११. जरावग्गो
11. Jarāvaggo
को नु हासो 1 किमानन्दो, निच्चं पज्जलिते सति।
Ko nu hāso 2 kimānando, niccaṃ pajjalite sati;
अन्धकारेन ओनद्धा, पदीपं न गवेसथ॥
Andhakārena onaddhā, padīpaṃ na gavesatha.
पस्स चित्तकतं बिम्बं, अरुकायं समुस्सितं।
Passa cittakataṃ bimbaṃ, arukāyaṃ samussitaṃ;
आतुरं बहुसङ्कप्पं, यस्स नत्थि धुवं ठिति॥
Āturaṃ bahusaṅkappaṃ, yassa natthi dhuvaṃ ṭhiti.
परिजिण्णमिदं रूपं, रोगनीळं 3 पभङ्गुरं।
Parijiṇṇamidaṃ rūpaṃ, roganīḷaṃ 4 pabhaṅguraṃ;
भिज्जति पूतिसन्देहो, मरणन्तञ्हि जीवितं॥
Bhijjati pūtisandeho, maraṇantañhi jīvitaṃ.
यानिमानि अपत्थानि 5, अलाबूनेव 6 सारदे।
Yānimāni apatthāni 7, alābūneva 8 sārade;
कापोतकानि अट्ठीनि, तानि दिस्वान का रति॥
Kāpotakāni aṭṭhīni, tāni disvāna kā rati.
अट्ठीनं नगरं कतं, मंसलोहितलेपनं।
Aṭṭhīnaṃ nagaraṃ kataṃ, maṃsalohitalepanaṃ;
यत्थ जरा च मच्चु च, मानो मक्खो च ओहितो॥
Yattha jarā ca maccu ca, māno makkho ca ohito.
जीरन्ति वे राजरथा सुचित्ता, अथो सरीरम्पि जरं उपेति।
Jīranti ve rājarathā sucittā, atho sarīrampi jaraṃ upeti;
सतञ्च धम्मो न जरं उपेति, सन्तो हवे सब्भि पवेदयन्ति॥
Satañca dhammo na jaraṃ upeti, santo have sabbhi pavedayanti.
अप्पस्सुतायं पुरिसो, बलिबद्धोव 9 जीरति।
Appassutāyaṃ puriso, balibaddhova 10 jīrati;
मंसानि तस्स वड्ढन्ति, पञ्ञा तस्स न वड्ढति॥
Maṃsāni tassa vaḍḍhanti, paññā tassa na vaḍḍhati.
अनेकजातिसंसारं , सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
Anekajātisaṃsāraṃ , sandhāvissaṃ anibbisaṃ;
गहकारं 11 गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं॥
Gahakāraṃ 12 gavesanto, dukkhā jāti punappunaṃ.
गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि।
Gahakāraka diṭṭhosi, puna gehaṃ na kāhasi;
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खतं।
Sabbā te phāsukā bhaggā, gahakūṭaṃ visaṅkhataṃ;
विसङ्खारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा॥
Visaṅkhāragataṃ cittaṃ, taṇhānaṃ khayamajjhagā.
अचरित्वा ब्रह्मचरियं, अलद्धा योब्बने धनं।
Acaritvā brahmacariyaṃ, aladdhā yobbane dhanaṃ;
जिण्णकोञ्चाव झायन्ति, खीणमच्छेव पल्लले॥
Jiṇṇakoñcāva jhāyanti, khīṇamaccheva pallale.
अचरित्वा ब्रह्मचरियं, अलद्धा योब्बने धनं।
Acaritvā brahmacariyaṃ, aladdhā yobbane dhanaṃ;
सेन्ति चापातिखीणाव, पुराणानि अनुत्थुनं॥
Senti cāpātikhīṇāva, purāṇāni anutthunaṃ.
जरावग्गो एकादसमो निट्ठितो।
Jarāvaggo ekādasamo niṭṭhito.
प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
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‘अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस। गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’
अनुवाद:-
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा। गृह निर्माण करने वाले की खोज में। बार-बार जन्म दुःखमय हुआ।
श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है जहां महात्मा बुद्ध ने अपने 2 या 4 नहीं अपित लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।
वहां उन्होंने कहा है--
भिक्षुओं ! कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है--
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“अनेकजातिसंसार, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारकं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं ॥”
–
अनुवाद:-अनेक जन्मों तक बिना रुके संसार में, दौड़ता रहा। इस कायारूपी घर बनाने वाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दुःखमय जन्म में पड़ता रहा।
“गहकारक! दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खितं ।
विसंखारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा॥”
– गृहकारक । अब तुझे देख लिया है! अब तू पुनः घर नहीं बना सकेगा। तेरी सारी कड़ियाँ भग्न हो गयी हैं। घर का शिखर भी विशृंखलित हो गया है। संस्कार रहित चित्त में तृष्णा का समूल नाश हो गया है।
“सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्त परियोदपनं, एतं बुद्धानसासनं ॥”
– सभी प्रकार के पापों को न करना; कुशल [पुण्य] कार्यों का संपादन करना; अपने चित्त को परिशुद्ध करना; यह है समस्त बुद्धों की शिक्षा ।
“तुम्हेहि किच्चं आतप्पं, अक्खातारो तथागता ।
पटिपन्ना पमोक्खन्ति, झायिनो मारबन्धना ॥”
– सभी तथागत बुद्ध केवल मार्ग आख्यात कर देते हैं; विधि सिखा देते हैं, अभ्यास और प्रयत्न तो तुम्हें ही करना है। जो स्वयं मार्ग पर आरूढ़ होते हैं; ध्यान में रत होते हैं, वे मार यानी मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
“अत्ता हि अत्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति ।
तस्मा सञमयत्तानं, अस्सं भद्रं व वाणिजो॥”
– तुम आप ही अपने स्वामी हो, आप ही अपनी गति हो! अपनी अच्छी या बुरी गति के तुम आपही तो जिम्मेदार हो! इसलिए अपने आपको वश में रखो वैसे ही, जैसे कि घोड़ों का कुशल व्यापारी श्रेष्ठ घोड़ों को पालतू बनाकर वश में रखता है। संयत रखता है।
“मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुद्वेन, भासति वा करोति वा।
ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्कं व वहतो पदं ॥
मनसा चे पसनेन, भासति वा करोति वा ।
ततो नं सुखमन्वेति छायाव अनपायिनी ॥”
– सभी धर्म (अवस्थाएं) पहले मन में उत्पन्न होते हैं। मन ही मुख्य है, ये धर्म मनोमय हैं। जब आदमी मलिन मन से बोलता या कार्य करता है तो दुःख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे गाड़ी के पहिये बैल के पैरों के पीछे-पीछे । जब आदमी स्वच्छ मन से बोलता है या कार्य करता है तो सुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे कभी साथ न छोड़ने वाली छाया ।
“फुट्ठस्स लोकधम्मेहि, चित्तं यस्स न कम्पति ।
असोकं विरजं खेमं, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥”
– आठो लोकधर्मों (लाभ-हानि, यश-अपयश, सुख-दुःख, निंदा-प्रशंसा) के स्पर्श से चित्त विचलित नहीं होने देना, निःशोक, निर्मल और निर्भय रहना- ये श्रेष्ठ मंगल हैं।
“चक्खुना संवरो साधु, साधु सोतेन संवरो ।
घाणेन संवरो साधु, साधु जिह्वाय संवरो।
कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो ।
मनसा संवरो साधु, साधु सब्बत्थ संवरो।
सब्बत्थ संवुतो भिक्खु, सब्बदुक्खा पमुच्चति ॥”
– आँख का संवर [संयम] भला है। भला है कान का संवर! नाक का संवर भला है भला है जीभ का संवर!
शरीर का संवर भला है भला है वाणी का संवर!
मन का संवर भला है भला है सर्वत्र संवर!
(मन और काया स्कंध में) सर्वत्र संवर रखने वाला भिक्षु (साधक) सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।
“यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं।
लभती पीतिपामोजं, अमतं तं विजानतं ॥”
– साधक सम्यक सजगता के साथ जब-जब शरीर और चित्त स्कंधों के उदय-व्यय रूपी अनित्यता की विपश्यनानुभूति करता है तब-तब प्रीति-प्रमोद रूपी अध्यात्म सुख की उपलब्धि करता है। यह जानने वालों के लिए अमृत है।
“सब्बे सङ्खारा अनिच्चा’ति, यदा पञ्जाय पस्सति ।
अथ निबिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया ॥”
– सभी संस्कार अनित्य हैं, यानी जो कुछ उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है। इस सच्चाई को जब कोई विपश्यना-प्रज्ञा से देखता है तो उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं। ऐसा है यह विशुद्धि का मार्ग!
“अनिच्चावत सङ्खारा, उप्पादवय धम्मिनो।
उपज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वुपसमो सुखो ॥”
– सचमुच! सारे संस्कार अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तु, व्यक्ति अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना, यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है। विपश्यना-साधना के अभ्यास द्वारा उत्पन्न हो कर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब पूर्णतया उपशमन हो जाता है – पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, वही परम सुख है। वही निर्वाण-सुख है।
“सब्बो पज्जलितो लोको, सब्बो लोको पकम्पितो।”
– सारे लोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं। सारेलोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं। सारे लोक प्रकम्पित ही प्रकम्पित है।
“खीणं पुराणं नवं नथिसम्भवं, विरत्तचित्तायतिके भवस्मि। ते खीणबीजा अविरुळ्हिछन्दा, निब्बन्ति धीरा यथायं पदीपो॥”
– जिनके सारे पुराने कर्म क्षीण हो गये हैं और नयों की उत्पत्ति नहीं होती; पुनर्जन्म में जिनकी आसक्ति समाप्त हो गयी है, वे क्षीण-बीज तृष्णा-विमुक्त अर्हत उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त होते हैं जैसे कि तेल समाप्त होने पर यह प्रदीप!
“कत्वान कट्ठमुदरं इव गन्भिनीयं। चिञ्चाय दुट्ठवचनं जनकाय मज्झे। सन्तेन सोम विधिना जितवा मुनिन्दो। तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि ॥”
– पेट पर काठ बाँध कर गर्भिणी का स्वांग भरने वाली चिञ्चा द्वारा भरी सभा के बीच कहे गये दुष्ट वचनों को जिन मुनींद्र भगवान बुद्ध ने शांति और सौम्यता के बल पर जीत लिया, उनके तेज प्रताप से जय हो! मंगल हो!!
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‘‘मै। इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था।
सो मैं वहां मरकर वहां उत्पन्न हुआ। वहां भी मैं इस नाम का था।
सो मैं वहां मरकर यहां उत्पन्न हुआ।” इत्यादि। अगला तीसरा प्रमाण धम्मपद के उपर्युक्त वर्णित श्लोक का अगला श्लोक है
जिसमें गृहकारक के रूप में आत्मा का निर्देश किया गया है। श्लोक है-
‘गृह कारक दिट्ठोऽसि पुन गेहं न काहसि। सब्वा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं। विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा।।’
इस श्लोक के अनुवाद में इसका अर्थ दिया गया है कि हे गृह के निर्माण करनेवाले ! मैंने तुम्हें देख लिया है, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कड़ियां सब टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्कार रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया। इस पर टिप्पणी करते हुए
पं. धर्मदेव जी कहते हैं कि यह मुक्ति अथवा निर्वाण के योग्य अवस्था का वर्णन है। जब तक ऐसी अवस्था नहीं हो जाती तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है।
इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध परलोक, पुनर्जन्म आदि में विश्वास करने के कारण आस्तिक थे।
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अनेकजातिसंसारं, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं॥१५३॥
गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खतं।
विसङ्खारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा॥१५४॥
उपरोक्त पंक्तियाँ धम्मपद के जरावग्गो अध्याय से ली गई हैं। जिस क्षण भगवान बुद्ध को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी, तभी उन्होनें इन पंक्तियों को कहा था। बुद्ध कहते हैं:
अनेकजातिसंसारं, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
मैंने इस संसार में अनेक बार जन्म लिया और बिना कुछ प्राप्त किए यूं ही दौड़ता रहा।
गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं
घर बनाने वाले की खोज करते हुए बार-बार दु:खमय जन्म लेता रहा।
गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि।
हे घर बनाने वाले! अब तू देख लिया गया है। अब तू फिर से मेरे लिए घर नहीं बना सकेगा।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खतं।
क्योंकि तेरी सारी कड़ियाँ टूट गई हैं और घर का कूटस्थ स्तंभ भी टूट चुका है।
विसङ्खारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा
नए जन्म देने वाले सभी संस्कारों से मेरा चित्त पूरी तरह रिक्त हो चुका है। और मुझे ऐसी अवस्था प्राप्त हो गई है जहाँ सारी तृष्णाओं का क्षय हो गया है।
Footnotes:3. रोगनिड्ढं (सी॰ पी॰), रोगनिद्धं (स्या॰) 4. roganiḍḍhaṃ (sī. pī.), roganiddhaṃ (syā.) 5. यानिमानि अपत्थानि (सी॰ स्या॰ पी॰), यानिमानि’पविद्धानि (?) 6. अलापूनेव (सी॰ स्या॰ पी॰) 7. yānimāni apatthāni (sī. syā. pī.), yānimāni’paviddhāni (?) 8. alāpūneva (sī. syā. pī.) 9. बलिवद्दोव (सी॰ स्या॰ पी॰) 10. balivaddova (sī. syā. pī.) 11. गहकारकं (सी॰ स्या॰ पी॰) 12. gahakārakaṃ (sī. syā. pī.)
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