उस्ताद (اُسْتاد) इसका निकटतम बन्धु शब्द अवेस्तन 𐬀𐬎𐬎𐬀𐬯𐬙𐬁𐬙𐬀 (औस्तातस) है जोकि 𐬀𐬎𐬎𐬀 (औउअ = औव ) तथा 𐬀𐬯𐬙𐬁𐬙𐬀 (स्तातस) के संयोग से रचा सामासिक शब्द है; जो कि किसी विधा में कुशल अथवा निपुण व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है।
अवेस्तन उपसर्ग औउअ- तथा संस्कृत अव- भारोपीय मूल *h₂ew-o (दूर, पुनः, भी) से रचे गए हैं। यह शब्द निश्चय, न्यूनता या कमी, निचाई वा गहराई, व्याप्ति जैसे अर्थो में प्रयुक्त है। ग्रीक αὖ (अव - पुनः), लैटिन aut (औत - अथवा), आयरिश ó (ओ - से, तब से), अल्बानियाई vë (वे - रखना), लात्वी तथा लिथुआनियाई au- (औ- से परे), संस्कृत उ जैसे अनेक शब्द इस मूल से रचे गए हैं। 𐬀𐬯𐬙𐬁𐬙𐬀 (स्तातस -- दक्ष अथवा निपुण व्यक्ति) शब्द भारोपीय मूल *stoh₂éyeti (खड़ा करना / खड़ा होने में समर्थ करना / स्थापित करना) से रचा गया है। इसके बन्धु शब्दों में संस्कृत का स्थातृ (= स्थाता, स्थातुर्; दिशा देने वाला, चालक, प्राधिकारी, विशेषज्ञ,जो खड़ा है, जो स्थिर है। यह भारोपीय मूल शब्द *steh₂- (खड़े होना - ठाड़े रहना) + *-éyeti (क्रिया रूप — आयति) = संस्कृत स्थायति से रचा सामासिक शब्द है। इन दोनों मूलों से संस्कृत शब्द अवस्थापन (स्थापित करना) बना है; यदि हम चाहें तो उस्ताद का समकक्ष शब्द अवस्थाता / अवस्थात्री / अवस्थातृ (अव + स्था + ष्ठा) रच सकते हैं।
वैसे संस्कृत भाषा में उस्ताद के समकक्ष शब्द अवस्थातृ (अवस्थाता) भी है जिसका प्रयोग अपेक्षाकृत विरल है। इसकी व्युत्पत्ति अव- उपसर्ग एवं कृदन्त तृच्प प्रत्यय - अव + स्था + तृच् - ष्ठा गतिनिवृत्तौ - भ्वादिः - अनिट् के रूप में हुई है। इसके रूप अवस्थातृ (पुं), अवस्थाता, अवस्थात्री (स्त्री), अवस्थातृ (नपुं) हैं।
अतः उस्ताद वह है जो कि किसी विषय-वस्तु को स्थापित करने (खड़ा करने) की कुशलता रखता हो।
यथा ऋग्वेद की इस ऋचा में "स्थाता (स्थातृ) रथस्य" शब्द का रथ को कुशलता से सञ्चालन, दिशा-निर्देशन करने वाले के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
वृत्रखादो वलंरुजः पुरां दर्मो अपामजः ।
स्थाता रथस्य हर्योरभिस्वर इन्द्रो दृळ्हा चिदारुजः ॥— ऋग्वेदः सूक्तं ३.४५.२॥
अवस्थाता शब्द का प्रयोग जैन ग्रन्थ उपाध्याय मेघविजयजी प्रणीत अर्हतगीता में मिलता है
येनात्मात्मन्यवस्थाता तद्वैराग्यं प्रशस्यते । आत्मैव ह्यात्मना वेद्यो ज्ञानात् शिवमयोऽव्ययः ॥
— अर्हतगीता १.१२
अन्वय-येन आत्मा आत्मनि अवस्थाता तत् वैराग्यं प्रशस्यते आत्मना हि आत्मा वेद्यो । शिवमयः अव्ययः ज्ञानात् एव ॥ १२ ॥
अर्थ-जिसके द्वारा आत्मा को आत्मनिष्ठ बनाया जाय अथवा जिसके द्वारा आत्मा स्वरूपानुसंधान करे उसे ही उच्च वैराग्य कहा जाता है। संसार में आत्मा से ही आत्मा को जानना चाहिए और आत्मा को मोक्षमय अव्यय परमात्मपद केवल इसी आत्मज्ञान से ही होगा।
यहाँ अवस्थाता आत्मनिष्ठ अथवा आत्मज्ञानी के अर्थ में है। "येन आत्मा आत्मनि अवस्थाता" जो आत्म में आत्म दर्शाता है वह अवस्थाता है।
स्थातृ को विभिन्न उपसर्ग लगाकर संस्कृत भाषा में कुछ अन्य शब्द भी रचे गए हैं। यथा, आस्थातृ (सारथी),
वनस्पते वीड्वङ्गो हि भूया अस्मत्सखा प्रतरणः सुवीरः ।
गोभिः संनद्धो असि वीळयस्वास्थाता ते जयतु जेत्वानि ॥ — ऋग्वेद ६.४७.२६॥
* वीळयस्वास्थाता = वी॒ळय॑स्व आ॒ऽस्था॒ता (वीळयस्व अस्मान् दृढीकुरु — जो दृढता दे (ऐसा); आस्थाता त्वयि अवस्थितो रथी रथी)
उपस्थातृ (सेवक, पुरोहित),
अन्यवादी पणान्पञ्च क्रियाद्वेषी पणान्दश ।
नोपस्थाता दश द्वौ च षोडशैव निरुत्तरः ।
आहूतप्रपलायी च पणान्ग्राह्यस्तु विंशतिम् ॥ — कात्यायनस्मृति (वादहानिकराणि) २०२ ॥
*नोपस्थाता = न उपस्थाता
पुरःस्थातृ (पुरःस्थाता — नेतृत्व करने वाला, नायक, नेता, अग्रणक),
स नो वाजेष्वविता पुरूवसुः पुरस्थाता मघवा वृत्रहा भुवत् ॥१३॥ — ऋग्वेद ८.४६.१३
प्रतिप्रस्थातृ (प्रति-प्र-स्था-तृच् — अध्वर्यु का प्रथम सहायक यज्ञ-पुरोहित); इस पुरोहित का विशेष कार्य है यजमान की पत्नी के आगे-आगे चलना; सवनीय पुरोडाश पकाना, प्रतिधयीत प्रतिप्रस्थातृ बिना मन्त्रों का उच्चारण किये अपने कर्तव्यों का निर्वहण करता है; मन्त्र केवल अध्वर्यु पढ़ते हैं; सोम-पान करने के लिए प्रयुक्त पात्र को ‘प्रतिप्रस्थान’ कहते हैं; यह पात्र प्रतिप्रस्थातृ का है, तथा यह अध्वर्यु के पात्र से छोटा होता है।
होता मैत्रावरुणोऽच्छावाको ग्रावस्तुच्च होतारोऽध्वर्युः प्रतिप्रस्थाता नेष्टोन्नेता चाध्वर्यवो ब्रह्मा ब्राह्मणाच्छंस्याग्नीध्रः पोता च ब्रह्माण उद्गाता प्रस्तोता प्रतिहर्ता सुब्रह्मण्यश्चोद्गातारः । — हिरण्यकेशि-श्रौतसूत्रम् प्रश्नः १० सत्याषाढः१०.१
अधिष्ठातृ (अधि + स्था + तृच; अधिष्ठाता, अध्यक्ष, प्रतिपादक) भी इसी मूल स्था से रचित है।
वस्तुतः स्था धातु(ष्ठा गतिनिवृत्तौ (भ्वादिः परस्मैपदी अकर्मकः अनिट् ) - धातुपाठ १.१०७७ (कौमुदीधातुः- ९२८)) के विभिन्न उपसर्ग के साथ तृच प्रत्यय लगा कर यह शब्द रचे जा सकते हैं :—
- अधि + स्था + तृच (अधिष्ठातृ) पदारूढ़, अधिकाररूढ़, अध्यक्ष
- अनु + स्था + तृच (अनुष्ठातृ) शास्त्र उपयोग में लाने वाला, सटे रहने वाला, विधि-सम्मत कार्य करने वाला,
- अव + स्था + तृच (अवस्थातृ) सेवा करनेवाला , स्थिर करने वाला, अनुदेश देने वाला
- आ + स्था + तृच (आस्थातृ) अधिरूढ़, अध्यक्ष
- उत् + स्था + तृच (उत्स्थातृ) खड़ा होने वाला, उठने वाला
- उप + स्था + तृच (उपस्थातृ) प्राप्ति की इच्छा करने वाला, निकटस्थ, उपस्थित रहने वाला
- नि + स्था + तृच (निष्ठातृ) निष्ठा रखने वाला, स्थपित करने वाला
- पर्यव + स्था + तृच (पर्यवस्थातृ) अचल, स्थिर, घेरने वाला
- प्र + स्था + तृच (प्रस्थातृ) जाने वाला, आगे जाने वाला, स्थापित करने वाला
- प्रोत् + स्था + तृच (प्रोत्स्थातृ) आसन पर से उठने वाला, खड़ा रहने वाला, अनुचर
- प्रति + स्था + तृच (प्रतिस्थातृ) परमेश्वरार्पित, प्रतिष्ठा करने वाला, स्थापना करने वाला
- वि + स्था + तृच (विस्थातृ) अलग खड़ा होने वाला, दूर खड़ा रहने वाला, बाट जोहने वाला
- व्यव + स्था + तृच (व्यस्थातृ) आज्ञाकारी
- सम् + स्था + तृच (संस्थातृ) करने वाला, आचरण करने वाला, संस्था चलाने वाला
- सम्प्र + स्था + तृच (सम्प्रस्थातृ) प्रवासी, परदेसी, आगे जाने वाला
उस्ताद एक सञ्ज्ञा, पुल्लिङ्ग, एकवचन शब्द है। रेख़्ता उर्दू शब्दकोश के अनुसार यह इन अर्थों में प्रयोग किया जाता है :—
फ़ारसी और उर्दू में गुरु के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द
वह जो किसी विषय में बहुत अधिक दक्ष या निपुण हो, शिक्षक, अध्यापक (किसी विद्या या शैली का) सिखाने वाला
प्राचार्य, प्रोफ़ेसर
नेता
(साहित्य) पद्य एवं गद्य शैली की त्रुटियों पर शुद्धि करने वाला
दोस्त, मित्र, मियाँ (सम्मान एवं श्रद्धा के शब्द की जगह और उनके अर्थ में )
नपुंसक, ख़्वाजासरा
(अवामी) नाई, हज्जाम, सार्वजनिक स्नानागार में कार्यरत (नाई) मालिश करने वाला, मालिशिया, बावर्ची, दलाल, हम्मामी, मदक या चण्डू पिलाने वाला
वेश्या आदि को गायन, नृत्य आदि कलाओं की शिक्षा देने वाला, प्रायः 'जी' के साथ प्रयुक्त
किसी काम का आरंभ करने वाला, अविष्कारक, अन्वेषक
गुरु, आचार्य, पथप्रदर्शक, मार्गदर्शक, धर्माचार्य, धार्मिक नेता, इमाम, पीर
विशेषण के रूप में यह शब्द इन अर्थों में प्रयोग किया जाता है :—
चालाक, चतुर, होशियार, मदारी
कुशल, विशेषज्ञ, दक्ष, निपुण, प्रवीण (किसी कला, विद्या या अलंकार आदि में )
शब्दसागर हिन्दी शब्दकोश के अनुसार उस्ताद के अर्थ यह हैं :—
उस्ताद ^१ संज्ञा पुं॰ [फा॰] [स्त्री॰ उस्तानी] गुरु । शिक्षक । अध्यापक । मास्टर ।
उस्ताद ^२ वि॰
१. चालाक । छली धूर्त । गुरुघंटाल । उ॰— वह बडा़ उस्ताद है, उससे बचे रहना ।
२. निपुण । प्रवीण । विज्ञ । दक्ष । जैसे,— इस काम में वह उस्ताद है । उ॰— तब उसको वे अपने उस्ताद के निकट ले गए । — कबीर सा॰, पृ॰ ९८२ ।
यह सभी व्यक्ति जो भी कार्य करते हैं उसमें सुस्थापित, पारङ्गत, निपुण, दक्ष, अथवा कुशल होते हैं। यह व्यक्ति अपने कार्य कौशल सेअन्यों को भी दिशा निर्देश देने और अपने मन्तव्य के अनुरूप ढालने में सक्षम हैं। इसीलिए यह सभी उस्ताद कहलाते हैं।
© अरविन्द व्यास, सर्वाधिकार सुरक्षित।
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