"स किं गुरुः स किं तातः स किं पुत्र स किं सखा।
स किं राजा स किं बन्धुर्न दद्याद् यो हरौ मतिम्।
अवैष्णवाद् द्विजाद् विप्र चण्डालो वैष्णवो वरः। सगणः श्वपचो मुक्तो ब्राह्मणो नरकं व्रजेत्।।-
(ब्रह्मखण्ड 11। 38-39)
"वह कैसा गुरु, कैसा पिता, कैसा पुत्र, कैसा मित्र, कैसा राजा तथा कैसा बन्धु है, जो श्रीहरि के भजन की बुद्धि (सलाह) नहीं देता? विप्रवर! अवैष्णव ब्राह्मण से वैष्णव चाण्डाल श्रेष्ठ है; क्योंकि वह वैष्णव चाण्डाल अपने बन्धुगणों सहित संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है और वह अवैष्णव ब्राह्मण नरक में पड़ता है।
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 11 भगवान श्रीकृष्ण (विष्णु) से बढ़कर कोई देवता नहीं है।
शंकर जी से बड़ा वैष्णव नहीं है और पृथ्वी से बढ़कर कोई सहनशील नहीं है। सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है। पार्वती जी से बढ़कर सती-साध्वी स्त्री नहीं है। दैव से बड़ा कोई बलवान नहीं है तथा पुत्र से अधिक दूसरा कोई प्रिय नहीं है। रोग के समान शत्रु, गुरु से बढ़कर पूजनीय, माता के तुल्य बन्धु तथा पिता से बढ़कर दूसरा कोई मित्र नहीं है। सूर्य का यह वचन सुनकर भारद्वाज सुतपा मुनि ने उनको प्रणाम किया और अपनी तपस्या के फल से उनके दोनों पुत्रों को रोगमुक्त कर दिया। फिर कहा– ‘देवेश्वर! आगे चलकर आपके दोनों पुत्र यज्ञ भाग के अधिकारी होंगे।’ यों कह सुतपा मुनि ने भगवान सूर्य को प्रणाम किया और तपस्या के क्षीण होने के भय से भयभीत हो श्रीहरि की सेवा में मन लगाकर गंगा तट को प्रस्थान किया। तत्पश्चात् भगवान सूर्य दोनों पुत्रों के साथ अपने धाम को चले गये। विद्वान हो या विद्याहीन, जो ब्राह्मण प्रतिदिन संध्यावन्दन करके पवित्र होता है, वही भगवान विष्णु के समान वन्दनीय है। यदि वह भगवान से विमुख हो तो आदर का पात्र नहीं है। जो एकादशी को भोजन नहीं करता और प्रतिदिन श्रीकृष्ण की आराधना करता है, उस ब्राह्मण का चरणोदक पाकर कोई भी स्थान निश्चय ही तीर्थ बन जाता है। जो नित्यप्रति भगवान को भोग लगाकर उनका उच्छिष्ट भोजन करता है तथा उनके नैवेद्य को मुख में ग्रहण करता है, वह इस भूतल पर परम पवित्र एवं जीवन्मुक्त है। कुलीन द्विजों का जो अन्न-जल भगवान विष्णु को अर्पित नहीं किया गया, वह मल-मूत्र के समान है– ऐसा ब्रह्मा जी का कथन है। ब्रह्मा जी तथा उनके पुत्र सनकादि– सभी विष्णुपरायण हैं; फिर उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए ब्राह्मण श्रीहरि से विमुख कैसे हो सकता है? माता-पिता, नाना आदि अथवा गुरु के संसर्ग-दोष से भी जो ब्राह्मण श्रीहरि से विमुख हो जाते हैं, वे जीते-जी ही मुर्दे के समान हैं। वह कैसा गुरु, कैसा पिता, कैसा पुत्र, कैसा मित्र, कैसा राजा तथा कैसा बन्धु है, जो श्रीहरि के भजन की बुद्धि (सलाह) नहीं देता? विप्रवर! अवैष्णव ब्राह्मण से वैष्णव चाण्डाल श्रेष्ठ है; क्योंकि वह वैष्णव चाण्डाल अपने बन्धुगणों सहित संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है और वह अवैष्णव ब्राह्मण नरक में पड़ता है।[1] ब्रह्मन! जो प्रतिदिन संध्या-वन्दन नहीं करता अथवा भगवान विष्णु से विमुख रहता है, वह सदा अपवित्र माना गया है। जैसे विषहीन सर्प को सर्पाभास मात्र कहा गया है, उसी तरह संध्या कर्म तथा भगवद्भक्ति से हीन ब्राह्मण ब्राह्मणाभास मात्र है। वैष्णव पुरुष अपने कुल की करोड़ों और नाना आदि की सैकड़ों पीढ़ियों के साथ भगवान विष्णु के धाम में जाता है। वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।
भक्तों की रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र को नियुक्त करके श्रीहरि निश्चिन्त नहीं होते हैं; इसलिये स्वयं भी उनके पास मौजूद रहते हैं।
________________________
ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 12
ब्रह्मा जी की अपूज्यता का कारण, गन्धर्वराज की तपस्या से संतुष्ट हुए भगवान शंकर का उन्हें अभीष्ट वर देना तथा नारद जी का उनके पुत्र रूप से उत्पन्न हो उपबर्हण नाम से प्रसिद्ध होना
तदनन्तर शौनक जी के पूछने पर सौति ने कहा– ब्रह्मन! हंस, यति, अरणि, वोढु, पंचशिख, अपान्तरतमा तथा सनक आदि– इन सबको छोड़कर अन्य सभी ब्रह्मकुमार, जिनकी संख्या बहुत अधिक थी, सदा सांसारिक कार्यों में संलग्न हो प्रजा की सृष्टि करके गुरुजनों (पिता आदि) की आज्ञा का पालन करने लगे। स्वयं प्रजापति ब्रह्मा अपने पुत्र नारद के शाप से अपूज्य हो गये। इसीलिये विद्वान पुरुष ब्रह्मा जी के मन्त्र की उपासना नहीं करते। नारद जी अपने पिता की शाप से उपबर्हण नामक गन्धर्व हो गये। उनके वृत्तान्त का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ; सुनिये।
इन दिनों जो गन्धर्वराज थे, वे सब गन्धर्वों में श्रेष्ठ और महान थे, उच्चकोटि के ऐश्वर्य से सम्पन्न थे, परंतु किसी कर्मवश पुत्र-सुख से वंचित थे। एक समय गुरु की आज्ञा लेकर वे पुष्कर तीर्थ में गये और वहाँ उत्तम समाधि लगाकर (अथवा अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक) भगवान शिव की प्रसन्नता के लिये तप करने लगे। उस समय उनके मन में बड़ी दीनता थी, वे दयनीय हो रहे थे। कृपानिधान वसिष्ठ मुनि ने गन्धर्वराज को शिव के कवच, स्तोत्र तथा द्वादशाक्षर-मन्त्र का उपदेश दिया। दीर्घकाल तक निराहार रहकर उपासना एवं जप-तप करने पर भगवान शिव ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये। नित्य तेजःस्वरूप सनातन भगवान शिव ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान हो दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी।
भक्तों पर अनुग्रह करने वाले वे भगवान तपोरूप हैं, तपस्या के बीज हैं, तप का फल देने वाले हैं और स्वयं ही तपस्या के फल हैं। शरण में आये हुए भक्त को वे समस्त सम्पत्तियाँ प्रदान करते हैं। उस समय वे दिगम्बर-वेष में वृषभ पर आरूढ थे, उन्होंने हाथों में त्रिशूल और पट्टिश ले रखे थे। उनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल थी। उनके तीन नेत्र थे और उन्होंने मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण कर रखा था। उनका जटाजूट तपाये हुए सुवर्ण की प्रभा को छीने लेता था। कण्ठ में नील चिह्न और कंधे पर नाग का यज्ञोपवीत शोभा दे रहा था। सर्वज्ञ शिव सबके संहारक हैं। वे ही काल और मृत्युंजय हैं। वे परमेश्वर ग्रीष्म-ऋतु की दोपहरी के करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी थे। शान्तस्वरूप शिव तत्त्व ज्ञान, मोक्ष तथा हरिभक्ति प्रदान करने वाले हैं।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 12
उन्हें देखते ही गन्धर्व ने सहसा दण्ड की भाँति पृथ्वी पर पड़कर प्रणाम किया और वसिष्ठ जी के दिये हुए स्तोत्र से उन परमेश्वर का स्तवन किया। तब कृपानिधान शिव उससे बोले– ‘गन्धर्वराज! तुम कोई वर माँगो।’ तब गन्धर्व ने उनसे भगवान श्रीहरि की भक्ति तथा परम वैष्णव पुत्र की प्राप्ति का वर माँगा। गन्धर्व की बात सुनकर दीनों के स्वामी दीनबन्धु सनातन भगवान चन्द्रशेखर हँसे और उस दीन सेवक से बोले।
श्री महादेव जी ने कहा – गन्धर्वराज! तुमने जो एक वर (हरिभक्ति) को माँगा है, उसी से तुम कृतार्थ होओगे। दूसरा वर तो चबाये हुए को चबाना मात्र है। वत्स! जिसकी श्रीहरि में सुदृढ़ एवं सर्वमंगलमयी भक्ति है, वह खेल-खेल में ही सब कुछ करने में समर्थ है। भगवद्भक्त पुरुष अपने कुल की और नाना के कुल की असंख्य पीढ़ियों का उद्धार करके निश्चय ही गोलोक में जाता है। करोड़ों जन्मों में उपार्जित त्रिविध पापों का नाश करके वह अवश्य ही पुण्यभोग तथा श्रीहरि की सेवा का सौभाग्य पाता है। मनुष्यों को तभी तक पत्नी की इच्छा होती है, तभी तक पुत्र प्यारा लगता है, तभी तक ऐश्वर्य की प्राप्ति अभीष्ट होती है और तभी तक सुख-दुःख होते हैं, जब तक कि उनका मन श्रीकृष्ण में नहीं लगता।
श्रीकृष्ण में मन लगते ही भक्तिरूपी दुर्लङ्घ्य खड्ग मानवों के कर्ममय वक्षों का मूलोच्छेद कर डालता है। जिन पुण्यात्माओं के पुत्र परम वैष्णव होते हैं, उनके वे पुत्र लीलापूर्वक कुल की बहुसंख्यक पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं। अहो! एक वर से ही कृतार्थ हुआ पुरुष यदि दूसरा वर चाहता है तो मुझे आश्चर्य होता है। दूसरे वर की क्या आवश्यकता है? लोगों को मंगल की प्राप्ति से तृप्ति नहीं होती है। हमारे पास वैष्णवों के लिये परम दुर्लभ धन संचित है। श्रीकृष्ण की भक्ति एवं दास्य-सुख हम लोग दूसरों को देने के लिये उत्सुक नहीं होते। वत्स! जो तुम्हारे मन में अभीष्ट हो, ऐसा कोई दूसरा वर माँगो अथवा इन्द्रत्व, अमरत्व या दुर्लभ ब्रह्मपद प्राप्त करो। मैं तुम्हें सम्पूर्ण सिद्धियाँ, महान योग और मृत्युंजय आदि ज्ञान यह सब कुछ सुखपूर्वक दे दूँगा, किंतु यहाँ श्रीहरि का दासत्त्व माँगने का आग्रह छोड़ दो, क्षमा करो।
भगवान शंकर की यह बात सुनकर गन्धर्व के कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये। वह अत्यन्त दीनभाव से सम्पूर्ण सम्पत्तियों के दाता दीनेश्वर शिव से बोला।
ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड : अध्याय 12 गन्धर्व ने कहा– प्रभो! जिसका ब्रह्मा जी की दृष्टि पड़ते ही पतन हो जाता है, वह ब्रह्मपद स्वप्न के समान मिथ्या एवं क्षणभंगुर है। श्रीकृष्ण भक्त उसे नहीं पाना चाहता। शिव! इन्द्रत्व, अमरत्व, सिद्धियोग आदि अथवा मृत्युंजय आदि ज्ञान की प्राप्ति भी श्रीकृष्ण भक्त को अभीष्ट नहीं है। श्रीहरि के सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य और सायुज्य को तथा निर्वाण मोक्ष को भी वैष्णवजन नहीं लेना चाहते।[1] भगवान की अविचल भक्ति तथा उनका परम दुर्लभ दास्य प्राप्त हो– यही सोते, जागते हर समय भक्तों की इच्छा रहती है। अतः यही हमारे लिये श्रेष्ठ वर है। प्रभो! आप याचकों के लिये कल्पवृक्ष हैं; अतः मुझे वर के रूप में श्रीहरि का दास्य-सुख तथा वैष्णव पुत्र प्रदान कीजिये। आपको संतुष्ट पाकर जो दूसरा कोई वर माँगता है, वह बर्बर है। शम्भो! यदि आप मुझे दुष्कर्मी मानकर यह उपर्युक्त वर नहीं देंगे तो मैं अपना मस्तक काटकर अग्नि में होम दूँगा। गन्धर्व की यह बात सुनकर भक्तों के स्वामी तथा भक्त पर अनुग्रह करने वाले कृपानिधान भगवान शंकर उस दीन भक्त से इस प्रकार बोले। भगवान शंकर ने कहा– गन्धर्वराज! भगवान विष्णु की भक्ति, उनके दास्य-सुख तथा परम वैष्णव पुत्र की प्राप्ति– इस श्रेष्ठ वर को उपलब्ध करो, खिन्न न होओ। तुम्हारा पुत्र वैष्णव होने के साथ दीर्घायु, सद्गुणशाली, नित्य सुस्थिर यौवन से सम्पन्न, ज्ञानी, परम सुन्दर, गुरुभक्त तथा जितेन्द्रिय होगा। मुने! ऐसा कहकर भगवान शंकर वहाँ से अपने धाम को चले गये और गन्धर्वराज संतुष्ट होकर अपने घर को लौटे। अपने कर्म से सफलता प्राप्त होने पर सभी मानवों के मानस-पंकज खिल उठते हैं। उस गन्धर्वराज की पत्नी के गर्भ से भारतवर्ष में नारद जी ने ही जन्म लिया। उस वृद्धा गन्धर्व पत्नी ने गन्धमादन पर्वत पर अपने पुत्र का प्रसव किया था। उस समय गुरुदेव भगवान वसिष्ठ ने यथोचित रीति से बालक का नामकरण संस्कार किया। उस बालक का वह मंगलमय संस्कार मंगल के दिन सम्पन्न हुआ। ‘उप’ शब्द अधिक अर्थ का बोधक है और पुल्लिंग ‘बर्हण’ शब्द पूज्य-अर्थ में प्रयुक्त होता है। यह बालक पूज्य पुरुषों में सबसे अधिक है; इसलियेइसका नाम ‘उपबर्हण’ होगा– ऐसा वसिष्ठ जी ने कहा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें