शनिवार, 25 नवंबर 2023

चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता

गोपायनं यः कुरुते जगतां सार्व्वलौकिकम्।
स कथं गां गतो विष्णुर्गोपमन्वकरोत्प्रभुः ।। ३५.१२ ।।श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुमाहात्म्ये शम्भुस्तवकीर्त्तनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।। ३५ ।। *

चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता।
चतुर्विद्यस्य यो वेत्ता चतुराश्रमसंश्रयः।३३।
अनुवाद:- चारों वर्णों की उत्पत्ति स्थान तथा चारों वर्णों की रक्षा करने वाले चारों विद्याओं से सम्बन्धित कर्मों के ज्ञाता और चारो आश्रमों के आश्रय स्थान ।३३।
यः परं श्रूयते ज्योतिर्यः परं श्रूयते तपः।
यः परं परतः प्राह परं यः परमात्मवान्।३४।

अनुवाद:-
जो परम ज्योति और परं तप रूप में सुने जाते हैं
सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मा ने जिनको कहा तथा जो परम आत्मा हैं।३४।
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श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गायत्रीसंग्रहोनाम षोडशोऽध्यायः१६।
यज्ञ में सिद्धि देने के लिए वर्ण-व्यवस्था बनाई गई है।

ब्रह्मा ने यज्ञादि कर्म करने की सृष्टि से सांसारिक व्यवस्था की और उसके बाद उत्तम रूप से निवास करने की सृष्टि की है। फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्रों के लिए प्रजापति के इन्द्र के मरुत के और गन्धर्व के लोक बनाए और उन्होंने अनेक प्रकार के अन्धकार और दु:खों को तथा अनेक नरकों को बनाया। जिससे दुष्ट व्यक्ति को दण्ड दिया जा सके। इसके बाद ब्रह्मा ने अपने ही समान नौ-भृगु, पुलस्त्य पुलह, ऋतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ मानव पुत्रों की रचना की। 
पुराणों में इन नौ ब्रह्मा-पुत्रों को ‘ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:’ ही कहा गया है।
 ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया, लोक में आसक्त नहीं हुए और उन्होंने सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं ली। इन वीतराग महात्माओं के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा के मुख से त्रिलोकी को दग्ध करने वाला महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचण्ड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ



पितामहका यज्ञ आदि कृतयुगमें प्रारम्भ हुआ था। उस समय मरीचि, अंगिरा, मैं, पुलह, ऋतु और प्रजापति दक्षने ब्रह्माजीके पास जाकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। धाता, अर्यमा,सविता, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, त्वष्टा, मित्र और पर्जन्य- आदि बारहों आदित्य भी वहाँ उपस्थित हो अपने जाज्वल्यमान तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। इन देवेश्वरोंने भी पितामहको प्रणाम किया। मृगव्याध, शर्व, महायशस्वी निर्ऋति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, अपराजित, विश्वेश्वर भव, कपर्दी, स्थाणु और भगवान् भग- ये ग्यारह रुद्र भी उस यज्ञमें उपस्थित थे। दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, महाबली मरुद्गण, विश्वेदेव और साध्य नामक देवता ब्रह्माजीके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े थे। शेषजीके वंशज वासुकि आदि बड़े-बड़े नाग भी विद्यमान थे। तार्क्ष्य, अरिष्टनेमि, महाबली गरुड़, वारुणि तथा आरुणि-ये सभी विनताकुमार वहाँ पधारे थे। लोकपालक भगवान् श्रीनारायणने वहाँ स्वयं पदार्पण किया और समस्त महर्षियोंके साथ लोकगुरु ब्रह्माजीसे कहा - 'जगत्पते ! तुम्हारे ही द्वारा इस सम्पूर्ण संसारका विस्तार हुआ है, तुम्हींने इसकी सृष्टि की है; इसलिये तुम सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर हो। यहाँ हमलोगोंके करनेयोग्य जो तुम्हारा महान् कार्य हो, उसे करनेकी हमें आज्ञा दो।' देवर्षियोंके साथ भगवान् श्रीविष्णुने ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजीको नमस्कार किया।

ब्रह्माजी वहाँ स्थित होकर सम्पूर्ण दिशाओंको अपने तेजसे प्रकाशित कर रहे थे तथा भगवान् श्रीविष्णु भी श्रीवत्स-चिह्नसे सुशोभित एवं सुन्दर सुवर्णमय यज्ञोपवीतसे देदीप्यमान हो रहे थे। उनका एक-एक रोम परम पवित्र है

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