मंगलवार, 17 अक्तूबर 2023

शुभ्र ऋषि की पत्नी का नाम था विकुण्ठा। उन्हीं के गर्भ से वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओं के साथ अपने अंश से स्वयं भगवान् ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया।

विष्ण के अवतारों का वर्णन चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को शिक्षा देते समय किया है।[१]

भगवान का वह रूप, जो सृष्टि करने के हेतु भौतिक जगत् में अवतरित होता है, अवतार कहलाता है।[२] 

कृष्ण के अवतार असंख्य हैं। कहीं दश कहीं चौबीस और कहीं सत्ततर और उनकी गणना कर पाना संभव नहीं है।

 जिस प्रकार विशाल जलाशयों से लाखों छोटे झरने निकलते हैं, उसी तरह से समस्त शक्तियों के आगार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री हरि विष्णु से असंख्य अवतार प्रकट होते हैं।[३]

भगवान कृष्ण के 6 तरह के अवतार होते हैं: भगवान कृष्ण के 6 तरह के अवतार[४]

1.पुरुषावतार (3)
  1. कारणाब्धिशायी विष्णु 
  2. (महा विष्णु)
  3. गर्भोदकशायी विष्णु
  4. क्षीरोदकशायी विष्णु।
2.लीला अवतार (25)चतु:सन (सनक, सनातन,
सनत कुमार व सनन्दन), 
नारदवराहमत्स्य,
यज्ञ, नर-नारायण,
 कपिलदत्तात्रेय,
हयग्रीव, हँस, प्रश्निगर्भ,
 ऋषभ, प्रथू, नृसिंहकूर्मधन्वन्तरि, मोहिनी, वामनपरशुराम,
 रामव्यासबलरामकृष्णबुद्ध 
तथा कल्कि
3.गुण-अवतार (3)जो भौतिक गुणों का नियन्त्रण करते हैं-
  1. ब्रह्मा (रजोगुण)
  2. शिव (तमोगुण)
  3. विष्णु (सतोगुण)
4.मन्वन्तर-अवतार (14)जो प्रत्येक मनु के शासन में प्रकट होते हैं। ब्रह्मा के एक दिन में 14 मनु बदलते हैं। श्रीमद्भागवत[५] में मन्वन्तर-अवतारों की सूचि दी गई है- यज्ञ, विभु, सत्यसेन, हरि, वैकुण्ठ, अजित, वामन, सार्वभौम, ऋषभ, विष्वक्सेंन, धर्मसेतु, सुधामा, योगेश्वर तथा ब्रह्द् भानु। इसमें से यज्ञ तथा वामन की गणना लीलावतारों में भी की जाती है।
5.युग-अवतार (4)
  1. सतयुग में शुक्ल (श्वेत)
  2. त्रेतायुग में रक्त
  3. द्वापर युग में श्याम
  4. कलियुग में सामान्यता कृष्ण (काला), किन्तु विशेष दशाओं में पीतवर्ण।
6.शक्त्यावेश अवतारजब-जब भगवान अपनी विविध शक्तियों के अंश रूप में किसी में विद्यमान रहते हैं, तब वह जीव शक्त्यावेश अवतार कहलाता है।[६]
  1. वैकुण्ठ में शेषनाग (भगवान की निजी सेवा)
  2. अनन्तदेव (ब्रह्मांड के समस्त लोकों को धारण करने की शक्ति)
  3. ब्रह्मा (सृष्टि-शक्ति)
  4. चतु:सन या चारों कुमार (ज्ञान-शक्ति)
  5. नारद मुनि (भक्ति-शक्ति)
  6. महाराज प्रथु (पालन-शक्ति)
  1. मध्य लीला अध्याय 20
  2.  मध्य लीला 20.263
  3.  मध्य लीला 20.249
  4.  भगवान कृष्ण के विभिन्न अवतार 
  5.  श्रीमद्भागवत (8.1.5,13)
  6.  मध्य लीला 20.373
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अष्टम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद देवताओं का ब्रह्मा जी के पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान् की स्तुति श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान् की यह गजेन्द्र मोक्ष की पवित्र लीला समस्त पापों का नाश करने वाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तर की कथा सुनो। पाँचवें मनु का नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे। उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओं के प्रधान गण थे। परीक्षित! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे। उनमें शुभ्र ऋषि की पत्नी का नाम था विकुण्ठा। उन्हीं के गर्भ से वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओं के साथ अपने अंश से स्वयं भगवान् ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया। उन्हीं ने लक्ष्मी देवी की प्रार्थना से उनको प्रसन्न करने के लिये वैकुण्ठधाम की रचना की थी।

 वह लोक समस्त लोकों में श्रेष्ठ है। उन वैकुण्ठनाथ के कल्याणमय गुण और प्रभाव का वर्णन मैं संक्षेप से (तीसरे स्कन्ध में) कर चुका हूँ। भगवान् विष्णु के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वी के परमाणुओं की गिनती कर ली हो। छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पुरुस, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे। इन्द्र का नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उन मन्वन्तर में हविष्यामान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे।
 जगत्पति भगवान् ने उस समय भी वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से अजित नाम का अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने ही समुद्र मन्थन करके देवताओं को अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छप रूप धारण करके मन्दराचल की मथानी के आधार बने थे। राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! भगवान् ने क्षीरसागर का मन्थन कैसे किया? उन्होंने कच्छप रूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्य से मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया? देवताओं को उस समय अमृत कैसे मिला? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्र से निकलीं? भगवान् की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। आप भक्तवत्सल भगवान् की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुनने के लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघाने का तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनों से यह संसार की ज्वालाओं से जलता जो रहा है। सूत जी ने कहा- शौनकादि ऋषियों! भगवान् श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित के इस प्रश्न का अभिनन्दन करते हुए भगवान् की समुद्र-मन्थन-लीला का वर्णन आरम्भ किया। श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जिस समय की यह बात है, उस समय असुरों ने अपने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित कर दिया था। उस युद्ध में बहुतों के तो प्राणों पर ही बन आयी, वे रणभूमि में गिरकर फिर उठ न सके। दुर्वासा के शाप से[1] तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँ तक कि यज्ञ-यागादि धर्म-कर्मों का भी लोप हो गया था। यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओं ने आपस में बहुत कुछ सोचा-विचारा; परन्तु अपने विचारों से वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। तब वे सब-के-सब सुमेरु के शिखर पर स्थित ब्रह्मा जी की सभा में गये और वहाँ उन लोगों ने बड़ी नम्रता से ब्रह्मा जी की सेवा में अपनी परिस्थिति का विस्तृत विवरण उपस्थित किया।












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