रविवार, 7 फ़रवरी 2021

महाभारत मूसलपर्व (सम्पूर्ण संस्कृत का हिन्दी अनुवाद सहित) संस्करण -- एक समीक्षात्मक विश्लेषण-


मौसलपर्व में कोई उपपर्व नहीं है, और अध्यायों की संख्या भी केवल (8) तक है। यद्यपि मुम्बई की "निर्णयसागर प्रेस" ने इतने ही श्लोकों में नौ अध्यायों में मूसल पर्व प्रकाशित किया है।  
मौसल पर्व में विश्वामित्र , कण्व और नारद आदि ॠषियों के शापवश कृष्ण के पुत्र साम्ब के उदर से मुसल की उत्पत्ति तथा समुद्र-तट पर  उस मुसल के चूर्ण करके फेंके गये मुसलकणों से उगे हुए सरकण्डों (एरका) से यादवों का आपस में लड़कर विनष्ट हो जाना और, बलराम - श्रीकृष्ण का परमधाम-गमन और समुद्र द्वारा द्वारकापुरी को डुबो देने का अस्वाभाविक वर्णन प्राप्त होता है।  विदित हो कि संसार की प्रत्येक क्रिया प्राकृतिक नियमों के अन्तर्गत ही होती है ।
परन्तु मूसल पर्व मे सबकुछ आकस्मिक ही घटित होता है ।
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"महाभारत युद्ध के छत्तीस वें वर्ष में वृष्णि, अन्धक और भोज कुलों के यादवों में भी केवल पाँच हजार योद्धा ही प्रभास- क्षेत्र में परस्पर लड़कर मारे गये थे "

 श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद द्वारिका चले आए थे। यादव-राजकुमारों ने अधर्म का आचरण शुरू कर दिया तथा मद्य-मांस का सेवन भी करने लगे थे। 
परिणाम यह हुआ कि कृष्ण के सामने ही यादव वंशी राजकुमार आपस लड़ मरे। कृष्ण का पुत्र साम्ब भी  इस विनाश लीला में से एक पात्र था ।

 बलराम ने प्रभासतीर्थ में जाकर समाधि ली तो  कृष्ण भी दुखी होकर प्रभासतीर्थ चले गए, जहाँ उन्होंने मृत बलराम को देखा; वे  कृष्ण भी एक पेड़ के सहारे योगनिद्रा में पड़े रहे।
 उसी समय (जरा) नाम के एक शिकारी ने हिरण के भ्रम में  कृष्ण के ऊपर एक तीर चला दिया जो कृष्ण के तलवे में लगा और कुछ ही क्षणों में वे भी परलोक सिधार गए।

 उनके पिता वसुदेव ने भी दूसरे ही दिन अपने प्राण त्याग दिए। हस्तिनापुर से अर्जुन ने आकर श्रीकृष्ण का श्राद्ध किया। रुक्मणी, हेमवती आदि कृष्ण की पत्नियाँ  उनके मृत शरीर के साथ जल कर सती हो गईं। परन्तु 
सत्यभामा और दूसरी दूसरी पत्नियाँ  कृष्ण के मृत शरीर (शव) के साथ न जलकर वन में तपस्या करने चली गईं।
नारायणी सेना के अवशिष्ट गोप अथवा आभीर योद्धाओं द्वारा पंजाब में द्वारिका से अपने साथ इन्द्र प्रस्थ ले जाती हुए  यदुवंश की स्त्रियों तथा बाल वृद्धों को अपने साथ ले जाने को लेकर युद्ध तथा अर्जुन का परास्त होना ।
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महाभारत के मुसल पर्व का एक समग्र समीक्षात्मक विश्लेषण-

"एक कथन तो शाश्वत सत्य है ; कि जो  तथ्य या कथ्य अपने आप में पूर्ण होते हैं ; उन्हें क्रम-बद्ध करने की भी कभी आवश्यकता भी नहीं होती है।उनका एक एक शब्द सम्पूर्ण भाव को अभिव्यक्त करता है ।

जैसे संस्कृत भाषा के पद-वाक्य अपने में एकल प्रयुक्त होकर भी पूर्ण वाक्य का अर्थ प्रकाशित करते हैं ।

परन्तु भारतीय संस्कृति के अभिभावक और आधार भूत वेदों और  उनके व्याख्या कर्ता या विवेचक ग्रन्थों  पुराणों, रामायण तथा महाभारत आदि में परस्पर विरोधी व भिन्न-भिन्न कथाओं का वर्णन  तथा ईरानीयों, यूनानीयों हूणों तथा कुषाण( तुषारों ) के वर्णन के अतिरिक्त ई०पू० 563 में जन्म लेने वाले प्रथम बुद्ध तथागत का वर्णन विष्णु के अवतार के रूप में घोषित करने आदि का विवरण इनके प्राचीनता और प्रमाणिकता को सन्दिग्ध बना देता है ।

निश्चित सभी पुराणों और महाभारत आदि महाकाव्य ग्रन्थ को एक व्यक्ति कृष्ण द्वैपायन की रचना
और गणेश को इसका लेखक बनाना।
आदि भाव का का मूल इन्हें दैवीय आधार देना और प्राचीनत्तम सिद्ध करना ही है ।

महाभारत के आदिपर्व के अंशावतरण नामक उप पर्व में वर्णन है कि।

त्रिभिर्वर्षैः सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनो मुनिः।
महाभारतमाख्यानं कृतवानिदमद्भुतम्।।५२।

प्रतिदिन प्रात:काल 
उठकर इस ग्रन्थ का निर्माण करने वाले मुनि कृष्ण द्वैपायन ने महाभारत नामक अद्भुत आख्यान को तीन वर्षों में पूर्ण किया था ।५२।

।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि।।
अंशावतरणपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः।। 

महाभारत के आदिपर्व के अंशावतरण नामक उप पर्व मे के तिरेसठवेें अध्याय में वर्णन है कि।

वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान्।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम्।।८९।


प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशित:।९१।

(महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उप पर्व का ६३वाँ अध्याय)

वरिष्ठ वरदायक व्यास ने चारों वेदों और पाँचवे वेद महाभारत का अध्ययन अपने शिष्य सुमन्तु ,जैमिन,पैल और अपने पुत्र शुकदेव तथा मुझ वैशम्पायन को कराया था  ।।८९।।
फिर उन सबने पृथक् पृथक् महाभारत की संहिताऐं प्रकाशित की ।।-९९।।

महाभारत में दो परस्पर विरोधी सांस्कृतिक पृथाऐं


एक साथ घटित कर दी गयी हैं ।
-जैसे



वसुदेव के साथ उनकी पत्नियां भी पतिलोक में जाने के लिए पति की चिता पर जीवित जल जातीहैं तो कुछ वन मेें तपस्या करने चली जाती हैैं । 👇
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तं देवकी च भद्रा च रोहिणी मदिरा तथा ।
अन्वारोहन्त च भरितारं योषितां वरा:।18

युवतियों में श्रेष्ठ देवकी भद्रा रोहिणी तथा मदिरा यह सब की सब अपने पति के साथ चिता पर अरुण होने को तैयार हो गई।18।

अनुजगमुश्च तं वीरं देव्यस्ता वै स्वलंकृता: ।
स्त्री सहस्रै: परिवृता वधूभिश्च सहस्रश:।22।

वीर वासुदेव जी की पत्नियाँ वस्त्र और आभूषण से सज धज कर हजारों पुत्रवधू तथा अन्य स्त्रियों के साथ अपने पति की अर्थी के पीछे पीछे जा रही थी।22।

यस्तु देश:प्रियस्तस्य जीवतो८भून्महात्मन:।
तत्रैनमुपसंल्प्य पितृमेधं प्रचक्रिरे ।23।

महात्मा वसुदेव जी को अपने जीवन काल में जो स्थान विशेष प्रिय था वही ले जाकर अर्जुन आदि ने उनका पितृ-मेध कर्म अर्थात दाह संस्कार किया।23।

अब वसुदेव का जीवन बहुतायत रूप से मधुरा या वटेश्वर में व्यतीत होने से अर्जुुन ने गुजरात से मधुरा या वटेश्वर में तो दाह-संस्कार किया नहीं ।

अत: यह स्वयं में श्लोक प्रक्षिप्त है।👇
दशरथ के साथ उनकी रानीयाँ क्यों सती नहीं हुईं ।
महाभारत में ही पाण्डव की दोनों पत्नियां क्यों सती नहीं हुईं ।
वसुदेव की पत्नियां वसुदेव सती हो गयीं ।
तो कृष्ण की कुछ पत्नियां और कुछ जंगल में तपस्या करने चली गयीं।
दौनों बातें भिन्न-हैं 👇
सत्य पूछा जाय तो

मान्यताओं के अनुसार सती प्रथा की प्रारम्भ पार्वती के  सती रूप के साथ हुआ।
जब उन्होंने अपने पति भगवान शिव की पिता दक्ष के द्वारा किये गये अपमान से क्षुब्ध होकर अग्नि में आत्मदाह कर लिया था।
अब इसे सती प्रथा नहीं कह सकते क्यों पति की चिता के साथ चलना ही सती प्रथा के नाम से मान्य अर्थ है।
शिव की चिता पर तो पार्वती जली नहीं!

भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ चारों वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद,  सामवेद और अथर्ववेद में से किसी में से भी सती प्रथा से जुड़ी कोई भी ऋचा नहीं है।


तो इसे प्राचीनत्तम क्यों माना जाय -भारतीय इतिहास में सती प्रथा होने के पहले प्रमाण गुप्तकाल में 510 ईस्वी के आसपास मिलते हैं ।
जब महाराजा भानुप्रताप के साथ युद्ध गोपराज की मृत्यु हो जाने के बाद राजा की चिता पर उनकी पत्नी ने अपने प्राण त्याग दिये।

भारत में जब इस्लामिक राजाओं या मुगलों के द्वारा सिंध, पंजाब और राजपूत क्षेत्रों पर आक्रमण किया गया था तब सती प्रथा के अनुसार सबसे ज्यादा महिलाओं के अपने पति के वीरगति को प्राप्त करने के बाद आत्मदाह कर लिया था।
यह घटनाऐं बारहवीं सदी के समकालीन हैं।

सती प्रथा की तरह ही भारत में जौहर प्रथा भी बहुत ही अधिक प्रचलित थी ; जब तुर्कों या मुगलों के हमलों के समय राजपूतों की पत्नियां एक साथ जौहर करती थीं जिसका मतलब होता था आग में कूदकर अपनी जान दे देना।

इतिहास के पन्नों में इस तरह के उल्लेख मिलते हैं कि एक समय पतियों की मृत्यु के बाद उनकी चिताओं पर उनकी पत्नियों को जबर्दस्ती बैठाल दिया जाता था ।जिसमें महिलाओं की चीखों और उनके दर्द की पीड़ा को कोई भी ध्यान नहीं देता था।
भारतीय संस्कृति का एक यह भी काला अध्याय रहा है।

भारत में ब्रिटिश राज के समय में अंग्रेजों ने सती प्रथा को भारत में एक ठीक प्रथा नहीं माना था लेकिन धार्मिक दृष्टि से मजबूत होने का कराण उन्होंने इसे सीधा समाप्त करने के बजाय इसका प्रभाव धीरे-धीरे कम करने का विचार किया।

सती प्रथा को भारतीय समाज के ऊपर एक कलंक के तौर पर आरूढ़ थी।

भारतीय समाज के अनेकों समाज सुधारकों जैसे राजा राम मोहन राय आदि के अथक प्रयासों के द्वारा 4 दिसम्बर साल 1829 को समाज को सती प्रथा के कलंक से मुक्ति मिल गई थी

अंग्रेज विद्वानों का संयोग इस अन्ध-रूढ़िवादिता से पूर्ण पृथा का अन्त करने में सहायक हुआ।

महाभारत में सती प्रथा राजपूत काल की प्रतिध्वनि है ।
आपने कभी शास्त्रों या किंवदन्तियों के आधार पर सुना कि कोई राजा अपनी पत्नी के मरने पर उसकी चिता के साथ जलकर भस्म हुआ हो।

फिर विचार करने लगते हो कि अपनी अनेक रानियों की भिन्न-भिन्न कालों में मरने पर एक राजा के लिए सत होना असम्भव है ।
परन्तु ये कोई सन्तोष प्रद तर्क नहीं।
क्यों कि यहाँं सदीयों से स्त्रीयों की प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं  रहा है।

स्मृतियों के विधान इसके गवाह हैं,मुसल पर्व में वर्णन है।
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तं चिताग्निगतं वीरं शूरपुत्रं  वीरांगना :।
ततो८न्वारुरुहु: पत्न्यस्र: पतिलोकगा: ।24।

चिता की प्रज्वलित अग्नि में सोए हुए वीर शूरसेन-पुत्र वासुदेव जी के साथ उनकी पूर्वोक्त चारों पत्नियां देवकी भद्रा, रोहिणी तथा मदिरा चिता पर जा बैठी और उन्हीं के साथ भस्म हो पतिलोक को प्राप्त हुई।24।

ततो वज्रधानास्ते वृष्ण्यन्धक कुमारका: ।
सर्वे चैवोदकं चक्रु: स्त्रियश्चैव महात्मन: 27।

इसके बाद वज्र आदि वृष्णि और अंधक वंश की कुमारी तथा स्त्रियों ने महात्मा वसुदेव को जल-अञ्जली दी।27।

अश्वयुक्तै रथैश्चापि गोखरोष्ट्रयुतैरपि ।
स्त्रियस्ता वृष्णवीराणां रुदत्य शोककर्शिता:।33।

उनके साथ घोड़े ,बैल ,गधे और ऊंटों से जु़ते हुए रथों पर बैठकर शौक से दुर्बल हुई वृष्णिवंशी वीरों की पत्नियां रोती हुई चली उन सबने पाण्डु-पुत्र अर्जुन का अनुगमन किया।33।

अब वर्णन देखें--- कि कृष्ण के साथ उनकी कुछ ही पत्नियां सती क्यों होती हैं ? सभी पत्नियां क्यों नहीं होती हैं !👇___________________________________________

पुत्राश्चान्धकवृष्णीनां सर्वे पार्थमनुव्रता: ।
ब्राह्मणा:क्षत्रियावैश्या:शूद्राश्चैवमहाधना:।37

अन्धक और वृष्णि वंश के समस्त बालक अर्जुन के प्रति श्रद्धा रखने वाले थे ; वे तथा ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य, और महा धनी शूद्र।37।

दश षट च सहस्राणि वासुद्वावरोधनम्।
पुरस्कृत्य ययुर्वज्रं पौत्र कृष्णस्य धीमत:।38।

और भगवान श्रीकृष्ण की सौलह हजार (16000 ) पत्नियां सबके सब बुद्धिमान श्री कृष्ण के पौत्र वज्र को आगे करके चल रहे थे।33।

बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
भोज वृष्णन्धकस्त्रीणां हतनाथानि निर्ययु: ।39।

भोज ,वृष्णि,और अन्धक कुल की अनाथ स्त्रियों की संख्या कई हजारों लाखों और अरबों तक पहुंच गई थी वह सब द्वारकापुरी से बाहर निकली।39।

तत्सागरसमप्रख्यं  वृष्णि़चक्रं महर्धिमत् ।
उवाह रथिनां श्रेष्ठ: पार्थ: परपुरञ्जय:।40।

वृष्णि वंशजों का वह महान समृद्ध शाली मण्डल महासागर के समान जान पड़ता था ।
शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले रथियों  में श्रेष्ठ अर्जुन उसे अपने साथ लेकर चले।40।

निर्याते  तु जने तस्मिन् सागरो मकरालय:।
द्वारकां रत्न सम्पूर्णो जलेन आप्लावयत् तदा।41।

उस जन ( स्त्री) समुदाय के निकलते ही मगरों और घड़ियालों के निवास स्थान समुंद्र ने रत्नों से भरी पूरी द्वारका नगरी को जल में डूबो दिया।40।
( स्वयं  इस घटना में प्राकृत भाव न होकर एक अस्वाभाविकता है।
जैसे-👇

यद् यद्धि पुरुषव्याघ्रो भूमेस्तस्या व्यमुञ्चत।
तत् तत् सम्प्लावयामास सलिलेन स सागर:।42।

पुरुषसिंह  अर्जुन ने उस नगर का जो जो भाग छोड़ा उसे समुंद्र ने अपने जल से आप्लावित कर दिया।42।

तदद्भुतमभिप्पेक्ष्य द्वारिकावासिनो जना:।
तूर्णात् तूर्णतरं जग्मुरहो दैवमिति ब्रुवन्।43।

यह अद्भुत दृश्य देखकर द्वारिका वासी मनुष्य बड़ी तेजी से चलने लगे उस समय उनके मुख से बारम्बार यही निकलता था कि (दैव की लीला विचित्र है ! दैव की लीला विचित्र है ।43।

काननेषु च रम्येषु पर्वतेषु नदीषु च।
निवसन्नानयामास वृष्णि दारान् धनञ्जय:।44।

अर्जुन सुन्दर वनों, पर्वतों और नदियों के तट पर निवास करते हुए वृष्णि वंश की स्त्रियों को ले जा रहे थे।44।

स पञ्चनदमासाद्य धीमानतिसमृद्धिमत्।
देशे गोप शुधान्याढ्ये निवासमकरोत् प्रभु:।45।

चलते चलते बुद्धिमान एवं सामर्थ शाली अर्जुन ने अत्यन्त समृद्ध शाली पंचनद (पंजाब)देश में पहुंचकर जो गो पशु ,तथा  अन्न  से संपन्न था; ऐसे प्रदेश में पढ़ाब डाला ।45।
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ततो लोभ: समभवद् दस्यूनां गोपानां निहतेश्वरा:।
दृष्टवा स्त्रियो नीयमाना: पार्थेनैकेन भारत।46।

भारत नन्दन एकमात्र अर्जुन के संरक्षण में ले जाई जाती हुई इतनी अनाथ स्त्रियों को देखकर वहां रहने वाले दस्युओं के मन में लोभ पैदा हुआ।46।

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस:।
आभीरा मन्त्रयामासु: समेत्याशुभदर्शना:।।47।

लोभ से उनके चित्त की विवेक शक्ति नष्ट हो गई ;और अशुभ दर्शी पापा चारी अहीरों ने परस्पर मिलकर सलाह की।47।

ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्रश: ।
अभ्यधावन्त वृष्णीनां तं जनं लोप्त्रहारिण:।49।

ऐसा निश्चय करके लूट का माल उड़ाने वाले लट्ठधारी लुटेरे वृष्णि वंशीयों के उस समुदाय पर हजारों की संख्या में टूट पड़े।49।

महता सिंहनादेन त्रासयन्त: पृथग्जनम्।
अभिपेतुर्वधार्थं ते कालपर्याय चोदिता:।50।

समय की उलटफेर से प्रेरणा पाकर वे लुटेरे और उन सबका के बध लिए उतारू हो अपने महान सिंहनाद से साधारण लोगों को डराते हुए उनकी ओर दोड़े।50।

ततो निवृत्त: कौन्तेय: सहसा सपदानुग:।
उवाच तान् महाबाहुरर्जुन: प्रहसन्निव।।51।

आक्रमणकारियों को पीछे की ओर से धावा करते देख कुंती कुमार महाबाहु अर्जुन सेवकों सहित अचानक लौट पड़े और उनसे हंसते हुए बोले।51।

तथोक्तस्तेन वीरेण कदर्थीकृत्य तद्वच:।
अभिपेतुर्जनं  मूढा: गोपा: वार्यमाणा: पुन:पुन:।53।

वीरवर अर्जुन के ऐसा कहने पर उनकी बातों की अवहेलना करके वे मूर्ख  उनके बार-बार मना करने पर भी जन (स्त्री)समुदाय पर टूट पड़े।53।

चकार सज्जं कृच्छ्रेण सम्भ्रमे तुमुले सति।
चिन्तयामास  शस्त्राणि न च सस्मार तान्यापि।55।

भयंकर मारकाट करने पर बड़ी कठिनाई से उन्होंने धनुष पर प्रत्यञ्चा तो चढ़ा दी परन्तु जब वे अपने अस्त्र-शस्त्र ओं का चिन्तन करने लगे तब उन्हें उनकी याद बिल्कुल  याद नहीं आई ।55।

वैकृतं  तन्महद् दृष्ट्वा भुजवीर्ये तथा युधि।
दिव्यानां च महास्त्रां विनाशाद् व्रीडितो८भवत् ।56।

युद्ध के अवसर पर अपने बाहुबल में यह महान विकार आया देख और महान दिव्यास्त्रों का विस्मरण हुआ जान अर्जुुन लज्जित हुए।56।

यह बात अस्वाभाविक व कल्पना प्रसूत है ।

मिषतां सर्वयोधनां ततस्ता: प्रमदोत्तमा:।
समन्ततो८वकृष्यन्त कामाच्चान्या: प्रवव्रजु:।59।

सब योद्धा के देखते देखते हुए डाकू उन सुन्दर स्त्रियों को चारों ओर से खींच खींच कर ले जाने लगे और दूसरी स्त्रियां  इच्छा के अनुसार चुपचाप उनके साथ चली गई।59।

हार्दिक्यतनयं पार्थो नगरे मार्तिकावते ।
भोजराजकलत्रं च हृतशेषं  नरोत्तम: ।। 69।

कृतवर्मा के पुत्र को और भोजराज के परिवार की अपहरण सी बची हुई स्त्रियों को नर-श्रेष्ठ अर्जुन ने मार्तिकावत  नगर में बसा दिया ।69।

ततो वृद्धांश्च बालांश्च स्त्रियश्चादाय पाण्डव:।
वीरैर्विहीनान् सर्वांस्ताञ्शक्रप्रस्थे न्यवेशयत् ।70।

तत्पश्चात वीर !पति) विहीन समस्त वृद्धौं, बालकों तथा अन्य स्त्रियों को साथ लेकर वे इन्द्रप्रस्थ आए और उन सब को वहां का निवासी बना दिया।70।

यौयुधानिं सरस्वत्यां पुत्रं सात्यकिन: प्रियम्।
न्यवेशयत् धर्मात्मा वृद्धबालपुरस्कृतम् ।71।

धर्मात्मा अर्जुन ने सात्यकि के प्रिय पुत्र "यौयुधानि" को सरस्वती के तटवर्ती देश का अधिकारी एवं निवासी बना दिया ।71।

इन्द्रप्रस्थे ददौ राज्यं वज्रायन परवीरहा ।
वज्रेणाक्रूरदारस्तु वार्यमाणा: प्रवव्रजु:।72।

इसके बाद शत्रु वीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने वज्र को इन्द्रप्रस्थ का राज्य दे दिया ।
अक्रूर जी की स्त्रियां वज्र के बहुत रोकने पर भी वन में तपस्या करने के लिए चली गई।72।
श्रीकृष्ण के साथ उनकी कुछ ही पत्नीयाें का आत्दाह करने का वर्णन काल्पनिकताओं से पूर्ण है । 👇

रुक्मणी गान्धारी शैव्या हैमवतीत्यपि।
देवी जाम्बवती चैव विविशुर्जातवेदसम्।73।

रुक्मणी , गान्धारी ,शैव्या , हैमवती, तथा जाम्बवती देवी ने पति लोग की प्राप्ति के लिए अग्नि में प्रवेश किया ।73।👇

सत्यभामा तथैवान्या. देव्य: कृष्णस्य सम्मता:।
वनं प्रविविशू राजंस्तापस्ये कृतनिश्चया: ।74।
जबकि सत्यभामा आदि अन्य पत्नियां तपस्या के लिए वन में जाती हैं ।

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राजन श्री कृष्ण प्रिया सत्यभामा तथा अन्य देवियां तपस्या का निश्चय करके वन में चली गई।74।

दौनों श्लोक परस्पर विरोधी विचारों को प्रकट करने से  यह पूर्ण प्रकरण ही कल्पना प्रसूत हैं।

पति के साथ जलना और वन में तपस्या हेतु गमन
करना ! दौनों बातें जमीन आसमान के समान भिन्न-भिन्न हैं ।

द्वारकावासिनो ये तु  पुरुषा: पार्थमभ्ययु:।
यथार्हं  सविज्यैनान् वज्रे पर्यददज्जय:।75।

जो जो द्वारका राशि मनुष्य अर्जुन के साथ आए थे सबका यथा योग्य भाग करके अर्जुन ने उन्हें वज्र को सौंप दिया।75।
यह समग्र प्रकरण प्रक्षिप्त और प्राचीनत्तम गाथाओं क्रमिक भाव को अभिव्यक्त नहीं करता है।
क्यों यह महाभारत का अन्तिम से पूर्व पर्व है-
यह सबसे छोटा भी है ।
मुश्किल से बीस श्लोकों का यह
(महाभारत का मौसल पर्व का सातवाँ अध्याय)


मुसलोत्पत्ति नामक महाभारत का प्रथम अध्याय -

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प्रजापालनेन निजनगरे भ्रातृभिः सह सुखनिवासिना युधिष्ठिरेण कदाचनाशुभसूचकोत्पातदर्शनम्।।1।।

प्रजापालन के द्वारा अपने नगर में भाईयों के साथसुखपूर्वक रहने वाले युधिष्ठिर के द्वारा कभी अशुभसूचक उत्पातो का दर्शन होना।१।

ततः कालन्तरे सबलकृष्णानां सर्वयादवानां परस्परं मौसलप्रहारेणि निश्शेषनिधनश्रवणम्।।2।।  

उसके कुछ समय बाद बलराम और कृष्ण सहित सभी यादवों का परस्पर मूसल के अवयवों से निर्मित एरका के प्रहार यादवों की मृत्यु का समाचार सुनना-।२। 

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(मौसलपर्वणि मुुुसलोत्पत्तौ प्रथमोऽध्यायः प्रारम्भ )

               (महाभारत (मौसल-पर्व) 

              (श्रीवेदव्यासाय नमः)
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।

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              (वैशम्पायन उवाच)
षट्त्रिंशे त्वथ् संप्राप्ते वर्षे कौरवन्दनः।
ददर्श विपरीतानि निमित्तानि युधिष्टिरः।।१।

ववुर्वाताश्च निर्घाता रूक्षाः शर्करवर्षिणः।
अपसव्यानि शकुना मण्डलानि प्रचक्रिरे।।२।

प्रत्यगूहुर्महानद्यो दिशो नीहारसंवृताः।
उल्काश्चाङ्गारवर्षिण्यः प्रापतन्गगनाद्भुवि।।३।

आदित्यो रजसा राजन्समवच्छन्नगनाद्भुवि।
विरश्मिरुदये नित्यं कबन्धैःसमदृश्यत।।४।

परिवेषाश्च दृश्यन्ते दारुणाश्च द्रसूर्ययोः।
त्रिवर्णाःश्यामरुक्षान्तास्तथा भस्मारुणप्रभाः।।५।

एते चान्ये च बहव उत्पाता भयसंसिनः।
दृश्यन्ते बहवो राजन्  हृदयोद्वेेगकारका:।६।

कस्यचित् त्वथ कालस्यकुरुराजोयुधिष्ठर:।
शुुुुुश्राव वृष्णि चक्रस्य मौसले कदनं कृतम्।७।।

विमुक्तं वासुदेवं च श्रुत्वा रामं च पाण्डवः।
समानीयाब्रवीद्भ्रातृन्कि करिष्याम इत्युत।८।

परस्परं समासाद्य ब्रह्मदण्डबलात्कृतान्।
वृष्णिन्विनष्टास्ते श्रुत्वा व्यथिताःपाण्डवाभवन्।९।।

निधनं वासुदेवस्य समुद्रस्येव शोषणम्।
वीरा न श्रद्दधुस्तस्य विनाशं शार्ङ्गधन्वनः।१०।।

मौसलं ते समाश्रित्य दुःखशोकसमन्विताः।
विष्ण्णा हतसंकल्पाःकिपाण्डवाःसमुपाविशन्।११।

                  (जनमेजय उवाच)
कथं विनष्टा भगवन्नन्धका वृष्णिभिः सह।
पश्यतो वासुदेवस्य भोजश्चैवक महारथाः।१२।

                 (वैशम्पायन उवाच)
षट्त्रिंशेऽथ ततो वर्षे वृष्णीनामनयो महान्।
अन्योन्यं मुसलैस्ते तुनिजघ्नुः कालचोदिताः।१३।

                 (जनमेजय उवाच)
केनानुशप्तास्ते वीराः क्षयं वृष्ण्यन्धका गताः।
भोजाश्च द्विजवर्य त्वं विस्तरेण वदस्व मे।।१४।

                (वैशम्पायन उवाच)
विश्वामित्रं च कण्वं च नारदं च तपोधनम्।
सारणप्रमुखा वीरा ददृशुर्द्वारकां गतान्।।१५।

ते तान् सांबं पुरस्कृत्य भूषयित्वा स्त्रियं यथा।
अब्रुवन्नुपसङ्गम्य् दैवदण्डिनिपीडिताः ।।१६।

इयं स्त्री पुत्रकामस्य बभ्रोरमिततेजसः।
ऋषयःसाधु जानीत किमियं जनयिष्यति।।१७।

इत्युक्तास्ते तदा राजन्विप्रलम्भप्रधर्षिताः।
प्रत्यब्रुवंस्तान्मुनयो यत्तच्छृणु नराधिप।।१८।।

वृष्ण्यन्धकविनाशाय मुसलं घोरमायसम्।
वासुदेवस्य दायादः सांबोऽयं जनयिष्यति।।१९।

येन यूयं सुदुर्वृत्ता नृशंसा जातमन्यवः।
उच्छेत्तारः कुलं कृत्स्नमृते रामजनार्दनौ।।२०।

समुद्रं यास्यति श्रीमांस्त्यक्त्वा देहं हलायुधः।
जरःकृष्णं महात्मानं शयानं भुवि भेत्स्यति।।२१।

इत्यब्रुवंस्ततो राजन्प्रलब्धास्तैर्दुरात्मभिः।
मुनयः क्रोधरक्ताक्षाः समीक्ष्याथ परस्परम्।२२।

तथोक्त्वा मुनयस्ते तु तत: केशवमभ्ययु:।
अथाब्रवीत्तदा वृष्णीञ्श्रुत्वैतन्मधुसूदनः।२३।

अन्तज्ञो मतिमांस्तस्य भवितव्यं तथेति तान्।।
एवमुक्त्वा हृषीकेशः प्रविवेश पुरं तदा।२४।

कृतान्तमन्यथा नैच्छत्कर्तुं स जगतः प्रभुः।
श्वोभूतेऽथ ततः सांबो मुसलं तदसूत वै।२५।

येन वृष्णन्धककुले पुरुषा भस्मसात्कृताः।
वृष्ण्यन्धकविनाशाय किंकरप्रतिमं महत्।२६।

असूत शापजं घोरं तच्च राज्ञे न्यवेदयन्।
विषण्णरूपस्तद्राजा सूक्ष्मं चूर्णमकारयत्।२७।

तच्चूर्णं सागरे चापि प्राक्षिपन्पुरुषा नृप।
अघोषयंश्च नगरे वचनादाहुकस्य ते।२८।

जनार्दनस्य रामस्य बभ्रोश्चैव महात्मनः।
अद्यप्रभृति सर्वेषु वृष्ण्यन्धककुलेष्विह।२९।

सुरासवो न कर्तव्यः, सर्वैर्नगरवासिभिः।।
यश्च नो विदितं कुर्यात्पेयं कश्चिन्नरः क्वचित्।३०।

जीवन्स शूलमारोहेत्स्वयं कृत्वा सबान्धवः।
ततो राजभयात्सर्वे नियमं चक्रिरे तदा।
नराः शासनमाज्ञाय रामस्यकिलिष्टकर्मणा:।३१।         

               ।इति श्रीमन्महाभारते।

।मौसलपर्वणिमुुुसलोत्पत्तौ प्रथमोऽध्यायःसमाप्त।१।


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 महाभारत का द्वितीय अध्याय प्रारम्भ-

द्वारकायां नानोत्पातप्रादुर्भावः।। 1 ।।
तत्तद्दर्शनात्कृष्णेन गान्धारीशापदानानुस्मरेण तस्य सत्यताचिकीर्षया भटैःसर्ववृष्ण्यादीनां तीर्थयात्रोद्धोषणम्।। 2 ।।


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                  ।।श्रीमन्महाभारते।।

     ।।मौसलपर्वणि द्वितीयोऽध्यायःप्रारम्भ।।

             (महाभारतम्/मौसलपर्व)

                  ।वैशंपाय उवाच।
एवं प्रयतमानानां वृष्णीनामन्धकैः सह।
कालो गृहाणि सर्वेषां परिचक्राम नित्यशः।१।

करालो विकटो मुण्डः पुरुषः कृष्णपिङ्गलः।
गृहाण्यावेक्ष्य वृष्णीनां नादृश्यतं पुनः क्वचित्।२।

तमघ्नन्त महेष्वासाः शरैः शतसहस्रशः।
न चाशक्यत वेद्धुं स सर्वभूतात्ययस्तदा।३।

उत्पेदिरे महावाता दारुणाश्च दिनेदिने।
वृष्ण्यन्धकविनाशाय बहवो रोमहर्षणाः।४।

विवृद्धमूषिका रथ्या विभिन्नमणिकास्तथा।
केशा नखाश्च सुप्तानामद्यन्ते मूषिकैर्निशि।५।

चीचीकूचीति वाशन्ति शारिका वृष्णिवेश्मसु।
नोपशाम्यति शब्दस्य सदिवारात्रमेव हि।६।

अन्वकुर्वन्नुलूकानां सारसा विरुतं तथा।
अजाः शिवानां विरुतमन्वकुर्वत भारत।७।

पाण्डुरा रक्तपादाश्च विहगाः कालचोदिताः।
वृष्ण्यन्धकानां गेहेषु कपोता व्यचरंस्तदा।।८।

व्यजायन्त खरा गोषु करभाश्वतरीषु च।
शुनीष्वपि बिडालाश्च मूषिका नकुलीषु च।।९।

नापत्रपन्त पापानि कुर्वन्तो वृष्णयस्तदा।
प्रार्दयन्ब्राह्मणांश्चापि पितॄन्देवांस्तथैव च।।१०।

गुरूंश्चाप्यवमन्यन्ते न तु रामजनार्दनौ।
पत्न्यः पतीनुच्चरन्ति पत्नीश्चक पतयस्तथा।।११।

विभावसुः प्रज्वलितो वामं विपरिवर्तते।
नीललोहितमञ्जिष्ठा विसृजन्नर्चिषः पृथक्।।१२।

उदयास्तमये नित्यं पुर्यां तस्यां दिवाकरः।
व्यदृश्यतासकृत्पुंभिः कबन्धैः परिवारितः।।१३।

महानसेषु सिद्धेषु संस्कृतेऽतीवि भारत।
आहार्यमाणे कृमयो व्यदृश्यन्त सहस्रशः।।१४।

पुण्याहे वाच्यमाने तु जपत्सु च महात्मसु।
अभिधावन्तः श्रूयन्ते न चादृश्यत कश्चन।।१५।

परस्परं च नक्षत्रं हन्यमानं पुनःपुनः।।
ग्रहैरपश्यन्सर्वे ते नात्मनस्तु कथञ्चन।।१६।

नदन्तं पाञ्चिजन्यं च वृष्णन्धकनिवेशने।
समन्तात्पर्यवाशन्त रासभा दारुणस्वराः।।१७।

एवं पश्यन्हृषिकेशः संप्राप्तं कालपर्ययम्।
त्रयोदश्याममावास्यां तान्दृष्ट्वा प्राब्रवीदिदम्।।१८।

चतुर्दशी पञ्चदशी कृतेयं राहुणा पुनः।
प्राप्ते वै भारते युद्धे प्राप्ता चाद्य क्षंयाय नः।।१९।

विमृशन्नेव कालं तं परिचिन्त्य जनार्दनः।
मेने प्राप्तं स षट्त्रिंशं वर्षं वै केशिसूदनः।।२०।

पुत्रशोकाभिसंतप्ता गान्धारी हतबान्धवा।
यदनुव्याजहारार्ता तदिदं समुपागमत्।।२१।

इदं च तदनुप्राप्तमब्रवीद्यद्युधिष्ठिरः।
पुरा व्यूढेष्वनीकेषु दृष्ट्वेत्पातान्सुदारुणान्।।२२।

इत्युक्त्वा वासुदेवस्तु चिकीर्षुः सत्यमेव तत्।
आज्ञापयामास तदा तीर्थयात्रामरिंदमः।।२३।

अघोषयन्त पुरुषास्तत्र केशवशासनात्।
तीर्थयात्रा समुद्रे वःकार्येति पुरुषर्षभा।।२४।।


            ।। इति श्रीमन्महाभारते।।
     ।।मौसलपर्वणि द्वितीयोऽध्यायःसमाप्त।।


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महाभारत का तृतीय अध्याय प्रारम्भ -


                 ।।श्रीमन्महाभारते।।
     ।।मौसलपर्वणि तृत्तीयोऽध्यायःप्रारम्भ।।


              ( महाभारतम्/मौसलपर्व)

               ।तृत्तीयोऽध्याय प्रारम्भ।                                            ।वैशंपायन उवाच।
काली स्त्री पाण्डुरैर्दन्तैः प्रविश्य हसती निशि।
स्त्रियः स्वप्नेषु मुष्णन्ती द्वारकां परिधावति।।१।

अग्निहोत्रनिकेतेषु वास्तुमध्येषु वेश्मसु।
वृष्ण्यन्धकानखादन्त स्वप्ने गृध्रा भयानकाः।।२।

अलङ्काराश्च च्छत्रं च ध्वजाश्च कवचानि च।
ह्रियमाणान्यदृश्यन्त रक्षोभिः सुभयानकैः।।३।

तच्चाग्निदत्तं कृष्णस्य वज्रनाभमयोमयम्।
दिवमाचक्रमे चक्रं वृष्णीनां पश्यतां तदा।।४।

युक्तं रथं दिव्यमादित्यवर्णं हयाऽहरन्पश्यतो दारुकस्य तेसागरस्योपरिष्टादगच्छन्मनोजवाश्चतुरोवाजिमुख्याः।५।

तालः सुपर्णश्च महाध्वजौ तौ सुपूजितौ रामजनार्धनाभ्याम् उच्चैर्जह्रुरप्सरसश्च दिव्या
देवा ऊचुर्गम्यतां तीर्थयात्राः।।६।

भगवद्दर्शनस्पर्शस्नेहैर्विततभोगिनः।
दिवः प्रवेशानार्थं ते विमानैर्दिवमाययुः।।

ततो जिगमिषन्तस्ते वृष्ण्यन्धकमहारथाः।
सान्तःपुरास्तदा तीर्थयात्रामैच्छन्नरर्षभाः।।७।
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ततो मनोहरा हृष्टाःक पेयं मांसं मधूनि च।
बहु नानाविधं चक्रुस्त्वरिताः कालचोदिताः।।८।

 तत: सैैैनिकवर्गाश्च निर्ययुर्नगराद् बहि:।।
यानैरश्वैर्गजैश्चैव श्रीमन्तस्तिग्मतेजसः।।९।

ततः प्रभासे न्यवसन्यथोद्दिष्टं यथागृहम्।
प्रभूतभक्ष्यपेयास्ते सदारा यादवास्तदा।।१०।

निविष्टांस्तान्निशाम्याथ समुद्रान्ते स योगवित्।
जगामामन्त्र्य तान्वीरानुद्धवोऽर्थविशारदः।।११।

तं प्रस्थितं महात्मानमभिवाद्य कृताञ्जलिम्।
जानन्विनाशं वृष्णीनां नैच्छद्वारयितुं हरिः।।१२।

ततः कालपरीतास्ते वृष्ण्यन्धकमहारथाः।
अपश्यन्नुद्धवं यान्तं तेजसाऽऽवृत्य रोदसी।।१३।

ब्राह्मणार्थेषु यत्सिद्धमन्नं तेषां महात्मनाम्।
तद्वानरेभ्यः प्रददुः सुरागन्धसमन्वितम्।।१४।

ततस्तूर्यशताकीर्णं नटनर्तकसंकुलम्।
अवर्तत महापानं प्रभासे तिग्मतेजसाम्।।१५।

कृष्णस्य सन्निधौ रामः सहितः कृतवर्मणा।
अपिबद्युयुधानश्च गदो बभ्रुस्तथैव च।।१६।

ततः परिषदो मध्ये युयुधानो मदोत्कटः।
अब्रवीत्कृतवर्माणमवहास्यावमत्य च।।१७।

कः क्षत्रियो हन्यमानः सुप्तान्हन्यान्मृतानिव।
तन्न मृष्यन्ति हार्दिक्य यादवा यत्त्वया कृतम्।१८।

इत्युक्ते युयुधानेन पूजयामास तद्वचः।
प्रद्युम्नो रथिनांश्रेष्ठो हार्दिक्यमवमत्य च।।१९।

ततः परमसंक्रुद्धः कृतवर्मा तमब्रवीत्।
निर्दिशन्निव सावज्ञं तदा सव्येन पाणिना।।२०।

भूरिश्रवाश्छिन्नबाहुर्युर्द्धे प्रायगतस्त्वया।
वधेन सुनृशंसेन कथं वीरेण पातितः।।२१।

इति तस्य वचः श्रुत्वा केशवः परवीरहा।
तिर्यक्सरोषया दृष्ट्या वीक्षांचक्रे स मन्युमान्।।२२।

मणिः स्यमन्तकश्चैव यः स सत्राजितोऽभवत्।
तां कथां श्रावयामास सात्यकिर्मधुसूदनम्।।२३।

तच्छ्रुत्वा केशवस्याङ्कमगमद्रुदती तदा।
सत्यभामा प्रकुपिता कोपयन्ती जनार्दनम्।।२४।

तत उत्थाय सक्रोधः सात्यकिर्वाक्यमब्रवीत्।
पञ्चानां द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नशिखण्डिनोः।२५।

एष गच्छामि पदवीं सत्येन च तथा शपे।।
सौप्तिके ये च निहताः सुप्ता येन दुरात्मना।२६।

द्रोणपुत्रसहायेन पापेन कृतवर्मणा।।
समाप्तमायुरस्याद्य यशश्चैव सुमध्यमे।२७।

इत्येवमुक्त्वा खङ्गेन केशवस्य समीपतः।
अभिद्रुत्य शिरः क्रुद्धश्चिच्छेद कृतवर्मण:।।२८।

तथाऽन्यानपि निघ्नन्तं युयुधानं समन्ततः।
अभ्यधावद्धृषीकेशो विनिवारयितुं तदा।।२९।

एकीभूतास्ततः सर्वे कालपर्यायचोदिताः।
भोजान्धका महाराज शैनेयं पर्यवारयन्।।३०।

तान्दृष्ट्वा पततस्तूर्णमभिक्रुद्धाञ्जनार्दनः।
न चुक्रोध महातेजा जानन्कालस्य पर्ययम्।।३१।

ते तु पानमदाविष्टाश्चोदिताः कालधर्मणा।
युयुधानमथाभ्यघ्नन्नुच्छिष्टैर्भाजनैस्तदा।।३२।

हन्यमाने तु शैनेये क्रुद्धो रुक्मिणिनन्दनः।
तदनन्तरमागच्छन्मोचयिष्यञ्शिनेः सुतम्।।३३।

स भोजैः सह संयुक्तः सात्यकिश्चान्धकैः सह।
व्यायच्छमानौ तौ वीरौ बाहुद्रविणशालिनौ।३४।

बहुत्वान्निहतौ तत्रउभौ कुष्णस्य पश्यतः।

हतं दृष्ट्वाच शैनेयं पुत्रं च यदुनन्दनः।३५।

एरकाणां ततो मुष्टिं कोपाज्जग्राह केशवः।।

तदभून्मुसलं घोरं वज्रकल्पमयोमयम्।३६।

जघान कुष्णस्तांस्तेनि येये प्रमुखतोऽभवन्।।
ततोऽन्धकाश्च भोजाश्च शैनेया वृष्णयस्तथा।३७।

जघ्नुरन्योन्यमाक्रन्दे मुसलैः कालचोदिताः।।
यस्तेषामेरकां कश्चिज्जग्राह कुपितो नृपः।३८।

वज्रभूतेव सा राजन्नदृश्यत तदा विभो।।
तृणं च मुसलीभूतमपि तत्र व्यदृश्यत।३९।

ब्रह्मदण्डकृतं सर्वमिति तद्विद्वि पार्थिव।।

आविध्याविध्य ते राजन्प्रहरन्ति स्म तैस्तृणैः।
तद्वज्रभूतं मुसलं व्यदृश्यत तदा दृढम्।।४०

अवधीत्पितरं पुत्रः पिता पुत्रं च भारत।४१।
मत्ताः परिपतन्ति स्म योधयन्तः परस्परम्।।

पतङ्गा इव चाग्नौ ते निपेतुः कुकुरान्धकाः।४२।नासीत्पलायने बुद्धिर्वधअयमानस्य कस्यचित्।।तत्रापश्यन्महाबाहुर्जानन्कालस्य पर्ययम्।४३।

मुसलं समवष्टभ्य तस्थौ स मधुसूदनः।।

सांबं च निहतं दृष्ट्वा चारुदेष्णं च माधवः।४४।

प्रद्युम्नं चानिरुद्धं च ततश्चुक्रोध भारत।

गदं वीक्ष्य शयानं च भृशं कोपसमन्वितः।४५।

स निःशेषं तदा चक्रे शार्ङ्गचक्रगंदाधरः।।
तं निघ्नन्तं महातेजा बभ्रुः परपुरंजयः।४६।

दारुकश्चैव दाशार्हमूवतुर्यन्निबोध तत्।।
भगवन्निहताः सर्वे त्वया भूयिष्ठशो नराः।
रामस्य पदमन्विच्छ तत्र गच्छाम यत्र सः।।४७।

             ।। इति श्रीमन्महाभारते।।
।।मौसलपर्वणि तृतीयोऽध्यायः समाप्त।।


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 महाभारत का चतुर्थ अध्याय   प्रारम्भ -

                 ।।श्रीमन्महाभारते।।
   ।।मौसलपर्वणि चतुर्थोऽध्यायःप्रारम्भ।।4।।

                 ।वैशम्पायन उवाच।
ततो ययुर्दारुकः केशवश्च बभ्रुश्च रामस्य पदं पतन्तः।

अथापश्यन्राममनन्तवीर्यं वृक्षाश्रितं चिन्तयानं विविक्ते।१।

ततः समासाद्य महानुभावःकृष्णस्तदा दारुकमन्वशासत् गत्वा कुरून्सर्वमिमं महान्तंपार्थाय शंसस्व वधं यदूनाम्।।२।

ततोऽर्जुनःक्षिप्रमिहोपयातुश्रुत्वामृतान्यादवान्ब्रह्मशापात्। इत्येवमुक्तः स ययौ रथेन
कुरूंस्तदा दारुको नष्टचेताः।।३।

ततो गते दारुके केशवोथ
दृष्ट्वान्तिके बभ्रुमुवाच वाक्यम्।
स्त्रियो भवान्रक्षितुं यातु शीघ्रं
नैता हिंस्युर्दस्यवो वित्तलोभात्।।४।

स प्रस्थित: केशवेनानुशिष्टो।मदातुरो ज्ञातिवधार्दितश्च तंं विश्रान्तं संनिधौ केशवस्य।
दुरन्तमेकं सहसैव बभ्रुम्।।५।

ब्रह्मानुशप्तमवधीन्महद् वैकूटे युक्तं मुसलं लुब्धकस्य
ततो दृष्ट्वा निहितं बभ्रुमाह कृष्णोऽग्रजं भ्रातरमुग्रतेजा:।६।

इहैव त्वं मां प्रतीक्षस्व राम
यावत्स्त्रियो ज्ञातिवशाः करोमि।।

ततः पुरीं द्वारवतीं पविश्य
जनार्दनः पितरं प्राह वाक्यम्।७

सर्वं भवान्रक्षतु नः समग्रं
धनंजयस्यागमनं प्रतीक्षन्।।

रामो वनान्ते प्रतिपालयन्मा-
मास्तेऽद्याहं तेन समानमिष्ये।८।

दृष्टं मयेदं निधनं यदूनां
राज्ञां च पूर्वं कुरुपुङ्गवानाम्।।
नाहं विना यदुभिर्यादवानां
पुरीमिमामशकं द्रष्टुमद्य।९।

तपश्चरिष्यामि निबोध तन्मे
रामेणि सार्धं वनमभ्युपेत्य।।
इतीदमुक्त्वा शिरसा च पादौ
संस्पृश्य कृष्णस्त्वरितो जगाम।१०।

ततो महान्निनदः प्रादुरासी-
त्सस्त्रीकुमारस्य पुरस्य तस्य।।
अथाब्रवीत्केशवः सन्निवर्त्य
शब्दं श्रुत्वा योषितां क्रोशतीनाम्।११।

पुरीमिमामेष्यति सव्यसाची
स वो दुःखान्मोचयिता नराग्र्यः।।
ततो गत्वा केशवस्तं ददर्श
रामं वने स्थितमेकं विविक्ते।।१२।

अथापश्यद् योगयुक्तस्य तस्य
नागं मुखान्निश्चरन्तं महान्तम्।
श्वेतं ययौ स तत: प्रेक्ष्यमाणो
महार्णवो येन महानुभाव:।१३।

सहस्रशीर्ष: पर्वताभोगवर्ष्मा।
रक्ताननः स्वां तनुं तां विमुच्य।
सम्यक् च तं सागर:प्रत्यगृह्णान्नागा। 
दिव्याः सरितश्चैव पुण्याः।।१४।

कर्कोटको वासुकिस्तक्षकश्च।।
पृथुश्रवा अरुणः कुञ्जरश्च।
मिश्री शङ्खः कुमुदः पुण्डरीकः।
तथा नागो धृतराष्ट्रो महात्मा।१५।

ह्रादः क्राथः शितिकण्ठोग्रतेजा: 
तथा नागौ चक्रमन्दातिषण्डौ। 
नागश्रेष्ठो दुुर्मुखश्चाम्बरीष:। स्वयं राजा वरुणश्चचापि राजन्।१६।

प्रत्युद्गम्यस्वागतेनाभ्यनन्दंस्तेऽपूजयंश्चार्ध्यपाद्यक्रियाभि:।
ततो गते भ्रातरि वासुदेवो जानन् सर्वा गतयो दिव्यदृष्टि:।१७।

वने शून्ये विचरंश्चिन्तयानो।
भूमौ चाथ संविवेशाग्र्यतेजा:।
सर्वं तेन प्राक्तदा वित्तमासीद।
गान्धार्या यद् वाक्यमुक्त: स पूर्वम्।१८।

दुर्वाससा पारसोच्छिष्टलिप्ते
यच्चाप्युक्तं तच्च सस्मार वाक्यम्।।
स चिन्तयन्नन्धकवृष्णिनाशं
कुरुक्षयं चैव महानुभाव:।१९।

मेने तत: संक्रमणस्य कालंततश्चकारेन्द्रियसंनिरोधम्
तथा च लोकत्रयपालनार्थमात्रेयवाक्यप्रतिपालनाय।२०।

देेेेवोऽपि सन् देहविमोक्षहेतो-
निमित्ति मैच्छत्  सकलार्थतत्ववित्
स संनिरुद्धेन्द्रियवाङ्मनास्तु।
शिश्ये महायोगमुपेत्य कृष्ण:। २१।

जराथ तं देशमुपाजगाम
लुब्धस्तदानीं मृगलिप्सुरुग्रः।।
स केशवं योगयुक्तं शयानं
मृगासक्तो लुब्धकः सायकेन।२२।

जराऽविंध्यत्पादतले त्वरावां-
स्तं चाभितस्तज्जिघृक्षुर्जगाम।।
अथापश्यत्पुरुषं योगयुक्तं
पीतांबरं लुब्धकोऽनेकबाहुम्।२३।

मत्वाऽऽत्मानं त्वपराद्धं स तस्य
पादौ जरा।जगृहे शङ्कितात्मा।।

आश्वासयंस्तं  महात्मा तदानीं। 
गच्छन्नूर्ध्वे रोदसी व्याप्य लक्ष्म्या।२४।
दिवं प्राप्तं वासवोऽथाश्विनौ च
रुद्रादित्या वसवश्चाथ विश्वे।
प्रत्युद्ययुर्मुनयश्चापि सिद्धा
गन्धर्वमुख्याश्च सहाप्सरोभिः।।२५।

ततो राजन्भगवानुग्रतेजा
नारायणः प्रभवश्चाव्ययश्च।
योगाचार्यो रोदसी व्याप्य लक्ष्म्या
स्थानं प्राप स्वं महात्माप्रमेयम्।।२६।

ततो देवैर्ऋषिभिश्चापि कृष्णः
समागतश्चारणैश्चैव राजन्।
गन्धर्वाग्र्यैरप्सरोभिर्वराभिः
सिद्धैः साध्यैश्चानतैः पूज्यमानः।।२७।

तं वै देवाः प्रत्यनन्दन्त राजन्
मुनिश्रेष्ठा ऋग्भिरानर्चुरीशम्।
तं गन्धर्वाश्चापि तस्थुः स्तुवन्तः
प्रीत्य चैनं पुरुहूतोऽभ्यनन्दत्।।२८।

               ।।श्रीमन्महाभारते।।
  ।।मौसलपर्वणि चतुर्थोऽध्यायःसमाप्त।।4।।


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 महाभारत का पञ्चम अध्याय प्रारम्भ -

दारुकेण हास्तिनपुरमेत्य पाण्डवेषु सर्वयादवक्षयनिवेदनम्।। 1 ।।
अर्जुनेन द्वारकामेत्य रुक्मिण्यादिपरिसान्त्वनपूर्वकं वसुदेवगृहंप्रति गमनम्।। 2 ।।

               ।।श्रीमन्महाभारते।।
 ।।मौसलपर्वणि पञ्चमो८ध्याय: प्रारम्भ।। 

               महाभारतम्/मौसलपर्व

                 ।वैशम्पाय उवाच।
दारुकोपि कुरून्गत्वा दृष्ट्वा पार्थान्महारथान्।
आचष्ट मौसले वृष्णीनन्योन्येनोपसंहृतान्।।१।

श्रुत्वा विनष्टान्वार्ष्णेयान्सभोजान्धककौकुरान्।
पाण्डवाः शोकसंतप्ता वित्रस्तमनसोऽभवन्।।२।

ततोऽर्जुनस्तानामन्त्र्य केशवस्य प्रियः सखा।
प्रययौ मातुलं द्रष्टुं नेदमस्तीति चाब्रवीत्।।३।

स वृष्णिनिलयं गत्वा दारुकेण सह प्रभो।
ददर्श द्वारकां वीरो मृतनाथामिव स्त्रियम्।।४।

याः स्म ता लोकनाथेन नाथवत्यः पुराऽभवन्।
तास्त्वनाथास्तदा नाथं पार्थं दृष्ट्वा विचुक्रुशुः।।५।

षोडश स्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहाः।
तासामासीन्महान्नादो दृष्ट्वैवार्जुनमागतम्।।६।

तास्तु दृष्ट्वैव कौरव्यो बाष्पेणापिहितेक्षणः।
हीनाः कृष्णेन पुत्रैश्च नाशकत्सोभिवीक्षितुम्।।७।

स तां वृष्ण्यन्धकजलां हयमीनां रथोडुपाम्।
वादित्ररथघोषौघां वेश्मतीर्थमहाग्रहाम्।।८।

रत्नशैवलसंघातां वज्रप्राकारमालिनीम्।
रथ्यास्रोतोजलावर्तां चत्वरस्तिमितह्रदाम्।।९।

रामकृष्णमहाग्राहां द्वारकां सरितं तदा।
कालपाशग्रहां भीमां नदीं वैतरणीमिव।।१०।

ददर्श वासविर्धीमान्विहीनां वृष्णिपुङ्गवैः।
गतश्रियं विरानन्दां पद्मिनीं शिशिरे यथााा।११।

तां दृष्ट्वा द्वारकां पार्थस्ताश्च कृष्णस्य योषितः।
सस्वनं बाष्पमुत्सृज्य निपात महीतले।।१२।

सात्राजिती ततः सत्या रुक्मिणी च विशांपते।
अभिपत्य प्ररुरुदुः परिवार्य धनंजयम्।।१३।

ततस्तं काञ्चने पीठे समुत्ताप्योपवेश्य च।
अभिनन्द्य महात्मानं परिवार्योपतस्थिरे।।१४।

ततः संस्तूय गोविन्दं कथयित्वा च पाण्डवः।
आश्वास्य ताः स्त्रियश्चापि मातुलं  दृष्टुमभ्यगात्१५।

  ।। इति श्रीमन्महाभारते मौसम पर्वणि पञ्चमो८ध्याय: समाप्तम् ।।


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 महाभारत का षष्ठम् अध्याय प्रारम्भ -

वसुदेवेन स्वगृहमागतेऽर्जुने यादवक्षयनिदाननिवेदनपूर्वकं कृष्णाद्यनुस्मरणेन परिशोचनम्।। 1 ।।
तथा तंप्रति कृष्णवचननिवेदनेन राज्यस्त्रीधनादिसमर्पणपूर्वकं स्वेन स्वप्राणत्यजनप्रतिज्ञानम्।। 2 ।।

                   महाभारतम्/मौसलपर्व

      । श्रीमन्महाभारते मौसलपर्वणि                   षष्ठोऽध्यायः प्रारम्भ।

                ।वैशम्पायन उवाच।
तं शयानं महात्मानं वीरमानकदुन्दुभिम्।
पुत्रशोकेन संतप्तो ददर्श कुरुपुङ्गवम्।।१।

तस्याश्रुपरिपूर्णाक्षो व्यूढोरस्को महाभुजः।
आर्तस्यार्ततरः पार्थः पादौ जग्राह भारत।।२।

तस्य मूर्धानमाघ्रातुमियेषानकदुन्दुभिः।
स्वस्रीयस्य महाबाहुर्न शशाक च शत्रुहन्।३।

समालिङ्ग्यार्जुनं वृद्धःस भुजाभ्यां महाभुजः।
रुरोदाथ स्मरञ्शौरिं विललाप सुविह्वलः।४।

भ्रातॄन्पुत्रांश्च पौत्रांश्च दौहित्रान्स सखीनपि ।
                 (वसुदेव उवाच)
यैर्जिता भूमिपालाश्च दैत्याश्च शतशोऽर्जुन।५।

तान्सर्वान्नेह पश्यामि जीवाम्यर्जुन दुर्मरः।।
यो तावर्जुनशिष्यौ ते प्रियौ बहुमतौ सदा।६।

तयोरपनयात्पार्थ वृष्णयो निधनं गताः।।
यौ तौ वृष्णिप्रवीराणां द्वावेवातिरथौ मतौ।७।

प्रद्युम्नो युयुधानश्चि कथनन्कत्थसे च यौ।।
तौ सदा कुरुशार्दूल कृष्णस्य प्रियभाजनौ।८।

तावुभौ वृष्णिनाशस्य मुखमास्तां धनंजय।।
न तु गर्हामि शैनेयं हार्दिक्यं चाहमर्जुन।९।

अक्रूरं रौक्मिणेयं च शापो ह्येवात्र कारणम्।।
केशिनं यस्तु कंसं च विक्रम्यि हतवान्प्रभुः।१०।

विदेहमकरोत्पार्थं चैद्यं च बलगर्वितम्।।
नैषादिमेकलव्यं च चक्रे कालिङ्गमागधान्।११।

गान्धारान्काशिराजं च मरुभूमौ च पार्थिवान्।।
प्राच्यांश्च दाक्षिणात्यांश्च पार्वतीयांस्तथा नृपान्।१२।

सोभ्युपेक्षितवानेवमनयान्मधुसूदनः।।
त्वं हि तं नारदश्चैव मुनयश्च सनातनम्।१३।

गोविन्दमनघं देवमभिजानीध्वमच्युतम्।।
प्रत्यपश्यच्च स विभुर्ज्ञातिक्षयमधोक्षजः।१४।

समुपेक्षितवान्नित्यं स्वयं स मम पुत्रकः।।
गान्धार्या वचनं यत्तदृषीणां च परंतप।१५।

तन्नूनमन्यथा कर्तुं नैच्छत्स जगतः प्रभुः।।
प्रत्यक्षं भवतश्चापि तव पौत्रः परंतप।१६।

अश्वत्थाम्ना हतश्चापिजीवितस्तस्य तेजसा।
इमांस्तु नैच्छत्स्वान्ज्ञातीन्रक्षितुं च सखातव।।१७।

ततः पुत्रांश्च पौत्रांश्च भ्रातॄनथ सखींस्तथा।
शयानान्निहतान्दृष्ट्वा कृष्णो मामब्रवीदिदम्।।१८।

सम्प्राप्तोऽद्यायमस्यान्तः कुलस्य भरतर्षभ।
आगमिष्यति बीभत्सुरिमां द्वारवतीं पुरीम्।१९।

आख्येयं तस्य यद्वृत्तं वृष्णीनां वैशसं महत्।।
स तु श्रुत्वा महातेजा यदूनां निधनं प्रभो।२०

आगन्ता क्षिप्रमेवेह न मेऽत्रास्ति विचारणा।।
योऽहं तमर्जुनं विद्धि योऽर्जुनः सोऽहमेव तु।२१।

यद्ब्रूयात्तत्तथा कार्यमिति बुद्ध्यस्व भारत।।
स स्त्रीषु प्राप्तकालासु पाण्डवो बालकेषु च।२२।

प्रतिपत्स्यति बीभत्सुर्भवतश्चौर्ध्वद्गेहिकम्।।
इमां च नगरीं सद्यः प्रतियाते धनंजये।२३।

प्राकारट्टालकोपेतां समुद्रः प्लावयिष्यति।।
अहं देशे तु कस्मिंश्चित्पुण्ये नियममास्थितः।२४।

कालं काङ्क्षे सद्य एव रामेण सहितो वने।।
एवमुक्त्वा हृषीकेशो मामचिन्त्यपराक्रमः।२५।

हित्वा मां बालकैः सार्धं दिशं कामप्यगात्प्रभुः।।
सोऽहं तौ च महात्मानौ चिन्तयन् भ्रातरौतव। ।२६।

घोरं ज्ञातिवधं चैव न भुञ्जे शोककर्शितः। न मोक्ष्ये न च जीविष्ये दिष्ट्या प्राप्तोऽसि पाण्डव।२७।

यदुक्तं पार्थं कृष्णेन तत्सर्वमखिलं कुरु।।
एतत्ते पार्थ राज्यं च स्त्रियो रत्नानि चैव हि।
इष्टान्प्राणानहं हीमांस्त्यक्ष्यामि रिपुसूदन।।२८।
         ।। इति श्रीमन्महाभारते।।
मौसलपर्वणि षष्ठोऽध्यायः समाप्तम्। 6।।


___________________________________ 

महाभारत का सप्तम् अध्याय प्रारम्भ -

श्रीमन्महाभारते मौसलपर्वणि सप्तमोऽध्यायःप्रारम्भ-

अर्जुनेन वसुदेवसमाश्वासनपूर्वकं सकलपौरान्प्रति नातिचिरादेव द्वारकायाः समुद्रेण समाप्लावननिवेदनपूर्वकं सर्वेषामिन्द्रप्रस्थंप्रति प्रयाणसंनाहसंचोदना।। 1 ।।

तथा परेद्युर्योगेन शरीरंत्यक्तवतो वसुदेवस्य पत्नीभिः सह संस्करणपूर्वकं रामकृष्णशरीरयोर्दाहनम्।। 2 ।।

ततो वज्रार्जुनपुरस्कारेण सकलपौरजने पुरःपुनः प्रयाते समुद्रेण पश्चाद्भागे पौरजनमुक्ततत्तद्भागस्य स्वजलेन समाक्रमणम्।। 3 ।।

अर्जुनेन मध्येमार्गं चोरापहृतावशिष्टयादवकलत्रादिभिः सह स्वदेशमेत्य युधिष्ठिराज्ञया वज्रस्येन्द्रप्रस्थराज्येऽभिषेचनम्। तथा सात्यकिसुतादीनां तत्रतत्र राज्येऽभिषेचनम्।। 4।।

रुक्मिण्यादिभिः काभिश्चिदग्निप्रवेशनम्। सत्यभामादिभिः काभिश्चन तपसे वनगमनम्।। 5।।

              ।वैशम्पायन उवाच।
एवमुक्तः स बीभत्सुर्मातुलेनि परंतप।
दुर्मना दीनवदनो वसुदेवमुवाच ह।१।

नाहं वृष्णिप्रवीरेण बन्धुभिश्चैव मातुल।
विहीनां पृथिवीं द्रष्टुं शक्यामीह कथंचन।२। 

राजा च भीमसेनश्च सहदेवश्च पाण्डवः।
नकुलो याज्ञसेनी च षडेकमनसो वयम्।।३।

राजा च भीमसेनश्च।सहदेवपाण्डवा:।
नकुुुुलो याज्ञसेनी च षडेेेकमनसो वयम्।।३।

राज्ञः संक्रमणे चापि कामोऽयं नित्यमेव हि।
तमिमं विद्धि सम्प्राप्तं कालं कालविदांवर।।४।

सर्वथा वृष्णिदारांस्तु बालं वृद्धं तव च।
नयिष्ये परिगृह्याहमिन्द्रप्रस्थमरिंदम।।५।

इत्युक्त्वा दारुकमिदं वाक्यमाह धनंजयः।
अमात्यान्वृष्णिवीराणां द्रष्टुमिच्छामि मा चिरम्।।६।

इत्येवमुक्त्वा वचनं सुधर्मां यादवीं सभाम्।
प्रविवेशार्जुनः शूरः शोचमानो महारथान्।।७।

तमासनगतं तत्र सर्वाः प्रकृतयस्तथा।
ब्राह्मणा नागरास्तत्र परिवार्योपतस्थिरे।।८।

तान्दीनमनसः सर्वान्विमूढान्गतचेतसः।
उवाचेदं वचः काले पार्थो दीनतरस्तथा।९।

शक्रप्रस्थमहं नेष्ये पृष्णन्धकजनं स्वयम्।
इदं तु नगरं सर्वं समुद्रः प्लावयिष्यति।।१०।

सज्जीकुरुत यानानि रत्नानि विविधानि च।
वज्रोऽयं भवतां राजा शक्रप्रस्थे भविष्यति।११।

सप्तमे दिवसे चैव रवौ विमल उद्गते।
बहिर्वत्स्यामहे सर्वे सज्जीभावत मा चिरम्।।१२।

इत्युक्तास्तेन ते सर्वे पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा।
सज्जमाशु ततश्चक्रुः स्वसिद्ध्यर्थं समुत्सुकाः।।१३।

तां रात्रिमवसत्पार्थः केशवस्य निवेशने।
महता शोकमोहेन सहसाऽभिपरिप्लुतः।।१४।

श्वोभूतेऽथ ततः शौरिर्वसुदेवः प्रतापवान्।
युक्त्वाऽऽत्मानं महातेजा जगाम गतिमुत्तमाम्।।१५।

ततः शब्दो महानासीद्वसुदेवनिवेशने।
दारुणः क्रोशतीनां च रुदतीनां च योषिताम्।।१६।

प्रकीर्णमूर्धजाः सर्वा विमुक्ताभरणस्रजः।
उरांसि पाणिभिर्घ्नन्त्यो व्यलपन्तकरुणं स्त्रियः।१७।

तं देवकी च भद्रा च रोहिणी मदिरा तथा।
अन्वारोढुं व्यवसिता भर्तारं योषितां वराः।।१८।

ततः शौरिं नृयुक्तेन बहुमूल्येन भारत।
यानेन महता पार्थो बहिर्निष्क्रामयत्तदा।।१९।

तमन्वयुस्तत्रतत्रं दुःखसोकसमन्विताः।
द्वारकावासिनः सर्वे पौरजानपदा हिताः।।२०।

तस्याश्वमेधिकं छत्रं दीप्यमानाश्च पावकाः।
पुरस्तात्तस्य यानस्य याजकाश्च ततो ययुः।।२१।

अनुजग्मुश्च तं वीरं देव्यस्ता वै स्वलङ्कृताः।।
स्त्रीसहस्रैः परिवृता वधूभिश्च सहस्र:।।२२।

यस्तु देशः प्रियस्तस्य जीवतोऽभून्महात्मनः।
तत्रैनमुपसंकल्प्य वितृमेधं प्रचक्रिरे।।२३।

तं चिताग्निगतं वीरं शूरपुत्रं वराङ्गनाः।
ततोन्वारुरुहुः पत्न्यश्चतस्रः पतिलोकगाः।।२४।

तं वै चतसृभिः स्त्रीभिरन्वितं पाण्डुनन्दनः।
अदाहयच्चन्दनैश्च गन्धैरुच्चावचैरपि।।२५।

ततः प्रादुरभूच्छब्दः समिद्धस्य विभावसोः।
सामगानां च निर्घोषो नराणां रुदतामपि।।२६।

ततो वज्रप्रधानास्ते वृष्ण्यन्धककुमारकाः।
सर्वे चैवोदकं चक्रुः स्त्रियश्चैव महात्मनः।२७।

अलुप्तधर्मस्तं धर्मं कारयित्वा स फल्गुनः।
जगाम वृष्णयो यत्र विनष्टा भरतर्षभ।।२८।

स तान्दृष्ट्वा निपतितान्कदने भृशदुःखितः।
बभूवातीव कौरव्यः प्राप्तकालं चकार ह।।२९।

यथाप्रधानतश्चैव चक्रे सर्वास्तथा क्रियाः।
ये हता ब्रह्मशापेन मुसलैरेरकोद्भवैः।।३०।

ततो भगवतो देहं दृष्ट्वा शिष्यः प्रलप्य च।
स्मृत्वा तद्वचनं सर्वं मोहशोकोपबृंहितः।।'

ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः।
अन्वीक्ष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभि:।३१।

स तेषां विधिवत्कृत्वा प्रेतकार्याणि पाण्डवः।
सप्तमे दिवसे प्रायाद्रथमारुह्य सत्वरः।।३२।

अश्वयुक्तै रथैश्चापि गोखरोष्ट्रयुतैरपि।
स्त्रियस्ता वृष्णिवीराणां रुदन्त्यः शोककर्शिताः।।३३।

अनुजग्मुर्महात्मानं पाण्डुपुत्रं धनंजयम्।
भृत्याश्चान्धकवृष्णीनां सादिनो रथिनश्च ये।।३४।

वीरहीना वृद्धबालाः पौरजानपदास्तथा।
ययुस्ते परिवार्याथ कलत्रं पार्थशासनात्।।३५।

कुञ्जरैश्च गजारोहा ययुः शैलनिर्भस्तथा।
सपादरक्षैः संयुक्ताः सोत्तरायुधिका ययुः।।३६।

पुत्राश्चान्धकवृष्णीनां सर्वे पार्थमनुव्रताः।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव महाधनाः।।३७।

दश षट् च सहस्राणि वासुदेवावरोधनम्।
पुरस्कृत्य ययुर्वज्रं पौत्रं कृष्णस्य धीमतः।।३८।

बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
भोजवृष्ण्यन्धकस्त्रीणां हतनाथानि निर्ययुः।।३९।

तत्सागरसमप्रख्यं वृष्णिचक्रं महर्द्धिमत्।
उवाह रथिनांश्रेष्ठः पार्थः परपुरञ्जयः।।४०।

निर्याते तु जने तस्मिन्सागरो मकरालयः।
द्वारकां रत्नसंपूर्णां जलेनाप्लावयत्तदा।।४१।

यद्यद्धि पुरुषव्याघ्रो भूमेस्तस्या व्यमुञ्चत।
तत्तत्संप्लावयामास सलिलेन स सागरः।।४२।

तदद्भुतमभिप्रेक्ष्य द्वारकावासिनो जनाः।
तूर्णात्तूर्णतरं जग्मुरहो दैवमिति ब्रुवन्।।४३।

काननेषु च रम्येषु पर्वतेषु नदीषु च।
निवसन्नानयामास वृष्णिदारान्धनंजयः।।४४।



________________________________

स पञ्चनदमासाद्य धीमानतिसमृद्धिमत्।
देशे गोप शुधान्याढ्ये निवासमकरोत्प्रभुः।।४५।

___________________________________

विशेष-टिप्पड़ी- उपर्युक्ते श्लोके (शुध) शब्द: शुध् धातुना सह निर्मिता  शुध्यति इति शुधो य: शुद्ध भवति स: शुधास्ति एष अन्नस्य  विशेषणोस्ति  गोप: शब्द: अत्र पृथगास्ति ।

ततो लोभः समभवद्दस्यूनां निहतेश्वराः।
दृष्ट्वा स्त्रियो नीयमानाः पार्थेनैकेन भारत।।४६।

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः।
आभीरा मन्त्रयामासुः समेत्याशुभदर्शनाः।।४७।

भागवतपुराणे निम्नानि लिखितानि येन श्लोकेन अर्थ साम्य अस्ति ..

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सोऽहं नृपेन्द्र रहित:पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।।

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् गौपै:सद्भिरबलेव विनिर्जितोस्मि ।२०।

इमे गोपा: अमी असामासुः नारायणा: अवशिष्टा।यैःसह अर्जुनात्शत्रुताम्बभूवुःसुभद्रापहरणं काले।२१।

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हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ 
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण कीगोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका ।।२०।

ये गोप वही नारायणी सेना के युद्ध से बचे हुए गोप थे जिनके साथ सुभद्रा अपहरण काल में अर्जुन की शत्रुता हुई थी ।।२१।

( श्रीमद्भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध के अध्याय पन्द्रहवें का बीसवाँ श्लोक ।

अयमेकोऽर्जुनो धन्वी वृद्धबालं हतेश्वरम्।नयत्यस्मानतिक्रम्य् योधाश्चेमे हतौजसः।।४८।

ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्रशः।
अभ्यधावन्त वृष्णीनां तं जनं लोप्त्रहारिणः।।४९।

महता सिंहनादेन त्रासयन्तः पृथग्जनम्।
अभिपेतुर्धनार्थं ते कालपर्यायचोदिताः।।५०।

ततो निवृत्तः कौन्तेयः सहसा सपदानुगः।
उवाच तान्महाबाहुरर्जुनः प्रहसन्निव।।५१।

निवर्तध्वमधर्मज्ञा यदि जीवितुमिच्छथ।
इदानीं शरनिर्भिन्नाः शोचध्वं निहता मया।।५२।

तथोक्तास्तेन वीरेणि कदर्तीकृत्य तद्वचः।
अभिपेतुर्जनं मूढा वार्यमाणाः पुनःपुनः।।५३।

ततोऽर्जुनो धनुर्दिव्यं गाण्डीवमजरं महत्।
कआरोपयितुमारेभे यत्नादिव कथञ्चन।।५४।

चकार सज्यं कृच्छ्रेणि सम्भ्रमे तुमुले सति।
चिन्तयामास शस्त्राणि न च सस्मार तान्यपि।।५५।

वैकृतं तन्महद्दृष्ट्वा भुजवीर्य तथा युधि।
दिव्यानां च महास्त्राणां विनाशाद्व्रीडितोऽभवत्।५६।

वृष्णियोधाश्च ते सर्वे गजाश्वरथयोधिनः।
न शेकुरावर्तयितुं ह्रियमाणं स्वकं जनम्।।५७।

कलत्रस्य बहुत्वाद्धि सम्पतन्सु ततस्ततः।
प्रयत्नमकरोत्पार्थो जनस्य परिरक्षणे।।५८।

मिषतां सर्वयोधानां ततस्ताः प्रमदोत्तमाः।
समन्ततोवकृष्यन्त कामाच्चान्याः प्रवव्रजुः।।५९।

ततो गाण्डीवनिर्मुक्तैः शरैः पार्थो धनंजयः।
जघान दस्यून्सोद्वेगो वृष्णिभृत्यैः सहस्रशः।।६०।

क्षणेन तस्य ते राजन्क्षयं जग्मुरजिह्मगाः।
अक्षया हि पुरा भूत्वा क्षीणाः क्षतजभोजनाः।।६१।

स शरक्षयमासाद्य दुःखशोकसमाहतः।
धनुष्कोट्या तदा दस्यूनवधीत्पाकशासनिः।।६२।

[प्रेक्षतस्त्वेव पार्थस्य वृष्ण्यन्धकवरस्त्रियः।
जग्मुरादाय ते म्लेच्छाः समन्ताज्जनमेजय।।]६३।

धनंजयस्तु दैवं तन्मनसाऽचिन्तयत्प्रभुः।
दुःखसोकसमाविष्टो निःश्वासपरमोऽभवत्।।६४।

अस्त्राणां च प्रणाशेन बाहुवीर्यस्य च क्षयात्।
धनुषश्चाविधेयत्वाच्छराणां संक्षयेण च।।६५।

बभूव विमनाः पार्थो दैवमित्युनुचिन्तयन्।
न्यवर्तत ततो राजन्नेदमस्तीति चाब्रवीत।।६६।

ततः शेषं समादाय कलत्रस्य महामतिः।
हृतभूयिष्ठरत्नस्य कुरुक्षेत्रमवातरत्।६७।

युधिष्ठिरस्यानुमते वंशकर्तॄन्कुमारकान्।
न्यवेशयत कौरव्यस्तत्रतत्र धनंजयः।।६८।

हार्दिक्यतनयं पार्थो नगरे मृत्तिकावते।
भोजराजकलत्रं च हृृतशेष नरोत्तम:।।६९।

ततो वृद्धांश्च बालांश्च स्त्रियश्चादाय पाण्डवः।
वीरैर्विहीनान्सर्वांस्ताञ्शक्रप्रस्थे न्यवेशयत्।।७०।

यौयुधानिं सरस्वत्याः पुत्रं सात्यकिनः प्रियम्।
न्यवेशयत धर्मात्मा वृद्धबालपुरस्कृतम्।।७१।

इन्द्रप्रस्थे ददौ राज्यं व्रज्राय परवीरहा।
वज्रेणाक्रूरदारास्तु वार्यमाणाः प्रवव्रजुः।।७२।

रुक्मिणी त्वथ गान्धारी शैब्दा हैमवतीत्यपि।
देवी जींबवती चैव विविशुर्जातवेदसम्।।७३।

सत्यभामा तथैवान्या देव्यः कृष्णस्य सम्मताः।
वनं प्रविविशू राजंस्तापस्ये कृतनिश्चयाः।।७३।

द्वारकावासिनो ये पुरुषाः पार्थमभ्ययुः।
यथार्हं संविभज्यैनान्वज्रे पर्यददज्जयः।।७५।

स तत्  कृत्वा प्राप्तकालं बाष्पेणापिहितोर्जुन:।

कृष्णद्वैपायनं व्यासं  ददर्शासीनमाश्रमे।७६।

          ।। इति श्रीमन्महाभारते
मौसलपर्वणि सप्तमोध्याय समाप्तम्।।  8 ।।



 महाभारत का अष्टम् अध्याय प्रारम्भ -


अर्जुनेन व्यासाश्रमे तद्दर्शनम्।। 1 ।।
तस्मिन्द्वारकावृत्तान्तनिवेदनम्।। 2 ।।
व्यासेनार्जुनंप्रति युधिष्ठिरादीनामपि स्वर्गगमनसूचनम्।। 3 ।।
ततोऽर्जुनेन हास्तिनपुरमेत्य युधिष्ठिरे द्वारकावृत्तान्तादिनिवेदनम्।। 4 ।।


              ।वैशम्पायन उवाच।
प्रविश्य त्वर्जुनो राजन्नाश्रमं सत्यवादिनः।
ददर्शासीनमेकान्तो मुनिं सत्यवतीसुतम्।।१।


स तमासाद्य धर्मज्ञमुपतस्थे महाव्रतम्।
अर्जुनोस्मीति नामास्तै निवेद्याभ्यवदत्ततः।।२।


स्वागतं तेऽस्त्विति प्राह मुनिः सत्यवतीसुतः।
आस्यतामिति होवाच प्रसन्नात्मा महामुनिः।।३।


तमप्रतीतमनसं निःश्वसन्तं पुनःपुनः।
निर्विष्णमनसं दृष्ट्वा पार्थं व्यासोऽब्रवीदिदम्।।४।


नखकेशदशाकुंभवारिणा किं समुक्षितः।
आवीरजानुगमनं ब्राह्मणो वा हतस्त्वया।।५।


युद्धे पराजितो वाऽसि दतश्रीरिव लक्ष्यसे।
न त्वां प्रभिन्नं जानामि किमिदं भरतर्षभ।६।
श्रोतव्यं चेन्मया पार्थ क्षश्रिप्रमाख्यातुमर्हसि।।

                 (अर्जुन उवाच)
यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पङ्कजलोचनः।
स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।।


तदनुस्मृत्य संमोहं तदा शोकं महामते।
प्रयामि सर्वदा मह्यं मुमूर्षा चोपजायते।।


तद्वाक्यस्पर्शनालोकसुखं चामृतसन्निभम्।
संस्मृत्य देवदेवस्य प्रमुह्यित्यमृतात्मनः।।'


मौसले वृष्णिवीराणां विनाशो ब्रह्मशापजः।८।
बभूव वीरान्तकरः प्रभासे रोमहर्षणः।।


एते शूरा महात्मानः सिंहदर्पा महाबलाः।९।

भोजवृष्ण्यन्धका ब्रह्मन्नन्योन्यं तैर्हतं युधि।।

गदापरिघशक्तीनां सहाः परिघबाहवः।१०।

त एरकाभिर्निहताः पश्य कालस्य पर्ययम्।।

हतं पञ्चशतं तेषां सहस्रं बाहुशालिनाम्।११।

निधनं समनुप्राप्तं समासाद्येतरेतरम्।।

पुनःपुनर्न मृष्यामि विनाशममितौजसाम्।१२।
चिन्तयानो यदूनां च कृष्णस्य च यशस्विनः।।

शोषणं सागरस्येव मन्दरस्येव चालनम्।१३।

नभसः पतनं चैव शैत्यमग्नेस्तथैव च।।

अश्रद्धेयमहं मन्ये विनाशं शार्ङ्गधन्वनः।१४।

न चेह स्थातुमिच्छामि लोके कृष्णविनाकृतः।।

इतः कष्टतरं चान्यच्छृणु तद्वै तपोधन।१५।

मनो मे दीर्यते येन चिन्तयानस्य वै मुहुः।।


पश्यतो वृष्णिदाराश्च मम ब्रह्मन्सहस्रशः।१६।

आभीरैरभिभूयाजौ हृताः पञ्चनदालयैः।।


धनुरादाय तत्राहं नाशकं तस्य पूरणे।१७।

यथापुरा च मे वीर्यं भुजयोर्न तथाऽभवत्।।

अस्त्राणि मे प्रनष्टानि विविधानि महामुने।१८।

शराश्च क्षयमापन्नाः क्षणेनैव समन्ततः।।

पुरुषस्चाप्रमेयात्मा शङ्खचक्रगदाधरः।१९।

चतुर्भुजः पीतवासाः श्यामः पद्मदलेक्षणः।।

यश्च याति पुरस्तान्मे रथस्य सुमहाद्युतिः।२०।

प्रदहन्रिपुसैन्यानि न पश्याम्यहमद्य तम्।।


येन पूर्वं प्रदग्धानि शत्रुसैन्यानि तेजसा।२१।
शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैरहं पश्चादशातयम्।।


तमपश्यन्विषीदामि घूर्णामीव च सत्तम।२२।

परिनिर्विण्णचेताश्च शान्तिं नोपलभेऽपि च।।

`देवकीनन्दनं देवं वासुदेवमजं प्रभुम्।'
विना जनार्दनं वीरं नाहं जीवितुमुत्सहे।।२३।


श्रुत्वैव हि गतं विष्णुं ममापि मुमुहुर्दिशः।
प्रनष्टज्ञातिवीर्यस्य शून्यस्य परिधावतः।२४।


उपदेष्टुं मम श्रेयो भवानर्हति सत्तम।।
                 (व्यास उवाच)
`देवांशा देवभूतेन सम्भूतास्ते गतास्सह।
धर्मव्यवस्थारक्षार्थं देवेन समुपेक्षिताः'।।


ब्रह्मशापविनिर्दग्धा वृष्ण्यन्धकसमहारथाः।२५।

विनष्टाः कुरुशार्दूल न ताञ्शोचितुमर्हसि।।

भवितव्यं तथा तच्च दिष्टमेतन्महात्मनाम्।२६।

उपेक्षितं च कृष्णेन शक्तेनापि व्यपोहितुम्।।

त्रैलोक्यमपि गोविन्दः कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम्।२७।

प्रसहेदन्यथा कर्तुं कुतः शापं महात्मनाम्।।


स्त्रियश्च ताः पुरा शप्ताः प्रभासे कुपितेन वै।
अष्टावक्रेण मुनिना तदर्थं त्वद्बलक्षयम्।।'


रथस्य पुरतो याति यः स चक्रगदाधरः।२८।
तव स्नेहात्पुराणर्षिर्वासुदेवश्चतुर्भुजः।।


कृत्वा भारावतरणं पृथिव्याः पृथुलोचनः।२९।
मोक्षयित्वा तनुं प्राप्तः कृष्णः स्वस्थानमुत्तमम्।।


त्वयाऽपीह महत्कर्म देवानां पुरुषर्षभ।३०
कृतं भीमसहायेन यमाभ्यां च महाभुज।।३२।


कृतकृत्यांश्च वो मन्ये संसिद्धान्कुरुपुङ्गव।३१।

गमनं प्राप्तकालं व इदं श्रेयस्करं विभो।।

बलं बुद्धिश्च तेजश्च प्रतिपत्तिश्च भारत।
भवन्ति भवकालेषु विपद्यन्ते विपर्यये।।

कालमूलमिदं सर्वं जगद्बीजं धनंजय।३३।

काल एव समादत्ते पुनरेव यदृच्छया।।

स एव बलवान्भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः।३४।

स एवेशश्च भूत्वेह परैराज्ञाप्यते पुनः।।

कृतकृत्यानि चास्त्राणि गतान्यद्य यथागतम्।३५।

पुनरेष्यन्ति ते हस्तं यदा कालो भविष्यति।।

कालो गन्तुं गतिं मुख्यां भवतामपि भारत।३६।

एतच्छ्रेयो हि वो मन्ये परमं भरतर्षभ।।

वैशम्पायन उवाच।
एतद्वचनमाज्ञाय व्यासस्यामिततेजसः।३७।

अनुज्ञातो ययौ पार्थो नगरं नागसाह्वयम्।।

प्रविश्य च पुरीं वीरः समासाद्य युधिष्ठिरम्।
आचष्ट तद्यथावृत्तं वृष्ण्यन्धककुलं प्रति।।३८।


            ।। इति श्रीमन्महाभारते
शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां
मौसलपर्वणि अष्टमोध्यायः।। 8 ।।
           ।। मौसलपर्व समाप्तम् ।।

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 श्रीमन्महाभारत मे मौसलपर्व का प्रथम       अध्यायः प्रारम्भ।

                    ( प्रथम अध्याय)

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके 'जय' (महाभारत) का पाठ करना चाहिये। 

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! महाभारत युद्ध के पश्चात जब छत्तीसवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ, तब कौरवनन्दन राजा युधिष्ठिर को कई तरह के अपशकुन दिखायी देने लगे।१।।

 बिजली की गड़गड़ाहट के साथ बालू और कंकड़ बरसाने वाली प्रचण्ड आँधी चलने लगी। पक्षी दाहिनी ओर मण्डल बनाकर उड़ते दिखायी देने लगे।२।।

 बड़ी-बड़ी नदियाँ बालू के भीतर छिपकर बहने लगीं। दिशाएँ कुहरे से आच्छादित हो गयीं। आकाश से पृथ्वी पर अंगार बरसाने वाली उल्काएँ गिरने लगीं।३।।

राजन! सूर्यमण्डल धूल से आच्छन्न हो गया था। उदय काल में सूर्य तेजोहीन प्रतीत होते थे और उनका मण्डल प्रतिदिन अनेक कबन्धों (बिना सिर के धड़ों) से युक्त दिखायी देता था  ।।४।।

चन्द्रमा और सूर्य दोनों के चारों ओर भयानक घेरे दृष्टिगोचर होते थे। उन घेरों में तीन रंग प्रतीत होते थे। उनका किनारे का भाग काला एवं रूखा होता था। बीच में भस्म के समान धूसर रंग दिखता था।

 और भीतरी किनारे की कान्ति अरुण वर्ण की दृष्टिगोचर होती थी।५।।

 राजन! ये तथा और भी बहुत-से भयसूचक उत्पात दिखायी देने लगे, जो हृदय को उद्विग्नकर देने वाले थे।६।।

 इसके थोड़े ही दिनों बाद कुरुराज युधिष्ठिर ने यह समाचार सुना कि मूसल को निमित्त बनाकर आपस में महान युद्ध हुआ है; ।७।।

 जिसमें समस्त वृष्णिवंशियों का संहार हो गया। केवल भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ही उस विनाश से बचे हुए हैं। यह सब सुनकर पांडुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने समस्त भाइयों को बुलाया और पूछा- "अब हमें क्या करना चाहिये?।८।।

" ब्राह्मणों के शाप बल से विवश हो आपस में लड़-भिड़कर सारे वृष्णिवंशी विनष्ट हो गये। यह बात सुनकर पांडवों को बड़ी वेदना हुई।९।।

 भगवान श्रीकृष्ण का वध तो समुद्र को सोख लेने के समान असम्भव था; अतः उन वीरों ने भगवान श्रीकृष्ण के विनाश की बात पर विश्वास नहीं किया।१०।।

 इस मौसल काण्ड की बात को लेकर सारे पांडव दुःख-शोक में डूब गये। उनके मन में विषाद छा गया और वे हताश हो मन मारकर बैठ गये।११।।

 जनमेजय ने पूछा- भगवन! भगवान श्रीकृष्ण के देखते-देखते वृष्णियों सहित अन्धक तथा महारथी भोजवंशी क्षत्रिय कैसे नष्ट हो गये?।१२।।

 वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! महाभारत युद्ध के बाद छत्तीसवें वर्ष वृष्णिवंशियों में महान अन्यायपूर्ण कलह आरम्भ हो गया। उसमें काल से प्रेरित होकर उन्होंने एक-दूसरे को मूसलों (अरों) से मार डाला।१३।।

 जनमेजय ने पूछा- विप्रवर! वृष्णि, अन्धक तथा भोजवंश के उन वीरों को किसने शाप दिया था, जिससे उनका संहार हो गया? आप यह प्रसंग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये।१४।।

 वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! एक समय की बात है। महर्षि विश्वामित्र, कण्व और तपस्या के धनी नारद जी द्वारका में गये हुए थे। १५।।

उस समय दैव के मारे हुए सारण आदि वीर साम्ब को स्त्री के वेष में विभूषित करके उनके पास ले गये। उन सब ने उन मुनियों का दर्शन किया और इस प्रकार पूछा।१६।।

अध्याय: मौसल पर्व महाभारत: मौसल पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद:-

 "महर्षियों! यह स्त्री अमित तेजस्वी बभ्रु की पत्नी है। बभ्रु के मन में पुत्र की बड़ी लालसा है।

 आप लोग ऋषि हैं; अतः अच्छी तरह सोचकर बतावें, इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा?" ।१७।।

 राजन! नरेश्वर! ऐसी बात कहकर उन यादवों ने जब ऋषियों को धोखा दिया और इस प्रकार उनका तिरस्कार किया, तब उन्होंने उन बालकों को जो उत्तर दिया, उसे सुनो। १८।।

राजन! उन दुर्बुद्धि बालकों के वञ्चनापूर्ण बर्ताव से वे सभी महर्षि कुपित हो उठे।

 क्रोध से उनकी आँखें लाल हो गयीं और वे एक-दूसरे की ओर देखकर इस प्रकार बोले- "क्रूर, क्रोधी और दुराचारी यादवकुमारों! भगवान श्रीकृष्ण का यह पुत्र साम्ब एक भयंकर लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा,।१९।।

 जो वृष्णि और अन्धक वंश के विनाश का कारण होगा। 

उसी से तुम लोग बलराम और श्रीकृष्ण के सिवा अपने शेष समस्त कुल का संहार कर डालोगे।२०।।

 हलधारी श्रीमान बलराम जी स्वयं ही अपने शरीर का त्याग कर समुद्र में चले जायेंगे और महात्मा श्रीकृष्ण जब भूतल पर सो रहे होंगे, उस समय जरा नामक व्याध उन्हें अपने बाणों से बींध डालेगा।२१।।"

ऐसा कहते हुए वे ऋषि उन दुरात्माओं के द्वारा प्रवञ्चित 

परस्पर एक दूसरे की और देखकर क्रोध से लाल नेत्रों वाले होगये ।२२।

 ऐसा कहकर वे मुनि भगवान श्रीकृष्ण के पास चले गये। (वहाँ उन्होंने उनसे सारी बातें कह सुनायीं।) यह सब सुनकर भगवान मधुसूदन ने वृष्णिवंशियों से कहा-।।२३।

"ऋषियों ने जैसा कहा है, वैसा ही होगा।" बुद्धिमान श्रीकृष्ण सब के अन्त को जानने वाले हैं। उन्होंने उपर्युक्त बात कहकर नगर में प्रवेश किया।।२४।

यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत के ईश्वर हैं तथापि यदुवंशियों पर आने वाले उस काल को उन्होंने पलटने की इच्छा नहीं की। दूसरे दिन सवेरा होते ही साम्ब ने उस मूसल को जन्म दिया।२५।।

 यह वही मूसल था, जिसने वृष्णि और अन्धक कुल के समस्त पुरुषों को भस्मसात कर दिया। वृष्णि और अन्धक वंश के वीरों का विनाश करने के लिये वह महान यमदूत के ही तुल्य था ।२६।।

जब साम्ब ने उस शापजनित भयंकर मूसल को पैदा किया, तब यदुवंशियों ने उसे ले जाकर राजा उग्रसेन को दे दिया। उसे देखते ही राजा के मन में विषाद छा गया। उन्होंने उस मूसल को कुटवाकर अत्यन्त महीन चूर्ण करा दिया।२७।।

 नरेश्वर! राजा की आज्ञा से उनके सेवकों ने उस लोहचूर्ण को समुद्र में फेंक दिया। २८।।

फिर उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम और महामना बभ्रु के आदेश से राजपुरुषों ने नगर में यह घोषणा करा दी कि "आज से समस्त वृष्णिवंशी और अन्धकवंशी क्षत्रियों के यहाँ कोई भी नगर निवासी मदिरा न तैयार करें। २९।।

जो मनुष्य कहीं भी हम लोगों से छिपकर कोई नशीली पीने की वस्तु तैयार करेगा वह स्वयं वह अपराध करके जीते जी अपने भाई-बन्धुओं सहित शूली पर चढ़ा दिया जायगा। ३०।।"

 अनायास ही महान कर्म करने वाले बलराम जी का यह शासन समझकर सब लोगों ने राजा के भय से यह नियम बना लिया कि "आज से न तो मदिरा बनाना है न पीना।।।३१।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसल पर्व में मूसल की ***उत्पत्ति विषयक पहला अध्याय पूरा हुआ।***

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श्रीमन्महाभारत मे मौसलपर्व का द्वितीय       अध्यायः प्रारम्भ।

द्वितीय (2) अध्याय: मौसल पर्व महाभारत: मौसल पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद:-

 द्वारका में भयंकर उत्पात देखकर भगवान श्रीकृष्ण का यदुवंशियों को तीर्थयात्रा के लिये आदेश देना ।

 वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार वृष्णि और अन्धक वंश के लोग अपने ऊपर आने वाले संकट का निवारण करने के लिये भाँति-भाँति के प्रयत्न कर रहे थे और उधर काल प्रतिदिन सब के घरों में चक्कर लगाया करता था।१।।

 उसका स्वरूप विकराल और वेश विकट था। 

उसके शरीर का रंग काला और पीला था।

 वह मूँड़ मुड़ाये हुए पुरुष के रूप में वृष्णि वंशियों के घरों में प्रवेश करके सब को देखता और कभी-कभी अदृश्य हो जाता था।२।।

 उसे देखने पर बड़े-बड़े धनुर्धर वीर उसके ऊपर लाखों बाणों का प्रहार करते थे; पंरतु सम्पूर्ण भूतों का विनाश करने वाले उस काल को वे वेध नहीं पाते थे।३।।

अब प्रतिदिन अनेक बार भयंकर आँधी उठने लगी, जो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी।

 उससे वृष्णियों और अन्धकों के विनाश की सूचना मिल रही थी। ४।।

चूहे इतने बढ़ गये थे कि वे सड़कों पर छाये रहते थे। मिट्टी के बरतनों में छेद कर देते थे तथा रात में सोये हुए मनुष्यों के केश और नख कुतरकर खा जाया करते थे।५।।

 वृष्णिवंशियों के घरों में मैनाएँ दिन-रात चें-चें किया करती थीं। उनकी आवाज़ कभी एक क्षण के लिये भी बंद नहीं होती थी। ६।।

भारत! सारस, उल्लुओं की, बकरे, गीदड़ों की बोली की नकल करने लगे।७।।

 काल की प्रेरणा से वृष्णियों और अन्धकों के घरों में सफ़ेद पंख और लाल पैरों वाले कबूतर घूमने लगे।८।।

 गौओं के पेट से गदहे, खच्चरियों से हाथी, कुतियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे।९।

 उन दिनों वृष्णिवंशी खुल्लमखुल्ला पाप करते और उसके लिये लज्जित नहीं होते थे।

 वे ब्राह्मणों, देवताओं और पितरों से भी द्वेष रखने लगे।१०।

 इतना ही नहीं, वे गुरुजनों का भी अपमान करते थे। केवल बलराम और श्रीकृष्ण का ही तिरस्कार नहीं करते थे ;पत्नियाँ पतियों को और पति अपनी पत्नियों को धोखा देने लगे।११।।

अग्नि देव प्रज्वलित होकर अपनी लपटों को वामावर्त घुमाते थे। उनसे कभी नीले रंग की, कभी रक्त वर्ण की और कभी मजीठ के रंग की पृथक-पृथक लपटें निकलती थीं।१२।।

उस नगरी में रहने वाले लोगों को उदय और अस्त के समय सूर्य देव प्रतिदिन बारंबार कबन्धों से घिरे दिखायी देते थे।१३।।

 अच्छी तरह छौंक-बघार कर जो रसोइयाँ तैयार की जाती थीं, उन्हें परोसकर जब लोग भोजन के लिये बैठते थे, तब उनमें हज़ारों कीड़े दिखायी देने लगते थे।१४।।

 जब पुण्याहवाचन किया जाता और महात्मा पुरुष जप करने लगते थे, उस समय कुछ लोगों के दौड़ने की आवाज़ सुनायी देती थी, परंतु कोई दिखायी नहीं देता था।१५।। 

सब लोग बारंबार यह देखते थे कि नक्षत्र आपस में तथा ग्रहों के साथ भी टकरा जाते हैं,

 परन्तु कोई भी किसी तरह अपने नक्षत्र को नहीं देख पाता था।।१६।

जब भगवान श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य शंख बजता था, तब वृष्णियों और अन्धकों के घर के आस-पास चारों ओर भयंकर स्वर वाले गदहे रेंकने लगते थे।१७।।

महाभारत: मौसल पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 18-24 का हिन्दी अनुवाद:-

 इस तरह काल का उलट-फेर प्राप्त हुआ देख और त्रयोदशी तिथि को अमावस्या का संयोग जान भगवान श्रीकृष्‍ण ने सब लोगों से कहा- ।१८।

"वीरो! इस समय राहु ने फिर चतुर्दशी को ही अमावस्या बना दिया है। महाभारत युद्ध के समय जैसा योग था वैसा ही आज भी है। यह सब हम लोगों के विनाश का सूचक है। १९।।

" इस प्रकार समय का विचार करते हुए केशिहन्ता श्रीकृष्ण ने जब उसका विशेष चिन्तन किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि महाभारत युद्ध के बाद यह छत्तीसवाँ वर्ष आ पहुँचा।२०।।

 वे बोले- "बन्धु-बान्धवों के मारे जाने पर पुत्र शोक से संतप्त हुई गांधारी देवी ने अत्यन्त व्यथित होकर हमारे कुल के लिये जो शाप दिया था, उसके सफल होने का यह समय आ गया है। २१।।

पूर्वकाल में कौरव-पांडवों की सेनाएँ जब व्यूहबद्ध होकर आमने-सामने खड़ी हुईं, उस समय भयानक उत्पातों को देखकर युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा था, वैसा ही लक्षण इस समय भी उपस्थित है।२२।।

" ऐसा कहकर शत्रुदमन भगवान श्रीकृष्ण ने गांधारी के उस कथन को सत्य करने की इच्छा से यदुवंशियों को उस समय तीर्थयात्रा के लिये आज्ञा दी।२३।।

 भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से राजकीय पुरुषों ने उस पुरी में यह घोषणा कर दी कि "पुरुष प्रवर यादवों! तुम्हें समुद्र में ही तीर्थयात्रा के लिये चलना चाहिये अर्थात सबको प्रभास क्षेत्र में उपस्थित होना चाहिये।२४।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसल पर्व में उत्पातदर्शन विषयक (दूसरा अध्याय) पूरा हुआ।
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।।श्रीमन्महाभारत में मौसलपर्व का तृतीय              अध्यायः प्रारम्भ होता है।

कृतवर्मा आदि समस्त यादवों का परस्पर संहार

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! द्वारका के लोग रात को स्वप्नों में देखते थे कि एक काले रंग की स्‍त्री अपने सफ़ेद दाँतों को दिखा-दिखाकर हँसती हुई आयी है और घरों में प्रवेश करके स्त्रियों का सौभाग्य-चिह्न लूटती हुई सारी द्वारका में दौड़ लगा रही है।१। ।

अग्निहोत्र गृहों में जिनके मध्य भाग में वास्तु की पूजा-प्रतिष्ठा हुई है, ऐसे घरों में भयंकर गृध्र आकर वृष्णि और अन्धक वंश के मनुष्यों को पकड़-पकड़कर खा रहे हैं। यह भी स्वप्न में दिखायी देता था।२।

 अत्यन्त भयानक राक्षस उनके आभूषण, छत्र, ध्वजा और कवच चुराकर भागते देखे जाते थे।।३।

जिसकी नाभि में वज्र लगा हुआ था, जो सब-का-सब लोहे का ही बना था, वह अग्नि देव का दिया हुआ श्रीविष्णु का चक्र वृष्णिवंशियों के देखते-देखते दिव्यलोक में चला गया।।४।

 भगवान का जो सूर्य के समान तेजस्वी और जुता हुआ दिव्य रथ था, उसे दारुक के देखते-देखते घोड़े उड़ा ले गये। वे मन के समान वेगशाली चारों श्रेष्ठ घोड़े समुद्र के जल के ऊपर-ऊपर से चले गये।।५।

बलराम और श्रीकृष्ण जिनकी सदा पूजा करते थे, उन ताल और गरुड़ के चिह्न से युक्त दोनों विशाल ध्वजों को अप्सराएँ ऊँचे उठा ले गयीं और दिन-रात लोगों से यह बात कहने लगीं कि "अब तुम लोग तीर्थयात्रा के लिये निकलो।।६।

" तदनन्तर पुरुषश्रेष्ठ वृष्णि और अन्धक महारथियों ने अपनी स्त्रियों के साथ उस समय तीर्थयात्रा करने का विचार किया। अब उनमें द्वारका छोड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा हो गयी थी।।७।

तब अन्धकों और वृष्णियों ने नाना प्रकार के भक्ष्य, भोजन, पेय, मद्य और भाँति-भाँति के मांस तैयार कराये। ।।८।

इसके बाद सैनिकों के समुदाय, जो शोभासम्पन्न और प्रचण्ड तेजस्वी थे, रथ, घोड़े और हाथियों पर सवार होकर नगर के बाहर निकले।।९। 

उस समय स्त्रियों सहित समस्त यदुवंशी प्रभास क्षेत्र में पहुँचकर अपने-अपने अनुकूल घरों में ठहर गये। उनके साथ खाने-पीने की बहुत-सी सामग्री थी।।१०।

परमार्थ-ज्ञान में कुशल और योगवेत्ता उद्धव जी ने देखा कि समस्त वीर यदुवंशी समुद्र तट पर डेरा डाले बैठे हैं। तब वे उन सबसे पूछकर विदा लेकर वहाँ से चल दिये।११।

 महात्मा उद्धव भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम करके जब वहाँ से प्रस्थित हुए, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें वहाँ रोकने की इच्छा नहीं की; क्योंकि वे जानते थे कि यहाँ ठहरे हुए वृष्णिवंशियों का विनाश होने वाला है।१२।

 काल से घिरे हुए वृष्णि और अन्धक महारथियों ने देखा कि उद्धव अपने तेज से पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके यहाँ से चले जा रहे हैं। १३।।

उन महामनस्वी यादवों के यहाँ ब्राह्मणों को जिमाने के लिये जो अन्न तैयार किया गया था, उसमें मदिरा मिलाकर उसकी गन्ध से युक्त हुए उस भोजन को उन्होंने वानरों को बाँट दिया।१४।।

 तदनन्तर वहाँ सैकड़ों प्रकार के बाजे बजने लगे। सब ओर नटों और नर्तकों का नृत्य होने लगा। इस प्रकार प्रभास क्षेत्र में प्रचण्ड तेजस्वी यादवों का वह महापान आरम्भ हुआ। १५।। 

श्रीकृष्ण के पास ही कृतवर्मा सहित बलरामसात्यकिगद और बभ्रु पीने लगे।१६।

महाभारत: मौसल पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद!
 पीते-पीते सात्यकि मद से उन्मत्त हो उठे और यादवों की उस सभा में कृतवर्मा का उपहास तथा अपमान करते हुए इस प्रकार बोले-।१७।
 "हार्दिक्य! तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा क्षत्रिय होगा जो अपने ऊपर आघात न होते हुए भी रात में मुर्दों के समान अचेत पड़े हुए मनुष्यों की हत्या करेगा।

 तूने जो अन्याय किया है, उसे यदुवंशी कभी क्षमा नहीं करेंगे।१८।।
" सात्यकि के ऐसा कहने पर रथियों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न ने कृतवर्मा का तिरस्कार करके सात्यकि के उपर्युक्त वचन की प्रशंसा एवं अनुमोदन किया। १९।।


यह सुनकर कृतवर्मा अत्यन्त कुपित हो उठा और बायें हाथ से अंगुलि का इशारा करके सात्यकि का अपमान करता हुआ बोला-२०।।


 "अरे! युद्ध में भूरिश्रवा की बाँह कट गयी थी और वे मरणान्त उपवास का निश्चय करके पृथ्वी पर बैठ गये थे। उस अवस्था में तूने वीर कहलाकर भी उनकी क्रूरतापूर्ण हत्या क्यों की?"।२१।


 कृतवर्मा की यह बात सुनकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया। उन्होंने रोषपूर्ण टेढ़ी दृष्टि से उसकी ओर देखा।२२।


 उस समय सात्यकि ने मधुसूदन को सत्राजित के पास जो स्यमन्तक मणि थी, उसकी कथा कह सुनायी (अर्थात यह बताया कि कृतवर्मा ने ही मणि के लोभ से सत्राजित का वध करवाया था)।२३।


 यह सुनकर सत्यभामा के क्रोध की सीमा न रही। वह श्रीकृष्ण का क्रोध बढ़ाती और रोती हुई उनके अंक में चली गयी।२४।


 तब क्रोध में भरे हुए सात्यकि उठे और इस प्रकार बोले- "सुमध्यमे! यह देखो, मैं द्रौपदी के पाँचों पुत्रों के, धृष्टद्युम्न के और शिखण्डी के मार्ग पर चलता हूँ ।
 अर्थात उनके मारने का बदला लेता हूँ और सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि जिस पापी दुरात्मा कृतवर्मा ने द्रोणपुत्र का सहायक बनकर रात में सोते समय उन वीरों का वध किया था, आज उसकी भी आयु और यश का अन्त हो गया।२५-२७।


 ऐसा कहकर कुपित हुए सात्यकि ने श्रीकृष्ण के पास से दौड़कर तलवार से कृतवर्मा का सिर काट लिया। २८।
फिर वे दूसरे-दूसरे लोगों का भी सब ओर घूमकर वध करने लगे। यह देख भगवान श्रीकृष्ण उन्हें रोकने के लिये दौड़े।२९।
 महाराज! इतने ही में काल की प्रेरणा से भोज और अन्धक वंश के समस्त वीरों ने एक मत होकर सात्यकि को चारों ओर से घेर लिया। ३०।

उन्हें कुपित होकर तुरंत धावा करते देख महातेजस्वी श्रीकृष्ण काल के उलट-फेर को जानने के कारण कुपित नहीं हुए।३१।

 वे सब-के-सब मदिरापानजनित मद के आवेश से उन्मत्त हो उठे थे। इधर कालधर्मा मृत्यु भी उन्हें प्रेरित कर रही थी। इसलिये वे जूठे बरतनों से सात्यकि पर आघात करने लगे। ३२।
जब सात्यकि इस प्रकार मारे जाने लगे, तब क्रोध में भरे हुए रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न उन्हें संकट से बचाने के लिये स्वयं उनके और आक्रमणकारियों के बीच में कूद पड़े।।।३३ ।
प्रद्युम्न भोजों से भिड़ गये और सात्यकि अन्धकों के साथ जूझने लगे। अपनी भुजाओं के बल से सुशोभित होने वाले वे दोनों वीर बड़े परिश्रम के साथ विरोधियों का सामना करते रहे। ३४
परंतु विपक्षियों की संख्या बहुत अधिक थी, इसलिये वे दोनों श्रीकृष्ण के देखते-देखते उनके हाथ से मार डाले गये।  सात्यकि तथा अपने पुत्र को मारा गया देख यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने कुपित होकर एक मुट्ठी एरका उखाड़ ली।३५।।________________________________________

महाभारत: मौसल पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 36-47 का हिन्दी अनुवाद।
 उनके हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गयी। फिर तो जो-जो सामने आये, उन सबको श्रीकृष्ण ने उसी से मार गिराया। ३६।
उस समय काल से प्रेरित हुए अन्धक, भोज, शिनि और वृष्णि वंश के लोगों ने उस भीषण मार-काट में उन्हीं मूसलों से एक-दूसरे को मारना आरम्भ किया।३७।
 नरेश्वर! उनमें से जो कोई भी क्रोध में आकर एरका नामक घास लेता, उसी के हाथ में वह वज्र के समान दिखायी देने लगती थी।३८।।
पृथ्वीनाथ! एक साधारण तिनका भी मूसल होकर दिखायी देता था। यह सब ब्राह्मणों के शाप का ही प्रभाव समझो।३९।

राजन! वे जिस किसी भी तृण का प्रहार करते, वह अभेद्य वस्तु का भी भेदन कर डालता था और वज्रमय मूसल के समान सुदृढ़ दिखायी देता था। ४०।।
भरतनन्दन! उस मूसल से पिता ने पुत्र और पुत्र ने पिता को मार डाला। जैसे पतंगे आग में कूद पड़ते हैं, उसी प्रकार कुकुर और अन्धक वंश के लोग परस्पर जूझते हुए एक-दूसरे पर मतवाले होकर टूटते थे।४१-४२।।
 वहाँ मारे जाने वाले किसी योद्धा के मन में वहाँ से भाग जाने का विचार नहीं होता था। कालचक्र के इस परिवर्तन को जानते हुए महाबाहु मधुसूदन वहाँ चुपचाप सब कुछ देखते रहे और मूसल का सहारा लेकर खड़े रहे। ४३।

भारत! श्रीकृष्ण ने जब अपने पुत्र साम्ब, चारुदेष्ण और प्रद्युम्न को तथा पोते अनिरुद्ध को भी मारा गया देखा, तब उनकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो उठी। ४४
अपने छोटे भाई गद को रणशैय्या पर पड़ा देख वे अत्यन्त रोष से आगबबूला हो उठे; फिर तो शारंग धनुष, चक्र और गदा धारण करने वाले श्रीकृष्ण ने उस समय शेष बचे हुए समस्त यादवों का संहार कर डाला। ४५।।
शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले महातेजस्वी बभ्रु और दारुक ने उस समय यादवों का संहार करते हुए श्रीकृष्ण से जो कुछ कहा, उसे सुनो। ४६।
"भगवान! अब सबका विनाश हो गया। इनमें से अधिकांश तो आप के हाथों मारे गये हैं। अब बलराम जी का पता लगाइये। अब हम तीनों उधर ही चलें, जिधर बलराम जी गये हैं।" ४७।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसल पर्व में कृतवर्मा आदि समस्त यादवों का संहार विषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।
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महाभारत: मौसल पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद :-दारुक का अर्जुन को सूचना देने के लिये हस्तिनापुर जाना, बभ्रु का देहावसान एवं बलराम और श्रीकृष्‍ण का परमधाम-गमन ।
 वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर दारुक, बभ्रु और भगवान श्रीकृष्ण तीनों ही बलराम जी के चरणचिह्न देखते हुए वहाँ चल दिये। थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अनन्त पराक्रमी बलराम जी को एक वृक्ष के नीचे विराजमान देखा, जो एकान्त में बैठकर ध्यान कर रहे थे।१।। उन महानुभाव के पास पहुँचकर श्रीकृष्ण ने तत्काल दारुक को आज्ञा दी कि तुम शीघ्र ही कुरु देश की राजधानी हस्तिनापुर में जाकर अर्जुन को यादवों के इस महासंहार का सारा समाचार कह सुनाओ।२।।
ब्राह्मणों के शाप से यदुवंशियों की मृत्यु का समाचार पाकर अर्जुन शीघ्र ही द्वारका चले आवें। श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देने पर दारुक रथ पर सवार हो तत्काल कुरु देश को चला गया। वह भी इस महान शोक से अचेत-सा हो रहा था।३।।
 राजन! दारुक के चले जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने निकट खड़े हुए बभ्रु से कहा- "आप स्त्रियों की रक्षा के लिये शीघ्र ही द्वारका को चले जाइये। कहीं ऐसा न हो कि डाकू धन की लालच से उनकी हत्या कर डालें।४।।
" श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर बभ्रु वहाँ से प्रस्थित हुए। वे मदिरा के मद से आतुर थे ही, भाई-बन्धुओं के वध से भी अत्यन्त शोक पीड़ित थे। वे श्रीकृष्ण के निकट अभी विश्राम कर ही रहे थे कि ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से उत्पन्न हुआ एक महान दुर्धर्ष मूसल किसी व्याध के बाण से लगा हुआ सहसा उनके ऊपर आकर गिरा। उसने तुरंत ही उनके प्राण ले लिये। बभ्रु को मारा गया देख उग्र तेजस्वी श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई से कहा- ।।५-६।।
"भैया बलराम! आप यहीं रहकर मेरी प्रतीक्षा करें। जब तक मैं स्त्रियों को कुटुम्बीजनों के संरक्षण में सौंप आता हूँ।" यों कहकर श्रीकृष्ण द्वारिकापुरी में गये और वहाँ अपने पिता वसुदेव जी से बोले-७।।
 "तात! आप अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए हमारे कुल की समस्त स्त्रियों की रक्षा करें। इस समय बलराम जी मेरी राह देखते हुए वन के भीतर बैठे हैं। मैं आज ही वहाँ जाकर उनसे मिलूँगा। ८।।
मैंने इस समय यह यदुवंशियों का विनाश देखा है और पूर्वकाल में कुरुकुल के श्रेष्ठ राजाओं का भी संहार देख चुका हूँ। अब मैं उन यादव वीरों के बिना उनकी इस पुरी को देखने में भी असमर्थ हूँ। ९।।
अब मुझे क्या करना है, यह सुन लीजिए। वन में जाकर मैं बलराम जी के साथ तपस्या करूँगा।" ऐसा कहकर उन्होंने अपने सिर से पिता के चरणों का स्पर्श किया। फिर वे भगवान श्रीकृष्ण वहाँ से तुरंत चल दिये। १०।।

इतने ही में उस नगर की स्त्रियों और बालकों के रोने का महान आर्तनाद सुनायी पड़ा। विलाप करती हुई उन युवतियों के करुणक्रन्दन सुनकर श्रीकृष्ण पुनः लौट आये और उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले-११।
 "देखिये! नरश्रेष्ठ अर्जुन शीघ्र ही इस नगर में आने वाले हैं। वे तुम्हें संकट से बचायेंगे।" यह कहकर वे चले गये। वहाँ जाकर श्रीकृष्ण ने वन के एकान्त प्रदेश में बैठे हुए बलराम जी का दर्शन किया।१२।

महाभारत: मौसल पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद:- बलराम जी योगयुक्त हो समाधि लगाये बैठे थे। श्रीकृष्ण ने उनके मुख से एक श्वेत वर्ण के विशालकाय सर्प को निकलते देखा। उनसे देखा जाता हुआ वह महानुभाव नाग जिस ओर महासागर था, उसी मार्ग पर चल दिया। १३।वह अपने पूर्व शरीर को त्याग कर इस रूप में प्रकट हुआ था। उसके सहस्रों मस्तक थे। 
उसका विशाल शरीर पर्वत के विस्तार-सा जान पड़ता था।उसके मुख की कान्ति लाल रंग की थी। समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर उस नाग का- साक्षात भगवान अनन्त का भली-भाँति स्वागत किया।। दिव्य नागों और पवित्र सरिताओं ने भी उनका सत्कार किया।१४
 राजन! कर्कोटक, वासुकि, तक्षक, पृथुश्रवा, अरुण, कुञ्जर, मिश्री, शंख, कुमुद, पुण्डरीक, महामना धृतराष्ट्र, ह्राद, क्राथ, शितिकण्ठ, उग्रतेजा,चक्रमन्द, अतिषण्ड, नागप्रवर दुर्मुख, अम्बरीष और स्वयं राजा वरुण ने भी उनका स्वागत किया।१५-१६।।
उपर्युक्त सब लोगों ने आगे बढ़कर उनकी अगवानी की, स्वागतपूर्वक अभिनन्दन किया और अर्घ्‍य-पाद्य आदि उपचारों द्वारा उनकी पूजा सम्‍पन्न की। भाई बलराम के परमधाम पधारने के पश्चात सम्पूर्ण गतियों को जानने वाले दिव्यदर्शी भगवान श्रीकृष्ण कुछ सोचते-विचारते हुए उस सूने वन में विचरने लगे। फिर वे श्रेष्ठ तेज वाले भगवान पृथ्वी पर बैठ गये। सबसे पहले उन्‍होंने वहाँ उस समय उन सारी बातों को स्मरण किया, जिन्हें पूर्वकाल में गांधारी देवी ने कहा था।।।१७-१८।।
 जूठी खीर को शरीर में लगाने के समय दुर्वासा ने जो बात कही थी, उसका भी उन्हें स्मरण हो आया। फिर वे महानुभाव श्रीकृष्ण अन्धक, वृष्णि और कुरुकुल के विनाश की बात सोचने लगे।१९।
 तत्‍पश्‍चात उन्‍होंने तीनों लोकों की रक्षा तथा दुर्वासा के वचन का पालन करने के लिये अपने परमधाम पधारने का उपयुक्त समय प्राप्त हुआ समझा तथा इसी उद्देश्य से अपनी सम्पूर्ण इन्द्रिय-वृत्तियों का निरोध किया। २०।
भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण अर्थों के तत्त्ववेत्ता और अविनाशी देवता हैं। तो भी उस समय उन्होंने देहमोक्ष या ऐहलौकिक लीला का संवरण करने के लिये किसी निमित्त के प्राप्त होने की इच्‍छा की। फिर वे मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध करके महायोग (समाधि) का आश्रय ले पृथ्वी पर लेट गये।२१।
 उसी समय जरा नामक एक भयंकर व्याध मृगों को मार ले जाने की इच्छा से उस स्थान पर आया। उस समय श्रीकृष्ण योगयुक्त होकर सो रहे थे। मृगों में आसक्त हुए उस व्याध ने श्रीकृष्ण को भी मृग ही समझा और बड़ी उतावली के साथ बाण मारकर उनके पैर के तलवे में घाव कर दिया। फिर उस मृग को पकड़ने के लिये जब वह निकट आया, तब योग में स्थित, चार भुजा वाले, पीताम्बरधारी पुरुष भगवान श्रीकृष्ण पर उसकी दृष्टि पड़ी।२२-२३।।
 अब तो जरा अपने को अपराधी मानकर मन-ही-मन बहुत डर गया। उसने भगवान श्रीकृष्ण के दोनों पैर पकड़ लिये। तब महात्मा श्रीकृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और अपनी कान्ति से पृथ्वी एवं आकाश को व्याप्त करते हुए वे ऊर्ध्‍वलोक में (अपने परमधाम को) चले गये। २४।
अन्तरिक्ष में पहुँचने पर इन्द्र, अश्विनी कुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, विश्वेदेव, मुनि, सिद्ध, अप्सराओं सहित मुख्य-मुख्य गन्धर्वों ने आगे बढ़कर भगवान का स्वागत किया। २५।
राजन! तत्पश्चात जगत की उत्पत्ति के कारणरूप, उग्रतेजस्वी, अविनाशी, योगाचार्य महात्मा भगवान नारायण अपनी प्रभा से पृथ्‍वी और आकाश को प्रकाशमान करते हुए अपने अप्रमेयधाम को प्राप्त हो गये।२६।
 नरेश्वर! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण श्रेष्ठ गन्धर्वों, सुन्दरी अप्सराओं, सिद्धों और साध्यों द्वारा विनीत भाव से पूजित हो देवताओं, ऋषियों तथा चारणों से भी मिले। २७।राजन! देवताओं ने भगवान का अभिनन्दन किया। श्रेष्ठ महर्षियों ने ऋग्वेद की ऋचाओं द्वारा उनकी पूजा की। गन्धर्व स्तुति करते हुए खड़े रहे तथा इन्द्र ने भी प्रेमवश उनका अभिनन्दन किया।२८।

 इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसल पर्व में श्रीकृष्ण का परमधामगमन विषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ।_______________________________________


महाभारत: मौसल पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद:- अर्जुन का द्वारका में आना और द्वारका तथा श्रीकृष्ण-पत्नियों की दशा देखकर दु:खी होना।
 वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! दारुक ने भी कुरु देश में जाकर महारथी कुन्तीकुमारों का दर्शन किया और उन्हें यह बताया कि समस्त वृष्णिवंशी मौसल युद्ध में एक-दूसरे के द्वारा मार डाले गये।१-।।
 वृष्णि, भोज, अन्धक और कुकुर वंश के वीरों का विनाश हुआ सुनकर समस्त पांडव शोक से संतप्त हो उठे। वे मन-ही-मन संत्रस्त हो गये। २।।
तत्पश्चात श्रीकृष्ण के प्रिय सखा अर्जुन अपने भाइयों से पूछकर मामा से मिलने के लिये चल दिये और बोले- "ऐसा नहीं हुआ होगा (समस्त यदुवंशियों का एक साथ विनाश असम्भव है)।३।।
 प्रभो! दारुक के साथ वृष्णियों के निवास स्थान पर पहुँचकर वीर अर्जुन ने देखा कि द्वारका नगरी विधवा स्त्री की भाँति श्रीहीन हो गयी है।४।।
 पूर्वकाल में लोकनाथ श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित होने के कारण जो सबसे अधिक सनाथा थीं, वे ही भगवान श्रीकृष्ण की सोलह हज़ार अनाथा स्त्रियाँ अर्जुन को रक्षक के रूप में आया देख उच्च स्वर से करुणक्रन्दन करने लगीं।५-१/२।।
 वहाँ पधारे हुए अर्जुन को देखते ही उन स्त्रियों का आर्तनाद बहुत बढ़ गया। उन सब पर दृष्टि पड़ते ही अर्जुन की आँखों में आँसू भर आये। पुत्रों और श्रीकृष्ण से हीन हुई उन अनाथ अबलाओं की ओर उनसे देखा नहीं गया। ६-७।।
द्वारका पुरी एक नदी के समान थी। वृष्णि और अन्धक वंश के लोग उसके भीतर जल के समान थे। घोड़े मछली के समान थे। रथ नाव का काम करते थे। वाद्यों की ध्वनि और रथ की घरघराहट मानो उस नदी के बहते हुए जल का कलकल नाद थी। 
लोगों के घर ही तीर्थ एवं बड़े-बड़े जलाशय थे। रत्‍नों की राशि ही वहाँ सेवारसमूह के समान शोभा पाती थी। वज्र नामक मणि की बनी हुई चहारदीवारी ही उसकी तटपंक्ति थी। सड़कें और गलियाँ उसमें जल के सोते और भँवरें थीं, चौराहे मानो उसके स्थिर जल वाले तालाब थे। 
बलराम और श्रीकृष्ण उसके भीतर दो बड़े-बड़े ग्राह थे। कालपाश ही उसमें मगर और घड़ियाल के समान था। ऐसी द्वारका रूपी नदी को बुद्धिमान अर्जुन ने वृष्णिवीरों से रहित हो जाने के कारण वैतरणी के समान भयानक देखा। 
वह शिशिर काल की कमलिनी के समान श्रीहीन तथा आनन्दशून्य जान पड़ती थी।८-११।।
वैसी द्वारका को और उन श्रीकृष्ण की पत्नियों को देखकर अर्जुन आँसू बहाते हुए फूट-फूटकर रोने लगे और मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।१२।।
प्रजानाथ! तब सत्राजित की पुत्री सत्यभामा तथा रुक्मिणी आदि रानियाँ वहाँ दौड़ी आयीं और अर्जुन को घेरकर उच्च स्वर से विलाप करने लगीं।१३।।
 तदनन्तर अर्जुन को उठाकर उन्होंने सोने की चौकी पर बिठाया और उन महात्मा को घेरकर बिना कुछ बोले उनके पास बैठ गयीं। १४।।
उस समय अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनकी कथा कही और उन रानियों को आश्वासन देकर वे अपने मामा से मिलने के लिये गये।१५।।
 इस प्रकार 

श्रीमहाभारत मौसल पर्व में अर्जुन का आगमन विषयक पाँचवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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महाभारत: मौसल पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद :-द्वारका में अर्जुन और वसुदेव जी की बातचीत ।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! मामा के महल में पहुँकर कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने देखा कि वीर महात्मा वसुदेव जी पुत्र शोक से दु:खी होकर पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। १।
भरतनन्दन! चौड़ी छाती और विशाल भुजा वाले कुन्तीकुमार अर्जुन अपने शोकाकुल मामा की वह दशा देखकर अत्यन्त संतप्त हो उठे। उनके नेत्रों में आँसू भर आये और उन्होंने मामा के दोनों पैर पकड़ लिये। २।
शत्रुघाती नरेश! महाबाहु आनकदुन्दुभि (वसुदेव) ने चाहा कि मैं अपने भानजे अर्जुन का मस्तक सूँघ लूँ; परंतु असमर्थतावश वे ऐसा न कर सके। ३।
महाबाहु बूढ़े वसुदेव जी ने अपनी दोनों भुजाओं से अर्जुन को खींचकर छाती से लगा लिया और अपने समस्त पुत्रों का स्मरण करके रोने लगे। फिर भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, दौहित्रों और मित्रों को भी याद करके अत्यन्त व्याकुल हो वे विलाप करने लगे।४।
 वसुदेव बोले- "अर्जुन ! जिन वीरों ने सैकड़ों दैत्यों तथा राजाओं पर विजय पायी थी, उन्हें आज यहाँ मैं नहीं देख पा रहा हूँ तो भी मेरे प्राण नहीं निकलते। जान पड़ता है, मेरे लिये मृत्यु दुर्लभ है।५-१/२ 
अर्जुन! जो तुम्हारे प्रिय शिष्य थे और जिनका तुम बहुत सम्मान किया करते थे, उन्हीं दोनों (सात्यकि और प्रद्युम्न) के अन्याय से समस्त वृष्णिवंशी मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। ६।१/२
कुरुश्रेष्ठ धनंजय! वृष्णि वंश के प्रमुख वीरों में जिन दो को ही अतिरथी माना जाता था तथा तुम भी चर्चा चलाकर जिनकी प्रंशसा के गीत गाते थे, वे श्रीकृष्ण के प्रीतिभाजन प्रद्युम्न और सात्यकि ही इस समय वृष्णिवंशियों के विनाश के प्रमुख कारण बने हैं। (७-८-१/२)
अथवा अर्जुन! इस विषय में मैं सात्यकि, कृतवर्मा, अक्रूर और प्रद्युम्न की निन्दा नहीं करूँगा। वास्तव में ऋषियों का शाप ही यादवों के इस सर्वनाश का प्रधान कारण है।९-१/२
 कुन्‍तीनन्‍दन! जिन जगदीश्‍वर ने पराक्रम प्रकट करके केशी और कंस को देहबंधन से मुक्‍त कर दिया। बल का घमण्‍ड रखने वाले चेदिराज शिशुपाल, निषादपुत्र एकलव्‍य, कलिंगराज, मगध निवासी क्षत्रिय, गान्‍धार, काशिराज तथा मरुभूमि के राजाओं को भी यमलोक भेज दिया था, जिन्‍होंने पूर्व, दक्षिण तथा पर्वतीय प्रान्‍त के नरेशों का भी संहार कर डाला था, उन्‍हीं मधुसूदन ने बालकों की अनीति के कारण प्राप्‍त हुए इस संकट की उपेक्षा कर दी। १०-११-(१/२)
तुम, देवर्षि नारद तथा अन्‍य महर्षि भी श्रीकृष्‍ण को पाप के सम्‍पर्क से रहित, सनातन, अच्‍युत परमेश्‍वररूप से जानते हैं। वे ही सर्वव्‍यापी अधोक्षज अपने कुटुम्‍बीजनों के इस विनाश को चुपचाप देखते रहे।१३-१४।।
परंतप अर्जुन! मेरे पुत्ररूप में अवतीर्ण हुए वे जगदीश्‍वर गांधारी तथा महर्षियों के शाप को पलटना नहीं चाहते थे, इसलिये उन्‍होंने सदा ही इस संकट की उपेक्षा की। १५-(१/२)परंतप! तुम्‍हारा पौत्र परीक्षित अश्वत्थामा द्वारा मार डाला गया था तो भी श्रीकृष्‍ण के तेज से वह जीवित हो गया। यह तो तुम लोगों की आंखों देखी घटना है।१६-(१/२)
 इतने शक्तिशाली होते हुए भी तुम्‍हारे सखा ने अपने इन भाई-बन्‍धुओं को प्राणसंकट से बचाने की इच्‍छा नहीं की। जब पुत्र, पौत्र, भाई और मित्र सभी एक दूसरे के हाथ से मरकर धराशायी हो गये, तब उन्‍हें उस अवस्‍था में देखकर श्रीकृष्‍ण मेरे पास आये और इस प्रकार बोले।१७-१८
महाभारत: मौसल पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 19-28 का हिन्दी अनुवाद "पुरुषप्रवर पिता जी! आज इस कुल का संहार हो गया। अर्जुन द्वारकापुरी में आने वाले हैं। आने पर उनसे वृष्णिवंशियों के इस महान विनाश का वृतान्‍त कहियेगा। १९१/२

प्रभो अर्जुन के पास सन्‍देश भी पहुँचा होगा। वे महातेजस्‍वी कुन्‍तीकुमार यदुवंशियों के विनाश का यह समाचार सुनकर शीघ्र ही यहाँ आ पहुँचेंगे। इस विषय में मेरा कोई अन्‍यथा विचार नहीं है।२०-१/२
 जो मैं हूँ उसे अर्जुन समझिये, जो अर्जुन हैं वह मैं ही हूँ। माधव! अर्जुन जो कुछ भी कहें वैसा ही आप लोगों को करना चाहिये। इस बात को अच्‍छी तरह समझ लें।२१-१/२
 जिन स्त्रियों का प्रसवकाल समीप हो, उन पर और छोटे बालकों पर अर्जुन विशेष रूप से ध्‍यान देंगे और वे ही आपका और्ध्‍वदेहिक संस्‍कार भी करेंगे।२२-१/२।
 अर्जुन के चले जाने पर चहारदीवारी और अट्टालिकाओं सहित इस नगरी को समुद्र तत्‍काल डुबो देगा। २३-१/२
मैं किसी पवित्र स्‍थान में रहकर शौच-संन्‍तोषादि नियमों का आश्रय ले बुद्धिमान बलराम जी के साथ शीघ्र ही काल की प्रतीक्षा करूँगा। २४-१/२।
" ऐसा कहकर अचिन्‍त्‍य पराक्रमी प्रभावशाली श्रीकृष्‍ण बालकों के साथ मुझे छोड़कर किसी अज्ञात दिशा को चले गये हैं।२५-१/२
 तब से मैं तुम्‍हारे दोनों भाई महात्‍मा बलराम और श्रीकृष्‍ण तथा कुटुम्‍बीजनों के इस घोर संहार का चिन्‍तन करके शोक से गलता जा रहा हूँ। मुझसे भोजन नहीं किया जाता। अब मैं न तो भोजन करूँगा और न इस जीवन को ही रखूँगा। पांडुनन्‍दन! सौभाग्‍य की बात है कि तुम यहाँ आ गये।२६-२७ ।
 पार्थ! श्रीकृष्‍ण ने जो कुछ कहा है, वह सब करो। यह राज्‍य, ये स्त्रियाँ और ये रत्‍न-सब तुम्‍हारे अधीन हैं। शत्रुसूदन! अब मैं निश्चिन्‍त होकर अपने इन प्‍यारे प्राणों का परित्‍याग करूँगा।।२८।
 इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसल पर्व में अर्जुन और वसुदेव का संवाद विषयक छठा अध्‍याय पूरा हुआ।________________  

महाभारत: मौसल पर्व: सप्‍तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

महाभारत: मौसल पर्व: सप्‍तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद वसुदेव जी तथा मौसल युद्ध में मरे हुए यादवों का अन्‍त्‍येष्टि संस्‍कार करके अर्जुन का द्वारकावासी स्‍त्री-पुरुषों को अपने साथ ले जाना, समुद्र का द्वारका को डुबो देना और मार्ग में अर्जुन पर डाकुओं का आक्रमण, अवशिष्ट यादवों को अपनी राजधानी में बसा देना।

 वैशम्पायन जी कहते हैं- परंतप! अपने मामा वसुदेव जी के ऐसा कहने पर अर्जुन मन-ही-मन बहुत दु:खी हुए। उनका मुख मलिन हो गया। वे वसुदेव जी से इस प्रकार बोले।।-१।।

 "मामा जी! वृष्णि वंश के प्रमुख वीर भगवान श्रीकृष्‍ण तथा अपने भाइयों से हीन हुई यह पृथ्‍वी मुझसे अब किसी तरह देखी नहीं जा सकेगी।२।

 राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, पांडव सहदेव, नकुल, द्रौपदी तथा मैं- ये छ: व्‍यक्ति एक ही हृदय रखते हैं। (इनमें से कोई भी अब यहाँ नहीं रहना चाहेगा)। ३।

राजा युधिष्ठिर के भी परलोक-गमन का समय निश्चय ही आ गया है। कालों में श्रेष्ठ मामा जी! यह वही काल प्राप्‍त हुआ है, ऐसा समझें। ४।

शत्रुदमन! अब मैं वृष्णि वंश की स्त्रियों, बालकों और बूढ़ों को अपने साथ ले जाकर इन्द्रप्रस्थ पहुँचाऊँगा।५।

" मामा से यों कहकर अर्जुन ने दारुक से कहा- "अब मैं वृष्णिवंशी वीरों के मन्त्रियों से शीघ्र मिलना चाहता हूँ।"६

 ऐसा कहकर शुरवीर अर्जुन यादव महारथियों के लिये शोक करते हुए यादवों की सुधर्मा नामक सभा में प्रविष्ट हुए।७

 वहाँ एक सिंहासन पर बैठे हुए अर्जुन के पास मन्त्री आदि समस्‍त प्रकृति वर्ग के लोग तथा वेदवेत्ता ब्राह्मण आये और उन्‍हें सब ओर से घेरकर पास ही बैठ गये।८।।

 उन सबके मन में दीनता छा गयी थी। 

सभी किंकर्तव्‍यविमूढ़ एवं अचेत हो रहे थे। अर्जुन की दशा तो उनसे भी अधिक दयनीय थी। वे उन सभासदों से समयोचित वचन बोले-९।।

 "मन्त्रियों! मैं वृष्णि और अन्धक वंश के लोगों को अपने साथ इन्‍द्रप्रस्‍थ ले जाऊँगा; क्‍योंकि समुद्र अब इस सारे नगर को डुबो देगा; अत: तुम लोग तरह-तरह के वाहन और रत्‍न लेकर तैयार हो जाओ। इन्‍द्रप्रस्‍थ में चलने पर ये श्रीकृष्‍ण-पौत्र वज्र तुम लोगों के राजा बनाये जायेंगे। ।११-१२।

आज के सातवें दिन निर्मल सूर्योदय होते ही हम सब लोग इस नगर से बाहर हो जायेंगे। इसलिये सब लोग शीघ्र तैयार हो जाओ, विलम्‍ब न करो। १२।।

" अनायास ही महान कर्म करने वाले अर्जुन के इस प्रकार आज्ञा देने पर समस्‍त मन्त्रियों ने अपनी अभीष्‍ट-सिद्धि के लिये अत्‍यन्‍त उत्‍सुक होकर शीघ्र ही तैयारी आरम्‍भ कर दी। १३।।

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्‍ण के महल में ही उस रात को निवास किया। वे वहाँ पहुँचते ही सहसा महान शोक और मोह में डूब गये। १४।।

सबेरा होते ही महातेजस्‍वी शूरनन्‍दन प्रतापी वसुदेव जी ने अपने चित्त को परमात्मा में लगाकर योग के द्वारा उत्तम गति प्राप्‍त की। १५।।

फिर तो वसुदेव जी के महल में बड़ा भारी कोहराम मचा। रोती चिल्लाती हुई स्त्रियों का आर्तनाद बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। १६।।

उन सबके बाल खुले हुए थे। उन्‍होंने आभूषण और मालाएँ तोड़कर फेंक दी थीं और वे सारी स्त्रियाँ अपने हाथों से छाती पीटती हुई करुणाजनक विलाप कर रही थीं।१७।।

 युवतियों में श्रेष्ठ देवकी, भद्रा, रोहिणी तथा मदिरा- ये सब-की-सब अपने पति के साथ चिता पर आरूढ़ होने को उद्यत हो गयीं।१८

  
महाभारत: मौसल पर्व: सप्‍तम अध्याय: श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद :-
भारत! तदनन्‍तर अर्जुन ने एक बहुमूल्‍य विमान सजाकर उस पर वसुदेव जी के शव को सुलाया और मनुष्‍यों के कंधों पर उठवाकर वे उसे नगर से बाहर ले गये। १९।।

उस समय समस्‍त द्वारकावासी तथा आनर्त जनपद के लोग जो यादवों के हितैषी थे, वहाँ दु:ख-शोक में मग्‍न होकर वसुदेव जी के शव के पीछे-पीछे गये।२०।।

 उनकी अर्थी के आगे-आगे अश्वमेध यज्ञ में उपयोग किया हुआ छत्र तथा अग्निहोत्र की प्रज्‍वलित अग्नि लिये याजक ब्राह्मण चल रहे थे।२१।।

 वीर वसुदेव जी की पत्नियाँ वस्‍त्र और आभूषणों से सज-धजकर हज़ारों पुत्रवधुओं तथा अन्‍य स्त्रियों के साथ अपने पति की अर्थी के पीछे-पीछे जा रही थीं।२२
 महात्‍मा वसुदेव जी को अपने जीवन काल में जो स्‍थान विशेष प्रिय था, वहीं ले जाकर अर्जुन आदि ने उनका 'पितृमेध कर्म' (दाह संस्‍कार) किया।२३।।
 चिता की प्रज्‍वलित अग्नि में सोये हुए वीर शूरपुत्र वसुदेव जी के साथ उनकी पूर्वोक्‍त चारों पत्नियाँ भी चिता पर जा बैठीं और उन्‍हीं के साथ भस्‍म हो पतिलोक को प्राप्‍त हुईं।२४।
 चारों पत्नियों से संयुक्‍त हुए वसुदेव जी के शव का पांडुनन्‍दन अर्जुन ने चन्‍दन की लकड़ियों तथा नाना प्रकार के सुगन्धित पदार्थों द्वारा दाह किया।२५।
 उस समय प्रज्‍वलित अग्नि चट-चट शब्‍द, सामगान करने वाले ब्राह्मणों के वेद मन्‍त्रोंच्‍चारण का गम्‍भीर घोष तथा रोते हुए मनुष्‍यों का आर्तनाद एक साथ ही प्रकट हुआ।।२६।।
 इसके बाद वज्र आदि वृष्णि और अन्धक वंश के कुमारों तथा स्त्रियों ने महात्‍मा वसुदेव जी को जलांजलि दी। २७
भरतश्रेष्‍ठ! अर्जुन ने कभी धर्म का लोप नहीं किया था। वह धर्मकृत्‍य पूर्ण कराकर अर्जुन उस स्‍थान पर गये, जहाँ वृष्णियों का संहार हुआ था। २८।
उस भीषण मारकाट में मरकर धराशायी हुए यादवों को देखकर कुरुकुलनन्‍दन अर्जुन को बड़ा भारी दु:ख हुआ।२९।। 
उन्‍होंने ब्रह्मशाप के कारण एरका से उत्‍पन्‍न हुए मूसलों द्वारा मारे गये यदुवंशी वीरों के बड़े-छोटे के क्रम से सारे समयोचित कार्य (अन्‍त्‍येष्टि कर्म) सम्‍पन्‍न किये।-३०।
 तदनन्‍तर विश्वस्‍त पुरुषों द्वारा बलराम तथा वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण दोनों के शरीरों की खोज कराकर अर्जुन ने उनका भी दाह संस्‍कार किया।३१
 पांडुनन्‍दन अर्जुन उन सबके प्रेतकर्म विधिपूर्वक सम्‍पन्‍न करके तुरन्‍त रथ पर आरूढ़ हो सातवें दिन द्वारका से चल दिये।३२।
 उनके साथ घोडे़, बैल, गधे और ऊंटों से जुते हुए रथों पर बैठकर शोक से दुर्बल हुई वृष्णिवंशी वीरों की पत्नियाँ रोती हुई चलीं। उन सबने पांडुपुत्र महात्‍मा अर्जुन का अनुगमन किया।(३३-१/२)
अर्जुन की आज्ञा से अन्धकों और वृष्णिवंशियों के नौकर, घुड़सवार रथी तथा नगर और प्रान्‍त के लोग बूढे़ और बालकों से युक्‍त विधवा स्त्रियों को चारों ओर से घेरकर चलने लगे। ३४-३५।।
हाथी सवार पर्वताकार हाथियों द्वारा गुप्‍त रूप से अस्त्र-शस्त्र धारण किये यात्रा करने लगे। उनके साथ हाथियों के पादरक्षक भी थे।३६।
 अन्‍धक और वृष्णि वंश के समस्‍त बालक अर्जुन के प्रति श्रद्धा रखने वाले थे। वे तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, महाधनी शूद्र ।३७।
और भगवान श्रीकृष्‍ण की सोलह हज़ार स्त्रियाँ- ये सब-की-सब बुद्धिमान श्रीकृष्‍ण के पौत्र वज्र को आगे करके चल रहे थे। ३८।
भोज, वृष्णि और अन्‍धक कुल की अनाथ स्त्रियों की संख्‍या कई हज़ारों, लाखों और अरबों तक पहुँच गयी थी।३९।
 वे सब द्वारकापुरी से बाहर निकलीं। वृष्णियों का वह महान समृद्धिशाली मण्‍डल महासागर के समान जान पड़ता था। शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन उसे अपने साथ लेकर चले।४०।
महाभारत: मौसल पर्व: सप्‍तम अध्याय: श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद:-उस जनसमुदाय के निकलते ही मगरों और घड़ियालों के निवास स्‍थान समुद्र ने रत्‍नों से भरी-पूरी द्वारका नगरी को जल से डुबो दिया। ४१।
पुरुषसिंह अर्जुन ने उस नगर का जो-जो भाग छोड़ा, उसे समुद्र ने अपने जल से अप्‍लावित कर दिया। ४२।
यह अद्भुत दृश्‍य देखकर द्वारकावासी मनुष्‍य बड़ी तेजी से चलने लगे। उस समय उनके मुख से बारंबार यही निकलता था कि "दैव की लीला विचित्र है।"४३।।

 अर्जुन रमणीय काननों, पर्वतों और नदियों के तट पर निवास करते हुए वृष्णि वंश की स्त्रियों को ले जा रहे थे। ।४४।।

चलते-चलते बुद्धिमान एवं सामर्थ्‍यशाली अर्जुन ने अत्‍यन्‍त समृद्धिशाली पंचनद देश में पहुँचकर जो गोप शुद्ध अन्न , (पशु तथा धन-धान्‍य) से सम्‍पन्‍न था, ऐसे प्रदेश में पड़ाव डाला।४५।।

 भरतनन्‍दन! एक मात्र अर्जुन के संरक्षण में ले जायी जाती हुई इतनी अनाथ स्त्रियों को देखकर वहाँ रहने-वाले लुटेरों के मन में लोभ पैदा हुआ। ४६।।
लोभ से उनके चित्त की विवेकशक्ति नष्‍ट हो गयी। उन अशुभदर्शी पापाचारी आभीरों ने परस्‍पर मिलकर सलाह की। ४७।।
"भाइयों! देखो, यह अकेला धनुर्धर अर्जुन और ये हतोत्‍साह सैनिक हम लोगों को लांघकर वृद्धों और बालकों के इस अनाथ समुदाय को लिये जा रहे हैं। (अत: इन पर आक्रमण करना चाहिये)।४८।।
ऐसा निश्चय करके लूट का माल उड़ाने वाले वे लट्ठधारी लुटेरे वृष्णिवंशियों के उस समुदाय पर हज़ारों की संख्‍या में टूट पड़े।४९।।

 समय के उलटफेर से प्रेरणा पाकर वे लुटेरे उन सबके वध के लिये उतारू हो अपने महान सिंहनाद से साधारण लोगों को डराते हुए उनकी ओर दौडे़। ५०।।

आक्रम‍णकारियों को पीछे की ओर से धावा करते देख कुन्‍तीकुमार महाबाहु अर्जुन सेवकों सहित सहसा लौट पड़े और उनसे हंसते हुए-से बोले-५१।।
 "धर्म को न जानने वाले पापियों! यदि जीवित रहना चाहते हो तो लौट जाओ; नहीं तो मेरे द्वारा मारे जाकर या मेरे बाणों से विदीर्ण होकर इस समय तुम बड़े शोक में पड़ जाओगे। ५२।।
" वीरवर अर्जुन के ऐसा कहने पर उनकी बातों की अवहेलना करके वे मूर्ख अहीर उनके बारंबार मना करने पर भी उस जनसमुदाय पर टूट पड़े।५३
 तब अर्जुन ने अपने दिव्‍य एवं कभी जीर्ण न होने वाले विशाल धनुष गाण्‍डीव को चढ़ाना आरम्‍भ किया और बड़े प्रयत्‍न से किसी तरह उसे चढ़ा दिया। ५४।।
भयंकर मार-काट छिड़ने पर बड़ी कठिनाई से उन्‍होंने धनुष पर प्रत्‍यंचा तो चढ़ा दी; परंतु जब वे अपने अस्त्र-शस्त्रों का चिन्‍तन करने लगे, तब उन्‍हें उनकी याद बिल्‍कुल नहीं आयी। ५५।।
युद्ध के अवसर पर अपने बाहुबल में यह महान विकार आया देख और महान दिव्यास्त्रों का विस्‍मरण हुआ जान अर्जुन लज्जित हो गये। हाथी, घोड़े और रथ पर बैठकर युद्ध करने वाले समस्‍त वृष्णि सैनिक भी उन डाकुओं के हाथ में पड़े हुए अपने मनुष्‍यों को लौटा न सके।५७।।
 उस समुदाय में स्त्रियों की संख्‍या बहुत थी; इसलिये डाकू कई ओर से धावा करने लगे तो भी अर्जुन उनकी रक्षा का यथासाध्‍य प्रयत्न करते रहे।५८।।
 सब योद्धाओं के देखते-देखते वे डाकू उन सुन्‍दरी स्त्रियों को चारों ओर से खींच-खींचकर ले जाने लगे। दूसरी स्त्रियाँ उनके स्‍पर्श के भय से उनकी इच्‍छा के अनुसार चुपचाप उनके साथ चली गयीं।५९।।
 तब कुन्‍तीकुमार अर्जुन उद्विग्‍न होकर सहस्रों वृष्णि सैनिकों को साथ ले गाण्‍डीव धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा उन लुटेरों के प्राण लेने लगे।६०।।

महाभारत: मौसल पर्व: सप्‍तम अध्याय: श्लोक 61-76 का हिन्दी अनुवाद राजन! अर्जुन के सीधे जाने वाले बाण क्षणभर में क्षीण हो गये। जो रक्‍तभोगी बाण पहले अक्षय थे, वे ही उस समय सर्वथा क्षय को प्राप्‍त हो गये।६१।
 बाणों के समाप्‍त हो जाने पर दु:ख और शोक से आघात सहते हुए इन्‍द्रकुमार अर्जुन धनुष की नोक से ही उन डाकुओं का वध करने लगे। ६२।
जनमेजय! अर्जुन देखते ही रह गये और वे म्‍लेच्‍छ डाकू सब ओर से वृष्णि और अन्‍धक वंश की सुन्‍दरी स्त्रियों को लूट ले गये।६३।।
 प्रभावशाली अर्जुन ने मन-ही-मन इसे दैव का विधान समझा और दु:ख-शोक में डूबकर वे लंबी साँस लेने लगे। ६४
अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान लुप्‍त हो गया। भुजाओं का बल भी घट गया। धनुष भी काबू के बाहर हो गया और अक्षय बाणों का भी क्षय हो गया। इन सब बातों से अर्जुन का मन उदास हो गया। वे इन सब घटनाओं को दैव का विधान मानने लगे। ६५-१/२।

तदनन्‍तर अर्जुन युद्ध से निवृत्त हो गये और बोले- "यह अस्त्र ज्ञान आदि कुछ भी नित्‍य नहीं है।६६।

" फिर अपहरण से बची हुई स्त्रियों और जिनका अधिक भाग लूट लिया गया था, ऐसे बचे-खुचे रत्‍नों को साथ लेकर परम बुद्धिमान अर्जुन कुरुक्षेत्र में उ‍तरे।६७।

 इस प्रकार अपहरण से बची हुई वृष्णि वंश की स्त्रियों को ले आकर कुरुनन्‍दन अर्जुन ने उनको जहाँ-तहाँ बसा दिया। ६८।

कृतवर्मा के पुत्र को और भोजराज के परिवार की अपहरण से बची हुई स्त्रियों को नरश्रेष्ठ अर्जुन ने मार्तिकावत नगर में बसा दिया। ६९।

तत्पश्चात वीरविहीन समस्‍त वृद्धों, बालकों तथा अन्‍य स्त्रियों को साथ लेकर वे इन्द्रप्रस्थ आये और उन सबको वहाँ का निवासी बना दिया। ७०।

धर्मात्‍मा अर्जुन ने सात्‍यकि के प्रिय पुत्र यौयुधानि को सरस्वती के तटवर्ती देश का अधिकारी एवं निवासी बना दिया और वृद्धों तथा बालकों को उसके साथ कर दिया।।।७१।

 इसके बाद शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने वज्र को इन्‍द्रप्रस्‍थ का राज्‍य दे दिया। अक्रूर जी की स्त्रियाँ वज्र के बहुत रोकने पर भी वन में तपस्‍या करने के लिये चली गयीं। ७२।

रुक्मिणी, गांधारी, शैव्या, हैमवती तथा जाम्बवती देवी ने पतिलोक की प्राप्ति के लिये अग्नि में प्रवेश किया।७३।
 राजन! श्रीकृष्‍णप्रिया सत्‍यभामा तथा अन्य देवियाँ तपस्‍या का निश्चय करके वन में चली गयीं।७४।

 जो-जो द्वारकावासी मनुष्‍य पार्थ के साथ आये थे, उन सबका यथायोग्‍य विभाग करके अर्जुन ने उन्‍हें वज्र को सौंप दिया।७५।

 इस प्रकार समयोचित व्‍यवस्‍था करके अर्जुन नेत्रों से आँसू बहाते हुए महर्षि व्यास के आश्रम पर गये और वहाँ बैठे हुए महर्षि का उन्‍होंने दर्शन किया। ७६।


इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसल पर्व में अर्जुन द्वारा वृष्णिवंश की स्त्रियों और बालकों का आनयन विषयक सातवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।_______________________________________

महाभारत: मौसल पर्व: अष्‍टम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद :-अर्जुन और व्‍यास जी की बातचीत वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! सत्‍यवादी व्यास जी के आश्रम में प्रवेश करके अर्जुन ने देखा कि सत्‍यवतीनन्‍दन मुनिवर व्यास एकान्‍त में बैठे हुए हैं।१।

महान व्रतधारी तथा धर्म के ज्ञाता व्यास जी के पास पहुँचकर "मैं अर्जुन हूँ" ऐसा कहते हुए धनंजय ने उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर वे उनके पास ही खड़े हो गये। २ ।

उस समय प्रसन्नचित्त हुए महामुनि सत्‍यवतीनन्‍दन व्यास ने अर्जुन से कहा- "बेटा! तुम्‍हारा स्‍वागत है; आओ यहाँ बैठों।३।।

" अर्जुन का मन अशान्‍त था। वे बारंबार लंबी साँस खींच रहे थे। उनका चित्त खिन्‍न एवं विरक्त हो चुका था। उन्‍हें इस अवस्‍था में देखकर व्यास जी ने पूछा- ४।।
"पार्थ! क्‍या तुमने नख, बाल अथवा अधोवस्‍त्र (धोती) की कोर पड़ जाने से अशुद्ध हुए घड़े के जल से स्‍नान कर लिया है? इसके अथवा तुमने रजस्‍वला स्‍त्री से समागम या किसी ब्राह्मण का वध तो नहीं किया है?।५।

 कहीं तुम युद्ध में परास्‍त तो नहीं हो गये ? क्‍योंकि श्रीहीन-से दिखायी देते हो। भरतश्रेष्ठ! तुम कभी पराजित हुए हो, यह मैं नहीं जानता; फिर तुम्‍हारी ऐसी दशा क्‍यों है? पार्थ! यदि मेरे सुनने योग्‍य हो तो अपनी इस मलिनता का कारण मुझे शीघ्र बताओ।६-१/२।।

" अर्जुन ने कहा- "भगवन! जिनका सुन्‍दर विग्रह मेघ के समान श्‍याम था और जिनके नेत्र विशाल कमलदल के समान शोभा पाते थे, वे श्रीमान भगवान कृष्ण बलराम जी के साथ देहत्‍याग करके अपने परमधाम को पधार गये। ७ -१/२ ।
देवताओं के भी देवता, अमृतस्‍वरूप श्रीकृष्‍ण के मधुर वचनों को सुनने, उनके श्रीअंगों का स्‍पर्श करने और उन्‍हें देखने का जो अमृत के समान सुख था, उसे बार-बार याद करके मैं अपनी सुध-बुध खो बैठता हूँ। ८-(१/२)

ब्राह्मणों के शाप से मौसल युद्ध में वृष्णिवंशी वीरों का विनाश हो गया। बड़े-बड़े वीरों का अन्‍त कर देने वाला वह रोमाञ्चकारी संग्राम प्रभास क्षेत्र में घटित हुआ था। ब्रह्मन! भोज, वृष्णि और अन्‍धक वंश के ये महामनस्‍वी शूरवीर सिंह के समान दर्पशाली और महान बलवान थे; परन्‍तु वे गृहयुद्ध में एक-दूसरे के द्वारा मार डाले गये। ९-१/२।

जो गदा, परिघ और शक्तियों की मार सह सकते थे, वे परिघ के समान सुदृढ़ बाहों वाले यदुवंशी एरका नामक तृणविशेष के द्वारा मारे गये, यह समय का उलटफेर तो देखिये।१०।

 अपने बाहुबल से शोभा पाने वाले पाँच लाख वीर आपस में ही लड़-भिड़कर मर मिटे।११-१/२
 उन अमित तेजस्‍वी वीरों के विनाश का दु:ख मुझसे किसी तरह सहा नहीं जाता।  

मैं बार-बार उस दु:ख से व्‍यथित हो जाता हूँ। यशस्वी श्रीकृष्‍ण और यदुवंशियों के परलोकगमन की बात सोचकर। १२।

 तो मुझे ऐसा जान पड़ता है, मानो समुद्र सूख गया, पर्वत हिलने लगे,।१३-।

 (पतन)-आकाश फट पडा और अग्नि के स्‍वभाव में शीतलता आ गयी। शांर्ग धनुष धारण करने वाले श्रीकृष्‍ण भी मृत्‍यु के अधीन हुए होंगे, यह बात विश्‍वास के योग्‍य नहीं है। मैं इसे नहीं मानता।  फिर भी श्रीकृष्‍ण मुझे छोड़कर चले गये। १४।

 मैं इस संसार में उनके बिना नहीं रहना चाहता। तपोधन! इसके सिवा जो दूसरी घटना घटित हुई है, वह इससे भी अधिक कष्‍टदायक है आप इसे सुनिये।"१५।

टिप्पणी:-पत--भावे ल्युट् :- पतनं १ अधःसंयोगानुकूलस्पन्दने ३ पातित्ये च “द्विजातिकर्मभ्योहानिः पतनम् । परत्र चासिद्धिस्तमेके नरकम्” गौतमः । पतितशब्दे दृष्यम् “विहितस्याननुष्ठानात् निन्दितस्य च सेवनात् । अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति” ।
से भी पतन का अर्थ गिरना है  न कि फटना 

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महाभारत: मौसल पर्व: अष्‍टम अध्याय: श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद :-"जब मैं उस घटना का चिन्‍तन करता हूँ, तब बारंबार मेरा हृदय विदीर्ण होने लगता है। ब्रह्मन ! पंजाब के अहीरों ने मुझसे युद्ध ठानकर मेरे देखते-देखते वृष्णि वंश की हज़ारों स्त्रियों का अपहरण कर लिया।१६-१/२।

 मैंने धनुष लेकर उनका सामना करना चाहा, परंतु मैं उसे चढ़ा न सका। मेरी भुजाओं में पहले जैसा बल था, वैसा अब नहीं रहा। १७-१/२।

महामुने! मेरा नाना प्रकार के अस्त्रों का ज्ञान विलुप्‍त हो गया। मेरे सभी बाण सब ओर जाकर क्षणभर में नष्‍ट हो गये। १८।

जिनका स्‍वरूप अप्रमेय है, जो शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले,१९।

 चतुर्भुज, पीताम्‍बरधारी, श्‍यामसुन्‍दर तथा कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, जो महातेजस्‍वी प्रभु शत्रुओं की सेनाओं को भस्‍म करते हुए मेरे रथ के आगे-आगे चलते थे, ।२०।

 उन्‍हीं भगवान अच्युत को अब मैं नहीं देख पाता हूँ।  ।१/२।

साधुशिरोमणे! जो पहले स्‍वयं ही अपने तेज से शत्रुसेनाओं को दग्‍ध कर देते थे, ।२१।-

 उसके बाद मैं गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा उन शत्रुओं का नाश करता था, उन्‍हीं भगवान को आज न देखने के कारण मैं विषाद में डूबा हुआ हूँ। मुझे चक्‍कर-सा आ रहा है। -२२।

मेरे चित्त में निर्वेद छा गया है। मुझे शान्ति नहीं मिलती है। मैं देवस्‍वरूप, अजन्‍मा, भगवान देवकीनन्‍दन वासुदेव वीर जनार्दन के बिना अब जीवित रहना नहीं चाहता। २३।
सर्वव्‍यापी भगवान श्रीकृष्‍ण अन्‍तर्धान हो गये, यह बात सुनते ही मुझे सम्‍पूर्ण दिशाओं का ज्ञान भूल जाता है। मेरे भी जाति-भाइयों का नाश तो पहले ही हो गया था, अब मेरा पराक्रम भी नष्‍ट हो गया; अत: शून्‍यहृदय होकर इधर-उधर दौड़ लगा रहा हूँ। 

संतों में श्रेष्ठ महर्षे! आप कृपा करके मुझे यह उपदेश दें कि मेरा कल्‍याण कैसे होगा? २४-१/२।

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व्यास जी बोले- "कुन्तीकुमार! वे समस्‍त यदुवंशी देवताओं के अंश थे। वे देवाधिदेव श्रीकृष्‍ण के साथ ही यहाँ आये थे और साथ ही चले गये। उनके रहने से धर्म की मर्यादा के भंग होने का डर था; अत: भगवान श्रीकृष्‍ण ने धर्म-व्‍यवस्‍था की रक्षा के लिये उन मरते हुए यादवों की उपेक्षा कर दी। (दक्षिणात्य पाठ)
कुरुश्रेष्ठ! वृष्णि और अन्धक वंश के महारथी ब्राह्मणों के शाप से दग्ध होकर नष्‍ट हुए हैं; ।२५।

 अत: तुम उनके लिये शोक न करो। उन महामनस्‍वी वीरों की भवितव्‍यता ही ऐसी थी। उनका प्रारब्‍ध ही वैसा बन गया था।२६।

 यद्यपि भगवान श्रीकृष्‍ण उनके संकट को टाल सकते थे तथापि उन्‍होंने इसकी उपेक्षा कर दी। श्रीकृष्‍ण तो सम्‍पूर्ण चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों की गति को पलट सकते हैं, फिर उन महामनस्‍वी वीरों को प्राप्‍त हुए शाप को पलट देना उनके लिये कौन बड़ी बात थी।३७-१/२।


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महाभारत: मौसल पर्व: अष्‍टम अध्याय: श्लोक 28-38 का हिन्दी अनुवाद:-(तुम्‍हारे देखते-देखते स्त्रियों का जो अपहरण हुआ है, उसमें भी देवताओं का एक रहस्‍य है।) 


वे स्त्रियाँ पूर्वजन्‍म में अप्‍सराएँ थीं। उन्‍होंने अष्टावक्र मुनि के रूप का उपहास किया था। मुनि ने शाप दिया था (कि "तुम लोग मानवी हो जाओ और दस्‍युओं के रूप में गोपों  के हाथ में पड़ने पर तुम्‍हारा इस शाप से उद्धार होगा ")

 इसीलिये तुम्‍हारे बल का क्षय हुआ (जिससे वे डाकुओं के हाथ में पड़कर उस शाप से छुटकारा पा जायें), (अब वे अपना पूर्वरूप और स्‍थान पा चुकी हैं, अत: उनके लिये भी शोक करने की आवश्‍यकता नहीं है।)-( दक्षिणात्यपाठ)

जो स्‍नेहवश तुम्‍हारे रथ के आगे चलते थे (सारथि का काम करते थे), वे वासुदेव कोई साधारण पुरुष नहीं, साक्षात चक्र-गदाधारी पुरातन ऋषि चतुर्भुज नारायण थे।।२८-१/२।

 वे विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण इस पृथ्‍वी का भार उतारकर शरीर त्याग अपने उत्तम धाम को जा पहुँचे हैं। २९-१/२।

पुरुषप्रवर!  महाबाहो ! तुमने भी भीमसेन और नकुल-सहदेव की सहायता से देवताओं का महान कार्य सिद्ध किया है। ३०।
कुरुश्रेष्ठ! मैं समझता हूँ कि अब तुम लोगों ने अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया है। तुम्‍हें सब प्रकार से सफलता प्राप्‍त हो चुकी है। प्रभो! अब तुम्हारे परलोकगमन का समय आया है और यही तुम लोगों के लिये श्रेयस्‍कर है। ३१-१/२।

भरतनन्‍दन! जब उद्भव का समय आता है, तब इसी प्रकार मनुष्‍य की बुद्धि, तेज और ज्ञान का विकास होता है और जब विपरीत समय उपस्थित होता है, तब इन सब का नाश हो जाता है। ३२-१/२।

धनंजय! काल ही इन सबकी जड़ है। संसार की उत्‍पत्ति का बीज भी काल ही है और काल ही फिर अकस्‍मात सबका संहार कर देता है। ३३-१/२।

व‍ही बलवान होकर फिर दुर्बल हो जाता है और वही एक समय दूसरों का शासक होकर कालान्‍तर में स्‍वयं दूसरों का आज्ञापालक हो जाता है।३४-१/२।

 तुम्‍हारे अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोजन भी पूरा हो गया है; इसलिये वे जैसे मिले थे, वैसे ही चले गये। जब उपयुक्‍त समय होगा, तब वे फिर तुम्‍हारे हाथ में आयेंगे।३५-१/२।

भारत ! अब तुम लोगों के उत्तम गति प्राप्‍त करने का समय उपस्थित है। भरतश्रेष्‍ठ! मुझे इसी में तुम लोगों का परम कल्‍याण जान पड़ता है।"३६-१/२।

 वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अमित तेजस्‍वी व्यास जी के इस वचन का तत्त्व समझकर अर्जुन उनकी आज्ञा ले हस्तिनापुर को चले गये।३७- १/२।

नगर में प्रवेश करके वीर अर्जुन युधिष्ठिर से मिले और वृष्णि तथा अन्‍धक वंश का यथावत समाचार उन्‍होंने कह सुनाया।३८।

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 इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसल पर्व में व्‍यास और अर्जुन का संवाद विषयक आठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।      (मौसल पर्व सम्पूर्ण )
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  प्रस्तुतिकरण :-यादव योगेश कुमार "रोहि"

ग्राम :-आजादपुर 

जनपद :-अलीगढ़ उत्तर-प्रदेश

सम्पर्क सूत्र:-8077160219-



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