बुधवार, 29 नवंबर 2023

गोलोक में गोपों की उत्पत्ति और लोक में उनका वैष्णव वर्ण की विवेचना-




"स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में विराजमान हैं वही आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित होने के लिए, इस पृथ्वी पर आते हैं; 

क्योंकि आभीर( गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप( शरीर) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है। 

इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।  नीचे हम गर्ग-संहिता में उद्धृत " कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना इसी तथ्य को सूचित करता है।

"भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय गोपेषु गृहे जातं कृष्णं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते।२१। 

गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च  गङ्गा स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम्।          

  प्रेक्षन्ति- अहर्निश-अमलं सुमुखं गवां च ।        जाति परान विदिता भुवि गोप जाते: ।२२।

अनुवाद:-भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण  गोपों के घर में प्रकट हुए  हैं। आदि पुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।                                    इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)

गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत:  इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_ 

ऋग्वेद में विष्णु के लिए  'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।  वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित  विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं। 

जो पुराण वर्णित गोलोक का  ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा  "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे  ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।

विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप  परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ  रहती हैं , वहाँ पड़ता है।

"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।

ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)

शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥

इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है।

"सायण भाष्य पर आधारित अर्थ-
.विष्णु जगत् के रक्षक हैं, उनको आघात करनेवाला कोई नहीं है। उन्होंने समस्त धर्मों को धारण कर ब्रह्माण्ड का तीन कदमों में परिक्रमा किया।18।

अर्थात्- इसमें भी कहा गया है कि किसी के द्वारा जिसकी हिंसा नहीं हो सकती, उस सर्वजगत के रक्षक विष्णु ने अग्निहोत्रादि कर्मों का पोषण करते हुए पृथिव्यादि स्थानों में अपने तीन पदों से क्रमण (गमन) किया।

इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -

"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।

उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के)
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के  (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो  विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान (लोक ) को सदैव देखते हैं।

ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।)

सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित  अथवा विचरण करती हैं उस  स्थानों को - तुम्हारे  जाने के लिए जिसे-  वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का  उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है  उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥

सायण- भाष्य-"हे यजमान और उसकी पत्नी ! तुम दोनों के लिए जाने योग्य उन प्रसिद्ध सुखपूर्वक निवास करने योग्य स्थानों की हम कामना करते हैं। जिन स्थानों पर गायें  स्वर्ण मण्डित- सींगों वाली बहुतायत से हैं।

उन निवास स्थानों के आधारभूत द्युलोक में बहुत से महात्माओं के द्वारा स्तुति करने योग्य और कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु का गन्तव्य रूप में प्रसिद्ध  परम- पद( गोलोक )अपनी महिमा से अत्यधिक उद्भासित होता है।६।

विशेष:- भूरि= स्वर्ण नपु- शब्दरत्नालि  २- प्रचुर त्रि० अमरः कोष । भूरि पद के दो अर्थ हैं पहले स्वर्ण अर्थ है भूरिश्रृंगा प्रसंग में और द्वितीय परमपमवभाति भूरि " के प्रसंग में  प्रचुर अथवा बहुत के अर्थ में।

उपर्युक्त ऋचा के प्रयुक्त पदों का अर्थ-
हे पत्नीयजमानौ !                                    १-“वां =युष्मदर्थं।  - तुम्हारे लिए                        २-“ता= तानि {गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धानि} - वह स्थान।

३- “वास्तूनि =सुखनिवासयोग्यानि स्थानानि- वस्तव्य- निवास करने योग्य स्थान।
४- “गमध्यै युवयोः = गमनाय । तुम्हारे गमन करने के लिए ।
५-“उश्मसि= कामयामहे । तदर्थं विष्णुं प्रार्थयाम इत्यर्थः ।  इसके लिए विष्णु से प्रार्थना करते हैं।

६- तानीत्युक्तं =कानीत्याह । “यत्र येषु वास्तुषु- जहाँ जिस स्थान पर ।
७-"गावः= धेनव: । बहुत सी गायें।
८-भूरिशृङ्गाः = स्वर्णमण्डिता शृङ्गाः गाव:। सोने से जिनके सींग पण्डित हैं वे गायें।

९-“अयासः =यासो गन्तारः । - इधर उधर विचरण करने वाली हैं। 
१०-“उरुगायस्य= बहुभिर्महात्मभिर्गातव्यस्य स्तुत्यस्य । जिसकी सन्तों द्वारा बहुत स्तुति की गयी है।
११-“वृष्णः = कामानां वर्षितुर्विष्णु:।- कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु ।
१२-“पदं= स्थानं ( लोक )                      १३-“भूरि =अतिप्रभूतम् स्वर्णं वा“

१४-अव “भाति = प्रकाशयति। प्रकाशित होता है।
अयं ऋचायां गोपदो धेनु वाचक इति इस ऋचा में गो पद धेनु का वाचक है।

ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 154 की  ऋचा -

पदों का अर्थ:-(यत्र) -जहाँ (अयासः)- प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)- स्वर्ण युक्त सींगों वाली (गावः)- गायें हैं (ता)- उन । (वास्तूनि)- स्थानों को (वाम्)- तुम को (गमध्यै)- जाने के लिए (उश्मसि)- तुम चाहते हो। (उरुगायस्य)- बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)- सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्)- उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान( लोक) (भूरिः)- अत्यन्त (अव-भाति) उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम वर्णन करते हैं ॥६॥

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उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि  में वर्णित गोलोक है ।

'विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है। 

सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत:  गोलोक की ही सृष्टि हैं 

ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया - 'यज्ञो वै विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है।

"एवं पुरा विष्णुरभूच्च वामनो धुन्धुं विजेतुं च त्रिविक्रमोऽभूत्। यस्मिन् स दैत्येन्द्रसुतो जगाम महाश्रमे पुण्ययुतो महर्षे।।( ७८/९०)

 सन्दर्भ:- इति श्रीवामनपुराण अध्याय।52।

विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों मैं ही रहता है।

"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।

 विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।

विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड '  ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में  गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।

ऋग्वेद 1.22.18) में  भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।

जैसा कि हम पूर्व में बता चके हैं। इसी बात पुन: निर्देशित करते हैं।

"विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।


आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।

और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।

"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।

वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का  पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।

 "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजामि- अहम्।। 
श्रीमद्भगवद्गीता ( 4/7) 

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः हानिः इन्द्रियाणिनियमानि-संयमानि अभ्युत्थानम् उद्भवः अधर्मस्य तदा तदा आत्मानं सृजामि अहं मायया।।किमर्थम।

हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।

अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।

"कृष्ण और विष्णु का भेद- 

 (दर- असल विष्णु शब्द तीन सात्विक सत्ताओं का वाचक है। एक वह जो स्वराट्-  अथवा स्वयंप्रकाश अथवा सबका मूलकारण द्विभुजधारी गोलोक वासी कृष्ण रूप है। 

 द्वितीय वह रूप है जो  कृष्ण और और उनकी आदि -प्राकृतिक शक्ति राधा दौंनों के संयोग से उत्पन्न विराट रूप है जो अनन्त है।  स्वयं कृष्ण भी इसके विस्तार को नहीं जानते ! 

और  तृतीय रूप जो इस विराट महाविष्णु के प्रत्येक रोमकूप में उत्पन्न ब्रह्माण्ड के देव त्रयी( ब्रह्मा विष्णु महेश) में क्षुद्र विराट्( छोटे विष्णु) नाम से हैं। वह अन्तिम है।इन्हीं की नाभि कमल से ब्रह्मा और फिर उनसे चातुर्वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र उत्पन्न होते है।यद्यपि गोलोक में भी ब्रह्मा की उत्पत्ति कृष्ण की नाभि से होती है। परन्तु सृष्टि उत्पादक के रूप में तो रोमकूपीय ब्रह्माण्ड में क्षुद्र विराट् विष्णु के नाभि कमल से होती है। और शिव भी  शिव लोक से आकर  इन्हीं की प्रेरणासे अंश रूप इन्हीं ब्रह्मा के ललाट से उत्पन्न होकर रुदन करने से रूद्र कहलाते हैं। 

विष्णु के तीनों रूप सत्व गुण की ही क्रमश: तीन अवस्था १- विशिष्ट सत्व २-शुद्ध सत्व और ३-सत्व ये तीन अवस्थाऐं हैं।

"पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक विशेष विचारणीय हैं।

१- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों का धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है !

इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर अहीरो को दिव्य लोको (गोलोकों) में निवास करने का अधिकारी बनाकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दी गयी है।

"आभीर लोग पूर्वकाल में भी धर्मतत्व वेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल कहकर सम्बोधित किए गये हैं।

तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन श्लोकों में निर्दशित है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।      मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।

"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।          युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा- मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों (गोलोकों) को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।

"गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह वर्णन है।

"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्‍ण की पूजा करके, उन्‍हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।

उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्‍ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्‍य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।

तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोको में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।

क्योंकि सभी यादव मेरे ही अंश है।

"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः ॥ जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥

"शब्दार्थ:-१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न) २-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले। ४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले। ५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में +सन् भावे अ प्रत्यय ।= जयेच्छायां । ६- जित्वा= जीतकर।७-अरीन्= शत्रुओ को। ८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे। ९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।१०-बलिं = भेंट /उपहार।११- दिशाम् = दिशाओं में।

"अनुवाद:-समस्‍त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं।वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता‎ खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)

"गोप अथवा यादव एक ही हैं। क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।"

जब ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन हो सकते हैं।

और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के शरीर से उत्पन्न हैं। अत: पुराणों में स्वयं ब्राह्मणों के आदि पितामह ब्रह्मा गोपों की स्तुति करते हैं । और उनकी चरणधूलि लेकर अपने को धन्य मानते हैं। गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं गोप स्वराट विष्णु (कृष्ण) की सृष्टि हैं।  इसी लिए ब्रह्मा भी गोपों की स्तुति करते हैं।

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"शास्त्र में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।

सम्पूर्ण गोप अथवा यादव विष्णु अथवा कृष्ण के अंश अथवा उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हुए है। यह बात ब्रह्म-वैवर्त पुराण ,गर्गसंहिता ,पद्मपुराण और अन्य परवर्ती ग्रन्थ लक्ष्मी नारायणी संहिता और ब्रह्म संहिता आदि में वर्णित है।

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विष्णोरिदम् ।  विष्णु + अण् । )  विष्णुसम्बन्धी  वैष्णव!

विष्णु के उपासक, भक्त और विष्णु से सम्बंधित वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु के इन छै: गुणों से युक्त होने के कारण भगवत् - संज्ञा है। जो निम्नलिखित हैं।

 १-अनन्त ऐश्वर्य, २-वीर्य, ३-यश, ४-श्री, ५-ज्ञान और ६-वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण परमात्मा को भगवान् या भगवत् कहा जाता है।

"इस कारण वैष्णवों को भागवत नाम से भी जाना जाता है - भगवत्+अण्=भागवत।

जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत् है। श्रीमद् -वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत में 'भगवान्' कहा गया है।

उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है वल्लभाचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ में वर्णन है।

"श्रीमद्वल्लभाचार्य लिखित -सिद्धान्त मुक्तावलि "वैष्णव धर्म मूलत: भक्तिमार्ग है।"भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य भक्ति को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।


"मान ले कि ब्रह्माण्ड के जो गोप हैं उनके साथ लीला सहचर बनने के लिए विष्णु उपस्थित होते हैं तो ये असम्भव है ।





देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के द्वादश सूक्त की यह नब्बे वी ऋचा में जिसमें ब्राह्मी सृष्टि का वर्णन है - ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होते हैं।

"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12
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श्लोक का अनुवाद:- इस (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)

"वक्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे। "सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः।-5।

अनुवाद:-
धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्मा जी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर- इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था।
 तात! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये ।5-6।

श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्म पर्व में पराशरगीता विषयक दो सौ छानबेवाँ अध्‍याय
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ब्रह्मा की सृष्टि हैं। यही चातुर्वर्ण व्यवस्था के अवयव हैं। परन्तु गोप  स्वराट् विष्णु से गोलोक में उत्पन्न हुए है। वह ब्राह्मी सृष्टि नहीं माने जाऐंगे- वे स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) से उत्पन्न होने से वैष्णव हैं। 

"इसी सिद्धान्त से पञ्चम वर्ण की उत्पत्ति हुई जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। अथवा पुरोहितों अथवा कथावाचको  द्वारा जानबूझकर छिपाया गया !

शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु या कृष्ण या मूल तत्व परम्ब्रह्म के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।

"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:" आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।
👇(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)

अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे।

वास्तव में विष्णु का ही गोलोक धाम का वृहद् रूप कृष्ण है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।

"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।"

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः।२२।

परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥२३॥

यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयंते स्वतेजसि ॥तं वदंति परे साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥२४॥

अनुवाद:-नन्‍दराज साक्षात द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। गोलोक में जो गोपालगण हैं, वे साक्षात श्रीकृष्‍ण के रोम से प्रकट हुए हैं और गोपियॉं श्रीराधा के रोम से उद्भुत हुई हैं।

वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आयी हैं। कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं, जो पूर्वकृत पुण्‍यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्‍ण को प्राप्‍त हुई हैं।२१-२२।

भगवान श्रीकृष्‍ण साक्षात परिपूर्णतम परमात्‍मा हैं, असंख्‍य ब्रह्माण्‍डों के अधिपति, गोलोक के स्‍वामी तथा परात्‍पर ब्रह्म हैं। जिनके अपने तेज में सम्‍पूर्ण तेज विलीन होते हैं, उन्‍हें ब्रह्मा आदि उत्‍कृष्‍ट देवता साक्षात ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं, 

____सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः।११।
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"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३। ।

ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)।(१.२.४३
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में  वैष्णव नाम से है  और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)
 
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण में हैं।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप  है।
अहीरों का वर्ण चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है।

शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव,गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ही ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था में शामिल नहीं माने जाते हैं। विष्णु से उत्पन्न होने से इनका पृथक वर्ण वैष्णव है।

  1. तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ३।
  2. जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
  3. क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
  4. हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।
  5. तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः ।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः७।
  6. धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ८।
  7. उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।९।
  8. ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः १०।
  9. तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अंडजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ११।

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"अनुवाद:-महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो ! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।

वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।

चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न  होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।

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"विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते .३..........सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ: उच्यते ।४।

अनुवाद:- विष्णु से यह उत्पन्न होने ही वैष्णव कहे जाते हैं....... सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता है।३-४।

"ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र चार वर्ण और उनके अनुसार( जातीयाँ) इस विश्व में हैं उसी प्रकार वैष्णव वर्ण के अनुसार एक स्वतन्त्र जाति है।*

"विशेष:- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियाँ नहीं हैं ये वर्ण हैं जातियाँ वर्णों के अन्तर्गत ही होती है।

"पद्म पुराण उत्तरखण्ड में अध्याय 68 में  वैष्णव वर्ण को रूप में वर्णित है

"जाति सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव: श्रेष्ठ उच्यते। येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।

पद्म पुराण कार ने वैष्णव वर्ण के रूप में सम्पादित किया है। 


*56-67 . इस घोर कलियुग में मनुष्य अल्पायु होते हैं। वे नापाक कृत्यों में लगे हुए हैं। और उन्हें (विष्णु के) नाम पर विश्वास नहीं है। इसी प्रकार ब्राह्मण विधर्मी होते हैं और सदैव पाप कर्मों में लगे रहते हैं। वे संध्या (प्रार्थना) से रहित हैं (अर्थात प्रार्थना नहीं करते हैं) , व्रत से च्युत हो गए हैं, दुष्ट हैं और गन्दे स्वरूप के हैं। जैसे ब्राह्मण हैं, वैसे ही क्षत्रिय भी हैं और वैसे ही वैश्य भी हैं । इसी तरह शूद्र और अन्य भी हैं , लेकिन विष्णु के भक्त नहीं। हे भगवान, शूद्र कलियुग में द्विजों की श्रेणी से बाहर हैं। वे नहीं जानते कि क्या धर्मी है, क्या अधर्मी है, और क्या लाभदायक है और क्या नहीं। हे गुरु, यह जानकर मैं आपके पास आया हूं। और मैंने ब्रह्मा के मुख से (विष्णु के) नामों का महत्व भी सुना है। आप सभी देवताओं के भगवान हैं, और हमेशा मेरे स्वामी हैं। आप त्रिपुर , विश्वात्मा और सृष्टिकर्ता के बार-बार शत्रु हैं । मुझ पर कृपा करें और विष्णु के हजारों नामों का वर्णन करें, जो मनुष्यों का सौभाग्य उत्पन्न करते हैं और उनमें सदैव महान भक्ति उत्पन्न करते हैं। यह ब्राह्मणों को ब्रह्म (परमात्मा या वेद) देता है। यह क्षत्रियों को विजय प्रदान करता है। यह वैश्यों को धन देता है और शूद्रों को सदैव सुख देता है। हे महेश्वर , मैं आपसे इसे सुनने की इच्छा रखता हूं। केशव (अर्थात विष्णु) के सभी भक्तों में आप (सबसे अधिक) सक्षम हैं। हे अच्छे व्रत वाले, मुझ पर कृपा करो, और यदि यह गुप्त न हो तो मुझे बताओ। यह बहुत शुद्ध है. यह सदैव समस्त तीर्थों से परिपूर्ण रहता है। अत: मेरी इसे सुनने की इच्छा है। हे भगवान, हे ब्रह्मांड के स्वामी, (कृपया) इसे बताएं।


नारद के वचन सुनकर, (शिव) की आँखें आश्चर्य से फैल गईं। विष्णु के नामों का स्मरण करते हुए वह भयभीत हो गया।

     पद्मपुराण-अध्यायः ६८

" महेश्वर उवाच-शृणु नारद वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् ।१।

यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रहत्यादिपातकात् । तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।२।____________________

तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते ।३।

सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते ।येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः। ४।

क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज ।तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।

हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः ।६।

तुलसीकाष्ठजां मालां कण्ठे वै धारयेद्यतः।तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः।७।

धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते ।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः ।८।

उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वन्ति च पुनः पुनः ।तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते ।९।

ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः ।एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः ।१०।

तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।अण्डजा उद्भिजाश्चैव ये जरायुज योनयः ।११।

ते तु सर्वेऽपि विज्ञेयाः शंखचक्रगदाधराः ।येषां दर्शनमात्रेण ब्रह्महा शुद्ध्यते सदा ।१२।

किन्तु वक्ष्यामि देवर्षे तेभ्यो धन्यतमा भुवि ।वैष्णवा ये तु दृश्यन्ते भुवनेऽस्मिन्महामुने ।१३।

ते वै विष्णुसमाश्चैव ज्ञातव्यास्तत्वकोविदैः ।कलौ धन्यतमा लोके श्रुता मे नात्र संशयः ।१४।

विष्णोः पूजा कृता तेन सर्वेषां पूजनं कृतम् ।महादानं कृतं तेन पूजिता येन वैष्णवाः ।१५।

फलं पत्रं तथा शाकमन्नं वा वस्त्रमेव च।वैष्णवेभ्यः प्रयच्छन्ति ते धन्या भुवि सर्वदा ।१६।

अर्चितो वैष्णवो यैस्तु सर्वेषां चैव पूजनम् ।कृतं यैरर्चितो विष्णुस्ते वै धन्यतमा मताः ।१७।

तेषां दर्शनमात्रेण शुद्ध्यते पातकान्नरः ।किमन्यद्बहुनोक्तेन भूयोभूयश्च वाडव ।१८।

अतो वै दर्शनं तेषां स्पर्शने सुखदायकम् ।यथा विष्णुस्तथा चायं नांतरं वर्तते क्वचित् ।१९।

इति ज्ञात्वा तु भो वत्स सर्वदा पूजयेद्बुधः ।एक एव तु यैर्विप्रो वैष्णवो भुवि भोज्यते ।सहस्रं भोजितं तेन द्विजानां नात्र संशयः ।२०।

इति श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्साहस्र्यां संहितायामुत्तरखंडे उमापतिनारदसंवादे वैष्णवमाहात्म्यंनाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ।६८।

अध्याय 68 - विष्णु के भक्तों की महानता

                 "महेश्वर ने कहा :

1-9. हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें विष्णु के भक्तों के लक्षण बताऊंगा , जिन्हें सुनने से लोग ब्राह्मण की हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं ।

हे मुनिश्रेष्ठ, सुनो। अब मैं तुम्हें बताऊंगा कि उनके लक्षण किस प्रकार के हैं और उनका स्वभाव कैसा है। हे मुनिश्रेष्ठ, सुनो। मैं तुम्हें उस तरह के एक व्यक्ति का वर्णन करूंगा।

चूँकि वह विष्णु का या विष्णु से उत्पन्न है, इसलिए उसे वैष्णव कहा जाता है ।

______________ 

सभी जातियों( वर्णो) में वैष्णव को सबसे महान कहा जाता है। वैष्णव उन लोगों के परिवार में पैदा होता है जिनका भोजन उत्कृष्ट होता है (अर्थात जो उत्कृष्ट भोजन खाते हैं)।

 हे ब्राह्मण, जिनमें क्षमा, दया, तप और सत्य का वास है, उनके दर्शन मात्र से पाप कपास की तरह नष्ट हो जाते हैं ।

जिसका मन हानि करने से मुक्त होकर विष्णु में स्थिर हो गया है, (उसी प्रकार) जो सदैव शंख, चक्र, गदा, कमल (इनके चिन्ह) धारण करता है, उसी प्रकार वह भी जो अपने गले में (इन चिह्नों को) धारण करता है। तुलसी की माला (तुलसी) - लकड़ी, और हमेशा बारह प्रकार के निशान लगाता है, इसलिए वह भी जो धर्म और अधर्म के बीच अंतर जानता है, उसे वैष्णव कहा जाता है। वह सदैव वेदों और पवित्र ग्रंथों का पाठ (पाठ) करता रहता है और सदैव यज्ञ करता रहता है। इसी प्रकार उनका कुल भी धन्य है, और जो चौबीस पर्व बारम्बार मनाते हैं, वे ही महिमावान माने जाते हैं।

10-20. संसार में विष्णु के वे भक्त जिनके परिवार में केवल (अर्थात कम से कम) विष्णु का एक भक्त पैदा हुआ है, सबसे अधिक धन्य हैं। हे ब्राह्मण, उन्होंने बार-बार उस परिवार को मुक्त कराया है। अण्डप्रजक, अंकुरणशील, सजीवप्रजक आदि सभी प्राणियों को शंख, चक्र और गदाधारी जानना चाहिए। 

उनके दर्शन मात्र से ब्राह्मण का हत्यारा सदैव शुद्ध हो जाता है। लेकिन, हे दिव्य ऋषि, मैं आपको बताऊंगा कि हे महान ऋषि, पृथ्वी पर देखे गए वैष्णव उनसे भी अधिक धन्य हैं। 

सत्य जानने वालों को उन्हें विष्णु के समान मानना ​​चाहिए। मैंने सुना है कि कलियुग में वे निस्संदेह संसार में सबसे अधिक धन्य हैं ।

जिसने विष्णु की पूजा की, उसने सभी की पूजा की। जिसने विष्णु के भक्तों का सम्मान किया है उसने एक बड़ा उपहार दिया है। जो लोग विष्णु के भक्तों को फल, पत्ते, सब्जियां, भोजन या वस्त्र देते हैं, वे पृथ्वी पर हमेशा धन्य रहते हैं।

 जिन्होंने विष्णु के भक्त की पूजा की है, उन्होंने सभी की पूजा की है। जिन लोगों ने विष्णु की पूजा की है, वे सबसे अधिक धन्य कहे जाते हैं। इनके दर्शन मात्र से ही मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है।

 हे ब्राह्मण, दूसरी बातें बार-बार बताने से क्या लाभ? इसलिए इन्हें देखने और छूने से आनंद मिलता है। जैसे विष्णु हैं वैसे ही यह भक्त भी है। उनमें कोई अंतर नहीं है. हे बालक, यह जानकर बुद्धिमान व्यक्ति को सदैव (विष्णु के भक्त का) सम्मान करना चाहिए।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो विष्णु के एक भक्त वैष्णव को भोजन कराता है, उसने एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराया है। ऐसा मानना चाहिए !

और ब्रह्मवैवर्तपुराण कार ने जाति के रूप में वैष्णव को उद्धृत किया है।  यद्यपि जाति और वर्ण में अन्तर तो है परन्तु ब्राह्मणवाद में जाति और वर्ण एकार्थी हैं। जैसा कि निम्न विवेचना से स्पष्ट है ।

वर्णः, पुं, (व्रियते इति  वृ + “कॄवृजॄषिद्रुगुपन्य- निस्वपिभ्यो नित् ।” उणादि सूत्र ३ । १० । इति नः । स च नित्।) = जातिः। यहाँ वर्ण जाति अर्थ में हैं।

"सा च ब्राह्मणः क्षत्त्रियो वैश्यः शूद्रश्च । एषामुत्पत्त्यादिर्यथा । यदा भगवान् पुरुषरूपेण सृष्टिं कृतवान् तदास्य शरीरात् चत्वारो वर्णा उत्पन्नाः।

मुखतो ब्राह्मणाः बाहुतः क्षत्त्रियाः ऊरुतो वैश्याः पादतः शूद्रा जाताः।

एतेषां वर्णानां धर्म्माः शास्त्रेषु निरूपिताः सन्ति । 

तत्र ब्राह्मणधर्म्मा उच्यन्ते ।अध्ययनं यजनं दानञ्चेति । जीविका- स्त्रयः अध्यापनं याजनं प्रतिग्रहश्चेति । १ ।

क्षत्त्रियस्य त्रयो धर्म्माः । अध्ययनं यजनं दानञ्च । प्रजानां रक्षणं जीविका ।२।

वैश्यस्य त्रयो धर्म्माः । अध्ययनं यजनं दानञ्च चतस्रो जीविकाः। कृषिः गोरक्षणं वाणिज्यं कुशीद-ञ्चेति । ३ । 

शूद्रस्य तु ब्रह्मक्षत्त्रविशां शुश्रूषा धर्म्मो जीविका च ।४।

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जिनका आहार ( भोजन ) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया , तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।

उन वैष्णवों के दर्शन  मात्र से  पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और  अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५। 

जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है  गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।

प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७। 

जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।

ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है।"जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यन्त धन्य हैं।९। 

जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है  हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।

"उपर्युक्त श्लोकों में गोपों के वैष्णव वर्ण तथा भागवत धर्म का संकेत है जिसे अन्य जाति के पुरुष गोपों के प्रति श्रृद्धा और कृष्ण भक्ति से प्राप्त कर लेते हैं।। 

"सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)

"विशेष:-विष्णोरस्य रोमकूपैर्भवति  अण्सन्तति वाची- विष्णु+ अण् = वैष्णव= विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु से सम्बन्धित- जन वैष्णव हैं।

अर्थ- विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं। 

वैष्णव वर्ण की स्वतन्त्र जाति आभीर है। पद्म पुराण उत्तराखण्ड के अतिरिक्त इसका संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी है । प्रसंगानुसार वर्णित किया गया है।

श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्साहस्र्यां संहितायामुत्तरखंडे उमापतिनारदसंवादे वैष्णवमाहात्म्यंनाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ।६८।

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अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही होने से रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।

किसी भी पुराण अथवा शास्त्र में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं हुई है ।

गोप वैष्णव वर्ण में आभीर जाति के रूप में हैं देखे नीचे ब्रह्मवैवर्त पुराण का सन्दर्भ-

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मूल विष्णु स्वयं भगवान् कृष्ण का गोलोक वासी सनातन रूप है। और स्थूल विष्णु ही उनका विराट् रूप है।
कृष्ण सदैव गोपों में ही अवतरित होते हैं। और
गो" गोलोक और गोप सदैव समन्वित (एकत्रित) रहते हैं।

गोपों की उत्पत्ति गोपियों सहित कृष्ण और राधा से गोलोक धाम में ही होती है। कृष्ण की लीलाओं के सहायक बनने के लिए ही गोप गोलोक से सीधे पृथ्वी लोक में आते हैं।

और जब तक पृथ्वी पर गोप जाति विद्यमान रहती है तब तक कृष्ण भी अपने लौकिक जीवन का अवसान होने पर भी निराकार रूप से विद्यमान रहते ही हैं। इसमें कोई सन्देह पृथ्वी पर दोनों की उपस्थित कृष्ण के होने को सूचित करती है। 

"गोप अथवा यादव एक ही थे क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।" जिसका समान भावार्थ है।

"जब ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन क्यों नहीं हो सकते हैं ?

और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् विष्णु के शरीर से उत्पन्न हैं।परन्तु दोनों की उत्पत्ति मूलत: ब्रह्माण्ड से परे गोलोक में ही होती है और ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट के एक रोम कप में स्थित  ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा के मुख से -इसलिए गोप अथवा यादव ब्राह्मणों से कई गुना  श्रेष्ठ व पूज्य हैं

परन्तु उन्हें इसके अनुरूप चरित्र स्थापित करने की आवश्यकता है।

परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं जो कि गोप जाति के अनुकूल नहीं है । "किसी शास्त्र में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं दर्शायी है!

तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं  । इस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।

(👇 "कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:४१।

(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे।

वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।

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             "राधोवाच -
"यत्प्राप्तये विधिहरप्रमुखास्तपन्ति
     वह्नौ तपः परमया निजयोगरीत्या ।
दत्तः शुकः कपिल आसुरिरंगिरा
     यत्पादारविन्दमकरन्दरजः स्पृशन्ति ॥ २० ॥

"तं कृष्णमादिपुरुषम् परिपूर्णदेवम्
     लीलावतारमजमार्तिहरं जनानाम् ।
भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय गोपेषु गृहे
     जातं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते ॥ २१ ॥

गाः पालयन्ति सततं रजसो गवां च
     गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
   जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥ २२ ॥

अनुवाद:-

श्रीराधा ने कहा- सखी ! जिनकी प्राप्ति के लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योग रीति से पंचाग्निसेवनपूर्वक तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अंगिरा आदि भी जिनके चरणाविन्दों के मकरन्द और पराग का सादर स्पर्श करते हैं; 

उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजनदु:खहारी, प्रभु ! भूतल-भूरि-भार-हरणकारी तथा सत्पुरुषों के कल्याण के लिये गोपों के घर में प्रकट हुए 

आदि पुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा  तुम कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है।

राधा जी कहती हैं- मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। 

तुम उसे काला-कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की श्याम-विभा से विलसित सुन्दर कला का दर्शन करके उन्हीं में मन लग जाने के कारण भगवान नीलकण्ठ औरों के सुन्दर मुख को छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये

और  उस काले-कलूटे के लिये ही पागलों की भाँति व्रज में दौड़ते फिरते हैं !

एक बात तो स्पष्ट है कृष्ण अपने सम्पूर्ण कलाओं के साथ मानव रूप में केवल गोप जाति में ही उत्पन्न होते है।

राम, परशुराम अथवा बुद्ध कभी गायें पालते या चारण करते नहीं सुने जाते हैं क्योंकि ये क्षुद्र वराट् (छोटे-विष्णु) के अवतार हो  हैं परन्तु कृष्ण जो विष्णु से से भी परे और उनके भी मूलकारण रूप हैं। अपने गोप रूप में ही गोपों मैं अवतरित होते हैं।
जिनकी नाभि से गोलोक में ब्राह्मा तो उत्पन्न होते हैं परन्तु वे सृष्टि का प्रारम्भ क्षुद्र विराट् विष्णु के नाभि कमल से पुन: उत्पन्न होकर ही करते हैं।
कृष्ण और राधा से उत्पन्न विराट ( महाविष्णु) से उनके प्रत्येक रोम कूप में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में पृथक-पृथक - ब्रह्मा, विष्णु और शिव की उत्पत्ति होती है।

 परन्तु द्विभुजधारी कृष्ण स्वयं  सदैव जब कभी भी पृथ्वी पर अवतरित होते हैं । तो गोपों में ही अवतरित होते हैं। वे नित्य गोपालन और रास क्रीडा करते हैं। यह रास मूलत: हल्लीशम् नृत्य का रूपान्तरण है। जो अहीरों की सांस्कृतिक परम्परा का एक अभिन्न उत्सव है।

" हल्लं हलं ईशा हलदण्डं वत् समन्वित्वा गोपिकाणां स्त्रीणां  गोपाम् सह नर्त्तनम् - इति हल्लीशम्   (पुं   उपरूपकविशेषः । 
साहित्य- दर्पण में जिसका लक्षण है।   साहित्यदर्पण ।  ६ । ५५५ ।  

“ हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः । वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः । मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः ॥ 

गोपिकाओं की चरण रज लेने के लिए तीनों ब्रह्मा विष्णु महेश लालायित रहते हैं।

नारद पुराण में इसका एक वर्णन देंखे-


अनुवाद:-
वृन्दावन के कुँज में चन्द्रमा की किरणों से प्लावित( डूबी हुई) रात्रि में नन्दपुत्र श्रीकृष्ण ने गोपीगण के साथ रास-नृत्य मूलक आनन्दक्रीड़ा की थी
भला उन गोपी गण के भाग्य का गायन मैं कैसे कर सकता हूँ ? 

उन गोपी गण की चरण-रज लेने के लिए  इन्द्र आदि देवता ही नहीं अपितु स्वयं देवत्रयी के  प्रतिनिधि ब्रह्मा ,विष्णु और महेश भी व्यग्र रहते हैं ।

वृन्दावन के तृण ,मृग पक्षी और कृमि पर्यन्त प्राणीगण भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पूज्यत्तम हैं।

वृन्दावन में जो कोई भी प्राणी भक्तिभाव से  इन अद्वैत ब्रह्म की उपासना करेगा वह आनन्द-सिन्धु में प्लावित हो जायेगा ।
सन्दर्भ:बृहद् नारद पुराण बृहद उपाख्यान में उत्तर-भागका वसु मोहिनी
"संवाद के अन्तर्गत वृन्दावन महात्म्य नामक अस्सीवाँ अध्याय -
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यहाँ एक बात विचारणीय है कि , साधारण देव इन्द्र आदि की तो बात ही छोड़ो बल्कि सृष्टि के तीन काल और तीन गुणों ( सत,रज और तम के प्रतिनिथि ईश्वर के प्रतिरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गोप- गोपिकाओं के पैरों की धूल लेने के आकाँक्षी हैं। 

"गोप गोपिकाओं की महानता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ?
ब्रह्माण्ड में देवत्रयी में विद्यमान विष्णु क्षुद्र- विराट है। जो विराट के एक रोमकूप में उत्पन्न ब्रह्माण्ड के पालक विष्णु हैं।

और इस विराट- विष्णु की उत्पत्ति स्वराट् (स्वयं प्रकाश विष्णु से हुई जिनका गोलोक में वास है। वैकुण्ठ लोक में विद्यमान नारायण भी स्वराट्- उत्पन्न उसका अकर्मक रूप है।     इस लिए क्षुद्र विराट ( छोटा विष्णु) ही प्रत्येक ब्रह्माण्ड में पालनकर्ता के रूप में उपस्थित रहते हैं। 

परन्तु जो स्वराट् विष्णु के रूप में सर्वोच्च हैं उनके गोलोक और पृथ्वी लोक दोनों पर  समान व्यवहार ही हैं। उनका गाये और गोपों का सानिध्य शाश्वत है।

"पृथ्वी पर जब तक गोपों का अस्तित्व हैं तब तक कृष्ण का भी अस्तित्व है। भले ही वह मानव शरीर से नहीं हो परन्तु निराकार रूप से अवश्य उपस्थित हैं ;  वैष्णवों की यह मान्यता है।

परशुराम अथवा बुद्ध या कहें राम कभी भी कृष्ण के पूर्ण अवतार नहीं हैं। ये सब  छोटे विष्णु के  आँशिक अवतार हो सकते हैं जो कि प्रकृति  स्वरूपा राधा से उत्पन्न विराट पुरुष (गर्भोदकशायी विष्णु) से उत्पन्न हुए हैं।

विष्णु शब्द सत्वाधिकारी ईश्वरीय सत्ता के तीन रूपों या वाचक है :-
१-स्वराट् २-विराट् और ३-क्षुद्र विराट्  

१-स्वराट्- कारणार्णवशायी विष्णु का वाचक है २-विराट गर्भोदक शायी विष्णु का वाचक है जो प्रकृति रूपी राधा और कृष्ण की प्रथम सन्तान हैं। इसके प्रत्येक रोम में एक एक ब्रह्माण्ड है। 

३-तृतीय विष्णु क्षुद्रविराट्- हैं जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में शिव और ब्रह्मा के कारण हैं।
जिनका नाभि कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा से रूद्र उत्पन्न होते हैं।
यही विष्णु कभी कश्यप ऋषि की सन्तान के रूप में वामन तो कभी इन्द्र के छोटे भाई विष्णु बनते हैं। 

कृष्ण का स्वरूप सबसे पृथक है वे सबके निमित्ति कारण और उपादान कारण भी हैं।

ब्रह्म वैवर्त- पुराण में उनके निज धाम गोलोक का वर्णन निम्न प्रकार से है।



ब्रह्म वैवर्त पुराण-प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3)

परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक का वर्णन-
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भगवान नारायण कहते हैं– नारद ! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा( अचानक) दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। 

उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा।

माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा।

जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।

परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है।

इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा विष्णु और शिव आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता। 

प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है ? ऊपर वैकुण्ठलोक है।

यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके भी ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है। 
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श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है।

सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। 

पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।


ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है।
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गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं।
वत्स नारद! देवताओं की संख्या  (तीन + तीस) करोड़ है।
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ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं।  नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
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नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल ख़ाली था।

दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया।

तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।
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पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। 
कहा- ‘बेटा ! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ।
 जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अंग है। आदि में ‘ऊँ’ का स्थान है। बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं। 
अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ऊँ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है। इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं।
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(देवी भागवत पुराण- प्रकृति खण्ड- स्कन्ध नवम् अध्याय तृतीय)
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ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।
यह बालक महाविष्णु है।
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विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराटमय बालक से कहा- ‘पुत्र! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।’ उस समय विराट व्यापक प्रभु ही बालक रूप से विराजमान था। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही।

बालक ने कहा– आपके चरण कमलों मे मेरी अविचल भक्ति हो– मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परन्तु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आप में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये। जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है।

 जिस अज्ञानीजन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ-सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है।

 प्रभो! जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती। महाभाग! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं। 

आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं।

नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करके वह बालक चुप हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे।

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ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3) देवी भागवत पराण
नवम स्कन्ध तृतीय अध्याय-

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने सूक्ष्म अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे।

विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे सूक्ष्म अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'

इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।

भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’

नारद ! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।

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ब्रह्म वैवर्त पुराण-
प्रकृतिखण्ड: अध्याय(3) देवीभागवत पुराण नवम स्कन्ध तृतीय (अध्याय)
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नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।

ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। 

साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
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सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। 
वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे।  यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया।

नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं। 

ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

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गोलोक और पृथ्वी लोक दोनों पर उनके समान व्यवहार ही हैं। गाये और गोपों का सानिध्य शाश्वत है।

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इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं। 

इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।

                 "सौतिरुवाच ।।
आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः ।1.3.३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः ।।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः ।३१।

तपसां फलदाता च प्रदाता सर्वसम्पदाम् ।।
स्रष्टा विधाता कर्त्ता च हर्त्ता च सर्वकर्मणाम्।३२।

धाता चतुर्णां वेदानां ज्ञाता वेदप्रसूपतिः ।।
शान्तः सरस्वतीकान्तः सुशीलश्च कृपानिधिः।३३।

श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं पुटाञ्जलिः ।।
पुलकांकितसर्वांगो भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।३४ ।

                  "ब्रह्मोवाच-
कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम् ।।
अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम् ।। ३५ ।।

किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम् ।।
नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम्।।३६।।

वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम् ।।
रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्।।३७।।

इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्नसिंहासने वरम् ।।
नारायणेशौ संभाष्य स उवास तदाज्ञया ।। ३८ ।।

इति ब्रह्मकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत्।।
पापानि तस्य नश्यन्ति दुःस्वप्नः सुस्वप्नो भवेत् ।। ३९ ।।

भक्तिर्भवति गोविन्दे श्रीपुत्रपौत्रवर्द्धिनी ।।
अकीर्तिः क्षयमाप्नोति सत्कीर्त्तिर्वर्द्धते चिरम् ।। 1.3.४० ।।

इति ब्रह्मवैवर्त्ते ब्रह्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।।

सौति कहते हैं – तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के नाभि-कमल से बड़े-बूढ़े महातपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दाँत और केश सभी सफेद थे। चार मुख थे। वे ब्रह्मा जी योगियों के ईश्वर, शिल्पियों के स्वामी तथा सबके जन्मदाता गुरु हैं। तपस्या के फल देने वाले और सम्पूर्ण सम्पत्तियों के जन्मदाता हैं। वे ही स्रष्टा और विधाता हैं तथा समस्त कर्मों के कर्ता, धर्ता एवं संहर्ता हैं। चारों वेदों को वे ही धारण करते हैं। वे वेदों के ज्ञाता, वेदों को प्रकट करने वाले और उनके पति (पालक) हैं। उनका शील-स्वभाव सुन्दर है। वे सरस्वती के कान्त, शान्तचित्त और कृपा की निधि हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया। उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था तथा उनकी ग्रीवा भगवान के सामने भक्तिभाव से झुकी हुई थी।

ब्रह्मखण्ड : अध्याय 3

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ब्रह्मा जी बोले – जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोप-वेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी नित्य किशोरावस्था है, जो सदा शान्त रहते हैं, जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है तथा जो नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण हैं, उन परम मनोहर गोपी वल्लभ को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में विराजमान होते हैं, रासलीला में जिनका निवास है तथा जो रासजनित उल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन रासेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

ऐसा कहकर ब्रह्मा जी ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से नारायण तथा महादेव जी के साथ सम्भाषण करते हुए श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे। जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और बुरे सपने अच्छे सपनों में बदल जाते हैं। भगवान गोविन्द में भक्ति होती है, जो पुत्रों और पौत्रों की वृद्धि करने वाली है। इस स्तोत्र का पाठ करने से अपयश नष्ट होता है और चिरकाल तक सुयश बढ़ता रहता है।

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देवीभागवतपुराण  ★ स्कन्धः नवम अध्याय द्वित्तीय -★
     (पञ्चप्रकृतितद्‍भर्तृगणोत्पत्तिवर्णनम्)
                 "नारद उवाच
समासेन श्रुतं सर्वं देवीनां चरितं प्रभो ।
विबोधनाय बोधस्य व्यासेन वक्तुमर्हसि ॥१॥
सृष्टेराद्या सृष्टिविधौ कथमाविर्बभूव ह ।
कथं वा पञ्चधा भूता वद वेदविदांवर ॥ २॥
भूता ययांशकलया तया त्रिगुणया भवे।व्यासेन तासां चरितं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥३॥
तासां जन्मानुकथनं पूजाध्यानविधिं बुध ।
स्तोत्रं कवचमैश्वर्यं शौर्यं वर्णय मङ्‌गलम्॥४॥
              "श्रीनारायण उवाच
नित्य आत्मा नभो नित्यं कालो नित्यो दिशो यथा।
विश्वानां गोलकं नित्यं नित्यो गोलोक एव च ॥५॥
तदेकदेशो वैकुण्ठो नम्रभागानुसारकः ।
तथैव प्रकृतिर्नित्या ब्रह्मलीला सनातनी।६॥
यथाग्नौ दाहिका चन्द्रे पद्मे शोभा प्रभा रवौ ।
शश्वद्युक्ता न भिन्ना सा तथा प्रकृतिरात्मनि॥ ७॥
विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ।
विना मृदा घटं कर्तुं कुलालो हि नहीश्वरः।८॥
न हि क्षमस्तथात्मा च सृष्टिं स्रष्टुं तया विना ।
सर्वशक्तिस्वरूपा सा यया च शक्तिमान्सदा॥ ९॥
ऐश्वर्यवचनः शश्चक्तिः पराक्रम एव च ।
तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्तिः परिकीर्तिता ॥१०॥
ज्ञानं समृद्धिः सम्पत्तिर्यशश्चैव बलं भगः ।
तेन शक्तिर्भगवती भगरूपा च सा सदा॥ ११॥
तया युक्तः सदात्मा च भगवांस्तेन कथ्यते ।
स च स्वेच्छामयो देवः साकारश्च निराकृतिः॥ १२॥
तेजोरूपं निराकारं ध्यायन्ते योगिनः सदा ।
वदन्ति च परं ब्रह्म परमानन्दमीश्वरम् ॥१३॥
अदृश्यं सर्वद्रष्टारं सर्वज्ञं सर्वकारणम् ।
सर्वदं सर्वरूपं तं वैष्णवास्तन्न मन्वते॥१४॥
वदन्ति चैव ते कस्य तेजस्तेजस्विना विना।
तेजोमण्डलमध्यस्थं ब्रह्म तेजस्विनं परम्॥ १५॥
स्वेच्छामयं सर्वरूपं सर्वकारणकारणम् ।
अतीव सुन्दरं रूपं बिभ्रतं सुमनोहरम् ॥१६।
किशोरवयसं शान्तं सर्वकान्तं परात्परम् ।
नवीननीरदाभासधामैकं श्यामविग्रहम् ॥१७।
शरन्मध्याह्नपद्मौघशोभामोचनलोचनम् ।
मुक्ताच्छविविनिन्द्यैकदन्तपंक्तिमनोरमम्॥ १८॥
मयूरपिच्छचूडं च मालतीमाल्यमण्डितम् ।
सुनसं सस्मितं कान्तं भक्तानुग्रहकारणम् । १९॥
ज्वलदग्निविशुद्धैकपीतांशुकसुशोभितम् ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं रत्‍नभूषणभूषितम् ।२०।
सर्वाधारं च सर्वेशं सर्वशक्तियुतं विभुम् ।
सर्वैश्वर्यप्रदं सर्वस्वतन्त्रं सर्वमङ्‌गलम् ।२१।
परिपूर्णतमं सिद्धं सिद्धेशं सिद्धिकारकम् ।
ध्यायन्ते वैष्णवाः शश्वद्देवदेवं सनातनम्।२२।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् ।
ब्रह्मणो वयसा यस्य निमेष उपचर्यते।२३।
स चात्मा स परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।
कृषिस्तद्‍भक्तिवचनो नश्च तद्दास्यवाचकः।२४।
भक्तिदास्यप्रदाता यः स च कृष्णः प्रकीर्तितः 
कृषिश्च सर्ववचनो नकारो बीजमेव च।२५॥
स कृष्णः सर्वस्रष्टाऽऽदौ सिसृक्षन्नेक एव च।
सृष्ट्युन्मुखस्तदंशेन कालेन प्रेरितः प्रभुः॥२६।

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स्वेच्छामयः स्वेच्छया च द्विधारूपो बभूव ह ।
स्त्रीरूपो वामभागांशो दक्षिणांशः पुमान्स्मृतः ॥२७॥

तां ददर्श महाकामी कामाधारां सनातनः ।
अतीव कमनीया च चारुपङ्‌कजसन्निभाम् ॥ २८॥
चन्द्रबिम्बविनिन्द्यैकनितम्बयुगलां पराम् ।
सुचारुकदलीस्तम्भनिन्दितश्रोणिसुन्दरीम् ॥ २९॥
श्रीयुक्तश्रीफलाकारस्तनयुग्ममनोरमाम् ।
पुष्पजुष्टां सुवलितां मध्यक्षीणां मनोहराम् ॥ ३०॥
अतीव सुन्दरीं शान्तां सस्मितां वक्रलोचनाम् 
वह्निशुद्धांशुकाधारां रत्‍नभूषणभूषिताम् ॥ ३१ ॥
शश्वच्चक्षुश्चकोराभ्यां पिबन्तीं सततं मुदा ।
कृष्णस्य मुखचन्द्रं च चन्द्रकोटिविनिन्दितम् ॥ ३२ ॥
कस्तूरीबिन्दुना सार्धमधश्चन्दनबिन्दुना ।
समं सिन्दूरबिन्दुं च भालमध्ये च बिभ्रतीम्॥३३।
वक्रिमं कबरीभारं मालतीमाल्यभूषितम् ।
रत्‍नेन्द्रसारहारं च दधतीं कान्तकामुकीम् ॥ ३४ ॥
कोटिचन्द्रप्रभामृष्टपुष्टशोभासमन्विताम् ।
गमनेन राजहंसगजगर्वविनाशिनीम् ॥ ३५ ॥

दृष्ट्वा तां तु तया सार्धं रासेशो रासमण्डले ।
रासोल्लासे सुरसिको रासक्रीडाञ्चकार ह॥३६ ॥

नानाप्रकारशृङ्‌गारं शृङ्‌गारो मूर्तिमानिव ।
चकार सुखसम्भोगं यावद्वै ब्रह्मणो दिनम् ॥३७ ॥
ततः स च परिश्रान्तस्तस्या योनौ जगत्पिता ।
चकार वीर्याधानं च नित्यानन्दे शुभक्षणे ॥ ३८ ॥
गात्रतो योषितस्तस्याः सुरतान्ते च सुव्रत ।
निःससार श्रमजलं श्रान्तायास्तेजसा हरेः।३९॥
महाक्रमणक्लिष्टाया निःश्वासश्च बभूव ह ।
तदा वव्रे श्रमजलं तत्सर्वं विश्वगोलकम् ॥४०।
स च निःश्वासवायुश्च सर्वाधारो बभूव ह ।
निःश्वासवायुः सर्वेषां जीविनां च भवेषु च।४१॥
बभूव मूर्तिमद्वायोर्वामाङ्‌गात्प्राणवल्लभा ।
तत्पत्‍नी सा च तत्पुत्राः प्राणाः पञ्च च जीविनाम् ॥ ४२ ॥
प्राणोऽपानः समानश्चोदानव्यानौ च वायवः ।

बभूवुरेव तत्पुत्रा अधः प्राणाश्च पञ्च च॥४३।
घर्मतोयाधिदेवश्च बभूव वरुणो महान् ।
तद्वामाङ्‌गाच्च तत्पत्‍नी वरुणानी बभूव सा।४४।
अथ सा कृष्णचिच्छक्तिः कृष्णगर्भं दधार ह ।
शतमन्वन्तरं यावज्ज्वलन्ती ब्रह्मतेजसा ॥ ४५।
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कृष्णप्राणाधिदेवी सा कृष्णप्राणाधिकप्रिया ।
कृष्णस्य सङ्‌गिनी शश्वत्कृष्णवक्षःस्थलस्थिता ॥ ४६ ॥
शतमन्वन्तरान्ते च कालेऽतीते तु सुन्दरी ।
सुषाव डिम्भं स्वर्णाभं विश्वाधारालयं परम्।४७ ॥
____
दृष्ट्वा डिम्भं च सा देवी हृदयेन व्यदूयत ।
उत्ससर्ज च कोपेन ब्रह्माण्डगोलके जले ॥ ४८ ॥

दृष्ट्वा कृष्णश्च तत्त्यागं हाहाकारं चकार ह ।
शशाप देवीं देवेशस्तत्क्षणं च यथोचितम् ॥ ४९ ॥
यतोऽपत्यं त्वया त्यक्तं कोपशीले च निष्ठुरे ।
भव त्वमनपत्यापि चाद्यप्रभृति निश्चितम् ॥ ५० ॥
या यास्त्वदंशरूपाश्च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः ।
अनपत्याश्च ताः सर्वास्त्वत्समा नित्ययौवनाः ॥ ५१ ॥
एतस्मिन्नन्तरे देवी जिह्वाग्रात्सहसा ततः ।
आविर्बभूव कन्यैका शुक्लवर्णा मनोहरा ॥ ५२ ॥
श्वेतवस्त्रपरीधाना वीणापुस्तकधारिणी ।
रत्‍नभूषणभूषाढ्या सर्वशास्त्राधिदेवता ।५३।
अथ कालान्तरे सा च द्विधारूपो बभूव ह ।
वामार्धाङ्‌गाच्च कमला दक्षिणार्धाच्च राधिका ॥ ५४ ॥
एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।
दक्षिणार्धश्च द्विभुजो वामार्धश्च चतुर्भुजः ॥ ५५ ।
उवाच वाणीं कृष्णस्तां त्वमस्य कामिनी भव 
अत्रैव मानिनी राधा तव भद्रं भविष्यति ॥ ५६ ॥
एवं लक्ष्मीं च प्रददौ तुष्टो नारायणाय च ।
स जगाम च वैकुण्ठं ताभ्यां सार्धं जगत्पतिः॥५७।
अनपत्ये च ते द्वे च जाते राधांशसम्भवे ।
भूता नारायणाङ्‌गाच्च पार्षदाश्च चतुर्भुजाः॥ ५८।
तेजसा वयसा रूपगुणाभ्यां च समा हरेः ।
बभूवुः कमलाङ्‌गाच्च दासीकोट्यश्च तत्समाः॥ ५९ ॥
अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने ।
भूताश्चासंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः ॥६०॥
रूपेण च गुणेनैव बलेन विक्रमेण च ।
प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः ॥ ६१ ॥
राधाङ्‌गलोमकूपेभ्यो बभूवुर्गोपकन्यकाः ।
राधातुल्याश्च ताः सर्वा राधादास्यः प्रियंवदाः ॥ ६२ ॥
रत्‍नभूषणभूषाढ्याः शश्वत्सुस्थिरयौवनाः ।
अनपत्याश्च ताः सर्वाः पुंसः शापेन सन्ततम् ॥ ६३ ॥
एतस्मिन्नन्तरे विप्र सहसा कृष्णदेवता ।
आविर्बभूव दुर्गा सा विष्णुमाया सनातनी ॥ ६४ ॥
देवी नारायणीशाना सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
बुद्ध्यधिष्ठात्री देवी सा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ६५ ॥
देवीनां बीजरूपा च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
परिपूर्णतमा तेजःस्वरूपा त्रिगुणात्मिका ॥ ६६ ॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभा कोटिसूर्यसमप्रभा ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्या सहस्रभुजसंयुता ॥६७।
नानाशस्त्रास्त्रनिकरं बिभ्रती सा त्रिलोचना ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्‍नभूषणभूषिता।६८ ॥
यस्याश्चांशांशकलया बभूवुः सर्वयोषितः ।
सर्वे विश्वस्थिता लोका मोहिताः स्युश्च मायया॥ ६९॥
सर्वैश्वर्यप्रदात्री च कामिनां गृहवासिनाम् ।
कृष्णभक्तिप्रदा या च वैष्णवानां च वैष्णवी।७०॥
मुमुक्षूणां मोक्षदात्री सुखिनां सुखदायिनी ।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीश्च गृहलक्ष्यीर्गृहेषु च ॥७१।
तपस्विषु तपस्या च श्रीरूपा तु नृपेषु च ।
या वह्नौ दाहिकारूपा प्रभारूपा च भास्करे।७२।
शोभारूपा च चन्द्रे च सा पद्मेषु च शोभना ।
सर्वशक्तिस्वरूपा या श्रीकृष्णे परमात्मनि ॥७३ ॥
यया च शक्तिमानात्मा यया च शक्तिमज्जगत् 
यया विना जगत्सर्वं जीवन्मृतमिव स्थितम् ॥७४।
या च संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी ।
स्थितिरूपा वृद्धिरूपा फलरूपा च नारद ॥७५ ॥
क्षुत्पिपासादयारूपा निद्रा तन्द्रा क्षमा मतिः ।
शान्तिलज्जातुष्टिपुष्टिभ्रान्तिकान्त्यादिरूपिणी॥ ७६ ॥
सा च संस्तूय सर्वेशं तत्पुरः समुवास ह ।
रत्‍नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः ॥ ७७।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र सस्त्रीकश्च चतुर्मुखः ।
पद्मनाभेर्नाभिपद्मान्निःससार महामुने ॥ ७८।
कमण्डलुधरः श्रीमांस्तपस्वी ज्ञानिनां वरः ।
चतुर्मुखैस्तं तुष्टाव प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥ ७९।
सा तदा सुन्दरी सृष्टा शतचन्द्रसमप्रभा ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्‍नभूषणभूषणा ॥ ८०।
रत्‍नसिंहासने रम्ये संस्तूय सर्वकारणम् ।
उवास स्वामिना सार्धं कृष्णस्य पुरतो मुदा ॥ ८१॥
एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।
वामार्धाङ्‌गो महादेवो दक्षिणे गोपिकापतिः॥
 ८२।
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शुद्धस्फटिकसंकाशः शतकोटिरविप्रभः ।
त्रिशूलपट्टिशधरो व्याघ्रचर्माम्बरो हरः॥८३ ॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभो जटाभारधरः परः ।
भस्मभूषितगात्रश्च सस्मितश्चन्द्रशेखरः।८४ ॥

दिगम्बरो नीलकण्ठः सर्पभूषणभूषितः ।
बिभ्रद्दक्षिणहस्तेन रत्‍नमालां सुसंस्कृताम् ॥ ८५ ॥
प्रजपन्पञ्चवक्त्रेण ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।
सत्यस्वरूपं श्रीकृष्णं परमात्मानमीश्वरम् ॥ ८६ ॥

कारणं कारणानां च सर्वमङ्‌गलमङ्‌गलम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् ॥ ८७ ॥
संस्तूय मृत्योर्मृत्युं तं यतो मृत्युञ्जयाभिधः ।
रत्‍नसिंहासने रम्ये समुवास हरेः पुरः ॥ ८८ ॥
 "इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चप्रकृतितद्‍भर्तृगणोत्पत्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥"


"सरल हिन्दी अनुवाद:- 
देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)
स्कन्ध 9, अध्याय 2 - 
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परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन:-
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नारदजी बोले - हे प्रभो ! देवियोंका सम्पूर्ण चरित्र मैंने संक्षेप में सुन लिया, अब सम्यक् प्रकार से बोध प्राप्त करने के लिये विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ 1॥

सृष्टिप्रक्रिया में सृष्टि की आद्या देवी का प्राकट्य कैसे हुआ? हे वेदज्ञों में श्रेष्ठ ! वे प्रकृति पुनः पाँच रूपों में कैसे आविर्भूत हुईं; यह बतायें। इस संसार में उन त्रिगुणात्मिका प्रकृति के कलांशोंसे जो देवियाँ उत्पन्न हुईं, उनका चरित्र मैं अब विस्तारसे सुनना चाहता हूँ॥2-3॥
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हे विज्ञ! उनके जन्म की कथा, उनके पूजा ध्यान की विधि, स्तोत्र, कवच, ऐश्वर्य और मंगलमय शौर्यका वर्णन कीजिये ॥ 4 ॥

श्रीनारायण बोले- जैसे आत्मा नित्य है, आकाश नित्य है, काल नित्य है, दिशाएँ नित्य हैं, ब्रह्माण्डगोलक नित्य है, गोलोक नित्य है तथा उससे थोड़ा नीचे स्थित वैकुण्ठ नित्य है; उसी प्रकार ब्रह्मकी सनातनी लीलाशक्ति प्रकृति भी नित्य है ॥ 5-6 ॥

जैसे अग्निमें दाहिका शक्ति, चन्द्रमा तथा कमलमें शोभा, सूर्यमें दीप्ति सदा विद्यमान रहती और उससे अलग नहीं होती है; उसी प्रकार परमात्मामें प्रकृति विद्यमान रहती है ॥ 7 ॥

जैसे बिना स्वर्णके स्वर्णकार कुण्डलादि आभूषणोंका निर्माण करनेमें असमर्थ होता है और बिना मिट्टीके कुम्हार घड़ेका निर्माण करनेमें सक्षम नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृतिके सहयोगके बिना परमात्मा सृष्टिकी रचनामें समर्थ नहीं होता। वे प्रकृति ही सभी शक्तियोंकी अधिष्ठात्री हैं तथा उनसे ही परमात्मा सदा शक्तिमान् रहता है। 8-9 ॥


'श' ऐश्वर्यका तथा 'क्ति' पराक्रमका वाचक है। जो इनके स्वरूपवाली है तथा इन दोनोंको प्रदान करनेवाली है; उस देवीको शक्ति कहा गया है ॥ 10 ॥
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ज्ञान, समृद्धि, सम्पत्ति, यश और बल को 'भग' कहते हैं। उन गुणों से सदा सम्पन्न रहनेके कारण ही शक्ति को भगवती कहते हैं तथा वे सदा भग रूपा हैं। उनसे सम्बद्ध होनेके कारण ही परमात्मा भी भगवान् कहे जाते हैं। वे परमेश्वर अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होनेके कारण साकार और निराकार दोनों रूपों से अवस्थित रहते हैं ।11-12॥


उस तेजस्वरूप निराकार का योगीजन सदा ध्यान करते हैं तथा उसे परमानन्द, परब्रह्म तथा ईश्वर कहते हैं ॥ 13 ॥ अदृश्य, सबको देखनेवाले, सर्वज्ञ, सबके कारणस्वरूप, सब कुछ देनेवाले, सर्वरूप उस परब्रह्मको वैष्णवजन नहीं स्वीकार करते ॥ 14 ॥

 वे कहते हैं कि तेजस्वी सत्ताके बिना किसका तेज प्रकाशित हो सकता है ? अतः तेजोमण्डलके मध्य अवश्य ही तेजस्वी परब्रह्म विराजते हैं ॥ 15 ॥


वे स्वेच्छामय, सर्वरूप और सभी कारणों के भी कारण हैं। वे अत्यन्त सुन्दर तथा मनोहर रूप धारण करनेवाले हैं, वे किशोर अवस्थावाले, शान्तस्वभाव, सभी मनोहर अंगोंवाले तथा परात्पर हैं। वे नवीन मेघ की कान्ति के एकमात्र धामस्वरूप श्याम विग्रहवाले हैं, उनके नेत्र शरद् ऋतुके मध्याह्न में खिले कमलकी शोभा को तिरस्कृत करनेवाले हैं और उनकी मनोरम दन्तपंक्ति मुक्ताकी शोभाको भी तुच्छ कर देनेवाली है ॥ 16-18 ।

उन्होंने मयूरपिच्छ का मुकुट धारण किया है, उनके गलेमें मालती की माला सुशोभित हो रही है। उनकी सुन्दर नासिका है, उनका मुखमण्डल मुसकानयुक्त तथा सुन्दर है और वे भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं। 
वे प्रज्वलित अग्निके सदृश विशुद्ध तथा देदीप्यमान पीताम्बरसे सुशोभित हो रहे हैं। उनकी दो भुजाएँ हैं, उन्होंने मुरली को हाथ में धारण किया है, वे रत्नोंके आभूषणों से अलंकृत हैं। वे सर्वाधार, सर्वेश, सर्वशक्तिसे युक्त, विभु, सभी प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, सब प्रकारसे स्वतन्त्र तथा सर्वमंगलरूप हैं । 19 - 21 ॥
____     

 वे परिपूर्णतम सिद्धावस्थाको प्राप्त, सिद्धोंके स्वामी तथा सिद्धियाँ प्रदान करनेवाले हैं। वे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भयको दूर करते हैं, ऐसे उन सनातन परमेश्वर का वैष्णवजन सदा ध्यान करते रहते हैं ।। 22ll

ब्रह्माजीकी आयु जिनके एक निमेषको तुलनामें है, उन परमात्मा परब्रह्मको 'कृष्ण' नामसे पुकारा जाता है। 'कृष्' उनकी भक्ति तथा 'न' उनके दास्यके वाचक शब्द हैं। इस प्रकार जो भक्ति और दास्य प्रदान करते हैं, उन्हें कृष्ण कहा गया है अथवा 'कृष्' सर्वार्थका तथा 'न' कार बीजका वाचक है, अतः श्रीकृष्ण ही आदिमें सर्वप्रपंचके स्रष्टा तथा सृष्टिके एकमात्र बीजस्वरूप हैं।

उनमें जब सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई, तब उनके अंशभूत कालके द्वारा प्रेरित होकर स्वेच्छामय वे प्रभु अपनी इच्छासे दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम भागांश स्त्रीरूप तथा दक्षिणांश पुरुषरूष कहा गया है ।। 23-27 ॥
__    
उन [वामभागोत्पन्न ] काम की आधारस्वरूपा को उन सनातन महाकामेश्वर ने देखा। उनका रूप अतीव मनोहर था। वे सुन्दर कमलकी शोभा धारण किये हुए थीं। उन परादेवीका नितम्बयुगल चन्द्रबिम्बको तिरस्कृत कर रहा था और अपने जघन प्रदेशसे सुन्दर कदली स्तम्भको निन्दित करते हुए वे मनोहर प्रतीत हो  रही थीं। शोभामय श्रीफलके आकारवाले स्तनयुगलसे वे मनोरम प्रतीत हो रही थीं। वे मस्तकपर पुष्पोंकी सुन्दर माला धारण किये थीं, वे सुन्दर वलियों से युक्त थीं, उनका कटिप्रदेश क्षीण था, वे अति मनोहर थीं,वे अत्यन्त सुन्दर, शान्त मुसकान और कटाक्षसे सुशोभित थीं। उन्होंने अग्निके समान पवित्र वस्त्र धारण कर रखा था और वे रत्नोंके आभूषणोंसे सुशोभित थीं ॥ 28-31 ॥

वे अपने चक्षुरूपी चकोरों से करोड़ों चन्द्रमाओं को तिरस्कृत करनेवाले श्रीकृष्णके मुखमण्डल का प्रसन्नतापूर्वक निरन्तर पान कर रही थीं। 
वे देवी ललाट के ऊपरी भागमें कस्तूरी की बिन्दीके साथ-साथ नीचे चन्दन की बिन्दी तथा ललाट के मध्यमें सिन्दूर की बिन्दी धारण किये थीं। अपने प्रियतम में अनुरक्त चित्तवाली वे देवी मालती की मालासे भूषित घुँघराले केश से शोभा पा रही थीं तथा श्रेष्ठ रत्नोंकी माला धारण किये हुए थीं। कोटि चन्द्रकी प्रभाको लज्जित करनेवाली शोभा धारण किये वे अपनी चाल से राजहंस और गजके गर्वको तिरस्कृत कर रही थीं ॥ 32-35 ॥
_____
उन्हें देखकर रासेश्वर तथा परम रसिक श्रीकृष्ण ने उनके साथ रासमण्डलमें उल्लासपूर्वक रासलीला की। ब्रह्माके दिव्य दिवस की अवधि तक नाना प्रकारकी श्रृंगारचेष्टाओं से युक्त उन्होंने मूर्तिमान् श्रृंगाररस के समान सुखपूर्वक क्रीड़ा की। तत्पश्चात् थके हुए उन जगत्पिता ने नित्यानन्द मय शुभ मुहूर्तमें देवी के क्षेत्र में तेज का आधान किया। हे सुव्रत क्रीडा के अन्तमें हरि के तेज से परिश्रान्त उन देवी के शरीर से स्वेद निकलने लगा और महान् परिश्रम से खिन्न उनका श्वास भी वेग से चलने लगा। तब वह सम्पूर्ण स्वेद विश्वगोलक बन गया और वह निःश्वास वायु जगत् में सब प्राणियोंके जीवनका आधार बन गया ॥ 36–41
______
  उस मूर्तिमान् वायु के वामांग से उसकी प्राणप्रिय पत्नी प्रकट हुईं, पुनः उनके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए
जो जीवों के प्राणके रूपमें प्रतिष्ठित हैं। प्राण, अपान,
समान, उदान तथा व्यान-ये पाँच वायु और उनके पाँच
अधोगामी प्राणरूप पुत्र भी उत्पन्न हुए ॥ 42-43 ॥

 स्वेदके रूपमें निकले जलके अधिष्ठाता महान् वरुणदेव हुए। उनके वामांगसे उनकी पत्नी वरुणानी प्रकट हुई। श्रीकृष्णकी उन चिन्मयी शक्तिने उनके गर्भ को धारण किया। वे सौ मन्वन्तरोंतक ब्रह्मतेज से | देदीप्यमान बनी रहीं। वे श्रीकृष्णके प्राणों की अधिष्ठातृदेवी हैं, कृष्ण को प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं। वे कृष्णकी सहचरी हैं और सदा उनके वक्षःस्थल पर विराजमान रहती हैं। सौ मन्वन्तर बीतनेपर उन सुन्दरी ने स्वर्ण की कान्तिवाले, विश्वके आधार तथा निधानस्वरूप श्रेष्ठ बालक को जन्म दिया ॥ 44-47 ॥
______
उस बालक को देखकर उन देवी का हृदय अत्यन्त दुःखित हो गया और उन्होंने उस बालक को कोपपूर्वक उस ब्रह्माण्डगोलक में छोड़ दिया। बालक के उस त्यागको देखकर देवेश्वर श्रीकृष्ण हाहाकार करने लगे और उन्होंने उसी क्षण उन देवी को समयानुसार शाप दे दिया- हे कोपशीले! हे निष्ठुरे ! तुमने पुत्र को त्याग दिया है, इस कारण आज से तुम निश्चित ही सन्तानहीन रहोगी तुम्हारे अंश से जो जो देवपत्नियाँ प्रकट होंगी, वे भी तुम्हारी तरह सन्तानरहित तथा नित्ययौवना रहेंगी ।
 48-51॥
______
इसके बाद देवीके जिह्वाग्रसे सहसा ही एक सुन्दर गौरवर्ण कन्या प्रकट हुई। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा था तथा वे हाथ में वीणा पुस्तक लिये हुए थीं। सभी शास्त्रोंकी अधिष्ठात्री वे देवी रत्नोंके आभूषण से सुशोभित थीं। कालान्तरमें वे भी द्विधारूपसे विभक्त हो गयीं। उनके वाम अर्धागसे कमला तथा दक्षिण अर्धागसे राधिका प्रकट हुई। ll 52-54॥
_______


इसी बीच श्रीकृष्ण भी द्विधारूपसे प्रकट हो गये। उनके दक्षिणार्धसे द्विभुज रूप प्रकट हुआ तथा वामार्धसे चतुर्भुज रूप प्रकट हुआ। 

तब श्रीकृष्णने उन सरस्वती देवी से कहा कि तुम इस (चतुर्भुज) विष्णुकी कामिनी बनो। ये मानिनी राधा इस द्विभुजके साथ यहीं रहेंगी।

 तुम्हारा कल्याण होगा। इस प्रकार प्रसन्न होकर उन्होंने लक्ष्मीको नारायणको समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् वे जगत्पति उन दोनों के साथ वैकुण्ठ को चले गये ।। 55-57 ॥

राधा के अंश से प्रकट वे दोनों लक्ष्मी तथा सरस्वती निःसन्तान ही रहीं।
_____
भगवान् नारायण के अंगसे चतुर्भुज पार्षद प्रकट हुए। वे तेज, वय, रूप और गुणोंमें नारायणके समान ही थे उसी प्रकार लक्ष्मीके अंगसे उनके ही समान करोड़ों दासियाँ प्रकट हो गयीं ॥ 58-59 ॥
_____
हे मुने! गोलोकनाथ श्रीकृष्णके रोमकूपोंसे असंख्य गोपगण प्रकट हुए; जो वय, तेज, रूप, गुण, बल तथा पराक्रममें उन्हींके समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्णके प्राणोंके समान प्रिय पार्षद बन गये ।। 60-61 ॥

श्रीराधाके अंगोंके रोमकूपोंसे अनेक गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सब राधा के ही समान थीं तथा उनकी प्रियवादिनी दासियोंके रूपमें रहती थीं। वे सभी रत्नाभरणोंसे भूषित और सदा स्थिर यौवना थीं, किंतु परमात्माके शापके कारण वे सभी सदा सन्तानहीन रहीं।
 हे विप्र इसी बीच श्रीकृष्णकी उपासना करनेवाली सनातनी विष्णुमाया दुर्गा सहसा प्रकट हुईं। 
वे देवी सर्वशक्तिमती, नारायणी तथा ईशाना हैं और परमात्मा श्रीकृष्णकी बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं ॥ 62-65 ll
___    

सभी शक्तियोंकी बीजरूपा वे मूलप्रकृति ही ईश्वरी, परिपूर्णतमा तथा तेजपूर्ण त्रिगुणात्मिका हैं। वे तपाये हुए स्वर्णकी कान्तिवाली, कोटि सूर्योकी आभा धारण करनेवाली, किंचित् हास्यसे युक्त प्रसन्नवदनवाली तथा सहस्र भुजाओंसे शोभायमान हैं। वे त्रिलोचना भगवती नाना प्रकारके शस्त्रास्त्र समूहोंको धारण करती हैं, अग्निसदृश विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुए हैं और रत्नाभरणसे भूषित हैं ।। 66-68 ॥

उन्हींकी अंशांशकलासे सभी नारियाँ प्रकट हुई हैं। उनकी माया से विश्व के सभी प्राणी मोहित हो जाते हैं। वे गृहस्थ सकामजनों को सब प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली, वैष्णवजनोंको वैष्णवी कृष्णभक्ति देनेवाली, मोक्षार्थी-जनोंको मोक्ष देनेवाली तथा सुख चाहनेवालोंको सुख प्रदान करनेवाली हैं ।69-70 ।।
_______

वे देवी स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, गृहोंमें गृहलक्ष्मी, तपस्वियोंमें तप तथा राजाओंमें राज्यलक्ष्मीके रूपमें स्थित हैं। वे अग्निमें दाहिका शक्ति, सूर्यमें प्रभारूप, चन्द्रमा तथा कमलोंमें शोभारूपसे और परमात्मा श्रीकृष्णमें सर्वशक्तिरूपसे विद्यमान हैं ॥ 71-73 ॥
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हे नारद! जिनसे परमात्मा शक्तिसम्पन्न होता है तथा जगत् भी शक्ति प्राप्त करता है और जिनके बिना सारा चराचर विश्व जीते हुए भी मृतकतुल्य हो जाता है, जो सनातनी संसाररूपी बीजरूपसे वर्तमान हैं, वे ही समस्त सृष्टिकी स्थिति, वृद्धि और फलरूपसे स्थित हैं ।। 74-75 ॥

वे ही भूख-प्यास, दया, निद्रा, तन्द्रा, क्षमा, मति, शान्ति, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति तथा कान्तिरूपसे सर्वत्र विराजती हैं।

 सर्वेश्वर प्रभुकी स्तुति करके वे उनके समक्ष स्थित हो गयीं। राधिका के ईश्वर श्रीकृष्ण ने उन्हें रत्नसिंहासन प्रदान किया । ll 76-77 ।।
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हे महामुने! इसी समय वहाँ सपत्नीक ब्रह्माजी पद्मनाभ भगवान्के नाभिकमलसे प्रकट हुए। ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ तथा परम तपस्वी वे ब्रह्मा कमण्डलु धारण किये हुए थे। देदीप्यमान वे ब्रह्मा चारों मुखोंसे श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे।78-79 ।।

सैकड़ों चन्द्रमाके समान कान्तिवाली, अग्निके समान चमकीले वस्त्रोंको धारण किये और रत्नाभरणोंसे भूषित प्रकट हुई वे सुन्दरी सबके कारणभूत परमात्माकी स्तुति करके अपने स्वामी श्रीकृष्णके साथ रमणीय रत्नसिंहासनपर उनके समक्ष प्रसन्नतापूर्वक बैठ गर्यो ।। 80-81 ll
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उसी समय वे श्रीकृष्ण दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम अर्धांग महादेवके रूप में परिणत हो गया और दक्षिण अधग गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण ही बना रह गया। 
वे महादेव शुद्ध स्फटिकके समान प्रभायुक्त थे, शतकोटि सूर्यकी प्रभासे सम्पन्न थे, त्रिशूल तथा पट्टिश धारण किये हुए थे तथा बाघाम्बर पहने हुए थे। वे परमेश्वर तप्त स्वर्णके समान कान्तिवाले थे, वे जटाजूट धारण किये हुए थे, उनका शरीर भस्मसे विभूषित था, वे मन्द मन्द मुसकरा रहे थे। उन्होंने मस्तकपर चन्द्रमाको धारण कर रखा था। वे दिगम्बर नीलकण्ठ सपके आभूषण से अलंकृत थे। उन्होंने दाहिने हाथमें सुसंस्कृत रत्नमाला धारण कर रखी थी ll 82 - 85।

वे पाँचों मुखोंसे सनातन ब्रह्मज्योतिका जप कर रहे थे। उन सत्यस्वरूप, परमात्मा, ईश्वर, सभी कारणों के कारण, सभी मंगलोंके भी मंगल, जन्म मृत्यु, जरा-व्याधि-शोक और भयको दूर करनेवाले, कालके काल, श्रेष्ठ श्रीकृष्णकी स्तुति करके मृत्युंजय नामसे विख्यात हुए वे शिव विष्णुके समक्ष रमणीय रत्नसिंहासनपर बैठ गये॥ 86–88 ॥

_____    




ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः) /अध्यायः।२।

                 "नारद उवाच"
समासेन श्रुतं सर्वं देवीनां चरितं विभो ।।
विबोधनार्थं बोधस्य व्यासतो वक्तुमर्हसि ।१।।

सृष्टेराद्या सृष्टिविधौ कथमाविर्बभूव ह ।।
कथं वा पञ्चधा भूता वद वेदविदां वर ।२ ।।

भूता या याश्च कलया तया त्रिगुणया भवे ।।
व्यासेन तासां चरितं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ।३।

तासां जन्मानुकथनं ध्यानं पूजाविधिं परम् ।।
स्तोत्रं कवचमैश्वर्य्यं शौर्यं वर्णय मङ्गलम् ।। ४ ।

              श्रीनारायण उवाच ।।
नित्यात्मा च नभो नित्यं कालो नित्यो दिशो यथा।
विश्वेषां गोकुलं नित्यं नित्यो गोलोक एव च ।। ५।

तदेकदेशो वैकुण्ठो लम्बभागः स नित्यकः ।।
तथैव प्रकृतिर्नित्या ब्रह्मलीना सनातनी ।। ६ ।

यथाऽग्नौ दाहिका चन्द्रे पद्मे शोभा प्रभा रवौ ।।
शश्वद्युक्ता न भिन्ना सा तथा प्रकृतिरात्मनि ।। ७

विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ।।
विना मृदा कुलालो हि घटं कर्तुं न हीश्वरः ।। ८।

नहि क्षमस्तथा ब्रह्मा सृष्टिं स्रष्टुं तया विना ।।
सर्वशक्तिस्वरूपा सा तया स्याच्छक्तिमान्सदा ।९।

ऐश्वर्य्यवचनः शक् च तिः पराक्रमवाचकः ।।
तत्स्वरूपा तयोर्दात्री या सा शक्तिः प्रकीर्तिता ।। 2.2.१० ।।

समृद्धिबुद्धिसम्पत्तियशसां वचनो भगः ।।
तेन शक्तिर्भगवती भगरूपा च सा सदा ।। ११।

तया युक्तः सदाऽऽत्मा च भगवांस्तेन कथ्यते ।
स च स्वेच्छामयः कृष्णः साकारश्च निराकृतिः ।१२।

तेजोरूपं निराकारं ध्यायन्ते योगिनः सदा ।।
वदन्ति ते परं ब्रह्म परमात्मानमीश्वरम् ।१३।

अदृश्यं सर्व द्रष्टारं सर्वज्ञं सर्वकारणम् ।।
सर्वदं सर्वरूपान्तमरूपं सर्वपोषकम्।। १४ ।।

वैष्णवास्ते न मन्यन्ते तद्भक्ताः सूक्ष्मदर्शिनः।।
वदन्ति कस्य तेजस्ते इति तेजस्विनं विना ।१५।।

तेजोमण्डलमध्यस्थं ब्रह्म तेजस्विनं परम्।।
स्वेच्छामयं सर्वरूपं सर्वकारणकारणम्।।१६।।

अतीवसुन्दरं रूपं बिभ्रतं सुमनोहरम् ।।
किशोरवयसं शान्तं सर्वकान्तं परात्परम् ।।१७।।

नवीननीरदाभासं रासैकश्यामसुन्दरम् ।।
शरन्मध्याह्नपद्मौघशोभामोचकलोचनम् ।१८।

मुक्तासारमहास्वच्छदन्तपङ्क्तिमनोहरम् ।।
मयूरपुच्छचूडं च मालतीमाल्यमण्डितम् ।।१९।।

सुनासं सस्मितं शश्वद्भक्तानुग्रहकारकम् ।।
ज्वलदग्निविशुद्धैकपीतांशुकसुशोभितम् ।।2.2.२०।

द्विभुजं मुरलीहस्तं रत्नभूषणभूषितम् ।।
सर्वाधारं च सर्वेशं सर्वशक्तियुतं विभुम् ।२१।

सर्वैश्वर्य्यप्रदं सर्वं स्वतन्त्रं सर्वमङ्गलम्
परिपूर्णतमं सिद्धं सिद्धि दं सिद्धिकारणम् ।। २२।

ध्यायन्ते वैष्णवाः शश्वदेवंरूपं सनातनम् ।।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् । २३।

ब्रह्मणो वयसा यस्य निमेष उपचार्य्यते ।।
स चात्मा परमं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।२४ ।।

कृषिस्तद्भक्तिवचनो नश्च तद्दास्यकारकः ।।
भक्तिदास्यप्रदाता यः स कृष्णः परिकीर्तितः ।२५।

कृषिश्च सर्ववचनो नकारो बीजवाचकः ।।
सर्वबीजं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।। २६।

असंख्यब्रह्मणा पाते कालेऽतीतेऽपि नारद ।।
यद्गुणानां नास्ति नाशस्तत्समानो गुणेन च ।२७।
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स कृष्णः सर्वसृष्ट्यादौ सिसृक्षुस्त्वेक एव च ।।
सृष्ट्युन्मुखस्तदंशेन कालेन प्रेरितः प्रभुः। २८।

स्वेच्छामयः स्वेच्छया च द्विधारूपो बभूव ह ।
स्त्रीरूपा वामभागांशाद्दक्षिणांशः पुमान्स्मृतः ।। २९ ।।
____
तां ददर्श महाकामी कामाधारः सनातनः ।।
अतीव कमनीयां च चारुचम्पकसन्निभाम् ।। 2.2.३० ।।

पूर्णेन्दुबिम्बसदृशनितम्वयुगलां पराम् ।।
सुचारुकदलीस्तम्भसदृशश्रोणिसुन्दरीम् ।३१ ।

श्रीयुक्तश्रीफलाकारस्तनयुग्ममनोरमाम् ।।
पुष्ट्या युक्तां सुललितां मध्यक्षीणां मनोहराम् । ३२।

अतीव सुन्दरीं शान्तां सस्मितां वक्रलोचनाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।३३।

शश्वच्चक्षुश्चकोराभ्यां पिबन्तीं सन्ततं मुदा ।।
कृष्णस्य सुन्दरमुखं चन्द्रकोटिविनिन्दकम् ।३४।

कस्तूरीबिन्दुभिः सार्द्धमधश्चन्दनबिन्दुना ।।
समं सिन्दूरबिन्दुं च भालमध्ये च बिभ्रतीम् ।३५।

सुवक्रकबरीभारं मालतीमाल्यभूषितम् ।।
रत्नेन्द्रसारहारं च दधतीं कान्तकामुकीम् । ३६।

कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टपुष्टशोभासमन्विताम् ।।
गमने राजहंसीं तां दृष्ट्या खञ्जनगञ्जनीम् ।३७।

अतिमात्रं तया सार्द्धं रासेशो रासमण्डले ।।
रासोल्लासेषु रहसि रासक्रीडां चकार ह।।३८।।

नानाप्रकारशृंगारं शृङ्गारो मूर्त्तिमानिव।।
चकार सुखसम्भोगं यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।।३९।।

ततः स च परिश्रान्तस्तस्या योनौ जगत्पिता ।।
चकार वीर्य्याधानं च नित्यानन्दः शुभक्षणे ।। 2.2.४० ।।

गात्रतो योषितस्तस्याः सुरतान्ते च सुव्रत ।।
निस्ससार श्रमजलं श्रान्तायास्तेजसा हरेः । ४१।।

महासुरतखिन्नाया निश्वासश्च बभूव ह।
तदाधारश्रमजलं तत्सर्वं विश्वगोलकम् ।। ४२।

स च निःश्वासवायुश्च सर्वाधारो बभूव ह ।।
निश्श्वासवायुः सर्वेषां जीविनां च भवेषु च।४३।

बभूव मूर्त्तिमद्वायोर्वामाङ्गात्प्राणवल्लभा ।।
तत्पत्नी सा च तत्पुत्राः प्राणाः पञ्च च जीविनाम् ।। ४४ ।

प्राणोऽपानः समानश्चैवोदानो व्यान एव च ।।
बभूवुरेव तत्पुत्रा अधःप्राणाश्च पञ्च च ।। ४५ ।।

घर्मतोयाधिदेवश्च बभूव वरुणो महान् ।।
तद्वामाङ्गाच्च तत्पत्नी वरुणानी बभूव सा । ४६ ।
______
अथ सा कृष्णशक्तिश्च कृष्णाद्गर्भं दधार ह ।।
शतमन्वन्तरं यावज्ज्वलन्तो(ती?) ब्रह्मतेजसा ।। ४७ ।।

______

कृष्णप्राणाधिदेवी सा कृष्णप्राणाधिकप्रिया ।।
कृष्णस्य सङ्गिनी शश्वत्कृष्णवक्षस्थलस्थिता । ४८।

शतमन्वन्तरातीते काले परमसुन्दरी ।।
सुषावाण्डं सुवर्णाभं विश्वाधारालयं परम् । ४९।
 
दृष्ट्वा चाण्डं हि सा देवी हृदयेन विदूयता ।।
उत्ससर्ज च कोपेन तदण्डं गोलके जले ।। 2.2.५०।

दृष्ट्वा कृष्णश्च तत्त्यागं हाहाकारं चकार द।।।
शशाप देवीं देवेशस्तत्क्षणं च यथोचितम् । ५१।

यतोऽपत्यं त्वया त्यक्तं कोपशीले सुनिष्ठुरे ।
भव त्वमनपत्याऽपि चाद्यप्रभृति निश्चितम् ।। ५२।

या यास्त्वदंशरूपाश्च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः ।।
अनपत्याश्च ताः सर्वास्त्वत्समा नित्ययौवनाः ।। ५३ ।

एतस्मिन्नन्तरे देवी जिह्वाग्रात्सहसा ततः ।।
आविर्बभूव कन्यैका शुक्लवर्णा मनोहरा ।५४ 

पीतवस्त्रपरीधाना वीणापुस्तकधारिणी ।।
रत्नभूषणभूषाढ्या सर्वशास्त्राधिदेवता । ५५।
 
अथ कालान्तरे सा च द्विधारूपा बभूव ह ।।
वामार्द्धाङ्गा च कमला दक्षिणार्द्धा च राधिका ।। ५६ ।।
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एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव ह ।।
दक्षिणार्द्धस्स्याद्द्विभुजो वामार्द्धश्च चतुर्भुजः ।५७।

उवाच वाणीं श्रीकृष्णस्त्वमस्य भव कामिनी।।
अत्रैव मानिनी राधा नैव भद्रं भविष्यति ।। ५८

एवं लक्ष्मीं संप्रदौ तुष्टो नारायणाय वै ।।
संजगाम च वैकुण्ठं ताभ्यां सार्द्धं जगत्पतिः। ५९।

अनपत्ये च ते द्वे च यतो राधांशसम्भवे।।
नारायणाङ्गादभवन्पार्षदाश्च चतुर्भुजाः ।। 2.2.६०।

तेजसा वयसा रूपगुणाभ्यां च समा हरेः।
बभूवुः कमलाङ्गाच्च दासीकोट्यश्च तत्समाः। ६१।

अथ गोलोकनाथस्य लोमाविवरतो मुने ।।
आसन्नसंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः ।६२।

रूपेण सुगुणेनैव वेषाद्वा विक्रमेण च ।
प्राणतुल्याः प्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः।६३।

राधाङ्गलोमकूपेभ्यो बभूवुर्गोपकन्यकाः ।।
राधातुल्याश्च सर्वास्ता नान्यतुल्याः प्रियंवदाः।६४।

रत्नभूषणभूषाढ्याः शश्वत्सुस्थिरयौवनाः ।।
अनपत्याश्च ताः सर्वाः पुंसः शापेन सन्ततम् । ६५।

एतस्मिन्नन्तरे विप्र सहसा कृष्णदेहतः।
आविर्बभूव सा दुर्गा विष्णुमाया सनातनी।६६
 
देवी नारायणीशाना सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।।
बुद्ध्यधिष्ठातृदेवी सा कृष्णस्य परमात्मनः ।।६७।।

देवीनां बीजरूपा च मूलप्रकृतिरीश्वरी।।
परिपूर्णतमा तेजःस्वरूपा त्रिगुणात्मिका ।६८ ।

तप्तकाञ्चनवर्णाभा सूर्य्यकोटिसमप्रभा ।।
ईषद्धासप्रसन्नास्या सहस्रभुजसंयुता ।। ६९ ।।

नानाशस्त्रास्त्रनिकरं बिभ्रती सा त्रिलोचना ।।
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्नभूषणभूषिता । 2.2.७०।

यस्याश्चांशांशकलया बभूवुः सर्वयोषितः ।।
सर्वविश्वस्थिता लोका मोहिता मायया यया ।७१।

सर्वैश्वर्य्यप्रदात्री च कामिनां गृहमेधिनाम् ।।
कृष्णभक्ति प्रदात्री च वैष्णवानां च वैष्णवी । ७२।
 
मुमुक्षूणां मोक्षदात्री सुखिनां सुखदायिनी।।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीः सा गृहलक्ष्मीर्गृहेष्वसौ।।७३।।

तपस्विषु तपस्या च श्रीरूपा सा नृपेषु च ।।
या चाग्नौ दाहिकारूपा प्रभारूपा च भास्करे ।७४।

शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मेषु च सुशोभना ।।
सर्वशक्तिस्वरूपा या श्रीकृष्णे परमात्मनि ।७५।

यया च शक्तिमानात्मा यया वै शक्तिमज्जगत् ।
यया विना जगत्सर्वं जीवन्मृतमिव स्थितम् ।७६।

या च संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी ।।
स्थितिरूपा बुद्धिरूपा फलरूपा च नारद ।७७।

क्षुत्पिपासा दया श्रद्धा निद्रा तन्द्रा क्षमा धृतिः ।।
शान्तिर्लज्जाजातुष्टिपुष्टिभ्रान्तिकान्त्यादिरूपिणी।७८।

सा च संस्तूय सर्वेशं तत्पुरः समुपस्थिता ।।
रत्नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः ।। ७९ ।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र सस्त्रीकश्च चतुर्मुखः ।।
पद्मनाभो नाभिपद्मान्निस्ससार पुमान्मुने ।। 2.2.८० ।।

कमण्डलुधरः श्रीमांस्तपस्वी ज्ञानिनां वरः।
चतुर्मुखस्तं तुष्टाव प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ।८१।

सुदती सुन्दरी श्रेष्ठा शतचन्द्रसमप्रभा
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्नभूषणभूषिता । ८२ ।
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रत्नसिंहासने रम्ये स्तुता वै सर्वकारणम् ।
उवास स्वामिना सार्द्ध कृष्णस्य पुरतो मुदा । ८३।

एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।।
वामार्द्धांगो महादेवो दक्षिणो गोपिकापतिः। ८४।।
______
शुद्धस्फटिकसङ्काशः शतकोटिरविप्रभः ।।
त्रिशूलपट्टिशधरो व्याघ्रचर्मधरो हरः ।८५।

तप्तकाञ्चनवर्णाभ जटाभारधरः परः ।।
भस्मभूषणगात्रश्च सस्मितश्चन्द्रशेखरः ।८६ ।

दिगम्बरो नीलकण्ठः सर्प भूषणभूषितः ।
बिभ्रद्दक्षिणहस्तेन रत्नमालां सुसंस्कृताम् ।८७।

प्रजपन्पञ्चवक्त्रेण ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।।
सत्यस्वरूपं श्रीकृष्णं परमात्मानमीश्वरम् ।८८।

कारणं कारणानां च सर्वमङ्गलमङ्गलम् ।।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् । ८९।

संस्तूय मृत्योर्मृत्युं तं जातो मृत्युञ्जयाभिधः।
रत्नसिंहासने रम्ये समुवास हरेः पुरः ।2.2.९०।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण द्वितीय प्रकृति खण्ड नारायणनारदसंवादे देवदेव्युत्पत्तिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः।२।

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ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2

परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रकट चिन्मय देवी और देवताओं के चरित्र :-

नारदजी ने कहा– प्रभो! देवियों के सम्पूर्ण चरित्र को मैंने संक्षेप में सुन लिया। अब सम्यक प्रकार से बोध होने के लिये आप पुनः विस्तारपूर्वक उसका वर्णन कीजिये।

सृष्टि के अवसर पर भगवती आद्यादेवी कैसे प्रकट हुईं? वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन! देवी के पंचविध होने में क्या कारण है? यह रहस्य बताने की कृपा करें। 

देवी की त्रिगुणमयी कला से संसार में जो-जो देवियाँ प्रकट हुईं, उनका चरित्र मैं विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। सर्वज्ञ प्रभो! उन देवियों के प्राकट्य का प्रसंग, पूजा एवं ध्यान की विधि, स्तोत्र, कवच, ऐश्वर्य तथा मंगलमय शौर्य– इन सबका वर्णन कीजिये।

 भगवान नारायण बोले– नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता। गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है। वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है।

 यह परब्रह्म में लीन रहने वाली उनकी सनातनी शक्ति है। जिस प्रकार अग्नि में दाहिका शक्ति, चन्द्रमा एवं कमल में शोभा तथा सूर्य में प्रभा सदा वर्तमान रहती है, वैसे ही यह प्रकृति परमात्मा में नित्य विराजमान है। जैसे स्वर्णकार सुवर्ण के अभाव में कुण्डल नहीं तैयार कर सकता तथा कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा बनाने में असमर्थ है, ठीक उसी प्रकार परमात्मा को यदि प्रकृति का सहयोग न मिले तो वे सृष्टि नहीं कर सकते। जिसके सहारे श्रीहरि सदा शक्तिमान बने रहते हैं, वह प्रकृति देवी ही शक्तिस्वरूपा हैं। ‘शक्’ का अर्थ है ‘ऐश्वर्य’ तथा ‘ति’ का अर्थ है ‘पराक्रम’; ये दोनों जिसके स्वरूप हैं तथा जो इन दोनों गुणों को देने वाली है, वह देवी ‘शक्ति’ कही गयी है। ‘भग’ शब्द समृद्धि, बुद्धि, सम्पत्ति तथा यश का वाचक है, उससे सम्पन्न होने के कारण भक्ति को ‘भगवती’ कहते हैं; क्योंकि वह सदा भगस्वरूपा हैं।
परमात्मा सदा इस भगवती प्रकृति के साथ विराजमान रहते हैं, अतएव ‘भगवान’ कहलाते हैं। वे स्वतन्त्र प्रभु साकार और निराकार भी हैं। उनका निराकार रूप तेजःपुंजमय है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-
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योगीजन सदा उसी का ध्यान करते और उसे परब्रह्म परमात्मा एवं ईश्वर की संज्ञा देते हैं। उनका कहना है कि परमात्मा अदृश्य होकर भी सबका द्रष्टा है। वह सर्वज्ञ, सबका कारण, सब कुछ देने वाला, समस्त रूपों का अन्त करने वाला, रूपरहित तथा सबका पोषक है। परन्तु जो भगवान के सूक्ष्मदर्शी भक्त वैष्णवजन हैं, वे ऐसा नहीं मानते हैं। वे पूछते हैं– यदि कोई तेजस्वी पुरुष– साकार पुरुषोत्तम नहीं है तो वह तेज किसका है?

योगी जिस तेजोमण्डल का ध्यान करते हैं, उसके भीतर अन्तर्यामी तेजस्वी परमात्मा परमपुरुष विद्यमान हैं। वे स्वेच्छामयरूपधारी, सर्वस्वरूप तथा समस्त कारणों के भी कारण हैं। वे प्रभु जिस रूप को धारण करते हैं, वह अत्यन्त सुन्दर, रमणीय तथा परम मनोहर है। इन भगवान की किशोर अवस्था है, ये शान्त-स्वभाव हैं। इनके सभी अंग परम सुन्दर हैं। इनसे बढ़कर जगत में दूसरा कोई नहीं है। इनका श्याम विग्रह नवीन मेघ की कान्ति का परम धाम है। इनके विशाल नेत्र शरत्काल के मध्याह्न में खिले हुए कमलों की शोभा को छीन रहे हैं। मोतियों की शोभा को तुच्छ करने वाली इनकी सुन्दर दन्तपंक्ति है। मुकुट में मोर की पाँख सुशोभित है।

मालती की माला से ये अनुपम शोभा पा रहे हैं। इनकी सुन्दर नासिका है। मुख पर मुस्कान छायी है। ये परम मनोहर प्रभु भक्तों पर अनुग्रह के समान विशुद्ध पीताम्बर से इनका विग्रह परम मनोहर हो गया है। इनकी दो भुजाएँ हैं। हाथ में बाँसुरी सुशोभित है। ये रत्नमय भूषणों से भूषित, सबके आश्रय, सबके स्वामी, सम्पूर्ण शक्तियों से युक्त एवं सर्वव्यापी पूर्ण पुरुष हैं। समस्त ऐश्वर्य प्रदान करना इनका स्वभाव ही है। ये परम स्वतन्त्र एवं सम्पूर्ण मंगल के भण्डार हैं। इन्हें ‘सिद्ध’, ‘सिद्धेश’, ‘सिद्धिकारक’ तथा ‘परिपूर्णतम ब्रह्म’ कहा जाता है।

इन देवाधिदेव सनातन प्रभु का वैष्णव पुरुष निरन्तर ध्यान करते हैं। इनकी कृपा से जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय सब नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मा की आयु इनके एक निमेष की तुलना में है। ये ही ये आत्मा परब्रह्म श्रीकृष्ण कहलाते हैं।

‘कृष्’ का अर्थ है भगवान की भक्ति और ‘न’ का अर्थ है, उनका ‘दास्य’। अतः जो अपनी भक्ति और दास्यभाव देने वाले हैं, वे ‘कृष्ण’ कहलाते हैं। ‘कृष्’ सर्वार्थवाचक है, ‘न’ से बीज अर्थ की उपलब्धि होती है। अतः सर्वबीजस्वरूप परब्रह्म परमात्मा ‘कृष्ण’ कहे गये हैं।

ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-

नारद! अतीत काल की बात है, असंख्य ब्रह्माओं का पतन होने के पश्चात् भी जिनके गुणों का नाश नहीं होता है तथा गुणों में जिनकी समानता करने वाला दूसरा नहीं है; वे भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में अकेले ही थे। उस समय उनके मन में सृष्टि विषयक संकल्प का उदय हुआ। अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टिकर्म के लिये उन्मुख हुए थे। 

उनका स्वरूप स्वेच्छामय है। वे अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गये। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में।

वे सनातन पुरुष उस दिव्यस्वरूपिणी स्त्री को देखने लगे। उसके समस्त अंग बड़े ही सुन्दर थे।
मनोहर चम्पा के समान उसकी कान्ति थी। उस असीम सुन्दरी देवी ने दिव्य स्वरूप धारण कर रखा था।

मुस्कराती हुई वह बंकिम भंगिमाओं से प्रभु की ओर ताक रही थी। उसने विशुद्ध वस्त्र पहन रखे थे। रत्नमय दिव्य आभूषण उसके शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। वह अपने चकोर-चक्षुओं के द्वारा श्रीकृष्ण के श्रीमुखचन्द्र का निरन्तर हर्षपूर्वक पान कर रही थी। श्रीकृष्ण का मुखमण्डल इतना सुन्दर था कि उसके सामने करोड़ों चन्द्रमा भी नगण्य थे।
उस देवी के ललाट के ऊपरी भाग में कस्तूरी की बिन्दी थी।

नीचे चन्दन की छोटी-छोटी बिंदियाँ थीं। साथ ही मध्य ललाट में सिन्दूर की बिन्दी भी शोभा पा रही थी। प्रियतम के प्रति अनुरक्त चित्तवाली उस देवी के केश घुँघराले थे। मालती के पुष्पों का सुन्दर हार उसे सुशोभित कर रहा था। करोड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा से सुप्रकाशित परिपूर्ण शोभा से इस देवी का श्रीविग्रह सम्पन्न था।
 यह अपनी चाल से राजहंस एवं गजराज के गर्व को नष्ट कर रही थी।

श्रीकृष्ण परम रसिक एवं रास के स्वामी हैं। उस देवी को देखकर रास के उल्लास में उल्लसित हो वे उसके साथ रासमण्डल में पधारे। रास आरम्भ हो गया। मानो स्वयं श्रृंगार ही मूर्तिमान होकर नाना प्रकार की श्रृंगारोचित चेष्टाओं के साथ रसमयी क्रीड़ा कर रहा हो। 
एक ब्रह्मा की सम्पूर्ण आयुपर्यन्त यह रास चलता रहा।
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ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-

तत्पश्चात् जगत्पिता श्रीकृष्ण को कुछ श्रम आ गया। उन नित्यानन्दमय ने शुभ बेला में देवी के भीतर अपने तेज का आधान किया।

उत्तम व्रत का पालन करने वाले नारद! रासक्रीड़ा के अन्त में श्रीकृष्ण के असह्य तेज से श्रान्त हो जाने के कारण उस देवी के शरीर से दिव्य प्रस्वेद बह चला और जोर-जोर से साँस चलने लगी। उस समय जो श्रमजल था, वह समस्त विश्व गोलक बन गया तथा वह निःश्वास वायु रूप में परिणत हो गया, जिसके आश्रय से सारा जगत वर्तमान है। 
_____     
संसार में जितने सजीव प्राणी हैं, उन सबके भीतर इस वायु का निवास है। फिर वायु मूर्तिमान हो गया। उसके वामांग से प्राणों के समान प्यारी स्त्री प्रकट हो गयी।
उससे पाँच पुत्र हुए, जो प्राणियों के शरीर में रहकर 'पंचप्राण' कहलाते हैं। उनके नाम हैं– प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। यों पाँच वायु और उनके पुत्र पाँच प्राण हुए। पसीने के रूप में जो जल बहा था, वही जल का अधिष्ठाता देवता वरुण हो गया। 

वरुण के बायें अंग से उनकी पत्नी ‘वरुणानी’ प्रकट हुईं।
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उस समय श्रीकृष्ण की वह चिन्मयी शक्ति उनकी कृपा से गर्भस्थिति का अनुभव करने लगी। सौ मन्वन्तर तक ब्रह्म तेज से उसका शरीर देदीप्यमान बना रहा। श्रीकृष्ण के प्राणों पर उस देवी का अधिकार था। श्रीकृष्ण प्राणों से भी बढ़कर उससे प्यार करते थे। वह सदा उनके साथ रहती थी।

श्रीकृष्ण का वक्षःस्थल ही उसका स्थान था। सौ मन्वन्तर का समय व्यतीत हो जाने पर उसने एक सुवर्ण के समान प्रकाशमान बालक उत्पन्न किया। उसमें विश्व को धारण करने की समुचित योग्यता थी, किन्तु उसे देखकर उस देवी का हृदय दुःख से संतप्त हो उठा। उसने उस बालक को ब्रह्माण्ड-गोलक के अथाह जल में छोड़ दिया। इसने बच्चे को त्याग दिया– यह देखकर देवेश्वर श्रीकृष्ण ने तुरंत उस देवी से कहा- ‘अरी कोपशीले ! तूने यह जो बच्चे को त्याग दिया है, यह बड़ा घृणित कर्म है। इसके फलस्वरूप तू आज से संतानहीनता हो जा। यह बिलकुल निश्चित है।

 यही नहीं, किंतु तेरे अंश से जो-जो दिव्य स्त्रियाँ उत्पन्न होंगी, वे सभी तेरे समान ही नूतन तारुण्य से सम्पन्न रहने पर भी संतान का मुख नहीं देख सकेंगी।’

इतने में उस देवी की जीभ के अग्रभाग से सहसा एक परम मनोहर कन्या प्रकट हो गयी। उसके शरीर का वर्ण शुक्ल था। वह श्वेतवर्ण का ही वस्त्र धारण किये हुए थी। उसके दोनों हाथ वीणा और पुस्तक से सुशोभित थे। सम्पूर्ण शास्त्रों की वह अधिष्ठात्री देवी रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी।

ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-
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तदनन्तर कुछ समय व्यतीत हो जाने के पश्चात् वह मूल प्रकृति देवी दो रूपों में प्रकट हुईं। आधे वाम-अंग से ‘कमला’ का प्रादुर्भाव हुआ और दाहिने से ‘राधिका’ का। 
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उसी समय श्रीकृष्ण भी दो रूप हो गये। आधे दाहिने अंग से स्वयं ‘द्विभुज’ विराजमान रहे और बायें अंग से ‘चार भुजावाले विष्णु’ का आविर्भाव हो गया।
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तब श्रीकृष्ण ने सरस्वती से कहा- ‘देवी! तुम इन विष्णु की प्रिया बन जाओ। 

मानिनी राधा यहाँ रहेंगी। तुम्हारा परम कल्याण होगा।’ इसी प्रकार संतुष्ट होकर श्रीकृष्ण ने लक्ष्मी को नारायण की सेवा में उपस्थित होने की आज्ञा प्रदान की।
 फिर तो जगत की व्यवस्था में तत्पर रहने वाले श्री विष्णु उन सरस्वती और लक्ष्मी देवियों के साथ वैकुण्ठ पधारे।

मूल प्रकृतिरूपा राधा के अंश से प्रकट होने के कारण वे देवियाँ भी संतान प्रसव करने में असमर्थ रहीं। फिर नारायण के अंग से चार भुजावाले अनेक पार्षद उत्पन्न हुए। सभी पार्षद गुण, तेज, रूप और अवस्था में श्रीहरि के समान थे। लक्ष्मी के अंग से उन्हीं– जैसे लक्षणों से सम्पन्न करोड़ों दासियाँ उत्पन्न हो गयीं।

मुनिवर नारद! इसके बाद गोलोकेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के रोमकूप से असंख्य गोप प्रकट हो गये। अवस्था, तेज, रूप, गुण, बल और पराक्रम में वे सभी श्रीकृष्ण के समान ही प्रतीत होते थे। प्राण के समान प्रेम भाजन उन गोपों को परम प्रभु श्रीकृष्ण ने अपना पार्षद बना लिया। ऐसे ही श्रीराधा के रोमकूपों से बहुत-सी गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सभी राधा के समान ही जान पड़ती थीं। उन मधुरभाषिणी कन्याओं को राधा ने अपनी दासी बना लिया। वे रत्नमय भूषणों से विभूषित थीं। उनका नया तारुण्य सदा बना रहता था। परम पुरुष के शाप से वे भी सदा के लिये सन्तानहीना हो गयी थीं।
ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2

विप्र! इतने में श्रीकृष्ण के शरीर से देवी दुर्गा का सहसा आविर्भाव हुआ। ये दुर्गा सनातनी एवं भगवान विष्णु की माया हैं। इन्हें 'नारायणी', 'ईशानी' और 'सर्व शक्तिस्वरूपिणी' कहा जाता है। ये परमात्मा श्रीकृष्ण की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। ________
सम्पूर्ण देवियाँ इन्हीं से प्रकट होती हैं। अतएव इन्हें देवियों की 'बीजस्वरूपा मूलप्रकृति' एवं 'ईश्वरी' कहते हैं। ये परिपूर्णतमा देवी तेजःस्वरूपा तथा त्रिगुणात्मिका हैं।

तपाये हुए सुवर्ण के समान इनका वर्ण है। प्रभा ऐसी है, मानो करोड़ों सूर्य चमक रहे हों। इनके मुख पर मन्द-मन्द मुस्कराहट छायी रहती है। ये हजारों भुजाओं से सुशोभित हैं। अनेक प्रकार के अस्त्र और शस्त्रों को हाथ में लिये रहती हैं। इनके तीन नेत्र हैं। ये विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुई हैं। रत्ननिर्मित भूषण इनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। सम्पूर्ण स्त्रियाँ इनके अंश की कला से उत्पन्न हैं। इनकी माया जगत के समस्त प्राणियों को मोहित करने में समर्थ है। सकामभाव से उपासना करने वाले गृहस्थों को ये सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। इनकी कृपा से भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति उत्पन्न होती है। विष्णु के उपासकों के लिये ये भगवती वैष्णवी (लक्ष्मी) हैं। मुमुक्षुजनों को मुक्ति प्रदान करना और सुख चाहने वालों को सुखी बनाना इनका स्वभाव है। स्वर्ग में ‘स्वर्गलक्ष्मी’ और गृहस्थों के घर ‘गृहलक्ष्मी’ के रूप में ये विराजती हैं। तपस्वियों के पास तपस्या रूप से, राजाओं के यहाँ श्रीरूप से, अग्नि में दाहिका रूप से, सूर्य में प्रभा रूप से तथा चन्द्रमा एवं कमल में शोभा रूप से इन्हीं की शक्ति शोभा पा रही है। सर्वशक्तिस्वरूपा ये देवी परमात्मा श्रीकृष्ण में विराजमान रहती हैं। इनका सहयोग पाकर आत्मा में कुछ करने की योग्यता प्राप्त होती है। इन्हीं से जगत शक्तिमान माना जाता है। इनके बिना प्राणी जीते हुए भी मृतक के समान हैं।

नारद! ये सनातनी देवी संसार रूपी वृक्ष के लिये बीजस्वरूपा हैं। स्थिति, बुद्धि, फल, क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा, निद्रा, तन्द्रा, क्षमा, मति, शान्ति, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति और कान्ति आदि सभी इन दुर्गा के ही रूप हैं।

ये देवी सर्वेश श्रीकृष्ण की स्तुति करके उनके सामने विराजमान हुईं। राधिकेश्वर श्रीकृष्ण ने इन्हें एक रत्नमय सिंहासन प्रदान किया। महामुने! इतने में चतुर्मुख ब्रह्मा अपनी शक्ति के साथ वहाँ पधारे। विष्णु के नाभि कमल से निकलकर उनका पधारना हुआ था।
ब्रह्म वैवर्त पुराण(प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3)

परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक का वर्णन
भगवान नारायण कहते हैं– नारद! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा। माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा। जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है। इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा और विष्णु आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं।
पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है? ऊपर वैकुण्ठलोक है।
यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है।
श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है। सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण(प्रकृतिखण्ड: अध्याय -3)
ब्रह्मलोक ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है। गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं।
बेटा नारद! देवताओं की संख्या तीन करोड़ है। ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
नारद ! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल ख़ाली था। दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया। तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।
पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। कहा- ‘बेटा! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ। जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अंग है। आदि में ‘ऊँ’ का स्थान है। बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं। अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ऊँ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है। इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं।

ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3)
ब्रह्मापुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।
विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराटमय बालक से कहा- ‘पुत्र! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।’ उस समय विराट व्यापक प्रभु ही बालक रूप से विराजमान था। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही।
बालक ने कहा– आपके चरण कमलों मे मेरी अविचल भक्ति हो– मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परन्तु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आप में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये। जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है। जिस अज्ञानीजन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ-सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है। प्रभो! जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती। महाभाग! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं। आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं।
नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करके
वह बालक चुप हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे।
ब्रह्म वैवर्त पुराण-प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3)
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने क्षुद्र अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे। विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे क्षुद्र अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'

इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।

भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’

नारद! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। 
जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3)
नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।

ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया।
नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं। ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ।

ब्रह्म वैवर्त पुराणप्रकृतिखण्ड: अध्याय 3Prev.pngपरिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक का वर्णन
भगवान नारायण कहते हैं– नारद! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा। माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा। जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है। इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा और विष्णु आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है? ऊपर वैकुण्ठलोक है।
यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है। श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है। सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।

ब्रह्म वैवर्त पुराणप्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-

ब्रह्मलोक ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है। गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं।
बेटा नारद! देवताओं की संख्या तीन करोड़ है। ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।

नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल ख़ाली था। दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया। तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।
पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। कहा- ‘बेटा! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ। जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अंग है। आदि में ‘ऊँ’ का स्थान है। बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं। अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ऊँ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है। इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं।
ब्रह्म वैवर्त पुराणप्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-

ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।
विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराटमय बालक से कहा- ‘पुत्र! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।’ उस समय विराट व्यापक प्रभु ही बालक रूप से विराजमान था। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही।
बालक ने कहा– आपके चरण कमलों मे मेरी अविचल भक्ति हो– मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परन्तु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आप में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये। जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है। जिस अज्ञानीजन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ-सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है। प्रभो! जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती। महाभाग! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं। आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं।
नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करकेवह बालक चुप हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे।
ब्रह्म वैवर्त पुराणप्रकृतिखण्ड: अध्याय 3Prev.png
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने क्षुद्र अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे। विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे क्षुद्र अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'
इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।

भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’
नारद! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।
ब्रह्म वैवर्त पुराणप्रकृतिखण्ड: अध्याय 3Prev.pngनारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।
ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया।
नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं। ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?


श्रीबृहन्नारदीय पुराण पूर्वभाग बृहदुपाख्यान तृतीयपाद पञ्चप्रकृतिमन्त्रादिनिरूपणं नामक त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।

            "श्रीशौनक उवाच'
साधु सूत महाभागः जगदुद्धारकारकम् ।
महातन्त्रविधानं नः कुमारोक्तं त्वयोदितम्।१।

अलभ्यमेतत्तंत्रेषु पुराणेष्वपि मानद ।
यदिहोदितमस्मभ्यं त्वयातिकरुणात्मना ।२।

नारदो भगवान्सूत लोकोद्धरणतत्परः ।।
भूयः पप्रच्छ किं साधो कुमारं विदुषां वरम्।३।

                 "सूत उवाच।
श्रुत्वा स नारदो विप्राः युग्मनामसहस्रकम्।
सनत्कुमारमप्याह प्रणम्य ज्ञानिनां वरम् ।४।


                 "नारद उवाच ।
ब्रह्मंस्त्वया समाख्याता विधयस्तंत्रचोदिताः।
तत्रापि कृष्णमंत्राणां वैभवं ह्युदितं महत् ।५।
____
या तत्र राधिकादेवी सर्वाद्या समुदाहृता ।
तस्या अंशावताराणां चरितं मंत्रपूर्वकम् ।६।

तन्त्रोक्तं वद सर्वज्ञ त्वामहं शरणं गतः।
शक्तेस्तन्त्राण्यनेकानि शिवोक्तानि मुनीश्वर।७।

यानि तत्सारमुद्धृत्य साकल्येनाभिधेहि नः।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य नारदस्य महात्मनः।८।

सनत्कुमारः प्रोवाच स्मृत्वा राधापदाम्बुजम् ।

                  "सनत्कुमार उवाच ।
श्रृणु नारद वक्ष्यामि राधाञ्शानां समुद्भवम् ।९।

शक्तीनां परमाश्चर्यं मन्त्रसाधनपूर्वकम् ।।
या तु राधा मया प्रोक्ता कृष्णार्द्धांगसमुद्भवा ।१०।
___
गोलोकवासिनी सा तु नित्या कृष्णसहायिनी ।
तेजोमण्डलमध्यस्था दृश्यादृश्यस्वरूपिणी।११।

कदाचित्तु तया सार्द्धं स्थितस्य मुनिसत्तम ।।
कृष्णस्य वामभागात्तु जातो नारायणः स्वयम्।१२।
_____
राधिकायाश्च वामांगान्महालक्ष्मीर्बभूव ह।

ततः कृष्णो महालक्ष्मीं दत्त्वा नारायणाय च।१३।
_____

वैकुण्ठे स्थापयामास शश्वत्पालनकर्मणि ।।
अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने ।१४।

जातुश्चासंख्यगोपालास्तेजसा वयसा समाः।
प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः ।१५।

राधांगलोमकूपेभ्ये बभूवुर्गोपकन्यकाः।
राधातुल्याः सर्वतश्च राधादास्यः प्रियंवदाः।१६।

एतस्मिन्नंतरे विप्र सहसा कृष्णदेहतः।
आविर्बभूव सा दुर्गा विष्णुमाया सनातनी।१७।

देवीनां बीजरूपां च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।।
परिपूर्णतमा तेजः स्वरूपा त्रिगुणात्मिका ।१८।
_______
सहस्रभुजसंयुक्ता नानाशस्त्रा त्रिलोचना ।।
या तु संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी।१९ ।

रत्नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः।
एतस्मिन्नंतरे तत्र सस्त्रीकस्तु चतुर्मुखः।२०।

ज्ञानिनां प्रवरः श्रीमान् पुमानोंकारमुच्चरन् ।।
कमण्डलुधरो जातस्तपस्वी नाभितो हरेः ।२१।

स तु संस्तूय सर्वेशं सावित्र्या भार्यया सह।
निषसादासने रम्ये विभोस्तस्याज्ञया मुने।२२।

अथ कृष्णो महाभाग द्विधारूपो बभूव ह ।
वामार्द्धांगो महादेवो दक्षार्द्धो गोपिकापतिः।२३।
____

पञ्चवक्त्रस्त्रिनेत्रोऽसौ वामार्द्धागो मुनीश्वः ।।
स्तुत्वा कृष्णं समाज्ञप्तो निषसाद हरेः पुरः ।२४ ।

अथ कृष्णश्चतुर्वक्त्रं प्राह सृष्टिं कुरु प्रभो ।
सत्यलोके स्थितो नित्यंगच्छ मांस्मर सर्वदा।२५।

एवमुक्तस्तु हरिणा प्रणम्य जगदीश्वरम् ।
जगाम भार्यया साकं स तु सृष्टिं करोति वै ।२६।

पितास्माकं मुनिश्रेष्ठ मानसीं कल्पदैहिकीम् ।
ततः पश्चात्पंचवक्त्रं कृष्णं प्राह महामते ।२७।

दुर्गां गृहाण विश्वेश शिवलोके तपेश्वर ।।
यावत्सृष्टिस्तदन्ते तु लोकान्संहर सर्वतः ।२८।

सोऽपि कृष्णं नमस्तृत्य शिवलोकं जगाम ह ।।
ततः कालान्तरे ब्रह्मन्कृष्णस्य परमात्मनः।२९।

वक्त्रात्सरस्वती जाता वीणापुस्तकधारिणी ।
तामादिदेश भगवान् वैकुण्ठं गच्छ मानदे ।३०।

लक्ष्मीसमीपे तिष्ठ त्वं चतुर्भुजसमाश्रया ।।
सापि कृष्णं नमस्कृत्य गता नारायणान्तिकम् ।३१।

एवं पञ्चविधा जाता सा राधा सृष्टिकारणम् ।
आसां पूर्णस्वरूपाणां मन्त्रध्यानार्चनादिकम् ।३२।

वदामि श्रृणु विप्रेद्रं लोकानां सिद्धिदायकम् ।
तारः क्रियायुक् प्रतिष्ठा प्रीत्याढ्या च ततः परम् ।३३ ।

ज्ञानामृता क्षुधायुक्ता वह्निजायान्तकतो मनुः।
सुतपास्तु ऋषिश्छन्दो गायत्री देवता मनोः ।३४।

राधिका प्रणवो बीजं स्वाहा शक्तिरुदाहृता ।
षडक्षरैः षडंगानि कुर्याद्विन्दुविभूषितैः ।३५।

ततो ध्यायन्स्वहृदये राधिकां कृष्णभामिनीम् ।
श्वेतचंपकवर्णाभां कोटिचन्द्रसमप्रभाम् ।३६।

शरत्पार्वणचन्द्रास्यां नीलेंदीवरलोचनाम् ।
सुश्रोणीं सुनितंबां च पक्वबिंबाधरांबराम् ।३७।

मुक्ताकुन्दाभदशनां वह्निशुद्धांशुकान्विताम् ।।
रत्नकेयूरवलयहारकुण्डलशोभिताम् ।३८।

गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।।
रासमण्डलमध्यस्थां रत्नसिंहासनस्थिताम् ।३९।

ध्यात्वा पुष्पाञ्जलिं क्षिप्त्वा पूजयेदुपचारकैः ।।
लक्षषट्कं जपेन्मंत्रं तद्दशांशं हुनेत्तिलैः।४० ।

आज्याक्तैर्मातृकापीठे पूजा चावरणैः सह ।।
षट्कोणेषु षडंगानि तद्बाह्येऽष्टदले यजेत् ।४१।

मालावतीं माधवीं च रत्नमालां सुशीलिकाम् ।।
ततः शशिकलां पारिजातां पद्मावतीं तथा ।४२।

Yadav Yogesh Kumar Rohi:
सुन्दरीं च क्रमात्प्राच्यां दिग्विदिक्षु ततो बहिः ।
इन्द्राद्यान्सायुधानिष्ट्वा विनियोगांस्तु साधयेत् ।४३।

राधा कृष्णप्रिया रासेश्वरी गोपीगणाधिपा ।
निर्गुणा कृष्णपूज्या च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।४४।

सर्वेश्वरी सर्वपूज्या वैराजजननी तथा ।
पूर्वाद्याशासु रक्षंतु पांतु मां सर्वतः सदा ।४५।

त्वं देवि जगतां माता विष्णुमाया सनातनी ।।
कृष्णमायादिदेवी च कृष्णप्राणाधिके शुभे।४६।

कष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मंगलप्रदे।
इति सम्प्रार्थ्य सर्वेशीं स्तुत्वा हृदि विसर्जयेत् ।४७।

एवं यो भजते राधां सर्वाद्यां सर्वमंगलाम् ।
भुक्त्वेह भोगानखिलान्सोऽन्ते गोलोकमाप्नुयात् ।४८।

अथ तुभ्यं महालक्ष्म्या विधानं वच्मि नारद ।।
यदाराधनतो भूयात्साधको भुक्तिमुक्तिमान् ।४९ ।

लक्ष्मीमायाकामवाणीपूर्वा कमलवासिनी ।
ङेंता वह्निप्रियांतोऽयं मन्त्रकल्पद्रुमः परः ।५० ।

ऋषिर्नारायणश्चास्य छन्दो हि जगती तथा ।।
देवता तु महालक्ष्मीर्द्विद्विवर्णैः षडंगकम् ।५१।

श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् ।।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकातराम् ।५२।

बिभ्रतीं रत्नमालां च कोटिचंद्रसमप्रभाम् ।।
ध्यात्वा जपेदर्कलक्षं पायसेन दशांशतः ।५३ ।

जुहुयादेधिते वह्नौ श्रीदृकाष्टैः समर्चयेत् ।।
नवशक्तियुते पीठे ह्यंगैरावरणैः सह ।५४ ।

विभूतिरुन्नतिः कान्तिः सृष्टिः कीर्तिश्च सन्नतिः ।।
व्याष्टिरुत्कृष्टिर्ऋद्धिश्च संप्रोक्ता नव शक्तयः ।५५।

अत्रावाह्य च मूलेन मूर्तिं संकल्प्य साधकः।
षट् कोणेषु षडंगानि दक्षिणे तु गजाननम् ।५६।

वामे कुसुमधन्वानं वसुपत्रे ततो यजेत् ।।
उमां श्रीं भारतीं दुर्गां धरणीं वेदमातरम् ।५७ ।

देवीमुषां च पूर्वादौ दिग्विदिक्षु क्रमेण हि ।।
जह्नुसूर्यसुते पूज्ये पादप्रक्षालनोद्यते ।५८।

शंखपद्मनिधी पूज्यौ पार्श्वयोर्घृतचामरौ ।।
धृतातपत्रं वरुणं पूजयेत्पश्चिमे ततः ।५९।

संपूज्य राशीन्परितो यथास्थानं नवग्रहान् ।।
चतुर्दन्तैरावतादीन् दिग्विदिक्षु ततोऽर्चयेत् ।६० ।

तद्बहिर्लोकपालांश्च तदस्त्राणि च तद्बहिः ।।
दूर्वाभिराज्यसिक्ताभिर्जुहुयादायुषे नरः ।६१।

गुडूचीमाज्यसंसिक्तां जुहुयात्सप्तवासरम् ।।
अष्टोत्तरसहस्रं यः स जीवेच्छरदां शतम् ।६२।

हुत्वा तिलान्घृताभ्यक्तान्दीर्घमायुष्यमाप्नुयात् ।।
आरभ्यार्कदिनं मंत्री दशाहं घृतसंप्लुतः ।६३।

जुहुयादर्कसमिधः शरीरारोग्यसिद्धये ।।
शालिभिर्जुह्वतो नित्यमष्टोत्तरसहस्रकम् ।६४।

अचिरादेव महती लक्ष्मी संजायते ध्रुवम् ।।
उषाजा जीनालिकेररजोभिर्गृतमिश्रितैः ।६५ ।

हुनेदष्टोत्तरशतं पायसाशी तु नित्यशः ।।
मण्डलाज्जायते सोऽपि कुबेर इव मानवः ।। ८३-६६ ।।

हविषा गुडमिश्रेण होमतो ह्यन्नवान्भवेत् ।।
जपापुष्पाणि जुहुयादष्टोत्तरसहस्रकम् ।६७।

ताम्बूलरससम्मिश्रं तद्भस्मतिलकं चरेत् ।।
चतुर्णामपि वर्णानां मोहनाय द्विजोत्तमः।।६८।

एवं यो भजते लक्ष्मीं साधकेंद्रो मुनीश्वर ।।
सम्पदस्तस्य जायंते महालक्ष्मीः प्रसीदति ।६९ ।।

देहान्ते वैष्णवं धाम लभते नात्र संशयः ।।
या तु दुर्गा द्विजश्रेष्ठ शिवलोकं गता सती ।७० ।।

सा शिवाज्ञामनुप्राप्य दिव्यलोकं विनिर्ममे ।।
देवीलोकेति विख्यातं सर्वलोकविलक्षणम् ।७१ ।।

तत्र स्थिता जगन्माता तपोनियममास्थिता ।।
विविधान् स्वावतारान्हि त्रिकाले कुरुतेऽनिशम् ।७२ ।

मायाधिका ह्लादिनीयुक् चन्द्राढ्या सर्गिणी पुनः ।।
प्रतिष्ठा स्मृतिसंयुक्ता क्षुधया सहिता पुनः।७३ ।

ज्ञानामृता वह्निजायांतस्ताराद्यो मनुर्मतः ।।
ऋषिः स्याद्वामदेवोऽस्य छंदो गायत्रमीरितम् ।७४।

देवता जगतामादिर्दुर्गा दुर्गतिनाशिनी ।।
ताराद्येकैकवर्णेन हृदयादित्रयं मतम् ७५ ।।

त्रिभिर्वर्मेक्षण द्वाभ्यां सर्वैरस्त्रमुदीरितम् ।।
महामरकतप्रख्यां सहस्रभुजमंडिताम् ।७६ ।।

नानाशस्त्राणि दधतीं त्रिनेत्रां शशिशेखराम् ।।
कंकणांगदहाराढ्यां क्वणन्नूपुरकान्विताम् ।७७ ।।

किरीटकुंडलधरां दुर्गां देवीं विचिंतयेत् ।७८ 

वसुलक्षं जपेन्मंत्रं तिलैः समधुरैर्हुनेत ।।
पयोंऽधसा वा सहस्रं नवपद्मात्मके यजेत् ७९।

प्रभा माया जया सूक्ष्मा विशुद्धानं दिनी पुनः ।।
सुप्रभा विजया सर्वसिद्धिदा पीठशक्तयः ।८०।

अद्भिर्ह्रस्वत्रयक्लीबरहितैः पूजयेदिमाः।
प्रणवो वज्रनखदंष्ट्रायुधाय महापदात् ।८१ ।।

सिंहाय वर्मास्त्रं हृञ्च प्रोक्तः सिंहमनुर्मुने ।।
दद्यादासनमेतेन मूर्तिं मूलेन कल्पयेत् ।८२ ।

अङ्गावृर्त्तिं पुराभ्यार्च्य शक्तीः पत्रेषु पूजयेत् ।।
जया च विजया कीर्तिः प्रीतिः पश्चात्प्रभा पुनः।८३।

श्रद्धा मेधा श्रुतिश्चैवस्वनामाद्यक्षरादिकाः ।
पत्राग्रेष्वर्चयेदष्टावायुधानि यथाक्रमात् ।८४ ।

शंखचक्रगदाखङ्गपाशांकुशशरान्धनुः ।।
लोकेश्वरांस्ततो बाह्ये तेषामस्त्राण्यनंतरम् ।८५ ।

इत्थं जपादिभिर्मंत्री मंत्रे सिद्धे विधानवित् ।।
कुर्यात्प्रयोगानमुना यथा स्वस्वमनीषितान् ।८६ ।

प्रतिष्ठाप्य विधानेन कलशान्नवशोभनान् ।।
रत्नहेमादिसंयुक्तान्घटेषु नवसु स्थितान् ।८७ ।

मध्यस्थे पूजयेद्देवीमितरेषु जयादिकाः ।।
संपूज्य गन्धपुष्पाद्यैरभिषिंचेन्नराधिपम् ।८८ ।

राजा विजयते शत्रून्योऽधिको विजयश्रियम् ।।
प्राप्नोत्रोगो दीर्घायुः सर्वव्याधिविवर्जितः ।८९ ।

वन्ध्याभिषिक्ता विधिनालभते तनयं वरम् ।।
मन्त्रेणानेन संजप्तमाज्यं क्षुद्रग्रहापहम् ।९०।

गर्भिणीनां विशेषेण जप्तं भस्मादिकं तथा ।।
जृंभश्वासे तु कृष्णस्य प्रविष्टेराधिकामुखम् ।९१ ।

या तु देवी समुद्भूता वीणापुस्तकधारिणी ।।
तस्या विधानं विप्रेंद्र श्रृणु लोकोपकारकम् ।९२ ।।

प्रणवो वाग्भवं माया श्रीः कामः शक्तिरीरिता ।।
सरस्वती चतुर्थ्यंता स्वाहांतो द्वादशाक्षरः ।९३।

मनुर्नारायण ऋषिर्विराट् छन्दः समीरितम् ।।
महासरस्वती चास्य देवता परिकीर्तिता ।९४ ।।

वाग्भवेन षडंगानि कृत्वा वर्णान्न्यसेद् बुधः ।।
ब्रह्मरंध्रे न्यसेत्तारं लज्जां भ्रूमध्यगां न्यसेत् ।९५ ।।

मुखनासादिकर्णेषु गुदेषु श्रीमुखार्णकान् ।।
ततो वाग्देवतां ध्यायेद्वीणापुस्तकधारिणीम् ।९६।

कर्पूरकुंदधवलां पूर्णचंद्रोज्ज्वलाननाम् ।।
हंसाधिरूढां भालेंदुदिव्यालंकारशोभिताम् ।९७ ।।

जपेद्द्वादशलक्षाणि तत्सहस्रं सितांबुजैः ।।
नागचंपकपुष्पैर्वा जुहुयात्साधकोत्तमः ।९८ ।।

मातृकोक्ते यजेत्पीठे वक्ष्यमाणक्रमेण ताम् ।।
वर्णाब्जेनासनं दद्यान्मूर्तिं मूलेन कल्पयेत् ।९९ ।।

देव्या दक्षिणतः पूज्या संस्कृता वाङ्मयी शुभा ।।
प्राकृता वामतः पूज्या वाङ्मयीसर्वसिद्धिदा।१००।

पूर्वमंगानि षट्कोणे प्रज्ञाद्याः प्रयजेद्बहिः ।।
प्रज्ञा मेधा श्रुतिः शक्तिः स्मृतिर्वागीश्वरी मतिः ।१०१।

स्वस्तिश्चेति समाख्याता ब्रह्माद्यास्तदनंतरम् ।।
लोकेशानर्चयेद्भूयस्तदस्त्राणि च तद्बहिः ।१०२।

एवं संपूज्य वाग्देवीं साक्षाद्वाग्वल्लभो भवेत् ।।
ब्रह्मचर्यरतः शुद्धः शुद्धदंतनखा दिकः ।१०३।

संस्मरन् सर्ववनिताः सततं देवताधिया ।।
कवित्वं लभते धीमान् मासैर्द्वादशभिर्ध्रुवम् ।१०४।

पीत्वा तन्मंत्रितं तोयं सहस्रं प्रत्यहं मुने ।।
महाकविर्भवेन्मंत्री वत्सरेण न संशयः ।१०५ ।।

उरोमात्रोदके स्थित्वा ध्यायन्मार्तंडमंडले ।।
स्थितां देवीं प्रतिदिनं त्रिसहस्रं जपेन्मनुम् ।१०६।

लभते मंडलात्सिद्धिं वाचामप्रतिमां भुवि ।।
पालाशबिल्वकुसुमैर्जुहुयान्मधुरोक्षितैः ।१०७ ।

समिद्भिर्वा तदुत्थाभिर्यशः प्राप्नोति वाक्पतेः ।।
राजवृक्षसमुद्भूतैः प्रसूनैर्मधुराप्लुतैः ।१०८ ।

सत्समिद्भिश्च जुहुयात्कवित्वमतुलं लभेत् ।।
अथ प्रवक्ष्ये विप्रेंद्र सावित्रीं ब्रह्मणः प्रियाम् ।१०९।

यां समाराध्य ससृजे ब्रह्मा लोकांश्चराचरान् ।।
लक्ष्मी माया कामपूर्वा सावित्री ङेसमन्विता ।११०।

स्वाहांतो मनुराख्यातः सावित्र्या वसुवर्णवान् ।।
ऋषिर्ब्रह्मास्य गायत्री छंदः प्रोक्तं च देवता ।१११।

सावित्री सर्वदेवानां सावित्री परिकीर्तिता ।।
हृदंतिकैर्ब्रह्म विष्णुरुद्रेश्वरसदाशिवैः ।११२।

सर्वात्मना च ङेयुक्तैरंगानां कल्पनं मतम् ।।
तप्तकांचनवर्णाभां ज्वलंतीं ब्रह्मतेजसा ।११३।

ग्रीष्ममध्याह्नमार्तंडसहस्रसमविग्रहाम् ।।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्नभूषणभूषिताम् ।११४ ।।

बह्निशुद्धांशुकाधानां भक्तानुग्रहकातराम् ।।
सुखदां मुक्तिदां चैव सर्वसंपत्प्रदां शिवाम् ।११५।

वेदबीजस्वरूपां च ध्यायेद्वेदप्रसूं सतीम् ।।
ध्यात्वैवं मण्डले विद्वान् त्रिकोणोज्ज्वलकर्णिके ।११६ ।।

सौरे पीठे यजेद्देवीं दीप्तादिनवशक्तिभिः ।।
मूलमंत्रेण क्लृप्तायां मूर्तौ देवीं प्रपूजयेत् ।११७ ।।

कोणेषु त्रिषु संपूज्या ब्राहृयाद्याः शक्तयो बहिः ।।
आदित्याद्यास्ततः पूज्या उषादिसहिताः क्रमात् ।११८।

ततः षडंगान्यभ्यर्च्य केसरेषु यथाविधि ।।
प्रह्लादिनीं प्रभां पश्चान्नित्यां विश्वंभरां पुनः ।११९।

विलासिनीप्रभावत्यौ जयां शांतां यजेत्पुनः ।।
कांतिं दुर्गासरस्वत्यौ विद्यारूपां ततः परम् ।१२०।

विशालसंज्ञितामीशां व्यापिनीं विमलां यजेत् ।।
तमोपहारिणीं सूक्ष्मां विश्वयोनिं जयावहाम्
१२१।

पद्नालयां परां शोभां ब्रह्मरूपां ततोऽर्चयेत् ।।
ब्राह्ययाद्याः शारणा बाह्ये पूजयेत्प्रोक्तलक्षणाः।१२२।

ततोऽभ्यर्च्येद् ग्रहान्बाह्ये शक्राद्यानयुधैः सह ।।
इत्थमावरणैर्देवीः दशभिः परिपूजयेत् ।१२३ ।।

अष्टलक्षं जपेन्मंत्रं तत्सहस्रं हुनेत्तिलैः ।।
सर्वपापुविनिर्मुक्तो दीर्घमायुः स विंदति ।१२४ ।।

अरुणाब्जैस्त्रिमध्वक्तैर्जुहुयादयुतं ततः ।।
महालक्ष्मीर्भवेत्तस्य षण्मासान्नात्र संशयः ।१२५ ।।

ब्रह्मवृक्षप्रसूनैस्तु जुहुयाद्बाह्यतेजसे ।।
बहुना किमिहोक्तेन यथावत्साधिता सती ।१२६ ।।

साधकानामियं विद्या भवेत्कामदुधा मुने ।।
अथ ते संप्रवक्ष्यामि रहस्यं परमाद्भुतम् ।१२७ ।।

सावित्रीपंजरं नाम सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।।
व्योमकेशार्लकासक्तां सुकिरीटविराजिताम् ।१२८।

मेघभ्रुकुटिलाक्रांतां विधिविष्णुशिवाननाम् ।।
गुरुभार्गवकर्णांतां सोमसूर्याग्निलोचनाम् ।१२९ ।

इडापिंगलिकासूक्ष्मावायुनासापुटान्विताम् ।।
संध्याद्विजोष्ठपुटितां लसद्वागुपजिह्विकाम् ।१३०।

संध्यासूर्यमणिग्रीवां मरुद्बाहुसमन्वितान् ।।
पर्जन्यदृदयासक्तां वस्वाख्यप्रतिमंडलाम् ।१३१।

आकाशोदरविभ्रांतां नाभ्यवांतरवीथिकाम् ।।
प्रजापत्याख्यजघनां कटींद्राणीसमाश्रिताम् ।१३२।

ऊर्वोर्मलयमेरुभ्यां शोभमानां सरिद्वराम् ।।
सुजानुजहुकुशिकां वैश्वदेवाख्यसंज्ञिकाम् ।१३३।

पादांघ्रिनखलोमाख्यभूनागद्रुमलक्षिताम् ।।
ग्रहराश्यर्क्षयोगादिमूर्तावयवसंज्ञिकाम् ।१३४।

तिथिमासर्तुपक्षाख्यैः संकेतनिमिषात्मिकाम् ।।
मायाकल्पितवैचित्र्यसंध्याख्यच्छदनावृताम् ।१३५।

ज्वलत्कालानलप्रख्यों तडित्कीटिसमप्रभाम् ।।
कोटिसूर्यप्रतीकाशां शशिकोटिसुशीतलाम् ।१३६।।

सुधामंडलमध्यस्थां सांद्रानंदामृतात्मिकाम् ।।
वागतीतां मनोऽगर्म्या वरदां वेदमातरम् ।१३७।

चराचरमयीं नित्यां ब्रह्माक्षरसमन्विताम् ।।
ध्यात्वा स्वात्माविभेदेन सावित्रीपंजरं न्यसेत् ।१३८।

पञ्चरस्य ऋषिः सोऽहं छंन्दो विकृतिरुच्यते ।।
देवता च परो हंसः परब्रह्मादिदेवता ।१३९ ।

धर्मार्थकाममोक्षाप्त्यै विनियोग उदाहृतः ।।
षडंगदेवतामन्त्रैरंगन्यासं समाचरेत् ।१४० ।।

त्रिधामूलेन मेधावी व्यापकं हि समाचरेत् ।।
पूर्वोक्तां देवातां ध्यायेत्साकारां गुणसंयुताम्।१४१।

त्रिपदा हरिजा पूर्वमुखी ब्रह्मास्त्रसंज्ञिका ।।
चतुर्विशतितत्त्वाढ्या पातु प्राचीं दिशं मम ।१४२।

चतुष्पदा ब्रह्मदंडा ब्रह्माणी दक्षिणानना ।।
षड्विंशतत्त्वसंयुक्ता पातु मे दक्षिणां दिशम्।१४३।

प्रत्यङ्मुखी पञ्चपदी पञ्चाशत्तत्त्वरूपिणी ।।
पातु प्रतीचीमनिशं मम ब्रह्मशिरोंकिता ।१४४।

सौम्यास्या ब्रह्मतुर्याढ्या साथर्वांगिरसात्मिका ।।
उदीचीं षट्पदा पातु षष्टितत्त्वकलात्मिका।१४५।

पञ्चाशद्वर्णरचिता नवपादा शताक्षरी ।।
व्योमा संपातु मे वोर्द्ध्वशिरो वेदांतसंस्थिता।१४६।

विद्युन्निभा ब्रह्मसन्ध्या मृगारूढा चतुर्भुजा ।।
चापेषुचर्मासिधरा पातु मे पावकीं दिशम् ।१४७ ।

ब्रह्मी कुमारी गायत्री रक्तांगी हंसवाहिनी ।।
बिभ्रत्कमंडलुं चाक्षं स्रुवस्रुवौ पातु नैर्ऋतिम्।१४८।

शुक्लवर्णा च सावित्री युवती वृषवाहना ।
कपालशूलकाक्षस्रग्धारिणी पातु वायवीम् ।१४९।

श्यामा सरस्वती वृद्धा वैष्णवी गरुडासना ।।
शंखचक्राभयकरा पातु शैवीं दिशं मम।१५० ।

चतुर्भुजा देवमाता गौरांगी सिंहवाहना ।।
वराभयखङ्गचर्मभुजा पात्वधरां दिशम्।१५१।।

तत्तत्पार्श्वे स्थिताः स्वस्ववाहनायुधभूषणाः ।।
स्वस्वदिक्षुस्थिताः पातुं ग्रहशक्त्यंगसंयुताः।१५२।

मंत्राधिदेवतारूपा मुद्राधिष्ठातृदेवताः ।।
व्यापकत्वेन पांत्वस्मानापादतलमस्तकम्।१५३ ।

इदं ते कथितं सत्यं सावित्रीपंजरं मया ।।
संध्ययोः प्रत्यहं भक्त्या जपकाले विशेषतः।१५४।

पठनीयं प्रयत्नेन भुक्तिं मुक्तिं समिच्छता ।।
भूतिदा भुवना वाणी महावसुमती मही ।१५५।

हिरण्यजननी नन्दा सविसर्गा तपस्विनी ।
यशस्विनी सती सत्या वेदविच्चिन्मयी शुभा ।१५६।

विश्वा तुर्या वरेण्या च निसृणी यमुना भुवा ।।
मोदा देवी वरिष्ठा च धीश्च शांतिर्मती मही ।१५७ ।।

धिषणा योगिनी युक्ता नदी प्रज्ञाप्रचोदनी ।।
दया च यामिनी पद्मा रोहिणी रमणी जया।१५८ ।।

सेनामुखी साममयी बगला दोषवार्जिता ।।
माया प्रज्ञा परा दोग्ध्री मानिनी पोषिणी क्रिया १५९ ।

ज्योत्स्ना तीर्थमयी रम्या सौम्यामृतमया तथा ।।
ब्राह्मी हैमी भुजंगी च वशिनी सुंदरी वनी।१६० ।।

ॐकारहसिनी सर्वा सुधा सा षड्गुणावती ।।
माया स्वधा रमा तन्वी रिपुघ्नी रक्षणणी सती ।१६१।

हैमी तारा विधुगतिर्विषघ्नी च वरानना ।।
अमरा तीर्थदा दीक्षा दुर्धर्षा रोगहारिणी ।१६२ ।

नानापापनृशंसघ्नी षट्पदी वज्रिणी रणी ।।
योगिनी वमला सत्या अबला बलदा जया।१६३ ।।

गोमती जाह्नवी रजावी तपनी जातवेदसा ।।
अचिरा वृष्टिदा ज्ञेया ऋततंत्रा ऋतात्मिका ।१६४।

सर्वकामदुधा सौम्या भवाहंकारवर्जिता ।।
द्विपदा या चतुष्पदा त्रिपदा या च षट्पदा ।१६५।

अष्टापदी नवपदी सहस्राक्षाक्षरात्मिका ।।
अष्टोत्तरशतं नाम्नां सावित्र्या यः पठेन्नरः ।१६६ ।।

स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ।।
एतत्ते कथितं विप्र पंचप्रकृतिलक्षणम् ।१६७ ।।

मंत्राराधनपूर्वं च विश्वकामप्रपूरणम् ।१६८।

इति श्रीबृहन्नारदीय पुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे पञ्चप्रकृतिमन्त्रादिनिरूपणं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः ।८३।





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