कलियुग में वर्ण-धर्म की अवस्था-तथा कलियुग के ब्राह्मण"
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"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राः पापपरायणाः।निजाचारविहीनाश्च भविष्यन्ति कलौ युगे॥२३॥
विप्रा वेदविहीनाश्च प्रतिग्रह-परायणाः।अत्यन्तकामिनः क्रूरा भविष्यन्ति कलौ युगे॥२४॥
वेदनिन्दाकराश्चैव द्यूतचौर्यकरास्तथा।विधवासङ्गलुब्धाश्च भविष्यन्ति कलौ द्विजाः॥२५॥
वृत्त्यर्थ ब्राह्मणाः केचित् महाकपटधर्मिणः।रक्ताम्बरा भविष्यन्ति जटिलाः श्मश्रुधारिणः॥२६॥
कलौ युगे भविष्यन्ति ब्राह्मणाः शूद्रधर्मिणः ॥२७॥(पद्मपुराण क्रियायोगसार में १७ वां अध्याय)
अनुवाद:-
कलियुग में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण अपने-अपने आचार विहीन और पाप-परायण होंगे।
ब्राह्मण लोग -वेदविहीन, यजनादि पाँच ब्राह्मणोचित कर्मों का परित्याग कर केवल प्रतिग्रहपरायण, अत्यन्त कामुक और क्रूर प्रकृति विशिष्ट होंगे।
कलियुगमें द्विजगण वेद निन्दक, द्यूतप्रेमी ज्वारी, चौर्यवृत्तिविशिष्ट एवं विधवा-सङ्गलोलुप होंगे। जीविका निर्वाह के लिए कोई-कोई महाकपट धर्मी ब्राह्मण रक्तवस्त्र परिधान एवं जटिल अर्थात् बड़े-बड़े केश धारण करेंगे।
कलियुग में ब्राह्मणगण इस प्रकार शूद्रधर्म में निरत रहेंगे॥२३-२७॥
" कलिमहिमा कालिकापुराण अध्याय- (1)
यवनैरवनिः क्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यमाविशन् | बलिना वेदमागाँऽय कलिना कवलीकृतः ॥ १॥
सीदन्ति चाग्भिहो-त्राणि गुरुपूजा प्रणश्यति । कुमार्यश्च प्रसूयन्ते प्रासे कलियुगे सदा ॥ २॥
परान्नेन मुख दग्धं हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात्। परस्त्रीभिर्मनो दग्धं कुतः शापः कलैनै युगे ॥३॥
राक्षसाः कलिमाश्रित्य जायन्ते ब्रह्मयोनिषु। ब्राह्मणानेव बाधन्ते तत्रापि श्रोत्रियान्कृशान्।४।
कुशलाः शब्दवार्तायां वृत्तिहीनाः सुरागिणः । कलौ वेदान्तिनो भान्ति फाल्गुने बालका इव।५।
वागुच्चारोत्सवं मात्रे तत्क्रिया कर्तुम- क्षमाः । कलौ वेदान्तिनो भान्ति फाल्गुने बालका इव।६।
कृते च रेणुका कृत्या त्रेताया जानकी तथा। द्वापरे द्रौपदी कृत्या कलौ कृत्या गृहे गृहे।७।
कालिकापुराण अध्याय- (1)
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कलियुग के ब्राह्मण-
पूर्व युगोंमें देव-द्विजद्रोही जो असुर थे, वे सभी राक्षसगण कलियुगका आश्रयकर ब्राह्मण कुलमें जन्म ग्रहण करते हैं एवं उस कुल में उत्पन्न होकर जिनके दश प्रकारके संस्कार, विद्याभ्यास आदि क्षीण हो गये हैं, वे सभी वेदज्ञों को बाधा प्रदान करेंगे॥२८॥
शौद्र विचार से वर्ण-निरूपण दोषपूर्ण क्यों है?-
जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते। सङ्करात् सर्ववर्णानां दुष्परीक्ष्येति मे मतिः।३०।
सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः।वाङ्मैथुनमथो जन्म मरणञ्च समं नृणाम्॥३१॥
(महाभारत-वनपर्व १८०/३१-३२)
(युधिष्ठिर नहुषको कहते हैं,-) हे महामते महासर्प! मनुष्योंमें, समस्त वर्णों में मिश्रणताके कारण व्यक्तियोंकी जाति निरूपणका कार्यकठिन है, यही मेरा मत है। इसलिए सभी वर्गों के मनुष्य सभी वर्गों की स्त्रियोंसे सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ हैं। मनुष्योंकी बोलचाल, मैथुन, जन्म और मरण सभी वर्गों में एक-सा ही है॥३०-३१॥
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सत्यप्रिय-वैदिक ऋषियोंका मत-
"न चैतद्विद्मो ब्राह्मणाः स्मो वयंब्राह्मणा वेति" ॥३२॥
(महाभारत वनपर्व १८०/३२)
'हम नहीं जानते कि हम ब्राह्मण हैं या अब्राह्मण', सत्यप्रिय ऋषियोंके मनमें इस प्रकारका संशय हुआ॥३२॥
वृत्तगत वर्ण निरूपण ही श्रुति-स्मृति-पुराण-इतिहासादि द्वारा समर्थित है-
(१) श्रुति प्रमाण-
ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेदवचनानरूपं स्मतिभिरप्यक्तम। तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम। किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति।
तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति। चेतन। अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्येकरूपत्वात् एकस्यापि कर्मवशादनेकदेह-सम्भवात् सर्वशरीराणां जीवस्यैकरूपत्वाच्च। तस्मान्न जीवो ब्राह्मण इति।
तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत्तन्न, आचण्डालादिपर्यन्तानां मनष्याणां पाञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वाज्जरामरण-महाभारत का प्रमाण-
शूद्र चैतद्भवेल्लक्षणं द्विजे तच्च न विद्यते। न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो ब्राह्मणो न च॥३४॥
देवीभागवत में भी यही बात है
पराम्बापूजनासक्ताः सर्वे वर्णाः परे युगे ।
तथा त्रेतायुगे किञ्चिन्न्यूना धर्मस्य संस्थितिः।४१॥
द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥४२॥
पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।
असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥४३॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे युगधर्मव्यवस्थावर्णनं नामकादशोऽध्यायः।११।
उस सत्ययुगमें सभी वर्णोंके लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे।
उसके बाद त्रेतायुगमें धर्मकी स्थिति कुछ कम हो गयी। ४१।
सत्ययुग में जो धर्मकी स्थिति थी, वह द्वापर में विशेषरूप से कम हो गयी।
हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुगमें ब्राह्मण माने जाते हैं ।४२ ॥
वे प्रायः पाखण्डी, लोगों को ठगने वाले, झूठ बोलने वाले तथा वेद और धर्मसे दूर रहनेवाले होते हैं। उनमें से कुछ तो दम्भी, लोकव्यवहार. में चालाक, अभिमानी, वेदप्रतिपादित मार्गसे हटकर चलनेवाले,।४३।
देवीभागवत पुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय एकादश( ११)
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