सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

गीता के प्रक्षेप-

[10/24, 10:03 AM] yogeshrohi📚: ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥41॥

ब्राह्मण-पुरोहित वर्गः क्षत्रिय युद्ध और शासन करने वाला वर्ग: विशाम व्यापार और कषि करने वाला वर्ग; शूद्राणाम्-श्रमिक वर्ग; च-और; परन्तप-शत्रुओं का विजेता, अर्जुन; कर्माणि-कर्त्तव्य; प्रविभक्तानि-विभाजित; स्वभाव-प्रभवैः-गुणैः-किसी के स्वभाव और गुणों पर आधारित कर्म।

Translation
BG 18.41: हे शत्रुहंता! ब्राह्मणों, श्रत्रियों, वैश्यों और शुद्रों के कर्तव्यों को इनके गुणों के अनुसार तथा प्रकृति के तीन गुणों के अनुरूप वितरित किया गया है, न कि इनके जन्म के अनुसार।

Commentary
किसी ने ठीक ही कहा है कि उपयुक्त व्यवसाय की खोज एक उपयुक्त जीवन साथी की खोज करने के समान है लेकिन हम स्वयं अपने लिए उपयुक्त व्यवसाय की कैसे खोज करें? यहाँ श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार लोगों का स्वभाव भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है जिससे उनके व्यक्तित्त्व का निर्माण होता है और इसलिए विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक दायित्व उनके लिए सुविधाजनक होते हैं। 'स्वभाव-प्रभावैः-गुणेः' (मानव स्वभाव और गुण पर आधारित कर्म) के अनुसार वर्णाश्रम धर्म पद्धति समाज की वैज्ञानिक व्यवस्था थी। इस पद्धति के वर्गीकरण में चार आश्रम थे जिन्हें जीवन की चार अवस्थाएँ भी कहा जाता है और चार वर्ण अर्थात चार व्यावसायिक श्रेणियाँ थी। जीवन की चार अवस्थाएँ इस प्रकार से थीं-(1) ब्रह्मचर्य आश्रम-(विद्यार्थी जीवन) जो जन्म से 25 वर्ष तक की आयु के पश्चात समाप्त होता था। (2) गृहस्थ आश्रम-यह नियमित वैवाहिक जीवन था। यह 25 वर्ष की आयु से 50 वर्ष की आयु तक था। (3) वानप्रस्थ आश्रम- यह 50 वर्ष से 75 वर्ष तक की आयु का था। इस अवस्था में मनुष्य अपने परिवार के साथ रहता था लेकिन वैराग्य का अभ्यास भी करता था। (4) संन्यास आश्रम-यह 75 वर्ष से आगे की अवस्था थी जिसमें मनुष्य अपनी घर गृहस्थी के दायित्वों का त्याग करता था और पवित्र स्थानों में निवास करते हुए मन को भगवान में तल्लीन करता था। 

चार वर्णों अर्थात चार व्यावसायिक श्रेणियों में ब्राह्मण (पुरोहित वर्ग), अत्रिय वर्ग (योद्धा और शासक वर्ग), वैश्य (व्यापार और कृषि वर्ग वाले), शूद्र (कर्मचारी वर्ग) आते थे। वर्णों के मध्य कोई बड़ा या छोटा नहीं माना जाता था। क्योंकि भगवान ही समाज का केन्द्र थे और सभी अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार स्वयं और समाज को बनाए रखने के लिए काम करते थे और भगवद्प्राप्ति के लिए प्रगति करते हुए अपने जीवन को सफल बनाते थे। इस प्रकार वर्णाश्रम पद्धति में विविधता में एकता थी। विविधता प्रकृति में अंतनिर्हित है और इसे कोई समाप्त नहीं कर सकता। हमारे शरीर में विभिन्न अंग है और ये सब भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य करते हैं। सभी अंगों से एक समान कार्य करने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। इन सबको अलग-अलग समझना अज्ञानता का द्योतक नहीं है बल्कि उनकी उपयोगिता का तथ्यात्मक ज्ञान है। समान रूप से मानव जाति के बीच भी विविधता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। समाजवादी देशों में जहाँ समानता सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत लेकिन वहाँ भी राजनीतिक दलों के नेता हैं जो विचारधारा तैयार करते हैं। वहाँ सेना है जो बंदूकों का प्रयोग करती और देश की सुरक्षा करती हैं। वहाँ किसान हैं जो खेती-बाड़ी करते हैं। इन देशों में औद्योगिक श्रमिक भी हैं जो यांत्रिक कार्य करते हैं। समाजवादी देशों में समानता के प्रयासों के पश्चात भी व्यवसाय के चार वर्ग विद्यमान हैं। वर्णाश्रम पद्धति ने मानवीय प्रकृति में विविधता को मान्यता दी और लोगों के स्वभाव के अनुकूल वैज्ञानिक ढंग से उनके कर्त्तव्य और व्यवसाय निर्धारित किए। 

यद्यपि समय व्यतीत होने के साथ-साथ वर्णाश्रम पद्धति विरूपित हो गयी और वर्गों में परिवर्तन किसी मनुष्य की प्रकृति की अपेक्षा जन्म के आधार पर होने लगा। ब्राह्मणों के बच्चों ने स्वयं को ब्राह्मण कहना आरम्भ कर दिया भले ही वे इसके लिए अपेक्षित गुणों से संपन्न हों या न हों। उच्च तथा निम्न जाति की अवधारणा को भी प्रसारित किया गया और उच्च जातियों के लोग निम्न जातियों को हेय दृष्टि से देखने लगे। जब यह पद्धति कठोर और जन्म आधारित हो गयी तब यह दुष्क्रियात्मक हो गयी। यह एक समाजिक दोष था जो समय के साथ उभरा और यह वर्णाश्रम पद्धति का मूल उद्देश्य नहीं था। 

अगले कुछ श्लोकों में इस पद्धति के मूल श्रेणीकरण के अनुसार श्रीकृष्ण लोगों के गुणों को उनके कर्म के स्वाभाविक गुणों के साथ चित्रित करेंगे।



शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥42॥

शमः-शान्ति; दमः-संयम; तपः-तपस्या; शौचम्-पवित्रता; क्षान्तिः-धैर्य; आर्जवम्-सत्यनिष्ठा; एव-निश्चय ही; च-और; ज्ञानम्-ज्ञान, विज्ञानम्-विवेक; अस्तिक्यम्-परलोक में विश्वास; ब्रह्म-ब्राह्मण, पुरोहित वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभावजम्-स्वाभाविक गुणों से उत्पन्न।

Translation
BG 18.42: शान्ति, संयम, तपस्या, शुद्धता, धैर्य, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विवेक तथा परलोक में विश्वास-ये सब ब्राह्मणों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं।

Commentary
सात्विक गुणों की प्रधानता से संपन्न लोग ब्राह्मण कहलाते थे। उनके मुख्य कार्य तपस्या करना, मन की शुद्धि का अभ्यास करना, भक्ति करना और दूसरों को अपने आदर्शों से प्रेरित करना था इसलिए उनमें सहिष्णुता, विनम्रता और आध्यात्मिक मनोवृति की उपेक्षा की जाती थी। उनसे स्वयं अपने और अन्य वर्गों के लिए वैदिक अनुष्ठानों का निष्पादन करने की अपेक्षा की जाती थी। उनकी प्रकृति उन्हें ज्ञान के प्रेम की ओर प्रवृत्त करती थी। इसलिए शिक्षा प्रदान करना और ज्ञान पोषित करना तथा इसे सब के साथ बांटना भी उनकी वृत्ति के अनुकुल था। यद्यपि वे स्वयं राज्य के प्रशासनिक कार्यों में भाग नहीं लेते थे लेकिन वे अधिकारियों को मार्गदर्शन प्रदान करते थे। चूंकि वे शास्त्रों के ज्ञान से संपन्न थे इसलिए सामाजिक और राजनीतिक विषयों के संबंध में उनके विचारों का अति महत्व था।


शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥43॥

शौयम्-शौर्य; तेजः-शक्ति; धृतिः-धैर्य; दाक्ष्यम्-युद्धे-रण कौशल; च और; अपि-भी; अपलायनम्-विमुख न होना; दानम्-उदार हृदय; ईश्वर–नेतृत्व; भावः-गुणः च-और; क्षात्रम् योद्धा और शासक वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभाव-जम्-स्वभाव से उत्पन्न गुण।

Translation
BG 18.43: शूरवीरता, शक्ति, धैर्य, रण कौशल, युद्ध से पलायन न करने का संकल्प, दान देने में उदारता नेतृत्व क्षमता-ये सब क्षत्रियों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं।

Commentary
क्षत्रिय उन्हें कहते थे जिनमें सत्वगुण सहित रजोगुण प्रधान होता था। इन गुणों ने उन्हें शासक, नायक, निडर, नेतृत्ववान और दानवीर बनाया। उनके गुण सैन्य और नेतृत्व संबंधी कार्यों के अनुकूल थे और उन्होंने शासक वर्ग तैयार किया जिन्होंने देश पर शासन किया। फिर भी वे अनुभव करते थे कि ब्राह्मणों की तुलना में अन्य विद्वान पवित्र नहीं है इसलिए उन्होंने सदैव ब्राह्मणों का मान-सम्मान किया और वैचारिक, आध्यात्मिक और नीतिगत मामलों में उनसे परामर्श प्राप्त किया।
[10/24, 10:43 AM] yogeshrohi📚: मूल श्लोकः
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।
 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।3.35।।रागद्वेषयुक्त मनुष्य तो शास्त्रके अर्थको भी उलटा मान लेता है और परधर्मको भी धर्म होनेके नाते अनुष्ठान करनेयोग्य मान बैठता है। परंतु उसका ऐसा मानना भूल है अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये गये अर्थात् अंगप्रत्यंगोंसहित सम्पादन किये गये भी परधर्मकी अपेक्षा गुणरहित भी अनुष्ठान किया हुआ अपना धर्म कल्याणकर है अर्थात् अधिक प्रशंसनीय है। परधर्ममें स्थित पुरुषके जीवनकी अपेक्षा स्वधर्ममें स्थित पुरुषका मरण भी श्रेष्ठ है क्योंकि दूसरेका धर्म भयदायक है नरक आदि रूप भयका देनेवाला है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya
।।3.35।। श्रेयान् प्रशस्यतरः स्वो धर्मः स्वधर्मः विगुणः अपि विगतगुणोऽपि अनुष्ठीयमानः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् साद्गुण्येन संपादितादपि। स्वधर्मे स्थितस्य निधनं मरणमपि श्रेयः परधर्मे स्थितस्य जीवितात्। कस्मात् परधर्मः भयावहः नरकादिलक्षणं भयमावहति यतः।।

यद्यपि अनर्थमूलम् ध्यायतो विषयान्पुंसः (गीता 2.62) इति रागद्वेषौ ह्यस्य परिपन्थिनौ इति च उक्तम् विक्षिप्तम् अनवधारितं च तदुक्तम्। तत् संक्षिप्तं निश्चितं च इदमेवेति ज्ञातुमिच्छन् अर्जुनः उवाच ज्ञाते हि तस्मिन् तदुच्छेदाय यत्नं कुर्याम् इति अर्जुन उवाच

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।3.35।। अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda
।।3.35।। सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है;  स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है।।
[10/24, 10:54 AM] yogeshrohi📚: उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।3.24।।
 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
 3.24।। व्याख्या-- [बाईसवें श्लोकमें भगवान्ने अन्वय-रीतिसे कर्तव्य-पालनकी आवश्यकताका प्रतिपादन किया और इन श्लोकोंमें भगवान् व्यतिरेक-रीतिसे कर्तव्य-पालन न करनेसे होनेवाली हानिका प्रतिपादन करते हैं।]यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः पूर्वश्लोकमें आये 'वर्त एव च कर्मणि' पदोंकी पुष्टिके लिये यहाँ 'हि'पद आया है।भगवान् कहते हैं कि मैं सावधानीपूर्वक कर्म न करूँ--ऐसा हो ही नहीं सकता; परन्तु यदि ऐसा मान लें' कि मैं कर्म न करूँ-- इस अर्थमें भगवान्ने यहाँ 'यदि जातु' पदोंका प्रयोग किया है।'अतन्द्रितः' पदका तात्पर्य यह है कि कर्तव्य-कर्म करनेमें आलस्य और प्रमाद नहीं करना चाहिये, अपितु उन्हें बहुत सावधानी और तत्परतासे करना चाहिये। सावधानी-पूर्वक कर्तव्य-कर्म न करनेसे मनुष्य आलस्य और प्रमादके वशमें होकर अपना अमूल्य जीवन नष्ट कर देता है।कर्मोंमें शिथिलता (आलस्य-प्रमाद) न लाकर उन्हें सावधानी एवं तत्परतापूर्वक करनेसे ही कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है। जैसे वृक्षकी कड़ी टहनी जल्दी टूट जाती है, पर जो अधूरी टूटनेके कारण लटक रही है, ऐसी शिथिल (ढीली) टहनी जल्दी नहीं टूटती, ऐसे ही सावधानी एवं तत्परतापूर्वक कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, पर आलस्य-प्रमादपूर्वक (शिथिलतापूर्वक) कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता। इसीलिये भगवान्ने उन्नीसवें श्लोकमें 'समाचर' पदका तथा इस श्लोकमें'अतन्द्रितः' पदका प्रयोग किया है।अगर किसी कर्मकी बार-बार याद आती है, तो यही समझना चाहिये कि कर्म करनेमें कोई त्रुटि (कामना, आसक्ति, अपूर्णता, आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा आदि) हुई है, जिसके कारण उस कर्मसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हुआ है। कर्मसे सम्बन्ध-विच्छेद न होनेके कारण ही किये गये कर्मकी याद आती है।'मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः' इन पदोंसे भगवान् मानो यह कहते हैं कि मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाले ही वास्तवमें मनुष्य कहलानेयोग्य हैं। जो मुझे आदर्श न मानकर आलस्य-प्रमादवश कर्तव्य-कर्म नहीं करते और अधिकार चाहते हैं, वे आकृतिसे मनुष्य होनेपर भी वास्तवमें मनुष्य कहलानेयोग्य नहीं हैं।इसी अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि श्रेष्ठ पुरुषके आचरण और प्रमाणके अनुसार सब मनुष्य उनका अनुसरण करते हैं और इस श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुसरण करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ पुरुष तो एक ही लोक-(मनुष्यलोक-) में आदर्श पुरुष हैं पर मैं तीनों ही लोकोंमें आदर्श पुरुष हूँ।मनुष्यको संसारमें कैसे रहना चाहिये-- यह बतानेके लिये भगवान् मनुष्यलोकमें अवतरित होते हैं। संसारमें अपने लिये रहना ही नहीं है--यही संसारमें रहनेकी विद्या है। संसार वस्तुतः एक विद्यालय है, जहाँ हमें कामना, ममता, स्वार्थ आदिके त्यागपूर्वक दूसरोंके हितके लिये कर्म करना सीखना है और उसके अनुसार कर्म करके अपना उद्धार करना है। संसारके सभी सम्बन्धी एकदूसरेकी सेवा (हित) करनेके लिये ही हैं।इसीलिये पिता पुत्र पति पत्नी भाई बहन आदि सबको चाहिये कि वे एकदूसरेके अधिकारकी रक्षा करते हुए अपनेअपने कर्तव्य पालन करें और एक-दूसरेके कल्याणकी चेष्टा करें।
[10/24, 11:30 AM] yogeshrohi📚: भगवद गीता: अध्याय 17, श्लोक 23

 "तत्सदिति निर्देशो ब्राह्मणस्त्रिविध: स्मृत: |
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा || 23||

ॐ तत् सद इति निर्देशो ब्राह्मणस् त्रिविधः स्मृतः
ब्राह्मणः तेन वेदश् च यज्ञश्च च विहिताः पुरा

ओम तत् सत् - पारलौकिकता के पहलुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले शब्दांश ; इति - इस प्रकार ; निर्देशः – प्रतीकात्मक प्रतिनिधि ; ब्राह्मणः - परम परम सत्य ; त्रि-विधः – तीन प्रकार का ; स्मृतः – घोषित किया गया है ; ब्राह्मणः – पुरोहित ; तेन – उनसे ; वेदः – शास्त्र ; च – तथा ; यज्ञः – बलिदान ; च – तथा ; विहिताः – आया ; पुर - सृष्टि के आरंभ से
ॐ तत् सद इति निर्देशो ब्राह्मण त्रिविधः स्मृतः
ब्राह्मण तेन वेदश च यज्ञश्च च विहितः पुरा
_________
अनुवाद
बीजी 17.23 : "ओम तत् सत्" शब्द को सृष्टि की शुरुआत से ही सर्वोच्च परम सत्य का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व घोषित किया गया है। उनसे याजक, धर्मग्रंथ और बलिदान निकले।

टीका
इस अध्याय में, श्री कृष्ण ने भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार यज्ञ (बलिदान), तप: (तपस्या), और दान (दान) की श्रेणियों को समझाया । इन तीन गुणों में से, अज्ञान का गुण आत्मा को अज्ञानता, सुस्ती और आलस्य में बदल देता है। रजोगुण जीव को उत्तेजित कर असंख्य कामनाओं में बाँध देता है। अच्छाई का स्वरूप शांत और प्रकाशमय है, और सद्गुणों के विकास को जन्म देता है। फिर भी, अच्छाई का गुण भी माया के दायरे में है। हमें इससे आसक्त नहीं होना चाहिए; इसके बजाय, हमें दिव्य मंच तक पहुंचने के लिए अच्छाई के तरीके को एक सीढ़ी के रूप में उपयोग करना चाहिए। 
इस श्लोक में, श्री कृष्ण तीन गुणों से परे जाते हैं, और ओम तत् सत् शब्द की चर्चा करते हैं , जो पूर्ण सत्य के विभिन्न पहलुओं का प्रतीक है। 
निम्नलिखित श्लोक में वह इन तीन शब्दों का महत्व बताते हैं।
[10/24, 11:33 AM] yogeshrohi📚: भगवद गीता: अध्याय 17, श्लोक 14

देवद्विज्गुरुप्रज्ञपूजनं शौचमार्जवम् |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शरीरं तप उच्यते || 14||
____________
(द्विज)

देव-द्विज-गुरु-प्रज्ञा- पूजनं शौचं आर्जवं
ब्रह्मचर्यं अहिंसा च शरीरं तप उच्यते

देव – परम भगवान ; द्विज – ब्राह्मण ; गुरु - आध्यात्मिक गुरु ; प्रज्ञा – बुजुर्ग ; पूजनम् – पूजा ; शौचम् – स्वच्छता ; आर्जवम् – सरलता ; ब्रह्मचर्यम् - ब्रह्मचर्य ; अहिंसा - अहिंसा ; च – तथा ; शरीरम् – शरीर का ; तपः – तपस्या ; उच्यते - के रूप में घोषित किया गया है
देव-द्विज-गुरु-प्रज्ञा- पूजनं शौचं आर्जवं
ब्रह्मचर्यं अहिंसा च शरीरं तप उच्यते।

अनुवाद
बीजी 17.14 : जब परम भगवान, ब्राह्मणों, आध्यात्मिक गुरु, बुद्धिमानों और बुजुर्गों की पूजा स्वच्छता, सादगी, ब्रह्मचर्य और अहिंसा के पालन के साथ की जाती है तो यह पूजा शरीर की तपस्या के रूप में घोषित की जाती है .

टीका
तपः शब्द का अर्थ है "गर्म करना", जैसे आग पर रखना। शुद्धिकरण की प्रक्रिया में, धातुओं को गर्म किया जाता है और पिघलाया जाता है, ताकि अशुद्धियाँ ऊपर तक बढ़ सकें और हटा दी जा सकें। जब सोने को आग में डाला जाता है तो उसकी अशुद्धियाँ जल जाती हैं और उसकी चमक बढ़ जाती है। इसी तरह, वेद कहते हैं: अताप्त तनुर्नतदा मोश्नुते (ऋग्वेद 9.83.1)[v3] "तपस्या के माध्यम से शरीर को शुद्ध किए बिना, कोई योग की अंतिम अवस्था तक नहीं पहुंच सकता।" ईमानदारी से तपस्या करके, मनुष्य अपने जीवन को सांसारिक से दिव्य तक उन्नत और परिवर्तित कर सकता है। ऐसी तपस्या दिखावे के बिना, शुद्ध इरादे से, शांतिपूर्ण तरीके से, आध्यात्मिक गुरु और शास्त्रों के मार्गदर्शन के अनुरूप की जानी चाहिए।

श्री कृष्ण अब ऐसी तपस्या को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं - शरीर, वाणी और मन की। इस श्लोक में वे शरीर की तपस्या की बात करते हैं। जब शरीर को शुद्ध और संतों की सेवा के लिए समर्पित किया जाता है, और सामान्य रूप से सभी इंद्रिय भोग और विशेष रूप से यौन भोग को छोड़ दिया जाता है, तो इसे शरीर की तपस्या के रूप में प्रशंसित किया जाता है। ऐसी तपस्या स्वच्छता, सादगी और दूसरों को कष्ट न हो इसका ध्यान रखते हुए की जानी चाहिए। यहां, "ब्राह्मण" का तात्पर्य उन लोगों से नहीं है जो खुद को जन्म से ब्राह्मण मानते हैं, बल्कि उन लोगों से है जो सात्विक गुणों से संपन्न हैं, जैसा कि श्लोक 18.42 में वर्णित है।
__________________
[10/24, 11:38 AM] yogeshrohi📚: भगवद गीता भगवान का गीत
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भगवद गीता: अध्याय 16, श्लोक 23
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: |
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् || 23||

यः शास्त्र-विधिम उत्सृज्य वर्तते काम-कर्ता:
न स सिद्धिं अवाप्नोति न सुखं न परम गतिम्

यः – कौन ; शास्त्र-विधिम् - शास्त्रीय आदेश ; उत्सृज्य - त्यागना ; वर्तते – कार्य करना ; काम-करतः - इच्छा के आवेग के तहत ; न – न ; सः – वे ; सिद्धिम् – पूर्णता ; अवाप्नोति – प्राप्त करें ; न – न ; सुखम् – सुख ; न – न ; परम – सर्वोच्च ; गतिम - लक्ष्य
यः शास्त्र-विधिम् उत्सृज्य वर्तते काम-करतः
न स सिद्धिं अवप्नोति न सुखं न परम गतिम्

अनुवाद
बीजी 16.23 : जो लोग शास्त्रों की आज्ञाओं को त्यागकर, इच्छा के आवेग के तहत कार्य करते हैं, वे न तो पूर्णता, न खुशी, न ही जीवन में सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करते हैं।

टीका
धर्मग्रंथ मनुष्य को आत्मज्ञान की ओर यात्रा पर दिए गए मार्गदर्शक मानचित्र हैं। वे हमें ज्ञान और समझ प्रदान करते हैं। वे हमें यह भी निर्देश देते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। ये निर्देश दो प्रकार के हैं- विधि और निषेध । कुछ गतिविधियों को करने के निर्देशों को विधि कहा जाता है । कुछ कार्यों को न करने के निर्देश को निषेध कहा जाता है । इन दोनों प्रकार के आदेशों का निष्ठापूर्वक पालन करके मनुष्य पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है। लेकिन आसुरी लोगों के तरीके शास्त्रों की शिक्षाओं के विपरीत हैं। वे निषिद्ध कार्यों में संलग्न होते हैं और अनुशंसित कार्यों से बचते हैं। ऐसे लोगों का उल्लेख करते हुए, श्री कृष्ण घोषणा करते हैं कि जो लोग अधिकृत मार्ग को त्याग देते हैं और अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं, अपनी इच्छाओं के आवेगों से प्रेरित होकर, न तो सच्चा ज्ञान प्राप्त करते हैं, न ही खुशी की पूर्णता, न ही भौतिक बंधन से मुक्ति प्राप्त करते हैं।

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स्वामी मुकुंदानंद द्वारा लिखित भगवद गीता, अध्याय दैवासुर संपद विभाग योग
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[10/24, 11:45 AM] yogeshrohi📚: 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.46




यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः || ४६ ||





यतः - जिससे; प्रवृत्तिः - उद्भव; भूतानाम् - समस्त जीवों का; येन - जिससे; सर्वम् - समस्त; इदम् - यह; ततम् - व्याप्त है; स्व-कर्मणा - अपने कर्म से; तम् - उसको; अभ्यर्च्य - पूजा करके; सिद्धिम् - सिद्धि को; विन्दति - प्राप्त करता है; मानवः - मनुष्य ।



भावार्थ





जो सभी प्राणियों का उदगम् है और सर्वव्यापी है, उस भगवान् की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है ।





तात्पर्य




जैसा कि पन्द्रहवें अध्याय में बताया जा चुका है, सारे जीव परमेश्र्वर के भिन्नांश हैं । इस प्रकार परमेश्र्वर ही सभी जीवों के आदि हैं । वेदान्त सूत्र में इसकी पुष्टि हुई है-जन्मा द्यस्य यतः । अतएव परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के जीवन के उद्गम हैं । जैसा कि भगवद्गीता के सातवें अध्याय में कहा गया है, परमेश्र्वर अपनी परा तथा अपरा, इन दो शक्तियों द्वारा सर्वव्यापी हैं । अतएव मनुष्य को चाहिए कि उनकी शक्तियों सहित भगवान् की पूजा करे । सामान्यतया वैष्णव जन परमेश्र्वर की पूजा उनकी अन्तरंगा शक्ति समेत करते हैं । उनकी बहिरंगा शक्ति उनकी अंतरंगा शक्ति का विकृत प्रतिबिम्ब है । बहिरंगा शक्ति पृष्ठ भूमि है, लेकिन परमेश्र्वर परमात्मा रूप में पूर्णांश का विस्तार करके सर्वत्र स्थित हैं । वे सर्वत्र समस्त देवताओं, मनुष्यों और पशुओं के परमात्मा हैं । अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि परमेश्र्वर का भिन्नांश अंश होने के कारण उसका कर्तव्य है कि वह भगवान् की सेवा करे । प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनामृत में भगवान् की भक्ति करनी चाहिए । इस श्लोक में इसी की संस्तुति की गई है ।
[10/24, 12:15 PM] yogeshrohi📚: भगवद गीता भगवान का गीत
स्वामी मुकुन्दानन्द की टिप्पणी
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भगवद गीता: अध्याय 18, श्लोक 48
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
सर्वारंभ हि दोषेन धूमेनाग्निरिवावृता: || 48||

सह-जन्म कर्म कौन्तेय स-दोषम अपि न त्यजेत
सर्वारंभ हि दोषेण धूमेनाग्निर इवावृता:

सह-जम् – अपने स्वभाव से उत्पन्न ; कर्म - कर्तव्य ; कौन्तेय - कुंती के पुत्र अर्जुन ; स-दोषम् – दोषों सहित ; अपि - भले ही ; न त्यजेत् – त्याग नहीं करना चाहिए ; सर्व-आरंभः - सभी प्रयास ; हाय - सचमुच ; दोषेण – बुराई के साथ ; धूमेण – धुएँ के साथ ; अग्निः – आग ; इव - जैसे ; आवृताः – ढका हुआ
सह-जम कर्म कौन्तेय स-दोषम अपि न त्यजेत
सर्वारंभ हि दोषेन धूमेनाग्निर इववृतः

अनुवाद
बीजी 18.48 : हे कुंती पुत्र, किसी को अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्तव्यों को नहीं छोड़ना चाहिए, भले ही उनमें कोई दोष दिखाई दे। दरअसल, सभी प्रयास किसी न किसी बुराई से ढके होते हैं, जैसे आग धुएं से ढकी होती है।

टीका
कभी-कभी लोग अपने कर्तव्य से विमुख हो जाते हैं क्योंकि उन्हें उसमें दोष दिखाई देता है। यहां, श्री कृष्ण कहते हैं कि कोई भी कार्य दोष से मुक्त नहीं है, जैसे आग के ऊपर स्वाभाविक रूप से धुआं होता है। उदाहरण के लिए, लाखों रोगाणुओं को मारे बिना हम सांस नहीं ले सकते। यदि हम भूमि पर खेती करते हैं, तो हम असंख्य सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देते हैं। यदि हम व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा के विरुद्ध सफल होते हैं, तो हम दूसरों को धन से वंचित करते हैं। जब हम खाते हैं तो हम दूसरे को भोजन से वंचित कर देते हैं। चूंकि स्व-धर्म में गतिविधि शामिल है, इसलिए यह दोषों से रहित नहीं हो सकता।

लेकिन स्व-धर्म के लाभ इसके दोषों से कहीं अधिक हैं। और सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह है कि यह व्यक्ति की शुद्धि और उत्थान के लिए एक आरामदायक और प्राकृतिक मार्ग प्रदान करता है। अपनी पुस्तक, मेकिंग ए लाइफ, मेकिंग ए लिविंग में, मार्क एल्बियन, जो हार्वर्ड बिजनेस स्कूल में प्रोफेसर थे, एक अध्ययन का हवाला देते हैं जिसमें 1960 से 1980 तक 1,500 बिजनेस स्कूल स्नातकों के करियर को ट्रैक किया गया था। शुरुआत से, स्नातक थे दो श्रेणियों में बांटा गया। श्रेणी ए में वे लोग थे जिन्होंने कहा कि वे पहले पैसा कमाना चाहते थे, ताकि अपनी वित्तीय चिंताओं का ध्यान रखने के बाद वे वह कर सकें जो वे वास्तव में करना चाहते थे। 83 प्रतिशत श्रेणी ए में आते हैं। श्रेणी बी में वे लोग थे जिन्होंने पहले अपने हितों को आगे बढ़ाया, निश्चित रूप से पैसा अंततः आएगा। सत्रह प्रतिशत श्रेणी बी में आये। 20 वर्षों के बाद, 101 करोड़पति थे। एक व्यक्ति श्रेणी ए से था (जो पहले पैसा कमाना चाहता था), और एक सौ व्यक्ति श्रेणी बी से थे (जिन्होंने पहले अपनी रुचि को आगे बढ़ाया)। जो लोग अमीर बने उनमें से अधिकांश ने ऐसे काम की बदौलत ऐसा किया जो उन्हें बेहद दिलचस्प लगा। मार्क एल्बियन का निष्कर्ष है कि अधिकांश लोगों के लिए काम और खेल में अंतर होता है। लेकिन अगर वे वही करते हैं जो उन्हें पसंद है, तो काम खेल बन जाता है, और उन्हें अपने जीवन में कभी भी दूसरे दिन काम नहीं करना पड़ता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से यही करने के लिए कह रहे हैं कि वह उस कार्य को न छोड़े जो उसकी प्रकृति के लिए सबसे उपयुक्त है, भले ही उसमें दोष हों, बल्कि अपनी प्राकृतिक प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करें। लेकिन कार्य को उन्नत बनाने के लिए उसे उचित चेतना में किया जाना चाहिए, जिसका वर्णन अगले श्लोक में किया गया है।

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