शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

तुलसी के साथ विष्णु का छल - तच्छ्रुत्वा कवचं दिव्यं जग्राह हरिरेव च ।शङ्‌खचूडस्य रूपेण जगाम तुलसीं प्रति ॥ ११ ॥गत्वा तस्यां मायया च वीर्याधानं चकार ह ।अथ शम्भुर्हरेः शूलं जग्राह दानवं प्रति ॥ १२ ॥

स्कन्ध (9) अध्याय (23)

भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोप के रूपमें गोलोक पहुँचना

श्रीनारायण बोले- हे नारद! तत्त्वज्ञानके पूर्ण विद्वान् शिवजी सम्पूर्ण बातें सुनकर अपने गणों साथ स्वयं संग्राम-भूमिमें गये ।1॥

शिवजीको देखकर उस शंखचूड़ने तत्काल विमानसे उतरकर परमभक्तिपूर्वक पृथ्वीपर मस्तक टेककर दण्डवत् प्रणाम किया ॥ 2 ॥

उन्हें प्रणाम करके वह बड़े वेगसे रथपर चढ़ गया और शीघ्रतापूर्वक कवच धारणकर उसने अपना दुर्वह धनुष उठा लिया ॥ 3 ॥

हे ब्रह्मन् ! भगवान् शिव तथा दानव शंखचूड़का वह युद्ध पूरे सौ वर्षों तक होता रहा। वे एक-दूसरे को न तो जीत पाते थे और न एक-दूसरे से पराजित ही हो रहे थे ll 4 ॥
कभी अपना शस्त्र रखकर भगवान् शिव वृषभपर विश्राम करने लगते और कभी शस्त्र रखकर दानव शंखचूड़ रथपर ही विश्राम करने लगता था ॥ 5 ॥

असंख्य दानवों का संहार हुआ। साथ ही रणमें देवपक्षके जो योद्धा मारे गये थे, उन्हें भगवान् शिवने पुनः जीवित कर दिया ॥ 6 ॥

इसी बीच एक परम आतुर बूढ़े ब्राह्मणदेवता रणभूमिमें आकर दानवेन्द्र संखचूड़ से कहने लगे

वृद्ध ब्राह्मण बोले- हे राजेन्द्र ! मुझ ब्राह्मणको भिक्षा प्रदान कीजिये। इस समय आप सम्पूर्ण सम्पदाओं को देने में समर्थ है, अतः मेरे मनमें जो अभिलषित है, उसे दीजिये। इस समय पहले आप मुझ निरीह, वृद्ध तथा तृषित ब्राह्मणको देनेके लिये सत्यप्रतिज्ञा कीजिये, तब बाद में मैं अपनी अभिलाषा बताऊँगा ॥ 8-9 ॥
इसपर प्रफुल्लित मुख तथा नेत्रोंवाले राजेन्द्र शंखचूड़ने 'हाँ-हाँ, ठीक है' – ऐसा कहा। तत्पश्चात् वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी श्री हरि ने अत्यधिक माया के साथ कहा 'मैं तुम्हारा कवच चाहता हूँ' ॥10 ॥

उनकी बात सुनकर शंखचूड़ने कवच दे दिया | और भगवान् श्रीहरिने उसे ले लिया। तत्पश्चात् वे शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसी के पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मायापूर्वक उस तुलसी में अपने तेज का आधान किया ॥ 11 ॥

उसी समय शंकरजी ने श्रीहरि का दिया हुआ त्रिशूल शंखचूड़पर चलानेके लिये हाथमें ले लिया। वह त्रिशूल ग्रीष्म ऋतुमें मध्याह्नकालीन सूर्य और प्रलयाग्निकी शिखाके समान तेजवान् था, किसी से भी रोका न जा सकने वाला, प्रचण्ड, अव्यर्थ तथा शत्रुघाती वह त्रिशूल तेजमें भगवान् विष्णुके चक्रके समान था, वह सभी शस्त्रास्त्रों का सारस्वरूप था, वह भयंकर त्रिशूल शिव तथा केशवके अतिरिक्त अन्य लोगोंके लिये दुर्वह तथा भयंकर था। वह लम्बाई में हजार धनुषके बराबर तथा चौड़ाईमें सौ हाथकी मापवाला था, वह त्रिशूल साक्षात् सजीव ब्रह्मस्वरूप ही था, वह नित्यस्वरूप था, उसे सभी लोग देख नहीं सकते थे ll 12 - 15 ॥

हे नारद! भगवान् शंकरने सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका संहार करने में समर्थ उस त्रिशूलको अपनी लीलासे हाथपर सँभालकर शंखचूड़पर फेंक दिया ॥ 16 ॥

[तब सभी रहस्य समझकर] राजा शंखचूड़ अपना धनुष त्यागकर तथा बुद्धिपूर्वक योगासन लगाकर भक्तिके साथ श्रीकृष्णके चरणकमलका ध्यान करने लगा ॥ 17 ॥

वह त्रिशूल कुछ समयतक चक्कर काटकर दानव शंखचूड़के ऊपर जा गिरा। उस त्रिशूलने रथसमेत शंखचूड़को लीलापूर्वक जलाकर भस्म कर दिया ॥ 18 ॥

तदनन्तर शंखचूड़ने किशोर अवस्था तथा दिव्य रूपवाले एक गोपका वेष धारण कर लिया। वह दो भुजाओंसे सुशोभित था, उसके हाथमें मुरली थी तथा वह रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत था। वह उसी समय गोलोकसे आये हुए तथा करोड़ों गोपोंसे घिरे हुए एक सर्वोत्तम रत्ननिर्मित विमानपर आरूढ़ होकर गोलोक चला गया ।19-20 ॥
हे मुने। वहाँ पहुँचकर उसने वहाँके वृन्दावनमें रासमण्डलके मध्य विराजमान श्रीकृष्ण और राधाके चरणकमलमें भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ॥ 21 ॥

उस सुदामागोपको देखकर उन दोनोंके मुख तथा नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे और उन्होंने अत्यन्त प्रेमके साथ उसे अपनी गोदमें बैठा लिया ॥ 22 ॥ तदनन्तर वह त्रिशूल वेगपूर्वक आदरके साथ श्रीकृष्णके पास लौट आया। शंखचूड़की हड्डियों से शंखजाति को उत्पत्ति हुई। वही शंख अनेक प्रकारके रूपोंमें निरन्तर विराजमान होकर देवताओंकी पूजामें पवित्र माना जाता है। 
अत्यन्त प्रशस्त, पवित्र तथा तीर्थजलस्वरूप शंखजल केवल शंकरजीको छोड़कर अन्य देवताओंके लिये परम प्रीतिदायक है। जहाँ शंखकी ध्वनि होती है, वहाँ लक्ष्मीजी स्थिररूपसे सदा विराजमान रहती हैं ।। 23-25 ॥

जो शंखके जलसे स्नान कर लेता है, उसने मानो समस्त तीर्थोंमें स्नान कर लिया। शंख भगवान् श्रीहरिका अधिष्ठानस्वरूप है जहाँ शंख रहता है, वहाँ भगवान् श्रीहरि विराजमान रहते हैं, वहींपर भगवती लक्ष्मी भी निवास करती हैं तथा उस स्थानसे सारा अमंगल दूर भाग जाता है, किंतु स्त्रियों और विशेषरूपसे शूद्रोंके द्वारा की गयी शंखध्वनियोंसे भयभीत तथा रुष्ट होकर लक्ष्मीजी उस स्थानसे अन्य देशको चली जाती हैं ॥ 26-27 ॥

दानव शंखचूड़को मारकर शिवजी भी वृषभपर सवार होकर अपने गणक साथ प्रसन्नतापूर्वक शिवलोक चले गये। देवताओंने अपना राज्य प्राप्त कर लिया और वे परम आनन्दित हो गये। स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व तथा किन्नर गाने लगे, भगवान् शिवके ऊपर निरन्तर पुष्प वृष्टि होने लगी और देवता तथा श्रेष्ठ मुनीश्वर आदि उन शिवजीकी प्रशंसा करने लगे ॥ 28-30 ॥



[10/20, 7:32 PM] yogeshrohi📚: YugalSarkar.com


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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)
Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)
स्कन्ध 9, अध्याय 18 - Skand 9, Adhyay 18
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तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] एक समयकी बात है— वृषध्वजकी नवयौवनसम्पन्न कन्या तुलसी अत्यन्त सन्तुष्ट तथा प्रसन्नचित्त होकर शयन कर रही थी ॥ 1 ॥

उसी समय कामदेवने उसपर अपने पाँचों बाण चला दिये। पुष्प तथा चन्दनसे अनुलिप्त अंगोंवाली वह कन्या कामदेवके पुष्प बाणसे परितप्त हो गयी। उसका सारा अंग पुलकित हो उठा, उसके शरीरमेंकैंपर्कची होने लगी और उसकी आँखें लाल हो गयीं। वह क्षणभरमें सूख जाती थी और दूसरे क्षणमें मूर्च्छित हो जाती थी, पुनः क्षणभरमें उद्विग्न हो उठती थी और फिर क्षणभर सुखदायक तन्द्रासे युक्त हो जाती थी। | वह क्षणभर उत्तप्त हो जाती थी और फिर तुरंत प्रसन्न हो जाती थी। क्षणभरमें सचेत हो जाती थी और क्षणमें विषादग्रस्त हो जाती थी। वह कभी शय्यासे उठती हुई, कभी क्षणभरमें पासमें ही टहलती हुई, क्षणभरमें उद्वेगपूर्वक घूमती हुई और क्षणभरमें | बैठती हुई दिखायी पड़ती थी और फिर क्षणभरमें ही अत्यन्त उद्विग्न होकर अपनी शय्यापर पुनः सो जाती थी ॥ 26 ॥




पुष्प तथा चन्दनसे सुसजित शय्या उसे काँटों जैसी लगने लगी, दिव्य सुख और सुन्दर फल तथा जल उसके लिये विषतुल्य हो गये। उसे अपना भव्य भवन बिलके समान, शरीरके कोमल वस्त्र अग्निके समान और मस्तकका सिन्दूर दुःखदायी व्रणके समान लगने लगा ।। 7-8 ॥

थोड़ी देरमें तन्द्राको अवस्थामें उस साध्वी तुलसीने सुन्दर वेष धारण किये हुए, अपने सभी अंगोंमें चन्दन लगाये हुए तथा रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत एक सुन्दर युवा अवस्थावाले, मुसकानयुक्त तथा परम रसिक पुरुषको देखा। मालासे सुशोभित वह युवक उसके मुखकमलका पान करनेके लिये उसकी ओर आ रहा था, वह निरन्तर रतिक्रीड़ा सम्बन्धी कथाएँ कह रहा था और मधुर मधुर बोल रहा था तथा सहसा अपनी भुजाओंमें आलिंगित करके शय्यापर विहार कर रहा था। कुछ ही क्षणोंमें वह चला गया और फिर पास आ गया। इसके बाद पुनः जाते हुए उस युवकसे तुलसीने कहा- 'हे प्राणनाथ! आप कहाँ जा रहे हैं? बैठ जाइये।' तत्पश्चात् जाग जानेपर वह तुलसी बार-बार विलाप करने लगी हे नारद इस प्रकार युवावस्थाको प्राप्तकर वह तुलसी वहीं पर स्थित रही ॥ 9-13 ॥ शंखचूड़ जैगीषव्यमुनिसे श्रीकृष्णका मनोहर



मन्त्र प्राप्त करके और उस मन्त्रको पुष्करक्षेत्रमें सिद्ध
करके महान् योगी हो गया था। सभी मंगलोंका भीमंगल करनेवाले उस कवचको गलेमें बाँधकर और ब्रह्माजीसे 'जो तुम्हारे मनमें अभिलषित हो, वह पूर्ण हो जाय' - ऐसा वर प्राप्तकर वह शंखचूड़ भी ब्रह्माको आहासे बदरीवन आ गया ।। 14-15 ll

हे मुने! तुलसीने आते हुए शंखचूड़को देख लिया। वह नवयौवनसे सम्पन्न था, उसकी कान्ति कामदेवके समान थी, उसका वर्ण श्वेत चम्पाकी आभाके समान था, वह रत्नमय आभूषणोंसे सुशोभित था, उसका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान था, उसके नेत्र शरत्कालीन कमलसदृश थे, वह अमूल्य रत्नोंसे निर्मित विमानपर विराजमान था, वह अत्यन्त मनोहर था, दो रत्नमय कुण्डलोंसे उसका गण्डस्थल शोभायमान था, उसने पारिजात पुष्पोंकी माला धारण कर रखी थी, उसका मुखमण्डल मुसकानसे भरा हुआ था और उसका सर्वांग कस्तूरी, कुमकुमसे युक्त तथा सुगन्धित चन्दनसे अनुलिप्त था ऐसे शंखचूडको अपने पास देखकर वस्त्रसे अपना मुख ढँककर मुसकराती हुई तथा कटाक्षके साथ बार-बार उसकी ओर देखती हुई तुलसीने नवमिलनके कारण लज्जावश अपना मुख नीचेकी ओर झुका लिया ॥ 16-21 ॥




उसका चन्द्रसदृश मुख शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाको भी लज्जित कर रहा था, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित नूपुरोंकी पंक्तिसे वह सुशोभित हो रही थी, सर्वोत्तम मणिसे निर्मित तथा सुन्दर शब्द करती हुई करधनीसे वह सुशोभित हो रही थी, वह मालतीके पुष्पोंकी | मालासे सम्पन्न केशपाश धारण किये हुई थी, उसने बहुमूल्य रत्नोंसे बने हुए मकराकृत कुण्डल अपने कानों में धारण कर रखे थे, चित्रमय दो कुण्डलोंसे उसका गण्डस्थल सुशोभित था, सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित हारके द्वारा उसके वक्षःस्थलका मध्यभाग उज्ज्वल दिखायी दे रहा था, रत्नमय कंकण-केयूर-शंख आदि आभूषणोंसे वह सुशोभित थी। रत्नजटित दिव्य अँगूठियाँ उसकी अँगुलियोंको सुशोभित कर रही थीं ऐसी भव्य रमणीय, सुशील, सुन्दर तथा साध्वी तुलसीको देखकर | वह शंखचूड़ उसके पास बैठ गया और मधुर वाणीमें उससे कहने लगा ॥ 22 - 263 ॥शंखचूड़ बोला- हे मानिनि ! हे कल्याणि ! हे सर्वकल्याणदायिनि ! तुम कौन हो और किसकी कन्या हो ? तुम समस्त स्त्रियों में धन्य तथा मान्य हो। हे सुन्दरि ! स्तब्ध हुए मुझ सेवकसे वार्तालाप करो ॥ 27-28 ॥

शंखचूड़का यह वचन सुनकर सुन्दर नेत्रोंवाली तथा
कामयुक्त तुलसी उस कामपीड़ित शंखचूड़से मुसकराते हुए तथा नीचेकी ओर मुख झुकाकर कहने लगी ॥ 29 ॥ तुलसी बोली- मैं धर्मध्वजकी पुत्री हूँ और इस तपोवनमें तपस्या करनेके निमित्त एक तपस्विनीके रूपमें रह रही हूँ। आप कौन हैं? आप यहाँ से सुखपूर्वक चले जाइये। श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न पुरुष | उच्च कुलमें उत्पन्न किसी अकेली साध्वी कन्याके साथ एकान्तमें बातचीत नहीं करते- ऐसा मैंने श्रुतिमें सुना है ॥ 30-31 ॥

जो नीच कुलमें उत्पन्न है तथा धर्मशास्त्रके ज्ञानसे वंचित है और जिसे श्रुतिका अर्थ सुननेका कभी अवसर नहीं मिला, वह दुराचारी व्यक्ति ही कामासक्त होकर परस्त्रीकी कामना करता है। स्त्री ऊपरसे बड़ी मधुर दिखायी देती है, किंतु सदा अभिमानमें चूर रहती है, पुरुषके लिये विनाशक होती है, वह विषसे परिपूर्ण ऐसे घटके सदृश होती है, जिसके मुखपर अमृत लगा हुआ हो, स्त्रीका हृदय छुरेकी धारके समान तीक्ष्ण होता है, किंतु ऊपरसे वह सदा मधुर बातें करती है, स्त्री अपना ही प्रयोजन सिद्ध करनेमें सदा तत्पर रहती है, अपने कार्यकी सिद्धिके लिये ही वह स्वामीके वशमें रहती है, अन्यथा वह सदा वशमें न रहनेवाली है, स्त्रीका हृदय अत्यन्त दूषित रहता है और उसके मुखमण्डल तथा नेत्रोंसे सदा प्रसन्नता झलकती रहती है ॥ 32-35 ॥ श्रुतियों तथा पुराणोंमें जिन स्त्रियोंका चरित्र अत्यन्त दूषित बताया गया है; बुरे विचारवाले व्यक्तिको छोड़कर ऐसा कौन विद्वान् तथा बुद्धिमान् होगा, जो उनपर विश्वास कर सकता है ॥ 36 ॥ उनका कौन शत्रु है और कौन मित्र ? वे नित्य नये-नये पुरुषकी कामना करती हैं। वे किसी भी सुन्दर वेषयुक्त पुरुषको देखकर उसे मन-ही-मन चाहने लगती हैं ॥ 37 ॥वे बाहरसे अपना हित साधनेके लिये अपने सतीत्वका प्रयत्नपूर्वक प्रदर्शन करती हैं, किंतु वास्तवमें सदा कामातुर रहती हैं। मनको आकृष्ट करनेवाली वे स्त्रियाँ कामदेवका आधारस्तम्भ होती हैं ॥ 38 ॥



स्त्री बाहरसे छलपूर्वक [अपनेको वासनावृत्तिसे रहित दिखाती हुई ] अपने प्रेमीको सन्तप्त करती है, किंतु मनमें समागमकी अभिलाषा रखती है। वह बाहरसे अत्यन्त लज्जित दीखती है, किंतु एकान्तमें अपने प्रेमीके साथ हास-परिहास करती है । ll 39 ।।

रतिका सुयोग न मिलनेपर मानिनी स्त्री कुपित हो जाती है और कलह करने लगती है। यथेच्छ सम्भोगसे स्त्री प्रसन्न रहती है और स्वल्प सम्भोगसे दुःखी हो जाती है ॥ 40 ॥

स्त्री स्वादिष्ट भोजन और शीतल जलकी अपेक्षा सुन्दर, रसिक, गुणी तथा युवक पतिकी ही आकांक्षा अपने मनमें रखती है ॥ 41 ॥

स्त्री अपने पुत्रसे भी अधिक स्नेह रसिक पुरुषपर रखती है। वह सम्भोगमें कुशल प्रेमीको अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय समझती है ॥ 42 ॥

स्त्री वृद्ध तथा सम्भोग करनेमें अक्षम पुरुषको शत्रुके समान समझती है और वह अत्यन्त कुपित होकर उस पुरुषके साथ सदा कलह करती रहती है। जिस प्रकार सर्प चूहेपर झपटता है, उसी प्रकार स्त्री वैसे पुरुषको बात-बातपर खाने दौड़ती है। नारी दुःसाहसकी मूर्ति तथा सर्वदा समस्त दोषोंकी आश्रयस्थली है ॥ 43-44 ॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओंके लिये भी स्त्री दुःसाध्य है। मोहस्वरूपिणी नारी तपस्याके मार्ग में अर्गलादण्डके समान और मोक्षके द्वारपर कपाटके समान बाधक होती है। वह भगवान्‌की भक्तिमें बाधा डालनेवाली तथा सभी प्रकारकी मायाकी पिटारी है। वह संसाररूपी कारागारमें सदा जकड़े रखनेके लिये जंजीरके समान है। स्त्री इन्द्रजालस्वरूप तथा स्वप्नके समान मिथ्या कही गयी है। स्त्री बाह्य सौन्दर्य तो धारण करती है, किंतु इसके भीतरी अंग अत्यन्त कुत्सित रहते हैं। स्त्रीका शरीर विष्ठा-मूत्र | पीब आदिका आधार, मलयुक्त, दुर्गन्धि-दोषसे परिपूर्ण,रक्तरंजित तथा अपवित्र रहता है। पूर्व समयमें ब्रह्माने | स्त्रीका सृजन मायावी पुरुषोंके लिये मायास्वरूपिणीके रूपमें, मुमुक्षुजनोंके लिये विषस्वरूपिणीके रूपमें तथा उसकी कामना करनेवालोंके लिये अदृश्यरूपिणीके रूपमें किया था ।। 45-49 ॥

हे नारद! उस शंखचूड़से ऐसा कहकर जब तुलसी चुप हो गयी, तब उसने हँसकर कहना आरम्भ किया ॥ 50 ॥

शंखचूड़ बोला- हे देवि! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब असत्य नहीं है, किंतु अब मुझसे भी कुछ सत्य तथा कुछ असत्यके विषयमें सुन लीजिये ॥ 51 ॥

विधाताने सबको मोहित करनेवाला नारीरूप [ वास्तविक और अवास्तविक] दो प्रकारसे रचा है— वास्तविक रूप प्रशंसनीय और दूसरा रूप निन्दनीय है। लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, राधा आदि आद्या शक्तियाँ सृष्टिकी सूत्ररूपा हैं, इन्हींसे सृष्टिका प्रारम्भ हुआ है ॥ 52-53 ॥

इन देवियोंके अंशसे प्रकट स्त्रीरूप वास्तविक कहा गया है; वह श्रेष्ठ, यशोरूप तथा समस्त मंगलोंका कारण है। शतरूपा, देवहूति, स्वधा, स्वाहा, दक्षिणा, छायावती, रोहिणी, वरुणानी, शची, कुबेरकी पत्नी, अदिति, दिति, लोपामुद्रा, अनसूया, कोटभी, तुलसी, अहल्या, अरुन्धती, मेना, तारा, मन्दोदरी, दमयन्ती, वेदवती, गंगा, मनसा, पुष्टि, तुष्टि, स्मृति, मेधा, कालिका, वसुन्धरा, षष्ठी, मंगलचण्डी, धर्मपत्नी मूर्ति, स्वस्ति, श्रद्धा, शान्ति, कान्ति, क्षान्ति, निद्रा, तन्द्रा, क्षुधा, पिपासा, सन्ध्या, दिवा, रात्रि, सम्पत्ति, धृति, कीर्ति, क्रिया, शोभा, प्रभा और शिवा-ये देवियाँ जो स्त्रीरूपमें प्रकट हैं, वे प्रत्येक युगमें श्रेष्ठ मानी गयी हैं । ll 54-60 ॥

जगदम्बाकी कलाके कलांशसे उत्पन्न जो स्वर्गकी दिव्य अप्सराएँ हैं, उन्हें अप्रशस्त तथा सम्पूर्ण लोकोंमें पुंश्चलीरूप कहा गया है ॥ 61 ॥

स्त्रियोंका जो सत्त्व-प्रधान रूप है, वही सर्वथा समीचीन है। अपने प्रभावके कारण वे ही उत्तम तथा साध्वीस्वरूप स्त्रियाँ सम्पूर्ण लोकोंमें प्रशंसित हैं।उन्हींको 'वास्तवरूपा' कहना चाहिये, ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं। रजोरूप और तमोरूपकी कलाओंके | भेदसे अनेक प्रकारकी स्त्रियाँ प्रसिद्ध हैं ।। 62-63 ॥

रजोगुणका अंश जिनमें प्रधान है, वे मध्यम श्रेणीकी हैं और वे भोगोंमें आसक्त रहती हैं। सुखभोगके वशीभूत होकर वे सदा अपने ही कार्यमें संलग्न रहती हैं। वे कपटयुक्त, मोहकारिणी तथा धर्मके अर्थसे पराङ्मुख रहती हैं; अतः रजोगुण प्रधान स्त्रीमें साध्वीभाव कभी नहीं उत्पन्न हो सकता है, विद्वान् लोग इसे स्त्रियोंका मध्यमरूप कहते हैं । ll 64-653 ॥

तमोरूप दुर्निवार्य है, बुद्धिमान् पुरुषोंने इस रूपको ‘अधम' कहा है। [हे देवि! तुमने जो कहा है कि ] उत्तम कुलमें उत्तम विद्वान् पुरुष निर्जन, जलविहीन तथा एकान्त स्थानमें किसी परस्त्रीसे कुछ भी नहीं पूछता है - यह तो उचित ही है, किंतु हे शोभने ! मैं तो इस समय ब्रह्माकी आज्ञासे ही तुम्हारे पास आया हूँ और गान्धर्वविवाहकी विधिके अनुसार तुम्हें पत्नीरूपमें ग्रहण करूँगा ll 66-68 ॥

देवताओंको सन्त्रस्त करनेवाला शंखचूड़ मैं ही हूँ। मैं दनुवंशमें उत्पन्न हुआ हूँ। विशेष बात यह है कि पूर्व जन्ममें मैं श्रीहरिके साथ उनके पार्षदरूपमें रहनेवाले आठ गोपोंमें सुदामा नामक एक गोप था। देवी राधिकाके शापसे इस समय मैं दानवेन्द्र बन गया हूँ ॥ 69-70 ॥

कृष्णके मन्त्रके प्रभावके कारण मैं पूर्वजन्मकी सभी बातें जानता हूँ। तुम्हें भी अपने पूर्वजन्मकी बातों का स्मरण होगा कि तुम उस समय तुलसी थी और श्रीहरिने तुम्हारे साथ विहार किया था और वही तुम राधिकाके कोपके कारण भारत-भूमिपर उत्पन्न हुई हो। उस समय मैं तुम्हारे साथ रमण करनेके लिये बहुत लालायित था, किंतु राधिकाके भयके कारण ऐसा नहीं हुआ ॥ 71-72 ॥

हे महामुने! इस प्रकार कहकर जब वह शंखचूड़ चुप हो गया, तब प्रसन्नतासे युक्त तुलसीने हँसते हुए कहना आरम्भ किया ॥ 73 ॥तुलसी बोली- इस प्रकारके [सद्विचारसम्पन्न ] विज्ञ पुरुष ही विश्वमें सदा प्रशंसित होते हैं। कोई स्त्री कामसे प्रेरित होकर ऐसे ही पतिकी सदा अभिलाषा रखती है ॥ 74 ॥

आप जैसे उत्तम विचारवाले पुरुषसे मैं निश्चित ही इस समय पराजित हो गयी हैं निन्दनीय तथा अपवित्र पुरुष तो वह होता है, जो स्त्रीके द्वारा जीत लिया गया हो ।। 75 ।।

पितृगण देवता तथा बान्धव-ये सब लोग स्त्रीके द्वारा पराभूत व्यक्तिको निन्दा करते हैं तथा माता-पिता एवं भ्राता भी स्त्रीजित मनुष्यकी मन-ही मन निन्दा करते रहते हैं ॥ 76 ll

शास्त्रों में विहित है कि जन्म और मृत्युजनित अशौचसे ब्राह्मण दस दिनोंमें, क्षत्रिय बारह दिनोंमें, वैश्य पन्द्रह दिनोंमें, शूद्र एक मासमें तथा वर्णसंकर अपनी मातृकुलपरम्पराके आचारके अनुसार शुद्ध हो जाते हैं, किंतु स्त्रीसे पराजित व्यक्ति सर्वदा अपवित्र रहता है और चितादहनके कालमें ही वह शुद्ध होता है । ll 77-78 ॥

स्त्रीजित मनुष्यके पितर उसके द्वारा प्रदत्त पिण्ड तथा तर्पणको इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते और देवता भी उसके द्वारा अर्पित पुष्प, जल आदिको स्वीकार नहीं करते हैं ॥ 79 ॥

जिसके मनको स्त्रियोंने हर लिया हो; उसके ज्ञान, तप, जप, होम, पूजन, विद्या अथवा यशसे क्या प्रयोजन! ॥ 80 ॥

आपकी विद्याका प्रभाव जाननेके लिये ही मैंने आपकी परीक्षा की है; क्योंकि कोई स्त्री किसी पुरुषकी सम्यक् परीक्षा करके ही पतिरूपमें उसका वरण करती है ॥ 81 ॥ जो मनुष्य गुणहीन, वृद्ध, अज्ञानी, दरिद्र, मूर्ख, रोगी, नीच, परम क्रोधी, अत्यन्त कटुवचन बोलनेवाले, पंगु, अंगहीन, अन्धे, बहरे, जड़, गूँगे, नपुंसकतुल्य तथा पापी वरको अपनी कन्या देता है, वह ब्रह्महत्या के पापका भागी होता है ॥ 82-84 ॥ शान्त, गुणी, युवक, विद्वान् तथा सदाचारी वरको अपनी पुत्री अर्पण करनेसे मनुष्यको दस यज्ञोंका फल प्राप्त होता है ॥ 85 ॥कोई कन्याका पालन-पोषण करके यदि उसे | बेच देता है, तब धनके लोभसे कन्याका विक्रय | करनेवाले उस मनुष्यको 'कुम्भीपाक' नरकमें जाना पड़ता है। वहाँपर वह पापी भोजनके रूपमें कन्या के मल-मूत्रका ही भक्षण करता है और चौदहों इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त कीड़े तथा कौवे उसे नोचते रहते हैं। तदनन्तर वह फिरसे जन्म प्राप्त करता है और अनेक रोगोंसे ग्रस्त रहता है। वह दिन-रात मांस ढोता है और मांस विक्रय करता रहता है, यह निश्चित है। हे तपोनिधे! इस प्रकार कहकर देवी तुलसी चुप हो | गयी ॥। 86-883 ॥

ब्रह्मा बोले- हे शंखचूड़ तुम इसके साथ क्या बातचीत कर रहे हो ? गान्धर्व-विवाहकी विधिके अनुसार अब तुम इसे स्वीकार कर लो; क्योंकि तुम पुरुषोंमें रत्न हो और यह साध्वी तुलसी भी स्त्रियोंमें रत्न है। एक प्रवीण स्त्रीका एक प्रवीण पुरुषके साथ संयोग बड़ा कल्याणकारी होता है। हे राजन्! निर्वाध तथा दुर्लभ सुखको पाकर भला कौन उसका त्याग करता है जो मनुष्य विरोधरहित सुखका त्याग कर देता है, वह पशु है, इसमें सन्देह नहीं है ll 89-913 ॥

[ इसके बाद ब्रह्माजीने तुलसीसे कहा-] हे सति तुम ऐसे गुणी और समस्त देवताओं, असुरों ! तथा दानवोंका दमन करनेवाले पतिकी क्या परीक्षा ले रही हो? जिस प्रकार विष्णुके पास लक्ष्मी, श्रीकृष्णके पास राधिका, मुझे ब्रह्माके पास सावित्री, भगवान् शिवके पास भवानी, भगवान् वराहके पास धरा, यज्ञके पास दक्षिणा, अत्रिके पास अनसूया, नलके पास दमयन्ती, चन्द्रमाके पास रोहिणी, कामदेवके | पास साध्वी रति, कश्यपके पास अदिति, वसिष्ठके पास अरुन्धती, गौतमके पास अहल्या कर्दमके पास देवहूति, बृहस्पतिके पास तारा, मनुके पास शतरूपा, यज्ञके पास दक्षिणा, अग्निके पास स्वाहा, इन्द्रके पास शची, गणेशके पास पुष्टि, स्कन्द (कार्तिकेय) के पास देवसेना और धर्मके पास साध्वी मूर्ति पत्नीरूपसे प्रतिष्ठित हैं; उसी प्रकार तुम भी शंखचूड़की सौभाग्यवती प्रिया बन जाओ और हे सुन्दरि ! अपने इस सुन्दर | प्रियतमके साथ विभिन्न स्थानोंपर अपनी इच्छाकेअनुसार निरन्तर विहार करो। अन्तमें तुम गोलोकमें पुनः भगवान् श्रीकृष्णको तथा वैकुण्ठमें चतुर्भुज श्रीविष्णुको प्राप्त करोगी ॥ 92 – 100 ॥

  

देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ०९/अध्यायः १९

शङ्‌खचूडेन सह तुलसीसङ्‌गमवर्णनम्

नारद उवाच
विचित्रमिदमाख्यानं भवता समुदाहृतम् ।
श्रुतेन येन मे तृप्तिर्न कदापि हि जायते ॥ १ ॥
ततः परं तु यज्जातं तत्त्वं वद महामते ।
श्रीनारायण उवाच
इत्येवमाशिषं दत्त्वा स्वालयं च ययौ विधिः ॥ २ ॥
गान्धर्वेण विवाहेन जगृहे तां च दानवः ।
स्वर्गे दुन्दुभिवाद्यं च पुष्पवृष्टिर्बभूव ह ॥ ३ ॥
स रेमे रामया सार्धं वासगेहे मनोरमे ।
मूर्च्छां सा प्राप तुलसी नवसङ्‌गमसङ्‌गता ॥ ४ ॥
निमग्ना निर्जले साध्वी सम्भोगसुखसागरे ।
चतुःषष्टिकलामानं चतुःषष्टिविधं सुखम् ॥ ५ ॥
कामशास्त्रे यन्निरुक्तं रसिकानां यथेप्सितम् ।
अङ्‌गप्रत्यङ्‌गसंश्लेषपूर्वकं स्त्रीमनोहरम् ॥ ६ ॥
तत्सर्वं रसशृङ्‌गारं चकार रसिकेश्वरः ।
अतीव रम्यदेशे च सर्वजन्तुविवर्जिते ॥ ७ ॥
पुष्पचन्दनतल्पे च पुष्पचन्दनवायुना ।
पुष्पोद्याने नदीतीरे पुष्पचन्दनचर्चिते ॥ ८ ॥
गहीत्वा रसिको रासे पुष्पचन्दनचर्चिताम् ।
भूषितो भूषणेनैव रत्‍नभूषणभूषिताम् ॥ ९ ॥
सुरते विरतिर्नास्ति तयोः सुरतिविज्ञयोः ।
जहार मानसं भर्तुर्लोलया लीलया सती ॥ १० ॥
चेतनां रसिकायाश्च जहार रसभाववित् ।
वक्षसश्चन्दनं राज्ञस्तिलकं विजहार सा ॥ ११ ॥
स च जहार तस्याश्च सिन्दूरं बिन्दुपत्रकम् ।
तद्वक्षस्युरोजे च नखरेखां ददौ मुदा ॥ १२ ॥
सा ददौ तद्वामपार्श्वे करभूषणलक्षणम् ।
राजा तदोष्ठपुटके ददौ रदनदंशनम् ॥ १३ ॥
तद्‌गण्डयुगले सा च प्रददौ तच्चतुर्गुणम् ।
आलिङ्‌गनं चुम्बनं च जङ्‌घादिमर्दनं तथा ॥ १४ ॥
एवं परस्परं क्रीडां चक्रतुस्तौ विजानतौ ।
सुरते विरते तौ च समुत्थाय परस्परम् ॥ १५ ॥
सुवेषं चक्रतुस्तत्र यद्यन्मनसि वाञ्छितम् ।
चन्दनैः कुङ्‌कुमारक्तैः सा तस्य तिलकं ददौ ॥ १६ ॥
सर्वाङ्‌गे सुन्दरे रम्ये चकार चानुलेपनम् ।
सुवासं चैव ताम्बूलं वह्निशुद्धे च वाससी ॥ १७ ॥
पारिजातस्य कुसुमं जरारोगहरं परम् ।
अमूल्यरत्‍ननिर्माणमङ्‌गुलीयकमुत्तमम् ॥ १८ ॥
सुन्दरं च मणिवरं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
दासी तवाहमित्येवं समुच्चार्य पुनः पुनः ॥ १९ ॥
ननाम परया भक्त्या स्वामिनं गुणशालिनम् ।
सस्मिता तन्मुखाम्भोजं लोचनाभ्यां पुनः पुनः ॥ २० ॥
निमेषरहिताभ्यां चाप्यपश्यत्कामसुन्दरम् ।
स च तां च समाकृष्य चकार वक्षसि प्रियाम् ॥ २१ ॥
सस्मितं वाससाच्छन्नं ददर्श मुखपङ्‌कजम् ।
चुचुम्ब कठिने गण्डे बिम्बोष्ठौ पुनरेव च ॥ २२ ॥
ददौ तस्यै वस्त्रयुग्मं वरुणादाहृतं च यत् ।
तदाहृतां रत्‍नमालां त्रिषु लोकेषु दुर्लभाम् ॥ २३ ॥
ददौ मञ्जीरयुग्मं च स्वाहाया आहृतं च यत् ।
केयूरयुग्मं छायाया रोहिण्याश्चैव कुण्डलम् ॥ २४ ॥
अङ्‌गुलीयकरत्‍नानि रत्याश्च करभूषणम् ।
शङ्‌खं च रुचिरं चित्रं यद्दत्तं विश्वकर्मणा ॥ २५ ॥
विचित्रपद्मकश्रेणीं शय्यां चापि सुदुर्लभाम् ।
भूषणानि च दत्त्वा स भूपो हासं चकार ह ॥ २६ ॥
निर्ममे कबरीभारे तस्या माङ्‌गल्यभूषणम् ।
सुचित्रं पत्रकं गण्डमण्डलेऽस्याः समं तथा ॥ २७ ॥
चन्द्रलेखात्रिभिर्युक्तं चन्दनेन सुगन्धिना ।
परीतं परितश्चित्रैः सार्धं कुङ्‌कुमबिन्दुभिः ॥ २८ ॥
ज्वलत्प्रदीपाकारं च सिन्दूरतिलकं ददौ ।
तत्पादपद्मयुगले स्थलपद्मविनिन्दिते ॥ २९ ॥
चित्रालक्तकरागं च नखरेषु ददौ मुदा ।
स्ववक्षसि मुहुर्न्यस्य सरागं चरणाम्बुजम् ॥ ३० ॥
हे देवि तव दासोऽहमित्युच्चार्य पुनः पुनः ।
रत्‍नभूषितहस्तेन तां च कृत्वा स्ववक्षसि ॥ ३१ ॥
तपोवनं परित्यज्य राजा स्थानान्तरं ययौ ।
मलये देवनिलये शैले शैले तपोवने ॥ ३२ ॥
स्थाने स्थानेऽतिरम्ये च पुष्पोद्याने च निर्जने ।
कन्दरे कन्दरे सिन्धुतीरे चैवातिसुन्दरे ॥ ३३ ॥
पुष्पभद्रानदीतीरे नीरवातमनोहरे ।
पुलिने पुलिने दिव्ये नद्यां नद्यां नदे नदे ॥ ३४ ॥
मधौ मधुकराणां च मधुरध्वनिनादिते ।
विस्पन्दने सुरसने नन्दने गन्धमादने ॥ ३५ ॥
देवोद्याने नन्दने च चित्रचन्दनकानने ।
चम्पकानां केतकीनां माधवीनां च माधवे ॥ ३६ ॥
कुन्दानां मालतीनां च कुमुदाम्भोजकानने ।
कल्पवृक्षे कल्पवृक्षे पारिजातवने वने ॥ ३७ ॥
निर्जने काञ्चने स्थाने धन्ये काञ्चनपर्वते ।
काञ्चीवने किञ्जलके कञ्चुके काञ्चनाकरे ॥ ३८ ॥
पुष्पचन्दनतल्पेषु पुंस्कोकिलरुतश्रुते ।
पुष्पचन्दनसंयुक्तः पुष्पचन्दनवायुना ॥ ३९ ॥
कामुक्या कामुकः कामात्स रेमे रामया सह ।
न हि तृप्तो दानवेन्द्रस्तृप्तिं नैव जगाम सा ॥ ४० ॥
हविषा कृष्णवर्त्मेव ववृधे मदनस्तयोः ।
तया सह समागत्य स्वाश्रमं दानवस्ततः ॥ ४१ ॥
रम्यं क्रीडालयं गत्वा विजहार पुनः पुनः ।
एवं स बुभुजे राज्यं शङ्‌खचूडः प्रतापवान् ॥ ४२ ॥
एकमन्वन्तरं पूर्णं राजराजेश्वरो महान् ।
देवानामसुराणां च दानवानां च सन्ततम् ॥ ४३ ॥
गन्धर्वाणां किन्नराणां राक्षसानां च शान्तिदः ।
हृताधिकारा देवाश्च चरन्ति भिक्षुका यथा ॥ ४४ ॥
ते सर्वेऽतिविषण्णाश्च प्रजग्मुर्ब्रह्मणः सभाम् ।
वृत्तान्तं कथयामासू रुरुदुश्च भृशं मुहुः ॥ ४५ ॥
तदा ब्रह्मा सुरैः सार्धं जगाम शङ्‌करालयम् ।
सर्वेशं कथयामास विधाता चन्द्रशेखरम् ॥ ४६ ॥
ब्रह्मा शिवश्च तैः सार्धं वैकुण्ठं च जगाम ह ।
दुर्लभं परमं धाम जरामृत्युहरं परम् ॥ ४७ ॥
सम्प्राप च वरं द्वारमाश्रमाणां हरेरहो ।
ददर्श द्वारपालांश्च रत्‍नसिंहासनस्थितान् ॥ ४८ ॥
शोभितान्पीतवस्त्रैश्च रत्‍नभूषणभूषितान् ।
वनमालान्वितान्सर्वान् श्यामसुन्दरविग्रहान् ॥ ४९ 
शङ्‌खचक्रगदापद्मधरांश्चैव चतुर्भुजान् ।
सस्मितान्स्मेरवक्त्रास्यान्पद्मनेत्रान्मनोहरान् ॥ ५० 
ब्रह्मा तान्कथयामास वृत्तान्तं गमनार्थकम् ।
तेऽनुज्ञां च ददुस्तस्मै प्रविवेश तदाज्ञया ॥ ५१ ॥
एवं षोडश द्वाराणि निरीक्ष्य कमलोद्‍भवः ।
देवैः सार्धं तानतीत्य प्रविवेश हरेः सभाम् ॥ ५२ ॥
देवर्षिभिः परिवृतां पार्षदैश्च चतुर्भुजैः ।
नारायणस्वरूपैश्च सर्वैः कौस्तुभभूषितैः ॥ ५३ ॥
नवेन्दुमण्डलाकारां चतुरस्रां मनोहराम् ।
मणीन्द्रहारनिर्माणां हीरासारसुशोभिताम् ॥ ५४ ॥
अमूल्यरत्‍नखचितां रचितां स्वेच्छया हरेः ।
माणिक्यमालाजालाभां मुक्तापङ्‌क्तिविभूषिताम् ॥ ५५ ॥
मण्डितां मण्डलाकारै रत्‍नदर्पणकोटिभिः ।
विचित्रैश्चित्ररेखाभिर्नानाचित्रविचित्रिताम् ॥ ५६ ॥
पद्मरागेन्द्ररचितां रुचिरां मणिपङ्‌कजैः ।
सोपानशतकैर्युक्तां स्यमन्तकविनिर्मितैः ॥ ५७ ॥
पट्टसूत्रग्रन्थियुक्तैश्चारुचन्दनपल्लवैः ।
इन्द्रनीलस्तम्भवर्यैर्वेष्टितां सुमनोहराम् ॥ ५८ ॥
सद्‌रत्‍नपूर्णकुम्भानां समूहैश्च समन्विताम् ।
पारिजातप्रसूनानां मालाजालैर्विराजिताम् ॥ ५९ ॥
कस्तूरीकुङ्‌कुमारक्तैः सुगन्धिचन्दनद्रुमैः ।
सुसंस्कृतां तु सर्वत्र वासितां गन्धवायुना ॥ ६० ॥
विद्याधरीसमूहानां नृत्यजालैर्विराजिताम् ।
सहस्रयोजनायामां परिपूर्णां च किङ्‌करैः ॥ ६१ ॥
ददर्श श्रीहरिं ब्रह्मा शङ्‌करश्च सुरैः सह ।
वसन्तं तन्मध्यदेशे यथेन्दुं तारकावृतम् ॥ ६२ ॥
अमूल्यरत्‍ननिर्माणचित्रसिंहासने स्थितम् ।
किरीटिनं कुण्डलिनं वनमालाविभूषितम् ॥ ६३ ॥
चन्दनोक्षितसर्वाङ्‌गं बिभ्रतं केलिपङ्‌कजम् ।
पुरतो नृत्यगीतं च पश्यन्तं सस्मितं मुदा ॥ ६४ ॥
शान्तं सरस्वतीकान्तं लक्ष्मीधृतपदाम्बुजम् ।
लक्ष्म्या प्रदत्तं ताम्बूलं भुक्तवन्तं सुवासितम् ॥ ६५ ॥
गङ्‌गया परया भक्त्या सेवितं श्वेतचामरैः ।
सर्वैश्च स्तूयमानं च भक्तिनम्रात्मकन्धरैः ॥ ६६ ॥
एवं विशिष्टं तं दृष्ट्वा परिपूर्णतमं प्रभुम् ।
ब्रह्मादयः सुराः सर्वे प्रणम्य तुष्टुवुस्तदा ॥ ६७ ॥
पुलकाञ्चितसर्वाङ्‌गाः साश्रुनेत्राश्च गद्‌गदाः ।
भक्ताश्च परया भक्त्या भीता नम्रात्मकन्धराः ॥ ६८। ॥
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा विधाता जगतामपि ।
वृत्तान्तं कथयामास विनयेन हरेः पुरः ॥ ६९ ॥
हरिस्तद्वचनं श्रुत्वा सर्वज्ञः सर्वभाववित् ।
प्रहस्योवाच ब्रह्माणं रहस्यं च मनोहरम् ॥ ७० ॥
श्रीभगवानुवाच
शङ्‌खचूडस्य वृत्तान्तं सर्वं जानामि पद्मज ।
मद्‍भक्तस्य च गोपस्य महातेजस्विनः पुरा ॥ ७१ ॥
शृणु तत्सर्ववृत्तान्तमितिहासं पुरातनम् ।
गोलोकस्यैव चरितं पापघ्नं पुण्यकारकम् ॥ ७२ ॥
सुदामा नाम गोपश्च पार्षदप्रवरो मम ।
स प्राप दानवीं योनिं राधाशापात्सुदारुणात् ॥ ७३ ।
तत्रैकदाहमगमं स्वालयाद्‌रासमण्डलम् ।
विरजामपि नीत्वा च मम प्राणाधिका परा ॥ ७४ ॥
सा मां विरजया सार्धं विज्ञाय किङ्‌करीमुखात् ।
पश्चात्क्रुद्धा साजगाम न ददर्श च तत्र माम् ॥ ७५ ।
विरजां च नदीरूपां मां ज्ञात्वा च तिरोहितम् ।
पुनर्जगाम सा दृष्ट्वा स्वालयं सखिभिः सह ॥ ७६ ॥
मां दृष्ट्वा मन्दिरे देवी सुदाम्ना सहितं पुरा ।
भृशं सा भर्त्सयामास मौनीभूतं च सुस्थिरम् ॥ ७७ ॥
तच्छ्रुत्वासहमानश्च सुदामा तां चुकोप ह ।
स च तां भर्त्सयामास कोपेन मम सनिधौ ॥ ७८ ॥
तच्छ्रुत्वा कोपयुक्ता सा रक्तपङ्‌कजलोचना ।
बहिष्कर्तुं चकाराज्ञां संत्रस्तं मम संसदि ॥ ७९ ॥
सखीलक्षं समुत्तस्थौ दुर्वारं तेजसोल्बणम् ।
बहिश्चकार तं तूर्णं जल्पन्तं च पुनः पुनः ॥ ८० ॥
सा च तत्ताडनं तासां श्रुत्वा रुष्टा शशाप ह ।
याहि रे दानवीं योनिमित्येवं दारुणं वचः ॥ ८१ ॥
तं गच्छन्तं शपन्तं च रुदन्तं मां प्रणम्य च ।
वारयामास तुष्टा सा रुदती कृपया पुनः ॥ ८२ ॥
हे वत्स तिष्ठ मा गच्छ क्व यासीति पुनः पुनः ।
समुच्चार्य च तत्पश्चाज्जगाम सा च विक्लवम् ॥ ८३ ॥
गोप्यश्च रुरुदुः सर्वा गोपाश्चापि सुदुःखिताः ।
ते सर्वे राधिका चापि तत्पश्चाद्‌ बोधिता मया ॥ ८४ ॥
आयास्यति क्षणार्धेन कृत्वा शापस्य पालनम् ।
सुदामंस्त्वमिहागच्छेत्युक्त्वा सा च निवारिता ॥ ८५ ॥
गोलोकस्य क्षणार्धेन चैकं मन्वन्तरं भवेत् ।
पृथिव्यां जगतां धातरित्येव वचनं ध्रुवम् ॥ ८६ ॥
इत्येवं शङ्‌खचूडश्च पुनस्तत्रैव यास्यति ।
महाबलिष्ठो योगेशः सर्वमायाविशारदः ॥ ८७ ॥
मम शूलं गृहीत्वा च शीघ्रं गच्छत भारतम् ।
शिवः करोतु संहारं मम शूलेन रक्षसः ॥ ८८ ॥
ममैव कवचं कण्ठे सर्वमङ्‌गलकारकम् ।
बिभर्ति दानवः शश्वत्संसारे विजयी ततः ॥ ८९ ॥
तस्मिन् ब्रह्मन् स्थिते चैव न कोऽपि हिंसितुं क्षमः ।
तद्याचनां करिष्यामि विप्ररूपोऽहमेव च ॥ ९० ॥
सतीत्वहानिस्तत्पत्‍न्या यत्र काले भविष्यति ।
तत्रैव काले तन्मृत्युरिति दत्तो वरस्त्वया ॥ ९१ ॥
तत्पत्‍न्याश्चोदरे वीर्यमर्पयिष्यामि निश्चितम् ।
तत्क्षणे चैव तन्मृत्युर्भविष्यति न संशयः ॥ ९२ ॥
पश्चात्सा देहमुत्सज्य भविष्यति मम प्रिया ।
इत्युक्त्वा जगतां नाथो ददौ शूलं हराय च ॥ ९३ ॥
शूलं दत्त्वा ययौ शीघ्रं हरिरभ्यन्तरे मुदा ।
भारतं च ययुर्देवा ब्रह्यरुद्रपुरोगमाः ॥ ९४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे शङ्‌खचूडेन सह तुलसीसङ्‌गमवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥


स्कन्ध 9, अध्याय 19 - 

तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
नारदजी बोले [हे भगवन्!] आपने यह अत्यन्त अद्भुत आख्यान सुनाया, जिसे सुनकर किसी भी प्रकारसे मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। हे महामते ! उसके बाद जो कुछ घटित हुआ, उसे आप मुझे बताइये ॥ 13 ॥

श्रीनारायण बोले- इस प्रकार [शंखचूड़ तथा तुलसीको] आशीर्वाद देकर ब्रह्माजी अपने लोक चले गये। तब दानव शंखचूड़ने गान्धर्व विवाहके अनुसार उस तुलसीको पत्नीरूपमें ग्रहण कर लिया। उस अवसरपर स्वर्गमें दुंदुभियाँ बजने लगीं और पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ll 2-3 ॥


अब वह शंखचूड़ अपने सुन्दर भवनमें तुलसीके साथ विलास करने लगा। आनन्दका अनुभवकर वह तुलसी मूच्छित सी हो गयी। वह साध्वी उस समय सुखरूपी निर्जल सागरमें निमग्न हो गयी थी ॥ 43 ॥

कामशास्त्रमें जो चौंसठ प्रकारकी कलाएँ तथा चौंसठ प्रकारके सुख बताये गये हैं, वे रसिकजनोंके लिये अत्यन्त प्रिय हैं। अंग-प्रत्यंगके स्पर्श करनेसे स्त्रियोंको सुखप्रद लगनेवाले जो भी रस-श्रृंगार होते हैं, उन सबको रसिकेश्वर शंखचूड़ने प्रस्तुत किया ।। 5-63 ॥


अनेक प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित वह रसिक शंखचूड़ पुष्प- चन्दनसे चर्चित तथा रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत उस तुलसीको साथमें लेकर अत्यन्त रमणीक तथा पूर्णरूपसे निर्जन स्थानमें पुष्प- चन्दनसे सुरभित वायुयुक्त पुष्पोद्यान और पुष्प-चन्दनसे सुशोभित नदीके तटपर पुष्प- चन्दनसे चर्चित शय्यापर रासक्रीडामें निरत रहता था ॥ 7-9 ।।

कामक्रीड़ाके ज्ञाता वे दोनों कभी भी विलाससे विरत नहीं होते थे। उस साध्वी तुलसीने अपनी चंचल लीलासे अपने पतिका मन हर लिया था। इसी प्रकार रस भावोंके ज्ञाता शंखचूड़ने भी रसिका तुलसीका मन अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था। उस तुलसीने राजाके वक्षःस्थलका चन्दन तथा मस्तकका तिलक मिटा दिया, उसी प्रकार उस शंखचूड़ने भी तुलसीके सिन्दूर-बिन्दुको मिटा दिया। कामक्रीड़ामें शंखचूड़ने प्रसन्नतापूर्वक उस तुलसीके वक्ष:स्थल आदिपर और उसी प्रकार तुलसीने उसके वाम पार्श्वमें अपने हाथके आभूषणका चिह्न बना दिया। इस प्रकार परस्पर आलिंगन आदि करते हुए कामकलाका सम्यक् ज्ञान रखनेवाले वे दोनों क्रीड़ा करने लगे । ll 10 - 143 ॥

रतिक्रीड़ासे विरत होकर वे दोनों मनमें जो-जो इच्छा रहती थी, उसके अनुसार एक-दूसरेका शृंगार करते थे। वह तुलसी शंखचूड़के मस्तकपर कुमकुम- मिश्रित चंदन लगाती थी और उसके सभी मनोहर अंगों में चन्दनका लेप करती थी। वह शंखचूड़को सुवासित ताम्बूल खिलाती थी, अग्निके समान शुद्ध दो वस्त्र पहनाती थी, वृद्धावस्थारूपी रोग दूर करनेवाला पारिजात पुष्प प्रदान करती थी, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित उत्तम अँगूठी पहनाती थी और तीनों लोकोंमें दुर्लभ उत्तम मणियोंके आभूषणोंसे अलंकृत करती थी - इस प्रकार शंखचूड़का शृंगार करनेके पश्चात् 'मैं आपकी दासी हूँ' - ऐसा बार बार कहकर वह तुलसी महान् भक्तिके साथ अपने गुणवान् पतिको प्रणाम करती थी। वह अपलक नेत्रोंसे कामदेवके समान अपने पतिके मुखार विन्दको मुसकराती हुई बार-बार देखती रहती थी । ll 15 - 203 ।।

इसी प्रकार शंखचूड़ भी प्रिया तुलसीको आकृष्ट करके वक्षसे लगा लेता था और वस्त्रसे ढँके हुए उसके मुसकानयुक्त मुखकमलको निहारने लगता था। वह तुलसीके कठोर कपोलों तथा बिम्बाफलके समान लाल ओठोंका स्पर्श करने लगता था । 21-22 ॥तदनन्तर उसने वरुणके यहाँसे प्राप्त वस्त्रोंका जोड़ा और तीनों लोकोंमें दुर्लभ रत्नमयी माला उस तुलसीको प्रदान की। इसी प्रकार उसने स्वाहादेवीसे प्राप्त दो मंजीर (पायजेब), छायासे प्राप्त एक जोड़ी बाजूबन्द और रोहिणीसे प्राप्त कुण्डल, रतिसे प्राप्त हाथके आभूषणके रूपमें रत्नमय अँगूठी और विश्वकमकि द्वारा प्रदत्त अद्भुत तथा मनोहर शंख तुलसीको प्रदान किये ।। 23 - 25 ॥

तदनन्तर विचित्र कमल-पुष्पोंसे सुसज्जित हुई अत्यन्त दुर्लभ शय्या तथा अन्य भूषण प्रदान करके राजा शंखचूड़ हँसने लगा। उसने उसकी चोटीमें मांगलिक आभूषण लगाया और उसके गण्डस्थलपर सुगन्धित चन्दनसे तीन चन्द्रलेखाओंसे युक्त तथा चारों ओर कुमकुमबिन्दुओंसे सुशोभित सुन्दर चित्र बनाया। शंखचूड़ने उसके ललाटपर जलती हुई दीपशिखाके आकारके समान सिन्दूर तिलक लगाया और स्थलकमलिनीको भी लज्जित कर देनेवाले उसके दोनों कमलसदृश चरणोंमें तथा नाखूनोंपर प्रसन्नतापूर्वक सुन्दर महावर लगाया। तत्पश्चात् तुलसीके महावरयुक्त चरणकमलको अपने वक्षःस्थलपर बार-बार रखकर 'हे देवि! मैं तुम्हारा दास हूँ' - ऐसा बार-बार उच्चारण करते हुए उस शंखचूड़ने रत्नमय आभूषणोंसे | अलंकृत अपने हाथसे उसे अपने वक्षःस्थलसे लगा लिया ।। 26-31 ॥

तदनन्तर राजा शंखचूड़ वह तपोवन छोड़कर अन्य स्थानपर चला गया। पुष्प तथा चन्दनसे चर्चित शरीरवाला वह सकाम शंखचूड़ मलयपर्वतपर, देवस्थानोंमें, विभिन्न पर्वतोंपर, तपोवनोंमें, अत्यन्त रमणीक स्थानोंमें, निर्जन पुष्पोद्यानमें, समुद्रकी तटवर्ती अत्यन्त सुन्दर कन्दराओंमें, जल तथा वायुसे युक्त पुष्पभद्रा नदीके मनोहर तटपर, नदियों तथा सरोवरोंके दिव्य तटोंपर, वसन्त ऋतुमें भ्रमरोंकी मधुर ध्वनिसे निनादित वनोंमें, अत्यन्त अनुपम तथा आनन्दकर गन्धमादनपर्वतपर, नन्दन नामक देवोद्यानमें, अद्भुत चन्दनवनमें, चम्पा केतकी तथा माधवीके निकुंजमें, कुन्द - मालती कुमुद तथा कमलोंके वनमें, कल्पवृक्ष | तथा पारिजातके वनमें, निर्जन कांचन स्थानमें, पवित्रकांचन-पर्वतपर, कांचीवनमें, किंजलक, कंचुक और | कांचनाकर आदि स्थानोंमें-वनमें, जहाँ कोयलकी मधुर ध्वनि सुनायी देती और पुष्प चन्दनको सुगन्धसे सुरभित वायु बहती रहती थी, पुष्प-चन्दनसे सुसज्जित शय्यापर कामनायुक्त रमणी तुलसीके साथ इच्छानुसार विहार किया करता था। किंतु न तो दानवेन्द्र शंखचूड तृप्त हुआ और न वह तुलसी ही तृप्त हुई; अपितु आहुतिसे बढ़नेवाली अग्निकी भाँति उन दोनोंकी वासना निरन्तर बढ़ती ही गयी ॥ 32-403 ॥

तदनन्तर वह दानव शंखचूड़ उस तुलसीके साथ अपने आश्रम आकरके वहाँ अपने रमणीक क्रीड़ा भवनमें जाकर बार-बार विहार करने लगा। इस प्रकार महान् प्रतापी राजराजेश्वर शंखचूड़ने पूरे एक मन्वन्तरतक राज्यका उपभोग किया ॥ 41-426 ।

वह देवताओं, असुरों, दानवों, गन्धव, किन्नरों और राक्षसोंको सदा शान्त कर देनेवाला था। उसके द्वारा छिने हुए अधिकारवाले देवतागण भिक्षुकोंकी भाँति विचरण करते थे, अतः वे सभी अत्यन्त दुःखी होकर ब्रह्माकी सभायें गये। उन्होंने अपना वृत्तान्त बताया और बार-बार अत्यधिक विलाप किया ।। 43-45 ll

तब विधाता ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर भगवान् शंकरके स्थानपर गये और वहाँ पहुँचकर उन्होंने मस्तकपर चन्द्रमाको धारण करनेवाले सर्वेश्वर शिवसे सारी बातें बतायीं ॥ 46 ll

तत्पश्चात् ब्रह्मा और शिव उन देवताओंको साथ लेकर जरा तथा मृत्युका नाश करनेवाले, सभी के | लिये अत्यन्त दुर्लभ तथा परमधाम श्रेष्ठ वैकुण्ठलोकमें गये। जब वे श्रीहरिके लोकोंके श्रेष्ठ प्रवेशद्वारपर पहुँचे, तब वहाँपर उन्होंने रत्नमय सिंहासनपर बैठे हुए द्वारपालोंको देखा। वे सभी पीताम्बरोंसे सुशोभित थे, वे रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत थे, उन्होंने | वनमाला धारण कर रखी थी, उनके शरीर सुन्दर तथा श्यामवर्णके थे, शंख-चक्र-गदा-पद्मसे सुशोभित उनकी चार भुजाएँ थीं, उनके प्रसन्न मुखमण्डलपर मुसकान व्याप्त थी और उन मनोहर द्वारपालोंके नेत्र कमलके समान थे ॥ 47-50 ॥ब्रह्माजीने उन द्वारपालोंको अपने आनेका प्रयोजन बताया तब उन द्वारपालोंने ब्रह्माको अन्दर जानेकी आज्ञा दे दी और ब्रह्माजीने उनकी आज्ञा पाकर भीतर प्रवेश किया ॥ 51 ॥

इस प्रकार ब्रह्माजीने भीतर सोलह द्वारोंको देखा और देवताओंके साथ उन्हें पार करके वे श्रीहरिकी सभा में पहुँचे वह सभा देवर्षियों तथा चार भुजावाले पार्षदोंसे घिरी हुई थी। वे सभी पार्षद नारायणस्वरूप थे और कौस्तुभमणिसे अलंकृत थे। उस सभाका आकार नवीन चन्द्रमण्डलके समान था, वह मनोहर सभा चौकोर थी, वह सर्वोत्तम दिव्य मणियोंसे निर्मित थी, वह बहुमूल्य हीरोंसे सजी हुई थी, भगवान् श्रीहरिकी इच्छासे निर्मित उस सभाभवनमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे, मणिमयी मालाएँ उसमें जालीके रूपमें शोभा दे रही थीं, मोतियोंकी झालरोंसे वह सुशोभित थी, मण्डलाकार करोड़ों रत्नमय विचित्र दर्पणोंसे वह सभा मण्डित थी, अनेक प्रकारके रेखाचित्रोंसे युक्त वह सभा अत्यन्त सुन्दर तथा अद्भुत प्रतीत हो रही थी, पद्मरागमणिसे निर्मित वह सभा मणिमय पंकजोंसे परम सुन्दर प्रतीत हो रही थी, वह स्यमन्तकमणिसे बनी हुई सौ सीढ़ियोंसे युक्त थी, वहाँ दिव्य चन्दन वृक्षके सुन्दर | पल्लव रेशमके सूत्रोंसे बँधे वन्दनवारके रूपमें शोभा दे रहे थे, वह मनोहर सभा उत्तम कोटिके इन्द्रनीलमणिसे | निर्मित खम्भोंसे आवृत थी, वह उत्तम रत्नोंसे निर्मित अनेक कलशोंसे युक्त थी, पारिजात-पुष्पोंकी माला पंक्तियोंसे तथा कस्तूरी और कुमकुमसे रंजित सुगन्धित चन्दनके वृक्षोंसे वह सभा सुसज्जित थी, वह सर्वत्र सुगन्धित वायुसे सुरभित थी, बहुत-सी विद्याधरियोंके नृत्यसे उस सभाकी शोभा बढ़ रही थी, वह सभा एक हजार योजन विस्तारवाली थी और बहुतसे सेक्कोंसे व्याप्त थी ॥ 52-61 ॥

देवताओंसहित ब्रह्मा तथा शिवने सभाके मध्य भागमें विराजमान श्रीहरिको तारोंसे घिरे चन्द्रमाके समान देखा। वे बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित अद्भुत सिंहासनपर विराजमान थे। वे किरीट, कुण्डल तथा | वनमालासे सुशोभित थे। उनके सम्पूर्ण अंग चन्दनसेअनुलिप्त थे। वे अपने हाथमें लीला-कमल धारण किये हुए थे। वे प्रसन्नतापूर्वक मुसकराते हुए अपने सामने नृत्य-गीत आदिका अवलोकन कर रहे थे। उन सरस्वतीकान्त भगवान् श्रीहरिका विग्रह शान्त था. | लक्ष्मीजी उनके चरणकमल पकड़े हुए उनकी सेवामें संलग्न थीं और लक्ष्मीजीके द्वारा दिये गये सुवासित ताम्बूलका वे सेवन कर रहे थे। भगवती गंगा परम भक्तिके साथ श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा कर रही थीं। वहाँ उपस्थित सभी लोग भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ 62-66 ॥

[हे नारद!] ऐसे उन विशिष्ट परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरिको देखकर ब्रह्मा आदि सभी देवता प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। उस समय उनके सभी अंग पुलकित हो गये थे, आँखोंमें आँसू भर आये थे और वाणी गद्गद हो गयी थी। वे सभी भक्त परम भक्तिके साथ अपने कन्धे झुकाये भयभीत होकर उनके समक्ष खड़े होकर स्तुति कर रहे थे। इसके बाद जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजीने दोनों हाथ जोड़कर भगवान् श्रीहरिके सामने विनम्रतापूर्वक सारा वृत्तान्त निवेदित कर दिया ॥ 67-69 ॥

उनकी यह बात सुनकर सभी अभिप्रायोंको समझनेवाले सर्वज्ञ श्रीहरिने ब्रह्माजीसे हँसकर मनको मुग्ध करनेवाला एक अद्भुत रहस्य कहना आरम्भ किया ॥ 70 ॥

श्रीभगवान् बोले- हे पद्मज ! यह महान् | तेजस्वी शंखचूड़ पूर्वजन्ममें एक गोप था और मेरा परम भक्त था, मैं इसका सभी वृत्तान्त जानता हूँ। अब आप पुरातन इतिहासके रूपमें निबद्ध उसका सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनिये। गोलोकसे सम्बन्ध रखनेवाला यह चरित पापोंका नाश करनेवाला तथा पुण्य प्रदान करनेवाला है । ll 71-72 ॥

सुदामा नामक एक गोप मेरा प्रधान पार्षद था। | राधिकाके दारुण शापके कारण उसे दानवयोनिमें जन्म लेना पड़ा ॥ 73 ॥

एक बार मैं अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय श्रेष्ठ विरजाको साथमें लेकर अपने निवास-स्थानसे रासमण्डलमें गया था ॥ 74 ॥'मैं विरजाके साथ रासमण्डलमें गया हूँ' परिचारिकाके मुखसे ऐसा सुनकर कुपित हो राधिका वहाँ आ गयीं, किंतु उसने मुझे वहीं नहीं देखा। बादमें मेरे अन्तर्धान होने तथा विरजाके नदीरूपमें परिणत हो जानेका समाचार सुनकर राधा अपनी सखियोंके साथ फिर अपने भवन चली गर्यो ।। 75-76 ॥

उस भवनमें सुदामाके साथ मौन तथा स्थिरचित्त होकर मुझे बैठा हुआ देखकर देवी राधाने मेरी बहुत भर्त्सना की ॥ 77 ॥

उसे सुनकर सुदामा सहन नहीं कर सका और उनपर कुपित हो गया। उसने मेरे सामने ही राधाको क्रोधके साथ बहुत फटकारा ।78 ॥

उसकी बात सुनकर राधिका क्रोधित हो उठीं और उनकी आँखें रक्तकमलके समान लाल हो गयीं। उन्होंने तत्काल भयभीत सुदामाको मेरी सभासे बाहर निकाल देनेका आदेश दिया ।। 79 ।।

[आज्ञा पाते ही] प्रबल तेजसे सम्पन्न तथा दुर्निवार्य सखियों का समूह उठ खड़ा हुआ और उसे शीघ्र ही सभासे बाहर कर दिया। उस समय वह सुदामा बार-बार कुछ बोलता जा रहा था ॥ 80 ॥

इस तरह उन सखियोंसे सुदामाके विवाद करनेके कारण राधा और भी कुपित हो उठीं और उन्होंने कुपित होकर शाप दे दिया- 'तुम दानवयोनिमें जन्म प्राप्त करो'। ऐसा दारुण वचन कहा था 81 ॥

तदनन्तर सुदामा मुझे प्रणाम करके रोता हुआ तथा सखियोंको कोसता हुआ सभाभवनसे बाहर जाने लगा, तब करुणामयी राधाने कृपावश उसके ऊपर फिर प्रसन्न होकर उसे रोक लिया और रोते हुए कहा- 'हे वत्स! ठहरो, मत जाओ। कहाँ जा रहे हो ?'- ऐसा बार-बार कहती हुई वे राधा व्याकुल होकर उसके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ 82-83 ॥

यह देखकर सभी गोपी और गोप अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे तब मैंने राधिकाको तथा उन सभीको समझाया कि शापका पालन करके वह सुदामा आधे क्षणमें ही वापस आ जायगा हे सुदामन् ! तुम यहाँ अवश्य आ जाना - ऐसा कहकर मैंने राधाको शान्त किया ।। 84-85 ।।

हे सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेवाले ब्रह्मन् ! गोलोकके आधे क्षणमें ही पृथ्वीलोकपर एक | मन्वन्तरका समय व्यतीत हो जाता है; यह बात बिलकुल सत्य है। इस प्रकार यह सब कुछ पूर्वनिश्चित व्यवस्थाके अनुसार ही हो रहा है। अतः सम्पूर्ण मायाओंका पूर्ण ज्ञाता, महान् बलशाली तथा योगेश्वर | शंखचूड़ समय आनेपर पुनः उसी गोलोकमें वापस चला जायगा ॥ 86-87 ॥

अब आपलोग मेरा त्रिशूल लेकर शीघ्र भारतवर्षमें चलें और वहाँपर शंकरजी मेरे त्रिशूलसे उस राक्षसका संहार करें ।। 88 ।।

वह दानव शंखचूड़ अपने कण्ठमें मेरा सर्वमंगलकारी कवच निरन्तर धारण किये रहता है। इसीसे वह सदा संसार विजयी बना हुआ है ।। 89 ।। 

हे ब्रह्मन् ! उसके कण्ठमें उस कवचके रहते उसे मारनेमें कोई प्राणी समर्थ नहीं है। अतः मैं ही ब्राह्मणका रूप धारणकर उससे कवचकी याचना करूँगा ॥ 90 ॥

जिस समय उसकी पत्नीका सतीत्व नष्ट होगा, उसी समय उसकी मृत्यु होगी-ऐसा आपने उसे वर भी दे रखा है ॥ 91 ॥

इसके लिये मैं अवश्य ही उसकी पत्नीके उदरमें अपना तेज स्थापित करूँगा, जिससे उसी क्षण उस शंखचूड़की मृत्यु हो जायगी; इसमें सन्देह नहीं है। तब उसकी पत्नी अपना शरीर त्यागकर पुनः प्रिया बन जायगी ॥ 923 ॥ मेरी

ऐसा कहकर जगत्के स्वामी भगवान् | श्रीहरिने शंकरजीको त्रिशूल दे दिया और त्रिशूल |

 देकर वे श्रीहरि प्रसन्नतापूर्वक तत्काल अन्तःपुरमें चले गये। इसके बाद सभी देवताओंने ब्रह्मा तथा | शंकरजीको आगे करके भारतवर्षके लिये प्रस्थान किया । 93-94 ।।





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