श्रीमद्भागवतपुराण-स्कन्धः (१)अध्यायः (३) विष्णु के चौबीस अवतार-
यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यङ्नरादयः॥५॥
चचार दुश्चरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ॥६॥
द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम्।
उद्धरिष्यन् उपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः ॥७॥
तृतीयं ऋषिसर्गं वै देवर्षित्वमुपेत्य सः ।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः॥८॥
तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणौ ऋषी ।
भूत्वात्मोपशमोपेतं अकरोद् दुश्चरं तपः॥९॥
पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् ।
प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्॥१०॥
षष्ठे अत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया।
आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान्॥११।
ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत ।
स यामाद्यैः सुरगणैः अपात् स्वायंभुवान्तरम्।१२॥
अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः ।
दर्शयन्वर्त्म धीराणां सर्वाश्रम नमस्कृतम् ॥१३॥
ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः ।
दुग्धेमामोषधीर्विप्राः तेनायं स उशत्तमः॥१४॥
रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसंप्लवे।
नाव्यारोप्य महीमय्यां अपाद् वैवस्वतं मनुम्॥१५॥
सुरासुराणां उदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् ।
दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः ॥१६॥
अपाययत्सुरान्अन्यान् मोहिन्या मोहयन्स्त्रिया॥१७॥
चतुर्दशं नारसिंहं बिभ्रद् दैत्येन्द्रमूर्जितम् ।
पदत्रयं याचमानः प्रत्यादित्सुस्त्रिविष्टपम्॥१९॥
अवतारे षोडशमे पश्यन् ब्रह्मद्रुहो नृपान् ।
त्रिःसप्तकृत्वः कुपितो निःक्षत्रां अकरोन्महीम्॥२०॥
ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात् ।
चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधसः॥२१॥
नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया ।
समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम्॥२२॥
एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।
रामकृष्णाविति भुवो भगवान् अहरद्भरम्॥२३॥
ततः कलौ संप्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धो नाम्नां जनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥२४॥
अथासौ युगसंध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु ।
जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः॥२५॥
अवतारा ह्यसङ्ख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः ।
यथाविदासिनःकुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः॥२६॥
ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः।
कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयः तथा ॥२७॥
एते चांशकलाः पुंसःकृष्णस्तु भगवान्स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे॥२८॥
जन्म गुह्यं भगवतो य एतत्प्रयतो नरः।
सायंप्रातर्गृणन्भक्त्या दुःखग्रामाद् विमुच्यते॥ २९॥
प्रथम स्कन्ध: तृतीय अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद
जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया। बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया। चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है। पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी। सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया। इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति का देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं। अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं। _______________ उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा। इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे। शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय-रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है। प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है। जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं- वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं। यहाँ बाईस अवतारों की गणना की गयी है, परन्तु भगवान् के चौबीस अवतार प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वान् चौबीस की संख्या यों पूर्ण करते हैं- राम कृष्ण के अतिरिक्त बीस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही, शेष चार अवतार श्रीकृष्ण के ही अंश हैं। स्वयं श्रीकृष्ण तो पूर्ण परमेश्वर हैं; वे अवतार नहीं, अवतारी हैं। अतः श्रीकृष्ण को अवतारों की गणना में नहीं गिनते। उनके चार अंश ये हैं- एक तो केश का अवतार, दूसरा सुतपा तथा पृश्नि पर कृपा करने वाला अवतार, तीसरा संकर्षण-बलराम और चौथा परब्रह्म। इस प्रकार इन अवतारों से विशिष्ट पाँचवे साक्षात् भगवान् वासुदेव हैं। दूसरे विद्वान् ऐसा मानते हैं कि बाईस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; इनके अतिरिक्त दो और हैं- हंस और हयग्रीव। |
प्रकृति के तीन गुण हैं- सत्त्व, रज और तम। इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र- ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करने वाले श्रीहरि से ही होता है। जैसे पृथ्वी के विकार लकड़ी की अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्नि- क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादि के द्वारा अग्नि सद्गति देने वाला है- वैसे ही तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से भी सत्त्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान का दर्शन कराने वाला है। प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिये विशुद्ध सत्त्वमय भगवान विष्णु की आराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हीं के समान कल्याण भाजन होते हैं। जो लोग इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निन्दा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोर रूप वाले- तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णु भगवान और उनके अंश- कला स्वरूपों का ही भजन करते हैं। परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और सन्तान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता है। वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है।
श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 14-25 |
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