शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

नारी के बन्धन अवशेष -

पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप।
स्त्रियो यत्र च पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।।(13-81-5)

अपूजिताश्च यत्रैताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
तदा चैतत्कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः।।(13-81-6)


पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्चस्थाविरेभावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।।(13-81-14)

। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि 
दानधर्मपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81 ।।
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त्रिंशद्वर्षो दशवर्षां भार्यां विन्देत नग्निकाम्।
एकविंशतिवर्षो वा सप्तवर्षामवाप्नुयात्।।१४।
(महाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानपर्वधर्ममें 
विवाहधर्मकावर्णन विषयक चौ वाली वाँ अध्याय)

कन्‍या को, जो रजस्‍वला न हुई हो, पत्‍नी रूप में प्राप्‍त करे अथवा इक्‍कीस वर्ष का पुरुष सात वर्ष की कुमारी के साथ विवाह करे।१४।

मनुस्मृति में भी वर्णन है -

त्रिंशद्वर्षो वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् ।त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ।।
(9/94 मनुस्मृति)

9/90 श्लोक में मनु ने ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष तक विवाह का निषेध किया है और विवाह की आयु वर की 30 वर्ष और कन्या की 12 वर्ष, वर की 24 वर्ष और कन्या की आठ वर्ष का विधान भी मूढ़ता पूर्ण है ।

त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती ।ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम् ।। 
(मनुस्मृति 9/90)
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स्त्रीयों के विषय में धर्म-शास्त्र का विधान ---

असम ता मूलक वे असंवेदनात्मक था ।

पहले तो ऋषि स्त्रीयों से अपने शरीर की मालिश कराते थे ।
और -जब ऋण-धन आवेशों की प्रतिक्रिया स्वरूप
उत्तेजित हो स्खलित  जाते तो नारीयों की निन्दा करने लगते !


 इस में नारी का क्या दोष था ?

महाभारत के अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व बीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या -5540 पर👇
मुनि अष्टावक्र के माध्यम से महाभारत लिखने वाला  वर्णन करता है।
अनुज्ञाता च मुनिना सा स्त्री तेन महात्मना।
अथास्य तैलेनांगानि सर्वाण्येवाभ्यमृक्षत।। 2।

फिर महात्मा मुनि की आज्ञा लेकर उस स्त्री ने उनके सारे अंगों में  तेल की मालिश की।।2।

आगे वर्णन है कि स्त्रीयों को कभी स्वतन्त्र मत करो
वे हमेशा बन्धन में रहें यही धर्म-शास्त्रों का विधान है।

__________________________________________
पुरुष मानसिकता ने केवल स्त्रीयों की मर्यादाओं को लेकर --जो विधान बनाए वे पुरुषों की भावी उपभोग सुविधा को लक्ष्य करके बनाए गये।

मुझे तो ये लगता है कि स्त्रीयों के आभूषणों में भी उनके पूर्व कालिक बन्धन-श्रृखलाओं के स्वरूप ही विद्यमान हैं ।


असीरियन संस्कृति में तो इसकी झलक मिलती हैआभूषण नथ कुण्डल आदि इसके प्रतीक ही हैं ।कालान्तर में रूढ होकर ये ही स्त्रियों के श्रँगार बन गये ।


 ये आभूषण तो बाद में बन गये ये  ये स्त्रीयों के सौन्दर्य प्रसाधक हों  मुझे नहीं लगता ?

 क्यों सैमेटिक संस्कृतियों में स्त्री स्वतन्त्रता को यहूदियों ने तो सम्मान दिया परन्तु अरब में बन्दिशों के विधान या शरीयत ब्राह्मणों के स्मृति-ग्रन्थों के समान है ।


आभीर संस्कृति में स्त्रीयों की स्वतन्त्रता की रक्षा थी ।
उनकी हल्लीषम् नृत्य संस्कृति --जो कालान्तरण में यूनानीयों के प्रभाव से रास में परिवर्तित हुई ।


स्त्रीयों की ललितकलात्मक अभिव्यक्ति थी ।
जिसमें कामुकता का भाव कदापि नहीं था।

महिलाओं के आभूषणों में उनकी नथुनी और कुण्डल उनके बन्धनो के ध्वंषावषेश हैं 

अष्टावक्र के माध्यम से महाभारत कार कहता है ।

 कि- "स्वतन्त्रा त्वं कथं भद्रे ब्रूहि कारणमत्र वै ।
नास्ति त्रिलोके स्त्री काचिद् या वै स्वातन्त्र्यमर्हति।20।
भद्रे तुम स्वतन्त्र कैसे हो इसमें जो कारण हो वह बताओ तीनों लोकों में कोई ऐसी स्त्री नहीं जो स्वतन्त्र  रहने योग्य हो ।20।

महाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में पृष्ठ संख्या-5542 पर गीता प्रेस संस्करण ।
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पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे काले नास्ति स्त्रीणां स्वतन्त्रता।21।
      दौनों श्लोकों की तुलना करें !👇

मनु स्मृति में भी ये ही श्लोक हैं ।
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।               
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ||        - (मनुःस्मृति 9/3 अध्याय/श्लोक )

कुमार अवस्था में पिता रक्षा करते हैं, जवानी में वह पति के संरक्षण में रहती है और बुढ़ापे में पुत्र उसकी देखभाल करते हैं; इस प्रकार स्त्रियों के लिए स्वतन्त्रता नहीं है।21
मनुःस्मृति और महाभारत की रचना करने वाले समान लेखक रहे हैं ।


मनुःस्मृति में यह श्लोक - 9/3 अध्याय/श्लोक )
और इनका समय भी समान महात्मा बुद्ध का परवर्ती काल खण्ड ई०पू० द्वितीय सदी है ।
_________________________________________

अस्वतन्त्राः स्त्रियःकार्याःपुरुषैः स्वैर्दिवानिशम्  | 
विषयेषु च सज्जन्त्यः  संस्थाप्या  आत्मनो वशे   ||  (मनुःस्मृति 9/2अध्याय/श्लोक)

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।               
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति  ||        - (मनुःस्मृति 9/3 अध्याय/श्लोक )

भावार्थ :-मनुष्य स्त्रियों को स्वतन्त्रता कदापि न दे । विषयासक्त स्त्रियों को भी स्ववश में ही रखने का सतत प्रयत्न करे !

स्त्री कभी भी स्वतन्त्र नहीं रखने  योग्य है ।
बचपन में पिता , यौवन में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र  उसकी रक्षा करे ।

( उपर्युक्त दोनों श्लोक वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों के सन्दर्भों में
अपनी सार्थकता समाप्त कर चुके हैं ।
क्यों कि स्त्रीयों ने प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष से आगे बढ़कर दिखा दिया है ।

  ये श्लोक यही सिद्ध करते हैं कि विगत काल में
में हमारा पुरुष सत्तात्मक समाज था , तथा  स्त्रियों को आर्थिक और सामाजिक स्तर स्वतन्त्रता नहीं देता था ।
उन्हें पढ़ने कीभी अघिकार नहीं था । इसलिए वे गुलामी की जिन्द़गी जी रही थीं ।

फिर भी 'मनु:स्मृति' में तत्कालीन समाज
के नियमन के जो सूत्र है , उनमें अनेकानेक वर्तमान समय में भी उतने ही
सार्थक हैं जैसे वे पहले थे ।
अतः उसे एक  ऐतिहासिक ग्रन्थ के रूप में ले
कर उस से मार्गदर्शन  प्राप्त कर सकते हैं )
महाभारत और मनुःस्मृति समान लेखकों के समूह की रचनाऐं हैं।
और इनका समय ई०पू० द्वितीय सदी है ।

महाभारत कार यहीं तक नहीं ठहरा  उसने भीष्म के माध्यम से स्त्रीयों के विषय में वर्णन किया है ।👇

भीष्म जी ने कहा राजन इस विषय में देवर्षि नारद का अप्सरा पंचकूला के साथ जो संवाद हुआ था !
उसी प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है पहले की बात है संपूर्ण लोकों में विचरतेे हुए देवर्षि नारद ने एक दिन ब्रह्मलोक की अत्यंत सुंदर अप्सरा पंचकूला को देखा और कहा !
क्या कहा देखें--- नीचे
'महा भारत में वर्णन है 👇
दृष्टं स्त्रीचापलं च ते
स्थविराणामापि स्त्रीणां बाधते मैथुन ज्वर:।5।
( स्त्रीयाँ बूढ़ी हो जाने पर भी मैथुन ज्वर से पीड़ित रहती हैं।
वस्तुत "कामीस्वतां पश्यति "
अर्थात्‌ कामी भोगी रोगी अपने समान सबको देखता है
उसी सिद्धान्त के अनुसार इन ब्राह्मणों ने महिलाओं की निन्दा की

महाभारत के अनुशासनपर्व  के अड़तीसवें अध्याय को स्त्रीनिन्दा पर्व कहना उचित होगा।

स्त्रीणां स्वभावमिच्छामि श्रोतुं भारतसत्तम।
स्त्रीयो हि मूलं दोषाणां लघुचित्ता हि ता: स्मृता ।1।

युधिष्ठर ने कहा - भरत -श्रेष्ठ ! मैं स्त्रीयों के स्वभाव का वर्णन सुनना चाहता हूँ।

क्यों कि सारे दोषों की जड़ स्त्रियां ही हैं ।1।
--जो युधिष्ठर द्रोपदी को जुए में हार कर भी स्त्रीयों को सारे दोषों की जड़ कहता हो ।
ये बात कितनी औचित्य पूर्ण है !
विचार करना चाहिए!
आगे महाभारत में वर्णन है👇

न स्त्रीभ्य: किञ्चिदन्यद् वै पापीयस्तरमस्ति वै ।
स्त्रीयो हि मूलं दोषाणां तथा त्वमपि वेत्थ ह ।12।

स्त्रियों से बढ़कर कोई पापी दूसरा नहीं है स्त्रियां सारे दोषों की जड़ है इस बात को आप भी अच्छी तरह जानते हैं।12।

असद्धर्मस्त्वयं स्त्रीणामस्माकं भवति प्रभो।
पापीयसो नरान् यद् वै लज्जां त्यक्त्वा भजामहे।14।

प्रभु हम स्त्रियों में यह सबसे बड़ा पाठक है कि हम पापी से पापी पुरुषों को भी ला छोड़ कर स्वीकार कर लेती हैं

स्त्रियं हि य: प्रार्थयते संनिकर्षं च गच्छति।
ईषच्च कुरुते सेवां तमेवेछन्ति योषित: ।15।

जो पुरुष किसी स्त्री को चाहता है उसके निकट तक पहुंचता है और उसकी थोड़ी सी सेवा कर देता है उसी को युवतियाँ चाहने लगती हैं

यौवने वर्तमानानां मृष्टाभरणवाससाम्।
नारीणां स्वा़ैरवृत्तीनां स्पृहयन्ति कुलस्त्रिय: ।19

जो जवान है सुंदर गहने और अच्छे कपड़े पहनते हैं ऐसी स्वेच्छाचारी स्त्रियों के चरित्र को देखकर कितनी ही कुलपति स्त्रियां भी वैसी ही बनने की इच्छा करने लगती हैं।

याश्च शश्वद् बहुमता रक्ष्यन्ते दयिता स्त्रिय: ।
अपि ता: सम्प्रज्जन्ते कुब्जान्धजडवामनै:।20।

जो बहुत सम्मानित और पति की प्यारी स्त्रियां हैं जिनकी सदा अच्छी तरह रखवाली की जाती है वह भी घर में आने वाले कुबड़ो, अन्धो  गूगों और बौनों के साथ भी फस जाती है।

यदिपुंसां गतिर्ब्रह्मन् कथंचिन्नोपपद्यते।
अप्यन्योन्यं प्रवर्तन्ते न हि तिष्ठन्ति भर्तृषु।22।

ब्राह्मण यदि स्त्रियों को पुरुषों की प्राप्ति किसी प्रकार भी संभव ना हो और पति भी दूर गए हो तो भी आपस में ही कृत्रिम उपायों से ही मैथुन में प्रवृत्त हो जाती हैं

चलस्वभावा दु:सेव्या दुर्ग्राह्या भावतस्था।
प्राज्ञस्य पुरुषस्येह यथा वाचस्तथा स्त्रिय: ।24।

स्त्रियों का स्वभाव चंचल होता है उनका सेवन बहुत ही कठिन काम है इनका भाव जल्दी ही किसी के समझ में नहीं आता ठीक उसी तरह जैसे विद्वान पुरुष की वाणी दुर्बोध  होती है

नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधि:।
नान्तक: सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना।25।

अग्नि कभी ईंधन से तृप्त नहीं होती समुंद्र कवि नदियों से तृप्त नहीं होता मृत्यु समस्त पारियों को एक साथ आ जाए तो भी उनसे प्राप्त नहीं होती इसी प्रकार सुंदर नेत्रा वाली युवतियां पुरुषों से कभी तृप्त नहीं होती

इदमन्यच्च देवर्षे रहस्यं सर्वयोषिताम् ।
दृष्टैव पुरुषं हृद्यं यौनि: प्रक्लिद्यते स्त्रिया:।26।

देव ऋषि संपूर्ण रमणिया के संबंध में दूसरी भी रहस्य की बात यह कि किसी मनोरम पुरुष को देखते ही स्त्री की यौनि गीली हो जाती है

न कामभोगान् विपुलान् नालंकारान् न संश्रयान्।
तथैव बहु मन्यन्ते यथा रत्यामनुग्रहम्।28।

काम भोग की प्रचुर सामग्री को ना अच्छे-अच्छे गहनों को और ना उत्तम घरों को ही उतना अधिक महत्व देती हैं जैसा कि रती के लिए किए गए अनुग्रह को

अन्तक: पवनो मृत्यु: पातालं वडवामुखम्।
क्षुरधारा विषं  सर्पो वह्निरित्येकत: स्त्रिय: ।29।

यमराज वायु, मृत्यु पाताल,बड़वानल,क्षुरे की धार,विष, सर्प और अग्नि– यह सब विनाश की हेतु एक तरफ और स्त्रियां अकेली एक तरफ बराबर है

एता हि रममाणास्तु वञ्चयन्तीह मानवान्।
न चासां मुच्यते कश्चित् पुरुषो हस्तमागत: ।।5।

यह रमण करती हुई भी यहां पुरुषों को उठती रहती हैं इनके हाथ में आया हुआ कोई भी पुरुष इनसे बचकर नहीं जा सकता

गावो नव तृणानीव गृह्णन्त्येता नवंनवम् ।
शम्बरस्य च माया माया या नमुचेरपि ।6।
बले: कुम्भीनसेश्चैव सर्वास्ता योषितो विदु:।

जैसे गाय नई-नई घास चरती है उसी प्रकार यह नारिया भी नए-नए पुरुषों को अपनाती रहती हैं शंबरासुर की जो  माया है तथा नमुचि की बलि और कुंभीनसी की जो मायाएं हैं उन सब को यह युवतियां जानती हैं

स्त्रीणां बुद्ध्यर्थनिष्कर्षादर्थशास्त्राणि शत्रुहन्।10।
बृहस्पति प्रभृतिभिर्मन्ये सद्भि: कृतानि वै।

शत्रुघाती नरेश मुझे तो ऐसा लगता है कि स्त्रियों बुद्धि में जो अर्थ भरा है उसी का निष्कर्ष यानी सारांश लेकर बृहस्पति आदि सतपुरुषों ने नीति शास्त्रों की रचना की है

न हि स्त्रीभ्य परं पुत्र! पापीय: किञ्चिदस्ति वै ।
अग्निर्हि प्रमदा दीप्तो मायाश्च मयजा विभो।4।

वत्स ! स्त्रियों से बढ़कर पापिष्ठ दूसरा कोई नहीं है
यौवन मद में उन्मत्त रहने वाली स्त्रियां वास्तव में जलती हुई अग्नि के समान है प्रभु वे मय दानव की रची हुई माया है

न च स्त्रीणां क्रिया: काश्चिदिति धर्मो व्यवस्थित:।11।
निरिन्द्रिया ह्यशास्त्राश्च स्त्रियो८नृतमिति श्रुति: ।
शय्यासनमलं कारमन्नपानमनार्यताम्।12।
दुर्वाग्भावं रतिं चैव ददौ स्त्रीभ्य: प्रजापति।

स्त्रियों के लिए किन्ही वैदिक कर्मों के करने का विधान नहीं है यही धर्म शास्त्र की व्याख्या है स्त्रियां इंद्रीशून्यहैं अर्थात वे अपनी इंद्रियों को वश में रखने में असमर्थ हैं इसलिए शास्त्र ज्ञान से रहित हैं और असत्य की मूर्ति हैं ऐसा उनके विषय में श्रुति का कथन है प्रजापति ने स्त्रियों को सैय्या आसन अलंकार पान अनार्यता दुर वचन प्रियता तथा रति प्रदान की है।

महाभारत में अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में पृष्ठ संख्या- 5614 पर बैमेल विवाह का वर्णन है।

त्रिंशद्वर्षो दशवर्षो भार्यो विन्देत नग्निकाम्।
एकविंशतिवर्षो वा सप्तवर्षामवाप्नुयात्।14।

30 वर्ष का पुरुष 10 वर्ष की कन्याओं को जो रजस्वला ना हुई हो पति रूप में प्राप्त करें अथवा 21 वर्ष का पुरुष 7 वर्ष की कुमारी के साथ विवाह करें
इसी प्रकार का वर्णन मनुस्मृति में भी प्राप्त होता है जिसका समर्थन महर्षि दयानंद ने किया है।

ये च क्रीणन्ति दासीं च विकीर्णन्ति तथैव च।
भवेत् तेषां तथा निष्ठा लुब्धानां पापचेतसाम् ।47।

जो दासियों को खरीदते और भेजते हैं वह लोग ही और पाप आत्मा है ऐसे ही लोगों में पत्नी को भी खरीदने और बेचने की निष्ठा होती है।

स्त्रियो यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।5।
अपूजिताश्च यत्रैता: सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।

जहां स्त्रियों का आदर सत्कार होता है वहां देवता लोग प्रसन्नता पूर्वक निवास करते हैं तथा जहां उनका अनादर होता है वहां की सारी क्रिया निष्फल हो जाती है

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।
पुत्राश्च स्थाविरे भावे न स्त्री भवति भारत।।15।

कुमार अवस्था में स्त्री की रक्षा उसका पता करता है जवानी में पति उसका रक्षक है और वृद्धावस्था में पुत्र गढ़ उसकी रक्षा करते हैं अतः स्त्री को कभी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए

महाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व पृष्ठ संख्या- 5620।



उस घटना के अनुसार आज से चार से पाँच हज़ार वर्ष पूर्व (महाभारत काल में) पश्चिम एशिया में, जहाँ आज ईराक़, ईरान, टर्की, जॉर्डन आदि देश हैं वहाँ, असीरिया नाम का साम्राज्य था | वहाँ के निवासियों को असीरियन कहा जाता था |


असीरिया की राजधानी बेबीलोन (Babylon) थी | आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार असीरियन लोग बहुत क्रूर हुआ करते थे | युद्धबंदियों को वो हाँथ-पैर बाँध कर लोहे के पिंजड़ों में बंद कर देते थे फिर उनके साथ अमानवीय बर्ताव जैसे उनकी आँखें फोड़ देना, उनका अंग-भंग कर देना, इत्यादि वहां के प्रसिद्ध खेल हुआ करते थे और सबसे बड़ी बात इन सब कार्यों में उनके बच्चे भी आनंदित हुआ करते थे और बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे |


खुद को असीरियन लोग ‘असुर’ (Assur) कहा करते थे | ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथो जैसे महाभारत आदि में जिस असुर जाति का उल्लेख मिलता है वो यही थे | उस जगह की खुदाई से प्राप्त अन्य जानकारियाँ भी इसी तरफ इशारा करती हैं | जैसे असीरियन साम्राज्य के प्रसिद्ध राजाओं के नाम, ‘असुर नरम सिन’, ‘असुर नासिरपाल’, ‘असुर बनिपाल’ आदि भारतीय भाषा के नाम जैसे प्रतीत होते हैं |

पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप।
स्त्रियो यत्र च पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।।(13-81-5)

अपूजिताश्च यत्रैताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
तदा चैतत्कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः।।(13-81-6)


पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्चस्थाविरेभावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।।(13-81-14)

। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि 
दानधर्मपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81 ।।
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त्रिंशद्वर्षो दशवर्षां भार्यां विन्देत नग्निकाम्।
एकविंशतिवर्षो वा सप्तवर्षामवाप्नुयात्।।१४।
(महाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानपर्वधर्ममें 
विवाहधर्मकावर्णन विषयक चौ वाली वाँ अध्याय)

कन्‍या को, जो रजस्‍वला न हुई हो, पत्‍नी रूप में प्राप्‍त करे अथवा इक्‍कीस वर्ष का पुरुष सात वर्ष की कुमारी के साथ विवाह करे।१४।

मनुस्मृति में भी वर्णन है -

त्रिंशद्वर्षो वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् ।त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ।।
(9/94 मनुस्मृति)

9/90 श्लोक में मनु ने ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष तक विवाह का निषेध किया है और विवाह की आयु वर की 30 वर्ष और कन्या की 12 वर्ष, वर की 24 वर्ष और कन्या की आठ वर्ष का विधान भी मूढ़ता पूर्ण है ।

त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती ।ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम् ।। 
(मनुस्मृति 9/90)
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स्त्रीयों के विषय में धर्म-शास्त्र का विधान ---

असम ता मूलक वे असंवेदनात्मक था ।

पहले तो ऋषि स्त्रीयों से अपने शरीर की मालिश कराते थे ।
और -जब ऋण-धन आवेशों की प्रतिक्रिया स्वरूप
उत्तेजित हो स्खलित  जाते तो नारीयों की निन्दा करने लगते !


 इस में नारी का क्या दोष था ?

महाभारत के अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व बीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या -5540 पर👇
मुनि अष्टावक्र के माध्यम से महाभारत लिखने वाला  वर्णन करता है।
अनुज्ञाता च मुनिना सा स्त्री तेन महात्मना।
अथास्य तैलेनांगानि सर्वाण्येवाभ्यमृक्षत।। 2।

फिर महात्मा मुनि की आज्ञा लेकर उस स्त्री ने उनके सारे अंगों में  तेल की मालिश की।।2।

आगे वर्णन है कि स्त्रीयों को कभी स्वतन्त्र मत करो
वे हमेशा बन्धन में रहें यही धर्म-शास्त्रों का विधान है।

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पुरुष मानसिकता ने केवल स्त्रीयों की मर्यादाओं को लेकर --जो विधान बनाए वे पुरुषों की भावी उपभोग सुविधा को लक्ष्य करके बनाए गये।

मुझे तो ये लगता है कि स्त्रीयों के आभूषणों में भी उनके पूर्व कालिक बन्धन-श्रृखलाओं के स्वरूप ही विद्यमान हैं ।


असीरियन संस्कृति में तो इसकी झलक मिलती हैआभूषण नथ कुण्डल आदि इसके प्रतीक ही हैं ।कालान्तर में रूढ होकर ये ही स्त्रियों के श्रँगार बन गये ।


 ये आभूषण तो बाद में बन गये ये  ये स्त्रीयों के सौन्दर्य प्रसाधक हों  मुझे नहीं लगता ?

 क्यों सैमेटिक संस्कृतियों में स्त्री स्वतन्त्रता को यहूदियों ने तो सम्मान दिया परन्तु अरब में बन्दिशों के विधान या शरीयत ब्राह्मणों के स्मृति-ग्रन्थों के समान है ।


आभीर संस्कृति में स्त्रीयों की स्वतन्त्रता की रक्षा थी ।
उनकी हल्लीषम् नृत्य संस्कृति --जो कालान्तरण में यूनानीयों के प्रभाव से रास में परिवर्तित हुई ।


स्त्रीयों की ललितकलात्मक अभिव्यक्ति थी ।
जिसमें कामुकता का भाव कदापि नहीं था।

महिलाओं के आभूषणों में उनकी नथुनी और कुण्डल उनके बन्धनो के ध्वंषावषेश हैं 

अष्टावक्र के माध्यम से महाभारत कार कहता है ।

 कि- "स्वतन्त्रा त्वं कथं भद्रे ब्रूहि कारणमत्र वै ।
नास्ति त्रिलोके स्त्री काचिद् या वै स्वातन्त्र्यमर्हति।20।
भद्रे तुम स्वतन्त्र कैसे हो इसमें जो कारण हो वह बताओ तीनों लोकों में कोई ऐसी स्त्री नहीं जो स्वतन्त्र  रहने योग्य हो ।20।

महाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में पृष्ठ संख्या-5542 पर गीता प्रेस संस्करण ।
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पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे काले नास्ति स्त्रीणां स्वतन्त्रता।21।
      दौनों श्लोकों की तुलना करें !👇

मनु स्मृति में भी ये ही श्लोक हैं ।
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।               
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ||        - (मनुःस्मृति 9/3 अध्याय/श्लोक )

कुमार अवस्था में पिता रक्षा करते हैं, जवानी में वह पति के संरक्षण में रहती है और बुढ़ापे में पुत्र उसकी देखभाल करते हैं; इस प्रकार स्त्रियों के लिए स्वतन्त्रता नहीं है।21
मनुःस्मृति और महाभारत की रचना करने वाले समान लेखक रहे हैं ।


मनुःस्मृति में यह श्लोक - 9/3 अध्याय/श्लोक )
और इनका समय भी समान महात्मा बुद्ध का परवर्ती काल खण्ड ई०पू० द्वितीय सदी है ।
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अस्वतन्त्राः स्त्रियःकार्याःपुरुषैः स्वैर्दिवानिशम्  | 
विषयेषु च सज्जन्त्यः  संस्थाप्या  आत्मनो वशे   ||  (मनुःस्मृति 9/2अध्याय/श्लोक)

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।               
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति  ||        - (मनुःस्मृति 9/3 अध्याय/श्लोक )

भावार्थ :-मनुष्य स्त्रियों को स्वतन्त्रता कदापि न दे । विषयासक्त स्त्रियों को भी स्ववश में ही रखने का सतत प्रयत्न करे !

स्त्री कभी भी स्वतन्त्र नहीं रखने  योग्य है ।
बचपन में पिता , यौवन में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र  उसकी रक्षा करे ।

( उपर्युक्त दोनों श्लोक वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों के सन्दर्भों में
अपनी सार्थकता समाप्त कर चुके हैं ।
क्यों कि स्त्रीयों ने प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष से आगे बढ़कर दिखा दिया है ।

  ये श्लोक यही सिद्ध करते हैं कि विगत काल में
में हमारा पुरुष सत्तात्मक समाज था , तथा  स्त्रियों को आर्थिक और सामाजिक स्तर स्वतन्त्रता नहीं देता था ।
उन्हें पढ़ने कीभी अघिकार नहीं था । इसलिए वे गुलामी की जिन्द़गी जी रही थीं ।

फिर भी 'मनु:स्मृति' में तत्कालीन समाज
के नियमन के जो सूत्र है , उनमें अनेकानेक वर्तमान समय में भी उतने ही
सार्थक हैं जैसे वे पहले थे ।
अतः उसे एक  ऐतिहासिक ग्रन्थ के रूप में ले
कर उस से मार्गदर्शन  प्राप्त कर सकते हैं )
महाभारत और मनुःस्मृति समान लेखकों के समूह की रचनाऐं हैं।
और इनका समय ई०पू० द्वितीय सदी है ।

महाभारत कार यहीं तक नहीं ठहरा  उसने भीष्म के माध्यम से स्त्रीयों के विषय में वर्णन किया है ।👇

भीष्म जी ने कहा राजन इस विषय में देवर्षि नारद का अप्सरा पंचकूला के साथ जो संवाद हुआ था !
उसी प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है पहले की बात है संपूर्ण लोकों में विचरतेे हुए देवर्षि नारद ने एक दिन ब्रह्मलोक की अत्यंत सुंदर अप्सरा पंचकूला को देखा और कहा !
क्या कहा देखें--- नीचे
'महा भारत में वर्णन है 👇
दृष्टं स्त्रीचापलं च ते
स्थविराणामापि स्त्रीणां बाधते मैथुन ज्वर:।5।
( स्त्रीयाँ बूढ़ी हो जाने पर भी मैथुन ज्वर से पीड़ित रहती हैं।
वस्तुत "कामीस्वतां पश्यति "
अर्थात्‌ कामी भोगी रोगी अपने समान सबको देखता है
उसी सिद्धान्त के अनुसार इन ब्राह्मणों ने महिलाओं की निन्दा की

महाभारत के अनुशासनपर्व  के अड़तीसवें अध्याय को स्त्रीनिन्दा पर्व कहना उचित होगा।

स्त्रीणां स्वभावमिच्छामि श्रोतुं भारतसत्तम।
स्त्रीयो हि मूलं दोषाणां लघुचित्ता हि ता: स्मृता ।1।

युधिष्ठर ने कहा - भरत -श्रेष्ठ ! मैं स्त्रीयों के स्वभाव का वर्णन सुनना चाहता हूँ।

क्यों कि सारे दोषों की जड़ स्त्रियां ही हैं ।1।
--जो युधिष्ठर द्रोपदी को जुए में हार कर भी स्त्रीयों को सारे दोषों की जड़ कहता हो ।
ये बात कितनी औचित्य पूर्ण है !
विचार करना चाहिए!
आगे महाभारत में वर्णन है👇

न स्त्रीभ्य: किञ्चिदन्यद् वै पापीयस्तरमस्ति वै ।
स्त्रीयो हि मूलं दोषाणां तथा त्वमपि वेत्थ ह ।12।

स्त्रियों से बढ़कर कोई पापी दूसरा नहीं है स्त्रियां सारे दोषों की जड़ है इस बात को आप भी अच्छी तरह जानते हैं।12।

असद्धर्मस्त्वयं स्त्रीणामस्माकं भवति प्रभो।
पापीयसो नरान् यद् वै लज्जां त्यक्त्वा भजामहे।14।

प्रभु हम स्त्रियों में यह सबसे बड़ा पाठक है कि हम पापी से पापी पुरुषों को भी ला छोड़ कर स्वीकार कर लेती हैं

स्त्रियं हि य: प्रार्थयते संनिकर्षं च गच्छति।
ईषच्च कुरुते सेवां तमेवेछन्ति योषित: ।15।

जो पुरुष किसी स्त्री को चाहता है उसके निकट तक पहुंचता है और उसकी थोड़ी सी सेवा कर देता है उसी को युवतियाँ चाहने लगती हैं

यौवने वर्तमानानां मृष्टाभरणवाससाम्।
नारीणां स्वा़ैरवृत्तीनां स्पृहयन्ति कुलस्त्रिय: ।19

जो जवान है सुंदर गहने और अच्छे कपड़े पहनते हैं ऐसी स्वेच्छाचारी स्त्रियों के चरित्र को देखकर कितनी ही कुलपति स्त्रियां भी वैसी ही बनने की इच्छा करने लगती हैं।

याश्च शश्वद् बहुमता रक्ष्यन्ते दयिता स्त्रिय: ।
अपि ता: सम्प्रज्जन्ते कुब्जान्धजडवामनै:।20।

जो बहुत सम्मानित और पति की प्यारी स्त्रियां हैं जिनकी सदा अच्छी तरह रखवाली की जाती है वह भी घर में आने वाले कुबड़ो, अन्धो  गूगों और बौनों के साथ भी फस जाती है।

यदिपुंसां गतिर्ब्रह्मन् कथंचिन्नोपपद्यते।
अप्यन्योन्यं प्रवर्तन्ते न हि तिष्ठन्ति भर्तृषु।22।

ब्राह्मण यदि स्त्रियों को पुरुषों की प्राप्ति किसी प्रकार भी संभव ना हो और पति भी दूर गए हो तो भी आपस में ही कृत्रिम उपायों से ही मैथुन में प्रवृत्त हो जाती हैं

चलस्वभावा दु:सेव्या दुर्ग्राह्या भावतस्था।
प्राज्ञस्य पुरुषस्येह यथा वाचस्तथा स्त्रिय: ।24।

स्त्रियों का स्वभाव चंचल होता है उनका सेवन बहुत ही कठिन काम है इनका भाव जल्दी ही किसी के समझ में नहीं आता ठीक उसी तरह जैसे विद्वान पुरुष की वाणी दुर्बोध  होती है

नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधि:।
नान्तक: सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना।25।

अग्नि कभी ईंधन से तृप्त नहीं होती समुंद्र कवि नदियों से तृप्त नहीं होता मृत्यु समस्त पारियों को एक साथ आ जाए तो भी उनसे प्राप्त नहीं होती इसी प्रकार सुंदर नेत्रा वाली युवतियां पुरुषों से कभी तृप्त नहीं होती

इदमन्यच्च देवर्षे रहस्यं सर्वयोषिताम् ।
दृष्टैव पुरुषं हृद्यं यौनि: प्रक्लिद्यते स्त्रिया:।26।

देव ऋषि संपूर्ण रमणिया के संबंध में दूसरी भी रहस्य की बात यह कि किसी मनोरम पुरुष को देखते ही स्त्री की यौनि गीली हो जाती है

न कामभोगान् विपुलान् नालंकारान् न संश्रयान्।
तथैव बहु मन्यन्ते यथा रत्यामनुग्रहम्।28।

काम भोग की प्रचुर सामग्री को ना अच्छे-अच्छे गहनों को और ना उत्तम घरों को ही उतना अधिक महत्व देती हैं जैसा कि रती के लिए किए गए अनुग्रह को

अन्तक: पवनो मृत्यु: पातालं वडवामुखम्।
क्षुरधारा विषं  सर्पो वह्निरित्येकत: स्त्रिय: ।29।

यमराज वायु, मृत्यु पाताल,बड़वानल,क्षुरे की धार,विष, सर्प और अग्नि– यह सब विनाश की हेतु एक तरफ और स्त्रियां अकेली एक तरफ बराबर है

एता हि रममाणास्तु वञ्चयन्तीह मानवान्।
न चासां मुच्यते कश्चित् पुरुषो हस्तमागत: ।।5।

यह रमण करती हुई भी यहां पुरुषों को उठती रहती हैं इनके हाथ में आया हुआ कोई भी पुरुष इनसे बचकर नहीं जा सकता

गावो नव तृणानीव गृह्णन्त्येता नवंनवम् ।
शम्बरस्य च माया माया या नमुचेरपि ।6।
बले: कुम्भीनसेश्चैव सर्वास्ता योषितो विदु:।

जैसे गाय नई-नई घास चरती है उसी प्रकार यह नारिया भी नए-नए पुरुषों को अपनाती रहती हैं शंबरासुर की जो  माया है तथा नमुचि की बलि और कुंभीनसी की जो मायाएं हैं उन सब को यह युवतियां जानती हैं

स्त्रीणां बुद्ध्यर्थनिष्कर्षादर्थशास्त्राणि शत्रुहन्।10।
बृहस्पति प्रभृतिभिर्मन्ये सद्भि: कृतानि वै।

शत्रुघाती नरेश मुझे तो ऐसा लगता है कि स्त्रियों बुद्धि में जो अर्थ भरा है उसी का निष्कर्ष यानी सारांश लेकर बृहस्पति आदि सतपुरुषों ने नीति शास्त्रों की रचना की है

न हि स्त्रीभ्य परं पुत्र! पापीय: किञ्चिदस्ति वै ।
अग्निर्हि प्रमदा दीप्तो मायाश्च मयजा विभो।4।

वत्स ! स्त्रियों से बढ़कर पापिष्ठ दूसरा कोई नहीं है
यौवन मद में उन्मत्त रहने वाली स्त्रियां वास्तव में जलती हुई अग्नि के समान है प्रभु वे मय दानव की रची हुई माया है

न च स्त्रीणां क्रिया: काश्चिदिति धर्मो व्यवस्थित:।11।
निरिन्द्रिया ह्यशास्त्राश्च स्त्रियो८नृतमिति श्रुति: ।
शय्यासनमलं कारमन्नपानमनार्यताम्।12।
दुर्वाग्भावं रतिं चैव ददौ स्त्रीभ्य: प्रजापति।

स्त्रियों के लिए किन्ही वैदिक कर्मों के करने का विधान नहीं है यही धर्म शास्त्र की व्याख्या है स्त्रियां इंद्रीशून्यहैं अर्थात वे अपनी इंद्रियों को वश में रखने में असमर्थ हैं इसलिए शास्त्र ज्ञान से रहित हैं और असत्य की मूर्ति हैं ऐसा उनके विषय में श्रुति का कथन है प्रजापति ने स्त्रियों को सैय्या आसन अलंकार पान अनार्यता दुर वचन प्रियता तथा रति प्रदान की है।

महाभारत में अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में पृष्ठ संख्या- 5614 पर बैमेल विवाह का वर्णन है।

त्रिंशद्वर्षो दशवर्षो भार्यो विन्देत नग्निकाम्।
एकविंशतिवर्षो वा सप्तवर्षामवाप्नुयात्।14।

30 वर्ष का पुरुष 10 वर्ष की कन्याओं को जो रजस्वला ना हुई हो पति रूप में प्राप्त करें अथवा 21 वर्ष का पुरुष 7 वर्ष की कुमारी के साथ विवाह करें
इसी प्रकार का वर्णन मनुस्मृति में भी प्राप्त होता है जिसका समर्थन महर्षि दयानंद ने किया है।

ये च क्रीणन्ति दासीं च विकीर्णन्ति तथैव च।
भवेत् तेषां तथा निष्ठा लुब्धानां पापचेतसाम् ।47।

जो दासियों को खरीदते और भेजते हैं वह लोग ही और पाप आत्मा है ऐसे ही लोगों में पत्नी को भी खरीदने और बेचने की निष्ठा होती है।

स्त्रियो यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।5।
अपूजिताश्च यत्रैता: सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।

जहां स्त्रियों का आदर सत्कार होता है वहां देवता लोग प्रसन्नता पूर्वक निवास करते हैं तथा जहां उनका अनादर होता है वहां की सारी क्रिया निष्फल हो जाती है

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।
पुत्राश्च स्थाविरे भावे न स्त्री भवति भारत।।15।

कुमार अवस्था में स्त्री की रक्षा उसका पता करता है जवानी में पति उसका रक्षक है और वृद्धावस्था में पुत्र गढ़ उसकी रक्षा करते हैं अतः स्त्री को कभी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए

महाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व पृष्ठ संख्या- 5620।



असुर लोग बड़े वीर और कठोर तथा अनुशासन के दृढ़निश्चयी होते थेे; अपने विजित शत्रओं को ये ओष्ठ और नासिका उच्छेदन कर उनमें रस्सियाँ बाँधकर पशुओं की तरह हाँक कर लाते थे ।

 कालान्तरण में जब पुरुष ने स्त्रीयों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया तो उसे नथकर अथवा नकेल डालकर उसे बाँध लिया तबसे वह वधु संज्ञा से अभिहित हुई ।

पति की (नाथ) संज्ञा के मूल में भी यही भाव निहित है 

भगवत शरण उपाध्याय ने भारतीय संस्कृति के श्रोत में असीरिया की संस्कृति से ये तथ्य उद्धृत किया है ।
 
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में ४८ वें सर्ग में -
"पादच् चाया सुखा भर्तुस् तादृशस्य महात्मनः।
स हि नाथो जनस्य अस्य स गतिः स परायणम्॥१७।
(२-४८-१७ वाल्मीकी रामायण) 

संस्कृत कोश ग्रन्थों में  (नाथति  पतिर्भवतीति) । 
१-पति: २- ईशः ३ नेता ४ परिवृढः ५ अधिभूः  ६ वर: ७ इन्द्रः ८ स्वामी ९ आर्य्यः १० प्रभुः  ११ भर्त्ता १२ ईश्वरः १३ विभुः १४ ईशिता १५  इनः १६ नायकः १७ । इति हेमचन्द्रः । ३ । २३ ॥ 


यद्यपि णह् बन्धने बने च के रूप में नह् धातु से निष्पन्न है( नह्यते येेेन स: नाथ: )जो वधु को जीवन सूत्र में बाँध कर लाता है वह नाथ: है । 

घटना के अनुसार आज से चार से पाँच हज़ार वर्ष पूर्व (महाभारत काल में) पश्चिम एशिया में, जहाँ आज ईराक़, ईरान, टर्की, जॉर्डन आदि देश हैं वहाँ, असीरिया नाम का साम्राज्य था | वहाँ के निवासियों को असीरियन कहा जाता था |


असीरिया की राजधानी बेबीलोन (Babylon) थी | आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार असीरियन लोग बहुत क्रूर हुआ करते थे | युद्धबंदियों को वो हाँथ-पैर बाँध कर लोहे के पिंजड़ों में बंद कर देते थे फिर उनके साथ अमानवीय बर्ताव जैसे उनकी आँखें फोड़ देना, उनका अंग-भंग कर देना, इत्यादि वहां के प्रसिद्ध खेल हुआ करते थे और सबसे बड़ी बात इन सब कार्यों में उनके बच्चे भी आनंदित हुआ करते थे और बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे |


खुद को असीरियन लोग ‘असुर’ (Assur) कहा करते थे | ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथो जैसे महाभारत आदि में जिस असुर जाति का उल्लेख मिलता है वो यही थे | उस जगह की खुदाई से प्राप्त अन्य जानकारियाँ भी इसी तरफ इशारा करती हैं | जैसे असीरियन साम्राज्य के प्रसिद्ध राजाओं के नाम, ‘असुर नरम सिन’, ‘असुर नासिरपाल’, ‘असुर बनिपाल’ आदि भारतीय भाषा के नाम जैसे प्रतीत होते हैं |


अंगूठी और मंगलसूत्र के बाद नथ हिंदू धर्म में तीसरा महत्त्वपूर्ण प्रतीक है जिसका प्रचलन मुसलमानों में भी है लेकिन अब सम्भवत: सभी धर्म में इसका प्रयोग होने लगा है। नथ के संबंध में कहा जाता है कि इसे कन्या को सात फेरे से पहले पहनाया जाता है। मुस्लिम में तो इसे अनिवार्य माना जाता है। नथ को किसी भी धार्मिक उत्सव पर सुहागन द्वारा धारण किया जाता है। इस प्रकार नथ के सबंध में पौराणिक मान्यता के अलावा कुछ वैज्ञानिक कारण भी है। इससे कन्या में खुशबु की क्षमता बढ़ती है। नथ का प्रचलन उत्तर प्रदेशमध्य प्रदेशराजस्थानपंजाबपश्चिम बंगालजम्मू और कश्मीर में देखा जाता है। जहाँ इसे कई नाम से जाना जाता है।[1]



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