लेकिन सृष्टि से पहले क्या था, यह हमें ऋ्ग्वेद के दशम मंडल के ‘नासदीय सूक्त' में मिलता है।
सृष्टि कैसे बनी ये तो सभी धर्मों के ग्रंथों में मिलता है ,लेकिन सृष्टि के पहले क्या था ये सिर्फ हिंदू धर्म के महान ग्रंथों खासकर वेदों और पुराणों में ही मिलता है।
ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि की रचना क्या ईश्वर ने की ?
ऋग्वेद का ‘नासदीय सूक्त’ उस स्थिति की कल्पना करता है, जब कुछ भी नहीं था (, किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं था।
ऋग्वेद उस स्थिति की कल्पना करता है, कि अगर कुछ नहीं था तो क्या था ? किससे इस सारे संसार की सृष्टि हुई है ? क्या किसी ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया? ऋग्वेद के अनुसार क्या वास्तव में ईश्वर ने ही सृष्टि को बनाया या किसी और ने सृष्टि का निर्माण किया ?
क्या ईश्वर ने सृष्टि को नहीं बनाया तो आखिर सृष्टि की रचना किसने की ? सृष्टि की रचना क्या अपने-आप हो गई ? क्या किसी ने भी सृष्टि का निर्माण नहीं किया ? ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि की रचना का रहस्य क्या है?
क्या उस ईश्वर को कोई जानता है? क्या किसी ने उस एक ईश्वर को देखा है?
अगर इस सृष्टि का रचयिता कोई ईश्वर ही है तो उसने किस वजह से इसे बनाया? अगर इस सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है तो इस सृष्टि को किसके लिए बनाया ? सृष्टि का रचना का उद्देश्य क्या था ?
ईश्वर ने सृष्टि की रचना नहीं की ?
अगर सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की तो आखिर इस सृष्टि को किसने बनाया ? अगर सृष्टि की रचना ईश्वर ने ही की है, तो क्या वो इसकी रचना की वजह हमें बता सकता है ? क्या ईश्वर को भी सृष्टि की रचना की वजह मालूम है या उसे भी नहीं पता कि उसने ही सृष्टि की रचना की है?
मानव जाति के इतिहास में सृष्टि की रचना के उद्देश्य को लेकर नासदीय सूक्त सबसे पुरानी और सबसे उँची दार्शनिक व्याख्या करता है, जिसमें निषेधात्मकता के भाव से सृष्टि की रचना का कारण, उसके उद्देश्य और उसके रचयिता की खोज की गई है।
सृष्टि की रचना के पहले क्या था ?
"नसदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
व्याख्याः – सृष्टि के पहले (पूर्व) असत् (असत् न आसीत्) नहीं था (अर्थात् कुछ भी स्थूल नहीं था। कुछ भी होने का भाव भी नहीं था, किसी के होने की कल्पना भी नहीं थी, सब कुछ अव्यक्त था,
"सृष्टि के पहले सत्(नो सत् आसीत्) भी नहीं था अर्थात् कुछ व्यक्त भी नहीं था , किसी तरह के अस्तित्व का अहसास नहीं था,व्यक्त और अव्यक्त का कुछ भी पता नहीं चलता था।
(रजः न आसीत्) न ही कोई एक लोक या कई प्रकार के लोकों के अस्तित्व का पता था। यास्क रचित ग्रंथ ‘निरुक्त’ में (4-19) के अनुसार ”रजसि लोके । “ इति तद्भाष्ये सायणः ॥ ज्योतिः-प्रकाश। यथा तत्रैव । १० । ३२ । २ । लोका रजान्स्युच्यन्ते ” में लोकों के लिए ‘रज’ शब्द आया है परन्तु यहाँ प्रकाश अर्थ ग्रहण करना समुचित है। क्योंकि प्रकाश अन्धकार का सापेक्ष द्वन्द्वात्मक सत्ता है।
- (व्योम नो) आकाश या अंतरिक्ष का भी कोई पता नहीं था और (परः यत्) आकाश या अंतरिक्ष से परे भी यदि कुछ हो सकता है, तो उसका भी ज्ञान नहीं था। ये भी नहीं मालूम था कि वो है भी कि नहीं है ?
- (कुह कस्य शर्मन् किम् आवरीवः) किस स्थान पर किसके कल्याण के लिए कौन किसका आवरण करे, इसलिए वह आवरण भी नहीं था। सब कुछ सीमाहीन था।
- सीमाएं या फिर कोई पदार्थ जिससे कोई स्थान या वस्तु घिरी हुई हो, जिससे उस स्थान या वस्तु के आकार के तय होने का आभास हो, क्या ऐसा कोई आवरण था?
- क्या कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ था जो सबको चारों तरफ से घेर सकता था, वह पदार्थ या तत्त्व या दिशाएं जो किसी वस्तु या स्थान को चारों तरफ से घेर सकती थी, वो नहीं थी ? अगर जो कुछ था भी तो वो किससे घिरा हुआ था, किसके आश्रय में था?
- (किम् गहनम् गभीरम अम्भः आसीत) क्या कोई ऐसा भासमान सत्ता या कोई अस्तित्व था (तत्व जैसा कुछ) जिसका भास या अहसास स्पर्श, गंध, दृष्टि के द्वारा किया जा सके?
सृष्टि का रचयिता कौन है ?
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
- सृष्टि से पूर्व (न मृत्यु आसीत्) न तो मृत्यु थी और ( न तर्हि अमृतम्) न ही अमरता रुपी अमृत का ज्ञान था। ( न रात्र्या अह्नः) न रात्रि थी और न ही दिन का (प्रकेत: आसीत्) कोई चिन्ह था।
- (अवातम् तत् एकम् स्वधया आनीत् ) वायुरहित ‘वह एक’ अपनी निज सत्ता के साथ विद्यमान था। (तस्मात् ह अन्यत् किंचन न) ‘उस एक’ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।
- स्वधा’ शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता । जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे ‘स्वधा’ कहते हैं । “स्वं दधातीति स्वधा”- जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं ।
- प्रथम ऋचा और दूसरी ऋचा के प्रथम श्लोक में सारे अस्तित्व का निषेध किया गया है। कहा गया है कि न तो सत् था , न असत् था, न आकाश था और न मृत्यु थी, न अमृत था और न रात्रि थी और न ही दिन था।
लेकिन इस ऋचा की दूसरी पंक्ति में पहली बार कहा गया है कि ‘कोई’ था, जो अपनी निज सत्ता (स्वधया) के साथ विद्यमान था। नकारात्मकता में सकारात्मकता की यह अद्भुत उंचाई है।
स्वर्+ आधा=स्वराधा->राधा-
"आङ् + धा धातु रूप - लट् लकार
डुधाञ् धारणपोषणयोः दान इत्यप्येके - जुहोत्यादिःकर्मणि प्रयोग आत्मनेपद आधीयते= धारण करता है। वैष्णव ग्रन्थों में उस शक्ति को राधा कहा गया है।
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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः२
(प्रकृतिखण्डः)अध्यायः(३)
"श्रीनारायण उवाच ।
- "अथाण्डं तज्जलेऽतिष्ठद्यावद्वै ब्रह्मणो वयः।ततः स्वकाले सहसा द्विधारूपो बभूव सः।१।
- तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः।क्षणं रोरूयमाणश्च स शिशुः पीडितः क्षुधा।२।
- पितृमातृपरित्यक्तो जलमध्ये निराश्रयः।नैकब्रह्माण्डनाथो यो ददर्शोर्ध्वमनाथवत् ।३।
- स्थूलात्स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् ।परमाणुर्यथा सूक्ष्मात्परः स्थूलात्तथाऽप्यसौ । ४।
- तेजसां षोडशांशोऽयं कृष्णस्य परमात्मनः।आधारोऽसंख्यविश्वानां महाविष्णुस्सुरेश्वरः ।५।
- प्रत्येकं रोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।अद्यापि तेषां संख्यां च कृष्णो वक्तुं न हि क्षमः।६।
- यथाऽस्ति संख्या रजसां विश्वानां न कदाचन ।ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा संख्या न विद्यते ।७।__________________
- प्रतिविश्वेषु सन्त्येवं ब्रह्मविष्णुशिवादयः।पातालाद्ब्रह्मलोकान्तं ब्रह्माण्डं परिकीर्त्तितम् ।८।
- तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद्बहिरेव सः।स च सत्यस्वरूपश्च शश्वन्नारायणो यथा ।९।
- तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत्कोटियोजनात्।नित्यः सत्यस्वरूपश्च यथा कृष्णस्तथाप्ययम् । 2.3.१० ।
- सप्तद्वीपमिता पृथ्वी सप्तसागरसंयुता एकोनपञ्चाशदुपद्वीपाऽसंख्यवनान्विता ।११।
- ऊर्ध्वं सप्त सुवर्लोका ब्रह्मलोकसमन्विताः। पातालानि च सप्ताधश्चैवं ब्रह्माण्डमेव च ।१२ ।
- ऊर्ध्वं धराया भूर्लोको भुवर्लोकस्ततः परः।स्वर्लोकस्तु ततः पश्चान्महर्लोकस्ततो जनः।१३।
- ततः परस्तपोलोकः सत्यलोकस्ततः परः।ततः परो ब्रह्मलोकस्तप्तकाञ्चननिर्मितः ।१४।
- एवं सर्वं कृत्रिमं तद्बाह्याभ्यन्तर एव च ।।तद्विनाशे विनाशश्च सर्वेषामेव नारद ।१९।
- जलबुदुदवत्सर्वं विश्वसंघमनित्यकम् ।नित्यौ गोलोकवैकुण्ठौ सत्यौ शश्वदकृत्रिमौ ।१६।
- लोमकूपे च विध्यण्डं प्रत्येकं तस्य निश्चितम् । एषां संख्यां न जानाति कृष्णोऽन्यस्यापि का कथा।१७।
- प्रत्येकं प्रतिविध्यण्डे ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।। तिस्रः कोट्यः सुराणां च संख्या सर्वत्र पुत्रक ।१८।
- दिगीशाश्चैव दिक्पाला नक्षत्राणि ग्रहादयः। भुवि वर्णाश्च चत्वारोऽधो नागाश्च चराचराः ।१९।
- अथ कालेन स विराडूर्ध्वं दृष्ट्वा पुनः पुनः। डिम्भान्तरं च शून्यं च न द्वितीयं कथंचन ।2.3.२०।
- चिन्तामवाप क्षुद्युक्तो रुरोद च पुनः पुनः । ज्ञानं प्राप्य तदा दध्यौ कृष्णं परमपूरुषम् ।२१।
- ततो ददर्श तत्रैव ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् । नवीननीरदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।२२।
- सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकारकम् । जहास बालकस्तुष्टो दृष्ट्वा जनकमीश्वरम् ।२३।
- वरं तस्मै ददौ तुष्टो वरेशः समयोचितम्।मत्समो ज्ञानयुक्तश्व क्षुत्पिपासाविवर्जितः।२४।
- ब्रह्माण्डासंख्यनिलयो भव वत्स लयावधि । निष्कामो निर्भयश्चैव सर्वेषां वरदो वरः।रोगमृत्युजराशोकपीडादिपरिवर्जितः।२५।
- इत्युक्त्वा तद्दक्षकर्णे महामन्त्रं षडक्षरम् । त्रिःकृत्वा प्रजजापादौ वेदाङ्गमवरं परम् ।२६।
- प्रणवादिचतुर्थ्यन्तं कृष्ण इत्यक्षरद्वयम्। वह्निज्वालान्तमिष्टं च सर्वविघ्नहरं परम् ।२७।
- मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै प्रभुः। श्रूयतां तद्ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ।२८।
- प्रतिविश्वेषु नैवेद्यं दद्याद्वै वैष्णवो जनः।षोडशांशं विषयिणो विष्णोः पञ्चदशास्य वै । २९ ।
- निर्गुणस्यात्मनश्चैव परिपूर्णतमस्य च ।नैवेद्येन च कृष्णस्य नहि किञ्चित्प्रयोजनम् ।2.3.३०।
- यद्ददाति व नैवेद्यं यस्मै देवाय यो जनः ।स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीदृष्ट्या पुनर्भवेत् ।३१।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे विश्वब्रह्माण्डवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः।३।
अनुवाद:-ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड :अध्याय( 3)श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ, नारायण(महाविष्णु), महादेव, ब्रह्मा, धर्म, सरस्वती, महालक्ष्मी और प्रकृति –का प्रादुर्भाव तथा इन सबके द्वारा पृथक-पृथक श्रीकृष्ण का स्तवन-
सौति कहते हैं –भगवान ने देखा कि सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव-जन्तु नहीं है।
जल का भी कहीं पता नहीं है। सारा आकाश वायु से रहित और अन्धकार से आवृत हो घोर प्रतीत होता है। वृक्ष, पर्वत और समुद्र आदि से शून्य होने के कारण विकृताकार जान पड़ता है। मूर्ति, धातु, शस्य और तृण का सर्वथा अभाव हो गया है।
ब्रह्मन! जगत को इस शून्यावस्था में देख मन-ही-मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एकमात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि-रचना आरम्भ की।
सबसे पहले उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणापार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण (सत रज और तम ) प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्त्व, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द–ये पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए।
तदनन्तर श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण( महाविष्णु) का प्रादुर्भाव हुआ, जिनकी अंगकान्ति श्याम थी, वे नित्य-तरुण, पीताम्बरधारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनके चार भुजाएँ थीं। उन्होंने अपने चार हाथों में क्रमशः – शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे।
उनके मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे, सारंग धनुष धारण किये हुए थे। कौस्तुभमणि उनके वक्षःस्थल की शोभा बढ़ाती थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात लक्ष्मी का निवास था।
वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रकट कर रहे थे; शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा से सेवित मुख-चन्द्र के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे।
कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनका सौन्दर्य बढ़ा रहा था। वे श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।
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नारायण( महाविष्णु) बोले– जो वर (श्रेष्ठ), वरेण्य (सत्पुरुषों द्वारा पूज्य), वरदायक (वर देने वाले) और वर की प्राप्ति के कारण हैं; जो कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप और उस कर्म के भी कारण हैं; तप जिनका स्वरूप है, जो नित्य-निरन्तर तपस्या का फल प्रदान करते हैं, तपस्वीजनों में सर्वोत्तम तपस्वी हैं, नूतन जलधर के समान श्याम, स्वात्माराम और मनोहर हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
जो निष्काम और कामरूप हैं, कामना के नाशक तथा कामदेव की उत्पत्ति के कारण हैं,।
जो सर्वरूप, सर्वबीज स्वरूप, सर्वोत्तम एवं सर्वेश्वर हैं, वेद जिनका स्वरूप है, जो वेदों के बीज, वेदोक्त फल के दाता और फलरूप हैं, वेदों के ज्ञाता, उसे विधान को जानने वाले तथा सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।[2]
ब्रह्म वैवर्त पुराणब्रह्मखण्ड : अध्याय (3)
ऐसा कहकर वे नारायणदेव भक्तिभाव से युक्त हो उनकी आज्ञा से उन परमात्मा के सामने रमणीय रत्नमय सिंहासन पर विराज गये। जो पुरुष प्रतिदिन एकाग्रचित्त हो तीनों संध्याओं के समय नारायण द्वारा किये गये इस स्तोत्र को सुनता और पढ़ता है, वह निष्पाप हो जाता है। उसे यदि पुत्र की इच्छा हो तो पुत्र मिलता है और भार्या की इच्छा हो तो प्यारी भार्या प्राप्त होती है। जो अपने राज्य से भ्रष्ट हो गया है, वह इस स्तोत्र के पाठ से पुनः राज्य प्राप्त कर लेता है तथा धन से वंचित हुए पुरुष को धन की प्राप्ति हो जाती है। कारागार के भीतर विपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य यदि इस स्तोत्र का पाठ करे तो निश्चय ही संकट से मुक्त हो जाता है। एक वर्ष तक इसका संयमपूर्वक श्रवण करने से रोगी अपने रोग से छुटकारा पा जाता है।
सौति कहते हैं – शौनक जी! तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंग कान्ति शुद्ध स्फटिक मणि के समान निर्मल एवं उज्ज्वल थी।
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उनके पाँच मुख थे और दिशाएँ ही उनके लिये वस्त्र थीं। उन्होंने मस्तक पर तपाये हुए सुवर्ण के समान पीले रंग की जटाओं का भार धारण कर रखा था। उनका मुख मन्द-मन्द मुस्कान से प्रसन्न दिखायी देता था। उनके प्रत्येक मस्तक में तीन-तीन नेत्र थे। उनके सिर पर चन्द्राकार मुकुट शोभा पाता था।
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परमेश्वर शिव ने हाथों में त्रिशूल, पट्टिश और जपमाला ले रखी थी। वे सिद्ध तो हैं ही, सम्पूर्ण सिद्धों के ईश्वर भी हैं। योगियों के गुरु के भी गुरु हैं। मृत्यु की भी मृत्यु हैं, मृत्यु के ईश्वर हैं, मृत्यु स्वरूप हैं और मृत्यु पर विजय पाने वाले मृत्युंजय हैं। वे ज्ञानानन्दरूप, महाज्ञानी, महान ज्ञानदाता तथा सबसे श्रेष्ठ हैं। पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा से धुले हुए–से गौरवर्ण शिव का दर्शन सुखपूर्वक होता है। उनकी आकृति मन को मोह लेती है। ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान भगवान शिव वैष्णवों के शिरोमणि हैं।
प्रकट होने के पश्चात् श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो भगवान शिव ने भी हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया।
उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था। नेत्रों से अश्रुझर रहे थे और उनकी वाणी अत्यन्त गद्गद हो रही थी।
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ब्रह्मा द्वारा कृष्ण की स्तुति-
"कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम्। अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम्।।
किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम्। नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम्।।
वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम्। रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्।।-(ब्रह्मखण्ड 3। 35-37)
अनुवाद:-ब्रह्मा जी बोले – जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोप-वेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी नित्य किशोरावस्था है, जो सदा शान्त रहते हैं, जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है तथा जो नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण हैं, उन परम मनोहर गोपी वल्लभ को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में विराजमान होते हैं, रासलीला में जिनका निवास है तथा जो रासजनित उल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन रासेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।
नकारात्मकता या निषेधात्मकता वेद के दर्शन का मूल है । सारे शास्त्रों ने ईश्वर के स्वरुप को खोजने की कोशिश की है । लेकिन कोई ईश्वर के मूल स्वरुप को पा नहीं सका। इन शास्त्रों के रचयिता ने ईश्वर को ‘नेति- नेति’ ( यह नहीं यह भी नहीं) कह कर खोजने की चेष्टा की है। ‘न'से ही ईश्वर को ढूंढ निकालने का प्रयास किया गया है।
संशय वेदों की आत्मा है, प्रश्न पूछना और संशय प्रगट करना वेदों में अक्सर दिखाई पड़ता है। ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ वाक्य के द्वारा बार बार संशय किया गया है , प्रश्न पूछा गया है कि हम किस देवता को अपना हविष्य या पूजन समर्पित करें? ऋग्वैदिक आर्य कभी इंद्र को सर्वश्रेष्ठ देवता मानते हैं तो कभी वरुण को सबसे प्रथम देवता मान कर उन्हें अपनी पूजा समर्पित करते हैं। कभी अग्नि देव उनके लिए प्रथ्म पूज्य हैं तो कभी रुद्र को वो हविष्य ग्रहण करने के लिए पुकारते हैं। ऋ्गवैदिक आर्य लगातार अपने संशय और प्रश्नों को खड़ा करते हैं और ईश्वर के वास्तविक खोज में लगे रहते हैं।
सृष्टि का रचयिता कहां छिपा था?
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥
व्याख्या- लेकिन वह अपनी निज सत्ता(स्वधया ) के साथ कहां था? कहा गया है (अग्रे तम आसीत्) कि आगे ‘तम'(बहुत गूढ़(अबूझ) था।
गूढ़ का अर्थ होता है जिसे ठीक से समझा न जा सके , जिसके होने या न होने को लेकर संशय की स्थिति हो। जिसके अंदर कुछ होने या न होने के बारे में ठीक-ठीक कुछ पक्के तौर पर कहा न जा सके, वो गूढ़ है, रहस्यमय है । इस प्रकार उस ‘तम'(Infinite darkness) में क्या था ये निश्चित रुप से कुछ कहा नहीं जा सकता था। आगे कहा गया कि उस ‘तम'(Infinite darkness) में सब कुछ अस्पष्ट( अप्रकेतम्) था।
- ‘तम'(Infinite darkness) की वजह से कुछ भी जानना पाना पूरी तरह से संभव नहीं था कि वास्तव में सृष्टि के पूर्व क्या था ? किसी का भी कुछ ज्ञान नहीं होता था क्योंकि चारों तरफ तम ही तम था।
- ‘तम'(Infinite darkness) शब्द वेदान्त में अज्ञान( अविवेक) के लिए आया है। सिर्फ अंधकार के लिए नहीं। अंधकार शब्द प्रकाश का विपरीत या विलोम शब्द है। प्रकाश में वाह्य वस्तु को देखा जा सकता है और प्रकाश के न होने पर वह वस्तु नजर नहीं आती । प्रकाश और अंधकार सांसारिक गतिविधियां हैं।
- ‘तम’ शब्द(Infinite darkness) अंधकार से भी गहरा है(Even darker than darkness) । हमारी बुद्धि और चेतना को भी जब कुछ नज़र नहीं आता है तो हम उसे तम(Infinite darkness) या अविवेक( अज्ञान) से घिरा हुआ कहते हैं। तम(Infinite darkness) शब्द अंतर्जगत के लिए भी आता है। तम(Infinite darkness) अंधकार से बहुत व्यापक और गूढ़ अर्थ रखता है।
- (सर्वमा इदं)- उस तम मे वह एक अपनी ( तुच्छ्येन ) तुच्छता या सूक्ष्मता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत् ) आच्छादित था । अर्थात उस तम (Infinite darkness) में ‘वह एक’ मौजूद था। लेकिन कैसे? तो कहा गया है कि (सलिल आ) जैसे दूध में पानी घुला हुआ होता है, वैसे ही ‘वह एक'(That one) ‘तम'(Infinite darkness) के अंदर घुला हुआ था, मिला हुआ था।
- ( तत् ) वही (स्वधा) निज सत्ता को धारण कर ( एकम् ) एक होकर (तपसः + महिना ) तप की महिमा से ( अजायत ) व्यक्त अवस्था को प्राप्त हुआ।
- ‘तप’ क्या है ? सृष्टि रचना की इच्छा ही ‘तप’ कहलाती है। उसी ‘तप’ की इच्छा से वह अव्यक्त (तुच्छ रुप) ‘तम'(Infinite darkness) में ही अलग अस्तित्त्व धारण कर व्यक्त हो जाता है, साकार हो जाता है।
- यहां ‘स्वधा’ शब्द का प्रयोग निज सत्ता को धारण करने वाले लिए हुआ है। ‘निज सत्ता’ क्या है? ‘निज सत्ता’ अर्थ है- ‘अपने होने का बोध’। जैसे आप नींद में रहते हैं तो आप मृत व्यक्ति के समान हो जाते हैं। आपकी चेतना सुप्त हो जाती है। लेकिन आपके अंदर कोई ऐसी सत्ता होती है, जिसे पुकारने पर आप नींद से जाग जाते हैं। उस ‘निज सत्ता’ को जन्म के साथ कोई नाम दे दिया जाता है, जिससे आप खुद को संयुक्त कर लेते हैं। जैसे ही कोई आपका नाम पुकारता है आपके अंदर की चेतना आपको नींद से जगा देती है।
यहां कहा गया है कि ‘वह एक’ भले ही तम(Infinite darkness) में दूध मिश्रित जल के समान घुला हुआ था, लेकिन ‘उसे’ अपने होने का बोध था। ‘वही एक’ अपने होने के बोध के साथ सृष्टि की इच्छा(तप) करता है ।
अभी सृष्टि बनी नहीं है, उसके लिए प्रयत्न भी नहीं हुआ है, लेकिन सृष्टि निर्माण की इच्छा का जन्म होते ही ‘वह एक’ साकार हो जाता है। यह तप(Infinite darkness) अर्थात सृष्टि की इच्छा की महिमा है कि वह व्यक्त हो जाता है।
ईश्वर की कामना से सृष्टि का निर्माण हुआ-
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥
- (तदग्रे )उस सृष्टि के पूर्व ( कामः + समवर्त्तत ) वह ‘कामना'(Will of the almighty) या इच्छा ही थी, जिसने ‘उस एक’ में सृष्टि की इच्छा( तप) के लिए प्रेरणा उत्पन्न की।
- उसके ( मनसः + अधि ) अन्तःकरण की ( यत् ) वह कामना या इच्छा(Will of the almighty) ही सृष्टि के निर्माण का ( प्रथमम् + रेतः ) प्रथम या प्रारंभिक बीज था । उसके बाद तप अर्थात सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई।
- जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में इस श्लोक के तात्पर्य को नहीं समझते ,क्योंकि तैत्तरीय उपनिषद् (२-६ ) में कहा गया है कि ‘सोsकामयत’ अर्थात् ‘उसने’ कामना की।
- छांदोग्य उपनिषद् ( ६-२-१ ) में भी कहा गया है ‘तदैक्षत’ अर्थात् उसने ईक्षण(इच्छा) किया। श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में ‘काम’ या इच्छा का सद्भाव प्रसिद्ध है । यदि काम(इच्छा) न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती ।
हृदय में सृष्टि की रचना का रहस्य छिपा है-
( कवयः ) ऋषि और मुनिगण अपने ( मनीषा )चैतन्य बुद्धि से( असति ) विनश्वर अर्थात नाशवान ( हृदि + प्रतीष्य ) हृदय में विचार (सतः + बन्धुम् ) कर ‘उस एक’ अविनश्वर(नाशरहित) को (निरविन्दन् ) पाते हैं।
जो समस्त ब्रह्मांड में है वही हमारे अंदर भी बीज रुप में है, क्योंकि ब्रह्मांड के तत्त्वों से ही हम सभी का निर्माण हुआ है। जो अणु और परमाणु सारी सृष्टि के मूल भूत तत्त्व हैं, वही हमारे शरीर का भी निर्माण करते हैं।
इस ऋचा में कहा गया है कि ऋषिगण अपनी चैतन्य बुद्धि से अपने ह्रदय में ‘उस एक’ के मूल भाव रुपी इच्छा(कामना) का दर्शन कर उसे प्राप्त कर लेते हैं। ‘उस एक’ की इच्छा(कामना) को इस ऋचा में ‘सतो- बंधुम’ अर्थात सत्(Manifested one) को बांधने वाला कहा गया है।
‘उस एक’ का सत् अर्थात प्रगट या व्यक्त होना ही सृष्टि का आरंभ है, और उस सृष्टि के आंरभ का कारण है ‘उस एक’ की इच्छा या कामना। अपनी इच्छा या कामना से ही वह इस जगत को प्रगट करता है। लेकिन वह कामना या इच्छा उस एक के वश में रहती है। इस बात को ऋषि मुनि गण अपने इस नाशवान हृदय में प्राप्त करते हैं।
हमारा हृदय भी इच्छाओं या कामनाओं को अपने वश में बाँधे रखता है। इन्हीं इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए जब हम कोई प्रयास करते हैं तो किसी वस्तु का निर्माण होता हैं। यानी जो परमात्मा समष्टि रुप में अपनी इच्छा के जरिए सृष्टि का निर्माण करता है, वही लघु रुप में हमअपने जीवन की इच्छाओं को साकार रुप देकर करते हैं।
ईश्वर सबसे उपर है
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
(ऐषाम्) ‘इनका’ अर्थात रेतस्(बीज रुप मूल इच्छा या कामना ), तप( सृष्टि निर्माण रुपी विशेष इच्छा ) और सत्( प्रगट या व्यक्त होने वाली सृष्टि) का विस्तार (स्वितः) क्या किरणों ( रश्मि) की तरह था? क्या ये नीचे की तरफ विस्तृत थे? (अधः स्वित आसीत्), क्या इनका विस्तार उपर की तरफ था( उपरिस्वित्)? या फिर ये टेढ़े -मेढ़े ढंग( तिरश्चीनः) फैले हुए थे?
सबसे उपर तो ‘वह एक’ ही था, इसके बाद (रेतः धाः आसन्) उसका रेतस्( मूल इच्छा या कामना रुपी बीज) था (महिमानः आसन्) जो महान सामर्थ्य वाला था। इसके पश्चात तप( सृष्टि निर्माण की विशेष इच्छा ) थी। उसके बाद उसका प्रयत्न था(परस्तात् प्रयतिः) और अंत में उसकी विस्तृत होने वाली निज सत्ता( स्वधा) थी जो सत् ( व्यक्त या प्रगट या साकार) में परिवर्तित होने वाली थी।
अर्थात ‘वह एक’ अपनी मूल इच्छा( रेतस) को सृष्टि निर्माण की इच्छा ( तप ) में परिवर्तित कर, अपने प्रयत्नों के द्वारा जिस निज सत्ता को उसने धारण किया था( स्वधया) उसका विस्तार कर सृष्टि निर्माण करने वाला था। अर्थात यह वर्तमानकालिक सृष्टि उसके द्वारा धारण किये हुए निज सत्ता( स्वधया) का ही प्रगट रुप( सत्) है।
सृष्टि की रचना कैसे हुई ये कौन जानता है?
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अर्थः- (इयम विसृष्टिः) ये विविध सृष्टियां ( कुतः आ जाता) किस प्रकार से हुई? ( कुतः) और किस कारण से हुईं? (अद्धा कः वेद) कौन इसे जान सकता है? और ((इह कः प्रवोचत्) यहां कौन इसकी व्याख्या कर सकता है? (अस्य) इस जगत के ( विसर्जनेन) सृजन के (अर्वाक) पश्चात ही तो (देवाः) देवगण उत्पन्न हुए हैं? तो इसमे भी संदेह ही है कि देवगणों को भी पता होगा कि ये विविध सृष्टियां किस प्रकार से हुईं, किस कारण से हुईं ? ( अथ ) तब ( कः + वेद ) आखिर कौन जानता है ( यतः + आबभूव ) किस उद्देश्य या कारण से ये सृष्टियाँ हुई |
क्या ईश्वर ने ही सृष्टि की रचना की ?
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
व्याख्याः-(यतः) ‘जिस एक’ से (इयम विसृष्टिः) ये विविध सृष्टियां ( आबभूव) हुआ करती हैं, (यदि वा दधे) यदि ‘वही एक’ इसको धारण करता है, (यदि वा न )या ‘वह एक’ भी उसको धारण नहीं करता तो( यः अस्य अध्यक्ष) क्या अन्य इसका अन्य कोई अध्यक्ष (स्वामी, निर्माता) है, या (सः परमे व्योमेन) फिर ‘वह एक’ जो अंतरिक्ष में विद्यमान है,( सः अंग वेद) वह सब कुछ जानता है? ( यदि + वा + न + वेद ) यदि वह भी नहीं जानता तो फिर दूसरा इसको कोई नहीं जानता।
"देवीभागवतपुराणम् -स्कन्धः (९) अध्याय (-३) ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनं।"
- "श्रीनारायण उवाच-अथ डिम्भो जले तिष्ठन्यावद्वै ब्रह्मणो वयः । ततः स काले सहसा द्विधाभूतो बभूव ह ॥१॥
- तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः।क्षणं रोरूयमाणश्च स्तनान्धः पीडितःक्षुधा ॥२॥
- पित्रा मात्रा परित्यक्तो जलमध्ये निराश्रयः ।ब्रह्माण्डासंख्यनाथो यो ददर्शोर्ध्वमनाथवत् ॥३॥
- स्थूलास्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् । परमा्णुर्यथा सूक्ष्मात्परः स्थूलात्तथाप्यसौ ॥ ४ ॥
- "तेजसा षोडशांशोऽयं कृष्णस्य परमात्मनः आधारः सर्वविश्वानां महाविष्णुश्च प्राकृतः ॥५॥"
- "प्रत्येकं लोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च अस्यापि तेषां संख्यां च कृष्णो वक्तुं न हि क्षमः॥६॥
- "संख्या चेद्रजसामस्ति विश्वानां न कदाचन । ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा संख्या न विद्यते ॥७॥"
- प्रतिविश्वेषु सन्त्येवं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।पातालाद् ब्रह्मलोकान्तं ब्रह्माण्डं परिकीर्तितम् ॥८॥
- "तत ऊर्ध्वं च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः । तत ऊर्ध्वं च गोलोकः पञ्चाशत्कोटियोजनः ॥९ ॥
- नित्यः सत्यस्वरूपश्च यथा कृष्णस्तथाप्ययम् । सप्तद्वीपमिता पृध्वी सप्तसागरसंयुता ॥ १०।
- ऊनपञ्चाशदुपद्वीपासंख्यशैलवनान्विता । ऊर्ध्वं सप्त स्वर्गलोका ब्रह्यलोकसमन्विताः ॥११॥
- पातालानि च सप्ताधश्चैवं ब्रह्माण्डमेव च ।ऊर्ध्वं धराया भूर्लोको भुवर्लोकस्ततः परम् ॥१२॥
- ततः परश्च स्वर्लोको जनलोकस्तथा परः ।ततः परस्तपोलोकः सत्यलोकस्ततः परः ॥ १३॥
- ततः परं ब्रह्मलोकस्तप्तकाञ्चनसन्निभः ।एवं सर्वं कृत्रिमं च बाह्याभ्यन्तरमेव च ॥ १४॥
- तद्विनाशे विनाशश्च सर्वेषामेव नारद ।जलबुद्बुदवत्सर्वं विश्वसंघमनित्यकम् ॥ १५॥
- नित्यौ गोलोकवैकुण्ठौ प्रोक्तौ शश्वदकृत्रिमौ । प्रत्येकं लोमकूपेषु ब्रह्माण्डं परिनिश्चितम् ॥१६॥
- एषां संख्यां न जानाति कृष्णोऽन्यस्यापि का कथा प्रत्येकं प्रतिब्रह्माण्डं ब्रह्मविष्णुशिवादयः॥ १७ ॥
- तिस्रः कोट्यः सुराणां च संख्या सर्वत्र पुत्रक ।दिगीशाश्चैव दिक्पाला नक्षत्राणि ग्रहादयः ॥ १८ ॥
- भुवि वर्णाश्च चत्वारोऽप्यधो नागाश्चराचराः ।अथ कालेऽत्र स विराडूर्ध्वं दृष्ट्वा पुनः पुनः ॥१९॥
- डिम्भान्तरे च शून्यं च न द्वितीयं च किञ्चन ।चिन्तामवाप क्षुद्युक्तो रुरोद च पुनः पुनः ॥ २० ॥
- ज्ञानं प्राप्य तदा दध्यौ कृष्णं परमपूरुषम् ।ततो ददर्श तत्रैव ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ॥ २१ ॥
- नवीनजलदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकातरम् ॥ २२ ॥
- जहास बालकस्तुष्टो दृष्ट्वा जनकमीश्वरम् ।वरं तदा ददौ तस्मै वरेशः समयोचितम् ॥ २३ ॥
- मत्समो ज्ञानयुक्तश्च क्षुत्पिपासादिवर्जितः ।ब्रह्माण्डासंख्यनिलयो भव वत्स लयावधि ॥ २४ ॥
- निष्कामो निर्भयश्चैव सर्वेषां वरदो भव ।जरामृत्युरोगशोकपीडादिवर्जितो भव ॥ २५ ॥
- इत्युक्त्वा तस्य कर्णे स महामन्त्रं षडक्षरम् ।त्रिःकृत्वश्च प्रजजाप वेदाङ्गप्रवरं परम् ॥ २६ ॥
- प्रणवादिचतुर्थ्यन्तं कृष्ण इत्यक्षरद्वयम् ।वह्निजायान्तमिष्टं च सर्वविघ्नहरं परम् ॥ २७ ॥
- मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः ।श्रूयतां तद् ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ॥ २८ ॥
- प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः ।तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै ॥ २९ ॥
- निर्गुणस्यात्मनश्चैव परिपूर्णतमस्य च ।नैवेद्ये चैव कृष्णस्य न हि किञ्चित्प्रयोजनम् ॥३०।
- यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः ।स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा ॥ ३१ ॥
- तं च मन्त्रवरं दत्त्वा तमुवाच पुनर्विभुः ।वरमन्यं किमिष्टं ते तन्मे ब्रूहि ददामि च ॥ ३२ ॥
- कृष्णस्य वचनं श्रुत्वा तमुवाच विराड् विभुः ।कृष्णं तं बालकस्तावद्वचनं समयोचितम् ॥ ३३ ॥
- बालक उवाच-वरो मे त्वत्पदाम्भोजे भक्तिर्भवतु निश्चला ।सततं यावदायुर्मे क्षणं वा सुचिरं च वा ॥ ३४ ॥
- त्वद्भक्तियुक्तलोकेऽस्मिञ्जीवन्मुक्तश्च सन्ततम् ।त्वद्भक्तिहीनो मूर्खश्च जीवन्नपि मृतो हि सः ॥३५।
- किं तज्जपेन तपसा यज्ञेन पूजनेन च ।व्रतेन चोपवासेन पुण्येन तीर्थसेवया ॥ ३६ ॥
- कृष्णभक्तिविहीनस्य मूर्खस्य जीवनं वृथा ।येनात्मना जीवितश्च तमेव न हि मन्यते ॥ ३७ ॥
- यावदात्मा शरीरेऽस्ति तावत्स शक्तिसंयुतः ।पश्चाद्यान्ति गते तस्मिन्स्वतन्त्राः सर्वशक्तयः ॥३८।
- स च त्वं च महाभाग सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।स्वेच्छामयश्च सर्वाद्यो ब्रह्मज्योतिः सनातनः ॥३९।
- इत्युक्त्वा बालकस्तत्र विरराम च नारद ।उवाच कृष्णः प्रत्युक्तिं मधुरां श्रुतिसुन्दरीम् ॥४० ॥
- श्रीकृष्ण उवाच सुचिरं सुस्थिरं तिष्ठ यथाहं त्वं तथा भव ।ब्रह्मणोऽसंख्यपाते च पातस्ते न भविष्यति ॥४१।
- अंशेन प्रतिब्रह्माण्डे त्वं च क्षुद्रविराड् भव ।त्वन्नाभिपद्माद् ब्रह्मा च विश्वस्रष्टा भविष्यति।४२।
- ललाटे ब्रह्मणश्चैव रुद्राश्चैकादशैव ते ।शिवांशेन भविष्यन्ति सृष्टिसंहरणाय वै ॥ ४३ ॥
- कालाग्निरुद्रस्तेष्वेको विश्वसंहारकारकः ।पाता विष्णुश्च विषयी रुद्रांशेन भविष्यति ॥ ४४ ॥
- मद्भक्तियुक्तः सततं भविष्यसि वरेण मे ।ध्यानेन कमनीयं मां नित्यं द्रक्ष्यसि निश्चितम्॥ ४५
- मातरं कमनीयां च मम वक्षःस्थलस्थिताम् ।यामि लोकं तिष्ठ वत्सेत्युक्त्वा सोऽन्तरधीयत ॥ ४६ ॥
- गत्वा स्वलोकं ब्रह्माणं शङ्करं समुवाच ह ।स्रष्टारं स्रष्टुमीशं च संहर्तुं चैव तत्क्षणम् ॥ ४७ ॥
- श्रीभगवानुवाच-सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव ।महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ॥ ४८ ॥
- गच्छ वत्स महादेव ब्रह्मभालोद्भवो भव ।अंशेन च महाभाग स्वयं च सुचिरं तप ॥ ४९ ॥
- इत्युक्त्वा जगतां नाथो विरराम विधेः सुत ।जगाम ब्रह्मा तं नत्वा शिवश्च शिवदायकः ॥ ५० ॥
- महाविराड् लोमकूपे ब्रह्माण्डगोलके जले ।बभूव च विराट् क्षुद्रो विराडंशेन साम्प्रतम् ॥ ५१ ॥
- श्यामो युवा पीतवासाः शयानो जलतल्पके ।ईषद्धास्यः प्रसन्नास्यो विश्वव्यापी जनार्दनः ॥५२।
- तन्नाभिकमले ब्रह्मा बभूव कमलोद्भवः ।सम्भूय पद्मदण्डे च बभ्राम युगलक्षकम् ॥ ५३ ॥
- नान्तं जगाम दण्डस्य पद्मनालस्य पद्मजः ।नाभिजस्य च पद्मस्य चिन्तामाप पिता तव॥५४॥
- स्वस्थानं पुनरागम्य दध्यौ कृष्णपदाम्बुजम् । ततो ददर्श क्षुद्रं तं ध्यानेन दिव्यचक्षुषा॥ ५५।
- शयानं जलतल्पे च ब्रह्माण्डगोलकाप्लुते ।यल्लोमकूपे ब्रह्माण्डं तं च तत्परमीश्वरम् ॥ ५६ ॥
- श्रीकृष्णं चापि गोलोकं गोपगोपीसमन्वितम् । तं संस्तूय वरं प्राप ततः सृष्टिं चकार सः ॥ ५७ ॥
- बभूवुर्ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः सनकादयः ।ततो रुद्रकलाश्चापि शिवस्यैकादश स्मृताः ॥५८॥
- बभूव पाता विष्णुश्च क्षुद्रस्य वामपार्श्वतः ।चतुर्भुजश्च भगवान् श्वेतद्वीपे स चावसत् ॥ ५९ ॥
- क्षुद्रस्य नाभिपद्मे च ब्रह्मा विश्वं ससर्ज ह ।स्वर्गं मर्त्यं च पातालं त्रिलोकीं सचराचराम् ॥६०॥
- एवं सर्वं लोमकूपे विश्वं प्रत्येकमेव च । प्रतिविश्वे क्षुद्रविराड् ब्रह्मविष्णुशिवादयः॥ ६१॥
- इत्येवं कथितं ब्रह्मन् कृष्णसङ्कीर्तनं शुभम् ।सुखदं मोक्षदं ब्रह्मन्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥६२॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत)स्कन्ध 9, अध्याय 3 -
ब्रह्म वैवर्त पुराण-प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3)
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- भगवान नारायण कहते हैं– नारद ! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा( अचानक) दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया।
- उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा।
- माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा।
- जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
- परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है।
- इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा विष्णु और शिव आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता।
- प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है ? ऊपर वैकुण्ठलोक है।
- यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके भी ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है।
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- श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है।
- सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है।
- पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।
- ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है।_____________________________,_
- गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं।
- वत्स नारद! देवताओं की संख्या (तीन + तीस) करोड़ है।
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- ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
- नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल ख़ाली था।
- दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया।
- तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।
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- पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया।
- कहा- ‘बेटा ! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ।
- जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अंग है। आदि में ‘ऊँ’ का स्थान है। बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं।
- अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ऊँ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है। इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं।
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- (देवी भागवत पुराण- प्रकृति खण्ड- स्कन्ध नवम् अध्याय तृतीय)
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- ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।
यह बालक महाविष्णु है।
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- विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराटमय बालक से कहा- ‘पुत्र! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।’ उस समय विराट व्यापक प्रभु ही बालक रूप से विराजमान था। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही।
- बालक ने कहा– आपके चरण कमलों मे मेरी अविचल भक्ति हो– मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परन्तु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आप में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये। जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है।
- जिस अज्ञानीजन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ-सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है।
- प्रभो! जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती। महाभाग! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं।
- आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं।
- नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करके वह बालक चुप हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे।___________________
- ब्रह्म वैवर्त पुराण
- प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3) देवी भागवत पराण
- नवम स्कन्ध तृतीय अध्याय-
- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने सूक्ष्म अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे।
- विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे सूक्ष्म अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'
- इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।
- भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’
- नारद ! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।_____________________
- ब्रह्म वैवर्त पुराण-
- प्रकृतिखण्ड: अध्याय(3) देवीभागवत पुराण नवम स्कन्ध तृतीय (अध्याय)
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- नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।
- ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए।
- साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
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- सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए।
- वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया।
- नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं।
- ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
आज भी वास्तविक अध्यात्म का प्रतिपादक श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद है।
श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्यायः में कर्मयोग का विवेचन है।
द्वितीय अध्याय में श्रीकृष्ण ने श्लोक 11 से श्लोक 30 तक आत्मतत्त्व का विवेचन कर सांख्ययोग का प्रतिपादन किया ।
बाद में श्लोक 31 से श्लोक 53 तक समस्त बुद्धिरूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को पाये हुए स्थितप्रज्ञ सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्व का प्रतिपादन किया है।
इसमें कर्मयोग की महिमा बताते हुए कृष्ण ने 47 तथा 48वें श्लोक में कर्मयोग का स्वरूप बताकर अर्जुन को कर्म करने को कहा।
49 वें श्लोक में समत्व बुद्धिरूप कर्मयोग की अपेक्षा सकाम कर्म का स्थान बहुत नीचा बताया है। 50 वें श्लोक में समत्व बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में जुड़ जाने के लिए कहा और 51 वे श्लोक में बताया कि समत्व बुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को परम पद की प्राप्ति होती है।
यह प्रसंग सुनकर अर्जुन ठीक से तय नहीं कर पाया कि मुझे क्या करना चाहिए ।
इसलिए कृष्ण से उसका और स्पष्टीकरण कराने तथा अपना निश्चित कल्याण जानने की इच्छा से अर्जुन कृष्ण से पूछता हैः
"अथ तृतीयोऽध्यायः।
अर्जुन उवाच
"ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।
अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं ?
"व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।।
अनुवाद-आप मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं | इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ।(2)
'श्रीभगवानुवाच'
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।
अनुवाद-श्री भगवनान बोलेः हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है | उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है |(3)
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न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
अनुवाद-मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है |(4)
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
अनुवाद-निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
अनुवाद-जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
अनुवाद-किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |(7)
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।8।।
अनुवाद-तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा |(8)
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।9।।
अनुवाद-यज्ञ के निमित्त किये जाने कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है।
इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर |(9)
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सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक्।।10।।
अनुवाद-प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |(10)
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।
अनुवाद-तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें इस प्रकार निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे!(11)
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इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।।12।।
अनुवाद-यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है |(12)
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यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।17।।
अनुवाद-परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है |(17)
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
अनुवाद-उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |(18)
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तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।19।।
अनुवाद-इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है |(19)
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।।
अनुवाद-जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे | इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।(20)
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।
अनुवाद-श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं | वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है |(21)
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।।
अनुवाद-हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है न ही कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |(22)
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।23।।
अनुवाद-क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं |(23)
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।24।।
अनुवाद-इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायें और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ |(24)
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।25।।
अनुवाद-हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे |(25)
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
अनुवाद-परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे |(26)
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प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।।
अनुवाद-वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है |(27)
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तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28।।
अनुवाद-परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण-ही-गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता |(28)
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प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत्।।29।।
अनुवाद-प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे |(29)
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।।
अनुवाद-सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते है| फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा |(33)
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इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
अनुवाद-इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं |(34)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।।
अनुवाद-अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है |(35)
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अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।36।।
अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है? (36)
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद् भवः
महाशनो महापाप्मा विद्धेयनमिह वैरिणम्।।37।।
अनुवाद-श्री भगवान बोलेः रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान |(37)
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।38।।
अनुवाद-जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है |(38)
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आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।।
अनुवाद-और हे अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने
वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है |(39)
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इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।
अनुवाद-इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि – ये सब वास स्थान कहे जाते हैं | यह काम( सेक्स प्रवृत्ति) इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है |(40)
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मान प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
अनुवाद-इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल |(41)
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42।।
अनुवाद-इन्द्रियों को स्थूल शरीर से परे यानि श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं | इन इन्द्रियों से परे मन है, मन से भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है |(42)
______________________________
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43।।
अनुवाद-इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |(43)
अर्थात -
इस प्रकार हे अर्जुन ! आत्मा को लौकिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो।
कठोपनिषद् में इसी सत्य को रथ " रथी तथा सारथी के उपमान विधान से प्रतिपादित किया गया है। शरीर "आत्मा" और बुद्धितत्व की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की गयी है।
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।१।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।२।
(कठोपनिषद्-1.3.3-4)
ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मेविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ।3।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'कर्मयोग' नामक तृतीय अध्याय से कुछ श्लोक उद्धृत हैं।
संसार की कामनाओं में काम (उपभोग करने की इच्छा-अथवा बुभुक्षा- का समावेश है और ये कामनाऐं अपनी तृप्ति हेतु अनैतिक और पापपूर्ण परिणामों का कारण बनती हैं । इसी पाप का परिणाम संसार की यातना और असंख्य पीड़ाऐं हैं इन कामनाओं का दिशा परिवर्तन आध्यात्मिक कारणों से ही सम्भव है।
कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का वर्णन है।
बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त, जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का संबंध को स्पष्ट करते हैं ।
संबंधित आख्यान में यम देवता के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन सार्थक: उपमा अथवा रूपक के सूचक हैं !
_________________
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।३।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
(लगाम –
इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु,
अगले मंत्र में उल्लेख
__________________
"इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।४।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)
मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है ।
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें ।
उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही ।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं ।
उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं ।
मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है ।
दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात् जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है,
सुख या दुःख के तौर पर ।
इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।
किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के उन पर नियंत्रण पर रहता है ।
इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है ।
उक्त मंत्रों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है ।
इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धिरूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
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"रथ: शरीर पुरुष सत्य दृष्टतात्मा नियतेन्द्रियाण्याहुरश्वान् ।तैरप्रमत:कुशली सदश्वैर्दान्तै:सुखं याति रथीव धीर:।२३।
षण्णामात्मनि युक्तानामिन्द्रयाणां प्रमाथिनाम् । यो धीरे धारयेत् रश्मीन् स स्यात् परमसारथि:।२४।
इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु धृतिं कुर्वीत सारथ्येधृत्या तानि ध्रुवम्।२५।
इन्द्रियाणां विचरतां यनमनोऽनु विधीयते। तदस्य हरते बुदिं नावं वायुरिवाम्भसि ।२६।
येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्सु मोहात् फलागमम्। तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् ।२७।
इति महाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेय समस्या पर्वणि ब्राह्मण व्याधसंवादे एकादशाधिकद्विशततमोऽध्याय:(211 वाँ अध्याय)
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अनुवाद:-
पुरुष का यह प्रत्यक्ष देखने में आने वाला स्थूल शरीर रथ है। आत्मा (बुद्धि) सारथि है और इन्द्रियों को अश्व बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर रथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुख पूर्वक मार्ग तै करता है, उसी प्रकार सावधान, धीर एवं साधन-कुशल पुरुष इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा पूर्ण करता है।२३।
जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्य विद्यमान छ: प्रमथन शील इन्द्रिय रुपी अश्वों की बागडोर संभालता है, वही उत्तम सारथि हो सकता है। २४।
सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्य पूर्वक प्रयत्न करे। धैर्यपूर्वक उद्योग करने वाले को उन पर अवश्य विजय प्राप्त होती है ।२५।
जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि हर लेती है ।२६।
सभी मनुष्य इन छ: इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों में उनसे प्राप्त होने वाले सुखरुप फल पाने के सम्बन्ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्यानजनित आनन्द का अनुभव करता है।२७।
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इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेय समस्या पर्व में ब्राह्मण व्याध संवाद विषयक दो सौ ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ
आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में "स्वर् अथवा "स्व: कह कर वर्णित किया है। परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् का ही सम्प्रसारित रूप है । आद्य-जर्मनिक भाषाओं:- swḗsa( स्वेसा )तथा swījēn(स्वजेन) शब्द आत्म बोधक हैं ।
अर्थात्( own, relation आत्मसम्बन्ध) प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक में:
1-swēs (a) 2-`own'; swēs n. (b) `property' 2- पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s =`lieb, traut' 3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum
4-Old English: swǟs `lieb, eigen' स्वस्-5-Old Frisian: swēs `verwandt'; sīa `Verwandter' 6-Old Saxon: swās `lieb' 7-Old High German: { swās ` 8-Middle High German: swās Indo-European Proto- indo European se-, *sow[e] *swe- स्व
9-Old Indian: poss. svá- 10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian: 11-OldPersian huva- 'eigen, suus' 12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi' 13-Latin: sibī, sē; sovos (OldLat), suus 14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology 15- Old Lithuanian: sawi, sau. संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में भी स्व: शब्द आदि काल से आत्म बोधक है। अंग्रेज़ी में (Soul )सॉल आत्मा का वाचक है।
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अर्थात् --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है। अत: स्वस्थ और स्वास्थ्य शारीरिक सन्तुलन के पक्ष नहीं थे। अपितु आत्मिक यथा स्थिति का वाचक थे। परन्तु आज इसका विपरीतार्थ है।
योग स्वास्थ्य का साधक है । भागवत उत्थान गुप्तकाल पञ्चम् सदी में पुन: सम्पादित श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बतायी है ।
भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇
"श्रीमद्भगवत् गीता(2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर ! क्यों कि समता ही योग है।
समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है. भगवद्गीता के अनुसार -👇 " तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् " अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है ।
कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇 ____________________________________ बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।। बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। तब यह समता योग है । अतः तू योग(समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।।
🌸 पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं। --जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं ।
मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा।
यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं ।
जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है ।
और मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में घुमाता है ।
संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं।
योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है । इसमें भी युति( युत्) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है ।👇
use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume," पुरानी लैटिन में युति क्रिया है । जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज (Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है ।
जिससे (युज् घञ् ) इन धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है । ____________________________________ योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है । 👇 योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है । योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।
इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध। और चित्त की वृत्ति क्या हैं मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है। योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇
१-क्षिप्त,
२-मूढ़
३-विक्षिप्त,
४-एकाग्र और
५-निरुद्ध।
चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) जो स्वभाव जन्य हैं साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है ।
--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है । साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।
स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं— 👇
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ।
१- संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं । २-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि ( -जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है।
और वही बुद्धि है और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं । योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते ।
वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती।
🌸🌸🌸 योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—१:- प्रमाण, २-विपर्यय,३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं ।
चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं । नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।
१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है २-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना – विकल्प है
३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है
४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है यह जाग्रति का बोध है ।
पच-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है।
परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में माना है जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है । खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है ।
वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी होते हैं ।
ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।
भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।
जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।
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पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रिम, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।
यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन का रूप है। _____________________________________________
इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं। उपस्थिति मानव में पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
यह अधिचेतक भाग का अवयव है।
-- और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है । योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है। और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है । और ज्ञान ही जान है । अस्तित्व की पहिचान है ।
कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।👇 ________________________________________________
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।। इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।। ( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ ) अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है । अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है। --जो स्वयं चालक नहीं है । यह शरीर रथ है । बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े । और आगे तो आप समझ ही गये होंगे । एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता को रूप में स्वीकार किया जा सकती है । --जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है ।
"प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे।
कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में भी था ।
परन्तु उसे हटा दिया गया । यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है । वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है ।
और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जानलें । और मन केवल प्रग्रह (पगाह)--या लगाम है। अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। जिसका नियन्त्रण बुद्धि के हाथों में मन का नियन्त्रण होता है । विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।
और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास( भोजन) आदि।
वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है जब उसमें अहं का भाव हो जाय ।
परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है।
क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं ।
जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं ।
परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है ।
आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात् सच्चिदानन्द।
अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है।
और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है।
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है _________________________________________________
पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है ।
वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना पड़ेगा ।
क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।👇 अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।
10.33।।
मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।
अर्थात् ये मेरी विभूतियाँ हैं।
भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"। अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है। और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए ।
"अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ ।
दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है ।
"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है । और "अ" आत्मा के रूप में ।
अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है।
हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है ।
मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात् द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है ।
संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है।
द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है ? जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है।
अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता ? -जैसे माया और ईश्वर ।
परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद।
मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ।
वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ?
जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है।
अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है।
प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है।
अत: मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ। मैं धाता हूँ ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है ।
उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों ।
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अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है । तब ही (स्व:) की स्थति स्वास्थ्य है । परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे ।
यानि शरीर की नीरोग अवस्था ।
परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है । _________________________________________________
यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है।
जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है।
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है । और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं! सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है।
और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए । क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है। .मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ। जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं।
इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है।
यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है ।
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"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके . तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45) -
---हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात् इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ! श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।। (श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है। समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है ।
अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।
बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्" तथ्य से पूर्ण रूपेण है। बुद्ध स्वयं कृष्ण के सिद्धान्तों से प्रेरित थे।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय। सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। योग: कर्मसुु कौशलम्" ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।
जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ;
उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं।
महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे। इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।
प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
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‘अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस। गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’
अनुवाद:-
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा। गृह निर्माण करने वाले की खोज में। बार-बार जन्म दुःखमय हुआ।
श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है जहां महात्मा बुद्ध ने अपने 2 या 4 नहीं अपित लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।
वहां उन्होंने कहा है--
भिक्षुओं ! कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है--
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“अनेकजातिसंसार, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारकं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं ॥”
–
अनुवाद:-अनेक जन्मों तक बिना रुके संसार में, दौड़ता रहा। इस कायारूपी घर बनाने वाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दुःखमय जन्म में पड़ता रहा।
“गहकारक! दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खितं ।
विसंखारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा॥”
– गृहकारक । अब तुझे देख लिया है! अब तू पुनः घर नहीं बना सकेगा। तेरी सारी कड़ियाँ भग्न हो गयी हैं। घर का शिखर भी विशृंखलित हो गया है। संस्कार रहित चित्त में तृष्णा का समूल नाश हो गया है।
“सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्त परियोदपनं, एतं बुद्धानसासनं ॥”
– सभी प्रकार के पापों को न करना; कुशल [पुण्य] कार्यों का संपादन करना; अपने चित्त को परिशुद्ध करना; यह है समस्त बुद्धों की शिक्षा ।
“तुम्हेहि किच्चं आतप्पं, अक्खातारो तथागता ।
पटिपन्ना पमोक्खन्ति, झायिनो मारबन्धना ॥”
– सभी तथागत बुद्ध केवल मार्ग आख्यात कर देते हैं; विधि सिखा देते हैं, अभ्यास और प्रयत्न तो तुम्हें ही करना है। जो स्वयं मार्ग पर आरूढ़ होते हैं; ध्यान में रत होते हैं, वे मार यानी मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
“अत्ता हि अत्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति ।
तस्मा सञमयत्तानं, अस्सं भद्रं व वाणिजो॥”
– तुम आप ही अपने स्वामी हो, आप ही अपनी गति हो! अपनी अच्छी या बुरी गति के तुम आपही तो जिम्मेदार हो! इसलिए अपने आपको वश में रखो वैसे ही, जैसे कि घोड़ों का कुशल व्यापारी श्रेष्ठ घोड़ों को पालतू बनाकर वश में रखता है। संयत रखता है।
“मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुद्वेन, भासति वा करोति वा।
ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्कं व वहतो पदं ॥
मनसा चे पसनेन, भासति वा करोति वा ।
ततो नं सुखमन्वेति छायाव अनपायिनी ॥”
– सभी धर्म (अवस्थाएं) पहले मन में उत्पन्न होते हैं। मन ही मुख्य है, ये धर्म मनोमय हैं। जब आदमी मलिन मन से बोलता या कार्य करता है तो दुःख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे गाड़ी के पहिये बैल के पैरों के पीछे-पीछे । जब आदमी स्वच्छ मन से बोलता है या कार्य करता है तो सुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे कभी साथ न छोड़ने वाली छाया ।
“फुट्ठस्स लोकधम्मेहि, चित्तं यस्स न कम्पति ।
असोकं विरजं खेमं, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥”
– आठो लोकधर्मों (लाभ-हानि, यश-अपयश, सुख-दुःख, निंदा-प्रशंसा) के स्पर्श से चित्त विचलित नहीं होने देना, निःशोक, निर्मल और निर्भय रहना- ये श्रेष्ठ मंगल हैं।
“चक्खुना संवरो साधु, साधु सोतेन संवरो ।
घाणेन संवरो साधु, साधु जिह्वाय संवरो।
कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो ।
मनसा संवरो साधु, साधु सब्बत्थ संवरो।
सब्बत्थ संवुतो भिक्खु, सब्बदुक्खा पमुच्चति ॥”
– आँख का संवर [संयम] भला है। भला है कान का संवर! नाक का संवर भला है भला है जीभ का संवर!
शरीर का संवर भला है भला है वाणी का संवर!
मन का संवर भला है भला है सर्वत्र संवर!
(मन और काया स्कंध में) सर्वत्र संवर रखने वाला भिक्षु (साधक) सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।
“यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं।
लभती पीतिपामोजं, अमतं तं विजानतं ॥”
– साधक सम्यक सजगता के साथ जब-जब शरीर और चित्त स्कंधों के उदय-व्यय रूपी अनित्यता की विपश्यनानुभूति करता है तब-तब प्रीति-प्रमोद रूपी अध्यात्म सुख की उपलब्धि करता है। यह जानने वालों के लिए अमृत है।
“सब्बे सङ्खारा अनिच्चा’ति, यदा पञ्जाय पस्सति ।
अथ निबिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया ॥”
– सभी संस्कार अनित्य हैं, यानी जो कुछ उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है। इस सच्चाई को जब कोई विपश्यना-प्रज्ञा से देखता है तो उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं। ऐसा है यह विशुद्धि का मार्ग!
“अनिच्चावत सङ्खारा, उप्पादवय धम्मिनो।
उपज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वुपसमो सुखो ॥”
– सचमुच! सारे संस्कार अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तु, व्यक्ति अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना, यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है। विपश्यना-साधना के अभ्यास द्वारा उत्पन्न हो कर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब पूर्णतया उपशमन हो जाता है – पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, वही परम सुख है। वही निर्वाण-सुख है।
“सब्बो पज्जलितो लोको, सब्बो लोको पकम्पितो।”
– सारे लोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं। सारेलोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं। सारे लोक प्रकम्पित ही प्रकम्पित है।
“खीणं पुराणं नवं नथिसम्भवं, विरत्तचित्तायतिके भवस्मि। ते खीणबीजा अविरुळ्हिछन्दा, निब्बन्ति धीरा यथायं पदीपो॥”
– जिनके सारे पुराने कर्म क्षीण हो गये हैं और नयों की उत्पत्ति नहीं होती; पुनर्जन्म में जिनकी आसक्ति समाप्त हो गयी है, वे क्षीण-बीज तृष्णा-विमुक्त अर्हत उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त होते हैं जैसे कि तेल समाप्त होने पर यह प्रदीप!
“कत्वान कट्ठमुदरं इव गन्भिनीयं। चिञ्चाय दुट्ठवचनं जनकाय मज्झे। सन्तेन सोम विधिना जितवा मुनिन्दो। तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि”
– पेट पर काठ बाँध कर गर्भिणी का स्वांग भरने वाली चिञ्चा द्वारा भरी सभा के बीच कहे गये दुष्ट वचनों को जिन मुनींद्र भगवान बुद्ध ने शांति और सौम्यता के बल पर जीत लिया, उनके तेज प्रताप से जय हो! मंगल हो!!
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प्रथम प्रबल प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
देखें--- अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस। गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है। सैद्धान्तिक कषौटी पर यह तथ्य प्रमाणित भी हो गया है, कि परमाणु अविनाशी है ,और संसार की निर्माण इकाई है परमाणु सृष्टि की पूर्ण इकाई अर्थात् व्यष्टि रूप है।
संस्कृत साहित्य में अणु शब्द जीव का वाचक है। (अन्- धातु से व्युत्पन्न है।
"अण्यते येन असौ अणु कथ्यते " अण् :- शब्दे प्राणने च आत्मने पदीय क्रिया रूप (अण--उन् ) क्षुद्रे, सूक्ष्मपरिमाणवति, द्रव्ये, लेशे च । (चिना, काङनी, श्यामा) प्रभृति सूक्ष्मधान्ये पुल्लिङ्गः। “अनणुषु दशमांशोऽणुष्वथैकादशांश” इति लीलावती ।
अणुशब्दोहि परिमाणविशेषवाची । ग्रीक भाषा में भी ऐटम {Atom}शब्द का अभिधेय अर्थ है----×----अकाट्य तत्व ---अर्थात् जिसे काटा नहीं जा सकता है वही ऐटम है ----- ✳⛔. Atom--a particle of matter so small that so far as the older chemistry goes..Cannot be Cut (Temnein) or divided... अर्थात् पदार्थ का सबसे शूक्ष्मत्तम कण जिसे और काटा नहीं जा सकता है , वही एटम atom है।
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संस्कृत भाषा में ऐटम शब्द का भाषान्तरण परमाणु शब्द के रूप में किया है, परमाणु शब्द का संस्कृत भाषा में अभिधात्मक अर्थ होता है। .. सबसे शूक्ष्म जीव (अणुः) ...ऐटम शब्द A नकारात्मक उपसर्ग तथा Tomos क्रियात्मक विशेषण से बना हुआ रूप है .
.Tomos का भी धातु रूप (क्रिया का मूल रूप) Temnein =to cut अर्थात् काटना है । ..Atoms -A priv.and tomos----Verbal adjective form of Temnein Rootword ...A=-privation of tomos..A tomos ... इस शब्द के अतिरिक्त ग्रीक भाषा में सत्तावान् तत्व का वाचक ऐटिमॉन Etymon..शब्द भी है, जिसका मूल रूप (Etymos) है।
इसी सन्दर्भ में हम यह भी स्पष्ट कर दें की ग्रीक भाषा में ऐटमॉस (Atmos) शब्द का मूल अर्थ वायु तथा बाष्प और शूक्ष्म तत्व भी है। और तो ऑटोस् (Autos) शब्द भी आत्मा का वाचक है । जिसका तादात्म्य संस्कृत स्वत: शब्द से प्रस्तावित है । ________________________________________________
पारसी धर्म ग्रंथ अवेस्ता ए झन्द में संस्कृत शब्द स्वयं ( स्वत:) ख़ुद बन गया और इसी से आगेे चल कर ख़ुदा शब्द का भी विकास हुआ है।
अब हम यह प्रतिपादित करेंगे कि आत्मा और एटम वास्तव में क्या है? (सबसे छोटा आत्मा ) सृष्टि की हर वस्तु की निर्माण की शूक्षत्त्तम इकाई परमाणु है। जो काटा नहीं जा सकता है - संस्कृत भाषा में प्राचीन काल से आत्मा का वाचक प्रेत शब्द है।
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अनुवाद:- (व्युत्पत्ति और अर्थ) "Ātman" (आत्मा, आत्म, आत्मन्) एक संस्कृत शब्द है। जिसका अर्थ है "सार, श्वाँस, आत्मा। "
यह मूल भारोपीय (एटमेन) से संबंधित है (जिसका मूल अर्थ है "श्वाँस"; cognates:डच भाषा में आडेम (Dutch adem) , पुरानी उच्च जर्मन में (एटम ="सांस," }आधुनिक जर्मन में एटमेन= "साँस लेना" और एटेम "श्वसन, सांस",और पुरानी अंग्रेज़ी एडियन )। ________________________________________________
Ātman, कभी-कभी विद्वानों के साहित्य में (एटमन) के रूप में एक डाइकाट्रिक के बिना वर्तनी, का अर्थ "वास्तविक स्व" है।
"सबसे सरल तत्व" और आत्मा।
श्रीमद्भगवद् गीता का यह श्लोक प्रमाण रूप में है 👇"नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक । चैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।।
अर्थात् शस्त्राणि जिसे काट नहीं सकता , अग्नि जला नहीं सकती और जल भिगोय नहीं सकता, और न वायु जिसे सुखा सकती है , वह आत्मा है ________________________________________________
यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल (Neutral) है। परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा बीटा गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध है।
भौतिक शास्त्री लेप्टॉन क्वार्क तथा गेज बोसॉन नामक मूल कणों को भी परमाणु के ही मूल में भी स्वीकार करते हैं ।
परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक (Nucleus)भी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं ,
जैसे सत्य का समायोजन ब्रह्म से हो। .
क्यों कि ब्रह्म द्वन्द्व भाव से सर्वथा परे है।
परन्तु उसका साक्षात्कार सत्याचरण से ही सम्भव है ।
अत: सत्य और ब्रह्म का इतना सम्बन्ध अवश्य है विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन हैं।
जो कक्षाओं में चक्कर काटते रहते हैं । इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है ।
अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी है।
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परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है ।
प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है । तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक आवेश होता है । और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओरआकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।
एैसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है ।
परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है _______________________________________________
यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में आत्मा शब्द अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान है जैसे -
1-पुरानी अंगेजी में--Aedm 2-डच( Dutch) भाषा में Adem रूप 3-प्राचीन उच्च जर्मन में Atum = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस-- 4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना परन्तु Auto शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है । जो की Hotos रूप में था ।
जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है ।
श्रीमद् भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को👇 नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न च एनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।। कृष्ण का यह विचार ड्रयूड Druids अथवा द्रविड दर्शन से प्रेरित है ।
आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान अनन्त शक्ति और यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है।
क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है ।
ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है । __________________________________________
"ज्ञा" धातु जन् धातु का ही विपर्यय अथवा सम्प्रसारण रूप है । सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं। जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं मकरन्द (पुष्प -रस )है ;
आत्मा सत्य है । क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ;
ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं ।
परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है ।
और अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है । अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ;
उसका स्वभाव है यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है।
क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है। अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं यही द्वन्द्व सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है।
स्त्री स्वभाव से ही वस्तुत: कहना चाहिए प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है। इसके परोक्ष में सृष्टा सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है ।
वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है । अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है।
और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है । ---आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है। जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है ।
ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों भी प्रकट हो जा है ।
परन्तु इन सब के मूल में आवेश अथवा इच्छा ही होती है । और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है !
जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है । परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञाति नहीं :- **************************************
ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न !
श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न ।
पर खोज अभी तक जारी है ।
अपने स्वरूप से मिलने की ।
हम सबकी अपनी तैयारी है ।
आशा के पढ़ाबों से दूर निकर
संसार में किसी पर मोह न कर "
ये हार का हार स्वीकार न कर
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है ।
शोक मोह में तू क्यों खिन्न है ।
कुछ पल के रिश्ते सब भिन्न है ।
रोहि' मतलब की दुनियाँ सारी है। **************************************
शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है ।
जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है। परन्तु परछाँईयों में ,परन्तु सबकी समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा साक्षात्कार ही है । और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है। और एक संकीर्ण वृत्त (दायरा)भी ।
यह एक बिन्दुत्व का भाव ( बूँद होने का भाव )है जबकि स्व: मे आत्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है।
यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है । व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है ।
परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है।
इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________
अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर , इनकी कार्य शैली में यही बड़ा अन्तर है।
संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द के अनेक प्रासंगिक अर्थ भी हैं जैसे :---- १--वायु २--अग्नि ३---सूर्य ४--- व्यक्ति --स्त्री पुरुष दौनो का सम्यक् (पूर्ण) रूप ५---ब्रह्म जो कि द्वन्द्व से सर्वथा परे है।
मिश्र की प्राचीन संस्कृति में आत्मा एटुम (Atum के रूप में सृष्टि का सृजन करने वाले प्रथम देवता के रूप में मान्य है ।
कालान्तरण में मिश्र की संस्कृति में यह रूप "Aten" या "Aton"के रूप में सूर्य देव को दे दिया गया ,
प्राचीन मिश्र के लोग भारतीयों के समान सूर्य को विश्व की आत्मा मानते थे । मिश्र की संस्कृति में आतुम Atum का स्वरूप स्त्री और पुरुष दौनो के समान रूप में था ।
👇और यही (एतुम )वास्तव में सुमेर और बैबीलॉन की संस्कृतियों में आदम के रूप उदित हुआ , जो स्त्री और पुरुष दौनो का वाचक है- और यही से आदम शब्द हिब्रू परम्पराओं में उदय हुआ जिसका समायोजन कुछ अल्पान्तरण के साथ यहूदी.ईसाई तथा इस्लामी शरीयत ने किया है ।
"मिश्र देश वालों की अवधारणा थी; की आतुम( Atum) पूर्ण तथा अनादि देव है ।
जिसने समग्र सृष्टि का सृजन कर दिया है । इसी सन्दर्भ में भारतीय उपनिषदों ने कहा है आत्मा केविषय में जो ब्रह्म के अर्थ में है-- _______________________________________________
पूर्णम् अदः पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उद्च्यते । . पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् इव अवशिष्यते .।। ________________________________________
( सन्दर्भ- ईशावास्योपनिषद) अर्थात् यह आत्मा पूर्ण है और इस पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही अवशेष बचता है ।
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