यदुवंश संहिता में पुरुरवा और उर्वशी का इतिहास लिखा गया है कि अभी नहीं। नृत्य अहीरों में पहले से रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था। जैसे आज बालीवुड में ब्राह्मण जाति से जया बच्चन, माधुरी दीक्षित आदि नर्तकियों को अभिनेत्री या हीरोईन कहा जाता है । मैं डर रहा था कि कहीं अहीरों की उत्पत्ति ब्राह्मण लोग उर्वशी वैश्या से उत्पन्न न लिख दें। पुरुरवा और उर्वशी नाम इतिहास में शामिल करते समय इन दोनों के पिताओं का नाम,इन दोनों की जाति का उल्लेख का अवश्य कर दें। तथा उर्वशी भगवान की विभूति वाला श्लोक अवश्य लिख दें। जिससे भविष्य में कोई इतिहासकार कोई अभद्र टिप्पणी न लिख सके। जैसे ही पुरुरवा गोप और उर्वशी अहीर का नाम इतिहास में जुड़ा तो बहुत बड़ी महाक्रांति होगी।जितने अपने को चन्द्र वंशी ,सोमवंशी यदुवंशी कुरु वंशी राज पुत क्षत्रिय कहते हैं।वह सब अहीरों की संतानों की शाखाएं बन जायेंगे। उर्वशी की प्रतिष्ठा के जितने भी श्लोक हों वह सब लिख देना ।
जय श्री राधे कृष्ण जी 🌹🙏🌹
यादवों का प्राचीन काल से ही गायन वादन और नृत्य अर्थात संगीत विधा पर पूर्ण स्वामित्व रहा है।
हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।
भगवान कृष्ण का बाल्यकाल आभीर जाति में व्यतीत हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --
मंडलेन च स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकं सु तत्।
नेता तत्रभवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।
यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्रियां उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था। हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे। इंद्र- विजय के उपरांत आभीर नारियों के साथश्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में हुआ है। इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।
भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों
का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी, जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य मं प्रशिक्षित किया था। द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।
भरत ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --
१. मंडल रासक
२. लकुट रासक तथा
३. ताल रासक।
मंडजाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परंपरा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वां तीथर्ंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया। कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारंभ होकर रास की प्राचीन परंपरा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अंत तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक, जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरंतर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मंच उद्भूत हुआ। इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है। भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।
अहीर भैरव एक लोकप्रिय राग है जिसमें कोमल ऋषभ और कोमल निषाद के स्वरों का संयोजन होता है। भैरव गा मा रे सा का मींड यहां भी देखा जा सकता है लेकिन राग के दूसरे भाग में यह राग बागेश्री जैसा दिखता है क्योंकि प्रगति कोमल नी के साथ मा धा नी सा हो जाती है। तो यह एक तरह से भैरव और बागेश्री का एक सजातीय संयोजन है।
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