आद्याः । अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त तस्माद् भूयाꣳसो ऽन्येभ्यः । भूयिष्ठा हि देवता अन्व् असृज्यन्त पत्त एकविꣳशं निर् अमिमीत तम् अनुष्टुप् छन्दः
(6)अन्व् असृज्यत वैराजꣳ साम शूद्रो मनुष्याणाम् अश्वः पशूनाम् । तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः । न हि देवता अन्व् असृज्यत तस्मात् पादाव् उप जीवतः पत्तो ह्य् असृज्येताम् प्राणा वै त्रिवृत् । अर्धमासाः पञ्चदशः प्रजापतिः सप्तदशस् त्रय इमे लोकाः । असाव् आदित्य एकविꣳशः । एतस्मिन् वा एते श्रिता एतस्मिन् प्रतिष्ठिताः । य एवं वेदैतस्मिन्न् एव श्रयत एतस्मिन् प्रति तिष्ठति॥____________________________________
अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं ।
( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए ।
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हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ। (भेढ़ क्षत्रियों की सजातीय है। इन्हें भेढ़ पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए। इसी लिए मेढ्र ( सिंचन करने वाला / गर्भाधान करने वाला ) कहा जाता है मेढ़े को । मेढ्रः, पुल्लिंग (मेहत्यनेनेति । मिह सेचने + “दाम्नी- शसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः करणे ।”३।२।१८२। इति ष्ट्रन् ) =शिश्नः । (यथा, मनौ । ८ । २८२ । “अवमूत्रयतो मेढ्रमवशर्द्धयतो गुदम् ।) स तु गर्भस्थस्य सप्तभिर्मासैर्भवति । इति सुख- बोधः ॥
मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये। उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य और पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए।
इनकी संख्या बहुत है ।
कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए।
उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।
पीछे अनुष्टुप छन्द, वैराज, साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए । यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है । क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ। प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण "अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए।
ब्राह्मण बकरे के सजातीय और वैश्य गाय के सजातीय क्षत्रिय भेड़े (मेढ़ा)के तथा शूद्र घोड़े के सजातीय है । अब बताओ सबसे श्रेष्ठ पशु कौन सा है ?
छन्द 4
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प्रजापतिर् वाव ज्येष्ठः
स ह्य् एतेनाग्रे ऽयजत
प्रजापतिर् अकामयत
प्र जायेयेति
स मुखतस् त्रिवृतं निर् अमिमीत
तम् अग्निर् देवतान्व् असृज्यत गायत्री छन्दो रथंतर म्साम ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम्
तस्मात् ते मुख्याः ।
मुखतो ह्य् असृज्यन्त ।
उरसो बाहुभ्याम् पञ्चदशं निर् अमिमीत
तम् इन्द्रो देवतान्व् असृज्यत त्रिष्टुप् छन्दो बृहत्
कृष्ण यजुर्वेद ७/१/१/ में भी इस वैदिक उत्पत्ति का वर्णन है।
छन्द 5-
साम राजन्यो मनुष्याणाम् अविः पशूनाम् ।
तस्मात् ते वीर्यावन्तः ।
वीर्याद् ध्य् असृज्यन्त
मध्यतः सप्तदशं निर् अमिमीत
तं विश्वे देवा देवता अन्व् असृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपम्साम वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् ।
तस्मात् त आद्याः ।
अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त
तस्माद् भूयाम्सोम ऽन्येभ्यः ।
भूयिष्ठा हि देवता अन्व् असृज्यन्त
पत्त एकविंश निर् अमिमीत
तम् अनुष्टुप् छन्दः
छन्द-6-
अन्व् असृज्यत वैराजम् साम शूद्रो मनुष्याणाम्
अश्वः पशूनाम् ।
तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च
तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः ।
न हि देवता अन्व् असृज्यत
तस्मात् पादाव् उप जीवतः
पत्तो ह्य् असृज्येताम्
प्राणा वै त्रिवृत् ।
अर्धमासाः पञ्चदशः
प्रजापतिः सप्तदशस्
त्रय इमे लोकाः ।
असाव् आदित्य एकविंशः ।
एतस्मिन् वा एते श्रिता एतस्मिन् प्रतिष्ठिताः ।
य एवं वेदैतस्मिन्न् एव श्रयत एतस्मिन् प्रति तिष्ठति।
तैत्तिरीय संहिता ७.१.१.४ में उल्लेख आता है कि प्रजापति के मुख से अजा ( बकरी)उत्पन्न हुई, उर से अवि (भेड़), उदर से गौ तथा पैर से अश्व । अज गायत्र है । जैमिनीय ब्राह्मण १.६८ में यह उल्लेख थोडे भिन्न रूप में मिलता है । वहां उर से अश्व की उत्पत्ति और पद से अवि की उत्पत्ति का उल्लेख है जो कि प्रक्षेप ही है। प्रश्न उठता है कि मुख से अजा उत्पन्न होने का क्या निहितार्थ हो सकता है ? जैसा कि गौ शब्द की टिप्पणी में छान्दोग्य उपनिषद २.१०-२.२० के आधार पर कहा गया है, अज अवस्था सूर्य के उदित होने से पहले की, तप की अवस्था हो सकती है । अवि अवस्था सूर्य उदय के समय की अवस्था है, गौ अवस्था मध्याह्न काल की अवस्था है जब पृथिवी सूर्य की ऊर्जा को अधिकतम रूप में ग्रहण करने में सक्षम होती है । अपराह्न काल की अवस्था अश्व की और सूर्यास्त की अवस्था पुरुष की अवस्था होती है । सामों की भक्तियों के संदर्भ में अज को हिंकार, अवि को प्रस्ताव, गौ को उद्गीथ, अश्व को प्रतिहार और पुरुष को निधन कह सकते हैं( रैवत पृष्ठ्य साम के संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद २.१८ ) ।
शतपथ ब्राह्मण ४.५.५.२ में अजा आदि पशुओं के लिए पात्रों का निर्धारण किया गया है । अजा उपांशु पात्र के अनुदिश उत्पन्न होती हैं, अवि अन्तर्याम पात्र के, गौ आग्रयण, उक्थ्य व आदित्य पात्रों के, अश्व आदि एकशफ पशु ऋतु पात्र के और मनुष्य शुक्र पात्र के अनुदिश उत्पन्न होते हैं । अजा के उपांशु पात्र से सम्बन्ध को इस प्रकार उचित ठहराया गया है कि यज्ञ में प्राण उपांशु होते हैं( शतपथ ब्राह्मण ४.१.१.१), बिना शरीर के, तिर: प्रकार के होते हैं( ऐतरेय आरण्यक २.३.६) । अतः इन पात्रों को उपांशु या चुपचाप रहकर ग्रहण किया जाता है । इस कथन को अजा के इस गुण के आधार पर समझा जा सकता है कि अजा के तप से शरीर के अविकसित अङ्गों का, ज्ञानेन्द्रियों का क्रमशः विकास होता है । मुख तक विकास होने पर ही वह व्यक्त हो पाते हैं । कहा गया है कि अजा की प्रवृति ऊपर की ओर मुख करके गमन करने की होती है जबकि अवि की नीचे की ओर, भूमि का खनन करते हुए चलने जैसी । अवि के साथ अन्तर्याम पात्र सम्बद्ध करने का न्याय यह है कि उदान अन्तरात्मा है जिसके द्वारा यह प्रजाएं नियन्त्रित होती हैं, यमित होती हैं । अतः इस पात्र का नाम अन्तर्याम है ( शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.२)
यह अवि के नीचा मुख करके चलने की व्याख्या भी हो सकती है क्योंकि उदान अधोमुखी होने पर ही प्रजाओं का नियन्त्रण हो पाता है । मनुष्य के शुक्र पात्र के संदर्भ में शुक्र श्वेत ज्योति को कहते हैं । अश्व और गौ के संदर्भ में पात्रों की प्रकृति के निहितार्थ अन्वेषणीय हैं ।
परन्तु ब्राह्मण गाय पाले तों उनके लिए हेय ही है क्यों की गाय ब्रह्मा के उदर से ही उत्पन्न हुई थी
और बकरी (अजा) ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण के साथ उनके यज्ञों के साधन रूप में उत्पन्न हुई स्वयं अग्नि देव ने अज( बकरे ) को अपना वाहन स्वीकार किया।
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अब ऋग्वेद में मनुष्यों की उत्पत्ति विराट पुरुष के इन अंगों से हुई।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः॥
(ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)
(ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ) अर्थात ब्राह्मण इस विराट पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए। बाहों से क्षत्रिय ,उरू से वैश्य और दौनों पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ।
यदि दूसरे शब्दों के अनुसार कहे तो इस ऋचा का अर्थ इस प्रकार समझा जा सकता है। सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्म के मुख से ब्राह्मण हुए, बाहु क्षत्रिय का कारण बने, उसकी जंघाएं वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
वर्ण-व्यवस्था मानने वाले ब्राह्मण लोग वैदिक
विधानों के अनुसार गाय के स्थान पर बकरी ही पालें यही वेदों का विधान है। क्यों गाय वैश्य वर्ण के साथ ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुई।
अत: गाय को वैश्य से सम्बन्धित कर दिया गया -
जैसा कि पुराणों तथा वेदों का कथन है । पुराण भी वेदों के ही लौकिक व्याख्याता हैं ।
पुराणों में और वेदान्त ग्रन्थों (तैत्तिरीय संहिता, सतपथ ब्राह्मण आदि) में वर्णन है कि -
सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा ने अपने मुख से बकरियाँ उत्पन्न कीं और वक्ष से भेड़ों को तथा उदर से गायों को उत्पन्न किया तथा पैरों से घोड़ा उत्पन्न हुआ था ।
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ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने को कारण ही बकरियाँ पशुओं में मुख्य =(मुख+यत्) मुख से उत्पन्न हैं । मुख्य शब्द मुख से व्युत्पन्न तद्धितान्त पद है जो अब श्रेष्ठ अर्थ का सूचक है।
"मुखे आदौ भवः यत् प्रथमकल्पे अमरःकोश -श्रेष्ठे च ।
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श्रीविष्णुधर्मोत्तर पुराण प्रथमखण्ड ग्रहर्क्षादिसंभवाध्यायो नाम107वाँ अध्याय ।। देखें नीचे ये दो श्लोक-
मुखतोऽजाःसृजन्सो वै वक्षसश्चावयोऽसृजत्।
गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पुनरन्याँश्च निर्ममे।३०।
उस जगत्सृष्टा ब्रह्मा ने मुख से अजा (बकरी) और वक्ष से अवि( भेड़) उत्पन्न की और गायें को उस ब्रह्मा ने उदर से पैदा किया और पुन: भी ये इसी प्रकार उत्पन्न हुए।३०।
पादतोऽश्वांस्तुरङ्गांश्च रासभान्गवयान्मृगान् ।
उष्ट्रांश्चैव वराहांश्च श्वानानन्यांश्च जातयः।३१।
पैरों से अश्व और तुरंग ,रासभ ,गवय ,मृग, ऊँट वराह ( सूकर) ,कुत्ता ,और अन्य अन्य जो जाति के जीव है वे उत्पन्न किए।३१।
अष्टास्वेतासु सृष्टासु देवयोनिषु स प्रभुः ।
छन्दतश्चैवछन्दासि वयांसि वयसासृजत्।४२।
पक्षिणस्तु स सृष्ट्वा वै ततःपशुगणान्सृजन् ।
मुखतोऽजाऽसृजन्सोऽथ वक्षसश्चाप्यवीःसृजन् ४३।
गावश्चैवोदराद्ब्रह्मा पार्श्वाभ्यां च विनिर्ममे ।
पादतोऽश्वान्समातङ्गान् रासभान्गवयान्मृगान्।४४।
अनुवाद:- 42. इन आठ दिव्य प्राणियों को बनाने के बाद, उस सृष्टा ने इच्छा करते हुए *छन्दों का सृजन किया । उन्होंने अपनी वयस् (बल - यौवन ) के माध्यम से पक्षियों का निर्माण किया।
विशेष:- छन्द:-छदि+अच्-संवरणे धातोरनेकार्थत्वात् इह इच्छायाम् अच् अभिलाषे,
43. पक्षियों को बनाने के बाद उसने पशुओं के समूह बनाए। उसने अपने मुँह से बकरियाँ और अपनी छाती से भेड़ें पैदा कीं।
44-45 ब्रह्मा ने अपने उदर(पेट)से गायों और पैरों से घोड़ों, गदहों, गवयों (नील गाय की एक प्रजाति), हिरण, ऊँट, सूअर और कुत्तों के साथ-साथ हाथियों को भी पैरों से पैदा किया। ब्रह्मा द्वारा जानवरों की अन्य प्रजातियाँ भी बनाई गईं।
श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते पूर्वभागे द्वितीयेऽनुषङ्गपादे मानससृष्टिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः
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और उस विराट ने दोनों पैरों से घोड़े और तुरंगो, गदहों और नील गाय तथा ऊँटों को उत्पन्न किया और भी इसी प्रकार सूकर(वराह),कुत्ता जैसी अन्य जानवरों की जातियाँ उत्पन्न की ।
विस्तृत जानकारी के लिए देखें निम्न बेबसाइटलॉग लिंक-
http://vivkshablogspot.blogspot.com/2021/08/blog-post_15.html?m=1
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सृष्ट्वा तु प्रथमं रुद्रान्वरदान्रुद्रसम्भवान्।
पश्चात्प्रभुं ग्रहपतिं सुषुवे लोकसम्मतम्।12।
सोमराजानममृतं यज्ञसर्वस्वमुत्तमम्।
ओषधीनां रसानां च देवानां जीवितस्य च।।-13।
ततः श्रियं च मेधां च कीर्तिं देवीं सरस्वतीम्।
चतस्रः सुषुवे कन्या योगेषु नियताः स्तिताः।14।
एताः सृष्ट्वा प्रजा एषा सुरभिः कामरूपिणी।
सुषुवे परमं भूयो दिव्या गोमातरः शुभाः।15।
पुण्यां मायां मधुश्च्योतां शिवां शीघ्रां सरिद्वराम्।
हिरण्यवर्णां सुभगां गव्यां पृश्नीं कुथावतीम्।16।
अङ्गावतीं घृतवतीं दधिक्षीरपयोवतीम्।
अमोघां सुरमां सत्यां रेवतीं मारुतीं रसाम्।17।
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अजां च सिकतां चैव शुद्धधूमामधारिणीम्।
जीवां प्राणवतीं धन्यां शुद्धां धेनुं धनावहाम्।18।
इन्द्रामृद्धिं च शान्ति च शान्तपापां सरिद्वराम्।
चत्वारिंशतिमेकां च धन्यास्ता दिवि पूजिताः।19।
भूयो जज्ञे सुरभ्याश्च श्रीमांश्चन्द्रांशुसप्रभः।
वृपो दक्ष इति ख्यातः कण्ढे मणितलप्रभः।20।
स्रग्वी ककुद्मान्द्युतिमान्मृणालसदृशप्रभः।
सुरभ्यनुमते दत्तो ध्वजो माहेशअवरस्तु सः।21।
सुरभ्यः कामरूपिण्यो गावः पुण्यार्थमुत्कटाः।
आदित्येभ्यो वसुभ्यश्च विश्वेभ्यश्च ददौ वरान्।।22।
सुरभिस्तु तपस्तप्त्वा सुषुवे गास्ततः पुनः।
या दत्ता लोकपालानामिन्द्रादीनां युधिष्ठिर।।23।
सुष्टुनां कपिलां चैव रोहिणीं च यशस्विनीम्।
सर्वकामदुघां चैव मरुतां कामरूपिणीम्।।24।
गावो मृष्टदुघा ह्येतास्ताश्चतस्रोऽत्र संस्तुताः।
यासां भूत्वा पुरा वत्साः पिबन्त्यमृतमुत्तमम्।25।
सुष्टुतां देवराजाय वासवाय महात्मने।
कपिलां धर्मराजाय वरुणाय च रोहिणीम्।26।
सर्वकामदुघां धेनुं राज्ञे वैश्रवणाय च।
इत्येता लोकमहिता विश्रुताः सुरभेः प्रजाः।27।
एतासां प्रजया पूर्णा पृथिवी मुनिपुङ्गवः।
गोभ्यः प्रभवते सर्वं यत्किंचिदिह शोभनम्।28।
सुरभ्यपत्यमित्येतन्नामतस्तेऽनुपूर्वशः।
कीर्तितं ब्रूहि राजेन्द्र किं भूयः कथयामि ते'।29।
"इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः।। (118)
कृष्णधर्मस्त्वमेवादिर्वृषदर्भो वृषाकपिः।
सिन्धुर्विधूर्मिस्त्रिककुप् त्रिधामा त्रिवृदच्युतः।।१०।
सम्राड् विराट् स्वराट् चैव स्वराड्भूतमयो भवः।
विभूर्भूरतिभूः कृष्णः कृष्णवर्त्मा त्वमेव च।।११।
स्विष्टकृद्भिषजावर्तः कपिलस्त्वं च वामनः।
यज्ञो ध्रुवः पतङ्गश्च जयत्सेनस्त्वमुच्यसे।।१२।
शिखण्डी नहुषो बभ्रुर्दिविस्पृक् त्वं पुनर्वसुः।
सुबभ्रू रुक्मयज्ञश्च सुषेणो दुन्दुभिस्तथा।।१३।
गभस्तिनेमिः श्रीपझः पुष्करः शुष्मधारणः।
ऋभुर्विभुः सर्वसूक्ष्मस्त्व धरित्री च पठ्यसे।।१४।
अम्भोनिधिस्त्वं ब्रह्मा त्वं पवित्रं धाम धामवित्।
हिरण्यगर्भः पुरुषः स्वधा स्वाहा च केशवः।।१५।
योनिस्त्वमस्य प्रलयश्च कृष्ण
त्वमेवेदं सृजसि विश्वमग्रे।
विश्वं चेदं त्वद्वशे विश्वयोने
नमोस्तु ते शार्ङ्गचक्रासिपाणे।।१६।
वैशंपायन उवाच।
एवं स्तुतो धर्मराजेन कृष्णः
सभामध्ये प्रीतिमान्पुष्कराक्षः।
तमभ्यनन्दद्भारतं पुष्कलाभि
र्वाग्भिर्ज्येष्ठं पाण्डवं यादवाग्र्यः।। १७।
`एतन्नामशतं विष्णोर्धर्मराजेन कीर्तितम्।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।।'१८।
"इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
राजधर्मपर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।।
ब्राह्मण वाद का काल्पनिक सिद्धान्त -
अष्टादशाधिकशततम (118) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-24 का हिन्दी अनुवाद
प्रतिदिन रात के पिछले पहरों में सूत, मागध और बन्दीजन मेरी स्तुति करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे देवता प्रिय वचन बोलकर महेन्द्र के गुण गाते हैं। आप सत्यप्रतिज्ञ हैं, अमित तेजस्वी हैं, आपके प्रसाद से ही आज मैं कीड़े से राजपूत हो गया हूँ। महाप्रज्ञ! आपको नमस्कार है, मुझे आज्ञा दीजिये। मैं आपकी क्या सेवा करूँ; आपके तपोबल से ही मुझे राजपद प्राप्त हुआ है।
व्यास जी ने कहा- राजन! आज तुमने अपनी वाणी से मेरा भलीभाँति स्तवन किया है। अभी तक तुम्हें अपनी कीट योनि की घृणित स्मृति अर्थात मांस खाने की वृत्ति बनी हुई है। तुमने पूर्वजन्म में अर्थपरायण, नृशंस और आततायी शूद्र होकर जो पाप संचय किया था, उसका सर्वदा नाश नहीं हुआ है।
कीट-योनि में जन्म लेकर भी जो तुमने मेरा दर्शन किया, उसी पुण्य का यह फल है कि तुम राजपूत हुए और आज तो तुमने मेरी पूजा की, इसके फलस्वरूप तुम इस क्षत्रिय योनि के पश्चात ब्राह्मणत्व को प्राप्त करोगे।
राजकुमार! तुम नाना प्रकार के सुख भोगकर अन्त में गौ और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये संग्राम भूमि में अपने प्राणों की आहुति दोगे। तदनन्तर ब्राह्मण रूप में पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करके स्वर्ग सुख का उपभोग करोगे। तत्पश्चात अविनाशी ब्रह्मस्वरूप होकर अक्षय आनन्द का अनुभव करोगे।
तिर्यग योनि मेें पड़ा हुआ जीव जब ऊपर की ओर उठता है, तब वहाँ से पहले शूद्र-भाव को प्राप्त होता है। शूद्र वैश्य योनि को, वैश्य क्षत्रिय योनि को और सदाचार से सुशोभित क्षत्रिय ब्राह्मण योनि को प्राप्त होता है। फिर सदाचारी ब्राह्मण पुण्यमय स्वर्गलोक को जाता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में कीड़े का उपाख्यान विषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
ब्राह्मणत्व के तीन कारण माने गये हैं- 'तपस्या', 'शास्त्रज्ञान' और 'विशुद्ध ब्राह्मण कुल में जन्म'। जो इन तीनों गुणों से सम्पन्न है, वही सच्चा ब्राह्मण है।
ऐसे ब्राह्मण के तृप्त होने पर देवता और पितर भी तृप्त हो जाते हैं। विद्वानों के लिये ब्राह्मण से बढ़कर दूसरा कोई मान्य नहीं है।
यदि ब्राह्मण न हो तो यह सारा जगत अज्ञानान्धकार से आच्छन्न हो जाये।
किसी को कुछ सूझ न पड़े तथा चारों वर्णों की स्थिति, धर्म-अधर्म और सत्यासत्य कुछ भी न रह जाये।
जैसे मनुष्य अच्छी तरह जोतकर तैयार किये हुए खेत में बीज डालने पर उसका फल पाता है, उसी प्रकार विद्वान ब्राह्मण को दान देकर दाता निश्चय ही उसके फल का भागी होता है।
यदि विद्या और सदाचार से सम्पन्न ब्राह्मण जो दान लेने का प्रधान अधिकारी है, धन न पा सके तो धनियों का धन व्यर्थ हो जाये।
मूर्ख मनुष्य यदि किसी का अन्न खाता है तो वह उस अन्न को नष्ट करता है (अर्थात् कर्ता को उसका कुछ फल नहीं मिलता)।
इसी प्रकार वह अन्न भी उस मूर्ख को नष्ट कर डालता है। जो सुपात्र होने के कारण अन्न और दाता की रक्षा करता है, उसकी भी वही अन्न रक्षा करता है।
जो मूर्ख दान के फल का हनन करता है, वह स्वयं भी मारा जाता है।
प्रभाव और शक्ति से सम्पन्न विद्वान ब्राह्मण यदि अन्न भोजन करता है तो वह पुनः अन्न का उत्पादन करता है, किंतु वह स्वयं अन्न से उत्पन्न होता है, इसलिये यह व्यतिक्रम सूक्ष्म (दुर्विज्ञेय) है अर्थात यद्यपि वृष्टि से अन्न की और अन्न से प्रजा की उत्पत्ति होती है;
किंतु यह प्रजा (विद्वान ब्राह्मण) से अन्न की उत्पत्ति का विषय दुर्विज्ञेय है।
📚: व्यास उवाच।
शुभेन कर्मणा यद्वै तिर्यग्योनौ न मुह्यसे।
ममैव कीट तत्कर्म येन त्वं न प्रमुह्यसे।1।
अहं त्वां दर्शनादेव तारयामि तपोबलात्।
तपोबलाद्धि बलवद्बलमन्यन्न विद्यते।2।
जानामि पापैः स्वकृतैर्गतं त्वां कीट कीटताम्।
अवाप्स्य्सि परं र्धर्मं मानुष्ये यदि मन्यसे।3।
कर्मभूमिकृतं देवा भुञ्जते तिर्यगाश्च ये।
धन्या अपि मनुष्येषु कामार्थाश्च यथा गुणाः।4।
वाग्बुद्धिपाणिपादैश्च समुपेता विपश्चितः।
किमायाति मनुष्यस्य मन्दस्यार्थस्य जीवतः।5।
दैवे यः कुरुते पूजां विप्राग्निशशिसूर्ययोः।
ब्रुवन्नपि कथां पुण्यां तत्र कीट त्वमेष्यसि।6।
गुणभूतानि भूतानि तत्र त्वमुपभोक्ष्यसे।
क्रमात्तेऽहं विनेष्यामि ब्रह्मत्वं यदि चेच्छसि।7।
भीष्म उवाच।
स तथेति प्रतिश्रुत्य कीटः समवतिष्ठत।।
*तमृषिं द्रष्टुमगमत्सर्वास्वन्यासु योनिषु।8।
श्वाविद्गोधावराहाणां तथैव मृगपक्षिणाम्।
श्वपाकशूद्रवैश्यानां क्षत्रियाणां च योनिषु।।9।
स कीटे एवमाख्यातमृषिणा सत्यवादिना।
प्रतिस्मृत्याथ जग्राह पादौ मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।10।
कीट उवाच।
इदं तदतुलं स्थानमीप्सितं दशभिर्गुणैः।
यदहं प्राप्य कीटत्वमागतो राजपुत्रताम्।11।
वहन्ति मामतिबलाः कुञ्जरा हेममालिनः।
स्यन्दनेषु च काम्भोजा युक्ताःसमरवाजिनः।12।
उष्ट्राश्वतरयुक्तानि यानानि च वहन्ति माम्।
सबान्धवः सहामात्यश्चाश्नामि पिशिताशनम्।13।
गृहेषु स्वनिवासेषु सुखेषु शयनेषु च।
वरार्हेषु महाभाग स्वपामि च सुपूजितः।14।
सर्वेष्वपररात्रेषु सूतमागधबन्दिनः।
स्तुवन्ति मां यथा देवा महेन्द्रं प्रियवादिनः।15।
प्रसादात्सत्यसन्धस्य भवतोऽमिततेजसः।
यदहं कीटतां प्राप्य स्मृतिजाता जुगुप्सिताम्।
ननु नाशोस्ति पापस्य यन्मयोपचितं पुरा।16।
[नमस्तेऽस्तु महाप्राज्ञ किं करोमि प्रशाधि माम्।
त्वत्तपोबलनिर्दिष्टमिदं ह्यधिगतं मया।17।
व्यास उवाच।
[अर्चितोऽहं त्वया राजन्वाग्भिरद्य यदृच्छया।
अद्य ते कीटतां प्राप्य स्मृतिर्जाताजुगुप्सिताम्]।।18।
शूद्रेणार्थप्रधानेन नृशंसेनाततायिना।
ममैतद्दर्शनं प्राप्तं तच्च वै सुकृतं पुरा।
तिर्यग्योनौ स्म जातेन मम चाभ्यर्चनात्तथा।19।
व्यास उवाच।
[अर्चितोऽहं त्वया राजन्वाग्भिरद्य यदृच्छया।
अद्य ते कीटतां प्राप्य स्मृतिर्जाताजुगुप्सिताम्]।20।
शूद्रेणार्थप्रधानेन नृशंसेनाततायिना।
ममैतद्दर्शनं प्राप्तं तच्च वै सुकृतं पुरा।
तिर्यग्योनौ स्म जातेन मम चाभ्यर्चनात्तथा।21।
इतस्त्वं राजपुत्रत्वाद्ब्राह्मण्यं समवाप्स्यसि।
गोब्राह्मणकृते प्राणान्हित्वाऽऽत्मीयान्रणाजिरे।।22।
भीष्म उवाच।
राजपुत्रः सुखं प्राप्य ईजे चैवाप्तदक्षिणैः।
अथ चोद्दीप्यत स्वर्गे प्रभूतोप्यव्ययः सुखी।।23।
तिर्यग्योन्याः शूद्रतामभ्यपैति
शूद्रो वैश्यं क्षत्रियत्वं च वैश्यः।
वृत्तश्लाघी क्षत्रियो ब्राह्मणत्वं
स्वर्गं पुण्याद्ब्राह्मणः साधुवृत्तः।।24।
" इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 180 ।।
(महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-116)
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गवां तपःप्रसन्नाद्ब्रह्मणः शृङ्गप्राप्त्यादिकथनम्।। 1 ।।
तथा गोदानप्राप्यपुण्यलोकवर्णनम्।। 2 ।।
महाभारतम्/अनुशासनपर्व-
युधिष्ठिर उवाच। 13-116-1x
पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत्।
पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।। 13-116-1a
13-116-1b
भीष्म उवाच। 13-116-2x
गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्।
धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।। 13-116-2a
13-116-2b
न हि पुण्यतमं किञ्चिद्गोभ्यो भरतसत्तम।
एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः।। 13-116-3a
13-116-3b
देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै।
दत्त्वा चैतास्तारयते यान्ति स्वर्गं मनीषिणः।। 13-116-4a
13-116-4b
मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।। 13-116-5a
13-116-5b
गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।। 13-116-6a
13-116-6b
ऋषीणामुत्तमं धीमान्कृष्णद्वैपायनं शुकः।
अभिवाद्याह्निकं कृत्वा शुचिः प्रयतमानसः।। 13-116-7a
13-116-7b
पितरं परिपप्रच्छ दृष्टलोकपरावरम्।
को यज्ञः सर्वयज्ञानां वरिष्ठोऽभ्युपलक्ष्यते।। 13-116-8a
13-116-8b
किञ्च कृत्वा परं स्थानं प्राप्नुवन्ति मनीषिणः।
केन देवाः पवित्रेण स्वर्गमश्नन्ति वा विभो।। 13-116-9a
13-116-9b
किञ्च यज्ञस्य यज्ञत्वं क्व च यज्ञः प्रतिष्ठितः।
दानानामुत्तमं किञ्च किञ्च सत्रमितः परम्।
पवित्राणां पवित्रं च यत्तद्ब्रूहि महामुने।। 13-116-10a
13-116-10b
13-116-10c
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं व्यासः परमधर्मवित्।
पुत्रायाकथयत्सर्वं तत्त्वेन भरतर्षभ।। 13-116-11a
13-116-11b
गावः प्रतिष्ठा भूतानां तथा गावः परायणम्।
गावः पुण्याः पवित्राश्च गोधनं पावनं तथा।। 13-116-12a
13-116-12b
पूर्वमासन्नंशृङ्गा वै गाव इत्यनुशश्रुम।
शृङ्गार्थे समुपासन्त ताः किल प्रभुमव्ययम्।। 13-116-13a
13-116-13b
ततो ब्रह्मा तु गाः सत्रमुपविष्टाः समीक्ष्य ह।
ईप्सितं प्रददौ ताभ्यो गोभ्यः प्रत्येकशः प्रभुः।। 13-116-14a
13-116-14b
तासां शृङ्गाण्यजायन्त तस्या यादृङ्भनोगतम्।
नानावर्णाः शृङ्गवन्त्यस्ता व्यरोचन्त पुत्रक।। 13-116-15a
13-116-15b
ब्रह्मणा वरदत्तास्ता हव्यकव्यप्रदाः शुभाः।
पुण्याः पवित्राः सुभगा दिव्यसंस्थानलक्षणाः।। 13-116-16a
13-116-16b
गावस्तेजो महद्दिव्यं गवां दानं प्रशस्यते।
ये चैताः सम्प्रयच्छन्ति साधवो वीतमत्सराः।। 13-116-17a
13-116-17b
ते वै सुकृतिनः प्रोक्ताः सर्वदानप्रदाश्च ते।
गवां लोकं तथा पुण्यमाप्नुवन्ति च तेऽनघ।। 13-116-18a
13-116-18b
यत्र वृक्षा मधुफला दिव्यपुष्पफलोपगाः।
पुष्पाणि च सुगन्धीनि दिव्यानि द्विजसत्तम।। 13-116-19a
13-116-19b
सर्वा मणिभयी भूमिः सर्वकाञ्चनवालुकाः।
सर्वर्तुसुखसंस्पर्शा निष्पङ्का निरजाः शुभाः।। 13-116-20a
13-116-20b
रक्तोत्पलवनैश्चैव मणिखण्डैर्हिरण्मयैः।
तरुणादित्यसङ्काशैर्भान्ति तत्र जलाशयाः।। 13-116-21a
13-116-21b
महार्हमणिपत्रैश्च काञ्चनप्रभकेसरैः।
नीलोत्पलविमिश्रैश्च सरोभिर्बहुपङ्कजैः।। 13-116-22a
13-116-22b
करवीरवनैः फुल्लैः सहस्रावर्तसंवृतैः।
सन्तानकवनैः फुल्लैर्वृक्षेश्च समलङ्कृताः।। 13-116-23a
13-116-23b
निर्मिलाभिश्च मुक्ताभिर्मणिभिश्च महाप्रभैः।
उद्भूतपुलिनास्तत्र जातरूपैश्चि निम्नगाः।। 13-116-24a
13-116-24b
सर्वरत्नमयैश्चित्रैरवगाढा द्रुमोत्तमैः।
जातरूपमयैश्चान्यैर्हुताशनसमप्रभैः।। 13-116-25a
13-116-25b
सौवर्णि गिरयस्तत्र मणिरत्नशिलोच्चयाः।
सर्वरत्नमयैर्भान्ति शृङ्गैश्चारुभिरुच्छ्रितैः।। 13-116-26a
13-116-26b
नित्यपुष्पफलास्तत्र नगाः पत्ररथाकुलाः।
दिव्यगन्धरसैः पुष्पैः फलैश्च भरतर्षभ।। 13-116-27a
13-116-27b
रमन्ते पुण्यकर्माणस्तत्र नित्यं युधिष्ठिर।
सर्वकामसमृद्धार्था निःशोका गतमन्यवः।। 13-116-28a
13-116-28b
विमानेषु विचित्रेषु रमणीयेषु भारत।
मोदन्ते पुण्यकर्माणो विरहन्तो यशस्विनः।। 13-116-29a
13-116-29b
उपक्रीडन्ति तान्राजञ्शुभाश्चाप्सरसां गणाः।
एतान्लोकानवाप्नोति गां दत्त्वा वै युधिष्ठिर।। 13-116-30a
13-116-30b
यासामधिपतिः पूषा मारुतो बलवान्बले।
ऐश्वर्ये वरुणो राजा ता मां पान्तु युगन्धराः।। 13-116-31a
13-116-31b
सुरूपा बहुरूपाश्च विश्वरूपाश्च मातरः।
प्राजापत्या इति ब्रह्मञ्जपेन्नित्यं यतव्रतः।। 13-116-32a
13-116-32b
गाश्च शुश्रूषते यश्च समन्वेति च सर्वशः।
तस्मै तुष्टाः प्रयच्छन्ति वरानपि सुदुर्लभान्।। 13-116-33a
13-116-33b
द्रुह्येन मनसा वाऽपि गोषु ता हि सुखप्रदाः।
अर्चयेत सदा चैव नमस्कारैश्च पूजयेत्।। 13-116-34a
13-116-34b
दान्तः प्रीतमना नित्यं गवां व्युष्टिं तथाऽश्नुते।
त्र्यहमुष्णं पिबेन्मूत्रं त्र्यहमुष्णं पिबेत्पयः।। 13-116-35a
13-116-35b
गवामुष्णं पयः पीत्वा त्र्यहमुष्णं घृतं विबेत्।
त्र्यहमुष्णं घृतं पीत्वा वायुभक्षो भवेत्र्यहम्।। 13-116-36a
13-116-36b
योन देवाः पवित्रेणि भुञ्जते लोकमुत्तमम्।
यत्पवित्रं पवित्राणां तद्धृतं शिरसा वहेत्।। 13-116-37a
13-116-37b
घृतेन जुहुयादग्निं घृतेन स्वस्ति वाचयेत्।
घृतं प्राशेद्धृतं दद्याद्गवां पुष्टिं तथाऽश्नुते।। 13-116-38a
13-116-38b
निर्हृतैश्च यवैर्गोभिर्मासं प्रश्रितयावकः।
ब्रह्महत्यासमं पापं सर्वमेतेन शुध्यते।। 13-116-39a
13-116-39b
पराभवार्थं दैत्यानां देवैः शौचमिदं कृतम्।।
ते देवत्वमपि प्राप्ताः संसिद्धाश्च महाबलाः।। 13-116-40a
13-116-40b
गावः पवित्राः पुण्याश्च पावनं परमं महत्।
ताश्च दत्त्वा द्विजातिभ्यो नरः स्वर्गमुपाश्नुते।। 13-116-41a
13-116-41b
गवां मध्ये शुचिर्भूत्वा गोमतीं मनसा जपेत्।
पूताभिरद्भिराचम्यि शुचिर्भवति निर्मलः।। 13-116-42a
13-116-42b
अग्निमध्ये गवां मध्ये ब्राह्मणानां च संसदि।
विद्यावेदप्रतस्नाता ब्राह्मणाः पुण्यकर्मिणः।। 13-116-43a
13-116-43b
अध्यापयेरञ्शिष्यान्वै गोमतीं यज्ञसम्मिताम्।
त्रिरात्रोपोषितो भूत्वा गोमतीं लभते वरम्।। 13-116-44a
13-116-44b
पुत्रिकामश्च लभते पुत्रं धनमथापि वा।।
पतिकामा च भर्तारं सर्वकामांश्च मानवः।। 13-116-45a
13-116-45b
गावस्तुष्टाः प्रयच्छन्ति सेविता वै न संशयः।
एवमेतां महाभागा यज्ञियाः सर्वकामदाः।
रोहिण्य इति जानीहि नैताभ्यो विद्यते परम्।। 13-116-46a
13-116-46b
13-116-46c
इत्युक्तः स महातेजाः शुकः पित्रा महात्मना।
पूजयामास तां नित्यं तस्मात्त्वमपि पूजय।। 13-116-47a
13-116-47b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः।। 116 ।।
महाभारतम्
त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-117
वेदव्यासः अनुशासनपर्व-118 →
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोलोकस्य ब्रह्मलोकादप्युपरितनत्वे ब्रह्मणो वरदानस्य कारणत्वकथनम्।। 1 ।।
महाभारतम्/अनुशासनपर्व
`*युधिष्ठिर उवाच। 13-117-1x
सुराणामसुराणां च भूतानां च पितामह।
प्रभुः स्रष्टा च भगवान्मुनिभिः स्तूयते भुवि।। 13-117-1a
13-117-1b
तस्योपरि कथं ह्येष गोलोकः स्थानतां गतः।
संशयो मे महानेष तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। 13-117-2a
13-117-2b
भीष्म उवाच। 13-117-3x
मनोवाग्बुद्धयस्तावदेकस्थाः कुरुसत्तम।
ततो मे शृणु कार्त्स्न्येन गोमहाभाग्यमुत्तमम्।। 13-117-3a
13-117-3b
पुण्यं यशस्यमायुष्यं तथा स्वस्त्ययनं महत्।
कीर्तिर्विहरता लोके गवां यो गोषु भक्तिमान्।। 13-117-4a
13-117-4b
श्रूयते हि पुराणेषु महर्षीणां महात्मनाम्।
संस्थाने सर्वलोकानां देवानां चापि सम्भवे।। 13-117-5a
13-117-5b
देवतार्थेऽमृतार्थे च यज्ञार्थे चैव भारत।
सुरभिर्नाम विख्याता रोहिणी कामरूपिणी।। 13-117-6a
13-117-6b
सङ्कल्प्य मनसा पूर्वं रोहिणी ह्यमृतात्मना।
घोरं तपः समास्थाय निर्मिती विस्वकर्मणा।। 13-117-7a
13-117-7b
पुरुषं चासृजद्भूस्तेजसा तपसा च ह।
देदीप्यमानं वपुषा समिद्धमिव पावकम्।। 13-117-8a
13-117-8b
सोऽपश्यदिष्टरूपां तां सुरभिं रोहिणीं तदा।
दृष्ट्वैव चातिविमनाः सोऽभवत्काममोहितः।। 13-117-9a
13-117-9b
तं कामार्तमथो ज्ञात्वा स्वयंभूर्लोकभावनः।
माऽऽर्तो भव तथा चैष भगवानभ्यभाषत।। 13-117-10a
13-117-10b
ततः स भगवांस्तत्र मार्ताण्ड इति विश्रुतः।
चकार नाम तं दृष्ट्वा तस्यार्तीभावमुत्तमम्।। 13-117-11a
13-117-11b
सोऽददाद्भगवांस्तस्मै मार्ताण्डाय महात्मने।
सुरूपां सुरभिं कन्यां तपस्तेजोमयीं शुभाम्।। 13-117-12a
13-117-12b
यथा मयैष चोद्भूतस्त्वं चैवषा च रोहिणी।
मैथुनं गतवन्तौ च तथा चोत्पत्स्यति प्रजा।। 13-117-13a
13-117-13b
प्रजा भविष्यते पुण्या पवित्रं परमं च वाम्।
न चाप्यगम्यागमनाद्दोषं प्राप्स्यसि कर्हिचित्।। 13-117-14a
13-117-14b
त्वत्प्रजासम्भवं क्षीरं भविष्यति परं हविः।
यज्ञेषु चाज्यभागानां त्वत्प्रजामूलजो विधिः।। 13-117-15a
13-117-15b
प्रजाशुश्रूषवश्चैव ये भविष्यन्ति रोहिणि।
तव तेनैव पुण्येनि गोलोकं यान्तु मानवाः।। 13-117-16a
13-117-16b
इदं पवित्रं परममृषभं नाम कर्हिचित्।
यद्वै ज्ञात्वा द्विजा लोके मोक्ष्यन्ते योनिसङ्करात्।। 13-117-17a
13-117-17b
एतत्क्रियाः प्रवर्तन्ते मन्त्रब्राह्मणसंस्कृताः।
देवतानां वितॄणां च हव्यकव्यपुरोगमाः।। 13-117-18a
13-117-18b
तत एतेन पुण्येन प्रजास्तव तु रोहिणि।
ऊर्ध्वं ममापि लोकस्य वत्स्यन्ते निरुपद्रवाः।। 13-117-19a
13-117-19b
भद्रं तेभ्यश्च भद्रं ते ये प्रजासु भवन्ति वै।
युगन्धराश्च ते पुत्राः सन्तु लोकस्य धारणे।। 13-117-20a
13-117-20b
यान्यान्कामयसे लोकांस्ताँल्लोकाननुयास्यसि।
सर्वदेवगणश्चैव तव यास्यन्ति पुत्रताम्।
तव स्तनसमुद्भूतं पिबन्तोऽमृतमुत्तमम्।। 13-117-21a
13-117-21b
13-117-21c
एवमेतान्वरान्सर्वानगृह्णात्सुरभिस्तदा।
ब्रुवतः सर्वलोकेशान्निर्वृतिं चागमत्पराम्।। 13-117-22a
13-117-22b
सृष्ट्वा प्रजाश्च विपुला लोकसन्धारणाय वै।
ब्रह्मणा समनुज्ञाता सुरभिर्लोकमाविशत्।। 13-117-23a
13-117-23b
एवं वरप्रदानेन स्वयंभोरेव भारत।
उपरिष्टाद्गवां लोकः प्रोक्तस्ते सर्वमादितः।।' 13-117-24a
13-117-24b
"इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 117
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-114
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त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-114
वेदव्यासः अनुशासनपर्व-115 →
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गवां चिरचीर्णतपःप्रसादिताच्चतुर्मुखाल्लोकश्रैष्ठ्यपावित्र्यादिवरलाभकथनम्।। 1 ।।
तथा गोविशेषदानस्य फलविशेषकथनम्।। 2 ।।
महाभारतम्
वसिष्ठ उवाच। 13-114-1x
शतं वर्षसहस्राणां तपस्तप्तं सुदुष्करम्।
गोभिः पूर्वं विसृष्टाभिर्गच्छेम श्रेष्ठतामिति।। 13-114-1a
13-114-1b
लोकेऽस्मिन्दक्षिणानां च सर्वासां वयमुत्तमाः।
भवेम न च लोप्येम दोषेणेति परन्तप।। 13-114-2a
13-114-2b
अस्मत्पुरीषस्नानेन जनः पुयेत सर्वदा।
शकृता च पवित्रार्थं कुर्वीरन्देवमानुषाःठ।। 13-114-3a
13-114-3b
तथा सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
प्रदातारश्च लोकान्नो गच्छेयुरिति मानद।। 13-114-4a
13-114-4b
ताभ्यो वरं ददौ ब्रह्मा तपसोऽन्ते स्वयं प्रभुः।
एवं भवन्विति विभुर्लोकांस्तारयतेति च।। 13-114-5a
13-114-5b
उत्तस्थुः सिद्धकामास्ता भूतभव्यस्य मातरः।
तपसोऽन्ते महाराज गावो लोकपरायणाः।। 13-114-6a
13-114-6b
तस्माद्गावो महाभागाः पवित्रं परमुच्यते।
तथैव सर्वभूतानां समतिष्ठन्त मूर्धनि।। 13-114-7a
13-114-7b
सम्मनवत्सां कपिलां धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्।।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतां ब्रह्मलोके महीयते।। 13-114-8a
13-114-8b
लोहितां तुल्यवत्सां तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतां सूर्यलोके महीयते।। 13-114-9a
13-114-9b
समानवत्सां शबलां धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतीं सोमलोके महीयते।। 13-114-10a
13-114-10b
समानवत्सां श्वेतां तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतामिन्द्रलोके महीयते।। 13-114-11a
13-114-11b
समानवत्सां कृष्णां तु धेनु दत्त्वा पयस्विनीम्।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतामग्निलोके महीयते।। 13-114-12a
13-114-12b
समानवत्सां धूम्रां तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतां याम्यलोके महीयते।। 13-114-13a
13-114-13b
अपां फेनसवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंवीतां वारुणं लोकमाप्नुते।। 13-114-14a
13-114-14b
वातरेणुसवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंवीतां वायुलोके महीयते।। 13-114-15a
13-114-15b
हिरण्यवर्णां पिङ्गाक्षीं सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंवीतां कौबेरं लोकमश्नुते।। 13-114-16a
13-114-16b
पलालधूम्रवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंवीतां पितृलोके महीयते।। 13-114-17a
13-114-17b
सवत्सां पीवरीं दत्त्वा दृतिकण्ठामलङ्कृताम्।
वैश्वदेवमसम्बाधं स्थानं श्रेष्ठं प्रपद्यते।। 13-114-18a
13-114-18b
समानवत्सां गौरीं तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतां वसूनां लोकमाप्नुयात्।। 13-114-19a
13-114-19b
पाण्डुकम्बलवर्णाभां सवत्सां कांस्यकदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंवीतां साध्यानां लोकमाप्नुते।। 13-114-20a
13-114-20b
वैराटपृष्ठमुक्षाणं सर्वरत्नैरलङ्कृतम्।
प्रददन्मरुतां लोकान्स राजन्प्रतिपद्यते।। 13-114-21a
13-114-21b
वत्सोपपन्नां नीलां गां सर्वरत्नसमन्विताम्।
गन्धर्वाप्सरसां लोकान्दत्त्वा प्राप्नोति मानवः।। 13-114-22a
13-114-22b
दृतिकण्ठमनड्वाहं सर्वरत्नैरलङ्कृतम्।
दत्त्वा प्रजापतेर्लोकान्विशोकः प्रतिपद्यते।। 13-114-23a
13-114-23b
गोप्रदानरतो याति भित्त्वा जलदसञ्चयान्।
विमानेनार्कवर्णेन दिवि राजन्विराजता।। 13-114-24a
13-114-24b
तं चोरुवेषाः सुश्रोण्यः सहस्रं वारयोपितः।
रमयन्ति नरश्रेष्ठं गोप्रदानरतं नरम्।। 13-114-25a
13-114-25b
वीणानां वल्लकीनां च नू पुराणां च शिञ्जितैः।
हासैश्च हरिणाक्षीणां सुप्तः सुप्रतिबोध्यते।। 13-114-26a
13-114-26b
यावन्ति रोमाणि भवन्ति धेन्वा-
स्तावन्ति वर्षाणि महीयते सः।
स्वर्गच्युतश्चापि ततो नृलोके
कुले प्रसूतो विपुले विशोकः।। 13-114-27a
13-114-27b
13-114-27c
13-112-27d
"इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः। 114
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोसामान्योत्पत्तिप्रकारकथनपूर्वकं कपिलोत्पत्तिप्रकारकथनम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। 13-112-1x
ततो युधिष्ठिरे राजा भूयः शान्तनवं नृपम्।
गोदानविस्तरं धीमान्पप्रच्छ विनयान्वितः।। 13-112-1a
13-112-1b
गोप्रदानगुणान्सम्यक् पुनर्मे ब्रूहि भारत।
न हि तृप्याम्यहं वीर शृण्वानोऽमृतमीदृशम्।। 13-112-2a
13-112-2b
इत्युक्तो धर्मराजेन तदा शान्तनवो नृपः।
सम्यगाह गुणांस्तस्मै गोप्रदानस्य केवलान्।। 13-112-3a
13-112-3b
भीष्म उवाच। 13-112-4x
वत्सलां गुणसम्प्रन्ना तरुणीं वस्त्रसंयुताम्।
दत्त्वेदृशीं गां विप्राय सर्वपापैः प्रमुच्यते।। 13-112-4a
13-112-4b
असुर्या नाम ते लोका गां दत्त्वा तान्न गच्छति। 13-112-5a
पीतोदकां जग्धतृणां नष्टक्षीरां निरिन्द्रियाम्।
जरारोगोपसम्पन्नां जीर्णां वापीमिवाजलाम्।
दत्त्वा तमः प्रविशति द्विजं क्लेशेन योजयेत्।। 13-112-6a
13-112-6b
13-112-6c
रुष्टा दुष्टा व्याधिता दुर्बला वा
नो दातव्या याश्च मूल्यैरदत्तैः।
क्लेशैर्विप्रं योऽफलैः संयुनक्ति
तस्याऽवीर्याश्चाफलाश्चैव लोकाः।। 13-112-7a
13-112-7b
13-112-7c
13-112-7d
बलान्विताः शीलवीर्योपपन्नाः
सर्वे प्रशंसन्ति सुगन्धवत्यः।
यथा हि गङ्गा सरितां वरिष्ठा
तथाऽर्जुनीनां कपिला वरिष्ठा।। 13-112-8a
13-112-8b
13-112-8c
13-112-8d
युधिष्ठिर उवाच। 13-112-9x
कस्मात्समाने बहुलाप्रदाने
सद्भिः प्रशस्तं कपिलाप्रदानम्।
विशेषमिच्छामि महाप्रभावं
श्रोतुं समर्थोस्मि भवान्प्रवक्तुम्।। 13-112-9a
13-112-9b
13-112-9c
13-112-9d
भीष्म उवाच। 13-112-10x
वृद्धानां ब्रुवतां श्रुत्वा कपिलानामथोद्भवम्।
वक्ष्यामि तदशेषेण रोहिण्यो निर्मिता यथा।। 13-112-10a
13-112-10b
प्रजाः सृजेति चादिष्टः पूर्वं दक्षः स्वयंभुवा।
नासृजद्वृत्तिमेवाग्रे प्रजानां हितकाम्यया।। 13-112-11a
13-112-11b
यथा ह्यमृतमाश्रित्य वर्तयन्ति दिवौकसः।
तथा वृत्तिं समाश्रित्य वर्तयन्ति प्रजा विभो।। 13-112-12a
13-112-12b
अचरेभ्यश्च भूतेभ्यश्चराः श्रेष्ठास्ततो नराः।
ब्राह्मणाश्च ततः श्रेष्ठास्तषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः।। 13-112-13a
13-112-13b
यज्ञैराप्यायते सोमः स च गोषु प्रतिष्ठितः।
ताभ्यो देवाः प्रमोदन्ते प्रजानां वृत्तिरासु च।। 13-112-14a
13-112-14b
ततः प्रजासु सृष्टासु दक्षाद्यैः क्षुधिताः प्रजाः।
प्रजापतिमुपाधावन्विनिश्चित्य चतुर्मखम्।। 13-112-15a
13-112-15b
प्रजातान्येव भूतानि प्राक्रोशन्वृत्तिकाङ्क्षया।
वृत्तिदं चान्वपद्यन्त तृषिताः पितृमातृवत्।। 13-112-16a
13-112-16b
इतीदं मनसा गत्वा प्रजासर्गार्थमात्मनः।
प्रजापतिर्बलाधानममृतं प्रापिबत्तदा।
शंसतस्तस्य तृप्तिं तु गन्धात्सुरभिरुत्थिता।। 13-112-17a
13-112-17b
13-112-17c
_________________________________
मुखजा साऽसृजद्धातुः सुरभिर्लोकमातरम्।
दर्शनीयरसं वृत्तिं सुरभिं मुखजां सुताम्।। 13-112-18a
13-112-18b
साऽसृजत्सौरभेयीस्तु सुरभिर्लोकमातृकाः।
सुवर्णवर्णाः कपिलाः प्रजानां वृत्तिधेनवः।। 13-112-19a
13-112-19b
तासाममृतवृत्तीनां क्षरन्तीनां समन्ततः।
बभूवामृतजः फेनः स्रवन्तीनामिवोर्मिजः।। 13-112-20a
13-112-20b
स वत्समुखविभ्रष्टो भवस्य भुवि तिष्ठतः।
शिरस्यवापतत्क्रुद्धः स तदैक्षत च प्रभुः।
ललाटप्रभवेणाक्ष्णा रोहिणीं प्रदहन्निव।। 13-112-21a
13-112-21b
13-112-21c
तत्तेजस्तु ततो रौद्रं कपिलां गां विशाम्पते।
नानावर्णत्वमनयन्मेघानिव दिवाकरः।। 13-112-22a
13-112-22b
यास्तु तस्मादपक्रम्य सोममेवाभिसंश्रिताः।
यथोत्पन्नाः स्ववर्णस्था न नीताश्चान्यवर्णतां।। 13-112-23a
13-112-23b
अथ क्रुद्धं महादेवं प्रजापतिरभाषत।
अमृतेनावसिक्तस्त्वं नोच्छिष्टं विद्यते गवाम्।। 13-112-24a
13-112-24b
यथा ह्यमृतमादाय सोमो विष्यन्दते पुनः।
तथा क्षीरं क्षरन्त्येता रोहिण्योऽमृतसम्भवाः।। 13-112-25a
13-112-25b
न दुष्यत्यनिलो नाग्निर्न सुवर्णं न चोदधिः।
नामृतेनामृतं पीतं न वत्सैर्दुष्यते पयः।। 13-112-26a
13-112-26b
इमाँल्लोकान्भरिष्यन्ति हविषा प्रस्रवेण च।
आसामैश्वर्यमिच्छन्ति सर्वेऽमृतमयं शुभम्।। 13-112-27a
13-112-27b
वृषभं च ददौ तस्मै भगवाँल्लोकभावनः।
प्रसादयामास मनस्तेन रुद्रस्य भारत।। 13-112-28a
13-112-28b
प्रीतश्चापि महादेवश्चकार वृषभं तदा।
ध्वजं च वाहनं चैव तस्मात्स वृषभध्वजः।। 13-112-29a
13-112-29b
ततो देवैर्महादेवस्तदा पशुपतिः कृतः।
ईश्वरः स गवां मध्ये वृषभाङ्कः प्रकीर्तितः।। 13-112-30a
13-112-30b
एवमव्यग्रवर्णानां कपिलानां महौजसाम्।
प्रदाने प्रथमः कल्पः सर्वासामेव कीर्तितः।। 13-112-31a
13-112-31b
लोकज्येष्ठा लोकवृत्तिप्रवृत्ता
रुद्रोद्भूताः सोमविष्यन्दभूताः।
सौम्याः पुण्याः कामदाः प्राणदाश्च
गा वै दत्त्वा सर्वकामप्रदः स्यात्।। 13-112-32a
13-112-32b
13-112-32c
13-112-33d
इदं गवां प्रभवविधानमुत्तमं
पठन्सदा शुचिरपि मङ्गलप्रियः।
विमुच्यते कलिकलुषेण मानवः
प्रियान्सुतान्धनपशुमाप्नुयात्सदा।। 13-112-33a
13-112-33b
13-112-33c
13-112-33d
हव्यं कव्यं तर्पणं शान्तिकर्म
यानं वासो वृद्धबालस्य तुष्टिः।
एतान्सर्वान्गोप्रदाने गुणान्वै
दाता राजन्नाप्नुयाद्वै सदैव।। 13-112-34a
13-112-34b
13-112-34c
13-112-34d
वैशम्पायन उवाच। 13-112-35x
पितामहस्याथ निशम्य वाक्यं
राजा सह भ्रातृभिराजमीढः।
सुवर्णवर्णानडुहस्तथा गाः
पार्थो ददौ ब्राह्मणसत्तमेभ्यः।। 13-112-35a
13-112-35b
13-112-35c
13-112-35d
तथैव तेभ्योपि ददौ द्विजेभ्यो
गवां सहस्राणि शतानि चैव।
यज्ञान्समुद्धिश्य च दक्षिणार्थे
लोकान्विजेतुं परमां च कीर्तिम्।। 13-112-36a
13-112-36b
13-112-36c
13-112-36d
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः।
बम्बई संस्करण का 112वाँ अध्याय- (गीता प्रेस में ७७ वाँ अध्याय)
सप्तसप्ततितम (77) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
| महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
- कपिला गौओं की उत्पत्ति और महिमा का वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः शान्तनुनन्दन भीष्म से गोदान की विस्तृत विधि तथा तत्सम्बन्धी धर्मों के विषय में विनयपर्वूक जिज्ञासा की। युधिष्ठिर बाले- भारत! आप गोदान के उत्तम गुणों का भलीभाँति पुनः मुझसे वर्णन कीजिये। वीर ऐसा अमृतमय उपदेश सुनकर मैं तृप्त नहीं हो रहा हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म केवल गोदान-सम्बन्धी गुणों का भलीभाँति (विधिवत) वर्णन करने लगे। भीष्म जी ने कहा- बेटा! वात्सल्य भाव से युक्त, गुणवती और जवान गाय को वस्त्र उढ़ाकर उसका दान करें। ब्राह्मण को ऐसी गाय का दान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। असुर्य नाम के जो अन्धकारमय लोक (नरक) हैं, उनमें गोदान करने वाले पुरुष को नहीं जाना पड़ता, जिसका घास खाना और पानी पीना प्रायः समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया है, जिसकी इन्द्रियाँ काम न दे सकती हों, जो बुढ़ापा और रोग से आक्रान्त होने के कारण शरीर से जीर्ण-शीर्ण हो बिना पानी की बावड़ी समान व्यर्थ हो गयी हो, ऐसी गौ का दान करके मनुष्य ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है और स्वयं भी घोर नरक में पड़ता है। जो क्रोध करने वाली दुष्टा, रोगिनी और दुबली-पतली हो तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौ का दान करना कदापि उचित नहीं है। जो इस तरह की गाय देकर ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है, उसे निर्वल और निष्फल लोक ही प्राप्त होते हैं। हुष्ट-पुष्ट, सुलक्षणा, जवान तथा उत्तम गंध वाली गाय की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही गौओं में कपिला गौ उत्तम मानी गयी है। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! किसी भी रंग की गाय का दान किया जाये, गोदान तो एक-सा ही होगा? फिर सत्पुरुषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है? मैं कपिला के महान प्रभाव को विशेष रूप से सुनना चाहता हूँ। मैं सुनने में समर्थ हूँ और आप कहने में। भीष्म जी ने कहा- बेटा! मैंने बड़े-बूढ़ों के मुंह से रोहिणी (कपिला) की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृत्तान्त सुना है, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ। सृष्टि के प्रारंभ में स्वयम्भू ब्रह्मा जी ने प्रजापति दक्ष को यह आज्ञा दी 'तुम प्रजा की सृष्टि करो', किंतु प्रजापति दक्ष ने प्रजा के हित की इच्छा से सर्वप्रथम उनकी आजीविका का ही निर्माण किया। प्रभु! जैसे देवता अमृत का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा आजीविका के सहारे जीवन धारण करती है। स्थावर प्राणियों से जंगम प्राणी सदा श्रेष्ठ हैं। उनमें भी मनुष्य और मनुष्यों में भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है; क्योंकि उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित है। यज्ञ से सोम की प्राप्ति होती है और वह यज्ञ गौओं में प्रतिष्ठित है, जिससे देवता आनंदित होते हैं। अतः पहले आजीविका है फिर प्रजा। समस्त प्राणी उत्पन्न होते ही जीविका के लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने मां-बाप के पास जाते हैं, उसी प्रकार समस्त जीव जीविकादाता दक्ष के पास गये। प्रजाजनों की इस स्थिति पर मन-ही-मन विचार करके भगवान प्रजापति ने प्रजावर्ग की आजीविका के लिये उस समय अमृत का पान किया। अमृत पीकर जब वे पूर्ण तृप्त हो गये, तब उनके मुख से सुरभि (मनोहर) गंध निकलने लगी। सुरभि गंध के निकलने के साथ ही ‘सुरभि’ नामक गौ प्रकट हो गयी, जिसे प्रजापति ने अपने मुख से प्रकट हुई पुत्री के रूप में देखा। उस सुरभि ने बहुत-सी ‘सौरभेयी' नाम वाली गौओं को उत्पन्न किया, जो सम्पूर्ण सप्तसप्ततितम (77) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
| महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
- कपिला गौओं की उत्पत्ति और महिमा का वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः शान्तनुनन्दन भीष्म से गोदान की विस्तृत विधि तथा तत्सम्बन्धी धर्मों के विषय में विनयपर्वूक जिज्ञासा की। युधिष्ठिर बाले- भारत! आप गोदान के उत्तम गुणों का भलीभाँति पुनः मुझसे वर्णन कीजिये। वीर ऐसा अमृतमय उपदेश सुनकर मैं तृप्त नहीं हो रहा हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म केवल गोदान-सम्बन्धी गुणों का भलीभाँति (विधिवत) वर्णन करने लगे। भीष्म जी ने कहा- बेटा! वात्सल्य भाव से युक्त, गुणवती और जवान गाय को वस्त्र उढ़ाकर उसका दान करें। ब्राह्मण को ऐसी गाय का दान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। असुर्य नाम के जो अन्धकारमय लोक (नरक) हैं, उनमें गोदान करने वाले पुरुष को नहीं जाना पड़ता, जिसका घास खाना और पानी पीना प्रायः समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया है, जिसकी इन्द्रियाँ काम न दे सकती हों, जो बुढ़ापा और रोग से आक्रान्त होने के कारण शरीर से जीर्ण-शीर्ण हो बिना पानी की बावड़ी समान व्यर्थ हो गयी हो, ऐसी गौ का दान करके मनुष्य ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है और स्वयं भी घोर नरक में पड़ता है। जो क्रोध करने वाली दुष्टा, रोगिनी और दुबली-पतली हो तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौ का दान करना कदापि उचित नहीं है। जो इस तरह की गाय देकर ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है, उसे निर्वल और निष्फल लोक ही प्राप्त होते हैं। हुष्ट-पुष्ट, सुलक्षणा, जवान तथा उत्तम गंध वाली गाय की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही गौओं में कपिला गौ उत्तम मानी गयी है। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! किसी भी रंग की गाय का दान किया जाये, गोदान तो एक-सा ही होगा? फिर सत्पुरुषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है? मैं कपिला के महान प्रभाव को विशेष रूप से सुनना चाहता हूँ। मैं सुनने में समर्थ हूँ और आप कहने में। भीष्म जी ने कहा- बेटा! मैंने बड़े-बूढ़ों के मुंह से रोहिणी (कपिला) की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृत्तान्त सुना है, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ। सृष्टि के प्रारंभ में स्वयम्भू ब्रह्मा जी ने प्रजापति दक्ष को यह आज्ञा दी 'तुम प्रजा की सृष्टि करो', किंतु प्रजापति दक्ष ने प्रजा के हित की इच्छा से सर्वप्रथम उनकी आजीविका का ही निर्माण किया। प्रभु! जैसे देवता अमृत का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा आजीविका के सहारे जीवन धारण करती है। स्थावर प्राणियों से जंगम प्राणी सदा श्रेष्ठ हैं। उनमें भी मनुष्य और मनुष्यों में भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है; क्योंकि उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित है। यज्ञ से सोम की प्राप्ति होती है और वह यज्ञ गौओं में प्रतिष्ठित है, जिससे देवता आनंदित होते हैं। अतः पहले आजीविका है फिर प्रजा। समस्त प्राणी उत्पन्न होते ही जीविका के लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने मां-बाप के पास जाते हैं, उसी प्रकार समस्त जीव जीविकादाता दक्ष के पास गये। प्रजाजनों की इस स्थिति पर मन-ही-मन विचार करके भगवान प्रजापति ने प्रजावर्ग की आजीविका के लिये उस समय अमृत का पान किया। अमृत पीकर जब वे पूर्ण तृप्त हो गये, तब उनके मुख से सुरभि (मनोहर) गंध निकलने लगी। सुरभि गंध के निकलने के साथ ही ‘सुरभि’ नामक गौ प्रकट हो गयी, जिसे प्रजापति ने अपने मुख से प्रकट हुई पुत्री के रूप में देखा। उस सुरभि ने बहुत-सी ‘सौरभेयी' नाम वाली गौओं को उत्पन्न किया, जो सम्पूर्ण जगत के लिये माता समान थीं। उन सब का रंग सुवर्ण के समान उद्दीप्त हो रहा था। वे कपिला गौएँ प्रजाजनों के लिये आजीविकारूप दूध देने वाली थीं। उपर्युक्त आख्यान काल्पनिक और वैदिक सिद्धान्तों के विपरीत होने से प्रक्षिप्त है। |
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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-116
वेदव्यासः
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गवां तपःप्रसन्नाद्ब्रह्मणः शृङ्गप्राप्त्यादिकथनम्।। 1 ।।
तथा गोदानप्राप्यपुण्यलोकवर्णनम्।। 2 ।।
महाभारतम्/अनुशासनपर्व
युधिष्ठिर उवाच।
पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत्।
पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।१।
भीष्म उवाच।
गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्।
धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।२।
न हि पुण्यतमं किञ्चिद्गोभ्यो भरतसत्तम।
एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः।३।
देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै।
दत्त्वा चैतास्तारयते यान्ति स्वर्गं मनीषिणः।४।
मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।५।
गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।६।
ऋषीणामुत्तमं धीमान्कृष्णद्वैपायनं शुकः।
अभिवाद्याह्निकं कृत्वा शुचिः प्रयतमानसः।७।
पितरं परिपप्रच्छ दृष्टलोकपरावरम्।
को यज्ञः सर्वयज्ञानां वरिष्ठोऽभ्युपलक्ष्यते।८।
किञ्च कृत्वा परं स्थानं प्राप्नुवन्ति मनीषिणः।
केन देवाः पवित्रेण स्वर्गमश्नन्ति वा विभो।९।
किञ्च यज्ञस्य यज्ञत्वं क्व च यज्ञः प्रतिष्ठितः।
दानानामुत्तमं किञ्च किञ्च सत्रमितः परम्।
पवित्राणां पवित्रं च यत्तद्ब्रूहि महामुने।१०।
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं व्यासः परमधर्मवित्।
पुत्रायाकथयत्सर्वं तत्त्वेन भरतर्षभ।११।
गावः प्रतिष्ठा भूतानां तथा गावः परायणम्।
गावः पुण्याः पवित्राश्च गोधनं पावनं तथा।१२।
पूर्वमासन्नंशृङ्गा वै गाव इत्यनुशश्रुम।
शृङ्गार्थे समुपासन्त ताः किल प्रभुमव्ययम्।१३।
ततो ब्रह्मा तु गाः सत्रमुपविष्टाः समीक्ष्य ह।
ईप्सितं प्रददौ ताभ्यो गोभ्यः प्रत्येकशः प्रभुः।१४।
तासां शृङ्गाण्यजायन्त तस्या यादृङ्भनोगतम्।
नानावर्णाः शृङ्गवन्त्यस्ता व्यरोचन्त पुत्रक।1५।
ब्रह्मणा वरदत्तास्ता हव्यकव्यप्रदाः शुभाः।
पुण्याः पवित्राः सुभगा दिव्यसंस्थानलक्षणाः।१६।
गावस्तेजो महद्दिव्यं गवां दानं प्रशस्यते।
ये चैताः सम्प्रयच्छन्ति साधवो वीतमत्सराः।१७।
ते वै सुकृतिनः प्रोक्ताः सर्वदानप्रदाश्च ते।
गवां लोकं तथा पुण्यमाप्नुवन्ति च तेऽनघ।१८।
यत्र वृक्षा मधुफला दिव्यपुष्पफलोपगाः।
पुष्पाणि च सुगन्धीनि दिव्यानि द्विजसत्तम।१९।
सर्वा मणिभयी भूमिः सर्वकाञ्चनवालुकाः।
सर्वर्तुसुखसंस्पर्शा निष्पङ्का निरजाः शुभाः।२०।
रक्तोत्पलवनैश्चैव मणिखण्डैर्हिरण्मयैः।
तरुणादित्यसङ्काशैर्भान्ति तत्र जलाशयाः।२१।
महार्हमणिपत्रैश्च काञ्चनप्रभकेसरैः।
नीलोत्पलविमिश्रैश्च सरोभिर्बहुपङ्कजैः।२२।
करवीरवनैः फुल्लैः सहस्रावर्तसंवृतैः।
सन्तानकवनैः फुल्लैर्वृक्षेश्च समलङ्कृताः।२३।
निर्मिलाभिश्च मुक्ताभिर्मणिभिश्च महाप्रभैः।
उद्भूतपुलिनास्तत्र जातरूपैश्चि निम्नगाः।२४।
सर्वरत्नमयैश्चित्रैरवगाढा द्रुमोत्तमैः।
जातरूपमयैश्चान्यैर्हुताशनसमप्रभैः।२५।
सौवर्णि गिरयस्तत्र मणिरत्नशिलोच्चयाः।
सर्वरत्नमयैर्भान्ति शृङ्गैश्चारुभिरुच्छ्रितैः२६।
नित्यपुष्पफलास्तत्र नगाः पत्ररथाकुलाः।
दिव्यगन्धरसैः पुष्पैः फलैश्च भरतर्षभ।२७।
रमन्ते पुण्यकर्माणस्तत्र नित्यं युधिष्ठिर।
सर्वकामसमृद्धार्था निःशोका गतमन्यवः।२८।
विमानेषु विचित्रेषु रमणीयेषु भारत।
मोदन्ते पुण्यकर्माणो विरहन्तो यशस्विनः।२९।
उपक्रीडन्ति तान्राजञ्शुभाश्चाप्सरसां गणाः।
एतान्लोकानवाप्नोति गां दत्त्वा वै युधिष्ठिर।३०।
यासामधिपतिः पूषा मारुतो बलवान्बले।
ऐश्वर्ये वरुणो राजा ता मां पान्तु युगन्धराः।३१।
सुरूपा बहुरूपाश्च विश्वरूपाश्च मातरः।
प्राजापत्या इति ब्रह्मञ्जपेन्नित्यं यतव्रतः।३२।
गाश्च शुश्रूषते यश्च समन्वेति च सर्वशः।
तस्मै तुष्टाः प्रयच्छन्ति वरानपि सुदुर्लभान्।३३।
द्रुह्येन मनसा वाऽपि गोषु ता हि सुखप्रदाः।
अर्चयेत सदा चैव नमस्कारैश्च पूजयेत्। ३४।
दान्तः प्रीतमना नित्यं गवां व्युष्टिं तथाऽश्नुते।
त्र्यहमुष्णं पिबेन्मूत्रं त्र्यहमुष्णं पिबेत्पयः।३५।
गवामुष्णं पयः पीत्वा त्र्यहमुष्णं घृतं विबेत्।
त्र्यहमुष्णं घृतं पीत्वा वायुभक्षो भवेत्र्यहम्।३६।
योन देवाः पवित्रेणि भुञ्जते लोकमुत्तमम्।
यत्पवित्रं पवित्राणां तद्धृतं शिरसा वहेत्।३७।
घृतेन जुहुयादग्निं घृतेन स्वस्ति वाचयेत्।
घृतं प्राशेद्धृतं दद्याद्गवां पुष्टिं तथाऽश्नुते।३८।
निर्हृतैश्च यवैर्गोभिर्मासं प्रश्रितयावकः।
ब्रह्महत्यासमं पापं सर्वमेतेन शुध्यते।३९।
पराभवार्थं दैत्यानां देवैः शौचमिदं कृतम्।।
ते देवत्वमपि प्राप्ताः संसिद्धाश्च महाबलाः।४०।
गावः पवित्राः पुण्याश्च पावनं परमं महत्।
ताश्च दत्त्वा द्विजातिभ्यो नरः स्वर्गमुपाश्नुते।४१।
गवां मध्ये शुचिर्भूत्वा गोमतीं मनसा जपेत्।
पूताभिरद्भिराचम्यि शुचिर्भवति निर्मलः।४२।
अग्निमध्ये गवां मध्ये ब्राह्मणानां च संसदि।
विद्यावेदप्रतस्नाता ब्राह्मणाः पुण्यकर्मिणः।४३।
अध्यापयेरञ्शिष्यान्वै गोमतीं यज्ञसम्मिताम्।
त्रिरात्रोपोषितो भूत्वा गोमतीं लभते वरम्।४४।
पुत्रिकामश्च लभते पुत्रं धनमथापि वा।।
पतिकामा च भर्तारं सर्वकामांश्च मानवः।४५।
गावस्तुष्टाः प्रयच्छन्ति सेविता वै न संशयः।
एवमेतां महाभागा यज्ञियाः सर्वकामदाः।
रोहिण्य इति जानीहि नैताभ्यो विद्यते परम्।४६।
इत्युक्तः स महातेजाः शुकः पित्रा महात्मना।
पूजयामास तां नित्यं तस्मात्त्वमपि पूजय।४७।
इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः। 116 ।
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ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय (2)
परमात्मा के महान उज्ज्वल तेजःपुंज, गोलोक, वैकुण्ठलोक और शिवलोक की स्थिति का वर्णन तथा गोलोक में श्यामसुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के परात्पर स्वरूप का निरूपण
शौनक जी ने पूछा – सूतनन्दन! आपने कौन-सा परम अद्भुत, अपूर्व और अभीष्ट पुराण सुना है, वह सब विस्तारपूर्वक कहिये। पहले परम उत्तम ब्रह्मखण्ड की कथा सुनाइये।
सौति ने कहा – मैं सर्वप्रथम अमित तेजस्वी गुरुदेव व्यास जी के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ। तत्पश्चात श्रीहरि को, सम्पूर्ण देवताओं को और ब्राह्मणों को प्रणाम करके सनातन धर्मों का वर्णन आरम्भ करता हूँ। मैंने व्यास जी के मुख से जिस सर्वोत्तम ब्रह्मखण्ड को सुना है, वह अज्ञानान्धकार का विनाशक और ज्ञान मार्ग का प्रकाशक है।
ब्रह्मन! पूर्ववर्ती प्रलयकाल में केवल ज्योतिष्पुंज प्रकाशित होता था, जिसकी प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान थी। वह ज्योतिर्मण्डल नित्य है और वही असंख्य विश्व का कारण है। वह स्वेच्छामय रूपधारी सर्वव्यापी परमात्मा का परम उज्ज्वल तेज है। उस तेज के भीतर मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।
विप्रवर! तीनों लोकों के ऊपर गोलोक–धाम है, जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। वह सब ओर मण्डलाकार फैला हुआ है। परम महान तेज ही उसका स्वरूप है। उस चिन्मय लोक की भूमि दिव्य रत्नमयी है।
योगियों को स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं होता। परंतु वैष्णव भक्तजन भगवान की कृपा से उसको प्रत्यक्ष देखते और वहाँ जाते हैं। अप्राकृत आकाश अथवा परम व्योम में स्थित हुए उस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा ने अपनी योगशक्ति से धारण कर रखा है। वहाँ आधि, व्याधि, जरा, मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है। उच्चकोटि के दिव्य रत्नों द्वारा रचित असंख्य भवन सब ओर से उस लोक की शोभा बढ़ाते हैं।
प्रलयकाल में वहाँ केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप-गोपियों से भरा रहता है। गोलोक से नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण भाग में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है। ये दोनों लोक भी गोलोक के समान ही परम मनोहर हैं।
मण्डलाकार वैकुण्ठ लोक का विस्तार एक करोड़ योजन है। वहाँ भगवती लक्ष्मी और भगवान नारायण सदा विराजमान रहते हैं।
उनके साथ उनके चार भुजा वाले पार्षद भी रहते हैं।
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ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय( 2)
वैकुण्ठ लोक भी जरा-मृत्यु आदि से रहित है। उसके वामभाग में शिवलोक है, जिसका विस्तार एक करोड़ योजन है। वहाँ पार्षदों सहित भगवान शिव विराजमान हैं। गोलोक के भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है, जो परम आह्लादजनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। योगीजन योग एवं ज्ञानदृष्टि से सदा उसी का चिन्तन करते हैं। वह ज्योति ही परमानन्ददायक, निराकार एवं परात्पर ब्रह्म है। उस ब्रह्म-ज्योति के भीतर अत्यन्त मनोहर रूप सुशोभित होता है, जो नूतन जलधर के समान श्याम है। उसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्ल दिखायी देते हैं। उसका निर्मल मुख शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करने वाला है। उसके रूप-लावण्य पर करोड़ों कामदेव निछावर किये जा सकते हैं। वह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उसके दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित है। अधरों पर मन्द मुस्कान खेलती रहती है। उसके श्रीअंग दिव्य रेशमी पीताम्बर से आवृत हैं। सुन्दर रत्नमय आभूषणों के समुदाय उसके अलंकार हैं।
वह भक्तवत्सल है। उसके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित तथा कस्तूरी और कुमकुम से अलंकृत हैं। उसका श्रीवत्सभूषित वक्षःस्थल कान्तिमान कौस्तुभ से प्रकाशित है। मस्तक पर उत्तम रत्नों के सार-तत्त्व से रचित किरीट-मुकुट जगमगाते रहते हैं। वह श्याम-सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी वनमाला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परब्रह्म परमात्मा एवं सनातन भगवान कहते हैं। वे भगवान स्वेच्छामय रूपधारी, सबके आदि कारण, सर्वाधार तथा परात्पर परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है। वे सदा गोप-वेष धारण करते हैं। करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं की शोभा से सम्पन्न हैं तथा अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये आकुल रहते हैं।
वे ही निरीह, निर्विकार, परिपूर्णतम तथा सर्वव्यापी परमेश्वर हैं तथा वे ही रासमण्डल में विराजमान, शान्तचित्त, परम मनोहर रासेश्वर हैं; मंगलकारी, मंगल-योग्य, मंगलमय तथा मंगलदाता हैं; परमानन्द के बीज, सत्य, अक्षर और अविनाशी हैं; सम्पूर्ण सिद्धियों के स्वामी, सर्व सिद्धिस्वरूप तथा सिद्धिदाता हैं; प्रकृति से परे विराजमान, ईश्वर, निर्गुण, नित्य-विग्रह, आदिपुरुष और अव्यक्त हैं। बहुत-से नामों द्वारा उन्हीं को पुकारा जाता है। बहुसंख्यक पुरुषों ने विविध स्तोत्रों द्वारा उन्हीं का स्तवन किया है। वे सत्य, स्वतन्त्र, एक, परमात्मस्वरूप, शान्त तथा सबके परम आश्रय हैं। शान्तचित्त वैष्णवजन उन्हीं का ध्यान करते हैं। ऐसा उत्कृष्ट रूप धारण करने वाले उन एकमात्र भगवान ने प्रलय काल में दिशाओं और आकाश के साथ सम्पूर्ण विश्व को शून्य रूप देखा।
ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड : अध्याय 3 श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ, नारायण, महादेव, ब्रह्मा, धर्म, सरस्वती, महालक्ष्मी और प्रकृति[1]–का प्रादुर्भाव तथा इन सबके द्वारा पृथक-पृथक श्रीकृष्ण का स्तवन सौति कहते हैं – भगवान ने देखा कि सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है।
कहीं कोई जीव-जन्तु नहीं है। जल का भी कहीं पता नहीं है। सारा आकाश वायु से रहित और अन्धकार से आवृत हो घोर प्रतीत होता है।*******
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वृक्ष, पर्वत और समुद्र आदि से शून्य होने के कारण विकृताकार जान पड़ता है। मूर्ति, धातु, शस्य और तृण का सर्वथा अभाव हो गया है। ब्रह्मन! जगत को इस शून्यावस्था में देख मन-ही-मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एकमात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि-रचना आरम्भ की।
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सबसे पहले उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणापार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्त्व, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द–ये पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए। तदनन्तर श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ,
जिनकी अंगकान्ति श्याम थी, वे नित्य-तरुण, पीताम्बरधारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनके चार भुजाएँ थीं। उन्होंने अपने चार हाथों में क्रमशः – शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे, शांर्गधनुष धारण किये हुए थे। कौस्तुभमणि उनके वक्षःस्थल की शोभा बढ़ाती थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात लक्ष्मी का निवास था।
वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रकट कर रहे थे; शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा से सेवित मुख-चन्द्र के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनका सौन्दर्य बढ़ा रहा था। वे श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे। नारायण बोले– जो वर (श्रेष्ठ), वरेण्य (सत्पुरुषों द्वारा पूज्य), वरदायक (वर देने वाले) और वर की प्राप्ति के कारण हैं; जो कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप और उस कर्म के भी कारण हैं; तप जिनका स्वरूप है, जो नित्य-निरन्तर तपस्या का फल प्रदान करते हैं, तपस्वीजनों में सर्वोत्तम तपस्वी हैं, नूतन जलधर के समान श्याम, स्वात्माराम और मनोहर हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण मैं वन्दना करता हूँ। जो निष्काम और कामरूप हैं, कामना के नाशक तथा कामदेव की उत्पत्ति के कारण हैं, जो सर्वरूप, सर्वबीजसर्वोत्तम एवं सर्वेश्वर हैं,
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वेद जिनका स्वरूप है, जो वेदों के बीज, वेदोक्त फल के दाता और फलरूप हैं, वेदों के ज्ञाता, उसे विधान को जानने वाले तथा सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।[2]
ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय( 3)
ऐसा कहकर वे नारायणदेव भक्तिभाव से युक्त हो उनकी आज्ञा से उन परमात्मा के सामने रमणीय रत्नमय सिंहासन पर विराज गये। जो पुरुष प्रतिदिन एकाग्रचित्त हो तीनों संध्याओं के समय नारायण द्वारा किये गये इस स्तोत्र को सुनता और पढ़ता है, वह निष्पाप हो जाता है। उसे यदि पुत्र की इच्छा हो तो पुत्र मिलता है और भार्या की इच्छा हो तो प्यारी भार्या प्राप्त होती है। जो अपने राज्य से भ्रष्ट हो गया है, वह इस स्तोत्र के पाठ से पुनः राज्य प्राप्त कर लेता है तथा धन से वंचित हुए पुरुष को धन की प्राप्ति हो जाती है। कारागार के भीतर विपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य यदि इस स्तोत्र का पाठ करे तो निश्चय ही संकट से मुक्त हो जाता है। एक वर्ष तक इसका संयमपूर्वक श्रवण करने से रोगी अपने रोग से छुटकारा पा जाता है।
सौति कहते हैं – शौनक जी! तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंग कान्ति शुद्ध स्फटिक मणि के समान निर्मल एवं उज्ज्वल थी। उनके पाँच मुख थे और दिशाएँ ही उनके लिये वस्त्र थीं। उन्होंने मस्तक पर तपाये हुए सुवर्ण के समान पीले रंग की जटाओं का भार धारण कर रखा था। उनका मुख मन्द-मन्द मुस्कान से प्रसन्न दिखायी देता था। उनके प्रत्येक मस्तक में तीन-तीन नेत्र थे। उनके सिर पर चन्द्राकार मुकुट शोभा पाता था। परमेश्वर शिव ने हाथों में त्रिशूल, पट्टिश और जपमाला ले रखी थी। वे सिद्ध तो हैं ही, सम्पूर्ण सिद्धों के ईश्वर भी हैं। योगियों के गुरु के भी गुरु हैं। मृत्यु की भी मृत्यु हैं, मृत्यु के ईश्वर हैं, मृत्यु स्वरूप हैं और मृत्यु पर विजय पाने वाले मृत्युंजय हैं। वे ज्ञानानन्दरूप, महाज्ञानी, महान ज्ञानदाता तथा सबसे श्रेष्ठ हैं। पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा से धुले हुए–से गौरवर्ण शिव का दर्शन सुखपूर्वक होता है। उनकी आकृति मन को मोह लेती है। ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान भगवान शिव वैष्णवों के शिरोमणि हैं। प्रकट होने के पश्चात् श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो भगवान शिव ने भी हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया। उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था। नेत्रों से अश्रु झर रहे थे और उनकी वाणी अत्यन्त गद्गद हो रही थी।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय (3)
महादेव जी बोले– जो जय के मूर्तिमान रूप, जय देने वाले, जय देने में समर्थ, जय की प्राप्ति के कारण तथा विजयदाताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन अपराजित देवता भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है, जो विश्व के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, विश्वेश्वर, विश्वकारण, विश्वाधार, विश्व के विश्वासभाजन तथा विश्व के कारणों के भी कारण हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
जो जगत की रक्षा के कारण, जगत के संहारक तथा जगत की सृष्टि करने वाले परमेश्वर हैं; फल के बीज, फल के आधार, फलरूप और फलदाता हैं; उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ। जो तेजःस्वरूप, तेज के दाता और सम्पूर्ण तेजस्वियों में श्रेष्ठ हैं, उन भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करता हूँ।[1]
ऐसा कहकर महादेव जी ने भगवान श्रीकृष्ण को मस्तक झुकाया और उनकी आज्ञा से श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर नारायण के साथ वार्तालाप करते हुए बैठ गये। जो मनुष्य भगवान शिव द्वारा किये गये इस स्तोत्र का संयतचित्त होकर पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ मिल जाती हैं और पग-पग पर विजय प्राप्त होती है। उसके मित्र, धन और ऐश्वर्य की सदा वृद्धि होती है तथा शत्रु समूह, दुःख और पाप नष्ट हो जाते हैं।
सौति कहते हैं – तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के नाभि-कमल से बड़े-बूढ़े महातपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दाँत और केश सभी सफेद थे। चार मुख थे। वे ब्रह्मा जी योगियों के ईश्वर, शिल्पियों के स्वामी तथा सबके जन्मदाता गुरु हैं। तपस्या के फल देने वाले और सम्पूर्ण सम्पत्तियों के जन्मदाता हैं। वे ही स्रष्टा और विधाता हैं तथा समस्त कर्मों के कर्ता, धर्ता एवं संहर्ता हैं। चारों वेदों को वे ही धारण करते हैं। वे वेदों के ज्ञाता, वेदों को प्रकट करने वाले और उनके पति (पालक) हैं। उनका शील-स्वभाव सुन्दर है। वे सरस्वती के कान्त, शान्तचित्त और कृपा की निधि हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया। उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था तथा उनकी ग्रीवा भगवान के सामने भक्तिभाव से झुकी हुई थी।
i📚: ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय (3)
ब्रह्मा जी बोले – जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोप-वेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
जिनकी नित्य किशोरावस्था है, जो सदा शान्त रहते हैं, जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है तथा जो नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण हैं, उन परम मनोहर गोपी वल्लभ को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में विराजमान होते हैं, रासलीला में जिनका निवास है तथा जो रासजनित उल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन रासेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।[1]
ऐसा कहकर ब्रह्मा जी ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से नारायण तथा महादेव जी के साथ सम्भाषण करते हुए श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे। जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और बुरे सपने अच्छे सपनों में बदल जाते हैं। भगवान गोविन्द में भक्ति होती है, जो पुत्रों और पौत्रों की वृद्धि करने वाली है। इस स्तोत्र का पाठ करने से अपयश नष्ट होता है और चिरकाल तक सुयश बढ़ता रहता है।
सौति कहते हैं – तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल से कोई एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। उसकी अंगकान्ति श्वेत वर्ण की थी और उसने अपने मस्तक पर जटा धारण कर रखी थी। वह सबका साक्षी, सर्वज्ञ तथा सबके समस्त कर्मों का द्रष्टा था। उसका सर्वत्र समभाव था। उसके हृदय में सबके प्रति दया भरी थी। वह हिंसा और क्रोध से सर्वथा अछूता था। उसे धर्म का ज्ञान था। वह धर्म स्वरूप, धर्मिष्ठ तथा धर्म प्रदान करने वाला था। वही धर्मात्माओं में ‘धर्म’ नाम से विख्यात है। परमात्मा श्रीकृष्ण की कला से उसका प्रादुर्भाव हुआ है, श्रीकृष्ण के सामने खड़े हुए उस पुरुष ने पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पड़कर प्रणाम किया और सम्पूर्ण कामनाओं के दाता उन सर्वेश्वर परमात्मा का स्तवन आरम्भ किया।
धर्म बोले – जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, इसलिये ‘कृष्ण’ कहलाते हैं, सर्वव्यापी होने के कारण जिनकी ‘विष्णु’ संज्ञा है, सबके भीतर निवास करने से जिनका नाम ‘वासुदेव’ है, जो ‘परमात्मा’ एवं ‘ईश्वर’ हैं, ‘गोविन्द’, ‘परमानन्द’, ‘एक’, ‘अक्षर’, ‘अच्युत’, ‘गोपेश्वर’, ‘गोपीश्वर’, ‘गोप’, ‘गोरक्षक’, ‘विभु’, ‘गौओं के स्वामी’, ‘गोष्ठ निवासी’, ‘गोवत्स-पुच्छधारी’, ‘गोपों और गोपियोंके मध्य विराजमान’, ‘प्रधान’, ‘पुरुषोत्तम’, ‘नवघनश्याम’, ‘रासवास’, और ‘मनोहर’, आदि नाम धारण करते हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः १ (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः(२)
किमपूर्वं श्रुतं सौते परमाद्भुतमीप्सितम्।
सर्वं कथय संव्यस्य ब्रह्मखण्डमनुत्तमम् ।१।
"सौतिरुवाच ।
वन्दे गुरोः पादपद्मं व्यासस्यामिततेजसः ।
हरिं देवान्द्विजान्नत्वा धर्मान्वक्ष्ये सनातनान् ।२।
यच्छ्रुतं व्यासवक्त्रेण ब्रह्मखण्डमनुत्तमम् ।।
अज्ञानान्धतमोध्वंसि ज्ञानवर्त्मप्रदीपकम् ।३।
ज्योतिःसमूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज ।।
सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम् ।।४ ।।
स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत् ।
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम् ।।५।।
तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज।।
त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति ।६।
तेजःस्वरूपं सुमहद्रत्नभूमिमयं परम्।।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः ।७।
योगेन धृतमीशेन चान्तरिक्षस्थितं वरम् ।।
आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम् । ८ ।
सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम् ।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम् ।। ९ ।
तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम् । 1.2.१०।
कोटियोजनविस्तीर्णं वैकुण्ठं मण्डलाकृति ।।
लये शून्यं च सृष्टौ च लक्ष्मीनारायणान्वितम्। ११।
चतुर्भुजैः पार्षदैश्च जरामृत्य्वादिवर्जितम् ।।
सव्ये च शिवलोकं च कोटियोजनविस्तृतम् ।१२।
लये शून्यं च सृष्टौ च सपार्षदशिवान्वितम् ।।
गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।१३ ।।
परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा ।१४।
तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।१५।
नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम्।।
शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।। १६ ।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।।११।।
सद्रत्नभूषणौघेन भूषितं भक्तवत्सलम्।।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं कस्तूरीकुङ्कुमान्वितम् ।१८।
श्रीवत्सवक्षःसंभ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् ।।
सद्रत्नसाररचितकिरीटमुकुटोज्ज्वलम् ।१९ ।।
रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम् ।।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।। 1.2.२० ।।
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम् ।।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१ ।।
कोटिपूर्णेन्दुशोभाढ्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।।
निरीहं निर्विकारं च परिपूर्णतमं विभुम् ।।२२।।
रासमण्डलमध्यस्थं शान्तं रासेश्वरं वरम् ।।
माङ्गल्यं मङ्गलार्हं च माङ्गल्यं मङ्गलप्रदम्।।२३।।
परमानन्दबीजं च सत्यमक्षरमव्ययम् ।।सर्वसिद्धेश्वरं सर्वसिद्धिरूपं च सिद्धिदम्।।२४।।
प्रकृतेः परमीशानं निर्गुणं नित्यविग्रहम्।।
आद्यं पुरुषमव्यक्तं पुरुहूतं पुरुष्टुतम्।।२५।।
सत्यं स्वतन्त्रमेकं च परमात्मस्वरूपकम् ।।
ध्यायन्ते वैष्णवाः शान्ताः शान्तं तन्परमायणम् ।। २६ ।।
एवंरूपं परं बिभ्रद्भगवानेक एव सः।
दिग्भिश्च नभसा सार्द्धं शून्यं विश्वं ददर्श ह।२७।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे परब्रह्मनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः । २ ।
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