विष्णु के विषय मे शास्त्रों के अनेक कथानक हमें यह एहसास दिलाते हैं कि भगवान श्री कृष्ण और भगवान विष्णु एक ही हैं।
कुछ कथानक यह संकेत करते हैं कि श्री कृष्ण महाविष्णु के अवतार हैं, जैसे भगवान श्री कृष्ण के प्रकट होने से पहले कारागार में देवकी और वसुदेव के समक्ष महाविष्णु स्वयं प्रकट हुए थे, बाद में उन्होंने बालक श्रीकृष्ण का रूप धारण कर लिया।
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कुछ कथानक यह भी संकेत करते हैं कि श्रीकृष्ण ही परात्पर ब्रह्म हैं ।
अन्य सभी उनके अवान्तर अवतार हैं जैसा कि ब्रह्म संहिता में भी लिखा है--:
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"यस्यैक निःश्वसितकालमथावलम्ब्य जीवन्ति लोमविलजाः जगदण्डनाथा ।
विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो,
गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजामि ॥
सन्दर्भ:- ब्रह्म संहिता
उपर्युक्त कथानक साधकों में यह भ्रम पैदा करता है कि क्या भगवान श्री कृष्ण और महाविष्णु दो पृथक व्यक्तित्व हैं या एक होते हुए भी विभिन्न अवतार हैं ?
आइए इस गुत्थि को सुलझायें।
श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार सृष्टि की रचना के समय परब्रह्म ने अपनी एक प्रथम शक्ति को कारणार्णवशायी महाविष्णु के रूप में प्रकट किया। जो सृष्टि रूपी समुद्र का कारण बनी।
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"आद्योऽवतार: पुरुष: परस्य
काल: स्वभाव: सदसन्मनश्च।
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि
विराट् स्वराट् स्थास्नु चरिष्णु भूम्न:॥४२॥
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१-आद्यावतार:= the primary manifestation। प्रथम अवतार-
२-पुरुष: परस्य= (is)Purusha, of the Supreme। परमपुरुष( परात्परब्रह्म)
३-काल: स्वभाव: Time, Nature,
४-सत्-असत्-मन:-च =अस्तित्व (existence ) अभाव-absence , and mind -मन।
५-द्रव्यम् विकार: - the elements, ego,
६-गुण: इन्द्रियाणि the gunas, senses
७-विराट् स्वराट् the Cosmic Body, the Cosmic Being
८-स्थास्नु चरिष्णु भूम्न: inanimate, animate of the all-pervading Lord।
सर्वोच्च की प्राथमिक अभिव्यक्ति पुरुष है। फिर समय, स्वभाव सद्-असद्, मन द्रव्यविकार गुण इन्द्रिय प्रकृति अपने कारण और प्रभाव के साथ, और, पांच तत्व, अहंकार, तीन गुण, दस इंद्रियां, ब्रह्मांडीय शरीर, ब्रह्मांडीय अस्तित्व, निर्जीव और चेतन, वे सभी रूप हैं जो सर्वव्यापी भगवान के रूप हैं।.
१-कारणार्णवाशायी विष्णु सर्वोच्च भगवान के पहले अवतार हैं, और वे शाश्वत समय, स्थान, कारण और प्रभाव, मन, तत्वों, भौतिक अहंकार, प्रकृति के गुणों, इंद्रियों, भगवान के सार्वभौमिक रूप के स्वामी हैं यही अनेक ब्रह्माण्डों का कारण है। यह निमित्त कारण है।
कारणार्णवशायी महाविष्णु को परब्रह्म के प्रथम अवतार होने के कारण प्रथम पुरुष भी कहा जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड-नारदपुराण पूर्वाद्ध- देवीभागवतपुराण नवम स्कन्ध गर्ग संहिता आदि ग्रन्थों में परमेश्वर कृष्ण से गोलोक धाम में महाविष्णु का प्रथम रूप वामांग से नारायण नाम से उत्पन्न हुआ।
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गोलोकवासिनी सा तु नित्या कृष्णसहायिनी ।
तेजोमण्डलमध्यस्था दृश्यादृश्यस्वरूपिणी।११।
अनुवाद:- गोलोक में नित्य उसने वाली कृष्ण की सहायता करने वाली ते जो मण्डल के मध्य में स्थित साकार और निराकार रूप वाली राधा जी।
कदाचित्तु तया सार्द्धं स्थितस्य मुनिसत्तम ।।
कृष्णस्य वामभागात्तु जातो नारायणः स्वयम्।१२।
अनुवाद:-हे मुनि श्रेष्ठ राधा कृष्ण की आदि शक्ति हैं कृष्ण के बायें भाग से नारायण उत्पन्न हुए।
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राधिकायाश्च वामांगान्महालक्ष्मीर्बभूव ह।
ततः कृष्णो महालक्ष्मीं दत्त्वा नारायणाय च।१३।
अनुवाद:-राधिका के बायें भाग से महालक्ष्मी उत्पन्न हुई। तब महालक्ष्मी को कृष्ण ने नारायण को दे दिया।
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वैकुण्ठे स्थापयामास शश्वत्पालनकर्मणि ।।
अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने ।१४।
जातुश्चासंख्यगोपालास्तेजसा वयसा समाः।
प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः ।१५।
राधांगलोमकूपेभ्ये बभूवुर्गोपकन्यकाः।
राधातुल्याः सर्वतश्च राधादास्यः प्रियंवदाः।१६।
विशेष—नारायण इस शब्द की व्युत्पत्ति ग्रथों में कई प्रकार से बतलाई गई हैं।
मनुस्मृति में लिखा है कि 'नर' परमात्मा का नाम है। परमात्मा से सबसे पहले उत्पन्न होने का कारण जल को 'नारा' कहते हैं। जल जिसका प्रथम अयन या अधिष्ठान है उस परमात्मा का नाम हुआ 'नारायण'।
महाभारत के एक श्लोक के भाष्य में कहा गया है कि नर नाम है आत्मा या परमात्मा का।
आकाश आदि सबसे पहले परमात्मा से उत्पन्न हुए इससे उन्हें नारा कहते हैं।
यह 'नारा' कराणस्वरूप होकर सर्वत्र व्याप्त है इससे परमात्मा का नाम नारायण हुआ।
कई जगह ऐसा भी लिखा है कि किसी मन्वतंर में विष्णु 'नर' नामक ऋषि के पुत्र हुए थे जिससे उनका नाम नारायण पड़ा।
ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में और भी कई प्रकार की व्युत्पत्तियाँ बतलाई गई हैं।
तैत्तिरीय आरण्यक में नारायण की गायत्री है जो इस प्रकार है—'नारायणाय विप्लेह वासुदेवाय घीमहि तन्नों विष्णुः प्रचोदयात्'। यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६। ६। २। १) और शाख्यायन श्रोत सूत्र (१६। १३। १) में नारायण शब्द विष्णु या प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है। जैन लोग नरनारायण को ९ वासुदेवों में से आठवाँ वासुदेव कहते
नारायण ही कारणार्णव महाविष्णु हैं। यह महाविष्णु का प्रथम रूप है।
द्वितीय रूप महाविराट् जो राधा जी के गर्भ से हुआ।
और तृतीय विष्णु जो महा वराट् से उत्पन्न है। जिनसे ब्रह्मा का जन्म होता है।
२-गर्भोदकशायी विष्णु, यह कारणार्णवशायी से उदित द्वितीय वह रूप है जो सर्वत्र संसार के गर्भ में शयन किए हुए है। और सभी जीवित प्राणियों का कुल योग, दोनों जंगम और स्थावर इन सब में यह महाविष्णु व्याप्त है। यह उपादान कारण है।
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“कारणार्णवशायी विष्णु परब्रह्म के प्रथम अवतार माने जाते हैं। वे शाश्वत काल, पंच महाभूत की माया एवं उसमें व्याप्त अहंकार, परब्रह्म का सर्वव्यापक रूप हैं। जबकि
गर्भोदकशायी महाविष्णु तथा संपूर्ण जगत के चराचर जीवात्माओं के स्वामी संसार के भीतर समाए हुए हैं”।-गर्भोदशायी महाविष्णु ने अनंत ब्रह्माण्डों को प्रकट किया और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक ब्रह्मा, एक विष्णु तथा एक शंकर को प्रकट किया । गर्भोदशायी महाविष्णु को द्वितीय पुरुष भी कहा जाता है
३-क्षीरोदशायी महाविष्णु या तृतीय पुरुष कहते हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के विष्णु का यह पृथक उपाधि है।
इनको परमात्मा भी कहते हैं जो अनंत कोटि ब्रह्माण्डों के सभी जीवों के हृदय में बैठकर उनके प्रत्येक क्षण के प्रत्येक कर्मों का साक्षी बन तत्पश्चात उसका फल प्रदान करते हैं।
इन्हीं का नाम नारायण है।
अतः यह स्पष्ट है कि भगवान श्री कृष्ण की शक्ति (कारणार्णवशायी विष्णु) की शक्ति (गर्भोदशायी महाविष्णु) की शक्ति का प्राकट्य क्षीरोदशायी महाविष्णु ही हैं । इसीलिए कहा गया है -
"विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो ॥
(ब्रह्म संहिता) महाविष्णु जिनकी एक कला है वह परात्पर ब्रह्म कृष्ण ही हैं।
कारण तीन प्रकार के होते है— समवायि (जैसे तन्तु वस्त्र का), असमवाय (तन्तुओं का संयोग वस्त्र का) । और निमित्त (जैसे जुलाहा, ढरकी आदि वस्त्र के द्वारा वस्त्र सीना ।
इति रजोगुणः । सत्त्वेन सर्वमेतद्वहत्येव । अतो रजोगुणसंवलितसत्त्वो महाविष्णुः । अतएव विशुद्धसत्त्वः श्रीकृष्णचन्द्रः । तथा हि ब्रह्मसंहितायां यः कारणार्णवजले भजति इत्यादि, यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य इत्यादि।
अनुवाद:-सत्व के द्वार यह महाविष्णु सर्वत्र वहन करते हैं। अत: रजोगुण समन्वित ( युक्त)सत्व महाविष्णु हैं। इसलिए ही विशुद्ध सत्व स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं। इस लिए ब्रह्म संहिता में जो कारणार्णव जल में भेजते हैं। कि जिस के एक कला से महाविष्णु उत्पन्न होते हैं।
ततः सच्चिदानन्दस्वरूपो विशुद्धसत्त्वो गोविन्दः । स एव श्रीकृष्णचन्द्रः स्वप्रकाशो दिव्यवृन्दावनेशो नित्यवृन्दावने प्रकाशोऽभूदिति वेदवेदान्तादिभिर्निर्दिष्टम् । तथा हि ब्रह्मसंहितायांअनुवाद:- तत्पश्चात सच्चिदानंद स्वरूप विशुद्ध सत्व धारक गोविन्द हैं। वे ही श्री श्रीकृष्ण चन्द स्वयं प्रकाश है दिव्य वृन्दावन के स्वामी नित्य वृन्दावन में प्रकाश होता है।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥२३॥ इति ।
या या विभूतयोऽचिन्त्याः शक्तयश्चारुमायिनः ।
परेशस्य महाविष्णोस्ताः सर्वास्ते कलाकलाः ॥५४॥
इति सर्वाः शक्तयः श्रीराधायां विद्यन्ते ।
अथ केनचिदुक्तम्—आद्याशक्तिर्भगवतो दुर्गेति सर्वत्र ख्यातिः । कथमन्या ? तदत्रावधीयतां वराहसंहितायां (२.३१२, ७८९)
ब्रह्मवैवर्ते—
एवं प्रत्यण्डकं ब्रह्मा कोऽहं जानामि किं विभो
रजोगुणप्रभावोऽहं सृजाम्येतत्पुनः पुनः ॥६०॥
सत्त्वस्थो भगवान्विष्णुः पाति सर्वं चराचरम् ।
रुद्ररूपी च कल्पान्ते संहरत्येतदेव हि ॥६१॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नित्यं चानित्यवन्मुने ॥६२॥
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"महाविष्णुर्यथा ब्रह्मसंहितायां
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा महाविष्णुः सनातनः ।
वामाङ्गादसृजद्विष्णुं दक्षिणाङ्गात्प्रजापतिम् ॥६३॥
"अनुवाद:- महाविष्णु का स्वरूप अनेक हजार मुख वाले विश्व की आत्मा़ के रूप में है।महाविष्ण सनातन हैं। उस महाविष्णु के बायें अंग से विष्णु उत्पन्न होते हैं। । और दक्षिण अंग से प्रजापति ।६३।
ज्योतिर्लिङ्गमयं शम्भुं कूर्चदेशादवासृजत।
अहङ्कारात्मकं विश्वं तस्मादेतद्व्यजायत ॥६४॥
अनुवाद ज्योतिर्लिंग मय शम्भु को कूर्चदेश से ( दौनों भौहों के बीच के स्थान से )अहंकार मय विश्व को इस प्रकार सृजित किया।
नारायणो, यथा द्रुमिल उवाच—
भूतैर्यदा पञ्चभिरात्मसृष्टैः
पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन।
स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधानम्
अवाप नारायण आदिदेवः ॥६५॥
नरायण सम्पूर्ण नरों के अयन ( मस्तिष्क अथवा हृदय में अयन करने से नारायण सभी भूतों जो पंचात्मक सृष्टि है से निर्मित पुर में प्रवेश कर शयन करने से ये पुरुष संज्ञा से जाना गया है।
"अयमेव महाविष्णुः श्रीकृष्णस्य कलाः, यथा—
विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ इति
अनुवाद:- यह महाविष्णु श्रीकृष्ण की कला का एक रूप जैसे महाविष्णु जिस कृष्ण की एक कला विशेष हैं। उस गोविन्द आदि पुरुष को हम भजन करते हैं।९१।
"यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य
जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥९१॥
सन्दर्भ:-इति श्रीकृष्णभक्तिरत्नप्रकाशेश्रीमन्नन्दकिशोरस्वरूपकृष्णचन्द्रप्रकाशनिरूपणं नामपञ्चमं रत्नम्"
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भागवत में गोलोक का वर्णन-
ब्रह्मा जी ने भगवान श्री कृष्ण के चरणकमलों में गिरकर क्षमा याचना की तथा उनकी स्तुति की -
"क्वाहं त्मोमहदहं खचराग्निवार्भू संवेष्टितांडघटसप्तवितस्तिकायः ।
क्वेदृग्विधाऽविगणिताण्डपराणुचर्या वाताध्वरोम विवरस्य च ते महित्वम्।
(भागवत पुराण १०.१४.११)
दशम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय (पूर्वार्ध)
| श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 7-13 का हिन्दी अनुवाद परन्तु भगवन ! जिन समर्थ पुरुषों ने अनेक जन्मों तक परिश्रम करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु, आकाश के हिमकण तथा उसमें चमकने वाले नक्षत्र एवं तारों तक को गिन डाला है - उसमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनन्त गुणों को गिन सके? प्रभो! आप केवल संसार के कल्याण के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं। सो भगवन! आपकी महिमा का ज्ञान तप बड़ा ही कठिन है। इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भली-भाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मन से भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद्गद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों में समर्पित करता रहता है - इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पद का अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिता की सम्पत्ति का पुत्र! प्रभो! मेरी कुटिलता तो देखिये। आप अनन्त आदिपुरुष परमात्मा और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी माया के चक्र में हैं। फिर भी मैंने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा ! प्रभो ! मैं आपके सामने हूँ ही क्या। क्या आग के सामने चिनगारी की भी कुछ गिनती है? भगवन! मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ। आपके स्वरूप को मैं ठीक-ठाक नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँ - इस मायाकृत मोह के घने अन्धकार से मैं अन्धा हो रहा था। इसलिये आप यह समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है - मेरा भृत्य है, इस पर कृपा करनी चाहिए’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये। मेरे स्वामी! प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी रूप आवरणों से घिरा हुआ यह ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है। और आपके एक-एक रोम के छिद्र में ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखे की जाली में से आने वाली सूर्य की किरणों में रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं। कहाँ अपने परिमाण से साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा। वृत्तियों की पकड़ में न आने वाले परमात्मन! जब बच्चा माता के पेट में रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परन्तु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है? ‘है’ और ‘नहीं है’ - इन शब्दों से कही जाने वाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो? श्रुतियाँ कहती हैं कि जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जल में लीन थे, उस समय उस जल में स्थित श्रीनारायण के नाभि कमल से ब्रह्मा का जन्म हुआ। उनका यह कहना किसी प्रकार असत्य नहीं हो सकता। तब आप भी बतलाइये, प्रभो ! क्या मैं आपका पुत्र नहीं हूँ? दशम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय (पूर्वार्ध)
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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 14-22 का हिन्दी अनुवाद प्रभो! आप समस्त जीवों के आत्मा हैं। इसलिये आप नारायण [1] हैं। आप समस्त जगत के और जीवों के अधीश्वर हैं, इसलिए भी नारायण [2] हैं। आप समस्त लोकों के साक्षी हैं, इसलिए भी नारायण [3] हैं। नर से उत्पन्न होने वाले जल में निवास करने के कारण जिन्हें नारायण [4] कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं। वह अंशरूप से दीखना भी सत्य नहीं हैं, आपकी माया ही है।
भगवन! यदि आपका विराट स्वरूप सचमुच उस समय जल में ही था तो मैंने उसी समय क्यों नहीं देखा, जबकि मैं कमलनाल के मार्ग से उसे सौ वर्ष तक जल में ढूंढ़ता रहा? फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदय में उसका दर्शन कैसे हो गया? और फिर कुछ ही क्षणों में वह पुनः क्यों नहीं दीखा, अंतर्धयान क्यों गया? माया का नाश करने वाले प्रभो! दूर की बात कौन करे - अभी इसी अवतार में आपने इस बाहर दीखने वाले जगत को अपने पेट में ही दिखला दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं। इससे यही सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है जब आपके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा बाहर दीखता है वैसा ही आपके उदर में भी दीखा, तब क्या यह सब आपकी माया के बिना ही आप में प्रतीत हुआ? अवश्य ही आपकी लीला है। उस दिन की बात जाने दीजिये, आज की ही लीजिये। क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्व को अपनी माया का खेल नहीं दिखलाया है? पहले आप अकेले थे। फिर सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरे सहित सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हैं। आपने अलग-अलग उतने ही ब्रह्माण्डों का रूप भी धारण कर लिया था, परन्तु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रह्मरूप से ही शेष रह गये हैं। "जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूप को नहीं जानते, उन्हीं को आप प्रकृति में स्थित जीव के रूप से प्रतीत होते हैं और उन पर अपनी माया का परदा डालकर सृष्टि के समय मेरे (ब्रह्मा) रूप से, पालन के समय अपने (विष्णु) रूप से और संहार के समय रुद्र के रूप में प्रतीत होते हैं। प्रभो! आप सारे जगत के स्वामी और विधाता हैं। अजन्मा होने पर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं, इसलिए कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमण्ड तोड़ दें और सत्पुरुषों पर अनुग्रह करें। भगवन आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हैं। जिस समय आप अपनी योगमाया का विस्तार करके लीला करने लगते हैं, उस समय त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ, किसलिये, कब और कितनी होती है। इसलिए यह सम्पूर्ण जगत स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर-दुःखदेने वाला है। आप परमानन्द, परम ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हैं। यह माया से उत्पन्न एवं विलीन होने पर भी आपमें आपकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होता है। दशम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय (पूर्वार्ध)
| श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 23-31 का हिन्दी अनुवाद:- प्रभो ! आज ही एकमात्र सत्य हैं। क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं। आप पुराण पुरुष होने के कारण समस्त जन्मादि विकारों से रहित हैं। आप स्वयं प्रकाश है; इसलिये देश, काल और वस्तु - जो पर प्रकाश हैं - किसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर सकते। आप उनके भी आदि प्रकाशक हैं। आप अविनाशी होने के कारण नित्य हैं। आपका आनन्द अखण्डित है। आपमें न तो किसी प्रकार का मल है और न अभाव। आप पूर्ण, एक हैं। समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हैं। आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही अपना स्वरूप है। जो गुरु रूप सूर्य से तत्त्वज्ञान रूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूप के रूप में साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागर को मानो पार कर जाते हैं। जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही इस नाम रूपात्मक निखिल प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है। किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है। जैसे रस्सी के भ्रम के कारण ही साँप की प्रतीति होती है और भ्रम के निवृत होते ही उसकी निवृति हो जाती है। संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्ष - ये दोनों ही नाम अज्ञान से कल्पित हैं। वास्तव में ये अज्ञान के ही दो नाम हैं। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से भिन्न अस्तित्व नहीं रखते। जैसे सूर्य में दिन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही विचार करने पर अखण्ड चित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व में न बन्धन है और न तो मोक्ष। भगवन! कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं। और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं। और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूंढ़ने लगते हैं। भला, अज्ञानी जीवों का यह कितना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त! आप तो सबके अंतःकरण में ही विराजमान हैं। इसलिये सन्त लोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूंढ़ते हैं। क्योंकि यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँप को मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है? अपने भक्तजनों के हृदय में स्वयं स्फुरित होने वाले भगवन! आपके ज्ञान का स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे अज्ञान कल्पित जगत का नाश हो जाता है। फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरण कमलों का तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है - वही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमा का तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधन रूप अपने प्रयत्न से बहुत काल तक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमा का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। इसलिये भगवन! मुझे इस जन्म में, दूसरे जन्म में अथवा किसी पशु-पक्षी आदि के जन्म में भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं आपके दासों में से कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ। मेरे स्वामी! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक आपको पूर्णतः तृप्त न कर सके। परन्तु आपने ब्रज की गायों और ग्वालिनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनों का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से पिया है। वास्तव में उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं |
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अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवान श्रीकृष्ण के दो प्रकार के अवतार होते हैं । एक युगावतार श्री कृष्ण और एक स्वयं श्री कृष्ण।
युगावतार श्रीकृष्ण प्रत्येक द्वापर में अवतारित होते हैं जबकी स्वयं श्री कृष्ण एक कल्प में केवल एक बार आते हैं ।
युगावतार तथा महाविष्णु दोनों अवतार हैं । जबकि स्वयं श्री कृष्ण अन्य सभी अवतारों के स्रोत हैं।
यद्यपि अवतारी और सभी अवतारों में अनंत दिव्यानंद है तथा श्री कृष्ण के समकक्ष शक्तियां होती हैं परन्तु अवतार उन परम शक्तियों के अध्यक्ष नहीं होते ।
स्वयं श्री कृष्ण ही समस्त दिव्य शक्तियों के स्वामी और नियंत्रण कर्ता हैं ।
आपके शरीर के रोम-रोम में अनंत ब्रह्मा, विष्णु शंकर और उनके ब्रह्मांड समाए हुए हैं
आपके शरीर के रोम-रोम में अनंत ब्रह्मा, विष्णु शंकर और उनके ब्रह्मांड समाए हुए हैं
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ही अपनी शक्तियाँ अपने सभी अवतारों को देते हैं और श्री कृष्ण अपनी शक्ति निस्पंद भी कर सकते हैं क्योंकि वे स्वयं ही समस्त शक्तियों के नियन्त्रक हैं ।
नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदु- र्न वामदेव: किमुतापरे सुरा: ।
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ भागवतपुराण २.६.३७ ॥
"न ही भगवान शंकर, न ही तुम और न ही मैं दिव्यानंद की सीमाओं का अंत पा सकते हैं तो देवी देवता की क्या बिसात ? और हम सभी लोग भगवान की माया से मोहित हैं अतः व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार ही हम लोग ब्रह्माण्डों को देख सकते हैं।
यह सभी प्रमाण सिद्ध करते हैं कि एक ही परमेश्वर परमब्रह्म है और सभी अवतार उसी की शक्तियों से या उसकी शक्ति की शक्ति से शक्ति प्राप्त करते हैं।
वैष्णववाद की एक शाखा,गौड़ीयवैष्णववाद में , सात्वत-तन्त्र में विष्णु के तीन अलग-अलग मानकों का वर्णन किया गया है, महाविष्णु को कर्णोदकयी विष्णु के रूप में भी जाना जाता है (वह रूप सांस से भिन्न उत्पन्न होता है और सांस से, पदार्थ से बना होता है)। (प्रत्येक ब्रह्माण्ड के आधार के रूप में गर्भोदक्षायी- विष्णु हैं और प्रत्येक ब्रह्माण्ड के आधार के रूप में क्षीरोदकशायी-विष्णु हैं),
क्षीरोदक्षायी-विष्णु प्रत्येक जीवित प्राणी के हृदय में चतुर्भुज विस्तार के रूप में निवास करते हैं । इन्हें परमात्मा, भी कहा जाता है। उनका निवास स्थान वैकुण्ठ है। उनका निजी निवास क्षीर सागर (गाढ़ा दूध का महासागर) है और उन्हें नारायण के अनिरुद्ध विस्तार के रूप में जाना जाता है ।
महाविष्णु 'महान विष्णु' वैष्णववाद के प्रमुख देवताविष्णुका एक सुझाव है । महाविष्णु के रूप में उनकी क्षमता, देवता को सर्वोच्च पुरुष , ब्रह्मांड के पूर्ण रक्षक और निर्वाहक के रूप में जाना जाता है, जो मानव समझ और सभी गुणों से परे है।
ब्रह्माण्ड (ब्रह्माण्डीय क्षेत्र) में समस्त संसार से ब्रह्मा के गुण सम्मिलित हैं, ऐसे क्षेत्रों में ऐश्वर्य (समृद्धि और शक्ति) प्रदान करने वाले अनुभव प्राप्त किये जा सकते हैं। लेकिन वे विनाशकारी हैं और जो लोग उन्हें प्राप्त करते हैं वे वापस लौट आते हैं।
इसलिए ऐश्वर्य के आकांक्षी के लिए विनाश, यानी वापसी है, क्योंकि जिन क्षेत्रों में इसे प्राप्त किया जाता है वे नष्ट हो जाते हैं। इसके विपरीत, उन लोगों का कोई जन्म नहीं होता है जो मुझे सर्वज्ञ प्राप्त करते हैं, जिनके पास सात संकल्प होते हैं, एक साथ पूरे ब्रह्मांड की रचना होती है, पालन और विलय होता है, जो परम दयालु होते हैं और जो हमेशा एक ही रूप में होते हैं।
इन उद्देश्यों से मुझे प्राप्त करने वालों का कोई विनाश नहीं होता। अब वह ब्रह्मा के ब्रह्माण्डीय क्षेत्र और उनके अन्तर्निहित विश्वों के विकास और विघटन के संबंध में सर्वोच्च व्यक्ति की इच्छा से तय समय-अवधि को स्पष्ट करता है।
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श्रीमद्भागवतमेंये भी कहा गया है कि कृष्णसर्वोच्च व्यक्ति हैं, जो पहले बलराम के रूप में विस्तारित हुए, फिर संकर्षण,वासुदेव,प्रद्युम्नऔरअनिरुद्धके पहले चतुर्भुज विस्तार में।
संकर्षण का विस्तार नारायण होता है, फिर नारायण का विस्तार कर्णोदकशायी-विष्णु (महा-विष्णु) में होता है, जो महत-तत्व के भीतर स्थित होते हैं, छिद्रों से असंख्य ब्रह्मांडों का निर्माण होता है। उसका शरीर पर. फिर वह गर्भोदकशायी-विष्णुके रूप में प्रत्येक ब्रह्माण्ड का विस्तार होता है, जहाँ सेब्रह्माप्रकट होते हैं।
यहां प्रथम विस्तार पुरुष का प्रयोग महाविष्णु के संवाद के लिए किया गया है।
सत्व से विष्णु (गर्भोदक्षायी) और तमस से शंकर का उदय होता है । विचित्र कृष्ण के गुण अवतारों के रूप में जाना जाता है।
वैष्णववाद के एक संप्रदाय,गौड़ीयवैष्णववाद में , सात्वत-तंत्र में महाविष्णु के तीन अलग-अलग सिद्धांत या सिद्धांत का वर्णन किया गया है: कर्णार्णवसाय विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु और क्षीरोदकशायी विष्णु ।
महाविष्णु शब्द का पूर्ण सत्य, ब्रह्म (अवैयक्तिक अदृश्य दृश्य) फिर परमात्मा (मानव आत्मा की समझ से परे) और अंत में सर्वात्मा (पूर्णता का अवतार) के रूप में है।
गर्भोद्क्षायी विष्णु★
गर्भोद्क्षायी विष्णुमहाविष्णुका विस्तार है ।गौड़ीय वैष्णववादसात्वत-तंत्र में विष्णु के तीन अलग-अलग सिद्धांतों का वर्णन किया गया है:महाविष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु औरक्षीरोदकशायी विष्णु(परमात्मा. ब्रह्माण्ड और उसके निवासी के लेखांकन में प्रत्येक रूप की अलग-अलग भूमिका होती है।
भौतिक कृष्ण के लिए, कृष्ण का पूर्ण विस्तार तीन विष्णुओं को दर्शाया गया है। सबसे पहले, महाविष्णु, कुल भौतिक ऊर्जा का निर्माण करते हैं, जिसे महत्-तत्व के रूप में जाना जाता है। दूसरा, गर्भोदकशायी विष्णु, विभिन्न जन्मों के लिए सभी ब्रह्मांडों में प्रवेश किया जाता है और तीसरा, क्षीरोदकशायी विष्णु, सभी ब्रह्मांडों में सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में प्रवेश किया जाता है;
प्रत्येक जीवित प्राणी के हृदय में, परमात्मा के रूप में जाना जाता है। उसके अंदर परमाणु भी मौजूद है।
जीवन का लक्ष्य कृष्ण को पता है, जो हर जीवित प्राणी के हृदय में परमात्मा, चतुर्भुज विष्णु रूप में स्थित हैं।
श्रीमद्भागवतमें , इसे इस प्रकार दर्शाया गया है: करणवशायी विष्णुसर्वोच्च भगवान के पहले अवतार हैं, और वह शाश्वत समय, स्थान, कारण और प्रभाव, मन, कार्य, भौतिक व्यवहार, प्रकृति के गुण, के स्वामी हैं।
इंद्रियाँ, भगवान का सार्वभौमिक रूप, गर्भोदकशायी विष्णु, और सभी जीवित प्राणियों का कुल योग, दोनों जंगम और गैर-जंगम।
गर्भोधकशायी विष्णु महाविष्णुका विस्तार या अधिकार है ( दूसरे चतुर्व्यूह के संकर्षण का विस्तार, जो वैकुण्ठलोक में नारायण से निम्नतर है ). गर्भोद्शायी विष्णु को भौतिक ब्रह्मांड के अंदर प्रद्युम्न के रूप में महसूस किया जाता है। वह ब्रह्मा के पिता हैं जो अपने नाभि से प्रकट हुए थे और इसलिए गर्भोदकशायी विष्णु को हिरण्यगर्भ भी कहा जाता है।
ब्रह्म संहिता |
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥1॥
सहस्रपत्रकमलं गोकुलाख्यं महत्पदम् ।
तत्कर्णिकारं तद्धाम तदनन्ताशसम्भवम् ॥ 2 ॥
कर्णिकारं महद्यन्त्रं षट्कोणं वज्रकीलकम्
षडङ्ग षट्पदीस्थानं प्रकृत्या पुरुषेण च ।
प्रेमानन्दमहानन्दरसेनावस्थितं हि यत्
ज्योतीरूपेण मनुना कामबीजेन सङ्गतम्॥3॥
नारायणः स भगवानापस्तस्मात्सनातनात् ।
आविरासीत्कारणार्णो निधिः सङ्कर्षणात्मकः
योगनिद्रां गतस्तस्मिन् सहस्रांशः स्वयं महान् ॥ 12 ॥
प्रत्यण्डमेवमेकांशादेकांशाद्विशति स्वयम् ।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा महाविष्णुः सनातनः ॥ 14 ॥
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वामाङ्गादसृजद्विष्णुं दक्षिणाङ्गात्प्रजापतिम् ।
ज्योतिर्लिङ्गमयं शम्भुं कूर्चदेशादवासृजत् ॥ 15 ॥
जीवन्ति लोमबिलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ 48 ॥
(सन्दर्भ:- ब्रह्म संहिता)
श्रीगोविन्दस्तोत्रम्
चिन्तामणिप्रकरसह्यसु कल्पवृक्ष- लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्त्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १ ॥
अनुवाद:-
मैं उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द (श्रीकृष्ण) की शरण लेता हूँ, जिनकी लाखों कल्पवृक्षोंसे आवृत एवं चिन्तामणिसमूहसे निर्मित भवनोंमें लाखों लक्ष्मी-सदृश युवतियोंके द्वारा निरन्तर सेवा होती रहती है और जो स्वयं वन-वनमें घूम-घूमकर गौओंकी सेवा करते हैं।
वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम् ।
कंदर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २ ॥
अनुवाद:-
जो वंशीमें स्वर फूँक रहे हैं, कमलकी पंखुड़ियोंके समान बड़े-बड़े जिनके नेत्र हैं, जो मोरपंखका मुकुट धारण किये रहते हैं, मेघके समान श्यामसुन्दर जिनके श्रीअङ्ग हैं, जिनकी विशेष शोभा करोड़ों कामदेवोंके द्वारा भी स्पृहणीय है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।
आलोलचन्द्रकलसद्वनमाल्यवंशी-
रत्नाङ्गदं प्रणयकेलिकलाविलासम् । श्यामं त्रिभङ्गललितं नियतप्रकाशं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ३ ॥
अनुवाद:-
जो हवासे अठखेलियाँ करते हुए मोरपंख, सुन्दर वनमाला, वंशी एवं रत्नमय बाजूबंदसे सुशोभित हैं, जो प्रणयकेलि-कला- विलासमें दक्ष हैं, जिनका त्रिभङ्गललित श्यामसुन्दर विग्रह है और जिनका प्रकाश कभी फीका नहीं होता- सदा स्थिर रहता है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय लेता हूँ।
अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति
पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति । आनन्दचिन्मय सदुज्ज्वलविग्रहस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ४ ॥
अनुवाद:-
जिनका सच्चिदानन्दमय प्रकाशयुक्त श्रीविग्रह है तथा सम्पूर्ण इन्द्रिय-वृत्तियोंसे युक्त जिनके श्रीअङ्ग दीर्घकालतक विभिन्न लोकोंपर दृष्टि रखते हैं, उनकी रक्षा करते हैं तथा उनका ध्यान रखते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप-
माद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च ।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ५ ॥
अनुवाद:-
जो द्वैतसे रहित हैं, अपने स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होते, जो सबके आदि हैं, परंतु जिनका कहीं आदि नहीं है और जो अनन्त रूपोंमें प्रकाशित हैं, जो पुराण (सनातन) पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, जिनका स्वरूप वेदोंमें भी प्राप्त नहीं होता (निषेधमुखसे ही वेद जिनका वर्णन करते हैं,) किंतु अपनी भक्ति प्राप्त हो जानेपर जो दुर्लभ नहीं रह जाते – अपने भक्तोंके लिये जो सुलभ हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
पन्थास्तु सोऽप्यस्ति
कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्यो
वायोरधापि मनसो मुनिपुंगवानाम् ।
यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वे गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। ६ ।।
अनुवाद:-
(भगवत्प्राप्तिके) जिस मार्गको बड़े-बड़े मुनि प्राणायाम तथा चित्तनिरोधके द्वारा अरबों वर्षोंमें प्राप्त करते हैं, वही मार्ग जिनके अचिन्त्य माहात्म्ययुक्त चरणोंके अग्रभागकी सीमामें स्थित रहता है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं
यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः ।
अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ७ ॥
अनुवाद:-
जो यद्यपि सर्वथा एक हैं— उनके सिवा दूसरा कोई नहीं है, फिर भी जो (अपनी महिमासे) करोड़ों ब्रह्माण्डोंको रचनेकी शक्ति रखते हैं—यही नहीं, ब्रह्माण्डोंके समूह जिनके भीतर रहते हैं; साथ ही जो ब्रह्माण्डोंके भीतर रहनेवाले परमाणु-समूहके भी भीतर स्थित रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ ।
यद्भावभावितधियो मनुजास्तथैव सम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः ।
निगमप्रथितैः स्तुवन्ति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ८ ॥
अनुवाद:-
जिनकी भक्तिसे भावित बुद्धिवाले मनुष्य उनके रूप, महिमा, आसन, यान (वाहन) अथवा भूषणोंकी झाँकी प्राप्त करके वेदप्रसिद्ध सूक्तों (मन्त्रों) द्वारा स्तुति करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।
आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि-
सूक्तैर्यमेव गोलोक
ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः ।
एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ९ ॥
अनुवाद:-
जो सर्वात्मा होकर भी आनन्दचिन्मयरसप्रतिभावित अपनी ही स्वरूपभूता उन प्रसिद्ध कलाओं (गोप, गोपी एवं गौओं) के साथ गोलोकमें ही निवास करते हैं, उन आदिपुरुष गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन
यं सन्तः सदैव हृदयेऽपि विलोकयन्ति ।
श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १० ॥
अनुवाद:-
संतजन प्रेमरूपी अञ्जनसे सुशोभित भक्तिरूपी नेत्रोंसे सदा-सर्वदा जिनका अपने हृदयमें ही दर्शन करते रहते हैं, जिनका श्यामसुन्दर विग्रह है तथा जिनके स्वरूप एवं गुणोंका यथार्थरूपसे चिन्तन भी नहीं हो सकता, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्
नानावतारमकरोद्भुवनेषु किंतु ।
कृष्णः स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ११ ॥
अनुवाद:-
जिन्होंने श्रीरामादि-विग्रहोंमें नियत संख्याकी कलारूपसे स्थित रहकर भिन्न-भिन्न भुवनोंमें अवतार ग्रहण किया, परंतु जो परात्पर पुरुष भगवान् श्रीकृष्णके रूपमें स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्णका मैं भजन करता हूँ।
यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-
कोटिष्वशेषवसुधादिविभूतिभिन्नम् ।
तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १२ ॥
अनुवाद:-
जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों में पृथिवी आदि समस्त विभूतियोंके रूपमें भिन्न-भिन्न दिखायी देता है, वह निष्कल (अखण्ड), अनन्त एवं अशेष ब्रह्म जिन सर्वसमर्थ प्रभुकी प्रभा है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।
माया हि यस्य जगदण्डशतानि
सूते त्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना
सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वविशुद्धसत्त्वं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १३ ॥
अनुवाद:-
सत्त्व, रज एवं तमके रूपमें उन्हीं तीनों गुणोंका प्रतिपादन करनेवाले वेदोंके द्वारा विस्तारित जिनकी माया सैकड़ों ब्रह्माण्डोंका सर्जन करती है, उन सत्त्वगुणका आश्रय लेनेवाले, सत्त्वसे परे एवं विशुद्धसत्त्वस्वरूप आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।
आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनस्सु
यः प्राणिनां प्रतिफलन् स्मरतामुपेत्य ।
लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्त्रं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १४ ॥
अनुवाद:-
जो स्मरण करनेवाले प्राणियोंके मनोंमें अपने आनन्द- चिन्मयरसात्मक-स्वरूपसे प्रतिबिम्बित होते हैं तथा अपने लीलाचरित्रके द्वारा निरन्तर समस्त भुवनोंको वशीभूत करते रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
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गोलोकनाम्नि निजधानि तले च तस्य
देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु च ।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १५ ॥
अनुवाद:-
जिन्होंने गोलोक नामक अपने धाम में तथा उसके नीचे स्थित देवीलोक, कैलास तथा वैकुण्ठ नामक विभिन्न धामोंमें विभिन्न ऐश्वर्योकी सृष्टि की, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।
सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका
छायेव यस्य भुवनानि बिभर्ति दुर्गा ।
इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। १६ ।।
अनुवाद:-
सृष्टि, स्थिति एवं प्रलयकारिणी शक्तिरूपा भगवती दुर्गा, जिनकी छायाकी भाँति समस्त लोकोंका धारण-पोषण करती हैं और जिनकी इच्छाके अनुसार चेष्टा करती हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।
क्षीरं यथा दधिविकारविशेषयोगात्
संजायते नहि ततः पृथगस्ति हेतोः ।
यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद्
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १७ ॥
अनुवाद:-
जावन( खमीर,) आदि विशेष प्रकारके विकारोंके संयोगसे दूध जैसे दहीके रूपमें परिवर्तित हो जाता है, किंतु अपने कारण (दूध) से फिर भी विजातीय नहीं बन जाता, उसी प्रकार जो (संहाररूप) प्रयोजनको लेकर भगवान् शंकरके स्वरूपको प्राप्त हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य
दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा ।
यस्तादृगेव च विष्णुतया विभाति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १८ ॥
अनुवाद:-
जैसे एक दीपककी लौ दूसरी बत्तीका संयोग पाकर दूसरा दीपक बन जाती है, जिसमें अपने कारण (पहले दीपक) के गुण प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार जो अपने स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही विष्णुरूपमें दिखायी देने लगते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
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यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-
निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः
आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्ति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। १९ ।।
अनुवाद:-
आधारशक्तिरूपा अपनी (नारायणरूप) श्रेष्ठ मूर्तिको धारण करके जो कारणार्णवके जलमें योगनिद्राके वशीभूत होकर स्थित रहते हैं और उस समय उनके एक-एक रोमकूपमें अनन्त ब्रह्माण्ड समाये रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।
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यस्यैकनिश्श्वसितकालमथावलम्ब्य
जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २० ।।
अनुवाद:-
जिनके रोमकूपोंसे प्रकट हुए विभिन्न ब्रह्माण्डोंके स्वामी (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) जिनके एक श्वास जितने कालतक ही जीवन धारण करते हैं तथा सर्वविदित महान् विष्णु जिनकी एक विशिष्ट कलामात्र हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।
भास्वान् यथाश्मसकलेषु निजेषु तेजः
स्वीयं कियत् प्रकटयत्यपि तद्वदत्र ।
ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २१ ॥
अनुवाद:-
जैसे सूर्य सूर्यकान्त नामक सम्पूर्ण मणियोंमें अपने तेजका किंचित् अंश प्रकट करते हैं, उसी प्रकार एक ब्रह्माण्डका शासन करनेवाले ब्रह्मा भी अपने अंदर जिनके तेजका किंचित् अंश प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भ-
द्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः ।
विघ्नान् निहन्तुमलमस्य जगत्त्रयस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २२ ।।
अनुवाद:-
प्रणाम करते समय जिनके चरणयुगलको अपने मस्तकके दोनों भागोंपर रखकर सर्वसिद्ध भगवान् गणपति इन तीनों लोकोंके विघ्नोंका विनाश करनेमें समर्थ होते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
अग्निर्महीगगनमम्बुमरुद्दिशश्च
कालस्तथाऽऽत्ममनसीति जगत्त्रयाणि ।
यस्माद् भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं च
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २३ ।
अनुवाद:-
अग्नि, पृथिवी, आकाश, जल, वायु एवं चारों दिशाएँ; काल बुद्धि, मन, पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्गरूप तीनों लोक जिनसे उत्पन्न होते हैं, समृद्ध (पुष्ट) होते हैं तथा जिनमें पुनः लीन हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।
यच्चक्षुरेव सविता सकलग्रहाणां
राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्री
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २४ ॥
अनुवाद:-
जिनके नेत्ररूप सूर्य, जो समस्त ग्रहोंके अधिपति, सम्पूर्ण देवताओंके प्रतीक एवं सम्पूर्ण तेजःस्वरूप तथा कालचक्रके प्रवर्तक होते हुए भी जिनकी आज्ञासे लोकोंमें चक्कर लगाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।
धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसि
ब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः ।
यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २५ ।।
अनुवाद:-
धर्म एवं पाप-समूह, वेदकी ऋचाएँ, नाना प्रकारके तप तथा ब्रह्मासे लेकर कीटपतङ्गतक सम्पूर्ण जीव जिनकी दी हुई शक्तिके द्वारा ही अपना-अपना प्रभाव प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।
यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-
बद्धानुरूपफलभाजनमातनोति ।
कर्माणि निर्दहति किंतु च भक्तिभाजां
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २६ ।।
अनुवाद:-
जो एक वीरबहूटीको एवं देवराज इन्द्रको भी अपने-अपने कर्म-बन्धनके अनुरूप फल प्रदान करते हैं, किंतु जो अपने भक्तोंके कर्मोंको निःशेषरूपसे जला डालते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीति-
वात्सल्यमोहगुरुगौरवसेव्यभावैः
संचिन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेते
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २७ ॥
अनुवाद:-
क्रोध, काम, सहज स्नेह आदि, भय, वात्सल्य, मोह (सर्वविस्मृति), गुरु- गौरव (बड़ोंके प्रति होनेवाली गौरव बुद्धिके सदृश महान् सम्मान) तथा सेव्य बुद्धिसे (अपनेको दास मानकर) जिनका चिन्तन करके लोग उन्हींके समान रूपको प्राप्त हो गये, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
।।श्री गोविंदस्तोत्र सम्पूर्ण।।
_________________________________
श्रीमद्भागवतपुराण/
स्कन्धः १०/
पूर्वार्द्ध/अध्यायः (१)
श्रीकृष्णावतारोपक्रमः, ब्रह्मकर्तृकं पृथिव्या आश्वासनं कंसस्य देवकीवधोद्योगाद्
वसुदेववचनेन निवृत्तिः, षण्णां देवकीपुत्राणां कंसकतृको वधश्च -
श्रीराजोवाच ।
( अनुष्टुप् )
कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः ।
राज्ञां च उभयवंश्यानां चरितं परमाद्भुतम् ॥ १ ॥
यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम।
तत्रांशेन अवतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस नः॥२॥
____________________
अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान् भूतभावनः ।
कृतवान् यानि विश्वात्मा तानि नो वद विस्तरात्॥३॥
( उपेंद्रवज्रा )
निवृत्ततर्षैः उपगीयमानाद्
भवौषधात् श्रोत्रमनोऽभिरामात् ।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्
पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥ ४ ॥
( वंशस्थ )
पितामहा मे समरेऽमरञ्जयैः
देवव्रताद्यातिरथैस्तिमिङ्गिलैः ।
दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरं
कृत्वातरन् वत्सपदं स्म यत्प्लवाः ॥५॥
( इन्द्रवज्रा )
द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदङ्गं
सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम् ।
जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रो
मातुश्च मे यः शरणं गतायाः ॥ ६ ॥
वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजां
अन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः ।
प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च
मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् ॥ ७ ॥
____________________
( अनुष्टुप् )
रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो रामः संकर्षणस्त्वया ।
देवक्या गर्भसंबंधः कुतो देहान्तरं विना ॥ ८ ॥
कस्मात् मुकुन्दो भगवान् पितुर्गेहाद् व्रजं गतः ।
क्व वासं ज्ञातिभिःसार्धं कृतवान् सात्वतां पतिः॥९।
व्रजे वसन् किं अकरोत् मधुपुर्यां च केशवः ।
भ्रातरं चावधीत् कंसं मातुः अद्धा अतदर्हणम् ॥ १० ॥
देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभिः ।
यदुपुर्यां सहावात्सीत् पत्न्यः कत्यभवन् प्रभोः ॥ ११ ॥
एतत् अन्यच्च सर्वं मे मुने कृष्णविचेष्टितम् ।
वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ श्रद्दधानाय विस्तृतम्॥१२॥
नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदं अपि बाधते ।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोज अच्युतं हरिकथामृतम् ॥ १३ ॥
सूत उवाच ।
( वसंततिलका )
एवं निशम्य भृगुनन्दन साधुवादं ।
वैयासकिः स भगवान् अथ विष्णुरातम् ।
प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषघ्नं ।
व्याहर्तुमारभत भागवतप्रधानः ॥ १४ ॥
__________________
श्रीशुक उवाच ।
( अनुष्टुप् )
सम्यग्व्यवसिता बुद्धिः तव राजर्षिसत्तम ।
वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी रतिः॥ १५॥
वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषान् त्रीन् पुनाति हि ।
वक्तारं पृच्छकं श्रोतॄन् तत्पादसलिलं यथा ॥१६ ॥
___________________
भूमिः दृप्तनृपव्याज दैत्यानीकशतायुतैः ।
आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥ १७ ॥
_________________
गौर्भूत्वा अश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः
उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं स्वं अवोचत ॥१८॥
ब्रह्मा तद् उपधार्याथ सह देवैस्तया सह ।
जगाम स-त्रिनयनः तीरं क्षीरपयोनिधेः ॥ १९ ॥
तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं वृषाकपिम् ।
पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः ॥ २० ॥
( वंशस्थ )
गिरं समाधौ गगने समीरितां
निशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।
गां पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुनः
विधीयतां आशु तथैव मा चिरम् ॥ २१ ॥
पुरैव पुंसा अवधृतो धराज्वरो
भवद्भिः अंशैः यदुषूपजन्यताम् ।
स यावद् उर्व्या भरं इश्वरेश्वरः
स्वकालशक्त्या क्षपयन् चरेद् भुवि ॥ २२ ॥
________
( अनुष्टुप् )
वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः ।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः ॥२३॥
___________________
वासुदेवकलानन्तः सहस्रवदनः स्वराट् ।
अग्रतो भविता देवो हरेः प्रियचिकीर्षया ॥ २४ ॥
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विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत् ।
आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे संभविष्यति ॥२५॥
श्रीशुक उवाच ।
इत्यादिश्यामरगणान् प्रजापतिपतिः विभुः ।
आश्वास्य च महीं गीर्भिः स्वधाम परमं ययौ ॥२६॥
शूरसेनो यदुपतिः मथुरां आवसन् पुरीम् ।
माथुरान् शूरसेनांश्च विषयान् बुभुजे पुरा ।२७।
राजधानी ततः साभूत् सर्व यादव भूभुजाम् ।
मथुरा भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः ॥ २८ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे प्रथमोध्याऽयः॥१॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
परीक्षित! उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्मा जी की शरण में गयी।
पृथ्वी ने उस समय गौ का रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रों से आँसू बह-बहकर मुँह पर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश हो गया था। वह बड़े करुण स्वर से रँभा रही थी। ब्रह्मा जी के पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी। ब्रह्मा जी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दुःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान शंकर, स्वर्ग के अन्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूप में आयी हुई पृथ्वी को अपने साथ लेकर क्षीर सागर के तट पर गये। भगवान देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। वे अपने भक्तों की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं और उनके समस्त क्लेशों को नष्ट कर देते हैं। वे ही जगत के एक मात्र स्वामी हैं। क्षीर सागर के तट पर पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभु की स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्मा जी समाधिस्थ हो गए। उन्होंने समाधि-अवस्था में आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत के निर्माणकर्ता ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा - ‘देवताओं! मैंने भगवान की वाणी सुनी है। तुम लोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालन में विलम्ब नहीं होना चाहिए। भगवान को पृथ्वी के कष्ट का पहले से ही पता है। वे ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। अतः अपनी कालशक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार हरण करते हुए वे जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी अपने-अपने अंशों के साथ यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में सहयोग दो।
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद
वसुदेव जी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा[1] की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें। स्वयंप्रकाश भगवान शेष भी, जो भगवान की कला होने कारण अनंत हैं [2]और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवान के प्रिय कार्य करने के लिए उनसे पहले ही उनके बड़े भाई के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे। भगवान की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञा से उनकी लीला के कार्य सम्पन्न करने के लिए अंशरूप से अवतार ग्रहण करेंगी।
श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! प्रजापतियों के स्वामी भगवान ब्रह्मा जी ने देवताओं को इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझा कर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वे अपने परम धाम को चले गए।
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श्रीमद्भागवते महापुराण 10/3/ ८-९-१०-.....
निशीथे तम उद्भूते जायमाने जनार्दने ।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कलः।८।
तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं
चतुर्भुजं शंखगदार्युदायुधम् ।
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभि कौस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम् ॥ ९ ॥
महार्हवैदूर्यकिरीट कुण्डल त्विषा परिष्वक्त सहस्रकुन्तलम् ।
उद्दाम काञ्च्यङ्गद कङ्कणादिभिः
विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत ॥ १०॥
स विस्मयोत्फुल्ल विलोचनो हरिं
सुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा।
कृष्णावतारोत्सव संभ्रमोऽस्पृशन् मुदा द्विजेभ्योऽयुतमाप्लुतो गवाम् ॥११॥
अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं
परं नताङ्गः कृतधीः कृताञ्जलिः।
स्वरोचिषा भारत सूतिकागृहं विरोचयन्तं गतभीः प्रभाववित् ॥१२॥
"श्रीवसुदेव उवाच।
विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्द स्वरूपः सर्वबुद्धिदृक् ॥ १३॥
स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम् ।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे ॥१४॥
यथा इमे अविकृता भावाः तथा ते विकृतैः सह ।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि ॥ १५ ॥
सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव ।
प्रागेव विद्यमानत्वात् न तेषां इह संभवः ॥ १६ ॥
एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणैः
ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद्गुणाग्रहः ।
अनावृतत्वाद् बहिरन्तरं न ते
सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः ॥ १७ ॥
य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति
व्यवस्यते स्व-व्यतिरेकतोऽबुधः।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं
सम्यग् यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान् ॥ १८ ॥
त्वत्तोऽस्य जन्मस्थिति संयमान् विभो
वदन्ति अनीहात् अगुणाद् अविक्रियात् ।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते
त्वद् आश्रयत्वाद् उपचर्यते गुणैः ॥ १९॥
स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया
बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं
कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये ॥ २०॥
त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषुः
गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर।
राजन्य संज्ञासुरकोटि यूथपैः
निर्व्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः ॥ २१॥
अनुवाद:-
हे व्यापक! हे अखिलेश्वर! इस लोक के रक्षण की इच्छा से आप इस समय मेरे गृह में (श्रीकृष्णमूर्ति धारणकर) अवतीर्ण हुए हैं, इस कारण (साधुओं की रक्षा करने के लिए) आप राजा नामधारी जो कोटिशः दैत्यसमूह के सेनापति हैं, उनसे इधर-उधर नियत करके भेजी जाने वाली सेनाओं का संहार करेंगे।।21।।
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जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदय में विराजमान भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया हो।
वसुदेव जी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथों में शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए है। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न - अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघ के समान परम सुन्दर श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल की कान्ति से सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्य की किरणों के सामान चमक रहे हैं। कमर में चमचमाती करधनी की लड़ियाँ लटक रहीं हैं। बाँहों में बाजूबंद और कलाईयों में कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणों से सुशोभित बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है।
जब वसुदेव जी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में स्वयं भगवान ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्द से उनकी आँखें खिल उठी। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाने की उतावली में उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिए दस हज़ार गायों का संकल्प कर दिया।
परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अपनी अंगकांति से सूतिका गृह को जगमग कर रहे थे।
जब वसुदेव जी को यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान के चरणों में अपना सर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने की।
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स्कन्दपुराणम्/खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)/वासुदेवमाहात्म्यम्/अध्यायः( १६)
।। स्कन्द उवाच ।।
मेरुशृंगं समारूढो नारदो दिव्यया दृशा ।।
श्वेतद्वीपं च तत्रस्थान्पश्यन्मुक्तान्सहस्रशः ।। १ ।।
वासुदेवे भगवति दृष्टिमाबध्य तत्क्षणम् ।।
उत्पपात महायोगी सद्यः प्राप च धाम तत् ।। २ ।।
प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं नारदो हृष्टमानसः ।।
ददर्श भक्तांस्तानेव श्वेतांश्चन्द्रप्रभाञ्छुभान् ।। ३ ।।
पूजयामास शिरसा मनसा तैश्च पूजितः ।।
दिदृक्षुर्ब्रह्म परमं स च कृच्छ्रपरः स्थितः ।। ४ ।।
भक्तमेकान्तिकं विष्णोर्बुद्ध्वा भागवतास्तु ते ।।
तमूचुस्तुष्टमनसो जपन्तं द्वादशाक्षरम् ।। ५ ।।
श्वेतमुक्ता ऊचुः ।।
मुनिवर्य भवान्भक्तः कृष्णस्याऽस्ति यतोऽत्र नः ।।
दृष्टवान्देवदुर्दृश्यान्किमिच्छन्नथ तप्यति ।। ६ ।।
नारद उवाच ।।
भगवन्तं परं ब्रह्म साक्षात्कृष्णमहं प्रभुम् ।।
द्रष्टुमुत्कोऽस्मि भक्तेन्द्रास्तं दर्शयत तत्प्रियाः ।।७।।
स्कन्द उवाच ।।
तदैकः श्वेतमुक्तस्तु कृष्णेन प्रेरितो हृदि ।।
एहि ते दर्शये कृष्णमित्युक्त्वा पुरतोभवत् ।।८।।
प्रहृष्टो नारदस्तेन साकमाकाशवर्त्मना ।।
पश्यन्धामानि देवानां तत ऊर्द्ध्वं ययौ मुनिः ।।९।
सप्तर्षींश्च ध्रुवं दृष्ट्वाऽनासक्तः कुत्रचित्स च ।।
महर्जनतपोलोकान्व्यतीयाय द्विजोत्तम।।2.9.16.१०।।
ब्रह्मलोकं ततो दृष्ट्वा श्वेतमुक्तानुगो मुनिः ।।
कृष्णस्यैवेच्छयाऽध्वानं प्रापाष्टावरणेष्वपि।।११।।
भूम्यप्तेजोनिलाकाशाहम्महत्प्रकृतीः क्रमात् ।।
क्रान्त्वा दशोत्तरगुणाः प्राप गोलोकमद्भुतम् ।।१२।।
धाम तेजोमयं तद्धि प्राप्यमेकान्तिकैर्हरेः।।
गच्छन्ददर्श विततामगाधां विरजां नदीम्।।१३।।
गोपीगोपगणस्नानधौतचन्दनसौरभाम्।।
पुण्डरीकैः कोकनदै रम्यामिन्दीवरैरपि।।१४।।
तस्यास्तटं मनोहारि स्फटिकाश्ममयं महत्।।
प्राप श्वेतहरिद्रक्तपीतसन्मणिराजितम्।।१५।।
कल्पवृक्षालिभिर्ज्जुष्टं प्रवालाङ्कुरशोभितम्।।
स्यमन्तकेन्द्रनीलादिमणीनां खनिमण्डितम् ।१६ ।
नानामणीन्द्रनिचितसोपानततिशोभनम् ।।
कूजद्भिर्मधुरं जुष्टं हंसकारण्डवादिभिः ।। १७ ।।
वृन्दैः कामदुघानां च गजेन्द्राणां च वाजिनाम् ।।
पिबद्भिर्न्निर्मलं तोयं राजितं स व्यतिक्रमत् ।। १८।
उत्तीर्याऽथ धुनी दिव्यां तत्क्षणादीश्वरेच्छया ।।
तद्धामपरिखाभूतां शतशृङ्गागमाप सः ।। १९ ।।
हिरण्मयं दर्शनीयं कोटियोजनमुच्छ्रितम् ।।
विस्तारे दशकोट्यस्तु योजनानां मनोहरम् ।। 2.9.16.२० ।।
सहस्रशः कल्पवृक्षैः पारिजातादिभिर्द्रुमैः ।।
मल्लिकायूथिकाभिश्च लवङ्गैलालतादिभिः ।२१।
स्वर्णरम्भादिभिश्चान्यैः शोभमानं महीरुहैः ।।
दिव्यैर्मृगगणैर्न्नागैः पक्षिभिश्च सुकूजितैः ।। २२ ।।
दुर्गायितस्य तद्धाम्नस्तस्य रम्येषु सानुषु ।।
मनोज्ञान्विततानैक्षद्भगवद्रासमण्डपान् ।। २३ ।।
वृतानुद्यानततिभिः फुल्लपुष्पसुगन्धिभिः ।।
कपाटै रत्ननिचितैश्चतुर्द्वारसुशोभनान् ।। २४ ।।
चित्रतोरणसंपन्नै रत्नस्तम्भैः सहस्रशः ।।
जुष्टांश्च कदलीस्तम्भैर्मुक्तालम्बैर्वितानकैः ।। २५ ।।
दूर्वालाजाक्षतफलैर्युक्तान्माङ्गलिकैरपि ।।
चन्दनागुरुकस्तूरीकेशरोक्षित चत्वरान् ।। २६ ।।
सुश्राव्यवाद्यनिनदैर्हृद्यान्बहुविधैरपि ।।
तेषु यूथानि गोपीनां कोटिशः स ददर्श ह ।। २७ ।।
अनर्घ्यवासोभूषाभिः सद्रत्नमणिकङ्कणैः ।।
काञ्चीनूपुरकेयूरैः शोभितान्यङ्गुलीयकैः ।। २८ ।।
तारुण्यरूपलावण्यैः स्वरैश्चाऽप्रतिमानि हि ।।
राधालक्ष्मीसवर्णानि शृङ्गारिककराणि च ।। २९ ।।
भोगद्रव्यैर्बहुविधैर्मण्डपेषु युतेषु च ।।
विलसन्ति च गायन्ति मनोज्ञाः कृष्णगीतिकाः ।। 2.9.16.३० ।।
उपत्यकासु तस्याद्रेरथ वृन्दावनाभिधम् ।।
वनं महत्तदद्राक्षीत्सावर्णे नारदो मुनिः ।। ३१ ।।
कृष्णस्य राधिकायाश्च प्रियं तत्क्रीडनस्थलम्।।
कल्पद्रुमालिभी रम्यं सरोभिश्च सपङ्कजैः।।३२ ।।
आम्रैराम्रातकैर्नीपैर्बदरीभिश्च दाडिमैः ।।
खर्जूरीपूगनारंगैर्न्नालिकेरैश्च चन्दनैः ।। ३३ ।।
जम्बूजम्बीरपनसैरक्षोदैः सुरदारुभिः ।।
कदलीभिश्चम्पकैश्च द्राक्षाभिः स्वर्णकेतकैः ।३४ ।
फलपुष्पभरानम्रैर्न्नानावृक्षैर्विराजितम् ।।
मल्लिका माधवीकुन्दैर्ल्लवंगैर्यूथिकादिभिः ।३५।
मन्दशीतसुगन्धेन सेवितं मातरिश्वना ।।
शतशृङ्गस्नुतैरार्द्रं निर्झरैश्च समन्ततः ।। ३६ ।।
सदा वसन्त शोभाढ्यं रत्नदीपालिमण्डितैः ।।
शृङ्गारिकद्रव्ययुतैः कुञ्जैर्जुष्टमनेकशः ।। ३७ ।।
गोपानां गोपिकानां च कृष्णसंकीर्त्तनैर्मुहुः ।।
गोवत्स पक्षिनिनदैर्न्नानाभूषणनिस्वनैः ।।
दधिमन्थनशब्दैश्च सर्वतो नादितं मुने ।। ३८ ।।
फुल्लपुष्पफलानम्रनानाद्रुमसुशोभनैः ।।
द्वात्रिंशतवनैरन्यैर्युक्तं पश्यमनोहरैः ।। ३९ ।।
तद्वीक्ष्य हृष्टः स प्राप गोलोकपुरमुज्वलम् ।।
वर्तुलं रत्नदुर्गं च राजमार्गोपशोभितम् ।। 2.9.16.४० ।।
राजितं कृष्णभक्तानां विमानैः कोटिभिस्तथा ।।
रथै रत्नेन्द्रखचितैः किंकिणीजालशोभितैः ।। ४१
महामणीन्द्रनिकरै रत्नस्तम्भालिमण्डितैः ।।
अद्भुतैः कोटिशः सौधैः पंक्तिसंस्थैर्मनोहरम् ।। ४२।
विलासमण्डपै रम्यै रत्नसारविनिर्मितः ।।
रत्नेन्द्रदीपततिभिः शोभनं रत्नवेदिभिः ।। ४३ ।।
केसरागुरुकस्तूरीकुंकुमद्रवचर्चितम् ।।
दधिदूर्वालाजपूगै रम्भाभिः शोभिताङ्गणम् ।। ४४ ।
वारिपूर्णैर्हेमघटैस्तोरणैः कृतमंगलम् ।।
मणिकुट्टिमराजाध्वचलद्भूरिगजाश्वकम् ।। ४५ ।।
श्रीकृष्णदर्शनायातैर्न्नैकब्रह्माण्डनायकैः ।।
विरिञ्चिशंकराद्यैश्च बलिहस्तैः सुसंकुलम् ।।४६।।
व्रजद्भिः कृष्णवीक्षाथ गोपगोपीकदम्बकैः ।।
सुसंकुलमहामार्गं मुमोदालोक्य तन्मुनिः ।।४७।।
कृष्णमन्दिरमापाऽथ सर्वाश्चर्यं मनोहरम् ।।
नन्दादिवृषभान्वादिगोपसौधालिभिर्वृतम् ।। ४८ ।।
चतुर्द्वारैः षोडशभिर्दुर्गैः सपरिखैर्युतम्।।
कोटिगोपवृतैकैकद्वारपालसुरक्षितैः ।। ४९ ।।
रत्नस्तम्भकपाटेषु द्वार्षु स्वाग्रस्थितेषु सः ।।
उपविष्टान्क्रमेणैव द्वारपालान्ददर्श ह ।।2.9.16.५०।।
वीरभानुं चन्द्रभानुं सूर्यभानुं तृतीयकम् ।।
वसुभानुं देवभानुं शक्रभानुं ततः परम् ।। ५१ ।।
रत्नभानुं सुपार्श्वं च विशालमृषभं ततः ।।
अंशुं बलं च सुबलं देवप्रस्थं वरूथपम् ।। ५२ ।।
श्रीदामानं च नत्वाऽसौ प्रविष्टोंतस्तदाज्ञया ।।
महाचतुष्के वितते तेजोऽपश्यन्महोच्चयम् ।। ५३
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये गोलोकवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ।।१६।।
अध्याय 16 - गोलोक का वर्णन
नोट: गोलोक दिव्य लोकों में सबसे ऊपर है। इसे विष्णु का ऊपरी होंठ माना जाता है , निचला होंठ ब्रह्म-लोक है ( महाभारत , शांति 347.52)। महाभारत, अनुशासन 83.37-44 में गोलोक का वर्णन यहां दिए गए वर्णन से कुछ अलग है। यह गोलोक वृन्दावन क्षेत्र की प्रतिकृति है जहाँ कृष्ण ने अपना बचपन चरवाहा समुदाय में बिताया था। वही व्यक्ति - ग्वालिन राधा , उनकी सखियाँ, कृष्ण की सहेलियाँ, उनका रास नृत्य, गायें आदि, इस पुराण के गोलोक में अति-दिव्य हैं ।
स्कंद ने कहा :
1. मेरु के शिखर पर चढ़ते हुए , नारद ने अपनी दिव्य दृष्टि से श्वेत द्वीप और उसकी हजारों मुक्त आत्माओं को देखा ।
2. भगवान वासुदेव पर अपनी दृष्टि केंद्रित करके , महान योगी उसी क्षण ऊपर उठे और तुरंत उस स्थान पर पहुंचे।
3. महान द्वीप श्वेत में पहुँचकर नारद मन में प्रसन्न हुए। उन्होंने उन परम शुभ भक्तों को देखा जो श्वेत वर्ण वाले तथा चन्द्रमा के समान कांति वाले थे।
4. उस ने सिर झुकाकर उनको दण्डवत् किया, और मन ही मन उन से बहुत प्रसन्न हुआ। परब्रह्म के दर्शन की इच्छा से वह लज्जित (कठिन परिस्थिति में) वहीं खड़ा रहा।
5. यह जानकर कि वह (नारद) विशेष रूप से विष्णु का भक्त था, वे भागवत ('भगवान के अनुयायी') मन में प्रसन्न (अर्थात् संतुष्ट) हुए। बारह अक्षरों वाले ( भगवान के मंत्र ) को बुदबुदाते हुए, उन्होंने उससे कहा:
श्वेत-मुक्तस ('मुक्त श्वेतस') ने कहा :
6. हे प्रमुख ऋषि! आप कृष्ण के भक्त हैं. अत: आप हम लोगों को देख सकते हैं जिन्हें देवताओं द्वारा भी देखना कठिन है । तुम्हें कौन सी इच्छा सताती है?
नारद ने कहा :
7. मैं (ब्रह्मांड के) शासक, स्वयं परम ब्रह्म, भगवान कृष्ण को देखने के लिए बहुत उत्सुक हूं। हे उनके प्रिय महान भक्तों, उन्हें (मुझे) दिखाओ।
स्कंद ने कहा :
8. तब एक श्वेत मुक्त आत्मा ने अपने हृदय में कृष्ण द्वारा निर्देशित होकर कहा, "आओ, मैं तुम्हें कृष्ण दिखाऊंगा"। ṃis कहकर वह आगे बढ़ गया।
9. तब अत्यंत प्रसन्न नारद मुनि देवताओं के निवास स्थान को देखकर आकाश के मार्ग से उनके साथ चले।
10. सप्तऋषियों ( उरसा मेजर ) और ध्रुव तारे को देखकर उसका वहां कहीं भी मोह नहीं रहा। हे उत्कृष्ट ब्राह्मण, उन्होंने महर्लोक , जनलोक , तपोलोक नामक क्षेत्रों को पार किया ।
11. फिर, भगवान ब्रह्मा के क्षेत्र को देखकर , श्वेत- मुक्त का पालन करने वाले ऋषि । कृष्ण की इच्छा के कारण उन्होंने (ब्रह्मांड के) आठों आवरणों में भी अपना रास्ता खोज लिया।
12. तत्वों को क्रमिक रूप से पार करना, अर्थात। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, अहंकार ( अहं ), महत और प्रकृति , जिनमें से प्रत्येक पिछले एक से दस गुना (बड़ा) है, [1] वह अद्भुत गोलोक में पहुंचे।
13. यह एक गौरवशाली निवास स्थान था, जो केवल हद के प्रति समर्पित लोगों के लिए ही सुलभ था। जाते समय उन्होंने अत्यंत विस्तृत और अथाह विराजा नदी देखी । [2]
14. अनेक ग्वालों और ग्वालबालों द्वारा स्नान करने के कारण इसमें चंदन की सुगंध आती है। यह सफेद, टेड और नीले रंग के कमलों के साथ सुंदर दिखाई दे रहा था।
15 वह उसके तट पर पहुंचा, जो विस्तृत, मन को मोहनेवाला और स्फटिक मणियों से भरा हुआ था। इसे सफेद, हरे, लाल और पीले रंग के उत्कृष्ट बहुमूल्य पत्थरों से सुशोभित किया गया था।
16. वह कामना फल देने वाले वृक्षों की कतारों से भरा हुआ था। इसे मूंगा-अंकुरों से सुशोभित किया गया था। यह स्यमंतक , नीलमणि और अन्य जैसे कीमती पत्थरों की खानों से सुशोभित था ।
17. वह विभिन्न प्रकार के उत्कृष्ट रत्नों से जड़ी हुई ( घाट की) सीढ़ियों से अत्यंत सुंदर था । इसमें हंस, करंडव बत्तख (और अन्य जलीय पक्षी) मधुर स्वर में बोल रहे थे।
18-19. उसके भव्य, पारभासी जल को असंख्य इच्छाधारी गायें, उत्कृष्ट हाथी और घोड़े पी रहे थे। उसने इसे पार कर लिया. भगवान की इच्छा से, भगवान के निवास के चारों ओर खाई बनाने वाली स्वर्गीय नदी को एक क्षण में पार करने के बाद, वह शतश्रंग पर्वत ('सौ चोटियों वाले') पर पहुंचे।
20. वह सोने का और सुन्दर था। इसकी ऊंचाई दस लाख योजन थी। इसका विस्तार सौ करोड़ योजन था और मन को मोहने वाला था।
21-22. यह हजारों इच्छा-प्राप्ति वाले वृक्षों और पारिजात और अन्य जैसे वृक्षों और मल्लिका , युथिका (चमेली की विभिन्न किस्मों), लौंग और इलायची जैसी लताओं से सुशोभित था। यह सुनहरे केले जैसे वृक्षों तथा असंख्य स्वर्गीय हिरणों, हाथियों तथा मीठे-मीठे पक्षियों से सुशोभित था।
23. सुंदर चोटियों पर अपने महल जैसे निवास में, उन्होंने मन को आकर्षित करने वाले भगवान के रास - मंडपों (अर्थात नृत्य के लिए हॉल जिन्हें रास कहा जाता है) को फैला हुआ देखा।
24. वे खिले हुए फूलों से सुगन्धित बगीचों की शृंखला से घिरे हुए थे। वे चारों दिशाओं में रत्नजटित पैनल वाले दरवाजों से सुन्दर लग रहे थे।
25. वे अद्भुत मेहराबदार द्वारों, और रत्नजटित हजारों खम्भों से सुसज्जित थे। उन्हें केले के पेड़ों के खंभे और खिड़कियां प्रदान की गईं जिन पर मोतियों की माला लटकी हुई थी।
26. उन्हें शुभ दूर्वा घास, तले हुए अनाज, अखंडित चावल के दाने और फल प्रदान किए गए। उसके चतुर्भुज स्थानों को चंदन, एगैलोकम, कस्तूरी और केसर से छिड़का गया था।
27. वे मन को लुभानेवाले, और भाँति-भाँति के बाजों की मधुर ध्वनि कानों को भानेवाली (अतः सुनने योग्य) थीं। उन्होंने वहाँ करोड़ों की संख्या में ग्वालों की भीड़ देखी।
28-30. वे अमूल्य वस्त्राभूषणों तथा उत्तम रत्नों से जड़ी चूड़ियों, करधनी, पायल, बाजूबंद तथा अंगूठियों से सुशोभित थे। वे यौवन, रूप-सौन्दर्य, सुन्दरता और अतुलनीय मधुर वाणी से सम्पन्न थे। उनका रंग राधा और लक्ष्मी जैसा था और उनके हाथ कामुक थे। आनंद की विभिन्न वस्तुओं से सुसज्जित हॉल में, वे अपना मनोरंजन कर रहे थे और कृष्ण के बारे में मनभावन गीत गा रहे थे।
31. हे सावर्णि , ऋषि नारद ने उस पर्वत की तलहटी में वृन्दावन नामक एक महान वन देखा ।
32. यह कृष्ण और राधा का पसंदीदा खेल का मैदान था। यह मनोकामना पूर्ण करने वाले वृक्षों की कतारों और खिले हुए कमलों वाली झीलों के कारण सुंदर था।
33-37. इसे आम, हॉग-प्लम, कदंब , बेर के पेड़, अनार, खजूर के पेड़, सुपारी के पेड़, नारंगी के पेड़, नारियल के पेड़, चंदन के पेड़, गुलाब-सेब, नींबू के पेड़, ब्रेड-फल जैसे पेड़ों से सुशोभित (प्रकाशित) किया गया था । पेड़, अखरोट के पेड़, केले के पेड़, कैपक के पेड़, अंगूर की बेलें, सुनहरे केतक । ये सभी वृक्ष फलों और फूलों के भार से झुक रहे थे।
इसमें मल्लिका, माधवी , कुंदा, लौंग और चमेली के फूलों की ठंडी और मीठी खुशबू बिखेरते हुए, एक हल्की हवा चल रही थी। चारों ओर शतशृंग से निकलने वाले झरने के पानी से गीलापन था। यह वसंत ऋतु के सौंदर्य से भरपूर था। यह असंख्य धनुषों से सुसज्जित था, रत्नजड़ित दीपकों की पंक्तियों से सुशोभित था और आमोद-प्रमोद के लिए उपयुक्त सामग्री से सुसज्जित था।
38. हे ऋषि, यह ग्वालों और ग्वालों द्वारा कृष्ण की स्तुति (या नाम की पुनरावृत्ति) की ध्वनि, गायों और बछड़ों की हिनहिनाहट, पक्षियों की चहचहाहट और विभिन्न आभूषणों की झनकार ध्वनि और की ध्वनि से गूंज रहा था। दही मथना.
39. इसमें बत्तीस अन्य वन थे, जो विभिन्न प्रकार के वृक्षों से अत्यंत सुंदर थे, पूरी तरह से खिले हुए फूलों और फलों के (वजन से) झुके हुए थे, जो दर्शकों के मन को आकर्षित करते थे।
40-43. यह देख कर उसे बहुत ख़ुशी हुई. वह गोलोक की देदीप्यमान नगरी (राजधानी) में पहुंचे। वह रत्नों से भरा हुआ एक गोलाकार गढ़ था। इसे राजसी मार्गों से सुशोभित किया गया। यह कृष्ण के भक्तों के करोड़ों भवनों, उत्कृष्ट रत्नों से सुसज्जित रथों और अनेक छोटी-छोटी झनकारती घंटियों से सुशोभित भव्य दिखाई देता था। यह करोड़ों अद्भुत भवनों के कारण सुंदर था, जो उत्कृष्ट कीमती पत्थरों के खजाने से भरे हुए थे, कीमती पत्थरों के खंभों से सुशोभित थे - सभी पंक्तियों में व्यवस्थित थे।
यह खेल के खूबसूरत हॉलों के साथ शानदार दिखाई देता था। इसका निर्माण उत्कृष्ट बहुमूल्य पत्थरों से किया गया था [3] और यह रत्न-जटित वेदियों या उत्कृष्ट रत्नों से जड़ित दीपकों की चतुष्कोणीय (रोशनी वाली) पंक्तियों से सुसज्जित था।
44. इसके आंगन को फूलों, एगैलोकम, कस्तूरी और केसर के तंतुओं के साथ तरल (मिश्रित) और दही, दुर्वा घास, तले हुए अनाज और केले के पेड़ों के ढेर (बर्तनों से युक्त) के साथ छिड़का गया था।
45. जल से भरे सोने के घड़े तथा मेहराबों के निर्माण से मंगल होता था। इसमें काफी संख्या में हाथी और घोड़े कीमती पत्थरों से पक्की शाही सड़कों पर चल रहे थे।
46. यह ब्रह्मांड के कई देवताओं से भरा हुआ था जो श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए आए थे और ब्रह्मा और शंकर जैसे महान देवताओं के हाथों में पूजा की सामग्री थी।
47. यह ग्वालों और ग्वाल-बालों की भीड़ से भरा हुआ था जो कृष्ण को देखने के लिए जा रहे थे। ऋषि उस महान मार्ग को (इनसे) इतना भरा हुआ देखकर प्रसन्न हुए।
48. फिर, वह कृष्ण के भवन में पहुंचा, जो सुंदर था और सभी को अद्भुत लग रहा था। यह नंद , वृषभानु और अन्य ग्वालों के मकानों की कतारों से घिरा हुआ था ।
49. इसमें चार द्वार थे और इसमें सोलह गढ़ थे जिनके चारों ओर खाइयाँ थीं। इसके प्रत्येक द्वार पर एक करोड़ ग्वाले द्वारपाल के रूप में उसके चारों ओर पहरा देते थे।
50. अपने साम्हने रत्नजटित खम्भों और तख्तोंवाले द्वारोंपर, उस ने बारी बारी से द्वारपालोंको देखा, जो वहां (कार्य पर) बैठे हुए थे।
51-53. (वे थे) वीरभानु, चंद्रभानु , सूर्यभानु तीसरा (द्वारपाल), वसुभानु, देवभानु और उसके बाद शक्रभानु; रत्नभानु, सुपार्श्व , विशाल , और फिर वृषभ , अंशु , बाला , सुबाला , देवप्रस्थ , वरूथपा और श्रीदामन । उन्होंने उन्हें (श्रीदामन को) प्रणाम किया और उनकी अनुमति से प्रवेश किया। (अपने सामने) विशाल चौड़े चतुर्भुज में उसने वैभव का एक विशाल समूह देखा।
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