गुरुवार, 2 नवंबर 2023

यस्माद् अण्डं विराड् जज्ञे भूतेन्द्रिय गुणात्मकः ।तद् द्रव्यं अत्यगाद् विश्वं गोभिः सूर्य इवाऽतपन्


श्रीमद्भागवतपुराण  स्कन्धः (२)अध्यायः(६)

वेदव्यासः स्कन्धः (२) अध्यायः (६)
                    "ब्रह्मोवाच ।
वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः ।
हव्यकव्यामृत अन्नानां जिह्वा सर्व रसस्य च ॥१॥

सर्वा असूनां च वायोश्च तत् नासे परमायणे ।
अश्विनोः ओषधीनां च घ्राणो मोद प्रमोदयोः ॥२॥

रूपाणां तेजसां चक्षुः दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी ।
कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रं आकाश शब्दयोः।
तद्‍गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम् ॥३॥

त्वगस्य स्पर्शवायोश्च सर्व मेधस्य चैव हि ।
रोमाणि उद्‌भिज्ज जातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः॥ ४॥

केश श्मश्रु नखान्यस्य शिलालोहाभ्र विद्युताम् ।
बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम् ॥५॥

विक्रमो भूर्भुवःस्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च ।
सर्वकाम वरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम् ॥६॥

अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः ।
पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्द निर्वृतेः॥७॥

पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद ।
हिंसाया निर्‌ऋतेर्मृत्यो निरयस्य गुदः स्मृतः ॥८॥

पराभूतेः अधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः ।
नाड्यो नदनदीनां च गोत्राणां अस्थिसंहतिः ॥ ९॥

अव्यक्त रससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च ।
उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम् ॥ १० ॥

धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च ।
विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्याऽऽत्मा परायणम्॥ ११॥

अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः ।
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः ॥१२॥

गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः ।
पशवः पितरः सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमाः॥१३ ॥

अन्ये च विविधा जीवाः जल स्थल नभौकसः ।
ग्रह ऋक्ष केतवस्ताराः तडितः स्तनयित्‍नवः ॥१४॥

सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत् ।
तेनेदं आवृतं विश्वं वितस्तिं अधितिष्ठति ॥ १५ ॥

स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ ।
एवं विराजं प्रतपन् तपत्यन्तः बहिः पुमान् ॥१६॥

सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यं अन्नं यदत्यगात् ।
महिमा एष ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययः ॥ १७ ॥

पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः ।
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु ॥ १८ ॥

पादास्त्रयो बहिश्चासन् अप्रजानां य आश्रमाः ।
अन्तः त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्व्रतः ॥१९॥

सृती विचक्रमे विश्वङ् साशनानशने उभे ।
यद् अविद्या च विद्या च पुरुषस्तु उभयाश्रयः॥२०।

यस्माद् अण्डं विराड् जज्ञे भूतेन्द्रिय गुणात्मकः ।
तद् द्रव्यं अत्यगाद् विश्वं गोभिः सूर्य इवाऽतपन्॥ २१।

यदास्य नाभ्यान्नलिनाद् अहं आसं महात्मनः ।
नाविंदं यज्ञसम्भारान् पुरुषा अवयवात् ऋते ॥२२॥

तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः ।
इदं च देवयजनं कालश्चोरु गुणान्वितः ॥ २३ ॥

वस्तूनि ओषधयः स्नेहा रस-लोह-मृदो जलम् ।
ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम ॥ २४ ॥

नामधेयानि मंत्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च ।
देवतानुक्रमः कल्पः सङ्कल्पः तन्त्रमेव च ॥२५॥

गतयो मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम् ।
पुरुषा अवयवैः एते संभाराः संभृता मया ॥ २६ ॥

इति संभृतसंभारः पुरुषा अवयवैः अहम् ।
तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम् ॥ २७ ॥

ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव ।
अयजन् व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः ॥ २८ ॥

ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे ।
पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम् ॥२९॥

नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम् ।
गृहीत माया उरुगुणः सर्गादौ अगुणः स्वतः॥३०॥

सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ॥३१॥

इति तेऽभिहितं तात यथेदं अनुपृच्छसि।
न अन्यत् भगवतः किञ्चिद् भाव्यं सद्-असदात्मकम् ॥३२॥

न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे
यन्मे हृदौत्कण्ठ्ययवता धृतो हरिः ॥ ३३ ॥

सोऽहं समाम्नायमयः तपोमयः
    प्रजापतीनां अभिवन्दितः पतिः ।
आस्थाय योगं निपुणं समाहितः
    तं नाध्यगच्छं यत आत्मसंभवः ॥ ३४ ॥

नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां
    भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम् ।
यो ह्यात्ममायाविभवं स्म पर्यगाद्
    यथा नभः स्वान्तमथापरे कुतः ॥ ३५ ॥

नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदुः
    न वामदेवः किमुतापरे सुराः ।
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं
    विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ ३६ ॥

यस्यावतारकर्माणि गायंति ह्यस्मदादयः ।
न यं विदंति तत्त्वेन तस्मै भगवते नमः ॥ ३७ ॥

स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः ।
आत्मा आत्मनि आत्मनाऽऽत्मानं, स संयच्छति पाति च ॥ ३८ ॥

विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक् सम्यग् अवस्थितम् ।
सत्यं पूर्णं अनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम् ॥ ३९॥

ऋषे विदंति मुनयः प्रशान्तात्मेन्द्रियाशयाः ।
यदा तद् एव असत् तर्कैः तिरोधीयेत विप्लुतम् ॥ ४०॥

"आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य
    कालः स्वभावः सद्-असन्मनश्च ।
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि
    विराट् स्वराट् स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ॥ ४१ ॥

अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा
    दक्षादयो ये भवदादयश्च ।
स्वर्लोकपालाः खगलोकपाला
    नृलोकपालाः तललोकपालाः ॥ ४२ ॥

गन्धर्वविद्याधरचारणेशा
    ये यक्षरक्षोरग नागनाथाः ।
ये वा ऋषीणां ऋषभाः पितॄणां
    दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेंद्राः ॥ ४३ ॥

अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूत
    कूष्माण्ड यादः मृगपक्षि-अधीशाः ।
यत्किञ्च लोके भगवन् महस्वत्
    ओजः सहस्वद् बलवत् क्षमावत् ।
श्रीह्रीविभूत्यात्मवद् अद्‌भुतार्णं
    तत्त्वं परं रूपवद् अस्वरूपम् ॥ ४४ ॥

प्राधान्यतो या नृष आमनन्ति
    लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ।
आपीयतां कर्णकषायशोषान्
    अनुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान् ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद:-

विराट्स्वरूप की विभूतियों का वर्णन
ब्रह्मा जी कहते हैं- उन्हीं विराट् पुरुष के मुख से वाणी और उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि उत्पन्न हुए है। सातों छन्द उनकी सात धातुओं से निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और देवताओं के भोजन करने योग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकार के रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृ वरुण विराट् पुरुष की चिह्वा से उत्पन्न हुए हैं। 

उनके नासाछिद्रों से प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान- ये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रिय से अश्विनीकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं। 

उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेज की तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्य की जन्मभूमि हैं। समस्त दिशाएँ और पवित्र करने वाले तीर्थ कानों से तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं। 

उनका शरीर संसार की सभी वस्तुओं का सारभाग तथा सौन्दर्य का खजाना है। सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी त्वचा से निकले हैं; उनके रोम सभी उद्भिज्ज पदार्थों का जन्मस्थान हैं, अथवा केवल उन्हीं के, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं।

उनके केश, दाढ़ी-मूँछ और नखों से मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओं से प्रायः संसार की रक्षा करने वाले लोकपाल प्रकट हुए हैं। उनका चलना-फिरना भूः, भुवः, स्वः- तीनों लोकों का आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्त की रक्षा करते हैं और भयों को भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओं की पूर्ति उन्हीं से होती है। विराट् पुरुष का लिंग जल, वीर्य, सृष्टि, मेघ और प्रजापति का आधार है तथा उनकी जननेद्रिय मैथुनजनित आनन्द का उद्गम है।

 नारद जी विराट् पुरुष की पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मल त्याग का तथा गुदाद्वार हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु और नरक का उत्पत्ति स्थान है। उनकी पीठ से पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाड़ियों से नद-नदी और हड्डियों से पर्वतों का निर्माण हुआ है। उनके उदार में मूल प्रकृति, रस नाम की धातु तथा समुद्र, समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है। उनका हृदय ही मन की जन्मभूमि है।

नारद! हम, तुम, धर्म, सनकादि, शंकर, विज्ञान और अन्तःकरण- सब-के-सब उनके चित्त के आश्रित हैं। (कहाँ तक गिनायें) मैं, तुम, तुम्हारे बड़े भाई सनकादि, शंकर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगने वाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और नाना प्रकार के जीव- जो आकाश, जल या स्थल में रहते हैं- ग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे) तारे, बिजली और बादल- ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं।
 यह सम्पूर्ण विश्व- जो कुछ कभी था, है या होगा- सबको वह घेरे हुए है और उसके अन्दर यह विश्व उसके केवल दस अंगुल एक परिमाण में ही स्थित है। जैसे सूर्य अपने मण्डल को प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराण पुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर-सर्वत्र एक रस प्रकाशित हो रहा है।

मुनिवर! जो कुछ मनुष्य की क्रिया और संकल्प से बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभय पद (मोक्ष) का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमा का पार नहीं पा सकता।



श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 18-32
द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्याय

सम्पूर्ण लोक भगवान् के एक पाद मात्र (अंश मात्र) हैं, तथा उनके अंश मात्र लोकों में समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्य लोकों में क्रमशः अमृत, क्षेम एवं अभय का नित्य निवास है। जन, तप और सत्य- इन तीनों लोकों में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्य से रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के भीतर ही निवास करते हैं। शास्त्रों में दो मार्ग बतलाये गये हैं- एक अविद्यारूप कर्म मार्ग, जो सकाम पुरुषों के लिये है और दूसरा उपासनारूप विद्या का मार्ग, जो निष्काम उपासकों के लिये है। मनुष्य दोनों में से किसी एक का आश्रय लेकर भोग प्राप्त कराने वाले दक्षिण मार्ग से अथवा मोक्ष प्राप्त कराने वाले उत्तर मार्ग से यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम-भगवान् दोनों के आधारभूत हैं। जैसे सूर्य अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मा से इस अण्ड की और पंचभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट् की उत्पत्ति हुई है- वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओं के अन्दर और उनके रूप में रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं।

जिस समय इस विराट् पुरुष के नाभिकमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुष के अंगों के अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञ की सामग्री नहीं मिली। 
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तब मैंने उनके अंगों में ही यज्ञ के पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञ के योग्य उत्तम काल की कल्पना की।
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ऋषिश्रेष्ठ! यज्ञ के लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेह पदार्थ, छः रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजुः, साम, चातुर्होत्र, यज्ञों के नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओं के नाम, पद्धति ग्रन्थ, संकल्प, तन्त्र (अनुष्ठान की रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित और समर्पण- यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुष के अंगों से ही इकट्ठी की। इस प्रकार विराट् पुरुष के अंगों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञस्वरूप परमात्मा का यज्ञ के द्वारा यजन किया। तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियों ने अपने चित्त को पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामी रूप से स्थित उस पुरुष की आराधना की। इसके पश्चात् समय-समय पर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्यों ने यज्ञों के द्वारा भगवान् की आराधना की।

नारद! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् नारायण में स्थित है जो स्वयं तो प्राकृत गुणों से रहित हैं, परन्तु सृष्टि के प्रारम्भ में माया के द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूँ। उन्हीं के अधीन होकर रुद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णु के रूप से इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तम की तीन शक्तियाँ- स्वीकार कर रखी हैं। बेटा! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो भगवान् से भिन्न हो।


नारद! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् नारायण में स्थित है जो स्वयं तो प्राकृत गुणों से रहित हैं, परन्तु सृष्टि के प्रारम्भ में माया के द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूँ। उन्हीं के अधीन होकर रुद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णु के रूप से इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तम की तीन शक्तियाँ- स्वीकार कर रखी हैं। बेटा! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो भगवान् से भिन्न हो।
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(द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्याय)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 33-45 का हिन्दी अनुवाद:-

प्रिय नारद! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कण्ठित हृदय से भगवान् के स्मरण में मग्न रहता हूँ, इसी से मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादा का उल्लंघन करके कुमार्ग में नहीं जातीं।

 मैं वेदमूर्ति हूँ, मेरा जीवन तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ।
 पहले मैंने बड़ी निष्ठा से योग का सर्वांग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूल कारण परमात्मा के स्वरूप को नहीं जान सका। (क्योंकि वे तो एकमात्र भक्ति से ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परममंगलमय एवं शरण आये हुए भक्तों को जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले परमकल्याणस्वरूप भगवान् के चरणों को ही नमस्कार करता हूँ। उनकी माया की शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्त को नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमा का विस्तार नहीं जानते। 

ऐसी स्थिति में दूसरे तो उसका पार पा ही कैसे सकते हैं? मैं, मेरे पुत्र तुम लोग और शंकर जी भी उनके सत्यस्वरूप को नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। 

हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी माया के द्वारा रचे हुए जगत् को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही अटकल लगाते हैं।

हम लोग केवल जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं, उनके तत्त्व को नहीं जानते- उन भगवान् के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ। वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्प में वे स्वयं अपने-आप में अपने-आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं। वे माया के लेश से रहित, केवल ज्ञानस्वरूप हैं और अन्तरात्मा के रूप में एकरस स्थित हैं। वे तीनों काल में सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि न अन्त। वे तीनों गुणों से रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं।

नारद! महात्मा लोग जिस समय अपने  परन्तु जब असत्पुरुषों के द्वारा कुतर्कों का जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते। परमात्मा का पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंचभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्राह्मण- शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जंगम जीव- सब-के-सब उन अनन्त भगवान् के ही रूप हैं। 
मैं, शंकर, अन्य भक्तजन, स्वर्गलोक के रक्षक, पक्षियों के राजा, मनुष्य लोक के राजा, नीचे के लोकों के राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणों के अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागों के स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेम-पिशाच, भूत-कुष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियों के स्वामी; एवं संसार में और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमा से युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा वर्ण वाली, रूपवान् या अरूप हैं- वे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत्स्वरूप ही हैं।

नारद! इनके सिवा परमपुरुष परमात्मा के परमपवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रों में वर्णित हैं। उनका मैं क्रमशः वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुनने में बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रिय के दोषों को दूर करने वाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो।


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