हरिवंशपुराण पर्व (२) (विष्णुपर्व)अध्यायः (८३)
ब्रह्मदत्तस्य यज्ञे वसुदेवदेवकीभ्यामागमनं, दैत्यैः ब्रह्मदत्तस्य कन्यकानां अपहरणं, प्रद्युम्नेन तासां रक्षा, नारदस्य कथनेन दैत्येभिः क्षत्रियनरेशानां स्वपक्षे मेलनम्, श्रीकृष्णस्य षट्पुरे आगमनम् |
त्र्यशीतितमोऽध्यायः
(वैशम्पायन उवाच)
एतस्मिन्नेव काले तु चतुर्वेदषडङ्गवित् ।
ब्राह्मणो याज्ञवल्क्यस्य शिष्यो धर्मगुणान्वितः।१।
ब्रह्मदत्तेति विख्यातो विप्रो वाजसनेयिवान् ।
अश्वमेधः कृतस्तेन वसुदेवस्य धीमतः ।। २ ।।
स संवत्सरदीक्षायां दीक्षितः षट्पुरालयः ।
आवर्तायाः शुभे तीरे सुनद्या मुनिजुष्ट्या ।। ३ ।।
सखा च वसुदेवस्य सहाध्यायी द्विजोत्तमः ।
उपाध्यायश्च कौरव्य क्षीरहोता महात्मनः ।। ४ ।।
वसुदेवस्तत्र यातो देवक्या सहितः प्रभो ।
यजमानं षट्पुरस्थं यथा शक्रो बृहस्पतिम् ।। ५ ।।
तत् सत्रं ब्रह्मदत्तस्य बह्वन्नं बहुदक्षिणम् ।
उपासन्ति मुनिश्रेष्ठा महात्मानो दृढव्रताः ।। ६ ।।
व्यासोऽहं याज्ञवल्क्यश्च सुमन्तुर्जैमिनिस्तथा ।
धृतिमाञ्जाबलिश्चैव देवलाद्याश्च भारत ।। ७ ।।
ऋद्ध्यानुरूपया युक्तं वसुदेवस्य धीमतः ।
यत्रेप्सितान्ददौ कामान्देवकी धर्मचारिणी ।। ८ ।।
वासुदेवप्रभावेण जगत्स्रष्टुर्महीतले ।
तस्मिन् सत्रे वर्तमाने दैत्याः षट्पुरवासिनः ।। ९ ।।
निकुम्भाद्याः समागम्य तमूचुर्वरदर्पिताः ।
कार्यतां यज्ञभागो नः सोमं पास्यामहे वयम् ।
कन्याश्च ब्रह्मदत्तो नो यजमानः प्रयच्छतु ।।2.83.१०।।
बह्व्यः सन्त्यस्य कन्याश्च रूपवत्यो महात्मनः ।
आहूय ताः प्रदातव्याः सर्वथैव हि नः श्रुतम् ।११।
रत्नानि च ब्रह्मदत्तो विशिष्टानि ददातु नः ।
अन्यथा तु न यष्टव्यं वयमाज्ञापयामहे ।। १२ ।।
एतच्छ्रुत्वा ब्रह्मदत्तस्तानुवाच महासुरान् ।
यज्ञभागो न विहितः पुराणेऽसुरसत्तमाः ।। १३ ।।
कथं सत्रे सोमपानं शक्यं दातुं मया हि वः ।
पृच्छतेह मुनिश्रेष्ठान् वेदभाष्यार्थकोविदान् ।।१४।
कन्या हि मम या देयास्ताश्च संकल्पिता मया ।
अन्तर्वेद्यां प्रदातव्याः सदृशानामसंशयम् ।। १५ ।।
रत्नानि तु प्रयच्छामि सान्त्वेनाहं विचिन्त्यताम् ।
बलान्नैव प्रदास्यामि देवकीपुत्रमाश्रितः ।। १६ ।।
निकुम्भाद्यास्तु रुषिताः पापाः षट्पुरवासिनः ।
यज्ञवाटं विलुलुठुर्जह्रुः कन्याश्च तास्तथा । १७ ।।
तद्दृष्ट्वा सम्प्रवृत्तं तु दध्यावानकदुन्दुभिः ।
वासुदेवं महात्मानं बलभद्रं गदं तथा ।।१८।।
विदितार्थस्ततः कृष्णः प्रद्युम्नमिदमब्रवीत् ।
गच्छ कन्यापरित्राणं कुरु पुत्राशु मायया ।।१९।।
यावद् यादवसैन्येन षट्पुरं याम्यहं प्रभो ।
स ययौ षट्पुरं वीरः पितुराशाकरस्तदा ।।2.83.२०।।
निमेषान्तरमात्रेण गत्वा कामो महाबलः ।
कन्यास्ता मायया धीमानपजह्रे महाबलः ।। २१ ।।
मायामयीश्च कृत्वाऽन्या न्यस्तवान्रुक्मिणीसुतः ।
मा भैरिति च धर्मात्मा देवकीमुक्तवांस्तदा ।२२ ।।
मायामयीस्ततो हृत्वा सुता ह्यस्य दुरासदाः ।
षट्पुरं विविशुर्दैत्याः परितुष्टा नराधिप ।। २३ ।।
कर्म चासार्य ते तत्र विधिदृष्टेन कर्मणा ।
यद् विशिष्टं बहुगुणं तदभूच्च नराधिप ।। २४ ।।
एतस्मिन्नन्तरे प्राप्ता राजानस्तत्र भारत ।
सत्रे निमन्त्रिताः पूर्वं ब्रह्मदत्तेन धीमता ।। २५ ।।
जरासंधो दन्तवक्त्रः शिशुपालस्तथैव च ।
पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च मालवाः सगणास्तथा ।२६।
रुक्मी चैवाह्वृतिश्चैव नीलो वा धर्म एव च ।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ शल्यः शकुनिरेव च ।२७ ।।
राजानश्चापरे वीरा महात्मानो दृढायुधाः ।
आवासिता नातिदूरे षट्पुरस्य च भारत ।। २८ ।।
तान् दृष्ट्वा नारदः श्रीमानचिन्तयदनिन्दितः ।
क्षत्त्रस्य यादवानां च भविष्यति समागमः ।२९ ।।
अत्र हेतुरहं युद्धे तस्मात् तत् प्रयताम्यहम् ।
एवं संचिन्तयित्वाथ निकुम्भभवनं गतः ।। 2.83.३० ।।
पूजितः स निकुम्भेन दानवैश्च तथापरैः ।
उपविष्टः स धर्मात्मा निकुम्भमिदमब्रवीत् ।। ३१।
कथं विरोधं यदुभिः कृत्वा स्वस्थैरिहास्यते ।
यो ब्रह्मदत्तः स हरिः स हि तस्य पितुः सखा।३२।
शतानि पञ्च भार्याणां ब्रह्मदत्तस्य धीमतः ।
आनीता वसुदेवस्य सुतस्य प्रियकाम्यया ।। ३३।।
शतद्वयं ब्राह्मणीनां राजन्यानां शतं तथा ।
वैश्यानां शतमेकं च शूद्राणां शतमेव च ।३४।
ताभिः शुश्रूषितो धीमान् दुर्वासा धर्मवित्तमः ।
तेन तासां वरो दत्तो मुनिना पुण्यकर्मणा ।। ३५ ।।
एकैकस्तनयो राजन्नेकैका दुहिता तथा ।
रूपेणानुपमाः सर्वा वरदानेन धीमतः ।। ३६ ।।
कन्या भवन्ति तनयास्तस्यासुर पुनः पुनः ।
सङ्गमे सङ्गमे वीर भर्तृभिः शयने सह ।। ३७ ।।
सर्वपुष्पमयं गन्धं प्रस्रवन्ति वराङ्गनाः ।
सर्वदा यौवने न्यस्ताः सर्वाश्चैव पतिव्रताः ।। ३८ ।।
सर्वा गुणैरप्सरसां गीतनृत्यगुणोदयम् ।
जानन्ति सर्वा दैतेय वरदानेन धीमतः ।। ३९ ।।
पुत्राश्च रूपसम्पन्नाः शास्त्रार्थकुशलास्तथा ।
स्वे स्वे स्थिता वर्णधर्मे यथावदनुपूर्वशः ।। 2.83.४० ।।
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ताः कन्या भैममुख्यानां दत्ताः प्रायेण धीमता ।
अवशेषं शतं त्वेकं यदानीतं किल त्वया ।४१।
तदर्थे यादवान् वीर योधयिष्यसि सर्वथा ।
सहायार्थं तु राजानो ध्रियन्तां हेतुपूर्वकम् ।। ४२ ।।
ब्रह्मदत्तसुतार्थं च रत्नानि विविधानि च ।
दीयन्तां भूमिपालानां सहायार्थे महात्मनाम् ।४३।
आतिथ्यं क्रियतां चैव यै समेष्यन्ति वै नृपाः ।
एवमुक्ते तथा चक्रुरसुरास्तेऽतिहृष्टवत् ।। ४४ ।।
लब्ध्वा पञ्चशतं कन्या रत्नानि विविधानि च ।
यथार्हेण नरेन्द्रैस्ता विभक्ता भक्तवत्सलैः ।। ४५ ।।
ऋते पाण्डुसुतान् वीरान् वारिता नारदेन ते ।
निमेषान्तरमात्रेण तत्र गत्वा महात्मना ।। ४६ ।।
तुष्टैस्तैरसुरा ह्युक्ता राजन् भूमिपसत्तमैः ।
सर्वकामसमृद्धार्थैर्भवद्भिः खगमैः स्वयम् ।। ४७ ।।
अर्चिताः स्म यथान्यायं क्षत्रं किं वः प्रयच्छतु ।
क्षत्रं चार्चितपूर्वं हि दिव्यैर्वीरैर्भवद्विधैः ।। ४८ ।।
निकुम्भोऽथाब्रवीद् धृष्टः क्षत्रं सुररिपुस्तदा ।
अनुवर्णयित्वा क्षत्रस्य माहात्म्यं सत्यमेव च ।४९।
युद्धं नो रिपुभिः सार्द्धं भविष्यति नृपोत्तमाः ।
साहाय्यं दातुमिच्छामो भवद्भिस्तत्र सर्वथा ।2.83.५०।
एवमस्त्विति तानूचुः क्षत्त्रियाः क्षीणकिल्बिषाः ।
पाण्डवेयानृते धीराञ्छ्रुतार्थान्नारदाद् विभो ।। ५१।।
क्षत्रियाः संनिविष्टास्ते युद्धार्थं कुरुनन्दन ।
पत्न्यस्तु ब्रह्मदत्तस्य यज्ञवाटं गता अपि ।। ५२ ।।
कृष्णोऽपि सेनया सार्द्धं प्रययौ षट् पुरं विभुः ।
महादेवस्य वचनमुद्वहन् मनसा नृप ।। ५३ ।।
स्थापयित्वा द्वारवत्यामाहुकं पार्थिवं तदा ।
स तया सेनया सार्द्धं पौराणां हितकाम्यया ।५४।
यज्ञवाटस्याविदूरे देवो निविविशे विभुः ।
देशे प्रवरकल्याणे वसुदेवप्रचोदितः ।। ५५ ।।
दत्तगुल्माप्रतिसरं कृत्वा तं विधिवत्प्रभुः ।
प्रद्युम्नमटने श्रीमान् रक्षार्थं विनियुज्य च ।। ५६ ।।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! इसी समय चारों वेदों और छहों अंगों के ज्ञाता एक ब्राह्मण, जिनका नाम ब्रह्मदत्त था, एक वर्ष तक चालू रहने वाले यज्ञ की दीक्षा में दीक्षित हुए। ब्रह्मदत्त याज्ञवल्क्य के शिष्य, धर्म सम्बन्धी गुणों से सम्पन्न तथा शुक्ल यजुर्वेद-वाजसनेय संहिता के अध्येता थे। उनका घर भी षट्पुर में ही था। उन्होंने कभी बुद्धिमान वसुदेव जी का अश्वमेध यज्ञ कराया था। वे मुनि सेवित श्रेष्ठ नदी आवर्ता के पवित्र तट पर यज्ञ करते थे। करुनन्दन ! द्विजश्रेष्ठ ब्रह्मदत्त महात्मा वसुदेव जी के सहपाठी, सखा, उपाध्याय और अध्वर्यु भी थे। _______________________________ प्रभो ! इसीलिये जैसे इन्द्र बृहस्पति के यहाँ जाते हैं, उसी प्रकार देवकी सहित वसुदेव जी वहाँ षट्पुर में रहकर यज्ञ करने वाले ब्रह्मदत्त के यहाँ निमन्त्रित होकर गये थे। ब्रह्मदत्त व यज्ञ बहुत-से अन्न और प्रचुर दक्षिणा से सम्पन्न था। दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ महात्मा उस यज्ञ का सेवन करते थे। भरतनन्दन! वह यज्ञ बुद्धिमान वसुदेव जी के अनुरूप समृद्धि से युक्त था। उसमें मैं, मेरे गुरु व्यास जी, याज्ञवल्क्य मुनि, सुमन्तु, जैमिनि, धैर्यशील जाबलि (या जाबालि) तथा देवल आदि महर्षि भी उपस्थित थे। उस यज्ञ में धर्मपरायणा देवकी देवी जगत्स्रष्टा भगवान वासुदेव के प्रभाव से इस पृथ्वी पर सबको मनोवांछित पदार्थ दान करती थीं। जब वह यज्ञ चलने लगा, उस समय षट्पुर में रहने वाले निकुम्भ आदि दैत्य, जो वर पाकर घमंड में भरे रहते थे, वहाँ आकर ब्रह्मदत्त से बोले- 'हमारे लिये भी यज्ञ का भाग निकाला जाय, हम लोग इस यज्ञ में सोमरस का पान करेंगे। यजमान ब्रह्मदत्त हमें अपनी कन्याएं दें। हमने सुना है कि इन महात्मा के बहुत-सी रूपवती कन्याएं हैं। उन सबको बुलाकर सब प्रकार से हमारे लिये दान कर देना चाहिये। ब्रह्मदत्त जी हमें उत्तमोत्तम रत्न प्रदान करें। (तभी ये यहाँ यज्ञ कर सकते हैं) अन्यथा इन्हें यज्ञ नहीं करना चाहिये। यह हम आज्ञा देते हैं।' यह सुनकर ब्रह्मदत्त ने उन बड़े-बड़े असुरों से कहा- ‘असुर शिरोमणियों! पुरातन वेद में असुरों के लिये यज्ञ भाग देने का विधान नहीं है; फिर मैं यज्ञ में आप लोगों को सोमरस कैसे दे सकता हूँ? यहाँ वेद के विस्तृत अर्थ को जानने वाले श्रेष्ठ मुनि बैठे हैं, इनसे पूछ लीजिए। मुझे अपनी जिन कन्याओं का दान करना था, उनका मानसिक संकल्प मैंने कर दिया (वे दूसरों को दी जा चुकी हैं), अब उन्हें अन्तर्वेदी में योग्य वरों के हाथ में सौंप देना है। इसमें संशय नहीं है। अब रही रत्नों की बात, उन्हें मैं आप लोगों को तभी दूँगा, जब आप सान्त्वनापूर्वक बात करें, इस बात को आप अच्छी तरह सोच-समझ लें। बलपूर्वक मांगने पर मैं कुछ नहीं दूँगा; क्योंकि भगवान देवकीनन्दन की शरण ले चुका हूँ (वे ही मेरी रक्षा करेंगे)। यह उत्तर सुनकर षट्पुर में निवास करने वाले निकुम्भ आदि पापी असुर रोष में भर गये। उन्होंने यज्ञमण्डप को तहस-नहस कर दिया और ब्रह्मदत्त की कन्याओं को हर लिया। यज्ञमण्डप में वह लूट मची हुई देख वसुदेव ने महात्मा श्रीकृष्ण, बलदेव और गद का चिन्तन किया। श्रीकृष्ण को तो सब बात ज्ञात ही थी। उन्होंने प्रद्युम्न से कहा- ‘बेटा! जाओ और माया द्वारा ब्रह्मदत्त की कन्याओं की शीघ्र रक्षा करो। प्रभो! तब तक मैं यादव वीरों की सेना के साथ षट्पुर को चल रहा हूँ। महाबली कामस्वरूप वरी प्रद्युम्न पिता की आज्ञा का पालन करने वाले थे। वे तत्काल षट्पुर की ओर चल दिये और पलक मारते-मारते वहाँ पहुँचकर उन महाबली बुद्धिमान वीर ने उन कन्याओं का माया द्वारा अपहरण कर लिया। |
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 22-46 का हिन्दी अनुवाद
अरे भाई! जो ब्रह्मदत्त हैं, वे ही श्रीकृष्ण हैं; क्योंकि वे ब्रह्मदत्त उन श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के मित्र हैं। बुद्धिमान ब्रह्मदत्त के पांच सौ भार्याएं हैं, जिन्हें वे वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये उनकी आराधना करके प्राप्त कर सके थे। उनकी स्त्रियों में दो सौ वैश्य-कन्याएं और एक सौ शूद्रों की कन्याएं थीं। उन सब ने धर्मज्ञों में श्रेष्ठ बुद्धिमान दुर्वासा की सेवा की थी। उससे प्रसन्न होकर उन पुण्यकर्मा मुनि ने उन्हें वर दिया। राजन! उन बुद्धिमान मुनि के वरदान से ब्रह्मदत्त की प्रत्येक स्त्री के एक-एक पुत्र और एक-एक कन्या हुई। उनकी वे सारी कन्याएं अनुपम रूपवती हैं। वीर असुर! उनकी वे कन्याएं पतियों के साथ शयन करते समय प्रत्येक संगम के अवसर पर कुमारी कन्याओं के समान कमनीय हो जाती हैं। वे परम सुन्दरी कन्याएं अपने शरीर से सब प्रकार के फूलों की सुगन्ध प्रकट करती हैं, सदा युवावस्था में ही स्थित रहती हैं और सब-की-सब पतिव्रताएं हैं। दैत्यकुमार! वे सब अप्सराओं के समान गुणवती हैं और बुद्धिमान दुर्वासा के वरदान से संगीत और नृत्य के गुणों को प्रकट करना जानती हैं। उनके सभी पुत्र रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न तथा शास्त्रार्थ में कुशल हैं और क्रमश: सभी यथावत रूप से अपने-अपने वर्ण धर्म में स्थित रहते हैं। ______________________ बुद्धिमान ब्रह्मदत्त ने प्राय: उन सब कन्याओं का विवाह मुख्य-मुख्य यदुवंशियों के साथ कर दिया है। केवल एक सौ शेष रह गयी थीं, जिन्हें तुम हर लाये हो। वीर! उनके लिये भी तुम्हें सर्वथा यादवों के साथ युद्ध करना होगा। अत: तुम अपनी सहायता के लिये युक्तिपूर्वक यहाँ आये हुए राजाओं को अपने पक्ष में कर लो। ब्रह्मदत्त की पुत्रियों के लिये उन महामनस्वी नरेशों की सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से तुम उन्हें नाना प्रकार के रत्न भेंट करो। जो राजा यहाँ आयें, उन सबका आतिथ्य-सत्कार करो। नारद जी के ऐसा कहने पर असुरों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर वैसा ही किया। उन भक्त वत्सल नरेशों ने पांच सौ कन्याएं और नाना प्रकार के रत्न पाकर उन्हें यथोचित रीति से आप में बांट लिया। केवल पांचों पाण्डवों को छोड़कर और सबने कन्याओं और रत्नों का भाग ग्रहण किया था। महात्मा नारद जी ने पलक मारते-मारते वहाँ पहुँचकर वीर पाण्डवों को उनका भाग लेने से रोक लिया था।
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इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि षट्पुरवधे कृष्णस्य षट्पुरगमने त्र्यशीतितमोऽध्यायः। ८३।
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