यदि इन्द्र ने पर्वतों के पँख न काटे होते तो वो आज भी आसमान में उड़ते हुए विचरण कर रहे होते..?
लंका जा रहे हनुमान को विश्राम देने आए मैनाक पर्वत ने सुनाया प्रसंग !
कथाऐं जब बिना किसी दार्शिनिक सिद्धान्त के आधार पर शास्त्रों में समायोजित होवजाऐं तो समझना चाहिए मनुष्य की मनन शीलता का लोप और मूढता का प्रकोप ही है। कालान्तर में मूढताऐं धर्म में इस कदर सामिल हुई कि समाज में अन्धविशावास फैलाने वाले पुरोहित अपनी वासना और लोलुप प्रवृति की तुष्टि हेतु समाज का हर स्तर पर दोहन कर रहे थे।
("वाल्मीकि रामायणसुन्दर काण्ड-सर्ग अध्याय-श्लोक- 1/108/122)
"पूर्व कृतयुगे तात पर्वताः पक्षिणोऽभवन् ।
तेऽपि जग्मुर्दिशः सर्वा गरुडा इव वेगिनः।१२२।
अनुवाद:-
'तात ! पूर्वकालके सत्ययुगकी बात है। उन दिनों पर्वतोंके भी पंख होते थे। वे भी गरुड़के समान वेगशाली होकर सम्पूर्ण दिशाओं में उड़ते फिरते थे।
ततस्तेषु प्रयातेषु देवसङ्घाः सहर्षिभिः ।
भूतानि च भयं जग्मुस्तेषां पतनशङ्कया ।१२३।
अनुवाद:-
'उनके इस तरह वेगपूर्वक उड़ने और आने-जाने पर देवता, ऋषि और समस्त प्राणियोंको उनके गिरनेकी आशङ्कासे बड़ा भय होने लगा।१२३।
ततः क्रुद्धः सहस्राक्षः पर्वतानां शतक्रतुः।
पक्षांश्चिच्छेद वज्रेण ततः शतसहस्रशः ।। १२४ ।।
अनुवाद:-
'इससे सहस्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्र कुपित हो उठे और उन्होंने अपने वज्र से लाखों पर्वतों के पंख काट डाले ।। १२४ ।।
स मामुपगतः क्रुद्धो वज्रमुद्यम्य देवराट् । ततोऽहं सहसा क्षिप्तः श्वसनेन महात्मना ।। १२५ ।।
अनुवाद:-
'उस समय कुपित हुए देवराज इन्द्र वज्र उठाये मेरी ओर भी आये, किन्तु महात्मा वायुने सहसा मुझे इस समुद्रमें गिरा दिया ॥ १२५ ॥
"अस्मिल्लवणतोये च प्रक्षिप्तः प्लवंगोत्तम । गुप्तपक्षः समग्रश्च तव पित्राभिरक्षितः ।। १२६ ।।
अनुवाद:-
'वानरश्रेष्ठ ! इस क्षार समुद्रमें गिराकर आपके पिताने मेरे पंखों की रक्षा कर ली और मैं अपने सम्पूर्ण अंशसे सुरक्षित
बच गया ।। १२६ ॥
"यः पृथिवीं व्यथमानामदृंहद्यः पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात् ।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्स जनास इन्द्रः ॥२॥
अनुवाद:-“जिसने,जिसने चलती हुई पृथ्वी को स्थिर किया; जिसने क्रोधित पर्वतों को शान्त किया; जिसने विशाल आकाश फैलाया; जिसने स्वर्ग को स्तम्भित किया; मनुष्यो वह,
इंद्र है।
सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य
जिसने क्रोधित पर्वतों को शांत किया: =यः पर्वतान् प्रकुप्तान् अरम्णात् = जब तक उनके पंख थे, तब तक वे इधर-उधर जाते रहे, इंद्र ने उन्हें काट कर पर्वतों को शांत किया।
विवरण:
ऋषि (ऋषि/द्रष्टा):
गृत्समदः शौनकः [ गृत्समद शौनक ] ;
देवता (देवता/विषय-वस्तु):
इंद्र: ;
"छन्द- :
त्रिष्टुप ;
ऋग्वेद की बहुस्तरीय व्याख्या
[ऋग्वेद 2.12.2 व्याकरण का विश्लेषण]
१-यः < यद्[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग" जो; यत् [सर्वनाम]।"
पृथ्वीं < पृथ्वी को [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, स्त्रीलिंग
व्यथमानम् < व्यथ्= कम्पने ।
प्रकुपितां < प्रकुप < √कुप
अन्तरिक्षम् < अन्तरिक्षम् < अन्तरिक्ष
विमामे < विमा < √मा मापने निर्माणे च
वारियो < वारियः < वारियस्
अस्तभनात < ष्कभि( ष्कम्भ-प्रतिबन्धे
- स्तम्भते ।[क्रिया], एकवचन, अपूर्ण
जनसा < जनसाः < जना: वैदिक रूप
इन्द्रः < [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग “इन्द्र;
हे (जनासः) लोगो ! (यः) जो (व्यथमानाम्) चलती हुई (पृथिवीम्) पृथिवी को (अदृंहत्)अदर्हत्वृद्धौ = विस्तार किया। (यः) जो (प्रकुपितान्) कोपयुक्तों को समान (पर्वतान्) पर्वतों को (अरम्णात्)रमु क्रीडायाम्- स्थिर किया (यः) जो (वरीयः) अत्यन्त बहुत विस्तारवाले (अन्तरिक्षम्) को (विममे) विममे विशेषेण निर्ममे विशेषता निर्माण किया (यः) जो (द्याम्) स्वर्ग को (अस्तभ्नात्) धारण करता है (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र है॥२॥
अनुवाद:-१-हे जनाः य इन्द्रो व्यथमानां =चलन्तीं पृथिवीमदृंहत । हे लोगो जिसने हिलती हुई पृथ्वी को रोक दिया।
२-शर्करादिभिर्दृढामकरोत् ॥ दृह दृहि वृद्धौ दृह् दृहि वा वृद्धौ क्तः “स्थूलबलयोः” इडभावः इदितोऽपि नि० नलोपः । १ स्थूले २ अशिथिले प्रगाढे ३ वलवति च मेदिनी कोष ॥ यश्च प्रकुपितान् =शर्करा आदि के द्वारा दृढ़ कर दिया। जो इधर उधर चलते थे। पंखयुक्त पर्वतों को स्थिर कर दिया। अर्थात अपने अपने स्थान पर स्थापित कर दिया।
इतस्ततश्चलितान्पक्षयुक्तान्पर्वतानरम्णात्। नियमितवान्। स्वे स्वे स्थाने स्थापितवान्। अरम्णात् रमु क्रीडायां। अंतर्भावितण्यर्थस्य व्यत्ययेन श्नाप्रत्ययः। यश्च वरीय उरुतममंतरिक्षं विममे। निर्ममे। विस्तीर्णं चकारेत्यर्थः । यश्च द्यां दिवमस्तभ्नात् । स्तंभनिरुद्धामकरोत ॥ स्तंभु रोधन इति सौत्रो धातुः ॥ स ऐवेंद्रो नाहमिति ॥ २
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