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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 22-46 का हिन्दी अनुवाद


रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्न ने मायामयी दूसरी कन्‍याओं का निर्माण करके उन्‍हें असुरों के पास छोड़ दिया था। फिर उन धर्मात्‍मा ने अपनी पितामही देवकी से कहा- 'दादी जी! आप भय न करें। नरेश्‍वर! ब्रह्मदत्‍त की पुत्रियां दैत्‍यों के लिये दुष्‍प्राप्‍य थीं। वे मायामयी कन्‍याओं का ही अपहरण करके षट्पुर में जा घुसे और अपनी सफलता पर संतुष्‍ट हुए। राजन! इधर शास्‍त्रीय विधि के अनुसार वहाँ यज्ञकर्म का सम्‍पादन होने लगा। जो विशिष्‍ट एवं बहुगुण सम्‍पन्‍न कार्य था, वह सब सम्‍पन्‍न हुआ। भारत! इसी बीच में वहाँ बहुत से राजा आये, जिन्‍हें बुद्धिमान ब्रह्मदत्‍त पहले से ही यज्ञ में पधारने के लिये निमन्‍त्रण दे रखा था। जरासंधदन्‍तवक्‍त्रशिशुपाल, पाण्‍डव, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र अपने गणों सहित मालवनरेश, रुक्मी, आह्वृती, नी, धर्म, अवन्‍ती के विन्‍द और अनुविन्‍द, शल्यशकुनि, दूसरे वीर नरेश, सुदृढ़ आयुध धारण करने वाले दूसरे महामनस्‍वी वीर नरेश वहाँ पधारे थे। भरतनन्‍दन! उन्‍हें षट्पुर से थोड़ी ही दूर पर ठहराया गया। उन सबको वहाँ उपस्थित देख साधु-महात्‍मा श्रीमान नारदजी ने सोचा, यहाँ यादवों तथा दूसरे क्षत्रियों में संघर्ष होगा। इस युद्ध में मैं ही कारण बनूँगा; अत: उसके लिये अभी से प्रयत्‍न आरम्‍भ करता हूँ। ऐसा सोचकर वे निकुम्‍भ के घर में गये। निकुम्‍भ तथा दूसरे-दूसरे दानवों ने वहाँ इनकी बड़ी आवभगत की। धर्मात्‍मा नारद जी वहाँ एक आसन पर बैठकर निकुम्‍भ से इस प्रकार बोले- 'तुम लोग यादवों के साथ विरोध करके यहाँ कैसे निश्चिन्‍त बैठे हुए हो।

अरे भाई! जो ब्रह्मदत्‍त हैं, वे ही श्रीकृष्‍ण हैं; क्‍योंकि वे ब्रह्मदत्‍त उन श्रीकृष्‍ण के पिता वसुदेव के मित्र हैं। बुद्धिमान ब्रह्मदत्‍त के पांच सौ भार्याएं हैं, जिन्‍हें वे वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण की प्रसन्‍नता के लिये उनकी आराधना करके प्राप्‍त कर सके थे। उनकी स्त्रियों में दो सौ वैश्‍य-कन्‍याएं और एक सौ शूद्रों की कन्‍याएं थीं। उन सब ने धर्मज्ञों में श्रेष्‍ठ बुद्धिमान दुर्वासा की सेवा की थी। उससे प्रसन्‍न होकर उन पुण्‍यकर्मा मुनि ने उन्‍हें वर दिया। राजन! उन बुद्धिमान मुनि के वरदान से ब्रह्मदत्‍त की प्रत्‍येक स्‍त्री के एक-एक पुत्र और एक-एक कन्‍या हुई। उनकी वे सारी कन्‍याएं अनुपम रूपवती हैं। वीर असुर! उनकी वे कन्‍याएं पतियों के साथ शयन करते समय प्रत्‍येक संगम के अवसर पर कुमारी कन्‍याओं के समान कमनीय हो जाती हैं। वे परम सुन्‍दरी कन्‍याएं अपने शरीर से सब प्रकार के फूलों की सुगन्ध प्रकट करती हैं, सदा युवावस्‍था में ही स्थित रहती हैं और सब-की-सब पतिव्रताएं हैं। दैत्‍यकुमार! वे सब अप्‍सराओं के समान गुणवती हैं और बुद्धिमान दुर्वासा के वरदान से संगीत और नृत्‍य के गुणों को प्रकट करना जानती हैं। उनके सभी पुत्र रूप-सौन्‍दर्य से सम्‍पन्‍न तथा शास्‍त्रार्थ में कुशल हैं और क्रमश: सभी यथावत रूप से अपने-अपने वर्ण धर्म में स्थित रहते हैं।

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 बुद्धिमान ब्रह्मदत्त ने प्राय: उन सब कन्‍याओं का विवाह मुख्‍य-मुख्‍य यदुवंशियों के साथ कर दिया है। केवल एक सौ शेष रह गयी थीं, जिन्‍हें तुम हर लाये हो।

वीर! उनके लिये भी तुम्‍हें सर्वथा यादवों के साथ युद्ध करना होगा। अत: तुम अपनी सहायता के लिये युक्तिपूर्वक यहाँ आये हुए राजाओं को अपने पक्ष में कर लो। ब्रह्मदत्‍त की पुत्रियों के लिये उन महामनस्‍वी नरेशों की सहायता प्राप्‍त करने के उद्देश्‍य से तुम उन्‍हें नाना प्रकार के रत्‍न भेंट करो। जो राजा यहाँ आयें, उन सबका आतिथ्‍य-सत्‍कार करो। नारद जी के ऐसा कहने पर असुरों ने अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर वैसा ही किया। उन भक्‍त वत्‍सल नरेशों ने पांच सौ कन्‍याएं और नाना प्रकार के रत्‍न पाकर उन्‍हें यथोचित रीति से आप में बांट लिया। केवल पांचों पाण्‍डवों को छोड़कर और सबने कन्‍याओं और रत्‍नों का भाग ग्रहण किया था। महात्‍मा नारद जी ने पलक मारते-मारते वहाँ पहुँचकर वीर पाण्‍डवों को उनका भाग लेने से रोक लिया था।

राजन ! रत्‍न और कन्‍या पाकर वे भूपाल शिरोमणि बहुत संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने असुरों से कहा- 'आप लोग समस्‍त मनोवांछित भोगों से सम्‍पन्‍न तथा स्‍वयं आकाश में विचरने वाले हैं तो भी आपने न्‍यायोचित रीति से हमारा सत्‍कार किया है; अत: बताइये, यह क्षत्रिय समूह आप लोगों को क्‍या दे ? आप जैसे दिव्‍य वीरों ने पहले-पहल क्षत्रिय-समाज का पूजन किया है।' यह सुनकर हर्ष में भरे हुए देववैरी निकुम्‍भ ने क्षत्रियों के यथार्थ माहात्‍म्‍य का बारम्‍बार वर्णन करके उस समय उनसे इस प्रकार कहा- श्रेष्‍ठ नरेशों! हमारा अपने शत्रुओं के साथ युद्ध होने वाला है। उसमें आप लोग सब प्रकार से हमें सहायता प्रदान करें, यह हमारी इच्‍छा है। प्रभो! जिनके पास क्षीण हो गये थे, उन क्षत्रियों में से वीर पाण्‍डवों को छोड़कर अन्‍य सबने ‘एवमस्‍तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्‍वीकार कर ली। पाण्‍डव नारद जी से सारी बात सुन चुके थे, इसलिये वे उनसे अलग रहे। करूनन्‍दन! वे सब क्षत्रिय युद्ध के लिये उद्यत हो वहीं डेरा डालकर डटे रहे। इधर ब्रह्दत्त की पत्नियां यज्ञशाला में प्रविष्‍ट हुईं और उधर से सेना सहित भगवान श्रीकृष्‍ण भी षट्पुर में आ पहुँचे।

नरेश्‍वर! महादेव जी के वचन को मन-ही-मन स्‍मरण करके द्वारका में राजा उग्रसेन को बिठाकर भगवान् श्रीकृष्‍ण वहाँ आये थे। भगवान जनार्दन देव उस सेना के साथ आकर षट्पुर वासियों के हित की कामना से यज्ञमण्‍डप से थोड़ी ही दूर पर उत्‍तम कल्‍याणमय प्रदेश में वसुदेव की आज्ञा से छावनी डालकर ठहर गये। श्रीमान भगवान श्रीकृष्‍ण ने वहाँ विधिपूर्वक रक्षक सैनिकों के दल तैनात कर दिये, जिसके कारण किसी अवांछनीय व्‍यक्ति को उधर से आने के लिये मार्ग नहीं मिल पाता था। साथ ही उन्‍होंने अपने पुत्र प्रद्युम्न को सब ओर से घूम-फिरकर सेना की देखभाल करने के लिये नियुक्‍त कर दिया था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में षट्पुरवध के प्रसंग में श्रीकृष्‍ण का षट्पुरगमनविषयक तिरासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



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