भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ब्रह्मचर्योपायादिप्रतिपादकवार्ष्णेयाध्यात्मानुवादः।
"गुरुरुवाच"
अत्रोपायं प्रवक्ष्यामि यथावच्छास्त्रचक्षुषा।
तत्त्वज्ञानाच्चरन्राजन्प्राप्नुयात्परमां गतिम्।1।
सर्वेषामेव भूतानां पुरुषः श्रेष्ठ उच्यते।
पुरुषेभ्यो द्विजानाहुर्द्विजेभ्यो मन्त्रदर्शिनः।2।
सर्वभूतात्मभूतास्ते सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः।
ब्राह्मणा वेदशास्त्रज्ञास्तत्त्वार्थगतनिश्चयाः।3।
नेत्रहीनो यथा ह्येकः कृच्छ्राणि लभतेऽध्वनि।
ज्ञानहीनस्तथा लोके तस्माज्ज्ञानविदोऽधिकाः।। 4।
तांस्तानुपासते धर्मान्धर्मकामा यथागमम्।
न त्वेषामर्थसामान्यमन्तरेण गुणानिमान्।5।
वाग्देहमनसां शौचं क्षमा सत्यं धृतिः स्मृतिः।
सर्वधर्मेषु धर्मज्ञा ज्ञापयन्ति गुणाञ्छुभान्।
6।
यदिदं ब्रह्मणो रूपं ब्रह्मंचर्यमिति स्मृतम्।
परं तत्सर्वधर्मेभ्यस्तेन यान्ति परां गतिम्।7।
लिङ्गसंयोगहीनं यच्छब्दस्पर्शविवर्जितम्।
श्रोत्रेण श्रवणं चैव चक्षुषा चैव दर्शनम्।8।
वाक्संभाषाप्रवृत्तं यत्तन्मनः परिवर्जितम्।
बुद्ध्या चाध्यवसीयीत ब्रह्मचर्यमकल्मषम्।9।
सम्यग्वृत्तिर्ब्रह्मलोकं प्राप्नुयान्मध्यमः सुरान्।
द्विजाग्र्यो जायते विद्वान्कन्यसीं वृत्तिमास्थितः।10।
सुदुष्करं ब्रह्मचर्यमुपायं तत्र मे शृणु।
संप्रदीप्तमुदीर्णं च निगृह्णीयाद्द्विजो मनः।11।
योषितां न कथा श्राव्या न निरीक्ष्या निरम्बराः।
कथंचिद्दर्शनादासां दुर्बलानां विशेद्रजः।12।
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रागोत्पन्नश्चेरत्कृच्छ्रमह्नस्त्रिः प्रविशेदपः।
मग्नस्त्वप्स्वेव मनसा त्रिर्जपेदघमर्षणम्।13।
पाप्मानं निर्दहेदेवमन्तर्भूतरजोमयम्
ज्ञानयुक्तेन मनसा संततेन विचक्षणः।
14।
कुणपामेध्यसंयुक्तं यद्वदच्छिद्रबन्धनम्।
तद्वद्देहगतं विद्यादात्मानं देहबन्धनम्।15।
अमेध्यपूर्णं यद्भाण्डं श्लेष्मान्तकलिलावृतम्।
नेच्छते वीक्षितुं भाण्डं कुतः स्प्रष्टुं प्रवर्तते।16।
देहभाण्डं मलैः पूर्णं बहिः स्वेदजलावृतम्।
बीभत्सं नरनारीणां ज्ञानिनां नरकं मतम्।17।
छिद्रकुम्भो यथा स्रावं सृजते तद्गतं दृढम्।
अन्तस्यं स्रंसते तद्वज्जलं देहेषु देहिनाम्।18।
श्लेष्माश्रुमूत्रकलिलं पुरीषं शुक्लमेव च।
कफजालविनिर्यासः सरसश्चित्त मुञ्चय।19।
वातपित्तकफान्रक्तं त्वङ्भांसं स्नायुमस्थि च।
मज्जां देहं सिराजालैस्तर्पयन्ति रसा नृणाम्।20।
दश विद्याद्धमन्योऽत्र पञ्चेन्द्रियगुणावहाः।
याभिः सूक्ष्माः प्रजायन्ते धमन्योऽन्याः सहस्रशः।। 21।
एवमेताः सिरा नद्यो रसोदा देहसागरम्।
तर्पयन्ति यथाकालमापगा इव सागरम्।22।
_____________________
मध्ये च हृदयस्यैका सिरा तत्र मनोवहा।
शुक्रं संकल्पजं नॄणां सर्वगात्रैर्विमुञ्चति।23।
________________
सर्वगात्रप्रतायिन्यस्तस्या ह्यनुगताः सिराः।
नेत्रयोः प्रतिपद्यन्ते वहन्त्यस्तैजसं गुणम्। 24।
पयस्यन्तर्हितं सर्पिर्यद्वन्निर्मथ्यते खजैः।
शुक्रं निर्मथ्यते तद्वद्देहसंकल्पजैः खजैः।25।
स्वप्नेऽप्येवं यथाऽभ्येति मनः संकल्पजं रजः।
शुक्रमस्पर्शजं देहात्सृजन्त्यस्य मनोवहाः।26
_______________
महर्षिर्भगवानत्रिर्वेद तच्छ्रुक्रसंभवम्।
नृबीजमिन्द्रदैवत्यं तस्मादिन्द्रियमुच्यते।27
ये वै शुक्रगतिं विद्युर्भूतसंकरकारिकाम्।
विरागा दग्धदोषास्ते नाप्नुयुर्देहसंभवम्।28।
गुणानां साम्यमागम्य मनसैव मनोवहम्।
देहकर्म नुदन्प्राणानन्तकाले विमुच्यते।29।
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भविता मनसो ज्ञानं मन एव प्रजायते।
ज्योतिष्मद्विरजो नित्यं मन्त्रसिद्धं महात्मनाम्।। 30।
तस्मात्तदभिघाताय कर्म कुर्यादकल्मषम्।
देहबीजं समुत्पन्नमस्मित्कर्मणि विद्यते।31।
न स्मरेन्न प्रयुञ्जीत ज्ञानी तत्कर्म बुद्धिमान्।
रजस्तमश्च हित्वेह न तिर्यग्गतिमाप्नुयात्।32।
तरुणाधिगतं ज्ञानं जरादुर्बलतां गतम्।
विपक्वबुद्धिः कालेन आदत्ते मानसं बलम्। 33।
एव पुत्रकलत्रेषु ज्ञातिसंबन्धिबन्धुषु।
आदत्ते हृदये कामं व्याध्यादिभिरभिप्लुतः।34।
यतस्ततः परिपतन्नविन्दन्सुखमण्वपि
बहुदुःखसमापन्नः पश्चान्निर्वेदमास्थितः।
ज्ञानवृक्षं समाश्रित्य पश्चान्निर्वृतिमश्नुते।35।
सुदुर्गमिव पन्थानमतीत्य गुणबन्धनम्।
यथा पश्येत्तथा दोषानतीत्यामृतमश्नुते।36।
" इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
मोक्षधर्मपर्वणि षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।216।
शांतिपर्व-216
महाभारत /शांतिपर्व
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वार्ष्णेयाध्यात्मानुवादः।
गुरुरुवाच।
रजसा साध्यते मोहस्तमश्च भरतर्षभ।
क्रोधलोभौ भयं दर्प एतेषां सादनाच्छुचिः।1।
परमं परमात्मानं देवमक्षयमव्ययम्।
विष्णुमव्यक्तसंस्थानं विदुस्तं देवसत्तमम्।2।
तस्य मायापिनद्धाङ्गा ज्ञान भ्रष्टा निराशिषः।
मानवा ज्ञानसंमोहात्ततः कामं प्रयान्ति वै।3।
कामात्क्रोधमवाप्याथ लोभमोहौ च मानवाः।
मानदर्पावहंकारमहंकारात्ततः क्रियाः।4।
क्रियाभिः स्नेहसंबन्धः स्नेहाच्छोकमनन्तरम्।
अथ दुःखसमारम्भा जराजन्मकृतक्षणाः।5।
जन्मतो गर्भवासं तु शुक्रशोणितसंभवम्।
पुरीषमूत्रविक्लेदं शोणितप्रभवाविलम्।6।
तृष्णाभिभूतस्तैर्वद्धस्तानेवाभिपरिप्लवन्।
तथा नरकगर्तस्थस्तृष्णारज्जुभिराचितः।
पुण्यपापप्रणुन्नाङ्गो जायते स यथा कृमिः।7।
मशकैर्मत्कुणैर्दष्टस्तथा चित्रवधार्दितः।
नानाव्याधिभिराकीर्णः कथंचिद्यौवनं गतः।-8।
कूर्मोत्सृजति भूयश्च रज्जुः स्वस्वमुखेप्सया।
योषितं नरकं गृह्य जन्मकर्मवशानुगः।9।
पुरक्षेत्रनिमित्तं यद्दुःखं वक्तुं न शक्यते।
कस्तत्र निन्दकश्चैव नरके पच्यते भृशम्।10।
वार्धक्यमनुलङ्घेत तत्र कर्मारभेत्पुनः।
भगवान्संस्तुतः पश्चात्किं प्रवक्ष्यामि ते भृशम्'।11।
संसारतन्त्रवाहिन्यस्तत्र बुद्ध्येत योषितः।
प्रकृत्याः क्षेत्रभूतास्ता नराः क्षेत्रज्ञलक्षणाः।
तस्मादेवाविशेषेण नरोऽतीयाद्विशेषतः।12।
कृत्या ह्येता घोररूपा मोहयन्त्यविचक्षणान्।
रजस्यन्तर्हिता मूर्तिरिन्द्रियाणां सनातन।13।
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तस्मात्तर्षात्मकाद्रागाद्बीजाज्जायन्ति जन्तवः।
स्वदेहजानस्वसंज्ञान्यद्वदङ्गात्कृमींस्त्यजेत्।
स्वसंज्ञानस्वकांस्तद्वत्सुतसंज्ञान्कृमींस्त्यजेत्।14।
शुक्रतो रसतश्चैव देहाज्जायन्ति जन्तवः।
स्वभावात्कर्मयोगाद्वा तानुपेक्षेत बुद्धिमान्।15।
रजस्तमसि पर्यस्तं सत्वं च रजसि स्थितम्।
ज्ञानाधिष्ठानमज्ञानं बुद्ध्यंहंकारलक्षणम्।16।
तद्बीजं देहिनामाद्दुस्तद्बीजं जीवसंज्ञितम्।
कर्मणा कालयुक्तेन संसारपरिवर्तनम्।17।
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रमत्ययं यथा स्वप्ने मनसा देहवानिव।
कर्मगर्भैर्गुणैर्देही गर्भे तदुपलभ्यते।18।
कर्मणा बीजभूतेन चोद्यते यद्यदिन्द्रियम्।
जायते तदहंकाराद्रागयुक्तेन चेतसा।19।
शब्दरागाच्छ्रोत्रमस्य जायते भावितात्मनः।
रूपरागात्तथा चक्षुर्घ्राणं गन्धजिघृक्षया।20।
संस्पर्शेभ्यस्तथा वायुः प्राणापानव्यपाश्रयः।
व्यानोदानौ समानश्च पञ्चधा देहयापनम्।21।
संजातैर्जायते गात्रैः कर्मजैर्ब्रह्मणा वृतः।
दुःखाद्यन्तैर्दुःखमध्यैर्नरः शारीरमानसैः।22।
दुःखं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते।
त्यागात्तेभ्यो निरोधः स्यान्निरोधज्ञो विमुच्यते।23।
इन्द्रियाणां रजस्येव प्रलयप्रभवावुभौ।
परीक्ष्य संचरेद्विद्वान्यथावच्छास्त्रचक्षुषा।24।
ज्ञानेन्द्रियाणीन्द्रियार्थान्नोपसर्पन्त्यतर्षुलम्।
ज्ञानैश्च करणैर्देही न देहं पुननर्हति।25।
"इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।215।
चतुर्दशाधिकद्विशततम (214) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
चतुर्दशाधिकद्विशततम (214) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद:-
ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति:-
भीष्म जी कहते है – राजन् ! अब मैं तुम्हें शास्त्र दृष्टि से मोक्ष का यथावत् उपाय बताता हूँ।
शास्त्रविहित कर्मों का निष्काम भाव से आचरण करता हुआ मनुष्य तत्वज्ञान से परमगति को प्राप्त कर लेता है।
समस्त प्राणियों मे मनुष्य श्रेष्ठ कहलाता है । मनुष्यों में द्विजों को और द्विजों में भी मन्त्रद्रष्टा (वेदज्ञ) ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताया गया है।
वेद – शास्त्रों के यथार्थ ज्ञाता ब्राह्मण समस्त भूतों के आत्मा, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं ।
उन्हें परमार्थतत्व का पूर्ण निश्चय होता है। जैसे नेत्रहीन पुरूष मार्ग में अकेला होनेपर तरह-तरह के दु:ख पाता हैं, उसी प्रकार संसार में ज्ञानहीन मनुष्य को भी अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं;।
इसलिये ज्ञानी पुरूष ही सबसे श्रेष्ठ है।
धर्म की इच्छा रखनेवाले मनुष्य शास्त्र के अनुसार उन-उन यज्ञादि सकाम धर्मों का अनुष्ठान करते हैं; किंतु आगे बताये जानेवाले गुणों के बिना इन्हें सबके लिये समानरूप से अभीष्ट मोक्ष नामक पुरूषार्थ की प्राप्ति नहीं होती।
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वाणी, शरीर और मन की पवित्रता, क्षमा, सत्य, धैर्य और स्मृति –इन गुणों को प्राय: सभी धर्मों के धर्मज्ञ पुरूष कल्याणकारी बताते है। यह जो ब्रह्मचर्य नामक गुण है, इसे तो शास्त्रों में ब्रह्म का स्वरूप ही बताया गया है ।
यह सब धर्मों से श्रेष्ठ है । ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य परमपद को प्राप्त कर लेते है।
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वह परमपद पाँच प्राण, मन, बुद्धि और दसों इन्द्रियों के संघातरूप शरीर के संयोग से शून्य है, शब्द और स्पर्श से रहित है । जो कान से सुनता नहीं, आँख से देखता नहीं और वाणी द्वारा कुछ बोलता नहीं है, तथा जो मन से भी रहित है, वही वह परमपद या ब्रह्म है
मनुष्य बुद्धि के द्वारा उसका निश्चय करे और उसकी प्राप्ति के लिये निष्कलंक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे। जो मनुष्य इस व्रत का अच्छी तरह पालन करता हैं, वह ब्रह्मलोक प्राप्त कर लेता है। मध्यम श्रेणी के ब्रह्मचारी को देवताओं का लोक प्राप्त होता है और कनिष्ठ श्रेणी का विद्वान् ब्रह्मचारी श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी के रूप में जन्म लेता है। ब्रह्मचर्य का पालन अत्यन्त कठिन है । उसके लिये जो उपाय है, वह मुझसे सुनो । ब्राह्मण को चाहिये कि जब रजोगुण की वृत्ति प्रकट होने और बढ़ने लगे तो उसे रोक दे।
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स्त्रियों की चर्चा न सुने । उन्हें नंगी अवस्था में न देखे; क्योंकि यदि किसी प्रकार नग्नावस्थाओं में उन पर दृष्टि चली जाती है तो दुर्बल हृदयवाले पुरूषों के मन में रजोगुण-राग या कामभाव का प्रवेश हो जाता है।
ब्रह्मचारी के मन में यदि राग या काम-विकार उत्पन्न हो जाय तो वह आत्मशुद्धि के लिये कृच्छ्रव्रत[१] ] का आचरण करे । यदि वीर्य की वृद्धि होने से उसे कामवेदना अधिक सता रही हो तो वह नदी या सरोवर के जल में प्रवेश करके स्नान करे । यदि स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाय तो जल में गोता लगाकर मन-ही-में तीन बार अघमर्षण[२] सूक्त का जप करे।
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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद:-
विवेकी पुरूष को इस प्रकार ज्ञानयुक्त एवं संयमशील मन के द्वारा अपने अन्त:करण मे प्रकट हुए पापमय कामविकार को दग्ध कर देना चाहिये।
मुर्दे के समान अपवित्र एवं मलयुक्त नाडि़याँ जिस प्रकार देह के भीतर दृढ़तापूर्वक बँधी हुई हैं, उसी प्रकार (अज्ञान से) उसके भीतर जीवात्मा भी दृढ़ बन्धन में बँधा हुआ है, ऐसा जानना चाहिये।
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भोजन से प्राप्त हुए रस नाड़ी समूहों द्वारा संचरित होकर मनुष्यों के वात, पित्त, कफ, रक्त, त्वचा, मांस, स्नायु, अस्थि, चर्बी एवं सम्पूर्ण शरीर को तृप्त एवं पुष्ट करते है। इस शरीर के भीतर उपर्युक्त वात, पित्त आदि दस वस्तुओं को वहन करनेवाली दस ऐसी नाडि़याँ है जो पाँचों इन्द्रियों के शब्द आदि गुणों को ग्रहण करने की शक्ति प्राप्त कराने वाली है । उन्हीं के साथ अन्य सहस्त्रों सूक्ष्म नाडि़याँ सारे शरीर में फैली हुई हैं। जैसे नदियाँ अपने जल से यथासमय समुद्र को तृप्त करती रहती हैं, उसी प्रकार रस को बहानेवाली ये नाड़ी रूप नदियाँ इस देह-सागर को तृप्त किया करती हैं। हृदय के मध्यभाग में एक मनोवहा नाम की नाड़ी है जो पुरूषों के कामविषयक संकल्प के द्वारा सारे शरीर से वीर्य को खींचकर बाहर निकाल देती है।
उस नाड़ी के पीछे चलनेवाली और सम्पूर्ण शरीर में फैली हुई अन्य नाडि़याँ तेजस-गुणरूप ग्रहण की शक्ति को वहन करती हुई नेत्रों तक पहॅुचती हैं।
जिस प्रकार दूध मे छिपे हुए घी को मथानी से मथकर अलग किया जाता है, उसी प्रकार देहस्थ संकल्प और इन्द्रियोंसे होनेवाले स्त्रियों के दर्शन एवं स्पर्श आदि से मथित होकर पुरूष का वीर्य बाहर निकल जाता है।
जैसे स्वप्न में संसर्ग न होनेपर भी मनके संकल्प से उत्पन्न हुआ स्त्रीविषयक राग उपस्थित हो जाता है, उसी प्रकार मनोवहा नाड़ी पुरूष के शरीर से संकल्पजनित वीर्य का नि:सारण कर देती है।
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भगवान महर्षि अत्रि वीर्य उत्पत्ति और गति को जानते हैं तथा ऐसा कहते है कि मनोवहा नाड़ी, संकल्प और अन्न – ये तीन ही वीर्य के कारण हैं ।
इस वीर्य का देवता इन्द्र है; इसलिये इसे इन्द्रिय कहते हैं।
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जो यह जानते है कि वीर्य की गति ही सम्पूर्ण प्राणियों में वर्णसंकरता उत्पन्न करने वाली है, वे विरक्त हो अपने सारे दोषों को भस्म कर डालते हैं; इसलिये वे पुन: देह के बन्धन में नहीं पड़ते। जो केवल शरीर की रक्षा के लिये भोजन आदि कर्म करता हैं, वह अभ्यास के बल से गुणों की साम्यावस्थारूप निर्विकल्प समाधि प्राप्त करके मन के द्वारा मनोवहा नाड़ी को संयम में रखते हुए अन्तकाल में प्राणों को सुषुम्णा मार्ग से ले जाकर संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है । उन महात्माओं के मन में तत्वज्ञान का उदय हो जाता है; क्योंकि प्रणवोपासना से परिशुद्ध हुआ उनका मन नित्य प्रकाशमय और निर्मल हो जाता है।
अत: मन को वश में करने के लिये मनुष्य को निर्दोष एवं निष्काम कर्म करे चाहिये।
ऐसा करने से वह रजोगुण और तमोगुण से छूटकर इच्छानुसार गति प्राप्त कर लेता है। युवावस्था में प्राप्त किया हुआ ज्ञान प्राय: बुढ़ापे में क्षीण हो जाता है, परंतु परिपक्वबुद्धि मनुष्य समयानुसार ऐसा मानसिक बल प्राप्त कर लेता है, जिससे उसका ज्ञान कभी क्षीण नहीं होता।
वह परिपक्व बुद्धिवाला मनुष्य अत्यन्त दुर्गम मार्ग के समान गुणों के बन्धन को पार करके जैसे-जैसे अपने दोष देखता है, वैसे-ही-वैसे उन्हें लाँघकर अमृतमय परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्ण सम्बन्धी अध्यात्म कथन विषयक दो सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
अनुवाद:-
स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत (216)वें अध्याय में स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]
स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन :-
भीष्म जी कहते हैं- राजन ! सदा निष्कलंक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की इच्छा रखने वाले पुरुष को स्वप्न के दोषों पर दृष्टि रखते हुए सब प्रकार से निद्रा का परित्याग कर देना चाहिये। स्वप्न में जीव को प्राय: रजोगुण और तमोगुण दबा लेते हैं। वह कामनायुक्त होकर दूसरे शरीर को प्राप्त हुए की भाँति विचरता है।
मनुष्य में पहले तो ज्ञान का अभ्यास करने से जागने की आदत होती है, तत्पश्चात विचार करने के लिये जागना अनिवार्य हो जाता है तथा जो तत्त्व ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह तो ब्रह्म में निरन्तर जागता ही रहता है। यहाँ पूर्व पक्ष यह प्रश्न उठाता है कि स्वप्न में जो यह देहादि पदार्थ दिखायी देता है, क्या है ? (सत्य है या असत्य? यदि कहें कि सत्य है तो ठीक नहीं; क्योंकि) स्वप्नावस्था में सब कुछ विषयों से सम्पन्न-सा दिखायी देने पर भी वास्तव में वहाँ कोई विषय नही होता, सारी इन्द्रियाँ उस समय मन में विलीन हो जाती हैं। उन्हीं इन्द्रियों से देहाभिमानी जीव देहधारी जैसा बर्ताव करता है।
और यदि कहें कि स्वप्न के पदार्थ असत्य हैं तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जो सर्वथा असत् है, (जैसे आकाश का पुष्प) उसकी प्रतीति ही नहीं होती। अब यहाँ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है। यह स्वप्न जगत जैसा है, उसे ठीक-ठीक योगेश्वर श्रीकृष्ण ही जानते हैं; पर जैसा श्रीकृष्ण जानते हैं, वैसा ही महर्षि भी उसका वर्णन करते हैं, उनका यह वर्णन युक्ति संगत भी है। विद्वान् महर्षियों का कहना है कि जाग्रत् अवस्था में निरन्तर शब्द आदि विषयों को ग्रहण करते-करते श्रोत्र आदि इन्दियाँ जब थक जाती हैं, तब सभी प्राणियों के अनुभव में आने वाला स्वप्न दिखायी देने लगता है। उस समय इन्द्रियों के लय होने पर भी मन का लय नहीं होता है; इसलिये वह समस्त विषयों का जो मन से अनुभव करता है, वही स्वप्न कहलाता है।
इस विषय में प्रसिद्ध दृष्टान्त बताया जाता है। जैसे जाग्रत अवस्था में विभिन्न कार्यों में आसक्त चित्त हुए मनुष्य के संकल्प मनोराज्य की ही विभूति हैं, उसी प्रकार स्वप्न के भाव भी मन से ही सम्बन्ध रखते हैं।
कामनाओं में जिसका मन आसक्त है, वह पुरुष स्वप्न में असंख्य संस्कारों के अनुसार अनेक दृश्यों को देखता है। वे समस्त संस्कार उसके मन में ही छिपे रहते हैं, जिन्हें वह सर्वश्रेष्ठ अन्तर्यामी पुरुष परमात्मा जानता है।
कर्मों के अनुसार सत्त्वादि गुणों में से यदि यह सत्त्व, रज या तम जो कोई भी गुण प्राप्त होता है, उससे मन पर जब जैसे संस्कार पड़ते हैं अथवा जब जिस कर्म से मन भावित होता है, उस समय सूक्ष्मभूत स्वप्न में वैसे ही आकार प्रकट कर देते हैं। उस स्वप्न का दर्शन होते ही सात्त्विक,राजस अथवा तामस गुण यथायोग्य सुख-दु:खरूप फल का अनुभव कराने के लिये उसके पास आ पहुँचते हैं। तदनन्तर मनुष्य स्वप्न में अज्ञानवश वात, पित्त या कफ की प्रधानता से युक्त तथा काम, मोह आदि राजस, तामस भावों से व्याप्त नाना प्रकार के शरीरों का दर्शन करते हैं। तत्वज्ञान हुए बिना उस स्वप्नदर्शन को लाँघना अत्यन्त कठिन बताया गया है।[1]
जाग्रत अवस्था में प्रसन्न इन्द्रियों के द्वारा मनुष्य अपने मन में जो-जो संकल्प करता है, स्वप्नावस्था आने पर भी उसका वह मन हर्षपूर्वक उसी-उसी संकल्प को पूर्ण होता देखा करता है। मन की सर्वत्र अबाध गति है। वह अपने अधिष्ठान भूत आत्मा के ही प्रभाव से सम्पूर्ण भूतों में व्याप्त है; अत: आत्मा को अवश्य जानना चाहिये; क्योंकि सभी देवता आत्मा में ही स्थित हैं। स्वप्न दर्शन का द्वारभूत जो स्थूल मानव देह है, वह सुषुप्ति अवस्था में मन मे लीन हो जाता है। उसी देह का आश्रय ले मन अव्यक्त सदसत्स्वरूप एवं साक्षीभूत आत्मा को प्राप्त होता है। वह आत्मा सम्पूर्ण भूतों के आत्मभूत है।[2]
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
राजा जनक के दरबार में पंचशिखर का आगमन और उनके द्वारा नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन
युधिष्ठिर ने पूछा- सदाचार के ज्ञाता पितामह! मोक्ष धर्म को जानने वाले मिथिला नरेश जनक ने मानव भोगों का परित्याग करके किस प्रकार के आचरण से मोक्ष प्राप्त किया?
भीष्म जी ने कहा- राजन! इस विषय में विज्ञ पुरुष इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसके आचरण से धर्मज्ञ राजा जनक महान सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुए थे। प्राचीन काल की बात है, मिथिला में जनकवंशी राजा जनदेव राज्य करते थे। वे सदा देह-त्याग के पश्चात आत्मा के अस्तित्वरूप धर्मों के ही चिन्तन में लगे रहते थे। उनके दरबार में सौ आचार्य बराबर रहा करते थे, जो विभिन्न आश्रमों के निवासी थे और उन्हें भिन्न-भिन्न धर्मों का उपदेश देते रहते थे। ‘इस शरीर को त्याग देने के पश्चात जीव की सत्ता रहती है या नहीं, अथवा देह-त्याग के बाद उसका पुनर्जन्म होता है या नहीं’, इस विषय में उन आचार्यों का जो सुनिश्चित सिद्धान्त था, वे लोग आत्मतत्व के विषय में जैसा विचार उपस्थित करते थे, उससे शास्त्रानुयायी राजा जनदेव को विशेष संतोष नहीं होता था।
एक बार कपिला के पुत्र महामुनि पंचशिख सारी पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए मिथिला में जा पहुँचे। वे सम्पूर्ण संन्यास-धर्मों के ज्ञाता और तत्वज्ञान के निर्णय में एक सुनिश्चित सिद्धान्त के पोषक थे। उनके मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं था। वे निर्द्वन्द्व होकर विचरा करते थे। उन्हें ऋषियों में अद्वितीय बताया जाता है। वे कामना से सर्वथा शून्य थे। वे मनुष्यों के हृदय में अपने उपदेश द्वारा अत्यन्त दुर्लभ सनातन सुख की प्रतिष्ठा करना चाहते थे। सांख्य के विद्वान तो उन्हें साक्षात प्रजापति महर्षि कपिल का ही स्वरूप बताते हैं। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो सांख्यशास्त्र के प्रवर्तक भगवान कपिल स्वयं पंचशिख के रूप में आकर लोगों को आश्चर्य में डाल रहे हैं। उन्हें आसुरि मुनि का प्रथम शिष्य और चिरंजीवी बताया जाता है।
उन्होंने एक हजार वर्षों तक मानस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। एक समय आसुरि मुनि अपने आश्रम में बैठे हुए थे। इसी समय कपिल मतावलम्बी मुनियों का महान समुदाय वहाँ आया और प्रत्येक पुरुष के भीतर स्थित, अव्यक्त एवं परमार्थतत्व के विषय में उनसे कुछ कहने का अनुरोध करने लगा। उन्हीं में पंचशिख भी थे, जो पाँच स्त्रोंतों (इन्द्रियों) वाले मन के व्यापार (ऊहापोह) में कुशल थे, पंचरात्र आगम के विशेषज्ञ थे, पाँच कोशों के ज्ञाता और तद्विषयक पाँच प्रकार की उपासनाओं के जानकार थे। शम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान इन पाँच गुणों से भी युक्त थे। उन पाँचों कोशों से भिन्न होने के कारण उनके शिखा स्थानीय जो ब्रह्म है, वह पंचशिख कहा गया है। उसके ज्ञाता होने से ऋषियों को भी ‘पंचशिख’ माना गया है। आसुरि तपोबल से दिव्य दृष्टि प्राप्त कर चुके थे। ज्ञान यज्ञ के द्वारा सिद्धि प्राप्त करके उन्होंने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को स्पष्टरूप से समझ लिया था। जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपों में दिखायी देता है, उसका ज्ञान आसुरि ने उस मुनिमण्डली में प्रतिपादित किया।
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद
उन्हीं के शिष्य पंचशिख थे, जो मानवी स्त्री के दूध से पले थे। कपिला नामवाली कोई कुटुम्बिनी ब्राह्मणी थी। उसी स्त्री के पुत्रभाव को प्राप्त होकर वे उसके स्तनों का दूध पीते थे; अत: कपिला का पुत्र कहलाने के कारण कापिलेय नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई। उन्होंने नैष्ठिक (ब्रह्म में निष्ठा रखने वाली) बुद्धि प्राप्त की थी। कापिलेय के जन्म का यह वृतान्त मुझे भगवान ने बताया था। उनके कपिलापुत्र कहलाने और सर्वज्ञ होने का यही परम उत्तम वृतान्त है।
धर्मज्ञ पंचशिख ने उत्तम ज्ञान प्राप्त किया था। वे राजा जनक को सौ आचार्यों पर समानभाव से अनुरक्त जान उनके दरबार में गये और वहाँ जाकर उन्होंने अपने युक्तियुक्त वचनों द्वारा उन सब आचार्यों को मोहित कर दिया। उस समय महाराज जनक कपिलानन्दन पंचशिख का ज्ञान देखकर उनके प्रति आकृष्ट हो गये और अपने सौ आचार्यों को छोड़कर उन्हीं के पीछे चलने लगे। तब मुनिवर पंचशिख ने राजा को धर्मानुसार चरणों में पड़ा देख उन्हें योग्य अधिकारी मानकर परम मोक्ष का उपदेश दिया, जिसका सांख्यशास्त्र में वर्णन है। उन्होंने ‘जातिनिर्वेद’[1] का वर्णन करके ‘कर्मनिर्वेद’[2] का उपदेश दिया। तत्पश्चात ‘सर्वनिर्वेद’[3] की बात बतायी। उन्होने कहा- ‘जिसके लिये धर्म का आचरण किया जाता है, जो कर्मों के फल का उदय होने पर प्राप्त होता है, वह इहलोक या परलोक का भोग नश्वर है। उस पर आस्था करना उचित नहीं। वह मोहरूप, चंचल और अस्थिर है’।
कुछ नास्तिक ऐसा करते हैं कि देहरूपी आत्मा का विनाश प्रत्यक्ष देखा जा रहा है। सम्पूर्ण लोक इसका साक्षी है। फिर भी यदि कोई शास्त्रप्रमाण की ओट लेकर देह से भिन्न आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन करता है तो वह परास्त है; क्योंकि उसका कथन लोकानुभव के विरुद्ध है। आत्मा के स्वरूपभूत शरीर का अभाव होना ही उसकी मृत्यु है। इस दृष्टि से दु:ख, वृद्धावस्था तथा नाना प्रकार के रोग ये सभी आत्मा की मृत्यु ही हैं (क्योंकि इनके द्वारा शरीर का आंशिक विनाश होता रहता है) फिर भी जो लोग आत्मा को देह से भिन्न मानते हैं, उनकी यह मान्यता बहुत ही असंगत है। यदि ऐसी वस्तु का भी अस्तित्व मान लिया जाय, जो लोक में सम्भव नहीं है अर्थात यदि शास्त्र के आधार पर यह स्वीकार कर लिया जाय कि शरीर से भन्न कोई अजर-अमर आत्मा है, जो स्वर्गादि लोकों में दिव्य सुख भोगता है, तब तो बन्दीजन जो राजा को अजर-अमर कहते हैं, उनकी यह बात भी ठीक माननी पड़ेगी। (सांराश यह है कि जैसे बन्दीजन आशीर्वाद में उपचारत: राजा को अजर-अमर कहतें हैं, उसी प्रकार यह शास्त्र का वचन भी औपचारिक ही है। नीरोग शरीर को ही अजर-अमर और यहाँ के प्रत्यक्ष सुख-भोग को ही स्वर्गीय सुख कहा गया हैं।
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 26-29 का हिन्दी अनुवाद
यदि आत्मा है या नहीं यह संशय उपस्थित होने पर अनुमान से उसके अस्तित्व का साधन किया जाय तो इसके लिये कोई ऐसा ज्ञापक हेतु नहीं उपलब्ध होता, जो कहीं दोषयुक्त न होता हो; फिर किस अनुमान का आश्रय लेकर लोकव्यवहार का निश्चय किया जा सकता है। अनुमान और आगम इन दोनों प्रमाणों का मूल प्रत्यक्ष प्रमाण है। आगम या अनुमान यदि प्रत्यक्ष अनुभव के विरुद्ध है तो वह कुछ भी नहीं है उसकी प्रामाणिकता नहीं स्वीकार की जा सकती। जहाँ-कहीं भी ईश्वर, अदृष्ट अथवा नित्य आत्मा की सिद्धि के लिये अनुमान किया जाता है, वहाँ साध्य-साधन के लिये हुई भावना भी व्यर्थ है, अत: नास्तिकों के मत में जीवात्मा की शरीर से भिन्न कोई सत्ता नहीं है यह बात स्थिर हुई। जैसे वट वृक्ष के बीज में पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा त्वचा आदि छिपे होते हैं, जैसे गाय के द्वारा खायी हुई घास में से घी, दूध आदि प्रकट होते हैं तथा जिस प्रकार अनेक औषध द्रव्यों का पाक एवं अधिवासन करने से उसमें नशा पैदा करने वाली शक्ति आ जाती है, उसी प्रकार वीर्य से शरीर आदि के साथ चेतनता भी प्रकट होती है।
इसके सिवा जाति, स्मृति, अयस्कान्तमणि, यूर्यकान्तमणि और बड़वालन के द्वारा समुद्र के जल का पान आदि दृष्टान्तों से भी देहाति रिक्त चैतन्य की सिद्धि नहीं होती[1] (इस नास्तिक मत का खण्डन इस प्रकार समझना चाहिये) मरे हुए शरीर में जो चेतनता का अभाव देखा जाता है, वही देहातिरिक्त आत्मा के अस्तित्व में प्रमाण है (यदि चेतनता देह का ही धर्म हो तो मृतक शरीर में भी उसकी उपलब्धि होनी चाहिये; परंतु मृत्यु के पश्चात कुछ काल तक शरीर तो रहता है, पर उसमे चेतनता नहीं रहती; अत: यह सिद्ध हो जाता है कि चेतन आत्मा शरीर से भिन्न है) नास्तिक भी रोग आदि की निवृत्ति के लिये मन्त्र, जप तथा तान्त्रिक पद्धति से देवता आदि की आराधना करते हैं। (वह देवता क्या है? यदि पाँच भौतिक है तो घट आदि की भाँति उसका दर्शन होना चाहिये और यदि वह भौतिक पदार्थों से भिन्न है तो चेतन की सत्ता स्वत: सिद्ध हो गयी; अत: देह से भिन्न आत्मा है, यह प्रत्यक्ष अनुभव के विरुद्ध जान पड़ता है।)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 30-37 का हिन्दी अनुवाद
यदि शरीर की मृत्यु के साथ आत्मा की भी मृत्यु मान ली जाय, तब तो उसके किेये हुए कर्मों का भी नाश मानना पड़ेगा; फिर तो उसके शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने वाला कोई नहीं रह जायगा और देह की उत्पत्ति में अकृताभ्यागम (बिना किये हुए कर्म का ही भोग प्राप्त हुआ ऐसा) मानने का प्रसंग उपस्थित होगा। ये सब प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि देहातिरिक्त चेतन आत्मा की सत्ता अवश्य है। नास्तिकों की ओर से जो कोई हेतुभूत दृष्टान्त दिये गये हैं, वे सब मूर्त पदार्थ हैं। मूर्त जड पदार्थ से मूर्त जड पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है। यही उन दृष्टान्तों द्वारा सिद्ध होता है। जैसे काष्ठ से अग्नि की उत्पत्ति (यदि पंचभूतों से आत्मा की तब तो पृथ्वी आदि मूर्त पदार्थो से आकाश की भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो असम्भव है।) आत्मा अमूर्त पदार्थ है और देह मूर्त; अत: अमृर्त की मूर्त के साथ समानता अथवा मूर्त भूतों के संयोग से अमूर्त चेतन आत्मा की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कुछ लोग अविद्या, कर्म, तृष्णा, लोभ, मोह तथा दोषों के सेवन को पुनर्जन्म में कारण बताते हैं। अविद्या को वे क्षेत्र कहते हैं।
पूर्व जन्मों का किया हुआ कर्म बीज है और तृष्णा अंकुर की उत्पत्ति कराने वाला स्नेह या जल है। यही उनके मत में पुनर्जन्म का प्रकार है। वे अविद्या आदि कारणसमूह सुषुप्ति और प्रलय में भी संस्काररूप में गूढ़भाव से स्थित रहते हैं। उनके रहते हुए जब एक मरणधर्मा शरीर नष्ट हो जाता है, तब उसी से पूर्वोक्त अविद्या आदि के कारण दूसरा शरीर उत्पन्न हो जाता है। जब ज्ञान के द्वारा अविद्या आदि निमित्त दग्ध हो जाते हैं, तब शरीर नाश के पश्चात सत्त्व (बुद्धि) का क्षयरूप मोक्ष होता है, ऐसा उनका कथन है।
(उपर्युक्त नास्तिक मत में आस्तिक लोग इस प्रकार दोष देते हैं-) क्षणिक विज्ञानवादी की मान्यता के अनुसार शरीर से परक्षणवर्ती शरीर रूप, जाति, धर्म और प्रयोजन सभी दृष्टियों से भिन्न हैं। ऐसी अवस्था में यह वही है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा (स्मृति) नहीं हो सकती। अथवा भोग, मोक्ष आदि सब कुछ बिना इच्छा किये ही अकस्मात् प्राप्त हो जाता है, ऐसा मानना पड़ेगा (उस दशा में यह भी कहा जा सकता है कि मोक्ष की इच्छा करने वाला दूसरा है, साधन करने वाला दूसरा है और उससे मुक्त होने वाला भी दूसरा ही है।) यदि ऐसी ही बात है, तब दान, विद्या, तपस्या और बल से किसी को क्या प्रसन्नता होगी? क्योंकि उसका किया हुआ सारा कर्म दूसरे को ही अपना फल प्रदान करेगा (अर्थात दान करते समय जो दाता है, वह क्षणिक विज्ञानवाद के अनुसार फल-भोग काल में नहीं रह जाता, अत: पुण्य या पाप एक करता है और उसका फल दूसरा भोगता है।) (यदि कहें, यह आपत्ति तो अभीष्ट ही है कि कर्म करते समय जो कर्ता है, वह फल भोग काल में नहीं है। एक विज्ञान से उत्पन्न हुआ दूसरा विज्ञान ही फल भोगता है, तब तो) इस जगत में यह देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त आदि दूसरों के किये हुए अशुभ कर्मों से दुखी एवं परकृत शुभ कर्मों से सुखी हो सकता है (क्योंकि जब कर्ता दूसरा और भोक्ता दूसरा है, तब तो किसी का भी कर्म किसी को भी सुख-दु:ख दे सकता है।) उस दशा में दृश्य और अदृश्य का निर्णय भी यही होगा कि जो पूर्वक्षण में दृश्य था, वह वर्तमान क्षण में अदृश्य हो गया तथा जो पहले अदृश्य था, वही इस समय दृश्य हो रहा है।महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 38-49 का हिन्दी अनुवाद
यदि कहें, देवदत्त के ज्ञान से यज्ञदत्त का ज्ञान पृथक एवं विजातीय है, सजातीय विज्ञानधारा में ही कर्म और उसके फल का भोग प्राप्त होता है; अत: देवदत्त के किये हुए कर्म का योग यज्ञदत्त को नहीं प्राप्त हो सकता, उस कारण पूर्वोक्त दोष की उत्पत्ति सम्भव नहीं हैं, तब हम यह पूछते हैं कि आपके मत में जो यह सादृश्य या सजातीय विज्ञान उत्पन्न होता है, उसका उपादान क्या है? यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञान को ही उपादान बताया जाय तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि वह विज्ञान नष्ट हो चुका और यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञान का नाश ही उत्तरक्षणवर्ती सजातीय विज्ञान की उत्पत्ति में कारण है, तब तो यदि कुछ लोग किसी के शरीर को मूसलों से मार डालें तो उस मरे हुए शरीर से भी दूसरे शरीर की पुन: उत्पत्ति हो सकती है (अत: यह मत ठीक नहीं है।) ऋतु, संवत्सर, युग, सर्दी, गर्मी तथा प्रिय और अप्रिय- ये सब वस्तुएँ आकर चली जाती हैं और जाकर फिर आ जाती हैं, यह सब लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। उसी प्रकार सत्त्वसंक्षयरूप मोक्ष भी फिर आकर निवृत्त हो सकता है (क्योंकि विज्ञान धारा का कहीं अन्त नहीं है।) जैसे मकान के दुर्बल-दुर्बल अंग पहले नष्ट होने लगता हैं और फिर क्रमश: सारा मकान ही गिर जाता है, उसी प्रकार वृद्धावस्था और विनाशकारी मृत्यु से आक्रान्त हुए शरीर के दुर्बल-दुर्बल अंग क्षीण होते-होते एक दिन सम्पूर्ण शरीर का नाश हो जाता है। इन्द्रिय, मन, प्राण, रक्त, मांस और हड्डी ये सब क्रमश: नष्ट होते और अपने कारण में मिल जाते हैं। यदि आत्मा की सत्ता न मानी जाय तो लोकयात्रा का निर्वाह नहीं होगा। दान और दूसरे धर्मों के फल की प्राप्ति के लिये कोई आस्था नहीं रहेगी; क्योंकि वैदिक शब्द और लौकिक व्यवहार सब आत्मा को ही सुख देने के लिये हैं। इस प्रकार मन में अनेक प्रकार के तर्क उठते हैं और उन तर्कों तथा युक्तियों से आत्मा की सत्ता या असत्ता का निर्धारण कुछ भी होता नहीं दिखायी देता। इस तरह विचार करते हुए भिन्न-भिन्न मतों की ओर दौड़ने वाले लोगों की बुद्धि कहीं एक जगह प्रवेश करती है और वहीं वृक्ष की भाँति जड़ जमाये जीर्ण हो जाती है।
इस प्रकार अर्थ और अनर्थ से सभी प्राणी दुखी रहते हैं। केवल शास्त्र के वचन उन्हें खींचकर राह पर लाते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे महावत हाथी पर अंकुश रखकर उन्हें काबू में किये रहते हैं। बहुत से शुष्क हृदयवाले लोग ऐसे विषयों की लिप्सा रखते हैं, जो अत्यन्त सुखदायक हों; किंतु इस लिप्सा में उन्हें भारी से भारी दु:खों का ही सामना करना पड़ता है और अन्त में वे भोगों को छोड़कर मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। जो एक दिन नष्ट होने वाला है, जिसके जीवन का कुछ ठिकाना नहीं, ऐसे अनित्य शरीर को पाकर इन बन्धु-बान्धवों तथा स्त्री-पुत्र आदि से क्या लाभ हैं? यह सोचकर जो मनुष्य इन सबकों क्षणभर में वैराग्यपूर्वक त्यागकर चल देता है, उसे मृत्यु के पश्चात फिर इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता। पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु ये सदा शरीर की रक्षा करते रहते हैं। इस बात को अच्छी तरह समझ लेने पर इसके प्रति आसक्ति कैसे हो सकती है? जो एक दिन मृत्यु के मुख में पड़ने वाला है, ऐसे शरीर से सुख कहाँ है। पंचशिख का यह उपदेश जो भ्रम और वंचना से रहित, सर्वथा निर्दोष तथा आत्मा का साक्षात्कार कराने वाला था, सुनकर राजा जनक को बड़ा विस्मय हुआ; अत: उन्होंने पुन: प्रश्न करने का विचार किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पंचशिख के उपदेश के प्रसंग में पाखण्डखण्डन नामक दो सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 219 श्लोक 1-15
एकोनविंशत्यधिकद्विशततम (219) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
पंचशिख के द्वारा मोक्ष तत्त्व का विवेचन एवं भगवान विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके लिये वरदान
भीष्म जी कहते हैं- राजन! महर्षि पंचशिख के इस प्रकार उपदेश देने पर जनदेव जनक ने पुन: उनसे मृत्यु के पश्चात आत्मा की सत्ता या विनाश के विषय में प्रश्न किया।
जनक ने पूछा- भगवन! यदि मृत्यु के पश्चात किसी की कोई विशेष संज्ञा नहीं रह जाती तो उस स्थिति में अज्ञान अथवा ज्ञान क्या करेगा? द्विजश्रेष्ठ! देखिये, मनुष्य की मृत्यु के साथ-साथ उसका सारा साधन नष्ट हो जाता है; फिर वह पहले से सावधान हो या असावधा, क्या विशेष लाभ उठा सकेगा? मृत्यु होने के पश्चात जीवात्मा विनाशशील पंचमहाभूतों से कोई संसर्ग रहता है या नहीं? यदि रहता है तो किस लिये रहता हैं? इस विषय में यथार्थरूप से क्या निश्चय किया जा सकता हैं?
भीष्म जी कहते हैं- राजन! राजा जनक की बुद्धि को अज्ञानान्धकार से आच्छादित तथा आत्मा के नाश की सम्भावना पंचशिख उन्हें मधुर वचनों द्वारा शान्त करते हुए-से बोले।- राजन! मृत्यु के पश्चात आत्मा का न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकार में ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देने वाला संघात है, यह भी शरीर, इन्द्रिय और मन का समूहमात्र है। यद्यपि ये सब पृथक-पृथक हैं तो भी एक-दूसरे का आश्रय लेकर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। प्राणियों के शरीर में उपादान के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये पाँच धातु हैं। ये स्वभाव से ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी– इन पाँच तत्त्वों के समाहार से ही अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण हुआ है। शरीर में ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण) इनका समुदाय समस्त कर्मों का संग्राहक गण है; क्योंकि इन्हीं से इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकार और धातु प्रकट हुए हैं। श्रवण, त्वचा, जिह्वा, नेत्र और नासिका ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। शब्द आदि गुण चित्त से संयुक्त होकर इन इन्द्रियों के विषय होते हैं। विज्ञानयुक्त चेतना (विषयों की उपादेयता, हेयता और उपेक्षणीयता के कारण) निश्चय ही तीन प्रकार की होती है। उसे अदु:खा, असुखा और सुख-दु:खा कहते हैं।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध तथा मूर्त द्रव्य- ये छ: गुण जीव की मृत्यु के पहले तक इन्द्रियजन्य ज्ञान के साधक होते हैं (इनके साथ इन्द्रियों का संयोग होने पर ही भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान होता है।) श्रोत्र आदि इन्द्रियों में उनके विषयों का विसर्जन (त्याग) करने से सम्पूर्ण तत्त्वों के यथार्थ निश्चयरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस तत्त्व निश्चय को अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान ब्रह्मपद कहते हैं। जो लोग गुणों के संघातरूप इस शरीर को ही आत्मा समझ लेते हैं, उन्हें मिथ्या ज्ञान के कारण अनन्त दु:खों की प्राप्ति होती है और उनकी परम्परा कभी शान्त नहीं होती। इसके विपरीत जिनकी दृष्टि में यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, फिर उन्हें दु:ख परम्परा कैसे प्राप्त हो; उन दु:खों के लिये आधार ही क्या रह जाता है?
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद
अब मैं उस परम उत्तम सांख्यशास्त्र का वर्णन करता हूँ, जिसका नाम है सम्यग्वध (सम्यग्रूपेण दु:खों का नाश करने वाला) उसमें त्याग की प्रधानता है। तुम ध्यान देकर सुनो। उसका उपदेश तुम्हारे लिये मोक्षदायक होगा। जो लोग मुक्ति के लिये प्रयत्नशील हों, उन सबको चाहिये कि सम्पूर्ण कर्मों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करे। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शम, दम आदि साधनों में तत्पर) होने का झूठा दावा करते हैं, उन्हें अविद्या आदि दु:खदायी क्लेश प्राप्त होते हैं। शास्त्रों में द्रव्य का त्याग करने के लिये यज्ञ आदि कर्म, भोग का त्याग करने के लिये व्रत, दैहिक सुखों के त्याग के लिये तप और सब कुछ (अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि) त्याग देने के लिये योग के अनुष्ठान की आज्ञा दी गयी है। यही त्याग की चरम सीमा हैं। सर्वस्व-त्याग का यह एकमात्र मार्ग ही दु:खों से छुटकारा पाने के लिये उत्तम बताया गया है, इसके विपरीत आचरण करने वालों को दुर्गति भोगनी पड़ती है।
बुद्धि में स्थित मन सहित पाँच ज्ञानेन्द्रियों का वर्णन करके अब पाँच कर्मेन्द्रियों का वर्णन करूँगा। जिनके साथ प्राणशक्ति छठी बतायी गयी है। दोनों हाथों को काम करने वाली इन्द्रिय जानना चाहिये, दोनों पैर चलने फिरने का काम करने वाली इन्द्रिय है। लिंग संतानोत्पादन एवं मैथुनजनित आनन्द की प्राप्ति करने के लिये है। गुदनामक इन्द्रिय कार्य मल-त्याग करना है। वाक्-इन्द्रिय शब्द विशेष का उच्चारण करने के लिये है। इस प्रकार पाँच कर्मेन्द्रियों को पाँच विषयों से युक्त माना गया है। मनसहित एकादश इन्द्रियों के विषयों का बुद्धि के द्वारा शीघ्र त्याग कर देना चाहिये। श्रवण काल में श्रोत्ररूपी इन्द्रिय, शब्दरूपी विषय और चित्तरूपी कर्ता इन तीनों का संयोग होता है, इसी प्रकार स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध के अनुभव काल में भी इन्द्रिय, विषय एवं मन का संयोग अपेक्षित है। इस प्रकार ये तीन-तीन के पाँच समुदाय हैं, ये सब गुण कहे गये हैं। इनसे शब्दादि विषयों का ग्रहण होता है, जिससे ये कर्ता, कर्म और करणरूपी त्रिविध भाव बारी-बारी से उपस्थित होते हैं। इनमें से एक-एक सात्त्विक, राजस और तामस तीन-तीन भेद होते हैं। उनसे प्राप्त होने वाले अनुभव भी तीन प्रकार के ही हैं। जो हर्ष, प्रीति, आदि सभी भावों के साधक हैं। हर्ष, प्रीति, आनन्द, सुख और चित्त की शान्ति ये सब भाव बिना किसी कारण के स्वत: हों या कारणवश ( भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सत्संग आदि के कारण) हों, सात्त्विक गुण माने गये हैं। असंतोष, संताप, शोक, लोभ और असहनशीलता ये किसी कारण से हों या अकारण रजोगुण के चिन्ह हैं। अविवेक, मोह, प्रमाद, स्वप्न और आलस्य-ये किसी तरह भी क्यों न हों, तमोगुण के ही विविध रूप हैं। इनमें जो शरीर या मन में प्रीति के संयोग से उदित हो, वह सात्त्विक भाव है और उसको सत्वगुण की वृद्धि जाननी चाहिये। जो अपने लिये असंतोषजनक एवं अप्रीतिकर हो, उसको रजोगुण की प्रवृत्ति एवं अभिवृद्धि समझनी चाहिये। शरीर या मन में जो अतर्क्य, अज्ञेय एवं मोह संयुक्त भाव प्रादुर्भूत हो, उसको तमोगुणजनित जानना चाहिये।
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद शब्द का आधार श्रोत्रेन्द्रिय है और श्रोत्रेन्द्रिय का आधार आकाश है; अत: वह आकाशरूप ही है। ऐसी स्थिति में शब्द का अनुभव करते समय आकाश और श्रोत्र- ये दोनों ही ज्ञान अथवा अज्ञान के विषय नहीं होते हैं[1] इसी प्रकार त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका भी क्रमश: स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के आश्रय तथा अपने आधारभूत महाभूतों के स्वरूप हैं। इन सबका कारण मन है, इसलिये ये सब-के-सब मन:स्वरूप हैं। इन दसों इन्द्रियों में अपने-अपने विषयों को एक साथ भी ग्रहण करने की शक्ति होती है। ग्यारहवाँ मन और बारहवी बुद्धि– इनकों इन्द्रियों का सहायक समझना चाहिये। तमोगुणजनित सुषुप्तिकाल में अपने कारण में विलीन हो जाने से इन्द्रियाँ विषयों का ग्रहण नहीं कर सकतीं, किंतु उनका नाश नहीं होता है। उनमें जो अपने विषयों को एक साथ ग्रहण करने की शक्ति है, वह लौकिक व्यवहार में ही दिखायी देती है (सुषुप्तिकाल में नहीं।) पहले जाग्रत अवस्था के देखने-सुनने आदि के द्वारा पूर्ववासना वश शब्द आदि विषयों की प्राप्ति होने से स्वप्नदर्शी पुरुष सूक्ष्म ग्यारह इन्द्रियों को देखकर विषयसंग की भावना करता हुआ सत्त्व आदि तीनों गुणों से युक्त हो शरीर के भीतर ही इच्छानुसार घूमता रहता है। सुषुप्तिकाल में जब चित्त तमोगुण से अभिभूत होकर अपने प्रवृत्ति और प्रकाश स्वभाव का शीघ्र ही संहार करके थोड़ी देर के लिये इन्द्रियों के व्यापार को बंद कर देता है, उस समय शरीर में जो सुख की प्रतीति होती है, उसे विद्वान पुरुष तामस सुख कहते हैं। सुषुप्तिकाल मे स्वप्नदर्शी पुरुष उपस्थित दु:ख को प्रत्यक्ष की भाँति अनुभव नहीं करता है। इसलिये वह सुषुप्तिकाल में भी तमोगुण युक्त मिथ्या सुख का अनुभव करता है। इस प्रकार अपने कर्म के अनुसार गुण की प्राप्ति के विषय में कहा गया हैं। अज्ञानियों के ये गुण सम्यकरूपेण प्रवृत्त होते हैं और ज्ञानियों के निवृत्त हो जाते हैं। अध्यात्मतत्त्व का चिन्तन करने वाले विद्वान इस शरीर और इन्द्रियों के संघात को क्षेत्र कहते हैं और मन में जो चेतना सत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) कहलाता है। ऐसी अवस्था में आत्मा का विनाश कैसे हो सकता है? अथवा हेतुपूर्वक प्रकृति के अनुसार प्रवृत्त पंचमहाभूतों से उसका शाश्वत संसर्ग भी कैसे रह सकता है? जैसे नद और नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नाम और व्यक्तित्व (रूप) को त्याग देती हैं तथा बड़े-बड़े नद छोटी-छोटी नदियों को अपने में विलीन कर लेते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा में विलीन हो जाता है। यही मोक्ष है। जीव के ब्रह्म मे विलीन हो जाने पर उसके नामरूप का किसी प्रकार भी ग्रहण नहीं हो सकता। ऐसी दशा में मृत्यु के पश्चात जीव की संज्ञा कैसे रहेगी? जो इस मोक्ष विद्या को जानता है और सावधानी के साथ आत्मतत्त्व का अनुसंधान करता है, वह जल से कमल के पत्ते की भाँति अनिष्ट फलों से कभी लिप्त नहीं होता। किंतु संतानों के प्रति आसक्ति के कारण और भिन्न-भिन्न देवताओं की प्रसन्नता के लिये अज्ञानियो द्वारा जो सकाम कर्म किये जाते हैं, ये सब मनुष्य के लिये नाना प्रकार के सुदृढ़ बन्धन है। जब वह इन बन्धनों से छूटकर सुख-दु:ख की चिन्ता छोड़ देता है, उस समय सूक्ष्म शरीर के अभिमान का त्याग करके सर्वश्रेष्ठ गति प्राप्त कर लेता है।
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 46-52 का हिन्दी अनुवाद
श्रुति प्रतिपादित प्रमाणों का विचार और शास्त्र में बताये हुए मंगलमय साधनों का अनुष्ठान करने से मनुष्य जरा और मृत्यु के भय से रहित होकर सुख से सोता है। जब पुण्य और पाप का क्षय तथा उनसे मिलने वाले सुख-दु:ख आदि फलों का नाश हो जाता है, उस समय सम्पूर्ण पदार्थों में सर्वथा आसक्ति से रहित पुरुष आकाश के समान निर्लेप और निर्गुण परमात्मा में स्थित हुए उसका साक्षात्कार कर लेते हैं। जैसे मकड़ी जाला तानकर उस पर चक्कर लगाती रहती है; किंतु उन जालों का नाश हो जाने पर एक स्थान पर स्थित हो जाती है, उसी प्रकार अविद्या के वशीभूत हो नीचे गिरने वाला जीव कर्मजाल में पड़कर भटकता रहता है और उससे छूटने पर दु:ख से रहित हो जाता है। जैसे पर्वत पर फेंका हुआ मिट्टी का ढेला उस से टकराकर चूर-चूर हो जाता है, उसी प्रकार उसके सम्पूर्ण दु:खों का विध्वंस हो जाता है। जैसे रूरू नामक मृग अपने पुराने सींग को और साँप अपनी केंचुल को त्यागकर उसकी ओर देखे बिना ही चल देता है, उसी प्रकार ममता और अभिमान से रहित हुआ पुरुष संसार बन्धन से मुक्त हो अपने सम्पूर्ण दु:खों को दूर कर देता है। जिस प्रकार पक्षी वृक्ष को जल में गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्ष का परित्याग करके उड़ जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दु:ख दोनों का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से रहित हो उत्तम गति को प्राप्त होता है।
भीष्म जी कहते हैं- राजन! स्वयं आचार्य पंचशिख के बताये हुए इस अमृतमय ज्ञानोपदेश को सुनकर राजा जनक एक निश्चित सिद्धान्त पर पहुँच गये और सारी बातों पर विचार करके शोकरहित हो बड़े सुख से रहने लगे; फिर तो उनकी स्थिति ही कुछ और हो गयी। एक बार उन मिथिलानरेश राजा जनक ने मिथिला नगरी को आग से जलती देखकर स्वयं यह उद्गगार प्रकट किया था कि इस नगर के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जलता है। राजन! यहाँ जो मोक्षतत्त्व का निर्णय किया गया है, उसका जो पुरुष सदा स्वाध्याय और चिन्तन करता रहता है, उसे उपद्रवों का कष्ट नहीं भोगना पड़ता। दु:ख तो उसके पास कभी फटकने नहीं पाते हैं तथा जिस प्रकार राजा जनक कपिलमतावलम्बी पंचशिख के समागम से इस ज्ञान को पाकर मुक्त हो गये थे, उसी प्रकार वह भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
नृपक्षेष्ठ! महामते! पूर्वकाल में जिस उद्देश्य से अग्नि द्वारा मिथिलानगरी जलायी गयी, उसे बताता हूँ, सूनो। जनकवंशी राजा जनदेव परमात्मा में कर्मों को स्थापित करके सर्वात्मता को प्राप्त होकर उसी भाव से सर्वत्र विचरण करते थे। महाप्रज्ञ जनक अध्यात्मतत्त्व के ज्ञाता होने के कारण निष्कामभाव से यज्ञ, दान, होम और पृथ्वी का पालन करते हुए भी उस अध्यात्मज्ञान में ही तन्मय रहते थे। एक समय सम्पूर्ण लोकों के अधिपति साक्षात भगवान नारायण ने राजा जनक के मनोभाव की परीक्षा लेने का विचार किया; अत: वे ब्राह्मणरूप में वहाँ आये। उन परम बुद्धिमान श्रीहरि ने मिथिलानगरी में कुछ प्रतिकूल आचरण किया। तब वहाँ के श्रेष्ठ द्विजों ने उन्हें पकड़कर राजा को सौंप दिया। ब्राह्मण के अपराध को लक्ष्य करके राजा ने उनसे इस प्रकार कहा। जनक ने कहा- ब्राह्मण! मैं तुम्हें किसी प्रकार दण्ड नहीं दूँगा, तुम मेरे राज्य से, जहाँ तक मेरी राज्य भूमि की सीमा है, उससे बाहर निकल जाओ। मिथिलानरेश के ऐसा कहने पर उन श्रेष्ठ ब्राह्मण ने मन्त्रियों से घिरे हुए उन महात्मा राजा जनक से इस प्रकार कहा। ‘महाराज! आप सदा पद्मनाभ भगवान नारायण के चरणों में अनुराग रखने वाले और उन्हीं के शरणागत हैं। अहो! आप कृतार्थरूप हैं, आपका कल्याण हो! अब मैं चला जाऊँगा’। ऐसा कहकर वे ब्राह्मण वहाँ से चल दिये। जाते-जाते राजा की परीक्षा लेने के लिये उन श्रेष्ठ ब्राह्मणरूपधारी भगवान श्रीहरि ने स्वयं ही मिथिलानगरी में आग लगा दी। मिथिला को जलती हुई देखकर राजा तनिक भी विचलित नहीं हुए। लोगों के पूछने पर उन्होंने उनसे यह बात कही। ‘मेरे पास आत्मज्ञानरूप अनन्त धन है; अत: अब मेरे लिये कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं है, इस मिथिलानगरी के जल जाने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता है’।
राजा जनक के इस प्रकार कहने पर उन द्विजश्रेष्ठ ने भी उनकी बात सुनी और उनके मनोभाव को समझा; फिर उन्होंने मिथिलानगरी को पूर्ववत सजीव एवं दाहरहित कर दिया। साथ ही उन्होंने राजा को अपने साक्षात स्वरूप का दर्शन कराया और उन्हें वर देते हुए पुन: कहा- ‘नरेश्वर! तुम्हारा मन सदभावपूर्वक धर्म में लगा रहे और बुद्धि तत्वज्ञान में परिनिष्ठित हो। सदा विषयों से विरक्त रहकर तुम सत्य के मार्ग पर डटे रहो। तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं जाता हूँ’। उनसे ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि वहीं अन्तर्धान हो गये। राजन! यह प्रसंग तुम्हें सुना दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो?
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पंचशिख का उपदेश नामक दो सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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