शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

व्रज

व्रज शब्द के अर्थ का काल क्रमानुसार ही विकास हुआ है। वेदों में जहाँ इसका प्रयोग ‘गोष्ठ’-'गो-स्थान’ जैसे लघु स्थल के लिये होता था।
 वहाँ पौराणिक काल में ‘गोप-बस्ती’ जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये किया जाने लगा। 
यद्यपि व्रज का मूल अर्थ गायों का बाड़ा या घेरा है जिसमें गाये रहती हैं ।
कालान्तर में अर्थ विस्तार भी हुआ अंग्रेजी का विलेज (village) भी व्रज का रूपांतरण है ।

भागवत में ‘ब्रज क्षेत्र' विशेष को इंगित करते हुए ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। 
उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है।
 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेश के अर्थ में होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तब उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था।
 उस समय मथुरा नगर ‘ब्रज’ में सम्मिलित नहीं माना जाता था।
 सूरदास तथा अन्य ब्रजभाषा कवियों ने ‘ब्रज’ और मथुरा का पृथक रूप में ही कथन किया है।

कृष्ण उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी सुविस्तृत हो गया था। 
उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा से प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे।
 वर्तमान काल में मथुरा नगर सहित मथुरा ज़िले का अधिकांश भाग तथा राजस्थान के डीग और काम्यवन का कुछ भाग, जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है।
 ब्रज संस्कृति और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है। 
उक्त समस्त भू-भाग के प्राचीन नाम, मधुवन, शूरसेन, मधुरा, मधुपुरी, मथुरा और मथुरा मंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या ब्रजमंडल हैं।
 यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में समय-समय पर अन्तर होता रहा है।
 इस भू-भाग की धार्मिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और सांंस्कृतिक परंपरा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है।

'व्रज' शब्द की परिभाषा
श्री शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोश में 'व्रज' शब्द की परिभाषा- प्रस्तुति 

व्रज्- एक धातु क्रिया का मूल है - (भ्वादिगण परस्मैपद व्रजति) व्रजः-(व्रज्+क)-1.जाना, चलना, प्रगति करना-नाविनीतर्व्रजद् धुर्यैः 
2.पधारना, पहुँचना, दर्शन करना-(
मामेकं शरणं ब्रज-भगवद्गीता)
3.विदा होना, सेवा से निवृत्त होना, पीछे हटना
4.(समय का) बीतना-इयं व्रजति यामिनी त्यज नरेन्द्र निद्रारसम् विक्रमांकदेवचरित।
अनु उपसर्ग पूर्वक अनुव्रज-
1.बाद में जाना, अनुगमन करना
2.अभ्यास करना, सम्पन्न करना
3.सहारा लेना,
आ-आना, पहुँचना,
परि-भिक्षु या साधु के रूप में इधर उधर घूमना, सन्न्यासी या परिव्राजक हो जाना,
1.निर्वासित होना,
2.संसारिक वासनाओं को छोड़ देना, चौथे आश्रम में प्रविष्ट होना, अर्थात् सन्न्यासी हो जाना
1.समुच्चय, संग्रह, रेवड़, समूह, नेत्रव्रजाःपौरजनस्य तस्मिन् विहाय सर्वान्नृपतीन्निपेतुः
2.ग्वालों के रहने का स्थान
3.गोष्ठ, गौशाला-शिशुपालवध 2।64
4.आवास, विश्रामस्थल
5.सड़क, मार्ग
6.बादल,
7.मथुरा के निकट एक ज़िला।

भौगोलिक स्थिति
आज जिसे हम ब्रज क्षेत्र मानते हैं, उसकी दिशाऐं, उत्तर दिशा में पलवल (हरियाणा), दक्षिण में  गोपलपुर ग्वालियर (मध्य प्रदेश), पश्चिम में भरतपुर (राजस्थान) और पूर्व में एटा (उत्तर प्रदेश) को छूती हैं।

ब्रजभाषा, रीति-रिवाज, पहनावा और ऐतिहासिक तथ्य इस सीमा के सहज आधार हैं।
मथुरा-वृन्दावन ब्रज के केन्द्र हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें