★-"इतिहास के बिखरे हुए पन्ने"-★

रविवार, 29 अक्टूबर 2023

एकानंशां च कन्यां


*प्रद्युम्नाख्यान-वर्णन, श्रीकृष्ण का सोलह हजार आठ रानियों के साथ विवाह और उनसे संतानोत्पत्ति का कथन, दुर्वासा का द्वारका में आगमन और वसुदेव कन्या एकानंशा के साथ विवाह, श्रीकृष्ण के अद्भुत चरित्र को देखकर दुर्वासा का भयभीत होना, श्रीकृष्ण का उन्हें समझना और दुर्वासा का पत्नी को छोड़कर तप के लिए जाना



एकदा द्वारकां रम्यां दुर्वासा मुनिपुंगवः ।
शिष्यैस्त्रिकोटिभिः सार्धमाजगामावलीलया ।४०।

राजा महोग्रसेनश्च सपुत्रः सपुरोहितः ।
वसुदेवो वासुदेवोऽप्यक्रूरश्चोद्धवस्तथा ।। ४१ ।।

नीत्वा षोडशोपचारं प्रणेमुर्मुनिपुंगवम् ।
शुभार्शिषं च प्रददौ तेभ्यो ब्रह्मन्पृथक्पृथक् ।४२ ।।

एकानंशां च कन्यां तां ददौ तस्मै शुभक्षणे।
मुक्तामाणिक्यङीरांश्च रत्नं च यौतकं ददौ।४३
।

स रेमे रामया सार्ध माहेन्द्रे रत्नमन्दिरे ।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणं ददौ तस्मै शुभाश्रमम् ।४४ ।।

एकदा स मुनिश्रेष्ठः समालोच्य स्वचेतसा ।
शयानं कृत्रचिद्रम्यपर्यङ्के रत्ननिर्मिते ।। ४५ ।।

श्रुतवन्तं पुराणं च श्रद्धया कुत्रचिद्धिभुम् ।
महोत्सवे नियुक्तं च कुत्रचित्प्राङ्गणे शुभे ।। ४६ ।।

तामबूलं भुक्तवन्तं च भक्त्या दत्तं च सत्यया ।
कुत्रचित्सेवितं तल्पे रुक्मिण्या श्चेतचामरैः ।४७ ।।

कालिन्दीसेपितपदं शयानं कुत्रचिन्मुदा ।
सर्वत्र समसंभाषां चकार भगवान्मुनिम् ।। ४८ ।।

विस्मयं प्रययौ विप्रौ दृष्ट्वा तत्परमाद्भुतम् ।
तुष्टाव जगतीनाथं रुक्मिणीमन्दिरे पुनः
वसन्तं च सुधर्मायां सतां संसदि सुन्दरम् ।। ४९ ।।

                 "दुर्वासा उवाच
जय जय जगतां नाथ जितसर्व जनार्दन सर्वात्मक
सर्वेश सर्वबीज पुरातन निर्गुण निरीह ।। ५० ।।

निर्लिप्त निरञ्जन निराकार भक्तानुग्रहविग्रह सत्यम्वरूपसनातन निःस्वरूप नित्यनूतन ।५१ ।।

ब्रह्मेशशेषधनेशवन्दित पद्मया सेवितपादपद्म ब्रह्मज्योतिरनिर्वचनीय वेदाविदितगुणरूप महाकाशसंमाननीय परमात्मन्नमोऽस्तु ते ।५२ ।।

इत्येवमुक्त्वा मनसा हरेरनुमतेन च ।
प्रणम्य तस्थौ विप्रेन्द्रस्तत्रैव पुरतो हरेः ।। ५३ ।।

तमुवाच जगन्नाथो हितं सत्यं पुरातनम् ।
ज्ञानं च वेदविहितं सर्वेषां च सतां मतम् ।। ५४ ।।

                     "श्रीभगवानुवाच
मा भेर्विप्र शिवांशस्त्वं किं न जानासि ज्ञानतः ।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।। ५५ ।।

अहमात्मा च सर्वेषां शावाः सर्वे मया विना ।
प्राणिदेहान्मयि गते यान्त्येव सर्वशक्तयः ।। ५६ ।।

जातावप्येक एवाहं व्यक्तावेव पृथक्पृथक् ।
यो भुङ्क्ते तस्य तृप्तिः स्यान्नान्येषां च कदाचन ।। ५७ ।।

पृथग्जीवादिसर्वेषां प्रतिमानं च प्राणिनाम् ।
परिपूर्णतमोऽहं च गोलोके रासमण्डले ।५८ ।।

श्रीदामशापाद्राधा सा मां द्रष्टुमक्षमाऽधुना ।
सर्वे चैवांशरूपेणा कलया च तदंशतः । ५९ ।।

रुक्मिणीमन्दिरे चांशोऽप्यन्यासां मन्दिरे कलाः ।
ममापि कुत्रचिच्चांशं कुत्र चिच्च कलाकलाः।६०।

कलाकलांशाः कुत्रापि प्रतिमासु च देहिषु ।
इत्युक्त्वा जगतां नाथो गृहस्याभ्यन्तरं ययौ
दुर्वासाश्च प्रियां त्यक्त्वा श्रीहरेस्तपसे गतः।६१ ।।

इति श्रीब्रह्मo महाo श्रीकृष्णजन्मखo उत्तo नारदनाo मुनिकृष्णसंo
द्वादशाधिकाशततमोऽध्यायः ।। ११२ ।।

नारद ! एक समय की बात है। मुनिवर दुर्वासा अनायास घूमते-घूमते रमणीय द्वारकापुरी में आये। उस समय उनके साथ तीन करोड़ शिष्य भी थे। उन्हें आया देखकर पुत्र  और पुरोहित के साथ महाराज उग्रसेन, वसुदेव, श्रीकृष्ण, अक्रूर तथा उद्धव षोडशोपचार द्वारा मुनिवर की पूजा करके उन्हें प्रणाम किया। ब्रह्मन!

तब मुनिवर ने उन्हें पृथक-पृथक शुभाशीर्वाद दिये। तदनन्तर वसुदेव जी ने अपनी कन्या एकानंशा को शुभ मुहूर्त में महर्षि दुर्वासा को दान कर दिया और बहुत से मोती, माणिक्य, हीरे तथा रत्न दहेज में दिये।

उन्होंने दुर्वासा को बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित एक सुंदर आश्रम भी दिया। 
एक बार मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने अपने मन में विचारकर देखा कि कहीं तो श्रीकृष्ण रत्ननिर्मित मनोहर पलंग पर शयन कर रहे हैं, कहीं वे सर्वव्यापी प्रभु श्रद्धापूर्वक पुराण की कथा सुन रहे हं, कहीं सुन्दर आँगन में महोत्सव मनाने में संलग्न हैं, कहीं सत्या द्वारा भक्तिपूर्वक दिया गया ताम्बूल चबा रहे हैं, कहीं शय्या पर पौढ़े हैं और रुक्मिणी श्वेत चँवरों द्वारा उनकी सेवा कर रही हैं, कहीं आनन्दपूर्वक शयन कर रहे हैं और कालिन्दी उनके चरण दबा रही हैं; फिर सुधर्मा सभा में सुंदर रूप धारण करके सत्यसमाज के मध्य विराज रहे हैं। 
ऐश्वर्यशाली मुनि ने सर्वत्र उनके साथ समान रूप से सम्भाषण किया।
 इस परम अद्भुत दृश्य को देखकर विप्रवर दुर्वासा को महान विस्मय हुआ।
 तब वे पुनः रुक्मिणी के महल में उन जगदीश्वर की स्तुति करने लगे



"सा कन्या ववृधे तत्र वृष्णिसंघसुपूजिता ।
पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा ।४६ ।

विद्धि चैनामथोत्पन्नामंशाद् देवीं प्रजापतेः ।
एकानंशां योगकन्यां रक्षार्थं केशवस्य तु ।४७ ।

तां वै सर्वे सुमनसः पूजयन्ति स्म यादवाः।
देववद् दिव्यवपुषा कृष्णः संरक्षितो यया।४८।

तस्यां गतायां कंसस्तु तां मेने मृत्युमात्मनः ।
विविक्ते देवकीं चैव व्रीडितः समभाषत ।। ४९ ।।
                 " कंस उवाच!
मृत्योः स्वसः कृतो यत्नस्तव गर्भा मया हताः ।
अन्य एवान्यतो देवि मम मृत्युरुपस्थितः ।2.4.५०।

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य होते ही सम्पूर्ण जगत में हर्षोल्लास छा गया। देवताओं के साथ इन्द्र ने उन भगवान मधुसूदन की स्तु‍ति की। वसुदेव ने भी रात्रि में प्रकट हुए अपने पुत्ररूप भगवान अधोक्षज का स्वातन किया। उन्हें श्रीवत्स के चिह्न और दिव्य लक्षणों से सम्पन्न देखकर वसुदेव ने कहा- 'प्रभो! आप अपने स्वरूप को समेट लीजिये। देव! मैं कंस के भय से डरा हुआ हूँ, इसीलिये ऐसी बात कहता हूँ। कमलनयन! उसने मेरे बहुत-से पुत्र मार डाले हैं, जो तुमसे जेठे थे।' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय वसुदेव का यह वचन सुनकर भगवान अच्युत ने पिता होने के कारण उनकी आज्ञा स्वीेकार कर ली और उनसे कहा, 'आप मुझे नन्दगोप के घर पहुँचा दीजिये (तथा उनकी नवजात कन्या को यहाँ उठा लाइये)'। ऐसा कहकर उन्होंने अपने चतुर्भुज रूप का उपसंहार कर लिया। 

तब पुत्रवत्सल वसुदेव शीघ्र ही उस बालक को गोद में लेकर रात के समय यशोदा के घर में घुस गये। यशोदा को उनके आने का कुछ पता न चला। वहाँ उन्होंने अपने बालक को रख दिया और उस कन्या को लेकर अपने निवास स्थान में आने के बाद उसे देवकी की शय्या पर सुला दिया। इस प्रकार उन दोनों नवजात बालकों की अदला-बदली करके कृतार्थ हुए वसुदेव जी भय से व्याकुल हो उस घर से बाहर निकल गये। आनकदुन्दुभि नाम से प्रसिद्ध वसुदेव ने उग्रसेनपुत्र कंस के पास जाकर उसे अपनी सुन्दर कन्या के जन्म का समाचार निवेदन किया।

यह सुनकर पराक्रमी कंस बड़ी उतावली के साथ पैर बढ़ाता हुआ वेगशाली रक्षकों के साथ लिये वसुदेव के गृह के द्वार पर आया।

वहाँ द्वार पर पहुँचते ही उसने तुरंत पूछा- ‘कौन-सा बच्चा पैदा हुआ है? उसे शीघ्र मेरे हवाले कर दो’ ऐसी बातें कहकर वह वह वहाँ जोर-जोर से गर्जन-तर्जन करने लगा। तब देवकी के घर में एकत्रित हुई सारी स्त्रियां हाहाकार करने लगीं। देवकी ने अत्यन्त दीन होकर अश्रु गद्गद वाणी में कहा- 'प्रभो! यह तो कन्या पैदा हुई है', ऐसा कहकर वह कंस से उसके लिये याचना करती हुई बोली- 'भैया! तुमने मेरे सात तेजस्वी पुत्र जो अभी गर्भावस्था में ही थे, मार डाले हैं। यह तो कन्या है यह बेचारी आप ही मरी हुई है, देखो! यदि समझ में आये तो मेरी बात मान लो (यह कन्या मुझे दे दो)।' कंस उस कन्या को देखकर उसकी ओर आकृष्ट हुआ और मन-ही-मन प्रसन्नता का अनुभव करने लगा। 
उसने कहा- 'जब कन्या मरी हुई है, तब इसे पैदा हुई कहकर इसकी ओर मन चलाना व्यर्थ है'। वह कन्या अभी गर्भ शय्या पर क्लेशपूर्वक लेटी हुई थी। अभी उसके केश गर्भस्थ जल से भीगे हुए थे। उसी अवस्था में वह कंस के आगे रख दी गयी। उस समय वह पृथ्वी के समान ही जान पड़ती थी। उस दुरात्मा पुरुष कंस ने उसे पकड़कर घुमाया और तुच्छ मानकर ऊपर से ही सहसा शिला पर दे मारा।

 वह शिला पृष्ठ पर फेंकी गयी, उस गर्भ देह को त्यागकर कंस को ललकारती हुई वह सहसा आकाश में जा पहुँची। उस समय उसके लम्बे-लम्बे केश खुले हुए थे। दिव्य फूलों के हार और अनुलेपन उसकी शोभा बढ़ाते थे। हारों से उसके समस्त अंगों की शोभा बढ़ गयी थी। मस्तक पर उज्ज्‍वल मुकुट से विभूषित हो वह देवी सदा के लिये कन्या (कुमारी) ही रह गयी। उसकी आकृति दिव्य थी और सब देवता उसकी स्तुति करते थे।

______________

वहाँ वृष्णिवंशियों के समुदाय से भलीभाँति पूजित हो वह कन्या बढ़ने लगी। वसुदेव की आज्ञा से उस समय उसका पुत्रवत पालन होने लगा।[1]

जनमेजय! तुम इस देवी को प्रजापालक भगवान विष्णु के अंश से उत्‍पन्‍न हुई समझो। वह एक होती हुई अनंशा अंशरहित अर्थात अविभक्त थी, इसलिये एकानंशा कहलाती थी।

 योगबल से कन्या रूप में प्रकट हुई वह देवी भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा के लिये आविर्भूत हुई थी। यदुकुल में उत्पन्न हुए समस्त देवता उस देवी का आराध्य देव के समान पूजन करते थे; क्योंकि उसने अपने दिव्य देह से श्रीकृष्ण की रक्षा की थी। उसके चले जाने पर कंस ने उसे ही अपनी मृत्यु समझा और एकान्त में देवकी के पास जाकर लज्जित हो वह इस प्रकार बोला। 

कंस ने कहा- 'बहिन! मैंने मृत्यु को टालने का प्रयत्न किया और इसी धोखे में तुम्हारे बच्चों को मार डाला, परन्तु देवि! कोई दूसरा ही दूसरी जगह से मेरी मृत्यु बनकर उपस्थित हो गया है। मैंने क्रूरतापूर्वक अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये प्रयास किया; किन्‍तु जो मेरे अपने जन थे, उन पर ही मैं प्रहार कर बैठा। 

मैं दैव के विधान को अपने पुरुषार्थ से लांघ न सका। बहिन! अपने गर्भों के लिये चिन्तन न करो। पुत्रों की मृत्यु के कारण होने वाले शोक-संताप को त्याग दो। काल ही उनके विपरीत हो गया था। 

मैं तो उनके वध में केवल निमित्त मात्र बन गया हूँ। काल ही मनुष्यों का शत्रु है, काल ही एक अवस्था से दूसरी अवस्था में ला देता है और काल ही सबको संसार से उठा ले जाता है। मेरे-जैसा व्यक्ति तो इसमें निमित्तमात्र ही होता है। देवि! अपने भाग्य या कर्म के अनुसार उपद्रव तो आयेंगे ही, किंतु कष्ट की बात तो यह है कि जीव इसमें अपने को ही कर्ता मानने लगता है'।


टिप्पणी:-जैसे वात्सल्यभाव रखने वाले उपासक भगवान के बाल-विग्रह की उपासना या पूजा करते समय प्यार करते, लाड़ लड़ाते और उनके पालन-पोषण एवं संवर्धन का ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार वसुदेव की आज्ञा से उस चिदानन्दमयी देवी का कन्या रूप से यादवों के यहाँ पूजन होने लगा। 

यह टिप्पणी गीताप्रेस की है। परन्तु जब कंस ने नन्द पुत्री को मार दिया अथवा वह आकाश में उड़ गयी तो वसुदेव की पुत्री कब हुईं जिसका विवाह दुर्वासा के साथ किया गया।

यद्यपि वह आकाश में चली गयी तो भी उनके आवाहन करने पर उनके यहाँ पधारकर उनके वात्सल्य और लाड़-प्यार को वह ग्रहण करती रही। ऐसा समझना चाहिये। पर ये समझना क्यों चाहिए?

क्या उपर्युक्त प्रकरण प्रक्षेप नहीं !



स्कन्दपुराणम्/खण्डः ५ (अवन्तीखण्डः)/अवन्तीक्षेत्रमाहात्म्यम्
अध्यायः १८
वेदव्यासः
अध्यायः १९ →

।। सनत्कुमार उवाच ।। ।।
एकानंशां नमस्कृत्य देवीं त्रैलोक्यविश्रुताम् ।।
पूजां कृत्वा विधानेन सर्वसिद्धिफलं लभेत् ।। १ ।।
अणिमादिगुणान्सर्वान्गुटिकासिद्धिमंजनम् ।।
खड्गं च पादुके चैव विलवासं रसायनम् ।।
सर्वं तुष्टा प्रयच्छेत नात्र कार्या विचारणा ।। २ ।।
सुरामांसोपहारैश्च भक्ष्यभोज्यैश्च पूजिता ।।
सर्वान्कामान्नृणां देवी तुष्टा दद्याच्च सर्वदा ।। ३ ।।
महानवम्यां यो देवीं महिषेण प्रपूजयेत् ।।
मेषेण वा यथालाभं सर्वान्कामानवाप्नुया त् ।। ४ ।।
।। व्यास उवाच ।। ।।
कथं देवी समुत्पन्ना एकानंशेति विश्रुता ।।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि सर्वपापप्रणाशिनी ।। ५ ।। ।।
।। सनत्कुमार उवाच ।। ।।
पुरा कृतयुगस्यादौ ब्रह्मा लोकपितामहः ।।
निशां सस्मार भगवान्स्वां तनूं पूर्वसंभवाम् ।। ६ ।।
ततो भगवती रात्रिरुपतस्थे पितामहम् ।।
तां विविक्ते समालोक्य ब्रह्मोवाच विभावरीम् ।। ७ ।।
।। ब्रह्मोवाच ।। ।।
विभावरी महामाये विबुधानामुपस्थितम् ।।
यत्कर्तव्यं त्वया देवि शृणु चार्थस्य निश्चयम्।। ८ ।।
तारकोनाम दैत्येंद्रः सुरशत्रुरनिर्जितः ।।
तस्य भयेन वै देवास्त्रस्ताः सर्वे दिवौकसः ।। ९।।
तस्माद्भद्रे महेशो वै जनयिष्यति चेद्वरम् ।।
सुतं स भविता तस्य तारकस्यांतकः किल ।। 5.1.18.१० ।।
शंकरम्याभवत्पत्नी सती दक्षसुता तु या ।।
सा पितुः कुपिता भद्रे कस्मिंश्चित्कारणांतरे ।। ११ ।।
भवित्री हिमशैलस्य दुहिता लोकपावनी ।।
विरहेण हरस्तस्या मत्वा शून्यंजगत्त्रयम् ।। १२ ।।
अतपद्धिमशैलस्य कंदरे सिद्धसेविते ।।
प्रतीक्षमाणस्तज्जन्म किंचित्कालं वसिष्यति ।। १३ ।।
तस्मात्सुतप्ततपसोर्भविता यो महाप्रभुः ।।
स भविष्यति दैत्यस्य तारकस्य निवारकः ।। १४ ।।
जातमात्रा तु सा देवी स्वल्पसंज्ञैव भामिनी ।।
विरहोत्कंठिता गाढं हरसंगमलालसा ।। १५ ।।
तयोः सुतप्ततपसोः संयोगः स्यात्सुयुक्तयोः ।।
पार्वतीहरयोस्तस्मात्सुरतं शक्तिकारणम् ।। १६ ।।
भवेत्तत्र सुराणां च कार्यार्थे विप्रमाचर ।।
विघ्नं त्वया विधातव्यं यथा ताभ्यां तथा शृणु ।। १७ ।।
गर्भस्थानेऽथ तां मातः स्वेन रूपेण रंजय ।।
ततो रहसि शर्वस्तां बिभ्रदानंदपूर्वकम् ।।१८।।
हासयिष्यति कालीति ततः सा कुपिता सती ।।
प्रयास्यति तपः कर्तुं ततः सा तपसा युता ।। १९ ।।
जनयिष्यति यं शर्वादिंदुवज्ज्योतिमंड लम् ।।
स भविष्यति हंता वै सुरारीणां न संशयः ।। 5.1.18.२० ।।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः ५ (अवन्तीखण्डः)/अवन्तीक्षेत्रमाहात्म्यम्/अध्यायः १८




लक्ष्मी नारायण संहिता-  श्लोक( 1.476.124)

 अध्याय 476

"अथ कालान्तरे तप्त्वा तपश्च क्रोधनो मुनिः।
एकांशां प्राप पत्नीं वासुदेवसुतां पुनःप्राप्ति ॥ 124 ॥




प्रस्तुतकर्ता ★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-★ पर 6:30 am
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