बुधवार, 11 अक्तूबर 2023

कृष्ण का अस्तित्व- भाग १-

( प्रश्न- १-) कृष्ण केवल पौराणिक एवं महाभारत ग्रन्थ सम्बन्धी अवधारणा है  साइन्स जर्नी यूट्यूब चैनल ने कृष्ण को आठवीं सदी की उत्पत्ति माना और उन्हे कुषाण वंशीय वासुदेव से सम्बन्धित कर दिया  जिसका समय कनिष्क के काल के वर्ष 64 से 98 वर्ष तक है।

वासुदेव नामांकित शिलालेखों से पता चलता है कि उसका शासनकाल कम से कम 191 से 232 ईस्वी तक था।

भारत में कुषाण वंश की स्थापना "कुजुल कडफिसेस" ने की। 
कुजुल कडफिसेस एक कुषाण राजकुंवर था जिसने पहली सदी ईसवी में युएझ़ी परिसंघ को संगठित किया और पहला कुषाण सम्राट बना। अफ़ग़ानिस्तान के बग़लान प्रान्त में सुर्ख़ कोतल नामक पुरातन स्थल में पाए गए रबातक शिलालेख के अनुसार कुजुल कडफिसेस प्रसिद्ध कुषाण सम्राट कनिष्क का पर-दादा था। 

कुषाण चीन की यू-ची जाति से थे और तुषारी लोग कहे जाते थे। तुषारों का वर्णन भारतीय पुराणों में है।

 यू-ची  कुछ इतिहास कार कुषाणों को यू-ची कबीले का कहते हैं। जिनका मिलान इतिहास कारो ने गूजर "अहीर और जाटों से किया गया। 

पौराणिक कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 वर्ष पूर्व हुआ था। 

कई वैज्ञानिकों तथा पुराणों का यही मानना है, जो महाभारत युद्ध की कालगणना से मेल खाता है। भगवान कृष्ण के जन्म का सटीक अंदाजा शायद ही कोई लगा पाए। इस विषय पर कई मतभेद हैं परंतु सारगर्भित तथ्यों पर ध्यान डालें तो सारे परिणाम अपने स्थान पर सत्य हैं।

भागवत महापुराण के द्वादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरंभ के संदर्भ में भारतीय काल गणना के अनुसार कलयुग का शुभारंभ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकंड पर हुआ था। 

पुराणों में बताया गया है कि जब श्रीकृष्ण का देहावसान हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ। इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ईसा पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा।

इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। 
अर्नेस्ट मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बालक का चित्र बना हुआ था, जो हमें भागवत आदि पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है।
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इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 3000 ईसा पूर्व हुआ होगा, जो पुराणों की गणना में सटीक बैठता है। यद्यपि पुराण और महाभारत में कालान्तर में श्लोकों का परिवर्धन किया गया है।

श्रीकृष्ण का रूपवर्णन-★
श्रीकृष्ण की बारंबार वर्णित छवि के अनुसार उनकी अंगकांति श्याम (सांवली)थी। वे नित्य तरुण पीताम्बरधारी और विभिन्न् वनमालाओं से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन भुजाओं में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान थे। 
वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। शारंगधनुष धारण किए हुए थे। कौस्तुभ मणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में लक्ष्मी का निवास था। शरत्काल की पूर्णिमा के चंद्रमा की प्रभा से वे मनोहर जान पड़ते थे।

इतिहास और पुरातत्त्व में श्रीकृष्ण-★
सुविख्यात इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उनका पारंपरिक शस्त्र : चक्र।
यह शस्त्र वैदिक नहीं है और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से दैत्यों पर  (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है।
अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई पू, जबकि मोटे तौर पर, वाराणसी में पहली बस्ती की नींव पड़ी थी। दूसरी ओर, ऋग्वेद में कृष्ण को इंद्र का शत्रु बताया गया है,!

और उनका नाम श्यामवर्ण  देवों से  पूर्व  आगत लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वे एक वीर योद्धा थे और यदु कबीले के नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पांच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है, उनमें से यदु कबीला एक था);
 परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है।
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अंत का इतिहास वास्तव में यादव गणतंत्र के अंत का इतिहास है।
 महाभारत का एक पर्व है-भीष्म पर्व। भीष्म पर्व का अध्याय पच्चीस से लेकर अध्याय बयालीस तक वस्तुत: गीता का क्रमश: अध्याय एक से लेकर अध्याय अठारह है। महाभारत में भीष्म पर्व और भीष्म पर्व में रखी हुई है गीता। 
गीता यद्यपि पाँचवी सदी में पुरोहित वाद की चपेट में थोड़ी सी आ गयी है। परन्तु आध्यात्मिकता लगभग सुरक्षित है।

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जैन और बौद्ध साहित्य में कृष्ण-★
कम ही लोगों को जानकारी होगी कि तीर्थंकर नेमिनाथ श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। संन्यास लेने से पूर्व उनका नाम अरिष्टनेमि था। जैन साहित्य एवं आगमिक कृतियों में कृष्ण को अति विशिष्ट पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है।
'उत्तराध्ययन' के अनुसार कृष्ण का जन्मनाम केशव था। उन्हें 'कण्ह' या कृष्ण संभवत: श्यामवर्णी होने के कारण कहा जाता रहा होगा।

उनके पितामह का नाम अंधकवृष्णि बताया गया है, जिनके पुत्र हुए वसुदेव और उन्हीं के पुत्र वासुदेव कहलाए। 

कृष्ण की नगरी का नाम उत्तराध्ययन में (वारगापुरी) मिलता है, जो नौ योजन पर्यंत थी। नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में रैवतक पर्वत था, जिस पर नंदनवन था। कृष्ण की सभा का नाम सुधर्मा था। दूसरे महत्वपूर्ण जैनागम 'निरयावलिका' में आए वर्णन के अनुसार कृष्ण की इस सभा में तीन तरह की भेरियां थीं : कौमुदी, सामुदायिन और सन्‍नाहिका, जिन्हें विभिन्न अवसरों पर बजाया जाता था। कृष्ण का राज्य वैताढ्य पर्वत से लेकर द्वारावती तक फैला हुआ बताया गया है।
 इसी प्रकार कण्ह जातक नाम से एक बौद्ध ग्रंथ उपलब्ध है। उसमें कृष्‍ण का विवाह महरूपी नामक कन्या से करवाया गया है।  यहां कृष्ण  को ओक्काक यानी इक्ष्वाकु वंशी कहा गया है। 
घत-जातक में कृष्ण की कहानी दूसरे ढंग से कही गई है। कृष्ण चर्चा बौद्ध गाथाओं में भी है, मगर बिलकुल अपनी निजी भंगिमा के साथ।
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 "उत्तर- समाधान -
उत्तर-१ 
सबसे पहले तो यह मानना भी युक्ति युक्त नहीं कि कुषाण वंशी वासुदेव ही कृष्ण का रूपान्तरण है। हाँ इतना कहा जा सकता है कि सम्भवत: वासुदेव कनिष्क के उत्तराधकारी मध्य एशिया( तुर्की और  चीनी यू-ची कबीले के थे जो चरावाहे थे। कृष्ण का स्वतन्त्र उल्लेख ऋग्वेद से लेकर छान्दोग्य
उपनिषद में भी मिलता है जो पुराणों और रामायण, महाभारत से प्राचीनतम दस्तावेज  हैं। 

सिन्धु सभ्यता की मोहन-जादारो की खुदाई में भी कृष्ण चरित्र से सम्बंधित ओखल बन्धन और यमलार्जुन वृक्षों के दृश्य से अंकित पत्थर मिले हैं।

मोहन-जो-दारो  सिंधी शब्द है। : जिसका अर्थ है 'मृतकों का टीला'  और कभी-कभी इसका अर्थ  'मोहन का टीला' होता है। 
यह पाकिस्तान के सिंध प्रांत में एक पुरातात्विक स्थल है । लगभग 2500 ईसा पूर्व निर्मित, यह प्राचीन काल की सबसे बड़ी बस्ती थी सिंधु घाटी सभ्यता , और दुनिया के शुरुआती प्रमुख शहरों में से एक, प्राचीन मिस्र , मेसोपोटामिया ,  यूनान की मिनोअन क्रेते और नॉर्टे चिको की सभ्यताओं के समकालीन है । 

कम से कम 40,000 लोगों की अनुमानित आबादी के साथ, मोहनजो-दारो लगभग 1700 ईसा पूर्व तक समृद्ध रहा। और 
सिन्धु घाटी की सभ्यता सम्भवतः ईसा पूर्व नवम सदी तक जीवन्त रही होगी ।
कृष्ण ,शिव, दुर्गा जैसे पौराणिक पात्रों की प्रतिमाएँ यहाँ मिली हैं।
यह मोहनजो-दारो, लरकाना जिले, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से खोदी गई एक पत्थर की  टेबलेट है। यह भगवान कृष्ण के जीवन की एक महत्वपूर्ण कहानी के साथ अद्भुत समानता दर्शाता है।

टैबलेट में एक बालक को दो पेड़ों को उखाड़ते हुए दिखाया गया है। इन दोनों पेड़ों से दो मानव आकृतियाँ निकल रही हैं और कुछ पुरातत्वविदों ने इसे भगवान कृष्ण से जुड़ी तारीखें तय करने के लिए एक दिलचस्प पुरातात्विक खोज करार दिया है।
यह छवि यमलार्जुन प्रकरण (भागवत और हरिवंश पुराण दोनों में उल्लिखित) से मिलती जुलती है। टैबलेट पर मौजूदबालक के भगवान कृष्ण होने की बहुत संभावना है, और पेड़ों से निकलने वाले दो इंसान दो शापित गंधर्व हैं, जिन्हें नलकूबर और मणिग्रीव के रूप में पहचाना जाता है।

ऊपर: मोहन जो-दारो, लरकाना जिला, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से सोपस्टोन(यह एक रूपांतरित मैग्नीशियम युक्त चट्टान है, ) इस प्रकार की | 0 टैबलेट की खुदाई की गई। स्रोत - मैके की रिपोर्ट, भाग 1, पृष्ठ 344-45, भाग 2, प्लेट 90, वस्तु संख्या। डीके 10237.

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दिलचस्प बात यह है कि मोहनजो-दारो में खुदाई करने वाले डॉ. ईजेएच मैके ने भी इस छवि की तुलना यमलार्जुन प्रकरण से की है।

 इस विषय के एक अन्य विशेषज्ञ प्रो. वीएस अग्रवाल ने भी इस पहचान को स्वीकार किया है। इसलिए, यह काफी संभव है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भगवान कृष्ण की कहानियों से अवगत थे।

 बेशक, इस तरह का एक और पृथक साक्ष्य तथ्यों को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। हालाँकि, सबूतों को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस सन्दर्भ में और अधिक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है।

द्वारका के साथ सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों (पूरे उपमहाद्वीप में) की भौगोलिक निकटता को देखते हुए, इस कोण को भी ध्यान में रखते हुए अनुसंधान किया जाना चाहिए। जबकि मोहनजो-दारो शब्द का आम तौर पर स्वीकृत अर्थ 'मुर्दों का टीला' है, इसके समानांतर अर्थ - 'मोहन का टीला' की जांच की भी कुछ गुंजाइश है। 

समानता एक संयोग से भी अधिक हो सकती है!
रुचि रखने वालों के लिए मोहन -जो-दारो की पृष्ठभूमि की जानकारी (स्रोत:www.harappa.com)
मोहनजो-दारो की खोज मूल रूप से 1922 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक अधिकारी आरडी बनर्जी ने की थी, हड़प्पा में प्रमुख खुदाई शुरू होने के दो साल बाद। बाद में, 1930 के दशक के दौरान जॉन मार्शल, केएन दीक्षित, अर्नेस्ट मैके और कई अन्य लोगों के निर्देशन में साइट पर बड़े पैमाने पर खुदाई की गई।

हालाँकि उनके तरीके उतने वैज्ञानिक या तकनीकी रूप से अच्छे नहीं थे जितने होने चाहिए थे, फिर भी वे बहुत सारी जानकारी लेकर आए जिसका अभी भी विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है।
इस स्थल पर अंतिम प्रमुख उत्खनन परियोजना 1964-65 में स्वर्गीय डॉ. जीएफ डेल्स द्वारा की गई थी, जिसके बाद मौसम से उजागर संरचनाओं को संरक्षित करने की समस्याओं के कारण खुदाई रोक दी गई थी।

1964-65 के बाद से साइट पर केवल बचाव उत्खनन, सतह सर्वेक्षण और संरक्षण परियोजनाओं की अनुमति दी गई है। इनमें से अधिकांश बचाव अभियान और संरक्षण परियोजनाएं पाकिस्तानी पुरातत्वविदों और संरक्षकों द्वारा संचालित की गई हैं।
1980 के दशक में व्यापक वास्तुशिल्प दस्तावेज़ीकरण, विस्तृत सतह सर्वेक्षण, सतह स्क्रैपिंग और जांच के साथ मिलकर जर्मन और इतालवी सर्वेक्षण टीमों द्वारा डॉ. माइकल जानसन (आरडब्ल्यूटीएच) और डॉ. मौरिज़ियो तोसी (आईएसएमईओ) के नेतृत्व में किया गया था।

हड़प्पा सभ्यता की तिथि कार्बन डेटिंग पद्धति द्वारा 2500 ई०पूर्व से (1750) ई० पूर्व तक निर्धारित की जती है।


शिलापट पर श्रीकृष्ण जन्म के प्रमाण-†
भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा में जन्म लेने को लेकर यूं कोई संदेह नहीं। धर्मग्रंथों में उनकी न जाने कितनी लीलाओं का वर्णन है। इसके पुरातात्विक प्रमाण भी मौजूद हैं, लेकिन आमतौर पर जानकारी में नहीं हैं। सत्तानवे साल पहले गताश्रम टीला से मिली मूर्ति को भगवान कृष्ण के जन्म का पुरातत्व में पहला प्रमाण है। 
Publish:Sun, 17 Aug 2014 02:37 PM (IST)Updated:Sun, 17 Aug 2014 02:58 PM (IST

 इस क्रम में पहले  हम तमिलनाडु के ऐतिहासिक नगर महाबलिपुरम् से सम्बन्धित तथ्यों का विश्लेषण करते हैं।

जिसमें प्राप्त शिलाओं पर कृष्ण बांसुरी बजाते हुए अंकित हैं।
यह ऐतिहासिक सन्दर्भ है-

महाबलिपुरम के तट मन्दिर को दक्षिण भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में माना जाता है जिसका संबंध आठवीं शताब्दी से है। 

महाबलिपुरम् (Mahabalipuram) या कहें  मामल्लपुरम् (Mamallapuram) भारत के तमिलनाडु राज्य के चेंगलपट्टु ज़िले में स्थित एक प्राचीन नगर (शहर) है।

यह मंदिरों का शहर राज्य की राजधानी, चेन्नई, से 55 किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी से तटस्थ है।
चैन्नई का पुराना नाम मदुरैई है जिसका शुद्ध रूप मथुरा है।
 स्थानीय लोग इसे (तेन मदुरा) कहते हैं, यानि दक्षिणी मथुरा - उत्तर भारत के मथुरा की उपमा में यह नाम है।
क्योंकि यहाँ ऐतिहासिक रूप से पांड्य राजाओं का शासन रहा है, चोळों के साम्राज्य में भी यहाँ पांड्यों की उपस्थिति रही है। 
याद रहे कि तमिळ लिखावट को देखकर यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि इसका नाम और उच्चारण मथुरा था या मतुरा या मदुरा या मधुरा - तमिळ उच्चारण में भी यह अंतर स्पष्ट नहीं होता।
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पल्लव राजाओ की विरासत -
महाबलिपुरम प्राचीन शहर अपने भव्य मंदिरों, स्थापत्य और सागर-तटों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। सातवीं शताब्दी में यह शहर पल्लव राजाओं की राजधानी था। 

द्रविड वास्तुकला की दृष्टि से यह शहर अग्रणी स्थान रखता है। यहाँ पर पत्थरो को काट कर मन्दिर बनाया गया। पल्लव वंश के अंतिम शासक अपराजित थे।

यह मंदिर द्रविड वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। यहां तीन मंदिर हैं। बीच में भगवान विष्णु का मंदिर है जिसके दोनों तरफ से शिव मंदिर हैं। मंदिर से टकराती सागर की लहरें एक अनोखा दृश्य उपस्थित करती हैं। 
इसे महाबलीपुरम् का रथ मंदिर भी कहते है। इसका निर्माण "नरसिंह वर्मन्" प्रथम ने कराया था। 

प्रांरभ में इस शहर को "मामल्लपुरम" कहा जाता था।
महाबलिपुरम के लोकप्रिय रथ दक्षिणी सिर पर स्थित हैं। महाभारत के पांच पांडवों के नाम पर इन रथों को पांडव रथ कहा जाता है। पांच में से चार रथों को एकल चट्टान पर उकेरा गया है। द्रौपदी और अर्जुन रथ वर्ग के आकार का है जबकि भीम रथ रेखीय आकार में है। 
धर्मराज रथ सबसे ऊंचा है। इसमे दौपदी के पांच रथमंदिर हुए। क्योंकि उसके पांच पति थे। इस लिए उसके पांच रथमंदिर हुए।
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कृष्ण मंडपम्-
यह मंदिर महाबलिपुरम के प्रारंभिक पत्थरों को काटकर बनाए गए मंदिरों में एक है। मंदिर की दीवारों पर ग्रामीण जीवन की झलक देखी जा सकती है। एक चित्र में भगवान कृष्ण को गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाए तथा बाँसुरी बजाते हुए दिखाया गया है।

यमुना में कृष्ण और गोपिकाओं का सबसे पहला उल्लेख-

निम्नलिखित पंक्तियों का अनुवाद डॉ. कामिल ज़्वेलेबिल द्वारा किया गया है।

नर हाथी अपनी मादा के खाने के लिए कोमल टहनियों को नष्ट कर देता है, उसकी तुलना "माल" से की जाती है, जो कपड़े पहनने के लिए पेड़ों की शाखाओं (यानी कुरुंतमारम, कन्नन द्वारा काटा गया जंगली चूना) पर चलते हुए रौंदता (चलता, कूदता, मिटिट्टु) बनाता है। पानी से भरी तोलुनाई नदी के दूर-दूर तक फैले रेत वाले चौड़े घाट के [किनारों पर] ग्वालों अंतर- (आयर) समुदाय की युवा महिलाओं (मकलिर) को ठंड  लगती है।

और डॉ. ज़्वेलेबिल के अनुसार, किंवदंती का यह संस्करण किसी भी संस्कृत स्रोत को ज्ञात नहीं है। सबसे पहला संस्कृत स्रोत या तो भागवतपुराण या विष्णुपुराण प्रतीत होता है।

 इसलिए ऐसा लगता है कि "मटुरै मरुतानिलनकन" की यह अकाम 59 कविता भारत में कृष्ण की आकृति और यमुना नदी के तट पर अहीरो का उल्लेख करने वाली सबसे पुरानी कविता प्रतीत होती है।

साइन्स जर्नी चैनल का यूट्यूबर  कृष्ण शब्द को सातवीं आठवीं सताब्दी का मानता है । जबकि
कृष्ण का सबसे पहला उल्लेख वेद में हैं और ऋग्वेद का समय  ईसा पूर्व नवम सदी से पन्द्रह वीं सदी है।
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ऋग्वेद की सबसे पुरानी प्रति भोजपत्र पर लिखी हुई है, जिसे पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट (BORI) में रखा गया.
इनमें से एक पांडुलिपि शारदा स्क्रिप्ट ( लिपि) में लिखी हुई है, जबकि बाकी 29  मेनुस्क्रिप्ट (पाण्डुलिपि) देवनागरी लिपि  में हैं!


 इनमें बहुत से ऐसे फीचर हैं, शब्दों के ऐसे उच्चारण हैं, जो फिलहाल आधुनिक प्रतियों में कहीं नहीं दिखते हैं।.
शारदा लिपि का व्यवहार ईसा की दसवीं शताब्दी से उत्तर-पूर्वी पंजाब और कश्मीर में देखने को मिलता है।

 लिपि वेत्ता-ब्यूह्लर का मत था कि शारदा लिपि की उत्पत्ति गुप्त लिपि की पश्चिमी शैली से हुई है, और उसके प्राचीनतम लेख 8वीं शताब्दी से मिलते हैं।
ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोत-
एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण का विस्तृत विवरण सबसे पहले ऋग्वेद और उसके बाद छान्दोग्योपनिषद में मिलता है।

 फिर बहुत बाद में  महाकाव्य महाभारत में कृष्ण के विषय में लिखा गया है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है। महाकाव्य की मुख्य कहानियों में से कई कृष्ण केंद्रीय हैं श्री भगवत गीता का निर्माण करने वाले महाकाव्य के छठे पर्व ( भीष्म पर्व ) के अठारहवे अध्याय में युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान देते हैं।भले ही ज्ञान संक्षेप में रहा होगा जिसे बाद में विस्तार कर दिया गया। यही ज्ञान भागवत धर्म का मूल रूप रहा होगा।

 महाभारत के बाद के परिशिष्ट हरिवंशपुराण में कृष्ण के बचपन और युवावस्था का एक विस्तृत संस्करण है। 

इसके अतिरिक्त भारतीय-यूनानी मुद्रण में भी कृष्ण चरित्र अंकित हैं।-
180  ईसा पूर्व लगभग इंडो-ग्रीक राजा एगैथोकल्स ने देवताओं की छवियों पर आधारित कुछ सिक्के जारी किये थे। 
भारत में अब उन सिक्को को वैष्णव दर्शन से संबंधित माना जाता है।   सिक्कों पर प्रदर्शित देवताओं को विष्णु के अवतार बलराम -( संकर्षण) के रूप में देखा जाता है जिसमें गदा और हल और दूसरे वासुदेव-कृष्ण , जो शंख और सुदर्शन चक्र दर्शाये हुए हैं।

प्राचीन संस्कृत व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भारतीय ग्रंथों के देवता कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई संदर्भों का उल्लेख किया है।
 पाणिनी की श्लोक ३.१.२६ पर अपनी टिप्पणी में, वह कंसवध अथवा कंस की हत्या का भी उल्लेख करते हैं, जो कि कृष्ण से सम्बन्धित किंवदंतियों का एक महत्वपूर्ण अंग है। 

पाणिनि का समय भी ईसा पूर्व (800 से 400) के मध्य है, विद्वान् पाणिनि का समय भगवान बुद्ध से पूर्व बताते हैं,। पाणिनी पणि ( फोनीशियन ) जाति से सम्बन्धित थे जिन्होंने भाषा और लिपि पर जीवन पर्यन्त काम कि।

दुनिया की प्रथम लिपि फोनेशियन इन्हीं पणि लोगो की देन है  जिससे कालांतर में दुनियाभर की अन्य लिपियाँ विकसित हुई ।
इन पणियों का उल्लेख ऋग्वेद में है।
ऋग्‍वेद के मंडल दस के सूक्‍त 108 के मंत्र 11 की रचनाकार ऋषि सरमा देवशुनी हैं और इसके देवता प्रणय हैं।

दूरमित पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीरृतेन ।
बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळ्हाः सोमो ग्रावाण ऋषयश्च विप्राः ॥११॥
ऋग्वेद-(10-108-11)
(पणयः) हे वणिको! (दूरं-वरीयः) तुम दूर-अतिदूर (इत) चले जावो (ऋतेन) सत्य  के द्वारा (गावः) गायें। (मिनतीः) सदा बन्धन में नहीं रह सकतीं, (उत् यन्तु) बाहर निकल जावें (याः-निगूळ्हाः) जिन अन्दर छिपी हुई गायों को  (बृहस्पतिः) बृहस्पति देवगुरु (सोमः) सोम   (ग्रावाणः) पत्थर का शिल- (ऋषयः) तत्त्वदर्शक (च) और (विप्राः) विप्रगण  (अविन्दत्) प्राप्त करते है
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बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं।  पाली भाषा की शब्दावलि वैदिक भाषा से निकली है।पाली की संख्या पद्धति 

प्राचीन गैर-शून्य प्रणाली
हिंदू-अरबी अंक-
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 20 30 40 50 60 70 80 90 100 1000
___________________

ब्राह्मी अंक 𑁒 𑁓 𑁔 𑁕 𑁖 𑁗 𑁘 𑁙 𑁚 𑁛 𑁜 𑁝 𑁞 𑁟 𑁠 𑁡 𑁢 𑁣 𑁤 𑁥
शून्य-स्थानधारक प्रणाली
हिंदू-अरबी अंक 0 1 2 3 4 5 6 7 8 9
ब्राह्मी अंक 𑁦 𑁧 𑁨 𑁩 𑁪

1: एका (पाथम)- प्रथम-

1.5: (पाली-दीयाधा)  (वैदिक-द्वयर्द्ध) (प्राकृत- ड्योढ़) हिन्दी डेढ़-१=१/२

2: द्वि (दुतिया): द्वत्ती. द्विति

2.5: आढ़तिया, आढ़तिया

3: ती (ततिया)

3.5: अदुद्धा

3 या 4: टिकतु, तेरो*

4: कटु, अठहाधा (कटुत्था)

5: पंचा (पंचामा)

6: चा (छठ)

7: सट्टा (सत्तामा)

8: अट्ठा (अष्ठमा)

9: नवा (नवामा)

10: दशा (दशम)

11: एकादश, एकरासा

12: द्वादश, दुवादसा, बारसा

12.5: आधतेलसा

13: टेरासा, टेलासा

14: कैटुड्डासा, कुड्डासा, कोडडासा

15: पञ्चदश, पञ्चरस

16: सोसासा, सोरासा

17: सत्तदसा, सत्तरसा

18: अथादशा, अथारसा

19: एकुनविसति

20: विसाति, वीसा, वीसा

21: एकविशति

22: द्वाविसति, द्वेविसति, बविसाति, बविसा

23: तेविसाति, तेविसा

24: चतुविसाति, चतुविसा, चतुविसातै

25: पञ्चविसति, पञ्चविसति

26: छब्बीसती

27: सत्त्विसति

28: अष्टविसति

29: एकुनातिंसति

30: तिनसति, तिंसा, तिंसा, तिंसां, समतिंसा

31: एकतिंसति

32: द्वत्तिंसति, द्वत्तींस, बत्तींसति

33: तेत्तिन्सति, तेत्तिन्सा

34: चतुत्तिनसति

35: पञ्चतिंसति

36: चट्टिंसति

37: सत्तिनसति

38: अष्टहतिंसति

39: एकुनचट्टलिसति

40: कैटालिसाति, कैटालिसाम, कैटारिसाम, कैटारिसा, कैटारिसा

41: एकचत्तालिसति, एकचत्तारिसति

42: द्विचत्तालिसति, द्विचत्तारिसति, द्विचत्तारिसति, द्विचत्तारिसति

43: टेकत्तालिसति, टेकत्तारिसति

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ब्राह्मी लिपि के विषय में नीचे कुछ विश्लेषण है। जिसमें कृष्ण चरित्र को लिखा गया है।

हेलीडियोरस स्तंभ और अन्य शिलालेख-
मध्य भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में औपनिवेशिक काल के पुरातत्वविदों ने एक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख के साथ एक स्तंभ की खोज की थी। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए, इसे १२५ और १०० ईसा पूर्व के बीच का घोषित किया गया है और ये निष्कर्ष निकाला गया कि यह एक इंडो-ग्रीक प्रतिनिधि द्वारा एक क्षेत्रीय भारतीय राजा के लिए बनवाया गया था जो ग्रीक राजा एंटिलासिडास के एक राजदूत के रूप में उनका प्रतिनिधि था। इसी इंडो-ग्रीक के नाम अब इसे हेलेडियोरस स्तंभ के रूप में जाना जाता है। इसका शिलालेख "वासुदेव" के लिए समर्पण है जो भारतीय परंपरा में कृष्ण का दूसरा नाम है। कई विद्वानों का मत है कि इसमें "वासुदेव" नामक देवता का उल्लेख है, क्योंकि इस शिलालेख में कहा गया है कि यह " भागवत हेलियोडोरस" द्वारा बनाया गया था और यह " गरुड़ स्तंभ" (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)।

हेलियोडोरस शिलालेख एकमात्र प्रमाण नहीं है। तीन हाथीबाड़ा शिलालेख और एक घोसूंडी शिलालेख,जो कि राजस्थान राज्य में स्थित हैं  और आधुनिक कार्यप्रणाली के अनुसार जिनका समयकाल 19 वीं  सदी ईसा पूर्व है उनमें भी कृष्ण का उल्लेख किया गया है। पहली सदी ईसा पूर्व , संकर्षण (बलराम का एक नाम ) और वासुदेव का उल्लेख करते हुए, उनकी पूजा के लिए एक संरचना का निर्माण किया गया था। ये चार शिलालेख प्राचीनतम ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से एक है ।

हाथीबाड़ा घोसुण्डी शिलालेख (या, घोसुंडी शिलालेख, या हाथीबाड़ा शिलालेख), राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के पास प्राप्त शिलालेख हैं जिनकी भाषा संस्कृत है और लिपि ब्राह्मी है। ये ब्राह्मी लिपि में, संस्कृत के प्राचीनतम शिलालेख हैं। हाथीबाड़ा शिलालेख, नगरी गाँव से प्राप्त हुए थे जो चित्तौड़गढ़ से 8 किलोमीटर उत्तर में है।

घोसुंडी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)
यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है।

घोसुंडी का शिलालेख नगरी चित्तौड़ के निकट घोसुण्डी गांव में प्राप्त हुआ था इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। घोसुंडी का शिलालेख सर्वप्रथम डॉक्टर डी आर भंडारकर द्वारा पढ़ा गया यह राजस्थान में वैष्णव या भागवत संप्रदाय से संबंधित सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख है इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि उस समय तक राजस्थान में भागवत धर्म लोकप्रिय हो चुका था इसमें भागवत की पूजा के निमित्त शिला प्राकार बनाए जाने का वर्णन है

इस लेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्शण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन आदि में है।

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ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक (असोक) द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। नये अनुसंधानों के आधार 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के लेख भी मिले है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी।
अशोक ने अपने लेखों की लिपि को 'धम्मलिपि' का नाम दिया है; उसके लेखों में कहीं भी इस लिपि के लिए 'ब्राह्मी' नाम नहीं मिलता। लेकिन बौद्धों, जैनों तथा ब्राह्मण-धर्म के ग्रंथों के अनेक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' लिपि ही रहा होगा।
बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर' में 64 लिपियों के नाम दिए गए हैं। इनमें पहला नाम 'ब्राह्मी' है और दूसरा 'खरोष्ठी' है । 
जैनों के 'पण्णवणासूत्र' तथा 'समवायांगसूत्र' में 16 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें से पहला नाम 'बंभी' (ब्राह्मी) का है।
'भगवतीसूत्र' में सर्वप्रथम 'बंभी' (ब्राह्मी) लिपि को नमस्कार करके (नमो बंभीए लिविए) सूत्र का आरंभ किया गया है।
668 ई. में लिखित एक चीनी बौद्ध विश्वकोश 'फा-शु-लिन्' में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उल्लेख मिलता है। 
ब्यूह्लर जैसे प्रसिद्ध पुरालिपिविद की मान्यता रही कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण फिनीशियन लिपि के आधार पर हुआ। इसके लिए उन्होंने एरण के एक सिक्के का प्रमाण भी दिया था।
एरण (सागर ज़िला, म.प्र.) से तांबे के कुछ सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक पर 'धमपालस' शब्द के अक्षर दाईं ओर से बाईं ओर को लिखे हुए मिलते हैं। चूंकि, सेमेटिक लिपियां भी दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थीं, इसलिए ब्यूह्लर ने इस अकेले सिक्के के आधार पर यह कल्पना कर ली कि आरंभ में ब्राह्मी लिपि भी सेमेटिक लिपियों की तरह दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। ओझा जी तथा अन्य अनेक पुरालिपिविदों ने ब्यूह्लर की इस मान्यता का तर्कयुक्त खंडन किया है। उस समय ओझा जी ने लिखा था, 'किसी सिक्के पर लेख का उलटा आ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि सिक्के पर उभरे हुए अक्षर सीधे आने के लिए सिक्के के ठप्पे में अक्षर उलटे खोदने पड़ते हैं, अर्थात् जो लिपियां बाईं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती हैं उनके ठप्पों में सिक्कों की इबारत की पंक्ति का आरंभ दाहिनी ओर से करके प्रत्येक अक्षर उलटा खोदना पड़ता है, परंतु खोदनेवाला इसमें चूक जाए और ठप्पे पर बाईं ओर से खोदने लग जाए तो सिक्के पर सारा लेख उलटा आ जाता है, जैसा कि एरण के सिक्के पर पाया जाता है।' साथ ही, ओझा जी ने लिखा था, 'अब तक कोई शिलालेख इस देश में ऐसा नहीं मिला है कि जिसमें ब्राह्मी लिपि फ़ारसी की नाईं उलटी लिखी हुई मिली हो।'
यह 1918 के पहले की बात है।
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पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय—★ आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। 
यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है। 

पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु उसका उत्पत्ति मिलान वेदों की भाषा से बैठ जाता है।
यह हम वैदिक शब्दावलि और अंकपद्धि में वर्णन कर चुके हैं।

 उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं।

अकारान्त संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेभिर्, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।

वैदिक भाषा में देवेभिर्- और दैवै: दोनों शब्द प्रचलन में रहे परन्तु पूर्व शब्द देवेभिर् ही है परन्तु लौकिक भाषा संस्कृत में देवै: ही प्रचलित है।

अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उत्पन्न मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं।

पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई। 

पालि के कच्चान, मोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।

पालि भाषा का उद्भव:-
पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाहरी देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्री लंका, बर्मा तिब्बत आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।

‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रंथारूढ न हो जाय। 

इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारंभ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई। ‘पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है। 
वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा संबंधी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने पालि शब्द -दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल टिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।

‘पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद(थेरवाद)-बौद्धधर्म का तिपिटक और उसका संपूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया।
 पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। मगध आधुनिक समय में विहार का दक्षिणी भाग ही पहले मगध था "अधुना वेहाराख्यदेशस्य दक्षिण- भागः"
विहार की पालि भाषा के  उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं। 
मागधी ही मूल भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चोल वंश के परिच्छेद 37 की 244 वीं गाथा में कहा गया है ।
“सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि। निश्चय ही सिंहली परंपरा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परंपरा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है।
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पालि भाषा ब्राह्मी लिपि में है जिस लिपि की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।-
यह बाँये से दाँये की तरफ लिखी जाती है।
यह मात्रात्मक लिपि है। व्यंजनों पर मात्रा लगाकर लिखी जाती है।
कुछ व्यंजनों के संयुक्त होने पर उनके लिये 'संयुक्ताक्षर' का प्रयोग (जैसे प्र= प् + र)
वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय लिपियों में है।
ब्राह्मी लिपि के अभिलेख-
सम्राट अशोक के ब्राह्मी लिपि में अंकित प्रमुख अभिलेख-
रुम्मिनदेई - स्तम्भलेख
गिरनार - शिलालेख
बराबर - गृहालेख
मानसेहरा - शिलालेख
शाहबाजगद्री - शिलालेख
दिल्ली - स्तम्भलेख
गुर्जर - लघु-शिलालेख
मस्की- शिलालेख
कान्धार - द्विभाषी शिलालेख
ब्राह्मी की संतति-
ब्राह्मी परिवार की लिपियाँ-
ब्राह्मी लिपि से उद्गम हुई कुछ लिपियाँ और उनकी आकृति एवं ध्वनि में समानताएं स्पष्टतया देखी जा सकती हैं। इनमें से कई लिपियाँ ईसा के समय के आसपास विकसित हुई थीं। इन में से कुछ इस प्रकार हैं-
१-देवनागरी, २-बांग्ला लिपि, ३-उड़िया लिपि, ४-गुजराती लिपि, ५-गुरुमुखी, ६-तमिल लिपि, ७-मलयालम लिपि, ८-सिंहल लिपि, ९-कन्नड़ लिपि, तेलुगु लिपि, १०तिब्बती लिपि, ११-रंजना, प्रचलित १२-नेपाल, १३-भुंजिमोल, १४-कोरियाली, १५-थाई, १६-बर्मेली, १७-लाओ, १८-ख़मेर, १९-जावानीज़, २०-खुदाबादी लिपि आदि।
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"साइन्स जर्नी चैनल का यूट्यूबर  वेद शब्द को पाली भाषा के' वेदना ' शब्द से मानता है जो कि उसकी अधूरी जानकारी को दर्शाता है। 
 जबकि वेद शब्द भारोपीय होने से अनेक भाषाओ में  है जिसका कुछ विवरण नीचे है।
परन्तु यह वैदिक शब्द ही है जो संस्कृत में  विद धातु में + ल्युट्( अन.) + टाप्) प्रत्यय जोड़ने से बनता है  जिसका रूप अर्थ- ज्ञान - तथा  सुख-दुःख का अनुभव ( बोध) और विवाह है ।
 
विद -धातु भारोपीय परिवार ही नही अपितु सैमेटिक और हैमेटिक भाषाओं में भी है ।

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: 
१-Vedic language- veda "I know;" 
२-Avestan vaeda "I know;"
३-Greek oida,
४- Doric woida "I know,"
 ५-idein "to see;"
 ६-Old Irish fis "vision," find "white," i.e. "clearly seen," fiuss "knowledge;" 
७-Welsh gwyn,
 ८-Gaulish vindos,
 ९-Breton gwenn "white;"
 १०-Gothic, 
११-Old Swedish, Old English witan "to know;"
 १२-Gothic weitan "to see;" 
१३-English wise, German wissen "to know;"
१४- Lithuanian vysti "to see;" 
१५-Bulgarian vidya "I see;" 
१६-Polish widzieć "to see," wiedzieć "to know;" 
१७-Russian videt' "to see," vest' "news
१८- Old Russian vedat' "to know."

wed (v.)
Old English weddian "to pledge oneself, covenant to do something, vow; betroth, marry,"
 also "unite (two other people) in a marriage, conduct the marriage ceremony," from Proto-Germanic *wadja (source also of Old Norse veðja, Danish vedde "to bet, wager," Old Frisian weddia "to promise," Gothic ga-wadjon "to betroth"), from PIE root *wadh- (1) "to pledge, to redeem a pledge" (source also of Latin vas, genitive vadis "bail, security," 
Lithuanian vaduoti "to redeem a pledge"), which is of uncertain origin.

पुरानी अंग्रेजी विवाह (wed-) "स्वयं को प्रतिज्ञा करना,  प्रतिज्ञा करना; सगाई करना, विवाह करना,इसके अलावा "एक विवाह में (दो अन्य लोगों को) एकजुट करें, विवाह समारोह का संचालन करें," प्रोटो-जर्मनिक *वाडजा (पुराने नॉर्स वेजा का भी स्रोत, डेनिश वेड्डे "शर्त लगाना, दांव वाजी लगाना," ओल्ड फ़्रिसियाई वेडिया "वादा करना," गोथिक) गा-वाडजॉन "टू बीट्रोथ"), पीआईई रूट से *वाध- (1) "प्रतिज्ञा करना, प्रतिज्ञा चुकाना" (स्रोत)लैटिन का भी वास, जननेटिव वादीस "जमानत, सुरक्षा,"लिथुआनियाई वाडुओटी "प्रतिज्ञा भुनाने के लिए"), जो अनिश्चित मूल का है।
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The sense has remained closer to "pledge" in other Germanic languages (such as German Wette "a bet, wager"); development to "marry" is unique to English. "Originally 'make a woman one's wife by giving a pledge or earnest money', then used of either party" [Buck]. Passively, of two people, "to be joined as husband and wife," from c. 1200. Related: Wedded; wedding.
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वेदाना (वेदना)। अर्थ भारतीय पुराणों में—एक देवी जो जीवित प्राणियों को पीड़ा पहुँचाती थी। अधर्म ने हिंसा से विवाह किया। उनकी नृता और निऋति नाम की दो बेटियाँ पैदा हुईं। उनसे भय, नरक, माया और वेदना का जन्म हुआ। मृत्यु माया की पुत्री थी। दुख वेदना का पुत्रब॒छपनव था। (अग्नि पुराण, अध्याय 20)।
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बौद्ध धर्म में
थेरवाद (बौद्ध धर्म की प्रमुख शाखा)
थेरवाद शब्दावली में वेदना
स्रोत : विज्डम लाइब्रेरी: धम्मसंगनी
वेदना बहुत सामान्य अर्थ वाला शब्द है, जिसका अर्थ है संपर्क या प्रभाव पर शारीरिक या मानसिक, भावना या प्रतिक्रिया। अनुभूति शायद ही भावना के रूप में इतनी वफादार प्रस्तुति है,!

 हालांकि वेदना को अक्सर इंद्रिय-गतिविधि में "संपर्क से पैदा हुआ" के रूप में जाना जाता है, इसे हमेशा आम तौर पर तीन प्रजातियों से मिलकर परिभाषित किया जाता है -

आनंद (ख़ुशी),दर्द (बीमार),और तटस्थ भावना
-एक सुखवादी पहलू जिसके लिए 'भावना' शब्द ही पर्याप्त है। इसके अलावा, यह प्रतिनिधि भावना को समाहित करता है।

वेदना का यह सामान्य मानसिक पहलू, शारीरिक रूप से स्थानीय संवेदनाओं से अलग है - उदाहरण के लिए, दांत दर्द - संभवतः उत्तर में "मानसिक" (सीटासिकम) शब्द द्वारा जोर दिया गया है। साइ. बताते हैं कि इस अभिव्यक्ति (= सीतानिसिटट्टम) से "शारीरिक सुख समाप्त हो जाता है" (असल. 139)।

(ऋग्वेद 1.176.4)
असुन्वन्तं समं जहि दूणाशं यो न ते मयः ।
अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदोहते ॥४॥
अनुवाद:-
हे इन्द्र ! सोमरस न निचोड़ ने वाले दु: साध्य विनाश वालों और सुख न पहुँचाने वालों का विनाश करो। ऐसे लोगों का धन हमें दो । तुम्हारी स्तुति करने वाला ही धन पाता है ।४। ऋग्वेद-(१/१७६/४)
वेदनं= धनम्।vedanaṃ < vedanam < vedana[noun], accusative, singular, neuter “property; marriage; obtainment.”
= अनुवाद:
 (असुन्वन्तम्)= अभिषवादिनिष्पादनपुरुषार्थरहितम् (समम्)= सर्वम् (जहि)= मारो- हन् धातु लोटलकार । (दूणाशम्)= दुःखेन नाशनीयम् (यः)=जो (न)= निषेधे (ते)= तव (मयः)= सुखम् (अस्मभ्यम्) (अस्य) (वेदनम्)= धनम् (दद्धि) धर । अत्र दध धारण इत्यस्माद्बहुलं छन्दसीति शपो लुक् व्यस्ययेन परत्मैपदञ्च । (सूरिः) =विद्वान् (चित्) इव (ओहते) व्यवहारान् वहति । अत्र वाच्छन्दसीति संप्रसारणं लघूपधगुणः ॥ ४ ।

(असुन्वन्तम्) पदार्थों के सार खींचने आदि पुरुषार्थ से रहित (दूणाशम्) दुःख से विनाशने योग्य (समम्) समस्त को (जहि) मारो (यः) जो (सूरिः) विद्वान्  (चित्) समान (ओहते) व्यवहारों की प्राप्ति करता है (ते) तुम्हारे (मयः) सुख को (न) नही (अस्य) इसके (वेदनम्) धन को (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (दद्धि) याच्ञायाम् निघण्टुः । अयं धातुरित्यन्ये । दे दो ॥ ४ ।

(ऋग्वेद 4.30.13)
उत शुष्णस्य धृष्णुया प्र मृक्षो अभि वेदनम्। पुरो यदस्य सम्पिणक् ॥१३॥
 अनुवाद:-
"तूने वीरता से शूष्ण का धन छीन लिया , जब तुमने उसके नगरों को ध्वस्त कर दिया था।"

अक्सर बौद्धवादी अपने पूर्वदुराग्रह द्वारा कहा करते हैं।

कि पालि भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात भाषा है। जिसे भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात लिपि धम्म लिपि में लिखा जाता था। जिसका प्रमाण सम्राट अशोक के शिलालेख और स्तंभ से प्राप्त होता है।पाली भाषा भारत के जनमानस की भाषा थी।

 कुछ इतिहासकार संस्कृत को सबसे प्राचीन भाषा मानते है पर ये प्रमाणित नहीं है क्योंकि पाली भाषा में ऋ, क्ष, त्र, ज्ञ, ऐ, औ अक्षर नही है। इन अक्षरों की उत्पत्ति बाद के समय में हुई।

 संस्कृत का सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में ऋ से ये आसानी से समझा जा सकता है की पाली भाषा ही भारत की सबसे प्राचीन भाषा है। 
पालि की प्रवृति साधारण जन के अनुरूप है अत: (ऋ) वर्ण का उच्चारण (र) रूप में ही होता है।

"पालि व्याकरण परंपरा-पालि व्याकरण में पाच व्याकरण परंपरा प्रसिद्ध है –
1.बोधिसत्त
2.सब्बगुणाकार
3.कच्चान
4.मोग्गल्लान
5.सद्दनीति
बोधिसत्त  और  सब्बगुणाकार अधिक प्राचीन व्याकरण है, जो  वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।

पालि भाषा में कच्चायन  व्याकरण में अक्खरापादयो एकचत्तालिसं अर्थात  41 वर्ण माने गए है तथा मोग्गल्लान

व्याकरण में तेचत्तालीस-क्खरा वण्णा अर्थात  43 वर्ण माने जाते है। पाली भाषा में मोग्गल्लान व्याकरण अधिक प्रचलित है। प्रस्ततु  लेख में  मोग्गल्लान व्याकरण का  आधार लिया गया है।

स्वर-
पालि भाषा में दसादो सरा अर्थात 10 स्वर है।
अ,आ, इ, ई, उ, ऊ, एँ, ऐ , ओँ, ओ।
 द्वेद्वे सवण्णा  अर्थात दो-दो स्वर सवर्ण कहे गए है। पुब्बो रस्सो  अर्थात पूर्व स्वर र्हस्व माना जाता है और परो
दीघो  अर्थात बाद का स्वर दीर्घ  माना जाता है।

व्यञ्जन-
पालि भाषा में  33  व्यञ्जन है।

क ख ग घ ङ्
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
स ह ळ अं
    
पञ्‍च पञ्‍चका वग्गा का तात्पर्य  पाच- पाच वण्ण के  पाच वग्ग  है-जसे कवग्ग, चवग्ग, टवग्ग,तवग्ग,पवग्ग. बिन्दु  निग्गहीतं अर्थात ‘अं’ को निग्गहित (अनुस्वार) कहते है।

जो वर्ण पालि भाषा में नहीं है उसके लिए प्रयुक्त वर्ण-
लृ ऐ, औ पालि भाषा में नहीं है.
रेफ भी पालि भाषा में नहीं है। कभी कभी रेफ का लोप होता है तो यह कभी  कभी ‘र’ होता है।
जैसे-
कर्म = कम्म
महार्ह = महारहो
ऋ के स्थान पर अ, इ ,उ का प्रयोग करते है।
जैसे-

गृहं= गहं
ऋणं= इणं
ऋतु= उतु
ऐ के स्थान पर ए, इ, ई का प्रयोग करते है।
जैसे-

ऐरावण = एरावण
ग्रैवेयं = गीवेय्यं
सैन्धव = सिन्धव

औ के स्थान पर ओ, उ का प्रयोग करते है।
जैसे-

दौवारीक =दोवारीक
मौक्तिक =मुत्तिकं

श,ष के स्थान पर स का प्रयोग करते है।
जैसे-

ऋषि =इसि
शाखा=साखा
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तथागत बुद्ध ने अपने उपदेश पाली में ही दिए है। धम्म ग्रंथ त्रिपिटक की भाषा भी पाली ही हैl

संस्कृत में 13 स्वर, पालि भाषा में 10 स्वर, प्राकृत में 10 स्वर, अपभ्रंश में 8 तथा हिन्दी में 11 स्वर होते है।

'पालि' शब्द का निरुक्त:-
पालि शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों के नाना मत पाए जाते हैं। किसी ने इसे पाठ शब्द से तथा किसी ने पायड (प्राकृत) से उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। एक जर्मन विद्वान् मैक्स वैलेसर ने पालि को 'पाटलि' का संक्षिप्त रूप बताकर यह मत व्यक्त किया है कि उसका अर्थ पाटलिपुत्र की प्राचीन भाषा से है।
इन व्युत्पत्तियों की अपेक्षा जिन दो मतों की ओर विद्वानों का अधिक झुकाव है, उनमें से एक तो है पं॰ विधुशेखर भट्टाचार्य का मत, जिसके अनुसार पालि, पंक्ति शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। पंक्ति को मराठी में पाळी बोलते है और मराठी में और संस्कृत में पालन शब्द भी है जिसका अर्थ है जिसको लोग पाल पोसकर बड़ा करते है या पालन का अर्थ जिसका नियम के अनुसार अवलंब या प्रयोग किया जाता है। इस मत का प्रबल समर्थन एक प्राचीन पालि कोश अभिधानप्पदीपिका (12वीं शती ई.) से होता है,



भाषा की दृष्टि से पालि उस मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा का एक रूप है जिसका विकास लगभग ई.पू. छठी शती से वैदिक भाषाओं से माना जाता है। उससे पूर्व की आदियुगीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप वेदों तथा ब्राह्मणों, उपनिषदों एवं रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में प्राप्त होता है, जिन्हें 'वैदिक भाषा' एवं 'संस्कृत भाषा' कहते हैं। वैदिक भाषा एवं संस्कृत की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं का भेद प्रमुखता से निम्न बातों में पाया जाता है :
_____
ध्वनियों में ऋ, लृ, ऐ, औ - इन स्वरों का अभाव,
ए और ओ की ह्रस्व ध्वनियों का विकास,
श्, ष्, स् इन तीनों ऊष्मों के स्थान पर किसी एकमात्र का प्रयोग (सामान्यतः स का प्रयोग)
विसर्ग ( ः ) का सर्वथा अभाव तथा असवर्णसंयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने अथवा सवर्ण संयोग में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति।
व्याकरण की दृष्टि से
_______
संज्ञा एवं क्रिया के रूपों में द्विवचन का अभाव,
पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में अभेद और व्यत्यय,
कारकों एवं क्रियारूपों में संकोच,
हलन्त रूपों का अभाव,
कियाओं में परस्मैपद, आत्मनेपद तथा भवादि, अदादि गणों के भेद का लोप।
ये विशेषताएँ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के सामान्य लक्षण हैं और देश की उन लोकभाषाओं में पाए जाते हैं !

जिनका सुप्रचार उक्त अवधि से कोई दो हजार वर्ष तक रहा और जिनका बहुत-सा साहित्य भी उपलब्ध है।

काल के आधार पर प्राकृत भाषाओं के भेद
उक्त सामान्य लक्षणों के अतिरिक्त इन भाषाओं में अपने-अपने देश और काल की अपेक्षा अनेक भेद पाए जाते हैं। काल की दृष्टि से उनके तीन स्तर माने गए हैं -
___________
पाली भाषा का इतिहास-
प्राक्मध्यकालीन (ई.पू. 600 से ई. सन् 100 तक),
अन्तर मध्यकालीन (ई. सन् 100 से 600 तक), तथा
उत्तर मध्यकालीन (ई.सन् 600 से 1000 तक)।
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इन सब युगों की भाषाओं को एक सामान्य नाम प्राकृत दिया गया है। इसके प्रथम स्तर को भाषाओं का स्वरूप अशोक की प्रशस्तियों तथा पालि साहित्य में प्राप्त होता है।
द्वितीय स्तर की भाषाओं में मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री प्राकृत भाषाएँ है जिनका विपुल साहित्य उपलब्ध है। तृतीय स्तर की भाषाओं को अपभ्रंश एव अवहट्ठ नाम दिए गए हैं।

देशभेद की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के भेद
देशभेद की दृष्टि से मध्यकालीन भाषाओं के भेद का सर्वप्राचीन परिचय मौर्य सम्राट् अशोक (ई.पू. तृतीय शती) की धर्मलिपियों( ब्राह्मी) में प्राप्त होता है। इनमें तीन प्रदेशभेद स्पष्ट हैं - पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी। 
पूर्वी भाषा का स्वरूप धौली और जौगढ़ की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें (र) वर्ण के स्थान पर (ल ) तथा आकारांत शब्दों के कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति (ए )सुप्रतिष्ठित है। प्राकृत के वैयाकरणों ने इन प्रवृत्तियों को मागधी प्राकृत के विशेष लक्षणों में गिनाया है। वैयाकरणों के मतानुसार इस मागधी प्राकृत का तीसरा विशेष लक्षण तीनों ऊष्म वर्णों के स्थान पर (श्) का प्रयोग है। किन्तु अशोक के उक्त लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि यहाँ तीनों ऊष्मों के स्थान पर (स् )ही प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण अशोक की इस पूर्वी प्राकृत को मागधी न कहकर अर्धमागधी का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त है।

पश्चिमी भाषा भेद का प्रतिनिधित्व करनेवालों में गिरनार की प्रशस्तियाँ हैं। इनमें (र) और (ल) का भेद सुरक्षित है। ऊष्मों के स्थान पर (स् )का प्रयोग है तथा अकारान्त कर्ता कारक एकवचन रूप ओ में अन्त होता है। इन प्रवृत्तियों से स्पष्ट है कि यह भाषा शौरसेनी का प्राचीन रूप है।
पालि शब्द भी पल्लि शब्द से विकसित हुआ - पल्ली का अर्थ गाँव होता है ।
यानि पाली ग्रामीणों की स्वाभाविक भाषा-
 
पश्चिमोत्तर की भाषा का रूप शहबाजगढ़ी और मानसेरा की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें प्राय: (श्, ष्, स्) ये तीनों ऊष्म वर्ण अपने स्थान पर सुरक्षित हैं। कहीं-कहीं कुछ व्यत्यय दृष्टिगोचर होता है। रकारयुक्त संयुक्तवर्ण भी दिखाई देते हैं, तथा ज्ञ और न्य के स्थान पर रंञ, का प्रयोग (जैसे रंञो ) पाया जाता है। ये प्रवृत्तियाँ उस भाषा को पैशाची प्राकृत का पूर्व रूप इंगित करती हैं।

पालि त्रिपिटक का कुछ भाग अवश्य ही अशोक के काल में साहित्यिक रूप धारण कर चुका था क्योंकि उसके लाहुलोवाद, मोनेय्यसुत्त आदि सात प्रकरणों का उल्लेख उनकी भाब्रू की प्रशस्ति में हुआ है। किंतु उपलब्ध साहित्य की भाषा में अशोक के पूर्वी शिलालेख की भाषा संबंधी विशेषताओं का प्राय: सर्वथा अभाव है। व्यापक रूप से पालि भाषा का स्वरूप गिरनार प्रशस्ति की भाषा से सर्वाधिक मेल खाता है और इसी कारण पालि मूलतः पूर्वदेशीय नहीं, किन्तु मध्यदेशीय है। जिस विशेषता के कारण पालि मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के प्रथम स्तर की गिनी जाती है (द्वितीय स्तर की नही), वह है उसमें मध्यवर्ती अघोष व्यंजनों के लोप तथा महाप्राण वर्णों के स्थान पर ह् के आदेश का अभाव। ये प्रवृत्तियाँ द्वितीय स्तर की भाषाओं के सामान्य लक्षण हैं। हाँ, कहीं कहीं क् त् जैसे अघोष वर्णों के स्थान पर ग् द् आदि सघोष वर्णों का आदेश दिखाई देता है। किंतु यह एक तो अल्पमात्रा में ही है और दूसरे वह प्रथम स्तर की उक्त मर्यादा के भीतर अपेक्षाकृत पश्चात्काल की प्रवृत्ति का द्योतक है।
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पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय- आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है।
पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु वेदों की भाषा से बैठता है।
 उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं। अकारांत संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेर्भि, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।
अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उद्भूत मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं। पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई।

पालि भाषा की लिपि का विकास वेदों में वर्णित पणियों की लिपि फोनेशियन( प्यूनिक) लिपि से हुआ है।

(ब्राह्मी  लिपि का विकास कि श्रोत-
 सबसे प्राचीन "फोनेशिन" लिपि है जो ऋग्वेद में वर्णित पणियों की लिपि है ।
इसी फोनेशियन से भारत की ब्राह्मी लिपि विकसित हुई और ब्राह्मी से देवनागरी आदि अनेक लिपियाँ विकसित हुई- हैं) 

फेनिशिया (1200-500 ईसा पूर्व) पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में आधुनिक लेबनान और सीरिया के तट पर रहने वाले सेमिटिक-भाषी कनानियों की सभ्यता थी।
 टायर और सिडोन जैसे प्रमुख शहरों से , फोनीशियन व्यापारियों और नाविकों ने भूमध्य सागर की खोज की , व्यापक वाणिज्य में लगे, और पश्चिमी भूमध्य सागर में कार्थेज और अन्य उपनिवेशों की स्थापना की।

इतिहास :-जब इसराइली एक संयुक्त राज्य का गठन कर रहे थे,तब  फोनीशियन (जो खुद को "कैनानी"/कनानी कहते थे) 1200 ईसा पूर्व में सीरिया-फिलिस्तीन के क्षेत्र में बस गए थे। 1100 ईसा पूर्व तक कनानी क्षेत्र सिकुड़ कर पहाड़ों और समुद्र के बीच वर्तमान लेबनान की एक संकीर्ण पट्टी में सिमट गया था, क्योंकि इस्राएलियों और पलिश्तियों ने उनकी भूमि पर विजय प्राप्त कर ली थी। फोनीशियनों ने तट पर छोटे शहर-राज्य ,बाइब्लोस , बेरिटस , सिडोन और टायर बसाए। 1000 ईसा पूर्व से पहले, बाइब्लोस सबसे महत्वपूर्ण फोनीशियन शहर-राज्य था, जो माउंट लेबनान की ढलानों से देवदार की लकड़ी और पपीरस का वितरण केंद्र था।
 मिस्र से . राजा हीराम , जो 969 ईसा पूर्व में सत्ता में आए थे, टायर की प्रमुखता में वृद्धि के लिए जिम्मेदार थे, उन्होंने राजा सोलोमन के साथ घनिष्ठ गठबंधन बनाया और यरूशलेम में पहले मंदिर के निर्माण के लिए कुशल फोनीशियन कारीगरों और देवदार की लकड़ी प्रदान की । 
800 ईसा पूर्व में टायर ने पास के सिडोन पर कब्ज़ा कर लिया और भूमध्यसागरीय तटीय व्यापार पर हावी हो गया। टायर व्यावहारिक रूप से अभेद्य था, जिसमें एक नहर से जुड़े दो बंदरगाह, एक बड़ा बाज़ार, राजकोष और अभिलेखागार के साथ एक शानदार महल, और देवताओं मेलकार्ट और एस्टार्ट के मंदिर थे । 30,000 निवासियों में से कुछ मुख्य भूमि पर उपनगरों में रहते थे।
900 ईसा पूर्व के बाद टायर ने अपना ध्यान पश्चिम की ओर लगाया और सीरियाई तट से 100 मील दूर तांबे से समृद्ध द्वीप साइप्रस पर उपनिवेश स्थापित किए ।
700 ईसा पूर्व तक पश्चिमी भूमध्य सागर में बस्तियों की एक श्रृंखला ने एक " फोनीशियन त्रिभुज " का निर्माण किया, जो पश्चिमी लीबिया से मोरक्को तक उत्तरी अफ्रीकी तट , स्पेन के दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी तट से बना था, जिसमें जिब्राल्टर जलडमरूमध्य पर गेड्स (आधुनिक कैडिज़) शामिल थे , जो नियंत्रित करते थे । 

भूमध्य सागर और अटलांटिक महासागर के बीच का मार्ग ; और सार्डिनिया , सिसिली और माल्टा के तट से दूर द्वीप इटली . टायर ने असीरियन( असुर) राजाओं को श्रद्धांजलि देकर 701 ईसा पूर्व तक अपनी स्वायत्तता बनाए रखी। उस वर्ष अंततः यह असीरियन सेना के हाथों गिर गया जिसने इसके अधिकांश क्षेत्र और आबादी को छीन लिया, जिससे सिडोन फोनीशिया में अग्रणी शहर बन गया।
को श्रद्धांजलि देकर 701 ईसा पूर्व तक अपनी स्वायत्तता बनाए रखी। 
उस वर्ष अंततः यह असीरियन सेना के हाथों गिर गया जिसने इसके अधिकांश क्षेत्र और आबादी को छीन लिया, जिससे सिडोन फोनीशिया में अग्रणी शहर बन गया।
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तूनिशिया से मिली फ़ोनीशियाई में लिखी
(बाल हम्मोन) और तनित नामक देवताओं की प्रार्थना का प्रमाणित दस्तावेज है।

बाल ऋग्वेद में वर्णित बल है जो इन्द्र और बृहस्पति का प्रतिद्वन्दी हैं।

तूनिसीया उत्तरी अफ़्रीक़ा महाद्वीप में एक अरब राष्ट्र है जिसका अरबी भाषा में नाम अल्जम्हूरीयाह अत्तूनिसीयाह (الجمهرية التونسية) या तूनिस है। यह भूमध्यसागर के किनारे स्थित है, इसके पूर्व में लीबिया और पश्चिम मे अल्जीरिया देश हैं। देश की पैंतालीस प्रतिशत ज़मीन सहारा रेगिस्तान में है जबकि बाक़ी तटीय जमीन खेती के लिए इस्तमाल होती है।
 रोमन इतिहास मे तूनिस का शहर कारथिज एक आवश्यक जगह रखता है और इस प्रान्त को बाद में रोमीय राज्य का एक प्रदेश बना दीया गया जिस का नाम अफ़्रीका यानी गरम प्रान्त रखा गया जो अब पूरे महाद्वीप का नाम है।

तूनीशियाई वर्णमाला फ़ोनीशिया की सभ्यता द्वारा अविष्कृत वर्णमाला थी !
जिसमें हर वर्ण एक व्यंजन की ध्वनि बनता था। क्योंकि फ़ोनीशियाई लोग समुद्री सौदागर थे।

 इसलिए उन्होंने इस अक्षरमाला को दूर-दूर तक फैला दिया और उनकी देखा-देखी और सभ्यताएँ भी अपनी भाषाओँ के लिए इसमें फेर-बदल करके इसका प्रयोग करने लगीं। और फिर अनेक समानान्तर लिपियों का विकास हुआ।

माना जाता है के आधुनिक युग की सभी मुख्य अक्षरमालाएँ( लिपियाँ) इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं। 

 "ब्राह्मी , देवनागरी सहित, भारत की सभी वर्णमालाएँ भी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की वंशज हैं।
इसका विकास लगभग (1050) ईसा-पूर्व में आरम्भ हुआ था । 

और प्राचीन यूनानी सभ्यता के उदय के साथ-साथ अंत हो गया। परन्तु यूनानी लिपि भी फोनेशियन लिपि से विकसित हुई।
वर्णमाला की दृष्टि से-फ़ोनीशियाई वर्णमाला के हर अक्षर का नाम फ़ोनीशियाई भाषा में किसी वस्तु के नाम पर रखा गया है। 
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अंग्रेज़ी में वर्णमाला को "ऐल्फ़ाबॅट" बोलते हैं जो नाम फ़ोनीशियाई वर्णमाला के पहले दो अक्षरों ("अल्फ़" यानि "बैल" और "बॅत" यानि "घर") से आया है।

पहले हम अलिफ की कुण्डली निकालते हैं
क्रमश: प्रथम पाठ-

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