देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत पुराण
स्कन्ध 9, अध्याय 2 -
परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
नारदजी बोले - हे प्रभो ! देवियोंका सम्पूर्ण चरित्र मैंने संक्षेपमें सुन लिया, अब सम्यक् प्रकारसे बोध प्राप्त करनेके लिये विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥
सृष्टिप्रक्रियामें सृष्टिकी आद्यादेवीका प्राकट्य कैसे हुआ? हे वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ ! वे प्रकृति पुनः पाँच रूपोंमें कैसे आविर्भूत हुईं; यह बतायें। इस संसारमें उन त्रिगुणात्मिका प्रकृतिके कलांशोंसे जो देवियाँ उत्पन्न हुईं, उनका चरित्र मैं अब विस्तारसे सुनना चाहता हूँ॥
हे विज्ञ! उनके जन्मकी कथा, उनके पूजा ध्यानकी विधि, स्तोत्र, कवच, ऐश्वर्य और मंगलमय शौर्यका वर्णन कीजिये ॥ 4 ॥
श्रीनारायण बोले- जैसे आत्मा नित्य है, आकाश नित्य है, काल नित्य है, दिशाएँ नित्य हैं, ब्रह्माण्डगोलक नित्य है, गोलोक नित्य है तथा उससे थोड़ा नीचे स्थित वैकुण्ठ नित्य है; उसी प्रकार ब्रह्मकी सनातनी लीलाशक्ति प्रकृति भी नित्य है ॥ 5-6 ॥जैसे अग्निमें दाहिका शक्ति, चन्द्रमा तथा कमलमें शोभा, सूर्यमें दीप्ति सदा विद्यमान रहती और उससे अलग नहीं होती है; उसी प्रकार परमात्मामें प्रकृति विद्यमान रहता है।
जैसे बिना स्वर्णके स्वर्णकार कुण्डलादि आभूषणोंका निर्माण करनेमें असमर्थ होता है और बिना मिट्टीके कुम्हार घड़ेका निर्माण करनेमें सक्षम नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृतिके सहयोगके बिना परमात्मा सृष्टिकी रचनामें समर्थ नहीं होता। वे प्रकृति ही सभी शक्तियोंकी अधिष्ठात्री हैं तथा उनसे ही परमात्मा सदा शक्तिमान् रहता है ।। 8-9 ॥
'श' ऐश्वर्यका तथा 'क्ति' पराक्रमका वाचक है। जो इनके स्वरूपवाली है तथा इन दोनोंको प्रदान करनेवाली है; उस देवीको शक्ति कहा गया है ॥ 10 ॥
ज्ञान, समृद्धि, सम्पत्ति, यश और बलको 'भग' कहते हैं। उन गुणोंसे सदा सम्पन्न रहनेके कारण ही शक्तिको भगवती कहते हैं तथा वे सदा भगरूपा हैं। उनसे सम्बद्ध होनेके कारण ही परमात्मा भी भगवान् कहे जाते हैं। वे परमेश्वर अपनी इच्छाशक्तिसे सम्पन्न होनेके कारण साकार और निराकार दोनों रूपोंसे अवस्थित रहते हैं ।। 11-12 ॥
उस तेजस्वरूप निराकारका योगीजन सदा ध्यान करते हैं तथा उसे परमानन्द, परब्रह्म तथा ईश्वर कहते हैं ॥ 13 ॥ अदृश्य, सबको देखनेवाले, सर्वज्ञ, सबके कारणस्वरूप, सब कुछ देनेवाले, सर्वरूप उस परब्रह्मको वैष्णवजन नहीं स्वीकार करते ॥ 14 ॥ वे कहते हैं कि तेजस्वी सत्ताके बिना किसका तेज प्रकाशित हो सकता है ? अतः तेजोमण्डलके मध्य अवश्य ही तेजस्वी परब्रह्म विराजते हैं ॥ 15 ॥
वे स्वेच्छामय, सर्वरूप और सभी कारणोंक भी कारण | हैं। वे अत्यन्त सुन्दर तथा मनोहर रूप धारण करनेवाले हैं, वे किशोर अवस्थावाले, शान्तस्वभाव, सभी मनोहर अंगोंवाले तथा परात्पर हैं। वे नवीन मेघकी कान्तिके एकमात्र धामस्वरूप श्याम विग्रहवाले हैं, उनके नेत्र शरद् ऋतुके मध्याह्नमें खिले कमलकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले हैं और उनकी मनोरम दन्तपंक्ति मुक्ताकी शोभाको भी तुच्छ कर देनेवाली है ॥ 16-18 ॥उन्होंने मयूरपिच्छका मुकुट धारण किया है, उनके गलेमें मालतीकी माला सुशोभित हो रही है। उनकी सुन्दर नासिका है, उनका मुखमण्डल मुसकानयुक्त तथा सुन्दर है और वे भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं। वे प्रज्वलित अग्निके सदृश विशुद्ध तथा देदीप्यमान पीताम्बरसे सुशोभित हो रहे हैं। उनकी दो भुजाएँ हैं, उन्होंने मुरलीको हाथमें धारण किया है, वे रत्नोंके आभूषणोंसे अलंकृत हैं। वे सर्वाधार, सर्वेश, सर्वशक्तिसे युक्त, विभु, सभी प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, सब प्रकारसे स्वतन्त्र तथा सर्वमंगलरूप हैं । 19 - 21 ॥ वे परिपूर्णतम सिद्धावस्थाको प्राप्त, सिद्धोंके स्वामी तथा सिद्धियाँ प्रदान करनेवाले हैं। वे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भयको दूर करते हैं, ऐसे उन सनातन परमेश्वरका वैष्णवजन सदा ध्यान करते रहते हैं ।। 223 ll
ब्रह्माजीकी आयु जिनके एक निमेषको तुलनामें है, उन परमात्मा परब्रह्मको 'कृष्ण' नामसे पुकारा जाता है। 'कृष्' उनकी भक्ति तथा 'न' उनके दास्यके वाचक शब्द हैं। इस प्रकार जो भक्ति और दास्य प्रदान करते हैं, उन्हें कृष्ण कहा गया है अथवा 'कृष्' सर्वार्थका तथा 'न' कार बीजका वाचक है, अतः श्रीकृष्ण ही आदिमें सर्वप्रपंचके स्रष्टा तथा सृष्टिके एकमात्र बीजस्वरूप हैं। उनमें जब सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई, तब उनके अंशभूत कालके द्वारा प्रेरित होकर स्वेच्छामय वे प्रभु अपनी इच्छासे दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम भागांश स्त्रीरूप तथा दक्षिणांश पुरुषरूष कहा गया है ।। 23-27 ॥
उन [वामभागोत्पन्न ] कामकी आधारस्वरूपाको उन सनातन महाकामेश्वरने देखा। उनका रूप अतीव मनोहर था। वे सुन्दर कमलकी शोभा धारण किये हुए थीं। उन परादेवीका नितम्बयुगल चन्द्रबिम्बको तिरस्कृत कर रहा था और अपने जघनप्रदेशसे सुन्दर कदलीस्तम्भको निन्दित करते हुए वे मनोहर प्रतीत हो | रही थीं। शोभामय श्रीफलके आकारवाले स्तनयुगलसे वे मनोरम प्रतीत हो रही थीं। वे मस्तकपर पुष्पोंकी सुन्दर माला धारण किये थीं, वे सुन्दर वलियोंसे युक्त थीं, उनका कटिप्रदेश क्षीण था, वे अति मनोहर थीं,वे अत्यन्त सुन्दर, शान्त मुसकान और कटाक्षसे सुशोभित थीं। उन्होंने अग्निके समान पवित्र वस्त्र धारण कर रखा था और वे रत्नोंके आभूषणोंसे सुशोभित थीं ॥ 28-31 ॥
वे अपने चक्षुरूपी चकोरोंसे करोड़ों चन्द्रमाओंको तिरस्कृत करनेवाले श्रीकृष्णके मुखमण्डलका प्रसन्नतापूर्वक निरन्तर पान कर रही थीं। वे देवी ललाटके ऊपरी भागमें कस्तूरीकी बिन्दीके साथ-साथ नीचे चन्दनकी बिन्दी तथा ललाटके मध्यमें सिन्दूरकी बिन्दी धारण किये थीं। अपने प्रियतममें अनुरक्त चित्तवाली वे देवी मालतीकी मालासे भूषित घुँघराले केशसे शोभा पा रही थीं तथा श्रेष्ठ रत्नोंकी माला धारण किये हुए थीं। कोटि चन्द्रकी प्रभाको लज्जित करनेवाली शोभा धारण किये वे अपनी चालसे राजहंस और गजके गर्वको तिरस्कृत कर रही थीं ॥ 32-35 ॥
उन्हें देखकर रासेश्वर तथा परम रसिक श्रीकृष्णने उनके साथ रासमण्डलमें उल्लासपूर्वक रासलीला की। ब्रह्माके दिव्य दिवसकी अवधितक नाना प्रकारकी श्रृंगारचेष्टाओंसे युक्त उन्होंने मूर्तिमान् श्रृंगाररसके समान सुखपूर्वक क्रीड़ा की। तत्पश्चात् थके हुए उन जगत्पिताने नित्यानन्दमय शुभ मुहूर्तमें देवीके क्षेत्रमें तेजका आधान किया। हे सुव्रत क्रीडाके अन्तमें हरिके तेजसे परिश्रान्त उन देवीके शरीरसे स्वेद निकलने लगा और महान् परिश्रमसे खिन्न उनका श्वास भी वेगसे चलने लगा। तब वह सम्पूर्ण स्वेद विश्वगोलक बन गया और वह निःश्वास वायु जगत् में सब प्राणियोंके जीवनका आधार बन गया ॥ 36–41 ॥ उस मूर्तिमान् वायुके वामांगसे उसकी प्राणप्रिय पत्नी प्रकट हुईं, पुनः उनके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए
जो जीवोंके प्राणके रूपमें प्रतिष्ठित हैं। प्राण, अपान,
समान, उदान तथा व्यान-ये पाँच वायु और उनके पाँच
अधोगामी प्राणरूप पुत्र भी उत्पन्न हुए ॥ 42-43 ॥ स्वेदके रूपमें निकले जलके अधिष्ठाता महान् वरुणदेव हुए। उनके वामांगसे उनकी पत्नी वरुणानी प्रकट हुई। श्रीकृष्णकी उन चिन्मयी शक्तिने उनके गर्भको धारण किया। वे सौ मन्वन्तरोंतक ब्रह्मतेजसे | देदीप्यमान बनी रहीं। वे श्रीकृष्णके प्राणोंकी अधिष्ठातृदेवीहैं, कृष्णको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं। वे कृष्णकी सहचरी हैं और सदा उनके वक्षःस्थलपर विराजमान रहती हैं। सौ मन्वन्तर बीतनेपर उन सुन्दरीने स्वर्णकी कान्तिवाले, विश्वके आधार तथा निधानस्वरूप श्रेष्ठ बालकको जन्म दिया ॥ 44-47 ॥
उस बालकको देखकर उन देवीका हृदय अत्यन्त दुःखित हो गया और उन्होंने उस बालकको कोपपूर्वक उस ब्रह्माण्डगोलकमें छोड़ दिया। बालकके उस त्यागको देखकर देवेश्वर श्रीकृष्ण हाहाकार करने लगे और उन्होंने उसी क्षण उन देवीको समयानुसार शाप दे दिया- हे कोपशीले! हे निष्ठुरे ! तुमने पुत्रको त्याग दिया है, इस कारण आजसे तुम निश्चित ही सन्तानहीन रहोगी तुम्हारे अंशसे जो जो देवपत्नियाँ प्रकट होंगी, वे भी तुम्हारी तरह सन्तानरहित तथा नित्ययौवना रहेंगी ।। 48-51॥
इसके बाद देवीके जिह्वाग्रसे सहसा ही एक सुन्दर गौरवर्ण कन्या प्रकट हुई। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा था तथा वे हाथमें वीणा पुस्तक लिये हुए थीं। सभी शास्त्रोंकी अधिष्ठात्री वे देवी रत्नोंके आभूषण से सुशोभित थीं। कालान्तरमें वे भी द्विधारूपसे विभक्त हो गयीं। उनके वाम अर्धागसे कमला तथा दक्षिण अर्धागसे राधिका प्रकट हुई। ll 52-54॥
इसी बीच श्रीकृष्ण भी द्विधारूपसे प्रकट हो गये। उनके दक्षिणार्धसे द्विभुज रूप प्रकट हुआ तथा वामार्धसे चतुर्भुज रूप प्रकट हुआ। तब श्रीकृष्णने उन सरस्वती देवीसे कहा कि तुम इस (चतुर्भुज) विष्णुकी कामिनी बनो। ये मानिनी राधा इस द्विभुजके साथ यहीं रहेंगी। तुम्हारा कल्याण होगा। इस प्रकार प्रसन्न होकर उन्होंने लक्ष्मीको नारायणको समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् वे जगत्पति उन दोनोंके साथ वैकुण्ठको चले गये ।। 55-57 ॥
राधाके अंशसे प्रकट वे दोनों लक्ष्मी तथा सरस्वती निःसन्तान ही रहीं। भगवान् नारायणके अंगसे चतुर्भुज पार्षद प्रकट हुए। वे तेज, वय, रूप और गुणोंमें नारायणके समान ही थे उसी प्रकार लक्ष्मीके अंगसे उनके ही समान करोड़ों दासियाँ प्रकट हो गयीं ॥ 58-59 ॥हे मुने! गोलोकनाथ श्रीकृष्णके रोमकूपोंसे असंख्य गोपगण प्रकट हुए; जो वय, तेज, रूप, गुण, बल तथा पराक्रममें उन्हींके समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्णके प्राणोंके समान प्रिय पार्षद बन गये ।। 60-61 ॥
श्रीराधाके अंगोंके रोमकूपोंसे अनेक गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सब राधाके ही समान थीं तथा उनकी प्रियवादिनी दासियोंके रूपमें रहती थीं। वे सभी रत्नाभरणोंसे भूषित और सदा स्थिरयौवना थीं, किंतु परमात्माके शापके कारण वे सभी सदा सन्तानहीन रहीं। हे विप्र इसी बीच श्रीकृष्णकी उपासना करनेवाली सनातनी विष्णुमाया दुर्गा सहसा प्रकट हुईं। वे देवी सर्वशक्तिमती, नारायणी तथा ईशाना हैं और परमात्मा श्रीकृष्णकी बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी हैं ॥ 62-65 ll
सभी शक्तियोंकी बीजरूपा वे मूलप्रकृति ही ईश्वरी, परिपूर्णतमा तथा तेजपूर्ण त्रिगुणात्मिका हैं। वे तपाये हुए स्वर्णकी कान्तिवाली, कोटि सूर्योकी आभा धारण करनेवाली, किंचित् हास्यसे युक्त प्रसन्नवदनवाली तथा सहस्र भुजाओंसे शोभायमान हैं। वे त्रिलोचना भगवती नाना प्रकारके शस्त्रास्त्र समूहोंको धारण करती हैं, अग्निसदृश विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुए हैं और रत्नाभरणसे भूषित हैं ।। 66-68 ॥
उन्हींकी अंशांशकलासे सभी नारियाँ प्रकट हुई हैं। उनकी मायासे विश्वके सभी प्राणी मोहित हो जाते हैं। वे गृहस्थ सकामजनोंको सब प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली, वैष्णवजनोंको वैष्णवी कृष्णभक्ति देनेवाली, मोक्षार्थी-जनोंको मोक्ष देनेवाली तथा सुख चाहनेवालोंको सुख प्रदान करनेवाली हैं ।। 69-703 ।।
वे देवी स्वर्गमें स्वर्गलक्ष्मी, गृहोंमें गृहलक्ष्मी, तपस्वियोंमें तप तथा राजाओंमें राज्यलक्ष्मीके रूपमें स्थित हैं। वे अग्निमें दाहिका शक्ति, सूर्यमें प्रभारूप, चन्द्रमा तथा कमलोंमें शोभारूपसे और परमात्मा श्रीकृष्णमें सर्वशक्तिरूपसे विद्यमान हैं ॥ 71-73 ॥हे नारद! जिनसे परमात्मा शक्तिसम्पन्न होता है तथा जगत् भी शक्ति प्राप्त करता है और जिनके बिना सारा चराचर विश्व जीते हुए भी मृतकतुल्य हो जाता है, जो सनातनी संसाररूपी बीजरूपसे वर्तमान हैं, वे ही समस्त सृष्टिकी स्थिति, वृद्धि और फलरूपसे स्थित हैं ।। 74-75 ॥
वे ही भूख-प्यास, दया, निद्रा, तन्द्रा, क्षमा, मति, शान्ति, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति तथा कान्तिरूपसे सर्वत्र विराजती हैं। सर्वेश्वर प्रभुकी स्तुति करके वे उनके समक्ष स्थित हो गयीं। राधिकाके ईश्वर श्रीकृष्णने उन्हें रत्नसिंहासन प्रदान किया । ll 76-77 ।।
हे महामुने! इसी समय वहाँ सपत्नीक ब्रह्माजी पद्मनाभ भगवान्के नाभिकमलसे प्रकट हुए। ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ तथा परम तपस्वी वे ब्रह्मा कमण्डलु धारण किये हुए थे। देदीप्यमान वे ब्रह्मा चारों मुखोंसे श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे ॥ 78-79 ।।
सैकड़ों चन्द्रमाके समान कान्तिवाली, अग्निके समान चमकीले वस्त्रोंको धारण किये और रत्नाभरणोंसे भूषित प्रकट हुई वे सुन्दरी सबके कारणभूत परमात्माकी स्तुति करके अपने स्वामी श्रीकृष्णके साथ रमणीय रत्नसिंहासनपर उनके समक्ष प्रसन्नतापूर्वक बैठ गर्यो ।। 80-81 ll
उसी समय वे श्रीकृष्ण दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम अर्धांग महादेवके रूपमें परिणत हो गया और दक्षिण अधग गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण ही बना रह गया। वे महादेव शुद्ध स्फटिकके समान प्रभायुक्त थे, शतकोटि सूर्यकी प्रभासे सम्पन्न थे, त्रिशूल तथा पट्टिश धारण किये हुए थे तथा बाघम्बर पहने हुए थे। वे परमेश्वर तप्त स्वर्णके समान कान्तिवाले थे, वे जटाजूट धारण किये हुए थे, उनका शरीर भस्मसे विभूषित था, वे मन्द मन्द मुसकरा रहे थे। उन्होंने मस्तकपर चन्द्रमाको धारण कर रखा था। वे दिगम्बर नीलकण्ठ सपके आभूषण से अलंकृत थे। उन्होंने दाहिने हाथमें सुसंस्कृत रत्नमाला धारण कर रखी थी । ll 82 - 85 ।।वे पाँचों मुखोंसे सनातन ब्रह्मज्योतिका जप कर रहे थे। उन सत्यस्वरूप, परमात्मा, ईश्वर, सभी कारणोंके कारण, सभी मंगलोंके भी मंगल, जन्म मृत्यु, जरा-व्याधि-शोक और भयको दूर करनेवाले, कालके काल, श्रेष्ठ श्रीकृष्णकी स्तुति करके मृत्युंजय नामसे विख्यात हुए वे शिव विष्णुके समक्ष रमणीय रत्नसिंहासनपर बैठ गये॥ 86–88 ॥
सभी पुराण एवं पुस्तकें देखें
देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत)
देवी भागवत पुराण (देवी भागवत कथा)
स्कंद 9, अध्याय 3 - स्कंद 9, अध्याय 3
बाल रूप में प्रकट श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासा के परम उत्तम स्वरूप का वर्णन
श्री नारायण ने कहा- जिस बालक को पहले जल में छोड़ दिया गया था, वह ब्रह्माजी की आयु तक जल में ही रहता है. इसके बाद जब वह समय आया तो यह अचानक दो रूपों में विभक्त हो गया। 1
उनमें से एक बच्चा था जो सदियों तक सूर्यो के भ्रम से लड़ता रहा; माँ के दूध के बिना वह भूख से व्याकुल होकर बार-बार रो रहा था। 2
अपने माता-पिता द्वारा त्याग दिया गया वह असहाय बच्चा पानी में रहते हुए भी एक अनाथ की तरह दिखता था, भले ही वह एक शाश्वत ब्रह्मांड नायक था। 3
जिस प्रकार परमाणु सूक्ष्म है उसी प्रकार वह स्थूल भी है। भगवान कृष्ण के सोलहवें तेज तेज के रूप में राधा के रूप में जन्म लेने के कारण उन्हें भगवान महाविराट के नाम से जाना जाने लगा और प्रकृति के रूप में वे सभी लोगों के आधार और महाविष्णु कहलाये। 4-5
उनके एक-एक रोमकूप में संपूर्ण ब्रह्माण्ड स्थित था, उनकी संख्या तो श्रीकृष्ण भी नहीं बता सकते, जैसे पृथ्वी आदि में कणों की संख्या कोई नहीं बता सकता, उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, आदि की संख्या कोई नहीं बता सकता। उनके रोमकूपों में स्थित शिवादिकि भी निश्चित नहीं है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि हर ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। .
उसके ऊपर वैकुंठलोक है; वह ब्रह्मांड के बाहर है. उसके ऊपर पचास करोड़ योजन तक फैला हुआ
गोलोक
है । यह पृथ्वी सात द्वीपों और सात महासागरों से बनी है। इसमें पचास प्रायद्वीप और असंख्य जंगल और पहाड़ हैं। इसके ऊपर ब्रह्मलोक सहित सात स्वर्गलोक हैं। इसके नीचे सात पाताल लोक भी हैं; यह सब मिलकर ब्रह्माण्ड कहलाता है। 10-113 पृथ्वी के ऊपर भूलक है, उसके बाद भुवर्लोक है, उसके ऊपर स्वर्लोक है, उसके बाद जनलोक है, फिर तपोलोक है और उसके पहले सत्यलोक है। उसके ऊपर उग्र स्वर्णिम आभा लिए ब्रह्मलोक है। ये सभी कृत्रिम हैं, ब्रह्मांड के बाहर और अंदर स्थित हैं। हे नारद! जब वह ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाता है, तो वे सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि लोगों के ये सभी समूह गर्म बुलबुले की तरह अनित्य हैं। 12-15
गोलोक और वैकुंठ को शाश्वत, अपरिवर्तनीय और शाश्वत कहा जाता है। महा विष्णु ब्रह्मांड में प्रत्येक रोमकूपमा में निवास करते हैं। इनकी संख्या तो श्रीकृष्ण को भी नहीं मालूम, फिर दूसरों को क्या? प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि अलग-अलग निवास करते हैं। हे वत्स तीस करोड़ देवी-देवता हैं। ब्रह्माण्ड में दिगीश्वर, दिक्पाल, ग्रह, नक्षत्र आदि भी विद्यमान हैं। पृथ्वी पर चार पात्र हैं और पाताल में साँप हैं; इस प्रकार ब्रह्माण्ड में मांसाहारी जानवर हैं। ll 16-183.
उसके बाद वह विशाल बालक बार-बार ऊपर देखता रहा; लेकिन उस गोलाकार पिंड में शून्य के अलावा और कुछ भी नहीं था. तब वह चिंतित होकर उठ बैठा और भूख से चिंतित होकर बार-बार रोने लगा। 19-20
जब उन्हें होश आया, जब उन्होंने भगवान कृष्ण का ध्यान किया, तो उन्होंने सनातन ब्रह्म ज्योतिका को देखा। वह एक नए बादल की तरह थे, गहरे रंग के, दो भुजाओं वाले, पीतांबर धारण किए हुए, मुस्कुराते हुए, हाथों में एक पाइप पकड़े हुए, प्रसन्न थे। भक्तों पर कृपा करने के लिए उत्सुक, और वह एक बच्चे के रूप में हँसे। ॥21-223॥
तब अधिदेव प्रभु ने उन्हें यह सामयिक प्रतिफल दिया - हे वत्स! तुम भी मेरी तरह ज्ञान से परिपूर्ण, भूख-प्यास से मुक्त और अंत तक अनगिनत ब्रह्मांडों में आश्रय प्राप्त करो। आप निःस्वार्थ, निडर और सभी के प्रति परोपकारी बनें; बस मृत्यु, रोग, शोक, पीड़ा आदि से मुक्त हो जाओ। 23 - 25
इस प्रकार उन्होंने वेदों के मुख्य अंग के रूप में महान षडक्षर महामंत्र का तीन बार उच्चारण किया। प्रारम्भ में प्रणव और उसके बाद कृष्ण शब्द का चौथा विभाग, दो अक्षरों वाला और अंत में स्वाहा से संयुक्त, यह परम अभीष्ट मंत्र (ॐ कृष्णाय स्वाहा) सभी बाधाओं का नाश करने वाला है। 26-27
प्रभु ने मंत्र देकर उसके भोजन की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मा के पुत्र, मैं तुमसे कहता हूं, उसे सुनो। प्रत्येक स्थान पर एक वैष्णव भक्त द्वारा अर्पित प्रसाद भगवान विष्णु के लिए सोलहवाँ और इस महान व्यक्ति के लिए पन्द्रहवाँ भाग होता है। 28-29
पूर्ण और शुद्ध भगवान श्रीकृष्ण को इसे अर्पित करने का कोई उद्देश्य नहीं है। भक्त जो कुछ भी भगवान को अर्पित करते हैं, वे लक्ष्मीनाथ विराट पुरुष को स्वीकार करते हैं। 30-31
भगवान ने उस बालक को सर्वोत्तम मन्त्र देकर फिर उससे पूछा, “बताओ दूसरी बार तुम्हें कौन सा मन्त्र चाहिए।” मैं देता हूं श्रीकृष्ण की बात सुनकर बालकरूप उन विराट प्रभु ने समय पर कहा कृष्ण से बात ll 32-33 ll
बेबी बोला- मेरा वर है आपके चरणकमलमेन | मेरी अटूट भक्ति जीवन भर बनी रहे।' मेरा जीवन क्षण भर का हो या बहुत लम्बा। यह | लोकमेन आपकी भक्ति जीवन्मुक्त वाला प्राणी है। | और जो तेरी भक्ति से रहित है वह उस मूर्ख के समान है जो जीवित रहता है और मर जाता है। 34-35 ऐसे जप, तप, यज्ञ, पूजा, व्रत, उपवास, पुण्य और तीर्थयात्रा से क्या लाभ; जो तेरी भक्ति से रहित है। कृष्ण की भक्ति के बिना मूर्ख का जीवन व्यर्थ है, जो उस भगवान की सेवा नहीं करता जिसके कारण वह जीवित है। 36-37
जब तक आत्मा शरीर में है तब तक प्राणी शक्ति से परिपूर्ण रहता है। उस आत्मा के चले जाने के बाद वे सभी शक्तियां स्वतंत्र हो जाती हैं। 38
यह महाकाव्य! वह हम सभी की आत्मा है और प्रकृति से परे है। आप स्वयंभू, सर्वव्यापक, नित्य और ब्रह्मज्योतिस्वरूप हैं। 39
हे नारदजी! इतना कहकर वह बच्चा चुप हो गया. तब श्रीकृष्ण ने मधुर एवं कर्णप्रिय वाणी में उसे उत्तर दिया। 40 श्रीकृष्ण ने कहा- तुम दीर्घकाल तक स्थिर भाव से रहो, जैसे मैं भी तुम्हारे जैसा ही हूं. यदि असंख्य ब्रह्मा नष्ट हो जाएँ तो भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्मांड में आप ब्रह्मांड के अपने आंशिक रूप में मौजूद रहेंगे। ब्रह्मा आपकी नाभि से उत्पन्न होकर संसार के रचयिता होंगे। संसार के विनाश के लिए भगवान शिव और ग्यारह रुद्र ब्रह्मा की पीठ पर प्रकट होंगे। उनमें से कालाग्नि नाम का एक रुद्र लोकों का संहार करने वाला होगा। उसके बाद जगत् के भक्त विष्णु भी रुद्र के रूप में अवतरित होंगे। मुझ पर प्रभाव डालने से तुम सदैव मेरी भक्ति में बने रहोगे। मुझ परम सुन्दरी (जगत्पति) और मेरे हृदय में निवास करने वाली प्यारी जगन्माता का निरंतर ध्यान करने से तुम निश्चित रूप से मुझे देखोगे। हे वत्स! अब तुम यहीं रहो, मैं अपने लोक जा रहा हूं- इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। अपने लोगों के पास जाकर, उन्होंने सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को सृजन करने और [विनाशक] शंकर को विनाश करने का आदेश दिया। 41-47 ll
श्री भगवान बोले - हे वत्स! सृजन की इस पद्धति को अपनाएं! सुनो, महान विराट के कूप में स्थित एक सूक्ष्म गुण के केंद्रक के रूप में प्रकट हो। हे वत्स! (हे महादेव!) जाओ, अपने ब्रह्मा स्वरूप में प्रकट हो जाओ। यह महाकाव्य! दीर्घकाल तक तप करो। 48-49.
हे ब्रह्मा के पुत्र नारद! इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण चुप हो गये। फिर ब्रह्माजी और कल्याणकारी शिवजी उन्हें प्रणाम करके चले गये। 50
महाविराट के रोमकूप में स्थित ब्रह्माण्ड के जल में विराटपुरुष क्षुद्रविराट पुरुष के रूप में प्रकट हुए। श्याम वर्ण, नवयुवक, पीताम्बर पहने हुए, सर्वव्यापी जनार्दन जलकी की शय्या पर शयन करते हुए मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। उनका चेहरा ख़ुशी से भरा हुआ था. 51-52
उनकी नाभि से ब्रह्मा प्रकट हुए। ब्रह्मा जी उत्पन्न होकर उस कमल पुष्प में एक लाख युगों तक परिक्रमा करते रहे। फिर भी वे कमल के फूल और कमल के तने के अंत तक नहीं जा सके, [हे नारद!] तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिंतित हो गए। 53-54
फिर वह अपने पूर्व स्थान पर लौट आये और श्री कृष्ण के चरण कमलों में ध्यान करने लगे। इसके बाद ध्यान के द्वारा दिव्य दृष्टि से उन्होंने ब्रह्माण्ड में जल के शय्या पर सोये हुए उन छोटे-छोटे प्राणियों को तथा जिनके छिद्रों में ब्रह्माण्ड था, उन महान प्राणियों को तथा उनके परम भगवान श्रीकृष्ण तथा गोले को भी देखा। गोपियों से समन्वय किया। इसके बाद उन्होंने श्रीकृष्ण की स्तुति करके उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया और सृष्टि का कार्य प्रारम्भ किया। 55-57
सबसे पहले ब्रह्मा के पुत्र सनक आदि मानस का जन्म हुआ। उसके बाद शिवकी की प्रसिद्ध एकादश | रुद्रकाल प्रभावित होते हैं. उसके बाद क्षुद्रविरत्के वामभागसे | प्रजा के रक्षक चतुर्भुज भगवान विष्णु प्रकट हुए और वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। 58-59
क्षुद्रविराट्के नाभिकमलमें प्रकट हुए ब्रह्माजीने सारी सृष्टि रची। उन्होंने स्वर्ग, मृत्युलोक, पाताल, चराचरसहित तीनों लोकोंकी रचना की। इस प्रकार महाविराट्के सभी रोमकूपोंमें एक-एक ब्रह्माण्डकी सृष्टि | हुई। प्रत्येक ब्रह्माण्डमें क्षुद्रविराट्, ब्रह्मा, विष्णु एवंशिव आदि भी हैं। हे ब्रह्मन् ! मैंने श्रीकृष्णका शुभ चरित्र कह दिया, जो सुख और मोक्ष देनेवाला है। हे ब्रह्मन् ! आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ।। 60-62 ॥
Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)
स्कन्ध 9, अध्याय 8 - Skand 9, Adhyay 8
कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] गंगाके शापसे सरस्वती अपनी एक कलासे पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें आ गर्मी और अपने पूर्ण अंशसे भगवान् श्रीहरिके स्थानपर ही रह गयीं 1 ॥
वे सरस्वती भारतमें आनेके कारण 'भारती', ब्रह्माकी प्रिया होनेके कारण 'ब्राह्मी' और वाणीको अधिष्ठातृदेवी होनेके कारण 'वाणी' नामसे कही गयीं ॥ 2 ॥सरोवर, बावली तथा अन्य जलधाराओंगे सर्वत्र श्रीहरि दिखायी देते हैं, अतः वे सरस्वान् कहे जाते हैं; उनके इसी नामके कारण ये सरस्वती कही जाती हैं ॥ 3 ॥
नदीके रूपमें आकर ये सरस्वती परम पावन तीर्थ बन गयीं। पापियोंके पाप भस्म करनेके लिये ये प्रज्वलित अग्निरूपा हैं ॥ 4 ॥
हे नारद । तत्पश्चात् भगीरथके द्वारा गंगाजी पृथ्वीपर ले जायी गयीं। वे सरस्वती के शापसे अपनी एक कलासे पृथ्वीपर पहुँचीं ॥ 5 ॥
उस समय गंगाके वेगको सह सकनेमें केवल शिव ही समर्थ थे अतः पृथ्वीके प्रार्थना करनेपर सर्वशक्तिशाली शिवने उन गंगाको अपने मस्तकपर धारण कर लिया ॥ 6 ॥
पुनः सरस्वतीके शापसे लक्ष्मीजी अपनी एक कलासे 'पद्मावती' नदीके रूपमें भारतमें पहुँचीं और अपने पूर्ण अंशसे स्वयं श्रीहरिके पास स्थित रहीं ॥ 7 ॥
तत्पश्चात् लक्ष्मीजीने अपनी दूसरी कलासे भारतमें राजा धर्मध्वजकी पुत्रीके रूपमें जन्म ग्रहण 'किया और वे 'तुलसी'-इस नामसे विख्यात हुईं ॥ 8 ॥
पूर्वकालमें सरस्वतीके शापसे और बादमें श्रीहरिके शापसे ये विश्वपावनी देवी अपनी एक कलासे वृक्षरूपमें हो गयीं ll 9 ॥
कलिके पाँच हजार वर्षोंतक भारतवर्षमें रहकर वे तीनों देवियाँ अपने नदीरूपका परित्यागकर वैकुण्ठधाम चली जायँगी ॥ 10 ॥
काशी तथा वृन्दावनको छोड़कर अन्य जो भी तीर्थ हैं, वे सब श्रीहरिकी आज्ञासे उन देवियोंके साथ वैकुण्ठ चले जायँगे ॥ 11 ॥
शालग्राम, शिव, शक्ति और जंगली कलिके दस हजार वर्ष व्यतीत होनेपर भारतवर्षको छोड़कर अपने स्थानपर चले जायँगे ॥ 12 ॥
उन सभीके साथ साधु, पुराण, शंख, श्राद्ध, तर्पण तथा वेदोक्त कर्म भी भारतवर्षसे चले जायेंगे। देवताओंकी पूजा, देवताओंके नाम, उनके यश तथा गुणका कीर्तन, वेदांग तथा शास्त्र भी उनके साथ चले जायेंगे। इसी प्रकार संत, सत्य, धर्म, समस्त वेद,ग्रामदेवता, व्रत, तप और उपवास आदि भी उनके साथ चले जायेंगे। उनके चले जानेके पश्चात् सभी लोग वाममार्गका आचरण करनेवाले तथा मिथ्या और कपटपूर्ण आचरणमें संलग्न हो जायेंगे और सर्वत्र बिना तुलसीके ही पूजा होने लगेगी ।। 13 – 16 ॥ उनके जाते ही सभी लोग शठ, क्रूर दम्भयुक्त,
महान् अहंकारी, चोर तथा हिंसक हो जायँगे ॥ 17 ॥ पुरुषभेद (परस्पर मैत्रीका अभाव रहेगा, स्त्रीविभेद अर्थात् पुरुष स्वीका ही भेद रहेगा, जातिभेद समाप्त हो जायगा जिससे किसी भी वर्णके स्त्री | पुरुषका परस्पर विवाह निर्भयतापूर्वक होगा। वस्तुओंमें स्व-स्वामिभेद होगा अर्थात् लोग परस्पर एक दूसरेको कोई वस्तु नहीं देंगे ॥ 18 ॥
तब सभी पुरुष स्त्रियोंके वशमें हो जायँगे। घर घरमें व्यभिचारिणी स्त्रियोंका बाहुल्य हो जायगा और वे अपने पतियोंको डाँटते हुए तथा दुर्वचन कहते हुए | उन्हें पीड़ित करेंगी ॥ 19 ॥ गृहिणी घरकी मालकिन बन जायगी तथा गृहस्वामी नौकरसे भी निकृष्ट रहेगा। घरकी बहू अपने सास-ससुरसे दाई नौकर जैसा व्यवहार करेगी ॥ 20 ॥
घरमें बलवान् ही कर्ता माना जायगा, बान्धवोंकी सीमा [ अपने बन्धु बान्धवोंको छोड़कर] केवल स्त्रीके ही सीमित हो जायगी और एक साथ विद्याध्ययन करनेवाले लोगों में परस्पर बातचीत तकका व्यवहार नहीं रहेगा 21 ॥ लोग अपने ही बन्धु बान्धवोंसे अन्य अपरिचित
व्यक्तियोंकी भाँति व्यवहार करेंगे और स्त्रीके आदेशके बिना पुरुष सभी कार्य करनेमें असमर्थ रहेंगे ॥ 22 ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपनी-अपनी जातिके आचार-विचारका परित्याग कर देंगे। सन्ध्यावन्दन तथा यज्ञोपवीत आदिका लोप हो जायगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है॥ 23 ॥
चारों वर्णोंके लोग म्लेच्छोंके समान आचरण करेंगे। वे अपने शास्त्र छोड़कर म्लेच्छशास्त्रका अध्ययन करेंगे ॥ 24 ॥ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्योंके वंशज कलियुगमें शूद्रोंके यहाँ सेवक, रसोइया, वस्त्र धोनेवाले तथा बैलोंपर बोझा ढोनेका काम करनेवाले होंगे ॥ 25 ॥
सभी प्राणी सत्यहीन हो जायँगे, वसुन्धरा फसलोंसे रहित हो जायगी, वृक्षोंमें फल नहीं रह जायेंगे और स्त्रियों सन्तानविहीन हो जायेंगी ॥ 26 ॥
गायोंमें दूध देनेकी क्षमता नहीं रह जायगी, दूधमें घृतका अंश समाप्त हो जायगा, पति-पत्नी परस्पर प्रेमभावसे वंचित रहेंगे और गृहस्थोंमें सत्यका अभाव हो जायगा ॥ 27 ॥
राजा पराक्रमहीन हो जायँगे, प्रजाएँ करोंके भारसे पीड़ित रहेंगी, बड़ी-बड़ी नदियाँ जलाशय और कन्दरा आदि जलसे शून्य हो जायँगे ॥ 28 ॥
चारों वर्णके लोग धर्म तथा पुण्यसे रहित हो जायेंगे। लाखोंमें कोई एक भी पुण्यवान् नहीं रह जायगा ।। 29 ।।
उसके बाद पुरुष, स्त्री तथा बालक नीच स्वभाववाले तथा विकृत स्वरूपवाले हो जायेंगे। उस समय बुरी बातों तथा निन्दित शब्दोंका प्रयोग होगा ॥ 30 ॥
कुछ गाँव और नगर मनुष्योंसे शून्य होकर बड़े भयानक प्रतीत होंगे। कुछ गाँवोंमें बहुत थोड़ी कुटिया तथा बहुत ही कम मनुष्य रह जायँगे ॥ 31 ॥
गाँवों और नगरोंमें जंगल हो जायेंगे। जंगलमें रहनेवाले सभी लोग भी करेंकि भारसे पीड़ित रहेंगे॥ 32 ॥
[ वर्षाके अभाव में] नदियों और तालाबोंमें फसलें उगायी जायँगी। कलियुगमें उत्कृष्ट वंशमें उत्पन्न लोग नीच हो जायँगे ॥ 33 ॥
हे नारद! उस समय लोग अप्रिय वचन बोलनेवाले, धूर्त, मूर्ख तथा असत्यभाषी हो जायँगे। उत्तम कोटिके | खेत भी फसलोंसे विहीन रहेंगे ll 34 ॥
नीच लोग भी धनी होनेके कारण श्रेष्ठ माने जायेंगे और देवभक्त नास्तिक हो जायँगे। सभी नगरनिवासी हिंसक, निर्दयी और मनुष्योंका वध करनेवाले हो जायँगे ॥ 35
कलियुगमें सभी जगहके स्त्री और पुरुष बौने, नाविध व्याधियोंसे युक्त, अल्पायु, रोगग्रस्त तथा यौवनसे हीन हो जायेंगे। सोलह वर्षमें ही उनके सिरकेबाल पक जायँगे और बीस वर्षमें वे अत्यन्त वृद्ध हो जायँगे। आठ वर्षकी युवती रजस्वला होकर गर्भ धारण करने लगेगी। प्रत्येक वर्षमें सन्तान उत्पन्न करके वह स्त्री सोलह वर्षकी अवस्थामें ही वृद्धा हो जायगी। कलियुगमें प्रायः सभी स्त्रियाँ वन्ध्या रहेंगी, कोई कोई स्त्री पति तथा पुत्रवाली होगी ।। 36-38॥
चारों वर्णोंके सभी लोग कन्याका विक्रय करेंगे। वे अपनी माता, पत्नी, बहू, कन्या तथा बहनके व्यभिचारी पुरुषोंसे प्राप्त धनसे अपनी आजीविका चलानेवाले होंगे और उनसे प्राप्त अन्नका भक्षण करनेवाले होंगे। कलियुगमें लोग भगवान्के नाम बेचनेवाले होंगे। लोग अपनी कीर्ति बढ़ानेके लिये दान देंगे और उसके बाद अपने उस दानरूप प्रदत्त धनको स्वयं ले लेंगे ॥ 39-41 ॥
लोग अपने द्वारा दी गयी अथवा दूसरेके द्वारा दी गयी देववृत्ति, ब्राह्मणवृत्ति अथवा गुरुकुलकी वृत्ति - उन सबको पुनः छीन लेंगे ॥ 42 ॥
कलियुगमें कुछ लोग कन्याके साथ, कुछ लोग सासके साथ, कुछ लोग अपनी बहूके साथ, कुछ लोग बहनके साथ, कुछ लोग सौतेली माँके साथ, कुछ लोग भाईकी स्त्रीके साथ और कुछ लोग सब प्रकारकी स्त्रियोंके साथ समागम करनेवाले होंगे ॥ 43-44 ॥
लोग घर-घरमें अगम्या स्त्रीके साथ गमन करेंगे, केवल माताको छोड़कर वे सबके साथ रमण करेंगे। कलियुगमें पतियों तथा पत्नियोंका कोई निर्णय नहीं रहेगा और विशेषरूपसे सन्तानों, ग्रामों तथा वस्तुओंका कोई निर्णय नहीं रहेगा ॥ 45-46 ॥
सभी लोग अप्रिय वचन बोलनेवाले होंगे। सभी लोग चोर और लम्पट होंगे। सभी लोग एक-दूसरेकी हिंसा करनेवाले और नरघाती होंगे ॥ 47 ॥
ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंके वंशके लोग पापी हो जायँगे। सभी लोग लाख, लोहा, रस और नमकका व्यापार करेंगे ॥ 48 ॥
विप्र-वंशमें उत्पन्न सभी लोग बैलोंपर बोझ ढोनेका कर्म करेंगे, शूद्रोंका शव जलायेंगे, शूद्रोंका अन्न खायेंगे और शूद्रजातिकी स्त्रीमें आसक्तहोंगे, पंचयज्ञ करनेसे विरत रहग, अमावास्याका रात्रिमें भोजन करेंगे। यज्ञोपवीत धारण नहीं करेंगे और सन्ध्यावन्दन तथा शौचादि कर्मसे विहीन रहेंगे ।। 49-50 ।।
कुलटा, सूदसे जीविका चलानेवाली, कुट्टी तथा रजस्वला स्त्री ब्राह्मणोंके भोजनालयोंमें भोजन पकानेवालीके रूपमें रहेगी ॥ 51 ॥
कलियुगमें अन्नोंके ग्रहणमें, आश्रम-व्यवस्थाके पालनमें तथा विशेषरूपसे स्त्रियोंके साथ सम्बन्धमें कोई भी नियम नहीं रह जायगा; सभी लोग म्लेच्छ हो जायँगे। इस प्रकार कलियुगके सम्यक्रूपसे प्रवृत्त हो जानेपर सम्पूर्ण जगत् म्लेच्छमय हो जायगा। उस समय वृक्ष हाथ-हाथ भर ऊँचे तथा मनुष्य अँगूठेकी लम्बाईके बराबर हो जायँगे ॥ 52-53 ॥
उस समय विष्णुयश नामक ब्राह्मणके यहाँ उनके पुत्ररूपमें भगवान् कल्कि अवतरित होंगे। श्रीनारायणकी कलाके अंशसे उत्पन्न तथा बल शालियोंमें श्रेष्ठ वे भगवान् कल्कि एक विशाल अश्वपर आरूढ होकर अपनी विशाल तलवारसे तीन रातमें ही सम्पूर्ण पृथ्वीको म्लेच्छोंसे विहीन कर देंगे। इस प्रकार पृथ्वीको म्लेच्छरहित करके वे अन्तर्धान हो जायँगे। तब पृथ्वीपर पुनः अराजकता फैल जायगी और यह चोरों तथा लुटेरोंसे पीड़ित हो जायगी ।। 54-56 ll
तदनन्तर मोटी धारसे निरन्तर छः दिनोंतक असीम वर्षा होगी, जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी आप्लावित हो जायगी। वह प्राणियों, वृक्षों और घर आदिसे विहीन हो जायगी ।। 57 ॥
हे मुने! उसके बाद बारह सूर्य एक साथ उदित होंगे। उनके प्रचण्ड तेजसे सम्पूर्ण पृथ्वी सूख जायगी ॥ 58 ॥
इसके बाद भयंकर कलियुगके समाप्त होनेके बाद तथा सत्ययुगके प्रवृत्त होनेपर तप और सत्त्वसे युक्त धर्म पूर्णरूपसे प्रकट होगा ॥ 59 ॥
उस समय पृथ्वीपर ब्राह्मण धर्मपरायण, तपस्वी तथा वेदज्ञ होंगे और घर-घरमें स्त्रियाँ पतिव्रता तथा धर्मनिष्ठ होंगी ॥ 60 ॥क्षत्रियलोग ही राजा होंगे। वे सब सदा ब्राह्मणोंके भक्त, मनस्वी, तपस्वी, प्रतापी, धर्मात्मा तथा पुण्य कर्ममें संलग्न रहनेवाले होंगे ॥ 61 ॥ वैश्यलोग व्यापार-कर्ममें तत्पर, ब्राह्मणभक्त तथा धार्मिक होंगे। इसी प्रकार शूद्र भी पुण्य कृत्य करनेवाले, धर्मपरायण तथा विप्रोंके सेवक होंगे ॥ 62 ॥ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंके वंशज सदा भगवतीकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले होंगे। वे सब देवीके मन्त्रका निरन्तर जप करनेवाले तथा उनके ध्यानमें सदा लीन रहनेवाले होंगे ॥ 63 ॥
उस समयके मनुष्य वेद- स्मृति-पुराणोंके ज्ञाता तथा ऋतुकालमें ही समागम करनेवाले होंगे। सत्ययुगमें लेशमात्र भी अधर्म नहीं रहेगा और धर्म अपने पूर्ण * स्वरूपमें स्थापित रहेगा। त्रेतायुगमें धर्म तीन पैरोंसे, द्वापरमें दो पैरोंसे तथा कलिके आनेपर एक पैर से रहता है। तत्पश्चात् [ घोर कलियुगके प्रवृत्त होनेपर ] धर्मका पूर्णरूपसे लोप हो जाता है । ll 64-65 ।।
हे विप्र ! सात वार, सोलह तिथियाँ, बारह महीने तथा छः ऋतुएँ बतायी गयी हैं। दो पक्ष (शुक्ल, कृष्ण), दो अयन (उत्तरायण, दक्षिणायन), चार प्रहरका एक दिन, चार प्रहरकी एक रात और तीस दिनोंका एक माह होता है ॥ 66-67 ॥
संवत्सर, इडावत्सर आदि भेदसे पाँच प्रकारके वर्ष जानने चाहिये। यही कालकी संख्याका नियम है । जिस प्रकार दिन आते हैं तथा जाते हैं, उसी प्रकार चारों युगोंका आना-जाना लगा रहता है ॥ 68 ॥
मनुष्यों का एक वर्ष पूर्ण होनेपर देवताओंका एक दिन-रात होता है। मनुष्योंके तीन सौ साठ युग बीतनेपर उसे देवताओंका एक युग समझना चाहिये- ऐसा कालसंख्याके विद्वानोंका मानना है। इस प्रकारके एकहत्तर दिव्य युगोंका एक मन्वन्तर होता है। इन्द्रकी आयु एक मन्वन्तरके बराबर समझनी चाहिये। अट्ठाईस इन्द्रके बीत जानेपर ब्रह्माका एक दिन-रात होता है। इस मानसे एक सौ आठ वर्ष व्यतीत होनेपर ब्रह्माका भी विनाश हो जाता है ।। 69-713 ॥इसीको प्राकृत प्रलय समझना चाहिये, उस समय पृथ्वी दिखायी नहीं पड़ती। जगत्के सभी स्थावर-जंगम पदार्थ जलमें विलीन हो जाते हैं। उस समय ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवता, ऋषि तथा ज्ञानी - ये सब सत्यस्वरूप चिदात्मामें समाविष्ट हो जाते हैं। उसी परब्रह्ममें प्रकृति भी लीन हो जाती है। यही प्राकृतिक लय है। हे मुने! इस प्रकार प्राकृतिक लय हो जानेपर ब्रह्माकी आयु समाप्त हो जाती है, इस पूरे समयको भगवतीका एक निमेष कहा जाता है। हे मुने! इस प्रकार जितने भी ब्रह्माण्ड हैं, सब के-सब देवीके एक निमेषमें विनष्ट हो जाते हैं। पुनः उसी निमेषमात्रमें ही सृष्टिके क्रमसे अनेक ब्रह्माण्ड बन भी जाते हैं॥ 72–753 ॥
इस प्रकार कितनी सृष्टियाँ हुईं तथा कितने लय हुए और कितने कल्प आये तथा गये-उनकी संख्याको कौन व्यक्ति जान सकता है? हे नारद! सृष्टियों, लयों, ब्रह्माण्डों और ब्रह्माण्डमें रहनेवाले ब्रह्मा आदिको संख्याको भला कौन व्यक्ति जान सकता है ? ॥ 76-773 ॥
सभी ब्रह्माण्डोंका ईश्वर एक ही है। वही समस्त प्राणियोंका परमात्मस्वरूप तथा सच्चिदानन्दरूप धारण करनेवाला है ॥ 78 ॥
ब्रह्मा आदि देवता, महाविराट् और क्षुद्रविराट् | ये सब उसी परमेश्वरके अंश हैं और वे परमात्मा ही यह पराप्रकृति हैं। उसी पराप्रकृति से अर्धनारीश्वर भी आविर्भूत हुए हैं। वही पराप्रकृति श्रीकृष्णरूप भी है। वे श्रीकृष्ण दो भुजाओं तथा चार भुजाओंवाले होकर दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनमें चतुर्भुज श्रीहरिरूपसे वैकुण्ठमें और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्णरूपसे गोलोकमें प्रतिष्ठित हुए । 79-81 ॥
ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सब कुछ प्राकृतिक है। | और जो कुछ भी प्रकृतिसे उत्पन्न है, वह सब नश्वर ही है ॥ 82 ॥
इस प्रकार सृष्टिके कारणभूत वे परब्रह्म परमात्मा सत्य, नित्य, सनातन, स्वतन्त्र, निर्गुण, प्रकृतिसे परे, उपाधिरहित, निराकार तथा भक्तोंपर कृपा करनेके लिये सदा व्याकुल रहनेवाले हैं। उन परब्रह्मको सम्यक् जानकर ही पद्मयोनि ब्रह्मा ब्रह्माण्डकी रचना | करते हैं । 83-84 ॥मृत्युपर विजय प्राप्त करनेवाले, समस्त तत्त्वार्थोंको जाननेवाले तथा महान् तपः स्वरूप सर्वेश्वर शिव उन्हींकी तपस्या करके, उन्हें जानकर ही जगत्का संहार करनेवाले हो सके। भगवान् विष्णु उन्हीं परब्रह्म परमात्माकी भक्ति तथा सेवाके द्वारा महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न, सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापी, समस्त सम्पदा प्रदान करनेवाले, सबके ईश्वर, श्रीसम्पन्न तथा सबके रक्षक हुए ।। 85-86 3 ।।
जिसके ज्ञानसे, जिसके तपसे, जिसकी भक्तिसे तथा जिसकी सेवासे महामायास्वरूपिणी, सर्वशक्तिमयी तथा परमेश्वरी वे प्रकृति ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवती कही गयी हैं। जिसके ज्ञान तथा सेवासे | देवमाता सावित्री वेदोंकी अधिष्ठातृदेवता, वेदज्ञानसे सम्पन्न तथा ब्राह्मणोंके द्वारा सुपूजित हुई। जिनकी सेवा तथा तपस्याके द्वारा सरस्वती समस्त विद्याओंकी अधिष्ठातृदेवी, विद्वानोंके लिये पूज्य श्रेष्ठ तथा समस्त लोकोंमें पूजित हुई। इसी प्रकार इन्हींकी सेवा तथा तपस्यासे ही वे लक्ष्मी सभी प्रकारकी सम्पदा प्रदान करनेवाली, सभी प्राणिसमूहकी अधिष्ठातृदेवी, सर्वेश्वरी, सबकी वन्दनीया तथा सबको पुत्र देनेवाली हुई और इन्हींकी उपासनाके प्रभावसे ही देवी दुर्गा सब प्रकारके कष्टका नाश करनेवाली, सबके द्वारा स्तुत तथा सर्वज्ञ हुई ॥। 87-913 ।।
श्रीकृष्णके वाम अंशसे आविर्भूत राधा प्रेमपूर्वक उन्हीं शक्तिकी सेवा करके कृष्णके प्राणोंकी अधिष्ठातृदेवी के रूपमें प्रतिष्ठित हुई और उनके लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय बन गर्यो। उन्हींकी सेवासे राधाने सर्वोत्कृष्ट रूप सौभाग्य, सम्मान, गौरव तथा पत्नीके रूपमें श्रीकृष्णके वक्षःस्थलपर स्थान प्राप्त किया है ll 92-933 ll
पूर्वकालमें श्रीराधाने श्रीकृष्णको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये शतपर्वतपर एक हजार दिव्य वर्षोंतक तप किया था। उससे उन शक्तिस्वरूपाके प्रसन्न हो जानेपर श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। वे प्रभु चन्द्रमाकी कलाके समान शोभा पानेवाली राधाको देखकर उन्हें अपने वक्षःस्थलसे लगाकर [प्रेमातिरेकके कारण ] रोने लगे। तत्पश्चात् कृपा करके उन प्रभु श्रीकृष्णने राधाको सभीके लिये अत्यन्त दुर्लभ यह उत्तम वरप्रदान किया-'मेरे वक्षःस्थलपर सदा विराजमान रहो, मेरी शाश्वत भक्त बनो और सौभाग्य, मान, प्रेम तथा गौरवसे नित्य सम्पन्न रहो। तुम मेरी सभी भार्याओंमें श्रेष्ठ तथा ज्येष्ठ प्रेयसीके रूपमें सदा प्रतिष्ठित रहोगी। तुम्हें वरिष्ठ तथा महिमामयी मानकर मैं सदा तुम्हारी स्तुति पूजा किया करूँगा। हे कल मैं तुम्हारे लिये सर्वदा सुलभ और हर प्रकारसे तुम्हारे अधीन रहूंगा।' परम सुन्दरी राधाको ऐसा वर प्रदान करके जगत्पति श्रीकृष्णने उन्हें सपत्नीके भावसे रहित कर दिया और अपनी प्राणप्रिया बना लिया ।। 94 - 993 ॥
हे मुने! इसी प्रकार अन्य भी जो-जो देवियाँ हैं, वे भी मूलप्रकृतिकी सेवाके कारण ही सुपूजित हुई हैं। जिनका जैसा जैसा तप रहा है, वैसा-वैसा उन्हें फल मिला है। भगवती दुर्गा हिमालयपर्वतपर एक हजार दिव्य वर्षोंतक तपस्या करके तथा उन मूलप्रकृतिके चरणोंका ध्यान करके सबकी पूज्य हो गयीं। वे भगवती सरस्वती गन्धमादनपर्वतपर एक लाख दिव्य वर्षोंतक तप करके सर्ववन्द्या बन गयीं। श्रीलक्ष्मी पुष्करक्षेत्रमें दिव्य एक सौ युगोंतक तप करके भगवतीकी उपासनाके द्वारा सभी प्रकारकी सम्पदाएँ देनेवाली बन गयीं। इसी प्रकार सावित्री दिव्य साठ हजार वर्षोंतक मलयगिरिपर उन मूलप्रकृतिके दिव्य चरणोंका ध्यान करते हुए कठोर तप करके सबके लिये पूजनीय तथा बन्दनीय हो गर्यो । 100 - 1043 ।।
_________________
हे विभो ! प्राचीन कालमें शंकरजीने एक सौ मन्वन्तरतक उन भगवतीका तप किया था। ब्रह्माजीने भी सौ मन्वन्तरतक शक्तिके नामका जप किया था। इसी प्रकार भगवान् विष्णु भी सौ मन्वन्तरतक तपस्या करके सम्पूर्ण जगत्के रक्षक बने ।। 105-106 श्रीकृष्णने दस मन्वन्तरतक कठोर तप करके दिव्य गोलोक प्राप्त किया, जहाँपर आज भी वे आनन्द प्राप्त कर रहे हैं ।। 107 ।।
उन्हीं भगवतीको भक्तिसे युक्त होकर धर्म दस मन्वन्तरतक तपस्या करके सबके प्राणस्वरूप, सर्वपूज्य तथा सर्वाधार हो गये॥ 108 ॥इसी प्रकार सभी देवता, मुनि, मनुगण, राजा तथा ब्राह्मण भी उन भगवती मूलप्रकृतिकी तपस्याके द्वारा ही पूजित हुए हैं ॥ 109 ॥
[ हे नारद!] इस प्रकार मैंने आगमसहित इस पुराणको गुरुके मुखसे जैसा जाना था, वह सब आपको बता दिया; अब आप आगे क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 110 ॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें