सर्पस्पर्शसमाः केचित्तथाऽन्ये मकरस्पृशः।
विभाष्य घातिनः केचित्तथा चक्षुर्हणोऽपरे।।13-70-17।
•कुछ ब्राह्मण विषधर सर्प के समान तो कुछ मकर के समान भयंकर होते हैं और कुछ आँखों को जोड़ने वाले वि भाष्य घाती ।
सन्ति चाशीविषसमाः सन्ति मन्दास्तथाऽपरे।
विविधानीह वृत्तानि ब्राह्मणानां युधिष्ठिर।।13-70-18।
• और कुछ विष खाने वाले के समान और अन्य मन्द स्वभाव के भी होते हैं।
युधिष्ठिर! इस जगत में ब्राह्मणों के स्वभाव और आचार-व्यवहार अनेक प्रकार के हैं।
मेकला द्राविडा लाटाः पौण्ड्राः कान्वशिरास्तथा।
शौण्डिका दरदा दार्वाश्चोराः शबरबर्बराः।।13-70-19।
• मेकल, द्रविड़, लाट, पौण्ड, कान्वशिरा, शौण्डिक, दरद, दार्व, चौर, शबर,में यह्बर,।
किराता यवनाश्चैव तास्ताः क्षत्रियजातयः।
वृषत्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात्।।13-70-20।
• किरात और यवन- ये सब सब पहले क्षत्रिय ही थे; किंतु ब्राह्मणों के साथ ईर्ष्या करने से ये सब नीच हो गये।
• ब्राह्मणानां परिभवादसुराः सलिलेशयाः।
ब्राह्मणानां प्रसादाच्च देवाः स्वर्गनिवासिनः।।13-70-21।
• ब्राह्मणों के तिरस्कार से ही असुरों को समुद्र में सोने वाला होना पड़ा और ब्राह्मणों के कृपा प्रसाद से देवता स्वर्गलोक में निवास करने वाले हुए।
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(महाभारत अनुशासन पर्व अन्तर्गत दानधर्म पर्व नामक उपपर्व का 70 वाँ अध्याय निर्णय सागर प्रेस मुम्बई )
गीताप्रेस में यह 35 वाँ अध्याय और श्लोक संख्या१५-१६-१७-१८ पर देखें
तात्पर्य यह कि ब्राह्मणों के खिलाफ बगावत करने वाले
इनके द्वारा शूद्र और म्लेच्छ वना दिये गये
चोर और दस्यु तथा राक्षस असुर यक्ष जैसी जनजातियां
ब्राह्मण से पंगा लेने के कारण से नंगा हो गयीं
अन्यथा राक्षस भी धर्म तत्व को जानने वाले
महान पुण्य करने वाले तथा यज्ञ करने वाले ही थे।
अवध्यां स्त्रियमित्याहुर्धर्मज्ञा धर्म निश्चये ।
धर्मज्ञान् राक्षसाहुर्नहन्यात् स च मामपि।३१।।
धर्मज्ञ विद्वानों ने धर्म निर्णय के प्रसंग में नारीयों को अवध्या बताया ।
राक्षसों को भी लोग धर्मज्ञ कहते हैं।
इस लिए सम्भव है ; कि राक्षस भी मुझे स्त्री समझ कर न मारे ।३१।।
उपर्युक्त श्लोक
महाभारत आदि पर्व के बकवध नामक उप पर्व का 157 वाँ अध्याय है ।
संस्कृत कोश कारों ने पुण्यजन शब्द की गलत व्युत्पत्ति-की है।
ताकि साधारण जनता इसके उच्च अर्थ को न जान पाए
क्यों पुण्यजन राक्षस का विशेषण है ।
(पुण्यः विरुद्धलक्षणया पापी चासौ जनश्चेति
अर्थात् जो पुण्य के विरुद्ध लक्षण वाला पापी है वह जन " इस प्रकार व्याख्याऐं की परन्तु ये व्याख्या पूर्ण असंगत व व्युत्पत्ति विज्ञान के नियमों के विरुद्ध हैं )
पुण्यजन शब्द की सही व्युत्पत्ति इस प्रकार है ।👇
पुण्यानि कार्याणि येभि: कारयन्ते जना: इति पुण्यजना: अर्थात् जिनके द्वारा पुण्यकार्य किये जाने हैं वे जन पुण्यजन कहेजाते हैं ।
राक्षसः का अर्थ भी धर्म रक्षकों से है ।
तो फिर भक्षक को राक्षस कहना अनर्थ ही है ।
वत्स वैश्रवण कृत्वा यक्षै: पुण्यजनैस्तदा ।
दोग्धा रचतनामस्तु पिता मणिवरस्त य: ।।३३।(हरिवंशपुराण नवम अध्याय " वेन का विनाश और पृथु का जन्म )
अर्थात् इसके बाद पुण्यजन और यक्षों ने मृतक के कपाल में रुधिर रूप का दोहन किया।
उस समय सुमाली बछड़ा और रजतनाम दोग्धा हुआ।
ये वर्णन काल्पनिक रूप से रक्षसों को गलत दर्शाने के लिए पुराणों में किये गये ।
शब्द स्वयं ही अपना इतिहास कह रहा है।
परन्तु पुण्यजन का अर्थ होना चाहिए पुण्य करने वाला जन अर्थात् धर्मात्मा । परन्तु अच्छाई में भी बुराई देखना धूर्तों की दिव्य दृष्टि है ।
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