(तं तथा कृपया विष्टं अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदंत मिदं वाक्यं उवाच मथुसूदनः ॥1||). स तथा कृपया अविष्टं अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषीदंतं तं ( अर्जुनं) मधुसूदनः उवाच ॥
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श्री भगवानुवाच:
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्य जुष्टं अस्वर्ग्यं अकीर्तिकरं अर्जुन ॥2||
- हे अर्जुन ! अनार्य जुष्टं अस्वर्ग्यं अकीर्तिकरं इदं कश्मलं विषमे त्वां कुतः समुपस्थितं ?
हे अर्जुन वीरता रहित पुरुषों के झूँठन स्वर्ग न देने वाला और कीर्ति न करने वाला यह पाप इस विषय में तुमको कहाँ से उपस्थित हुआ है ।
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क्लैब्यं मास्मगमः पार्थ नैतत् त्व य्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्वक्योत्तिष्ट परंतप ॥3||
स॥ हे पार्थ ! क्लैब्यं मास्म गमः एतत् त्वयि न उपपद्यते । हे परंतप ! क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ ॥
अर्जुन उवाच:
कथं भीष्म महं संख्ये द्रोणं च मथुसूधन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥4||
स॥ हे मधुसूदन ! पूजार्हौ भीष्मं द्रोणं च संख्ये( युद्धे) अहं इषुभ्ः कथं प्रतियोत्स्यामि.
गुरू नहत्वापि महानुभावान्
श्रेयोभोक्तुं बैक्षमपीहलोके ।
हत्वा अर्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजिय भोगान् रुथिर प्रदिग्थान् ॥5||
"महानुभावान् गुरून् अहत्वा इहलोके भैक्ष्यं अपि भोक्तुं श्रेयः हि । गुरून् हत्वातु इहैव रुधिर प्रदग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुंजीय ।
श्रीमद्भगवद्गीता- द्वितीय अध्याय श्लोक –(२)
श्रीभगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम् कीर्तिकरमर्जुन॥२-२॥
-: हिंदी भावार्थ :-
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुम्हें इस असमय में यह शोक किस प्रकार हो रहा है? क्योंकि न यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग देने वाला है और न यश देने वाला ही है॥2॥
-: English Meaning :-
Lord Krishna says – O Arjun! How can you get sad at this inappropriate time? This sadness is not observed in nobles, it also does not lead to either heaven or glory.॥2॥
आर्य्य= ऋ--ण्यत् । १ स्वामि, २ गुरु, ३ सुहृद । ४ श्रेष्ठकुलोत्पन्न ५ पूज्य ६ श्रेष्ठ, ७ सङ्गत नाट्योक्त ८ मान्य, ९ उदारचरित, १० शान्तचित्त
“कर्त्तव्यमाचरन् कार्य्यम- कर्त्तव्यमनाचरन् । तिष्ठति प्रकृताचारे स वा आर्य्य इति स्मृतः इत्युक्तलज्ञणे ११ जने च त्रि० ।
“ग्रहीतुमार्य्यान् परिचर्य्यया मुहुः” माघः । “त्यजेदकस्मात्, पतिरार्य्यवृत्तः” “वर्णापेतमविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम् ।
आर्यरूपमिवानार्यं कर्मभिः स्वैर्विभावयेत्” “जातो नार्य्यामनार्यायामार्यादार्यो भवेद्गुणैः । जातोऽप्यनार्यादार्यायामनार्यैति निश्चयः” । “अनार्य्य मार्यकर्माणमार्यं चानाय्यकर्मिणम्, । संप्रधार्या व्रवीदेतौ न समौ नासमाविति” इति च मनुः ।
आर्य्यत्वेन सम्भाषणे नाटके नियमविशेषाः सा० द० उक्ता यथा “राजन्नित्यृपिभिर्वाच्यः सोऽपत्यपत्ययेन च । स्वेच्छया नामभिर्निव्रैर्विप्र आर्य्येति चेतरैः” विप्रेतरै र्विप्रः आर्य्येति वाच्यः “वाच्यौ नटीसूत्रधारावार्यनाम्ना परस्परम्” । नट्या सूत्रधारः आर्य्येति वाच्यः सूत्रधारेण च नटी आर्य्या इति वाच्या ।
“वयस्येत्युत्तमैर्वाच्योमध्यै रार्य्येति चाग्रजः” । “आर्य्यबालचरितप्रस्तावनाडिण्डिम” इति वीरचरित। रामचरितवर्ण्णने लक्षणोक्तिः ।
“वत्स! पुत्रक तातेति संज्ञागोत्रेण वा युतः। शिष्योऽनुजश्च वक्त- व्योऽमात्य आर्य्येति चेतरैः” इतरैरमात्य आर्य्येति वक्तव्यः “वृत्तेन हि भवत्यार्य्यो न धनेन न विद्यया” भा० उ० ८९ अ० उक्तेः सदाचारेणैव नराणामार्य्यत्वम् । आर्य्याऽप्यरुन्धती तत्र व्यापारं कर्त्तुमर्हति” कुमा० १२ प्राकृतभाषायां स्त्री “मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः ।
म्लेच्छवाचश्चार्य्यवाचः सर्वेते दस्यवः स्मृताः” मनुः । १३ श्वशुरे पु० । आर्य्यपुत्रः पतिः “आर्य्यो ब्राह्मणकुमारयोः” पा० उक्तेः कर्मधारये ब्राह्मणकुमारयोः परतः प्रकृतिस्वरः ।
गीता द्वितीय अध्याय श्लोक – ३
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥२-३॥
-: हिंदी भावार्थ :-
हे पृथा-पुत्र! कायरता को मत प्राप्त हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देती है। हे शत्रु-तापन! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर(युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ॥3॥
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व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से शूद्र शब्द का अर्थ-
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shooter is a Celtic genus or tribe of a Scotis history --- which was related to pictus;,
it was called Shudra (Sooter ) in European history...
शूटर एक सेल्टिक जीनस या जनजाति है जो एक स्कॉटिस इतिहास है - जो चित्र से संबंधित था ;,
अर्थात् यह एक स्कॉट्स मूल की कैल्टिक जन-जाति थी --जो पिक्टों से सम्बद्ध थी ; तथा युद्ध में वेतन लेकर युद्ध करती थी , वही यूरोप में शूद्र कहलाती थी ।
वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था ।
इस कारण ये सॉल्जर कह लाए ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे।
idest, it was a Celtic people of Scots origin - associated with Picts; And used to in war, the same was called Shudra in Europe.
In fact, in Roman culture gold coins were called Solidus.
For this reason, these solvers were called These people were called pictis.
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Shudras only mastered martial arts. Soldier or warrior in old French was called Soder Souder (Soldier). Originally-derived - One tribe who serves in the army for pay is called Souder .. In fact, gold coins in the Roman culture were called Solidus. Because of this, they called the Soldier. These people were called paintings...
शूद्रों की एक शाखा को पिक्टस कहा गया।
जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये ।
जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है ।
---जो बाद में पख़्तो हो गया है ।
फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून भी इसी शब्द से सम्बद्ध हैं ।
हिन्दी पट्ठा या पट्ठे ! का विकास भी इसी शब्द से हुआ ।
... क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर ये लोग सजात भीे भी थे ।
ताकि युद्ध काल में व्रण- संक्रमण (सैप्टिक ) न हो सके ।
ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे ।
ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे
"The pictis were a tribal Confederadration of peoples .
who lived in recently Eastern and northern Scotland... "
ये लोग यहाँ पर ड्रयूडों की शाखा से सम्बद्ध थे ।
भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids) एक ही जन जाति के लोग थे ।
मैसॉपोटामिया की धरा पर एक संस्कृति केल्डियनों (Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है।
जो ई० पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं ।
बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है ।
यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है।
ये सेमेटिक जन-जाति के थे ; अत: भारतीय पुराणों में इन्हें सोम वंशी कहा ।
जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया ।
पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है ।
चन्द्र शब्द नहीं ...
वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे ; जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ ।
मैसॉपोटामिया की असीरियन (असुर) अक्काडियन, हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डियन संस्कृति भी एक कणिका थी।
भारतीय समाज की सदीयों से यही विडम्बना रही की यहाँ ब्राह्मण समाज ने ( उपनिषद कालीन ब्राह्मण समाज को छोड़कर)
अशिक्षित जनमानस को दिग्भ्रमित करने वाली प्रमाण रूप बातों को बहुत ही सफाई से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है !
और अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं सृजित की जिनका ऐैतिहासिक रूप से कहीं अस्तित्व नहीं था ।
लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन करने वाले ग्रन्थ हों सम्भव नहीं ! सब के सब जनता को पथ-भ्रमित करने के लिए एक अतिशयोक्ति और चाटूकारिता पूर्ण कल्पना मात्र हैं, जो लोगों को मानवता के पथ से विचलित कर रूढ़िगत मार्ग पर ढ़केल ले जाती हैं।
जैसे ऋग्वेद जो अपौरुषेय वाणी बना हुआ भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पटल पर दौड़ लगा रहा है ! वह भी पारसीयों ( ईरानीयों) के सर्वमान्य ग्रन्थ "जींद ए अवेस्ता" का परिष्कृत संस्कृत रूपान्तरण है।
दौनों में काफी साम्य देखने को मिलता है,।
सम्भवत: दौनों -ग्रन्थों का श्रोत समान रहा हो !
दौनों के पात्र एवं शब्द- समूह समान है ।
-जैसे यम विवस्वत् का पुत्र है ।
वृत्रघ्न , त्रित ,त्रितान अहिदास ,सोम ,वशिष्ठ ,अथर्वा, मित्र आदि को क्रमश यिम, विबनघत ,वेरेतघन ,सित, सिहतान ,अजिदाह ,हॉम वहिश्त ,अथरवा ,मिथ्र आदि
दौनों की घटनाओं का भी समायोजन है ।
ऋग्वेद की प्रारम्भिक ऋचाओं का प्रणयन अजरवेज़ान
( आर्यन-आवास ) रूस तथा तुर्की के समीप वर्ती क्षेत्रों में हुआ ।
और दौनों -ग्रन्थों में जो विषमताएं देखने को मिलती हैं स्पष्टत: वे बहुत बाद की है ।
और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो ऋचाऐं हैं ; वे सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करती हैं 12 वें (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है वही ऋचा यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
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ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
इसमें प्रयुक्त क्रिया पद (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है ।
नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय आत्मने पदीय एक वचन रूप है ।
नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय लड्. लकार के क्रिया रूप हैं ।
तथा आसीत् क्रिया पद "आस्" धातु का (लड्. लकार) का प्रथम पुरुष एक वचन का परस्मैपदीय रूप है ।
तथा अजायत क्रिया पद (जन् )- धातु का आत्मनेपदीय रूप।
एकवचनम्- द्विवचनम्- बहुवचनम्
(प्रथमपुरुषः)
अजायत- अजायेताम् -अजायन्त ।
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(मध्यमपुरुषः)
अजायथाः- अजायेथाम्- अजायध्वम् ।
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(उत्तमपुरुषः)
अजाये -अजायावहि- अजायामहि।
उपर्युक्त ऋचा में लड्.लकार ( अनद्यतन प्रत्यक्ष भूत काल ) का प्रयोग हुआ है ---जो असंगत तथा व्याकरण नियम के पूर्णत: विरुद्ध भी है ।
क्योंकि इस लड् लकार का प्रयोग आज के बाद कभी भी घटित भूत काल को दर्शाने के लिए होता है ---जो आँखों के सामने घटित हुआ हो।
और अनद्यतन परोक्ष भूत काल में लिट् लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है ।
क्योंकि लिट्लकार का अर्थ है ऐसा भूत काल ---जो आज के बाद कभी हुआ हो परन्तु आँखों के सामने घटित न हुआ हो ---जो वस्तुत: ऐैतिहासिक विवरण प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है।
और लड्. लकार का प्रयोग इस सूक्त के लगभग पूरी ऋचाओं में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है ।
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वह भी व्याकरण नियम के विरुद्ध ।
अब लिट् लकार के क्रिया रूपों का वर्णन करते हैं :-
लिट् लकार का क्रिया रूप---
(प्रथमपुरुषः)
जज्ञे -जज्ञाते -जज्ञिरे ।
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(मध्यमपुरुषः )
जज्ञिषे -जज्ञाथे- जज्ञिध्वे ।
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(उत्तमपुरुषः)
जज्ञे -जज्ञिवहे- जज्ञिमहे।
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लिट् लकार तथा लड्. लकार दौनों के अन्तर को स्पष्ट कर दिया गया है ।
इनका कुछ और स्पष्टीकरण:-
2. लङ् लकार -- Past tense - imperfect
(लङ् लकार = अनद्यतन भूत काल )
आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- आपने उस दिन भोजन पकाया था ।
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भूतकाल का एक और लकार :--
3. लुङ् -- Past tense - aorist
लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ;
जो कभी भी बीत चुका हो ।
जैसे :- मैंने गाना खाया ।
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व्याकरण की दृष्टि से शास्त्रीय ग्रीक में और कुछ अन्य उपेक्षित भाषाओं में क्रिया का एक काल है, जो कि बिना कार्रवाई के क्षणिक निरन्तरता दर्शाता था,
इस संदर्भ के बिना पिछली कार्रवाई का संकेत देता है।
1. शास्त्रीय यूनानी के रूप में एक क्रिया काल, कार्रवाई व्यक्ति करण, अतीत में, पूरा होने, अवधि, या पुनरावृत्ति के रूप में आगे के निहितार्थ के बिना समायोजन को दर्शाता है ।
अर्थात् एक साधारण भूतकाल, विशेष रूप से प्राचीन ग्रीक में, जो निरंतरता या क्षणिकता का संकेत नहीं देता है।
अब संस्कृत के लिट् लकार को देखें---
4. लिट् -- Past tense - perfect( पूर्ण )
लिट् =अनद्यतन परोक्ष भूतकाल ; जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो
जैसे :- राम ने रावण को मारा था ।
संस्कृत भाषा में दश लकार क्रिया के दश कालों को दर्शाते हैं:-
5. लुट् -- Future tense - likely।
6. लृट् -- Future tense - certain।
7. लृङ् -- Conditional mood।
8. विधिलिङ् -- Potential mood।
9. आशीर्लिङ् -- Benedictive mood।
10. लोट् -- Imperative mood।
लौकिक संस्कृत तथा वैदिक भाषा में अन्तर रेखाऐं --
लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है।
दोनों के शब्द-रूप तथा धातु-रूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं।
वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं।
इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :-
(1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)।
जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनासः भी बनते हैं।
इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है।
तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है।
इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है।
तथा दासा वैदिक द्विवचन रूप तो लौकिक दासौ रूप मिलता है.
(2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है।
वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है; तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है।
जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिड्. जोकि लट् प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं। उदाहरणार्थ पठ् से पठतु और पठेत् ये दोनों बनते हैं।
वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुङ् लकार (Injunctive)
(जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ (नहीं)निपात से प्रदर्शित होता है ;और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)।
इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुड्.प्रकृति से भी बनते हैं।
इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। वैदिक भाषा में 'मिनीमसि भी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है।
जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि।
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निष्कर्ष रूप में हम निश्चित रूप से पुरुष सूक्त को पुष्यमित्र सुंग कालीन रूढि वादी ब्राह्मणों के द्वारा रचित हुआ सिद्ध करते है ।
कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है ।
क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है।
और वेद में केवल लिट् लकार व लेट् लकार का प्रयोग होता है ।
विशेषत: लेट लकार का ..
जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है
इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है; कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व चातुर्य पूर्ण गहन षड्यन्त्र परियोजना है ।
जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया।
ईरानी समाज में वर्ग-व्यवस्था थी । जो वस्तुत: असुर-महत् (अहुर-मज्दा) के उपासक थे ।
वर्ग-व्यवस्था का विधान व्यक्ति के स्वैच्छिक वरण अथवा चयन प्रक्रिया पर आश्रित था ।
और इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे ।
परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया ।
यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी ।
ब्राह्मण जो स्वयं को आर्य मानते हैं
वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं ।
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क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे यह विचारणीय है ?
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वेदों में आर्य शब्द भी मूलत: कृषक का वाचक है ।
आर्य शब्द संस्कृत की अर् (ऋ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन सर्वमान्य अर्थ संस्कृत धातु पाठ में उल्लिखित हैं ।
१–गमन करना Togo २– मारना tokill ३– हल (अरम् Harrow ) चलाना
मध्य इंग्लिश में—रूप Harwe कृषि कार्य करना ।
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प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य चरावाहे ही थे ।
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं !
पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व कार्त्स्न्यायन धातुपाठ में
ऋृ (अर्) धातु तीन अर्थ "कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) के रूप में उद्धृत है।
वास्तव में संस्कृत की "अर्" धातु का तादात्म्य (मेल)
identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर "Errare =to go से प्रस्तावित है ।
जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः( Araval )तथा (Aravalis) हैं ।
यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं ।
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अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है =आर्य एक पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने "वैैश्यों का समूह " किया है
संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी । २. ईश्वर और ३. वैश्य है।
संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है
समानार्थक:ऊरव्य,ऊरुज,अर्य,वैश्य,भूमिस्पृश्,विश्
2।9।1।1।3
ऊरव्या ऊरुजा अर्या वैश्या भूमिस्पृशो विशः।
आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने॥
पत्नी : वैश्यपत्नी
पदार्थ-विभागः : समूहः, द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः
अर्य पुल्लिंग
स्वामिः
समानार्थक:अर्य
3।3।147।1।2
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ऋग्वेद का वह ऋचा जिसमें कृषक पुत्री का मनोहारी स्वाभाविक वर्णन है ।
पृ॒थुः। रथः॑। दक्षि॑णायाः। अ॒यो॒जि॒। आ। एन॑म्। दे॒वासः॑। अ॒मृता॑सः। अ॒स्थुः॒। कृ॒ष्णात्। उत्। अ॒स्था॒त्। अ॒र्या॑। विऽहा॑याः। चिकि॑त्सन्ती। मानु॑षाय। क्षया॑य ॥ ऋग्वेद-१/१२३/१
अर्थ- (मानुषाय)- मनुष्यों के (क्षयाय) रोग के लिए (चिकित्सन्ती) -उपचार करती हुई (विहायः) -आकाश में उषा उसी प्रकार व्यवहार करती है जैसे (अर्या) - कृषक की कन्या (कृष्णात्)- कृषि कार्य करने के उद्देश्य से (उदस्थात्)- सुबह ही उठती है । (अयोजि)- अकेली (दक्षिणायाः)- कुशलता से (एनम्)- इसको (पृथुः) -विशाल (रथः)- रथ (अमृतास:) -अमरता के साथ (देवासः) -देवगण (आ, अस्थुः)- उपस्थित होते हैं ॥ १ ॥
देवों के विशाल रथ पर उपस्थित होकर मनुष्यों की रोगों का उपचार करती हुई उषा आकाश में जिस प्रकार का स्वाभाविक व्यवहार करती है जिस प्रकार कोई कृषक ललना ( पुत्री) कृषि कार्य के उद्देश्य से अकेली सुबह उठ जाती है ।१।
आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे ! उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था ।
जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है ।
वास्तव में ये सब गोलमाल है ।
कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है ।
न तो ये वैदिक ऋचाओं के अनुसार आर्य हैं और न वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ...
क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है ।
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ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: !
उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रोऽजायत !!
(ऋग्वेद 10/90/12)
इससे पहले की ऋचा भी विचारणीय है -
"कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।।
(ऋग्वेद 9/112//3)
अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने वाली है ।
उपर्युक्त ऋचा में समाज में वर्ग-व्यवस्था का विधान ही प्रतिध्वनित होता है ।
इस लिए वर्ण-व्यवस्था कभी भी आर्यों की व्यवस्था नहीं थी ।
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परम श्रद्धेय आदरणीय गुरुजी सुमन्त कुमार यादव "जौरा" की प्रेरणाओं से समन्वित -
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संस्कृत भाषा मे आरा और आरि शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है।
सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो ।
अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, " अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो।
यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
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फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य)ही था ।
इन्ही का नाम "आर्य" है ।
अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।
कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं
गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण ( बलराम)
दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे ।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं ।
(अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !
कृषि करना वैश्य का काम है!
यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
मनुस्मृति में वर्णन है कि
वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा ।हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83
ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात इसे यत्न पर्वक त्यागें क्ययों कि यह हिंसा के अन्तर्गत है ।
अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है।
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क: पुनर् आर्य निवास: ?
आर्यों ( कृषकों) का निवास कहाँ है ?
ग्रामो घोषो नगरं संवाह इति ।
ग्राम ( ग्रास क्षेत्र) घोष नगर आदि -
( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)
निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
जैसा कि नृसिंह पुराण में वर्णन करते विधान निश्चित किया है।
दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् ।
अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।
दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे विना कुछ माँगे हुए और अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए
और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे ।।११।
(नृसिंह पुराण अध्याय 58 का 11वाँ श्लोक)
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परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है।
इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा
सिवाय व्यापार के सायद यही कारण है ।
किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।
और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
उस किसान की शान में भी यह शासन की गुस्ताखी है ।
किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद दूसरा कोई नहीं इस संसार में !
परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !
और कोई मूल्य नहीं !
फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाले और अन्तत: शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है ।
यह आश्चर्य ही है । किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान की रोटी से ही पेट भरते हैं ।
परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में यह वर्ण-व्यवस्था निराधार ही थी ।
किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।
किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।
रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।
वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।
यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही है ।
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले
कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ? विचार कर ले !
श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवारूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
परन्तु किसान के लिए यह दुर्भाग्य ही है ।
किसान का जीवन आर्थिक रूप से सदैव से संकट में रहा उसकी फसल का मूल्य व्यापारी ही तय करता है ।
उसके पास कठिन श्रम करने के उपरान्त भी उनका जीवन अभावग्रस्त ही रहा !
परन्तु खाद और बीज का मूल्य भी व्यापारी उच्च दामों पर तय करता है ; और ऊपर से प्राकृतिक आपदा और ईति, के प्रकोप का भी किसान भाजन होता रहता है ।
ईति खेती को हानि पहुँचानेवाले वे उपद्रव है ।
जो किसान का दुर्भाग्य बनकर आते हैं ।
इन्हें शास्त्रों में छह प्रकार का बताया गया था :
अतिवृष्टिरनावृष्टि: शलभा मूषका: शुका:।
प्रत्यासन्नाश्च राजान: षडेता ईतय: स्मृता:।।
(अर्थात् अतिवृष्टि,(अधिक वर्षा) अनावृष्टि(सूखा), टिड्डी पड़ना, चूहे लगना, पक्षियों की अधिकता तथा दूसरे राजा की चढ़ाई।)
परन्तु अब ईति का पैटर्न ही बदल गया है।
गाय, नीलगाय और सूअर ।
माऊँ खर पतवार ।
खेती बाड़ी के चक्कर में
कृषक आज बीमार !!
यद्यपि गायों के लिए कुछ मूर्ख किसान ही दोषी हैं
जो दूध पीकर गाय दूसरों के नुकसान के लिए छोड़ देते हैं
परन्तु सब किसान नहीं हर समाज वर्ग में कुछ अपवाद होते ही हैं ।
अब प्रश्न यह बनता है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको कहें कि पूरे देश को मुहय्या कराता है; वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?
परन्तु वह शूद्र ही है । फिर भी उसका ही अन्न खाकर पाप नहीं लगता ,?
इसी लिए कोई ब्राह्मण अथवा जो स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में साथ नहीं होता है क्योंकि यह कृषक अब शूद्र ही है ।
और शूद्रों के अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता है
धर्म शास्त्रों के अनुसार !
भारतीय राजनीति विशेषत: भारतीय जानता पार्टी जो (आर. एस. एस) . तथा धर्मशास्त्रों की अनुक्रियायों का पालन करना अपना आदर्श मानती है ।
वही लोग किसानों के अधिकार जब्त करने के षड्यंत्र लोकतांत्रिक रूप में बना रहे हैं ।
परन्तु समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार सिद्धांत और नियम भी बदलने चाहिए जोकि बदलते भी हैं ।
परन्तु रूढ़िवादी समाज इस विचार का विरोधी ही है ।
यह सर्व विदित है वर्तमान में इस सरकार की नीतियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों के प्रति वफादारी और शूद्रों के प्रति गद्दारी का भाव निहित है ।
सड़क ,घर और अब किसानों की जमीन भी सरकार के अधीन कुछ कूटनीतिपरक नियमों के तहत होगी ।
एसी सरकार की योजना है ।
वर्तमान केन्द्र सरकार किसानों की कृषि सम्पदा को अपने अधीन करने के लिए एक कपटमूर्त विधेयक लाई थी जिस पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद वे कानून भी बन गया है ।
लेकिन किसानों के लिए बने ये कानून है । जो उसकी अस्मिता का संवैधानिक खून ही है ।
परोक्ष रूप से इन कानूनों से किसानों को नुकसान और निजी खरीदारों व बड़े कॉरपोरेट घरानों को फायदा होगा.
जो सरकार की नीतियों में शरीक है, सामिल है
किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा। और मजबूर किसान मिट्टी भाव में अपनी उपज व्यापारियों को बेचने पर मजबूर होगा ।
देश के करीब 500 अलग-अलग संगठनों ने मिलकर संयुक्त किसान मोर्चे के बैनर तले संगठित होकर सरकार के काले कानून के विरोध में लाम बन्द होकर आन्दोलन जारी कर दियाहैं ।,
परन्तु उनके इस आन्दोलन को विरोधी आतंकवादी कारनामा करार दे रहे हैं ।
ये तीन काले कानून ये हैं
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(1). किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक 2020: इसका उद्देश्य विभिन्न राज्य विधानसभाओं द्वारा गठित कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) द्वारा विनियमित मंडियों के बाहर कृषि उपज की बिक्री की अनुमति देना है.
ताकि मजबूर किसान की फसल का मूल्य मनमाने तरीके व्यापारी तय करेंगे ।
सरकार का कहना है कि किसान इस कानून के जरिये अब (एपीएमसी) मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे. निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे.
परन्तु चालवाजी की भी सरहद पार कर दी यह तो भोले किसान को भरमाकर
उसे ठगा जाना है क्योंकि विदेश से अनाज आयात या मंगा कर भारतीय किसान की फसल को मूल्य हीन कर दिया जाएगा। ।
लेकिन, सरकारी दिखावा और दावा मात्र छलाबा है ।
सरकार ने इस कानून के जरिये( एपीएमसी) मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है. एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (APMC) के स्वामित्व वाले अनाज बाजार (मंडियों) को उन बिलों में शामिल नहीं किया गया है.
इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को समझौते के तहत खुली छूट दी गई है. ताकि बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं.।
परोक्ष रूप से सरकार का समर्थन कॉरपोरेट खरीददारों को रहेगा ।
सरकार धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म कर सकती है, जिस पर सरकार किसानों से अनाज खरीदती है.
और किसान परेशान और बे शान होकर अपने अस्मिता को खो देगा ।
2. किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक: - इस कानून का उद्देश्य अनुबंध खेती यानी (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) की अनुुुमति देना है. आप की जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराये पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा.
तब किसान के पास झुनझुना होगा
और किसान पैसे की तंगी से मजबूर होकर यह करेगा ही और फसल की कीमत तय करने व विवाद की स्थिति का बड़ी कंपनियां लाभ उठाने का प्रयास करेंगी और छोटे किसानों के साथ समझौता नहीं करेंगी किसान खुद बर्बाद हो जाएगा।
तीसरा कानून. (आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक) यह कानून अनाज, दालों, आलू,लहसुन प्याज और खाद्य तिलहन जैसे खाद्य पदार्थों के उत्पादन, आपूर्ति, वितरण को विनियमित (exchanged) करता है. यानी इस तरह के खाद्य पदार्थ आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर करने का प्रावधान है. इसके बाद युद्ध व प्राकृतिक आपदा जैसी आपात स्थितियों को छोड़कर भंडारण की कोई सीमा नहीं रह जाएगी.
इसके चलते कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी. उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी और सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है ?
किसान की कृषि सम्पदा का मूल्यांकन निरस्त ही हो जाएगा ।
नए कानूनों के तहत कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुकसान किसानों को ही होगा.
लेकिन केंद्र सरकार साफ कर चुकी है कि किसी भी कीमत पर कृषि कानून को न तो वापस लिया जाएगा और न ही उसमें कोई फेरबदल किया जाएगा.
सरकार की यह दमन नीति कानून के तहत काम करेगी
– ये सरकारी कानून किसानों के हित में नहीं है और कृषि के निजीकरण को प्रोत्साहन देने वाले हैं.
इनसे होर्डर्स( जमा खोरी )और बड़े कॉरपोरेट.(निगमित या समष्टिगत) घरानों को ही फायदा होगा.
किसान मजदूर भी नहीं रहेगा क्योंकि कृषि कार्य नयी तकनीक की मशीनों से ही होगा ।
होर्डस :- किसी वस्तु की जमाखोरी, नाश या बेचने या बिक्री के लिए उपलब्ध करने से इनकार या किसी सेवा को प्रदान करने से इनकार, यदि ऐसी ज़माखोरी, नाश अथवा इनकार उस या उस जैसी वस्तुओं या सेवाओं की लागत को बढ़ाता है अथवा बढ़ाने की ओर प्रवृत्त करता है।
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प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार रोहि
सम्पर्क -8077160219
【मानव जाति चतुर्वर्ण प्रवर्तन मनु】
◙ आचार्य यास्क निरुक्त में इसी मान्यता को स्थापित करते हैं-
‘‘मनोरपत्यं मनुष्यः (मानवः)’’
(निरुक्त - 3:4)
अर्थ-‘मनु की सन्तान होने के कारण सबको मनुष्य या मानव कहा जाता है।’
◙ मनोर्वंशो मानवानाम्, ततोऽयं प्रथितोऽभवत्।
ब्रह्मक्षत्रादयः तस्मात्, मनोः जातास्तु मानवाः॥
(महाभारत -आदिपर्व 75:14)
अर्थ-मानव वंश मनु के द्वारा प्रवर्तित है। उसी मनु से यह प्रतिष्ठित हुआ है। सभी मानव मनु की सन्तान हैं अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी उसी मनु के वंशज हैं।
◙ ‘मनुराह वै अग्रे यज्ञेन ईजे।तद् अनुकृत्य इमाः प्रजाः यजन्ते।तस्माद् आह-‘मनुष्वद्’ इति। ‘मनोः यज्ञः’ इति उ-वै-आहुः।तस्माद् वा इव आहुः ‘मनुष्वद्’ इति।’’
(शतपथ ब्राह्मण - 1 :5:1 :7)
अर्थात्-‘यह सुनिश्चित तथ्य है कि मनु ने सर्वप्रथम यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसी मनु का अनुसरण करके सब प्रजाएं (जनता) यज्ञ करती हैं। इसी आधार पर कहा जाता है कि यज्ञ मनु के अनुसरण पर किया जाता है अर्थात् यज्ञ का आदिप्रवर्तक मनु है।’ यह आदि मनु ब्रह्मापुत्र स्वायंभुव मनु ही है।
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(शूद्रों का वेदाध्ययन में अधिकार)
यथे॒मां वाचं॑ कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः।ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्या᳖भ्या शूद्राय॒ चार्या॑य च॒ स्वाय॒ चार॑णाय च।
प्रि॒यो दे॒वानां॒ दक्षि॑णायै दा॒तुरि॒ह भू॑यासम॒यं
मे॒ कामः॒ समृ॑ध्यता॒मुप॑ मा॒दो न॑मतु ॥२ ॥
( यजुर्वेद-26 : 2 )
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【यज्ञ में शूद्रों का सम्मान सत्कार】
◙ सर्वे वर्णा यथा पूजां प्राप्नुवन्ति सुसत्कृता:।
न चावज्ञा प्रयोक्तव्या कामक्रोधवशादपि।।
(वालमीकि रामायण 1:13:13 )
ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् शूद्रांश्चैव सहस्रशः।
समानयस्व सत्कृत्य सर्वदेशेषु मानवान्॥
(वाल्मीकि रामायण -1: 13:19)
अर्थ-महर्षि वसिष्ठ आदेश देते है-‘हजारों की संख्या में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों को सभी प्रदेशों से सत्कारपूर्वक बुलाओ। उनको श्रद्धा-सत्कारपूर्वक भोजन कराओ ।’
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【रामायण शूद्रों के लिए भी 】
पठन् द्विजो वाक् ऋषभत्वम् ईयात् |
स्यात् क्षत्रियो भूमि पतित्वम् ईयात् ||
वणिक् जनः पण्य फलत्वम् ईयात् |
जनः च शूद्रो अपि महत्त्वम् ईयात् ||
(वाल्मीकि रामायण 1-1-100 )
◙ अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि वा॒चो वि॒सर्ज॑नं दे॒ववी॑तये त्वा गृह्णामि बृ॒हद् ग्रा॑वासि वानस्प॒त्यः सऽइ॒दं दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः श॑मीष्व सु॒शमि॑ शमीष्व। हवि॑ष्कृ॒देहि॒ हवि॑ष्कृ॒देहि॑ ॥१५॥
(यजुर्वेद -1:15)
🍁महाभारत में भी चारों वर्णों को तप,दान व अग्निहोत्र का अधिकार दिया गया है-
◙ ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपे।
दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्गं यान्ति भारत!।।
( महाभारत-अश्वमेधिकापर्व 11:37)
अर्थात - जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,शूद्र तप,दान,धर्म और अग्निहोत्र करते हैं, वे शुद्ध होकर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।
🍁महाभारत में ही एक अन्य स्थान पर यज्ञ में चारों वर्णों की भागीदारी को स्वीकार किया गया है-
◙ ‘चत्वारो वर्णाः यज्ञमिमं वहन्ति’’
(महाभारत -वनपर्व 134:11)
अर्थात - इस यज्ञ का सपादन चारों वर्ण कर रहे हैं।
🍁महाभारत में तो इससे भी आगे बढ़कर दस्युओं के लिए भी इन कर्मों का विधान किया है-
◙ भूमिपानां च शुश्रूषा कर्त्तव्या सर्वदस्युभिः।
वेदधर्मक्रियाश्चैव तेषां धर्मो विधीयते।।
(महाभारत - शान्तिपर्व 65:18)
अर्थात - दस्युओं को राजाओं की सेवा पक्ष में युद्ध करने चाहिए। वेदाध्ययन, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानों का पालन करना उनका भी विहित धर्म है।
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महाभारतकार कहता है कि कर्मभ्रष्ट होकर निन वर्ण को ग्रहण करने वालों के लिए यज्ञ, धर्मपालन, वेदाध्ययन का निषेध नहीं है –
धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।
इत्येते चतुरो वर्णांः येषां ब्राह्मी सरस्वती॥
(महाभारत -शान्तिपर्व 188:15)
अर्थ-वर्णान्तर प्राप्त जनों के लिए यज्ञक्रिया और धर्मानुष्ठान का निषेध कदापि नहीं है। वेदवाणी चारों वर्ण वालों के लिए है।
इसी प्रकार पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ में भी शूद्र जन आमन्त्रित किये गये थे। वहां भी यज्ञ-भोजन की भागीदारी में कोई भेदभाव नहीं था। (महाभारत, अश्वमेध पर्व 88.23; 89.26)
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ऐतरेय ब्राह्मण में ऐतिहासिक उल्लेख आता है कि कवष ऐलूष नामक व्यक्ति एक शूद्रा का पुत्र था। वह वेदाध्ययन करके ऋषि बना। आज भी ऋग्वेद के 10:30-34 सूक्तों पर मन्त्रद्रष्टा के रूप में कवष ऐलूष का नाम मिलता है (2.29)।
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◙ पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च।
यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः, शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥
(मनुस्मृति 2:137)
अर्थ-तीन द्विज-वर्णों में समान गुण वाले अनेक हों तो जिसमें श्लोक 2.136 में उक्त पांच गुणों में से अधिक गुण हों, वह पहले समाननीय है किन्तु शूद्र यदि नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो वह भी पहले समाननीय है।
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शूद्रहत्या के लिए प्रायश्चित तो कहीं पुण्य
एतदेव व्रतं कृत्स्नं षण्मासाञ् शूद्रहा चरेत् ।
वृषभैकादशा वापि दद्याद्विप्राय गाः सिताः ।।
(मनुस्मृति-11/130)
अर्थ - शूद्र के वध करने में छः मास पर्यन्त शुद्र हत्या के प्रायश्चित को करे और बैल और दस गऊ ब्राह्मण को देवे। यह भी अज्ञानता से वध करने में जानना। इन सब व्रतों के करने में कपाल ध्वजा को त्याग देना चाहिये।
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रुचं॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ꣳ राज॑सु नस्कृधि।
रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म् ॥
(यजुर्वेद-18:48)
अर्थ - हे ईश्वर ! आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिए, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिए, वैश्यों के प्रति उत्पन्न कीजिए और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिए।
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【शूद्रों को कम दंड】
◙ अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥
(मनुस्मृति 8:337)
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥
(मनुस्मृति 8:338)
अर्थात् - अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।
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【जनेऊ धारण का अधिकार】
प्राचीन शैव आगम ग्रन्थ जो लोग किसी कारण वेदाध्यन से वंचित रह गए हो और शूद्र हो उन्हें भी जनेऊ धारण का अधिकार देता है शैव धर्म के ऐसे ही उदारवादी नियमों के कारण दक्षिण भारत के आदिवासी जातियों में शैव धर्म का सबसे ज्यादा प्रभाव रहा तथा वहां के अधिकांश कबीले शैव थे -
◙ कार्पास निर्मित सत्र त्रिगुणं त्रिगुणीकृतम।
सूत्रमेक॑ तु शूद्राणां वैश्यानां द्विसरं भवेत्॥88
(कामिका आगम 3:88)
अर्थात -पवित्र धागा कपास से बना होना चाहिए। एक जनेऊ तीन धागों से बना होना चाहिए और ऐसी तीन धागों से पवित्र धागा बनाना चाहिए। योग्यता अनुसार शूद्र को एक पवित्र धागा पहनना चाहिए ; वैश्य दो पवित्र धागे पहन सकते हैं।
◙ क्षत्रविद्वद्ध जातीनां यदुक्तम् चोपवीतकम॥
पूजादि मन्त्रकाले तु धार्यन्नो घार्यमेव वा।
अनुलोमादि वर्णानां युक्तायुक्त विचार्य च॥
जातिभेदोक्त विधिना न धार्य धार्यमेव च।
(कामिका आगम 3:91-92)
अर्थात -पवित्र धागा (जनेऊ) जिसे क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों द्वारा पहना जाना बताया गया है उन्हें केवल देवता-पूजा और मंत्र के समय ही पहना जाना चाहिए। अन्य समय में, वे पवित्र धागा पहन भी सकते हैं और नहीं भी। मिश्रित जातियों और अन्य लोगों के लिए निर्धारित पवित्र धागा पहनने के सटीक नियमों से अच्छी तरह से परामर्श किया जाना चाहिए और यह तय किया जाना चाहिए कि वे पवित्र धागा पहन सकते हैं या नहीं।
◙ पुरुषाघोर वामाजमन्त्रा विप्रदिततः क्रमात्।
स्वस्वजात्युक्त मन्त्रेण घार्य तदुपवीतकम्॥101
(कामिका आगम 3:101)
अर्थात -तत्पुरुष मन्त्र, अघोर मन्त्र, वामदेव मन्त्र के जाप से पवित्र धागा धारण करना चाहिए। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों द्वारा क्रमशः मंत्र और सद्योजाता मंत्र जैसे निर्धारित विशेष मंत्र के पाठ के साथ पहना जा सकता है।
◙ ‘ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यस्य, शूद्रमपि कुल-गुण-सपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीतमध्यापये-दित्येके।’’
(सुश्रुत संहिता - सूत्रस्थान : 2)
अर्थात -‘ब्राह्मण अपने सहित तीन ( क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र ) वर्णों का, क्षत्रिय अपने सहित दो (वैश्य , शुद्र ) का, वैश्य अपने सहित एक वर्ण (शुद्र ) का उपनयन करा सकता है। यह (यगोपवीत ) संस्कार यज्ञपूर्वक ही होता है।
(आरम्भ में सभी एक ही वर्ण के थे)
◙ आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृत: ।
कृतकृत्या: प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदु: ॥ १० ॥
(श्रीमद भागवतम 11.17.10)
अर्थात -श्रीकृष्ण ने कहा -प्रारंभ में, सत्य-युग में, केवल एक सामाजिक वर्ग था , एक ही वर्ण था जिसे हंस कहा जाता था, जिससे सभी मनुष्य संबंधित हैं।
उस युग में सभी लोग भगवान के अनन्य भक्त होते थे, और इस प्रकार विद्वान इस प्रथम युग को कृतयुग कहते हैं, या वह युग जिसमें सभी धार्मिक कर्तव्य पूरी तरह से पूरे होते हैं।
◙ एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाङ्मय: ।
देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८ ॥
(श्रीमद भागवतम -9: 14: 48 )
अर्थात -”पहले सर्व वांग्मय प्रणव (ओंकार) ही एक मात्र वेद था। एकमात्र देवता सर्वव्यापी नारायण थे और कोई नहीं। एक मात्र लौकिक अग्नि ही अग्नि थी और एकमात्र हंस ही एक वर्ण था।
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( वर्ण से 4 वर्णों में कर्मानुसार विभाजन)
◙ न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदंजगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188.10)
अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।
(श्रीमद भगवद गीता 18.41)
अर्थात -हे परंतप ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।13।।
(श्रीमद भगवद गीता 4:13)
अर्थात -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान ।
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◙ धृष्टाद् धार्ष्टमभूत् क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
नृगस्य वंश: सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो वसु: ॥ १७ ॥
(श्रीमद भागवतम - 9.2.17)
अर्थात – मनु के पुत्र धृष्ट से धार्ष्ट नामक एक क्षत्रिय उत्पन्न हुवे,बाद में उन्होंने ब्राह्मणों का स्थान प्राप्त किया। नृग से सुमति उत्पन्न हुई। सुमति से भूतज्योति और भूतज्योति से वासु उत्पन्न हुवे।
◙नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतां गत: ।
भलन्दन: सुतस्तस्य वत्सप्रीतिर्भलन्दनात् ॥ २३ ॥
(श्रीमद भागवतम - 9.2.23)
अर्थात –दिष्ट का पुत्र नाभाग था वह अपने कर्म से वैश्य हो गया उसका पुत्र भलंदन हुवा और उससे वत्सप्रीति हुवा ।
यवीयांस एकाशीतिर्जायन्तेया: पितुरादेशकरा महाशालीना
महाश्रोत्रिया यज्ञशीला: कर्मविशुद्धा ब्राह्मणा बभूवु: ॥ १३ ॥
(श्रीमद भागवतम - 5.4.13)
अर्थात – राजा ऋषभदेव और जयन्ती के 81 पुत्र अपने पिता के आदेश के अनुसार, वे अपनी गतिविधियों में वैदिक अनुष्ठानों को किया और वेदाध्यन किया। इस प्रकार वे सभी पूर्णतः योग्य ब्राह्मण बन गए ।
पृषध्स्तु मनुपुत्रो गुरुगोवधाच्छूद्रत्वमगमत् ॥ १७॥
(विष्णु पुराण 4.1.17)
अर्थात – मनु का पृषध्र नामक पुत्र गुरु की गौ का वध करने के कारण क्षत्रिय से शूद्र हो गया ।
एते क्षत्रप्रसूता वै पुनश्चाड्रिरसा: स्मृता:।
रथीतराणां प्रवरा: क्षत्रोपेता द्विजातय: ॥ १०॥
(विष्णु पुराण 4.2.10)
अर्थात – रथीतर के वंशज क्षत्रिय की संतान होते हुए भी आंगिरस कहलाये; अत: वे क्षत्रोपेत ब्राह्मण हुए ।
गृत्समदस्य शौनकश्चातुर्वर्ण्यप्रवर्तयिताभूत्॥
(विष्णु पुराण 4.8.6)
अर्थात – क्षत्रिय गृत्समद का पुत्र शौनक चा्तुर्वर्ण्य का प्रवर्तक ब्राह्मण हुआ ।
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पुत्रोगृत्समद्स्यापि शुनको यस्य शौनकाः।
ब्राह्मणः क्षत्रियाश्चैव वैश्याः शूद्रास्तथैवच॥
(हरिवंश पुराण- 1 . 29 . 8 )
अर्थात – गृत्समद के पुत्र शुनक हुए, जिससे शौनक-वंश का विस्तार हुआ । शौनक-वंश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णो के लोग हुए।
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}अत्रि स्मृति के अनुसार{
अस्त्राहताश्च धन्वानः संग्रामे सर्वसंमुखे ॥
आरंभे निर्जिता येन स विप्र: क्षत्र उच्पते॥३७४॥
अर्थ- जिसने रणभूमि में सबके सन्मुख धान्वीयों को युद्धके आरंभ में जीता हो और अस्त्रों से परास्त किया हो उस ब्राह्मण को "क्षत्रिय" कहते हैं ।
कृषिकर्मरतो यश्व गवां च प्रतिपालक: ॥
वाणिज्यव्यवसायश्च स विप्रो वैश्य उच्पते ॥३७५॥
अर्थ- खेती के कार्य में रत और गौ की पालना में लीन, और वाणिज्य के व्यवहार में जो ब्राह्मण तत्पर हो उसको 'वैश्य' कहते हैं ।
लाक्षालवणसंमिश्र कुसुंभ॑ क्षीरसर्पिष: ॥
विक्रेता मधुमां सानां स विप्र: शूद्र उच्पते ॥३७६॥
अर्थ- लाख, लवण, कुसुंभ, घी, मिठाई, दूध, और मांस को जो ब्राह्मण बेचता है उसको 'शूद्र' कहते हैँ ।
चोरश्न तस्करश्चैव सूचको दंशकस्त था ॥
मस्यमांसे सदा-लुब्धो विप्रो निषाद उच्यते ॥३७७॥
अर्थ- चोर, तस्कर, सुचक - निकृष्ट सलाह देनेवाला, दंशक- कडवा बोलने वाला और सर्वदा मल्य मांस के लोभी ब्राह्मण को "निषाद" कहते हैं
ब्रह्मतत्व न जानाति ब्रह्मसूत्रेण गर्वितः ॥
तेनैव स च पापेन विप्र: पशुरुदाह्त:॥३७८॥
अर्थ- जो ब्रह्म वेद और परमात्मा के तत्व को कुछ नहीं जानता और केवल यज्ञोपवीत के बल से ही अत्यन्त गर्व प्रकाश करता है, इस पाप से वह ब्राह्मण 'पशु' समान है ।
वापीकूपतडागानामारामस्य सरःसु च ॥
निश्शंक॑ रोधकश्चैव स विप्रो म्लेच्छ उच्पते ॥३७९॥
अर्थ- जो निःशंक भाव से बावडी, कूप, तालाब, बाग, छोटा तालाव इनको बन्द करता है इस ब्राह्मण को 'म्लेच्छ कहा जाये ।
क्रियाहीनश्च मूर्खश्च सर्वधर्मविवर्जितः ॥
निर्दयः सर्व भूतेषु विप्रचंडाल उच्यते ॥३८०॥
अर्थ- क्रियाहीन, मूर्ख, सभी धर्मों से रहित और सर्व प्राणियों के प्रति जो निर्दयता प्रकाश करता है वह ब्राह्मण 'चांडाल' हैं ।
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जवाब देंहटाएंYou have copied Hari Maurya post but doesn't mention their name...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंLast part of post u have copied
जवाब देंहटाएंहाँ आखिरी का लेख हरी मौर्या जी का है
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